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________________ २, ७, २२६.] फोसणाणुगमे सम्मत्तमग्गणा [ ४४७ एदं देवसम्माइट्ठिणो अस्सिदण उत्तं । वासद्दो किमढ वुत्तो ? तिरिक्ख-मणुससम्माइट्ठिखेत्तसमुच्चयटुं । तं जहा- वेयण-कसाय-वेउव्विएहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; तेजाहारपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जस्स संखेज्जदिभागो; मारणंतिएण छचोद्दसभागा फोसिदा । एसो वासद्दसमुच्चिदत्थो । असंखेज्जा वा भागाचा ॥ २२५॥ एदं पदरगदकेवलिमस्सिदूण उत्तं । दंडगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एसो पढमवासद्देण समुच्चिदत्थो । कवाडगदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो तत्तो संखेज्जगुणो वा, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एसो बिदियवासद्दसमुच्चिदत्थो । एवं सव्वत्थ पदरगदकेवलिसुत्तट्ठियदोण्णं वासदाणमत्थो परूवेदव्यो । सव्वलोगो वा ॥ २२६ ॥ द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है । यह स्पर्शन क्षेत्र देव सम्यग्दृष्टियोंका आश्रयकर कहा गया है। शंका-सूत्रमें वा शब्दका ग्रहण किस लिये किया है ? समाधान-तिर्यंच और मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंके क्षेत्रका समुच्चय करनेके लिये सूत्रमें वा शब्दका ग्रहण किया है। वह इस प्रकार है-तिर्यंच व मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंके द्वारा वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदोंसे तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा; तैजस और आहारक पदोंसे चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपका संख्यातवां भाग; तथा मारणान्तिकसमुद्घातसे छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । यह वा शब्दसे संगृहीत अर्थ है । अथवा, असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्र स्पृष्ट है ।। २२५ ॥ यह कथन प्रतरसमुद्घातगत केवलीका आश्रयकर किया है । दण्डसमुद्घातगत केवलियों द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह प्रथम वा शब्दसे संगृहीत अर्थ है । कपाटसमुद्घातगत केवलियोंके द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग या उससे संख्यातगुणा, तथा अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह द्वितीय वा शब्दसे संगृहीत अर्थ है। इसी प्रकार सर्वत्र प्रतरसमुद्घातगत केवलियोंके स्पर्शनका निरूपण करनेवाले सूत्रोंमें स्थित दो वा शब्दोंका अर्थ करना चाहिये । अथवा, सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ २२६॥ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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