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________________ २६) छक्खडागमे खुदाबंधो [२, १, २. अंतिल्लो चसद्दो समुच्चयत्थो । इदिसदो एदेसि बंधगाणं परूवणाए एत्तियाणि चेव अणियोगद्दाराणि होति ण वड्डिमाणि त्ति अवहारणटुं कदो । एगजीवेण सामित्तं पुव्वमेव किमटुं बुच्चदे ? ण, उवरिल्लसव्वयाणिओगद्दाराणं कारणत्तेण सामित्ताणियोगद्दारस्स अवट्ठाणादो। कुदो ? चोदसमग्गणट्ठाणं ओदइयादिपंचसु भावेसु को भावो कस्स मग्गणट्ठाणस्स सामिओ णिमित्तं होदि ण होदि ति सामित्ताणिओगद्दारं परूवेदि, पुणो तेण भावेण उवलक्खियमग्गणाए बंधएसु सेसाणिओगद्दारपवुत्तीदो । सेसाणिओगद्दारेसु कालो चे किमट्ठ पुव्वं परूविज्जदि ? ण, कालपरूवणाए विणा अंतरपरूवणाणुववत्तीदो। पुणो अंतरमेव वत्तव्यं, एगजीवसंबंधिणो अण्णस्स अणिओगहारस्साभावा । णाणाजीवसंबंधिएसु सेसाणिओगद्दारेसु पढमं णाणाजीवेहि भंगविचओ किमढे वुच्चदे ? ण, एदस्स मग्गणट्ठाणपवाहस्स विसेसो अणादिअपज्जवसिदो, एदस्स सूत्रके अन्तमें आया हुआ 'च' शब्द समुच्चयार्थक है; और 'इन बन्धकोंकी प्ररूपणामें इतनेमात्र ही अनुयोगद्वार हैं, इनसे अधिक नहीं' ऐसा निश्चय करानेके लिये 'इति' शब्द का प्रयोग किया गया है। शंका-एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वका कथन सबसे पूर्वमें ही क्यों किया जाता है ? समाधान-क्योंकि, यह स्वामित्वसम्बन्धी अनुयोगद्वार आगेके समस्त अनुयोगद्वारोंके कारण रूपसे अवस्थित है । इसका कारण यह है कि चौदह मार्गणास्थान औदयिकादि पांच भावों से किस भाव रूप हैं, किस मार्गणास्थानका स्वामी निमित्त होता है या नहीं होता, यह सब स्वामित्वानुयोगद्वार प्ररूपित करता है, और फिर उसी भावसे उपलक्षित मार्गणासहित बन्धकोंमें शेष अनुयोगद्वारोंकी प्रवृत्ति होती है। शंका-शेष अनुयोगद्वारों में काल ही पहले क्यों प्ररूपित किया जाता है ? समाधान-क्योंकि, कालकी प्ररूपणाके विना अन्तरप्ररूपणाकी उपपत्ति नहीं बैठती। कालप्ररूपणाके पश्चात् अन्तर ही कहा जाना चाहिये, क्योंकि, एक जीवसे सम्बन्ध रखनेवाला अन्य कोई अनुयोगद्वार है ही नहीं । शंका-नाना जीव सम्बन्धी शेष अनुयोगद्वारों में पहले नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय ही क्यों कहा जाता है ? समाधान-क्योंकि, इस मार्गणास्थानके प्रवाहका विशेष (भेद) अनादि-अनन्त ..१ आ-कप्रत्योः उवरिल्लसव्वथा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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