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________________ १, १, ४३.] सामित्ताणुगने कसायमग्गेणा पि वत्तव्वं । अणप्पिदकसाए णिवारिय अप्पिदकसायजाणावणमुत्तरसुत्तमागदं चरित्तमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण ॥ ४१ ॥ सामण्णेण णिदेसे कदे वि एत्थ विसेसोवलद्धी होदि, 'सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते' इति न्यायात् । तेण कोधकसायस्स उदएण कोधकसाई, माणकसायस्स उदएण माणकसाई, मायाकसायस्स उदएण मायकसाई, लोभकसायस्स उदएण लोभकसाइ त्ति सिद्धं । अकसाई णाम कधं भवदि ? ॥ ४२ ॥ पुव्वुत्तकसायाणं कस्स अभावेण अकसाई होदि त्ति पुच्छा कदा होदि । अप्पिदअकसाइगहणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि उवसमियाए खड्याए लद्धीए ॥ ४३ ॥ चरित्तमोहणीयस्स उवसमेण खएण च जा उप्पण्णलद्धी तीए अकसायत्तं होदि, ण सेसकम्माणं खएणुवसमेण वा, तत्तो जीवस्स उवसमिय-खइयलद्धीणमणुप्पत्तीदो। कषायोंको छोड़ विवक्षित कषायों का ज्ञान करानेके लिये अगला सूत्र आया है चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे जीव क्रोध आदि कषायी होता है ॥४१॥ सामान्यसे निर्देश किये जानेपर भी यहां विशेष व्यवस्था समझमें आजाती है क्योंकि 'सामान्य निर्देश विशेषों में भी घटित होते हैं' ऐसा न्याय है । अतः क्रोधकषायके उदयसे क्रोधकषायी, मानकषायके उदयसे मानकषायी, मायाकषायके उदयसे मायाकषायी और लोभकषायके उदयसे लोभकषायी होता है, यह बात सिद्ध हो जाती है। जीव अकषायी कैसे होता है ? ॥ ४२ ॥ 'पूर्वोक्त कषायोंमेंसे किस कषायके अभावसे जीव अकषायी होता है' यह बात यहां पूछी गयी है। विवक्षित अकषायीके ग्रहण करानेके लिये अगला सूत्र कहते हैं औपशमिक व क्षायिक लब्धिसे जीव अकषायी होता है ॥ ४३ ॥ चारित्रमोहनीयके उपशमसे और क्षयसे जो लब्धि उत्पन्न होती है उसीसे अकषायत्व उत्पन्न होता है । शेष कौके क्षय व उपशमसे अकषायत्व उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि उससे जीवके (तत्प्रायोग्य) औपशमिक या क्षायिक लब्धियां उत्पन्न नहीं होती। ......... प्रतिषु 'सेसकसायाणं ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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