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________________ ३९०) छक्खंडागमे खुदाबंधौ [२, ७, ४२. सुगमं । __ लोगस्स असंखेज्जदिभागो तिण्णि-अद्भुट्ठ-चत्तारि-अद्धवंचमपंचचोदसभागा वा देसूणा ॥ ४२ ॥ ____एदस्स अत्थो- वट्टमाणकालं पडुच्च लोगस्स असंखेज्जदिभागो त्ति णिद्देसो । तेणेत्थ खेत्तपरूवणा सयला कायव्या। अदीदेण तिण्णि-आहुट्ठ-चत्तारि-अद्धवंचम-पंचचोद्दसभागा जहाकमेण फोसिदा । कुदो ? मेरुमूलादो तिण्णिरज्जूओ उवरि चडिय सणक्कुमार-माहिंदकप्पाणं परिसमत्ती, तदो उवरिमद्धरज्जु गंतूण बम्ह-बम्हुत्तरकप्पाणं परिसमत्ती, तदो तत्तो उवरिमद्धरज्जु गंतूग लंतय-काविट्ठकप्पाणं परिसमत्ती, तदो अद्धरज्जु गंतूण सुक्क महासुक्ककप्पाणमवसाणं, तत्तो अद्धरज्जु गंतूण सदर-सहस्सारकप्पाणं परिसमत्ती होदि त्ति । आणद जाव अच्चुदकप्पवासियदेवा सत्थाण-समुग्घादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ४३॥ सुगमं । यह सूत्र सुगम है। उक्त देवों द्वारा उपपाद पदकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा चौदह भागोंमें कुछ कम तीन, साढ़े तीन, चार, साढ़े चार और पांच भाग स्पृष्ट हैं ॥ ४२ ॥ इस सूत्रका अर्थ- वर्तमान काल की अपेक्षा 'लोकका असंख्यातवां भाग' ऐसा निर्देश किया गया है । इस कारण यहां सब क्षेत्रारूपणा करना चाहिये । अतीत कालकी अपेक्षा यथाक्रमसे चौदह भागों में तीन, साढ़े तीन, चार, साढ़े चार और पांच भाग स्पृष्ट हैं, क्योंकि, मेरुमूलसे तीन राजु ऊपर चढ़कर सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पोंकी समाप्ति है, इससे ऊपर अर्ध राजु जाकर ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर कल्पोंकी समाप्ति है, तत्पश्चात् उससे ऊपर अर्ध राजु जाकर लान्तव-कापिष्ठ कल्पोंकी समाप्ति है, उससे ऊपर अर्ध राजु जाकर शुक्र-महाशुक्र कल्पोंका अन्त है, तथा उससे अर्ध राजु ऊपर जाकर शतारसहस्रार कल्पोंकी समाप्ति होती है। आनतसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवों द्वारा स्वस्थान व समुद्घात पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ ४३ ॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jainelibrar
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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