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________________ २, ७, १९०.] फोसणाणुगमे दसणमागणा [ ४३७ जदि लद्धिं पडुच्च अत्थि, केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥ १८७॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १८८ ॥ एदं सुगम, वट्टमाणप्पणादो। सव्वलोगो वा ॥ १८९ ॥ एदस्स अत्थो-देव-णेरइएहि सचक्खुतिरिक्ख-मणुस्सहिंतो चक्खुदंसणीसुप्पण्णेहि बारहचोद्दसभागा फोसिदा, लोगणालीए बाहिं चक्खुदंसणीणमभावादो, आणदादिउवरिमदेवाणं तिरिक्खेसुप्पादाभावादो च । एसो वासदत्थो । एइंदिएहितो सचक्खिदिएसु उप्पण्णेहि पढमसमए सबलोगो फोसिदो, आणंतियादो सयपदेसेहितो आगमणसंभवादो च । अचक्खुदंसणी असंजदभंगो ॥ १९० ॥ एसो दवट्टियणिदेसो । पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे अचक्खुदंसणिणो यदि लब्धिकी अपेक्षा चक्षुदर्शनी जीवोंके उपपाद पद है तो उनके द्वारा इस पदसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ।। १८७ ॥ यह सूत्र सुगम है। चक्षुदर्शनी जीवों द्वारा उपपाद पदसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ १८८॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, यहां वर्तमान कालकी विवक्षा है । अथवा, अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोक स्पृष्ट है ।। १८९ ॥ इस सूत्रका अर्थ-चक्षुदर्शनी तिर्यंच और मनुष्योंमेंसे चक्षुदर्शनियोंमें उत्पन्न हुए देव व नारकियों द्वारा बारह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, लोकनालीके बाहिर चक्षुदर्शनी जीवोंका अभाव है, तथा आनतादि उपरिम देवोंका तिर्यंचोंमें उत्पाद भी नहीं है। यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है । एकेन्द्रिय जीवों में से चाइन्द्रिय सहित जीवों में उत्पन्न हुए जीवों द्वारा प्रथम समयमें सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, वे अनन्त हैं तथा सर्व प्रदेशोसे उनके आगमनकी सम्भावना भी है। अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके समान है ॥ १९ ॥ यह कथन द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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