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________________ २, ६, ७.] खेत्ताणुगमे तिरिक्खखेत्तपरूवणं ३०७ माणरासि त्ति कटु एदस्स असंखेज्जे भागे मारणंतियउवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे गुणगारुवक्कमणकालादो भागहारुवक्कमणकालो संखेजगुणो त्ति उवरिमगुणगारेण हेट्ठिमभागहारमावलियाए असंखेज्जदिभागमोवट्टिय सेसेण भागे हिदे सग-सगरासीणं संखेज्जदिभागो आगच्छदि । पुणो असंखेज्जजोयणाण मुक्कमारणंतियजीव इच्छिय अण्णेगो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो ठवेदव्यो । पुणो एदं गसिं रज्जुगुणिदसंग्वेज्जपदरंगुलेहि गुणिदे मारणतियखेत्तं होदि । एदेण तिसु लोगेसु भागे हिदेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि ति तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे अच्छंति त्ति वुत्तं । णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे । तिण्हं रासीणमुववादखेत्तं पि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणं । एदस्स खेत्तस्स पमाणे आणिज्जमाणे मारणंतियभंगो । णवरि एगसमयसंचिदो एसो रासि त्ति कट्ट आवलियअसंखेज्जदिभागो गुणगारो अवणेदव्यो । पढमदंड वाली राशि है, ऐसा जानकर इसके असंख्यात बहुभागको मारणान्तिक उपक्रमणकालरूप आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर चूंकि गुणकारभूत उपक्रमणकालसे भागहारभूत उपक्रमणकाल संख्यातगुणा है, इसलिये उपरिम गुणकारसे आवलीके असंख्यातवें भागरूप अधस्तन भागहारका अपवर्तन करके शेषका भाग देनेपर अपनी अपनी राशियोंका संख्यातवां भाग आता है । पुनः असंख्यात योजनों तक मारणान्तिक समुद्घातको करनेवाले जीवोंकी इच्छाराशि स्थापित कर अन्य पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र भागहारको स्थापित करना चाहिये। पुनः इस राशिको राजुसे गुणित असंख्यात प्रतरांगुलोंसे गुणित करनेपर मारणान्तिक क्षेत्रका प्रमाण होता है। इसका तीन लोकोंमें भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग लब्ध होता है । इसीलिये 'तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ' ऐसा कहा है। उक्त जीव मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त होकर मनुष्यलोक और तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। ( देखो पुस्तक ४, . पृ. ७१-७२)। __उक्त तीन राशियोंका उपपादक्षेत्र भी तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण और मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा है। इस क्षेत्रके प्रमाणके निकालनेकी रीति मारणान्तिकक्षेत्रके समान है। विशेष इतना है कि यह राशि एक समय संचित है, ऐसा जानकर आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार अलग करना चाहिये। प्रथम १ प्रतिषु — रज्जुगुणिदअसंखेज्जपदरंगुलेहि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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