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________________ २६.] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ५, ३२. निरस्यति परस्यार्थं स्वार्थ कथयति श्रुतिः । तमो विधुन्वती भास्यं यथा भासयति प्रभा ॥ ३ ॥ इदि वयणादो । तं पि असंखेज्जं परित्त-जुत्त-असंखेज्जासंखेज्जभेएण तिविहं । तत्थ एदम्हि असंखेज्जे देवाणमवट्ठाणमिदि जाणावणद्वमुत्तरसुत्तं भणदि असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥३२॥ एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । पदरावलियाए असंखेज्जासंखेज्जाणमोसप्पिणि-उस्सप्पिणीण सम्भावादो' जहण्णअसंखेज्जासंखेजस्स वि पडिसेहो कदो । इदरेसु दोसु एक्कस्स ग्गहणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि खेत्तेण पदरस्स बेछप्पण्णंगुलसदवग्गपडिभाएण ॥ ३३ ॥ बेछप्पण्णंगुलसदवग्गो पंचसट्ठिसहस्स-पंचसद-छत्तीसपदरंगुलाणि । जगपदरस्स एदेण पडिभाएण देवरासी होदि । एदेण वयणेण उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहं जिस प्रकार प्रभा अंधकारको नष्ट करती हुई प्रकाशनीय पदार्थका प्रकाशन करती है, उसी प्रकार श्रुति परके अभीष्टका निराकरण करती है और अपने अभीष्ट अर्थको कहती है ॥ ३॥ इस प्रकारका वचन है । वह असंख्यात भी परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यातके भेदसे तीन प्रकार है। अतः उनसे इस असंख्यातमें देवोंका अवस्थान है ऐसा जतलानेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं देव कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिणियोंसे अपहृत होते हैं ॥ ३२ ॥ इस सूत्र द्वारा परीतासंख्यात और युक्तासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है। प्रतरावलीमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका सद्भाव होनेसे जघन्य असंख्यातासंख्यातका भी प्रतिषेध किया गया है। अब अन्य दो असंख्यातासंख्यातोंमें से एकके ग्रहण करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं क्षेत्रकी अपेक्षा देवोंका प्रमाण जगप्रतरके दो सौ छप्पन अंगुलोंके वर्गरूप प्रतिभागसे प्राप्त होता है ॥ ३३ दो सौ छप्पन अंगुलोंका वर्ग पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस प्रतरांगुलप्रमाण होता है। इस जगप्रतरके प्रतिभागसे देवराशि होती है। अर्थात् दो सौ छप्पन सूच्यंगुलोंके वर्गका जगप्रतरमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतना देवराशिका प्रमाण है । इस वचनसे उत्कृष्ट १ प्रतिषु ' उस्सप्पिणीणमभावादो' इति पाठः । .................. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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