________________
[ ७९
२, १, ३७.]
सामित्ताणुगमे वेदमग्गणा (चरित्तमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण इत्थि-पुरिस-णqसयवेदा ॥३७ ॥
चरित्तमोहणीयस्स उदएण होति त्ति सामण्णेण वुत्ते सव्वस्स चरित्तमोहणीयस्स उदएण तिण्हं वेदाणमुप्पत्ती पसजदे । ण च एवं, विरुद्धाणं तिण्हमेक्कदो उप्पत्तिविरोहादो । तदो णेदं सुत्तं घडदि त्ति ? ण, 'सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठंत' इति न्यायात् जइवि सामण्णेण वुत्तं तो वि विसेसोवलद्धी होदि त्ति, सामण्णादो चरित्तमोहणीयादो तिण्हं विरुद्धाणमुप्पत्तिविरोहादो । तदो इत्थिवेदोदएण इत्थिवेदो, पुरिसवेदोदएण पुरिसवेदो, णqसयक्मेदएण णqसयवेदो होदि त्ति सिद्धं ।
इत्थिवेददव्बकम्मजणिदपरिणामो किमित्थिवेदो वुच्चदि णामकम्मोदयजणिदथण-जहण-जोणिविसिट्टसरीरं वा । ण ताव सरीरमेथित्थिवेदो, ' चारित्तमोहोदएण वेदाणमुप्पत्तिं परूवेमो' त्ति एदेण सुत्तेण सह विरोहादो, सरीरीणमवगदवेदत्ताभावादो वा ।
• चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे जीव स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी होता है ।। ३७ ॥
शंका-'चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे स्त्रीवेदी आदिक होते हैं' ऐसा सामान्यसे कह देनेपर समस्त चारित्रमोहनीयके उदयसे तीनों वेदोंकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, परस्पर विरोधी तीनों वेदोंकी एक ही कारणसे उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । इसलिये यह सूत्र घटित नहीं होता?
___ समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, 'सामान्यतः एक रूपसे निर्दिष्ट किये गये भावोंकी आन्तरिक व्यवस्था विशेष विशेष रूपसे होती है। इस न्यायके अनुसार यद्यपि सामान्यसे वैसा कह दिया गया है, तथापि पृथक् पृथक् वेदोंकी पृथक् पृथक व्यवस्था पायी जाती है, क्योंकि, सामान्य चारित्रमोहनीयसे तीनों विरूद्ध वेदोंकी उत्पत्ति मानने में तो विरोध आता ही है। अतः स्त्रीवेदके उदयसे स्त्रीवेद उत्पन्न होता है, पुरुषवेदके उदयसे पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयसे नपुंसकवेद उत्पन्न होता है, ऐसा सिद्ध हुआ।
शंका-क्या स्त्रीवेद-द्रव्यकर्मसे उत्पन्न परिणामको स्त्रीवेद कहते हैं, या नामकर्मके उदयसे उत्पन्न स्तन, जघन, योनि आदिसे विशिष्ट शरीरको स्त्रीवेद कहते हैं ? शरीरको तो यहां स्त्रीवेद मान नहीं सकते, क्योंकि, वैसा माननेपर 'चारित्रमोहके उदयसे वेदोंकी उप्पत्तिका प्ररूपण करते हैं ' इस सूत्रसे विरोध आता है और शरीर सहित जीवोंके अपगतवेदत्वके अभावका भी प्रसंग आता है । प्रथम पक्ष भी माना नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org