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२, ९, ४.] गाणाजीवेण अंतराणुगमे गदिमागणा
[ ४७९ विसिट्ठाणं, ण सव्वद्धरासीणमिदि ? तो क्खहि एवं घेत्तव्वं दवट्ठियणयसिस्साणुग्गहढे कालाणिओगद्दारं भणिय ( संपहि पज्जवट्ठियसिस्साणुग्गहट्ठमतरंणिओगद्दारपरूवणा
आगदा ति
णिरंतरं ॥३॥
निर्गतमंतरमस्माद्राशरिति णिरंतरं । तं जेण सिद्धं तेण एसो पज्जुवासपडिसेहो, एसो रासी अंतरादो पुधभूदो वदिरित्तो त्ति वुत्तं होदि । जदि एवं तो पुणरुत्तदोसो पावदे, पुनसुत्त पसिद्धत्थारूषणादो । ण एस दोसो, पुघिल्लसुत्तं जेण अभावपहाणं तेण पसज्जपडिसेहपडिबद्धं । तदा तेण अभावं पत्त विहीए परूवणहमेदस्स अवयारादो ।
एवं सत्तसु पढवीसु णेरइया ॥ ४ ॥
चाहिये, सब काल रहनेवाली राशियों की नहीं ?
समाधान-तो फिर इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये कि द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंके अनुग्रहार्थ कालानुयोगद्वारको कहकर इस समय पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंके अनुग्रहार्थ अन्तरानुयोगद्वारमरूपणा प्राप्त होती है।
नारकी जीव निरन्तर हैं ॥३॥
इस राशिका अन्तर नहीं है, इसलिये यह निरन्तर है । (यह 'निरन्तर' शब्दका निरुक्त्यर्थ है)। चूंकि वह राशि सिद्ध है, इसीलिये यह पर्युदासप्रतिषेध है। यह नारकराशि अन्तरसे पृथग्भूत वा व्यतिरिक्त है, यह उपर्युक्त कथनका अभिप्राय है ।
शंका-यदि ऐसा है तो पुनरुक्तदोष प्राप्त होता है, क्योंकि, इस सूत्र द्वारा पूर्व सूबसे प्रसिद्ध अर्थका प्रतिपादन किया गया है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि पूर्व सूत्र अभावप्रधान है, इसलिये वह प्रसज्यप्रतिषेधसे सम्बद्ध है । इस कारण उससे अभावको प्राप्त राशिकी विधिके निरूपणार्थ इस सूत्रका अवतार हुआ है।
विशेषार्थ-अभाव दो प्रकारका होता है, पर्युदास और प्रसज्य । पर्युदासके द्वारा एक वस्तुके अभावमें दूसरी वस्तुका सद्भाव ग्रहण किया जाता है । और प्रसज्यके द्वारा केवल अभावमात्र समझा जाता है। चूंकि प्रस्तुत प्रसंगमें अन्तरके अभावमें नारक राशिका अस्तित्व विवक्षित है इसलिये यहां पर्युदास पक्ष ग्रहण करना चाहिये।
इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें नारकी जीव अन्तरसे रहित या निरन्तर
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