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________________ २, २, ४७. ] एगजीवेण कालाणुगमे एइंदियकालपरूवणं [१३७ अणप्पिदिदिएहितो बादरेइंदिएसुप्पन्जिय अंगुलस्स असंखञ्जदिभागमसंखेजासंखेज-ओसप्पिणी-उवसप्पिणीमेत्तकालं कुलालचक्कं व तत्थेव परिभमिय णिग्गयस्स एदस्स संभवुवलंभा। बादरएइंदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? ॥ ४५ ॥ सुगममेदं । जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ४६॥ पज्जत्तएतु अंतोमुहुत्तं मोत्तूण अण्णस्स जहण्णाउअस्स अणुवलंभादो । उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि ॥४७॥ अणप्पिदिदिएहितो बादरेइंदियपज्जत्तएसुप्पज्जिय संखेज्जाणि वाससहस्साणि तत्थेव परिभमिय णिग्गयस्स तदुवलंभादो । बहुवं कालं तत्थ किण्ण हिंडदे ? ण, केवलणाणादो विणिग्गयजिणवयणस्सेदस्स सयलपमाणेहिंतो अहियस्स विसंवादाभावा । अविवक्षित इन्द्रियोवाले जीवों से आकर बादर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी मात्र काल तक कुम्हारके चकेके समान उसी पर्यायमें परिभ्रमण करके निकलनेवाले जीवके सूत्रोक्त कालका होना संभव पाया जाता है। जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ४५ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहुर्त काल तक जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त रहते हैं ॥ ४६ ॥ क्योंकि, पर्याप्तक जीवों में अन्तर्मुहूर्त के सिवाय अन्य जघन्य आयु पायी ही नहीं जाती। अधिकसे अधिक संख्यात हजार वर्षों तक जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त रहते हैं ॥४७॥ बयोंकि, विवक्षितको छोड़ अन्य इन्द्रियोंवाले जीवोंमेंसे आकर बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर संख्यात हजार वर्षों तक उसी पर्यायमें परिभ्रमण करके निकले हुए जीवके सूत्रोक्त कालप्रमाण पाया जाता है। शंका-संख्यात हजार वर्षांसे अधिक काल तक जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें प्यों नहीं भ्रमण करता? समाधान--नहीं करता, क्योंकि केवलज्ञानसे निकले हुए व समस्त प्रमाणों से अधिक प्रमाणभूत इस जिनवचन के संबंध विसंवाद नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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