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________________ २, १, ११.] __सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपरूवणा [५७ एकत्तीसपयडीणं णामणिदेसो कीरदे- मणुस्सगदि-पंचिंदियजादि-ओरालियतेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससरीरसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परबाद-उस्सास-पसत्थविहायगदि-तस-बादर-पज्जत्तपत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सर आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिण-तित्थयराणि त्ति एदाओ एक्कत्तीसपयडीओ उदेति तित्थयरस्स। एदस्स कालो जहण्णेण वासपुधत्तं । कुदो ? तित्थयरोदइल्लसजोगिजिणविहारकालस्स सव्वजहण्णस्स वि वासपुधत्तादो हेवदो अणुवलंभा। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तब्भहियगम्भादिअट्ठवस्सेणूणा पुधकोडी । सेसाणं ट्ठाणाणं कालो जाणिदूण वत्तव्यो । अजोगिभयवंतस्स भण्णमाणे- मणुस्सगदि-पंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्तसुभग-आदेज्ज-असकित्ति-तित्थयरमिदि एदाओ णव । भंगो एक्को | १] । तित्थयरविरहिदाओ अट्ट । भंगो एक्को । १ | । मणुस्साणं सबभंगसमासो बत्तीसूणसत्तावीस उन तीर्थंकरोंके उदयमें आनेवाली इकतीस प्रकृतियोंका नामनिर्देश करते हैंमनुष्यगति', पंचेन्द्रियजाति', औदारिक', तेजस' और कार्मण शरीर', समचतुरस्रसंस्थान. औदारिकशरीरांगोपांग', वज्रऋषभनाराचसंहनन', वर्ण', गंध, रस, स्पर्श, अगुरुकलघु, उपघात", परघात", उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति", अस८, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर', स्थिर, अस्थिर३, शुभ, अशुभ", सुभग, सुखर, आदेय, यशकीर्ति , निर्माण और तीर्थकर', ये इकतीस प्रकृतियां तीर्थंकरके उदयमें आती हैं। इस उदयस्थानका जघन्यकाल वर्षपृथक्त्व है, क्योंकि, तीर्थकर प्रकृतिके उद्यवाले सयोगि जिनका विहारकाल कमसे कम होनेपर भी वर्षपृथक्त्वसे नीचे नहीं पाया जाता । इस उदयस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तसे अधिक गर्भसे लेकर आठ वर्ष हीन एक पूर्वकोटि है । शेष उदयस्थानोंका काल जानकर कहना चाहिये। ___ अब अयोगि भगवान्के उदयस्थान कहते हैं- मनुष्यगति', पंचेन्द्रियजाति', प्रस', बादर', पर्याप्त', सुभग', आदेय, यशकीर्ति और तीर्थंकर', ये नव प्रकृतियां ही अयोगिकेवलीके उदय होती हैं। यहां भंग एक है (१)। इन्हीं नौ प्रकृतियोंमेंसे तीर्थकर प्रकृतिसे रहित होनेपर आठ प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है। यहां भी भंग एक है (१)। मनुष्यों के उदयस्थानों संबंधी समस्त भंगोंका योग बत्तीस कम सत्ताईस सौ १ प्रतिषु ‘मणुसगदीए' इति पाठः। .२ पं. सं. भाग १, पृ. २०४. ३ गयजोगस्स य बारे तदियाउग-गोद इदि विहीणेसु । णामस्स य णव उदया अद्वेव य तित्थहीणेसु ॥ गो, क. ५९८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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