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________________ २, ७, १४९.1 फोसणाणुगमे मदि-सुदअण्णाणीणं फोसणं [१२५ एदं लोगपूरणफोसणं । सेसं सुगमं । उववादं णत्थि ॥ १४६ ॥ अच्चंताभावेण ओसारिदत्तादो । कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई णवंसयवेदभंगो॥ १४७ ॥ जहा णqसयवेदस्स अदीद-वट्टमाणकाले अस्सिदण परूविदं तथा एत्थ वि परूवेदव्वं, णस्थि एस्थ विसेसो। णवरि पदविसेसो जाणिय वत्तव्यो । वेउम्वियं वट्टमाणेण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अदीदेण अट्ठचोदसभागा देसूणा । अकसाई अवगदवेदभंगो ॥ १४८ ॥ सुगमं । णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी सत्थाण-समुग्धादउववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ १४९ ॥ यह लोकपूरणसमुद्घातको प्राप्त अपगतवेदियोंका स्पर्शन है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। अपगतवेदियोंके उपपाद पद नहीं होता ॥ १४६ ॥ क्योंकि, वह अत्यन्ताभावसे निराकृत है। कषायमार्गणानुसार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंकी प्ररूपणा नपुंसकवेदियोंके समान है ॥ १४७ ॥ जिस प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा अतीत व वर्तमान कालोंका आश्रयकर निरूपण किया है उसी प्रकार यहां भी निरूपण करना चाहिये, क्योंकि, यहां उससे कोई विशेषता नहीं है। विशेष इतना है कि पदोंकी विशेषता जानकर कहना चाहिये। वैक्रियिकसमुद्घातकी अपेक्षा वर्तमान कालसे तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अतीत कालसे कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन है। अकषायी जीवोंकी प्ररूपणा अपगतवेदियोंके समान है ॥ १४८॥ यह सूत्र सुगम है। ज्ञानमार्गणानुसार मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी जीवोंने स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥१४९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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