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________________ २, ९, १९. ] णत्थि अंतरं ॥ १६ ॥ एदं पज्जवट्ठियसिस्साणुग्गह परुविदं । निरंतरं ॥ १७ ॥ एदं सुतं दव्वट्टियसिस्साणुग्गहङ्कं परूविदं । गया है गया कायाणुवादेण पुढविकाइय- आउकाइय ते उकाइय-वाउकाइय-वणफदिकाइय- णिगोदजीव- बादर-सुहुम-पज्जत्ता अपज्जता बादरवण'फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता अपज्जत्ता तसकाइय- पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १८ ॥ नाणाजीवेण अंतराणुगमे कायमग्गणा सुगमं । णत्थि अंतरं ॥ १९॥ उपर्युक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता है ।। १६ ।। यह सूत्र पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंके अनुग्रहार्थ कहा । है उक्त जीव निरन्तर हैं ॥ १७ ॥ यह सूत्र द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंके अनुग्रहार्थ कहा / [ ४८३ Jain Education International काय मार्गणा के अनुसार पृथिवीकायिक, पृथिवीकायिक पर्याप्त, पृथिवीकायिक अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तः सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, ये नौ पृथिवीकायिक जीव, इसी प्रकार नौ अष्कायिक, नौ तेजस्कायिक, नौ वायुकायिक, नौ वनस्पतिकायिक व नौ निगोद जीव, तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त व अपर्याप्त और त्रसकायिक पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है १ ।। १८ ।। यह सूत्र सुगम है । उपर्युक्त जीवोंका अन्तर नहीं होता है ॥ १९ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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