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२, १, ३.]
बंधगसंतपरूवणाए गदिमागणा प्रदेशपरिस्पन्दो योग इति यावत् । आत्मप्रवृत्तेमैथुनसंमोहोत्पादो वेदः। सुख-दुःखबहुसस्यं कर्मक्षेत्रं कृषन्तीति कषायाः। भूतार्थप्रकाशकं ज्ञानं तत्वार्थोपलंभकं वा । व्रतसमिति-कषाय-दंडेन्द्रियाणां रक्षण-पालन-निग्रह-त्याग-जयाः संयमः, सम्यक् यमो वा संयमः। प्रकाशवृत्तिर्दर्शनम् । आत्मप्रवृत्तिसंश्लेषणकरी लेश्या, अथवा लिम्पतीति लेश्या । निर्वाणपुरस्कृतो भव्यः, तद्विपरीतोऽभव्यः। तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् , अथवा तत्वरुचिः सम्यक्त्वम् , अथवा प्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्वम् । शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही संज्ञी, तद्विपरीतः असंज्ञी । शरीरप्रायोग्यपुद्गलपिंडग्रहणमाहारः, तद्विपरीतमनाहारः । एदेसु जीवा मग्गिज्जति त्ति एदेसि मग्गणाओ इदि सण्णा ।
गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइया बंधा ॥३॥
हैं। आत्माकी प्रवृत्ति से मैथुनरूप सम्मोहकी उत्पत्तिका नाम वेद है । सुख-दुखरूपी खूब फसल उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी क्षेत्रका जो कर्षण करते हैं वे कषाय हैं। जो यथार्थ वस्तुका प्रकाशक है, अथवा जो तत्त्वार्थको प्राप्त करानेवाला है, वह शान है। व्रतरक्षण, समितिपालन, कषायनिग्रह, दंडत्याग और इन्द्रियजयका नाम संयम है, अथवा सम्यक् रूपसे आत्मनियंत्रणको संयम कहते हैं। प्रकाशरूपवृत्तिका नाम दर्शन है। आत्मा और प्रवृत्ति ( कर्म ) का संश्लेषण अर्थात् संयोग करनेवाली लेश्या कहलाती है। अथवा, जो (कर्मोसे आत्माका) लेप करती है वह लेश्या है । जिस जीवने निर्वाणको पुरस्कृत किया है अर्थात् अपने सन्मुख रखा है वह भव्य है, और उससे विपरीत अर्थात् निर्वाणको पुरस्कृत नहीं करनेवाला जीव अभव्य है। तत्त्वार्थके श्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है । अथवा, तत्त्वोंमें रुचि होना ही सम्यकत्व है । अथवा प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यकी अभिव्यक्ति ही जिसका लक्षण है वही सम्यक्त्व है। शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलापको ग्रहण कर सकनेवाला जीव संज्ञी है; उससे विपरीत अर्थात् शिक्षा, क्रियादिको ग्रहण नहीं कर सकनेवाला जीव असंही है। शरीर बनाने के योग्य पुद्गलपिंडको ग्रहण करना ही आहार है; उससे विपरीत अर्थात् शरीर बनाने योग्य पुद्गलपिंडको ग्रहण नहीं करना अनाहार है।
इन्हीं पूर्वोक्त चौदह स्थानोंमें जीवोंकी मार्गणा अर्थात् खोजकी जाती है, इसीलिये इनका नाम मार्गणा है।
गतिमार्गणाके अनुसार नरकगतिमें नारकी जीव बन्धक हैं ॥३॥
१ प्रतिषु ' ग्रही ' इति पाठः ।
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