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________________ २७४ ] छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, ५. ७६. बादरवाउपज्जत्तरासी द्विदो त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ७६॥ एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं जहण्णअसंखेज्जासंग्वेज्जस्स य पडिसेहो कदो, तेसु असंखेज्जासंखेज्जाणमोसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो । अजहण्णुक्कस्स-उक्कस्सअसंखेज्जासंखेजाण गहणप्पसंगे उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि खेतेण असंखेज्जाणि पदराणि ॥ ७७ ॥ एदेण अजहण्णुक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स सिद्धी कदा । असंखेज्जाणि जगपदराणि अणेयविहाणि त्ति तण्णिण्णयद्वमुत्तरसुत्तं भणदि लोगस्स संखेज्जदिभागो ॥ ७८ ॥ घणलोगे तप्पाओग्गसंखेज्जलवे हिदे बादरवाउकाइयपज्जत्तरासी होदि । सेसं सुगमं । ख्यातों से इस असंख्यातमें बादर वायुकायिक पर्याप्त राशि स्थित है इसके शापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणीउत्सर्पिणियोंसे अपहृत होते हैं । ७६ ।। __ इस सूत्रके द्वारा परीतासंख्यात, युकासंख्यात और जघन्य असंख्यातासंख्यातका . प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, उनमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंका अभाव है। अजघन्यानुत्कृष्ट और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातोंके ग्रहण का प्रसंग होनेपर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात जगप्रतरप्रमाण हैं ॥ ७७॥ इस सूत्रके द्वारा अजघन्यानुत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातकी सिद्धि की गई है। असंख्यात जगप्रतर अनेक प्रकार हैं, इस कारण उनके निर्णयार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं उन असंख्यात जगप्रतरोंका प्रमाण लोकका असंख्यातवां भाग है ॥ ७८ ॥ घनलोकमें तत्प्रायोग्य संख्यात रूपोंका भाग देनेपर बादर वायुकायिक पर्याप्त राशि होती है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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