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________________ ४९२ ] जहणेण एगसमयं ॥ ५८ ॥ कुदो ? तिसु वि लोएसु उवसमसम्मा दिट्ठीणमेक्कम्हि समय अभावदंसणादो | उक्कस्सेण सत्तरादिंदियाणि ॥ ५९ ॥ रार्दिदियमिदि दिवसस्स सण्णा, अहोरतेहि मिलिएहि दिवसववहारदंसणादो । उवसमसम्मत्तस्स सत्तदिवसमेतमंतरं होदि त्ति वृत्तं होदि । एत्थ उपसंहारगाहा— सम्म सत्त दिणा विरदाविरदीए चोदस हवंति । विरदीसु अ पण्णरसा विरहिदकालो मुणेयत्रो ॥ १ ॥ छक्खंडागमे खुदाबंधो सासणसम्माइट्टि सम्मामिच्छाहट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ६० ॥ जाता हैं । [ २, ९, ५८. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर जघन्यसे एक समय है ।। ५८ ।। क्योंकि, तीनों ही लोकों में उपशमसम्यग्दृष्टियों का एक समय में अभाव देखा उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर उत्कर्ष से सात रात-दिन है ॥ ५९ ॥ रात्रिदिव' यह दिवसका नाम है, क्योंकि सम्मिलित दिन व रात्रिसे 'दिवस' का व्यवहार देखा जाता है । उपशमसम्यक्त्वका अन्तर सात दिवसमात्र होता है, यह उक्त कथनका निष्कर्ष है । यहां उपसंहारगाथा 6 Jain Education International उपशमसम्यक्त्वमें सात दिन, ( उपशमसम्यक्त्व सहित ) विरताविरति अर्थात् देशव्रत में चौदह दिन, और विरति अर्थात् महाव्रत में पन्द्रह दिन प्रमाण विरहकाल जानना चाहिये ॥ १ ॥ सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ६० ॥ यह सूत्र सुगम है । गो. नी. १४४० १ पढमुत्रसमस हिदाए विरदाविरदीए चोदसा दिवसा । विरदीए पण्णरसा विरहिदकालो दु बोडो ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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