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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे त्ति ।
आहारमिस्सकायजोगी वेउब्बियमिस्सभंगो ॥६६॥
एसो वि दव्वट्ठियणिदेसो, लोगस्स असंखेज्जदिभागत्तणेण दोण्हं खेत्ताणं समाणत्तं पेक्खिय पवुत्तीदो । पज्जवट्टियणयं पडुच्च भेदो अत्थि । तं जहा- आहारमिस्सकायजोगी चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेन्जदिभागे त्ति ।
कम्मइयकायजोगी केवडिखेत्ते ? ॥ ६७ ॥ सुगमं । सवलोगे ॥ ६८॥
एदं देसामासियसुत्तं ण होदि, वुत्तत्थं मोत्तूणेदेण सूइदत्थाभावादो । कधं कम्मइयकायजोगिरासी सव्वलोए ? ण, तस्स अणतस्स सव्यजीवरासिस्स असंखेज्जदिभागत्तणेण तदविरोहादो ।
जाव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं ।
आहारकमिश्रकाययोगियोंका क्षेत्र वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके समान है ॥६६॥
यह भी द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा निर्देश है, क्योंकि, लोकके असंख्यातवें भागत्वसे दोनों क्षेत्रोंकी समानताकी अपेक्षा कर इसकी प्रवृत्ति हुई है। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा भेद है । वह इस प्रकार है- आहारकमिश्रकाययोगी जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं ।
कार्मणकाययोगी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ।। ६७ ॥ यह सूत्र सुगम है। कार्मणकाययोगी जीव सर्व लोकमें रहते हैं ।। ६८॥
यह देशामर्शक सूत्र नहीं है, क्योंकि, उक्त अर्थको छोड़कर इसके द्वारा सूचित अर्थका अभाव है।
शंका-कार्मणकाययोगी जीवराशि सर्व लोकमें कैसे रहती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, कार्मणकाययोगिराशिके अनन्त सर्व जीवराशिके असंख्यातवें भाग होनेसे उसमें कोई विरोध नहीं है ।
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