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________________ १८२] . छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ९, १२. णस्थि अंतरं ॥ १२ ॥ एवं पि सुगमं । णिरंतरं ॥ १३ ॥ सुगम । भवणवासियप्पहुडि जाव सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा देवगदिभंगो ॥ १४ ॥ सुगम । इंदियाणुवादेण एइंदिय बादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्त-बीइंदियतीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदिय-पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १५॥ सुगमं । देवोंका अन्तर नहीं होता है ॥ १२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। देव निरन्तर हैं ॥ १३ ॥ यह सूत्र सुगम है। भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों तक अन्तरका निरूपण देवगतिके समान है ॥ १४ ॥ यह सूत्र सुगम है। इन्द्रियमार्गणाके अनुसार एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त, एकेन्द्रिय अपर्याप्तः बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त; द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त; त्रीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त; चतुरिन्द्रय, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका अन्तर किनने काल तक होता है ? ॥ १५ ॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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