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________________ २, २, ७८.] एगजीवेण कालाणुगमै पुढविकायादिकालपरूवणं [१४५ कम्महिदि त्ति वुत्ते सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्ता घेत्तव्या, कम्मविसेसद्विदि मोत्तूण कम्मस्साउट्ठिदिगहणादो। के वि आइरिया सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे बादरपुढविकायादीणं कायद्विदी होदि त्ति भणंति । तेसि कम्मद्विदिववएसो कज्जे कारणोवयारादो । एदं वक्खाणमत्थि त्ति कधं णव्यदे ? कम्मट्ठिदिमावालियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदेवादरहिदी होदि त्ति परियम्मवयणण्णहाणुववत्तीदो। तत्थ सामण्णेण बादरद्विदी होदि त्ति जदि वि उत्तं तो वि पुढविकायादीणं बादराणं पत्तेयकायद्विदी घेत्तव्या, असंखेज्जासंखेज्जाओ ओस्सप्पिणी-उस्सप्पिणीओ त्ति मुत्तम्मि बादरहिदिपरूवणादो। बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउका. इय-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? ॥ ७८ ॥ सुगमं । सूत्र में जो कर्मस्थिति शब्द है उससे सत्तर सागरोपम कोडाकोडि मात्र कालका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि विशेष कर्मोकी स्थितिको छोड़कर कर्मसामान्यकी आयुस्थितिका ही यहां ग्रहण किया गया है। कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि सत्तर सागरोएम कोडाकोड़िको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर बादर पृथिवीकायादिक जीवोंकी कायस्थितिका प्रमाण आता है। किन्तु उनकी यह कर्मस्थिति संशा कार्यमें कारणके उपचारसे ही सिद्ध होती है । शंका-ऐसा व्याख्यान है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान --- ' कर्मस्थितिको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर बादरस्थिति होती है' ऐसे परिकर्मके वचनकी अन्यथा उपपत्ति बन नहीं सकती, इसीसे उपर्युक्त व्याख्यान जाना जाता है। वहांपर यद्यपि सामान्यसे ' बादरस्थिति होती है' ऐसा कहा है, तो भी पृथिवीकायादिक वादर प्रत्येकशरीर जीवोंकी स्थिति ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, सूत्रमें बादरस्थितिका प्ररूपण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी प्रमाण किया गया है। __ जीव वादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक व बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ७८ ॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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