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________________ ५४.] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ११, ७५. णिगोदाणमणुवलंभादो । ण च वणप्फदिकाइएहिंतो पुधभूदा पुढविकाइयादिसु णिगोदा अस्थि त्ति आइरियाणमुवदेसो जेणेदस्स वयणस्स सुत्तत्तं पसज्जदे इदि ? एत्थ परिहारो बुच्चदे-होदु णाम तुम्भेहि वुत्तस्स सच्चत्तं, बहुएसु सुत्तेसु वणफदीणं उवरि णिगोदपदस्स अणुवलंभादो णिगोदाणमुवरि वणफदिकाइयाणं पढणस्सुवलंभादो बहुएहि आइरिएहि संमदत्तादों च । किं तु एवं सुत्तमेव ण होदि त्ति णावहारणं काउं जुतं । सो एवं भणदि जो चोद्दसपुव्वधरो केवलणाणी वा । ण च वट्टमाणकाले ते अत्थि, ण च तेसि पासे सोदणागदा वि संपहि उवलम्भंति । तदो थप्पं काऊण बे वि सुत्ताणि सुत्तासायणभीरूहि आइरिएहि वक्खाणेयव्याणि ति। णिगोदाणमुवरि वणप्फदिकाइया विसेसाहिया होति बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरमेत्तेण, वणप्फदिकाइयाणं उवरि णिगोदा पुण केण विसेसाहिया होति त्ति भणिदे वुच्चदे । तं जहा- वणप्फदिकाइया त्ति वुत्ते बादरणिगोदपदिद्विदापदिह्रिदजीवा ण घेतव्या। कुदो ? आधेयादो आधारस्स भेददसणादो । कायिक जीवोंसे पृथग्भूत निगोद जीव पाये नहीं जाते । तथा वनस्पतिकायिक जीवोसे पृथग्भूत पृथिवीकायिकादिकों में निगोद जीव हैं ' ऐसा आवार्योंका उपदेश भी नहीं है, जिससे इस वचनको सूत्रत्वका प्रसंग हो सके ? समाधान-यहां उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं- तुम्हारे द्वारा कहे हुए वचनमें भले ही सत्यता हो, क्योंकि, बहुतसे सूत्रोंमें वनस्पतिकायिक जीवोंके आगे 'निगोद' पद नहीं पाया जाता, निगोद जीवोंके आगे वनस्पतिकायिकोंका पाठ पाया जाता है, और ऐसा बहुतसे आचार्योंसे सम्मत भी है । किन्तु 'यह सूत्र ही नहीं है ' ऐला निश्चय करना उचित नहीं है । इस प्रकार तो वह कह सकता है जो कि चौदह पूर्वोका धारक हो अथवा केवलज्ञानी हो । परन्तु वर्तमान कालमें न तो वे दोनों है और न उनके पास में सुनकर आये हुए अन्य महापुरुष भी इस समय उपलब्ध होते हैं । अत एव सूत्रकी आशातना (छेद या तिरस्कार) से भयभीत रहनेवाले आचार्यों को स्थाप्य समझ कर दोनों ही सूत्रोंका व्याख्यान करना चाहिये । शंका-निगोद जीवोंके ऊपर वनस्पतिकायिक जीव बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर मात्रसे विशेषाधिक होते हैं, परन्तु वनस्पतिकायिक जीवोंके आगे निगोदजीव किससे विशेषाधिक होते हैं ? समाधान-उपर्युक्त शंकाका उत्तर इस प्रकार देते हैं- 'वनस्पतिकायिक जीव' ऐसा कहनेपर बादर निगोंदोंसे प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जीवोंका ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि, आधेयसे, आधारका भेद देखा जाता है। १ प्रतिषु — पदणस्सुवलंमादो ' इति पाठः। २ प्रतिषु — समुदत्तादो' इति पाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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