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२, २, १०.८.] एगजीवेण कालाणुगमे उवसमसम्मादिट्टिकालपरूवणं १८१ सागरोवमाउढिदिएसु देवेसुप्पज्जिय पुणो मणुस्सगदि गंतूण मुंजमाणमणुस्साउएण दसणमोहक्खवणपेरंत जिस्समाणमणुसाउएण च ऊणचउवीससागरोवमाउट्ठिदिएसु देवेसुप्पज्जिय मणुस्सगदिमागंतूग तत्थ वेदगसम्मत्तकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो अत्थि त्ति दसणमोहक्खवणं पट्टविय कदकरणिज्जो होद्ण कदकरणिज्जचरिमसमए द्विदस्स छावद्धिसागरोवममेत्तकालुवलंभादो।।
उवसमसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी केवचिरं कालादो हॉति ? ॥ १९७॥
सुगमं । जहण्णण अंतोमुत्तं ॥ १९८ ॥
कुदो ? मिच्छादिहिस्स पढमसम्मत्तं पडिबज्जिय छावलियावसेसे सासणं गदस्स तदुवलंभादो । एवं सम्मामिच्छाइट्ठिस्स वि जहणकालो वत्तव्यो । णवरि मिच्छत्तादो वेदगसम्मत्तादो वा सम्मामिच्छत्तं गंतूग जहण्णकालमच्छिय गुणंतर गदो त्ति वत्तव्यं ।
उत्पन्न हुआ। वहांसे पुनः मनुष्यगतिमें जाकर भुज्यमान मनुष्यायुसे तथा दर्शन
हके क्षपण पर्यन्त आगे भोगी जानेवाली मनुष्यायुसे कम चौबीस सागरोपम आयुस्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहांसे पुनः मनुष्यगतिमें आकर वहां वेदकसम्यक्त्वकालके अन्तर्मुहूर्तमात्र रहने पर दर्शनमोहके क्षपणको स्थापितकर कृतकरणीय हो गया। ऐसे कृतकरणीयके अन्तिम समयमें स्थित जीवके घेदकसम्यक्त्वका छयासठ सागरोपममात्र काल पाया जाता है।
जीव उपशमसम्यग्दृष्टि व सम्यग्मिथ्यादृष्टि कितने काल तक रहते हैं ? ॥१९७॥ यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव उपशमसम्यग्दृष्टि व सम्यग्मिथ्यादृष्टि रहते हैं । १९८ ।।
क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त कर प्रथमोपशमसम्यक्त्वक कालमें छह आवली शेष रहनेपर सासादन गुणस्थानमें जानेपर उपशमसम्यक्त्वका अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है । इसी प्रकार सम्याग्मिथ्यादृष्टिका भी जघन्य काल कहना चाहिये । केवल विशेषता यह है कि मिथ्यात्वसे या वेदकसम्यक्त्वसे सम्यग्मिथ्यात्वमें जाकर व जघन्य काल वहां रहकर अन्य गुणस्थानमें जानेपर सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तमुहूर्तमात्र जघन्य काल पाया जाता है, ऐसा कहना चाहिये।
१ अ-काप्रत्योः · मस्सस्स गदि.' इति पाठः ।
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