SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ ] छक्खंडागमे खुदाबंधो असण्णी केवचिरं कालादो होंति ? ।। २०७ ॥ सुगमं । जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ २०८ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियङ्कं ॥ २०९ ॥ एदं पि सुगमं । आहारावादेण आहारा केवचिरं कालादो होति ? ॥ २१० ॥ सुमं । जहणेण खुद्दा भवग्गहणं तिसमयूणं ॥ २१९ ॥ तिणि विग्गहे काऊण सुहुमेईदिए सुप्पज्जिय चउत्थसमए आहारी होतॄण भुंजमाणाअं कदलीघादेण घादिय अवसाणे विग्गहं करिय णिग्गयस्स तिसमऊणखुद्दाभवग्गहणमेत्ताहारकालुवलं भादो । जीव कितने काल तक असंज्ञी रहते हैं ? ॥ २०७ ॥ यह सूत्र सुगम है । [२, २, २०७. कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक जीव असंज्ञी रहते हैं ? ।। २०८॥ यह सूत्र भी सुगम है । अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक जीव असंज्ञी रहते हैं ॥ २०९ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । आहारमार्गणानुसार जीव आहारक कितने काल तक रहते हैं ? ।। २१० । यह सूत्र सुगम है । कमसे कम तीन समय से हीन क्षुद्रभवग्रहण मात्र काल तक जीव आहारक रहते हैं ॥ २११ ॥ क्योंकि, तीन मोड़े लेकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न हो चौथे समय में आहारक होकर भुज्यमान आयुको कदलीघात से छिन्न करके अन्त में विग्रह करके निकलनेवाले जीवके तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र आहारकाल पाया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy