________________
२, ११, ७५.] अप्पाबहुगाणुगमे कायमगंगणा
( ५३९ एत्थ गुणगारो अभवसिद्धिएहिंतो सिद्धेहिंतो सत्यजीवाणं पढमवग्गमूलादो वि अणंतगुणो । कुदो ? गुणगारस्स सधजीवरासिअसंखेज्जदिमागत्तांदो । ण च अकाइया सव्वजीवाणं पढमवग्गमूलमेत्ता अन्थि, तस्स पढमयम मूलस्स अणंतभागत्तादो ।
सुहुमवणप्फदिकाइया असंखेज्जगुणा ॥ ७३ ॥ को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। सेमं सुगमं । वणफदिकाइया विसेसाहिया ॥ ७४ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? बादरवण फदिकाइयमेत्तो ।
अण्णेसु सुतेसु सव्वाइरियसंमदेसु एत्थेव अप्पाबहुगसमत्ती होदि, पुणो उवरिमअप्पाबहुगपयारस्स प्रारंभो । एन्थ पुग सुतेसु अप्पायहुगसमत्ती ण होदि ।
णिगोदजीवा विसेसाहिया ॥ ७५॥ एत्थ चोदगो भणदि-णि कलमेदं सुत्तं, वणफदिकाइएहितो पुधभूद
यहां गुणकार अभव्यसिद्धिको, सिद्धों और सर्व जीवों के प्रथम वर्गमूलसे भी अनन्तगुणा है, क्योंकि, गुणकार सर्व जीवराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । और अकायिक जीव सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलप्रमाण है नहीं, क्योंकि, वह प्रथम वर्गमूल अकायिक जीवों के अनन्तवें भाग प्रमाण है।
बादर वनस्पतिकायिकों से सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव असंख्यातगुणे हैं ॥७३॥ गुणकार कितना है ? असंख्यात लोकप्रमाग है । शास्त्रार्थ सुगम है । सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंसे वनस्पतिकायिक जीव विशेष अधिक हैं ॥ ७४ ॥ विशेष कितना है ? बादर वनस्पतिकायिक जीवों के बराबर है।
सर्व आचार्योंसे सम्मत अन्य सूत्रोंमें यहां ही अल्पवहुत्वकी समाप्ति होती है, पुनः आगेके अल्पवहुत्वप्रकारका प्रारम्भ होता है। परन्तु इन सूत्रों में अल्प बहुत्यकी यहां समाप्ति नहीं होती।
वनस्पतिकायिकोंसे निगोद जीव विशेष अधिक हैं ॥ ७५ ॥ शंका-यहां शंकाकार कहता है कि यह सूत्र निष्फल है, क्योंकि, वनस्पति
५ प्रतिषु ' समुद्देसु ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु — पुव्वभूद- ' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org