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छक्खंडागमे खुदाबंधो
[२, १, २. उत्तरसुत्तं भणदि
गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्साए भविए सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि ॥२॥
गम्यत इति गतिः। एदीए णिरुत्तीए गाम-णयर-खेड-कव्वडादीणं पि गदित्तं पसज्जदे ? ण, रूढिबलेण गदिणामकम्मणिप्पाइयपज्जायम्मि गदिसद्दपवुत्तीदो । गदिकम्मोदयाभावा सिद्धिगदी अगदी। अथवा, भवाद् भवसंक्रांतिर्गतिः, असंक्रांतिः सिद्धिगतिः । स्वविषयनिरतानीन्द्रियाणि, स्वार्थनिरतानीन्द्रियाणीत्यर्थः । अथवा, इन्द्र आत्मा, इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियम् । आत्मप्रवृत्युपचितपुद्गलपिंडः कायः, पृथ्वीकायादिनामकर्मजनितपरिणामो वा कार्य-कारणोपचारेण कायः, चीयन्ते अस्मिन् जीवा इति व्युत्पत्तेर्वा कायः । आत्मप्रवृत्तस्संकोचत्रिकोचो योगः, मनोवाक्कायावष्टंभवलेन जीव
जाने पर आचार्य अगला सूत्र कहते हैं
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक, ये चौदह मार्गणास्थान हैं ॥२॥
जहांको गमन किया जाय वह गति है ।
शंका-गतिकी इस प्रकार निरुक्ति करनेसे तो ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्वट आदि स्थानोंको भी गति माननेका प्रसंग आता है ?
समाधान नहीं आता, क्योंकि, रूढ़िके बलसे गतिनामकर्म द्वारा जो पर्याय निष्पन्न की गई है उसीमें गति शब्दका प्रयोग किया जाता है। गतिनामकर्मके उदयके अभावके कारण सिद्धिगति अगति कहलाती है । अथवा, एक भवसे दूसरे भवमें संक्रान्तिका नाम गति है, और सिद्धिगति असंक्रान्तिरूप है।
जो अपने अपने विषयमें रत हों वे इन्द्रियां हैं, अर्धात् अपने अपने विषयरूप पदार्थों में रमण करनेवाली इन्द्रियां कहलाती हैं । अथवा इन्द्र आत्माको कहते हैं, और इन्द्र के लिंगका नाम इन्द्रिय है । आत्माकी प्रवृत्ति द्वारा उपचित किये गये पुद्गलपिंडको काय कहते हैं। अथवा, पृथिवीकाय आदि नामकर्मों के द्वारा उत्पन्न परिणामको कार्यमें कारणके उपचारसे काय कहा है। अथवा, 'जिसमें जीवोंका संचय किया जाय' ऐसी व्युत्पत्तिसे काय बना है। आत्माकी प्रवृत्तिसे उत्पन्न संकोच-विकोचका नाम योग है, अर्थात् मन, वचन और कायके अवलम्बनसे जीवप्रदेशोंमें परिस्पन्दन होनेको योग कहते
२ आप्रतौ सिद्धगतिः' इति पाठः।
१ प्रतिषु 'आगदि ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'आत्मप्रवृत्तिस्संकोच-' इति पाठः।
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