SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४] छक्खंडागमे खुदाबंधो [ २, ५, ११२. कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ११२॥ सुगमं । अणंता॥ ११३ ॥ एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । तिविहे अगते एककस्साबहारण?मुत्तरसुत्तं भणदि-- अणंताणंताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण ॥ ११४॥ एदेण परित्त-जुत्ताणताणं जहण्ण अगताणंतस्स य पडिसेहो कदो, एदेसु अणंताणतोसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो। दोसु अणंताणतेसु एक्कस्सावहारणमुत्तरसुत्तं भणदि खेत्तेण अणंताणंता लोगा ॥ ११५॥ एदेण बुक्कस्सअणंताणंतस्स पडिसेहो कदो, लोगणिदेसणहाणुववत्तीदो । सेसं सुगमं । कषायमार्गणाके अनुसार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकपायी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ।। ११२ ॥ यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त चारों कषायवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ॥ ११३ ॥ इस सूत्र द्वारा संख्यात व असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है ! अब तीन प्रकारके अनन्तमेसे एकके अवधारणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं उपर्युक्त चारों कषायवाले जीव कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणी और उत्सर्पिणियोंसे अपहन नहीं होते हैं ॥ ११४ ॥ - इस सूत्र द्वारा परीतानन्त, युक्तानन्त, और जघन्य अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, इनमें अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है। अब दो अनन्तानन्तोंमेंसे एकके अवधारणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं - उक्त चारों कषायवाले जीव क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ ११५ ॥ इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट अनन्तानन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, अन्यथा लोकनिर्देशकी उपपत्ति नहीं बनती। शेष सूत्रार्थ सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy