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________________ २, २, १८२. ] एगजीवेण कालानुगमे किण्हलेस्सियादिकालपरूवणं [ १७५ कुदो ? तिरिक्खे मस्सेसु वा किण्हणील- काउलेस्साहि सव्बुकस्समंतोमुहुतमच्छिय पुणो तेत्तीस - सत्तारस-सत्तसागरोवमा उडिदिरइएस उपजिय किण्हणील- काउलेस्साहि सह अष्पष्पणो आउट्ठदिमच्छिय तत्तो गिफ्फिडिदूण अंतोमुहुत्तकालं ताहि चेव लेस्साहि गमेदूण अविरुद्धले संतरं गदस्स दोहि अंतोमुहुतेहि समहियतेत्तीस - सचारससत्तसागरोवममेततिलेस्साका लुवलंभादो । ते उलेस्सिय- पम्म लेस्सिय सुक्कलेस्सिया केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १८० ॥ सुमं । जण अंतमुत्तं ॥ १८१ ॥ कुदो ? अणप्पिदलेस्सादो अविरुद्धादो अप्पिदलेस्सं गंतॄण तत्थ जहणमंतोमुहुत्तमच्छिय अविरुद्ध लेस्संतरं गयस्स जहण्णकालदंसणादो । उक्कस्सेण बे-अट्ठारस-तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १८२ ॥ क्योंकि, तिचों या मनुष्यों में कृष्ण, नील व कापोतलेश्या सहित सबसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल रहकर फिर तेतीस, सत्तरह व सात सागरोपम आयुस्थितिवाले नारकियों में उत्पन्न होकर कृष्ण, नील व कापोत लेश्याओंके साथ अपनी अपनी आयुस्थितिप्रमाण रहकर वहांसे निकल अन्तर्मुहूर्त काल उन्हीं लेश्याओं सहित व्यतीत करके अन्य अविरुद्ध लेश्यामें गये हुए जीवके उक्त तीन लेश्याओंका दो अन्तर्मुहूर्त सहित क्रमशः तेतीस, सत्तरह व सात सागरोपममात्र काल पाया जाता है । जीव तेजलेश्या, पद्मलेश्या व शुक्ललेश्यावाले कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १८० ॥ यह सूत्र सुगम है I कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव तेज, पद्म व शुक्ल लेश्यावाले रहते हैं ॥ १८१ ॥ क्योंकि, अविवक्षित अविरुद्ध लेश्यासे विवक्षित लेश्या में जाकर वहां कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर अन्य अविरुद्ध लेश्या में जानेवाले जीवके उक्त लेश्याओंका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य काल देखा जाता है । अधिक से अधिक सातिरेक दो, अठारह व तेतीस सागरोपम काल तक जीव क्रमशः तेज, पद्म व शुक्ल लेश्यावाले रहते हैं ॥ १८२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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