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________________ [ १८३ २, २, २०६.] एगजीवेण कालाणुगमे सण्णिकाल परूवणं मिच्छादिट्ठी मदिअण्णाणीभंगो ॥ २०३ ॥ जहा मदिअण्णाणिस्स अणादिअपज्जवसिद-अणादिसपज्जवसिद- सादिसपज्जवसिदवियप्पा वुत्ता तधा एदस्स वि वत्तव्या। सादि-सपञ्जवसिदअण्णाणस्स कालो जहण्णेण अंतोमुहुतं, उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्टे जधा वुत्तं तधा मिच्छत्तस्स वि वत्तव्वं । सण्णियाणुवादेण सण्णी केवचिरं कालादो होंति ? ॥२०४॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥२०५॥ कुदो ? असण्णीहितो सण्णिअपज्जत्तएप्पज्जिय खुद्दाभवग्गहणमच्छिय असणित्तं गदस्स तदुवलंभादो। उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ॥२०६॥ असण्णीहिंतो सण्णीमुप्पज्जिय सागरोवमसदपुधत्तं तत्थेव परिभमिय णिग्गयस्स तदुवलंभादो। मिथ्यादृष्टि जीवोंकी कालप्ररूपणा मतिअज्ञानी जीवोंके समान है ॥ २०३॥ जिस प्रकार मतिअज्ञानी जीवके अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त, ये तीन विकल्प बतलाये गये हैं, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीवके भी कहना चाहिये । जिस प्रकार सादि-सान्त अज्ञानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र बतलाया गया है, उसी प्रकार मिथ्यात्वका भी कहना च संज्ञीमार्गणानुसार जीव कितने काल तक संज्ञी रहते हैं ? ॥ २०४॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक जीव संज्ञी रहते हैं ॥ २०५॥ क्योंकि, असंही जीवों से निकलकर संक्षी अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल रहकर पुनः असंझीभावको प्राप्त हुए जीवके सूत्रोक्त काल पाया जाता है। अधिकसे अधिक सागरोपमशतपृथक्त्वमात्र काल तक जीव संज्ञी रहते हैं ॥ २०६॥ ___ क्योंकि, असंही जीवों से निकलकर संशियों में उत्पन्न हो वहींपर सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक परिभ्रमण करके निकलनेवाले जीवके संशित्वका सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण उत्कृष्ट काल पाया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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