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________________ अप्पा बहुगागमे सणिग्गणा वेद सम्माट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १९७ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । सम्माहट्टी विसेसाहिया ॥ १९८ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? उवसम- खइयसम्माइट्ठिमेत्तो । सिद्धा अनंतगुणा ॥ १९९ ॥ सुगमं । २, ११, २०२. ] सणियाणुवादेण सव्वत्थोवा सण्णी ॥ २०० ॥ कुदो ! पदरस्स असंखेज्जदिभागप्यमाणत्तादो । व सण्णी व असण्णी अनंतगुणा ॥ २०१ ॥ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो । कारणं सुगमं । असण्णी अनंतगुणा ॥ २०२ ॥ सुगमं । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं ॥ १९७ ॥ गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है । वेदकसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्दृष्टि विशेष अधिक हैं ।। १९८ ।। विशेष कितना है ? उपशमसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके बराबर है। सम्यग्दृष्टियों से सिद्ध अनन्तगुणे हैं ॥ १९९ ॥ यह सूत्र सुगम है । संज्ञिमार्गणा के अनुसार संज्ञी जीव सबमें स्तोक हैं ॥ २०० ॥ क्योंकि, वे जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । संज्ञी जीवोंसे न संज्ञी न असंज्ञी ऐसे जीव अनन्तगुणे हैं ॥ २०१ ॥ गुणकार अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा है । कारण सुगम है । उक्त जीवोंसे असंज्ञी जीव अनन्तगुणे हैं ॥ २०२ ॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International [ ५७३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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