SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, १, ८५. सुगमं । ओदइएण भावेण ॥ ८५॥ णोइंदियावरणस्स सव्वधादिफहयाणमुदएण असण्णित्तस्स दंसणादो । ण च गोइंदियावरणमसिद्धं कज्जण्णय-वदिरेगेहि कारणस्स अस्थित्तसिद्धीदो । (णेव सण्णी णेव असण्णी णाम कधं भवदि ? ॥ ८६ ॥ सुगममेदं। खइयाए लद्धीए ॥ ८७ ॥ णाणावरणस्स णिम्मूलक्खएणुप्पण्णपरिणामो इंदियणिरवेक्खलक्खणो खइया लद्धी णाम । तीए खइयाए लद्धीए णेव-सणी णेव-असण्णित्तं होदि।। आहाराणुवादेण आहारो णाम कधं भवदि ? ॥ ८८ ॥ सुगममेदं । ओदइएण भावेण ॥ ८९ ॥ यह सूत्र सुगम है। औदयिक भावसे जीव असंज्ञी होता है ।। ८५ ॥ क्योंकि, नोहन्द्रियावरणकर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयले असंही भाव देखा जाता है । नोइन्द्रियावरण कर्म असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, कार्यके अन्वय और व्यतिरेकके द्वारा कारणके अस्तित्वकी सिद्धि हो जाती है। जीव न संज्ञी न असंज्ञी कैसे होता है ? ॥ ८६ ॥ यह सूत्र सुगम है। क्षायिक लब्धिसे जीव न संज्ञी न असंज्ञी होता है ॥ ८७ ॥ ज्ञानावरण कर्मके निर्मूल क्षयसे जो इन्द्रियनिरपेक्ष लक्षणवाला जीवपरिणाम उत्पन्न होता है उसीको क्षायिक लब्धि कहते हैं । उसी क्षायिक लब्धिसे जीव न संशी 'न असंही होता है। आहारमार्गणानुसार जीव आहारक कैसे होता है ? ॥८८॥ यह सूत्र सुगम है। औदयिक भावसे जीव आहारक होता है ।। ८९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy