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________________ २, १, ११.] सामित्ताणुगमे उदयट्ठाणपरूवणा सुस्सरे पक्खित्ते एगूणतीसाए ट्ठाणं होदि । भंगो एक्को | १ || सवभंगसमासो चत्तारि' | ४ || विसेसविसेसमणुस्साणं पणुवीसं मोत्तूण दस उदयट्ठाणाणि होति । २० । २१ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । ९।८। मणुस्सगदि-पंचिंदियजादि-तेजाकम्मइयसरीर-वण्ण गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-तस-बादर-पज्जत थिराथिर सुभासुभसुभग-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिणणामाणि एदासिं वीसण्हं पयडीणं पदरलोकपूरणगद. सजोगिकेवलिस्स उदओ होदि । भंगो एको | १ || जदि तित्थयरो तो तित्थयरोदएण एक्कवीसाए द्वाणं होदि। भंगो एक्को । कवाडं गदस्स एदाओ चेव पयडीओ। णवरि ओरालियसरीर-समचउरससंठाणं । तित्थयरुदयविरहियाणं छण्णं संठाणाणमेक्कदरं ओरालियसरीर अंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-उवघाद-पत्तेयसरीरं च घेत्तूण छव्वीसाए वा सत्त सुखर मिलादेनेपर उनतीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है। यहां भंग एक है (१)। इस प्रकार विशेष मनुष्यके चारों उदयस्थानों सम्बन्धी सब भंगोंका योग चार हुआ (४)। विशेष विशेष मनुष्योंके पूर्वोक्त ग्यारह उदयस्थानोंमसे पच्चीस प्रकृतियोंवाले एक उदयस्थानको छोड़कर शेष दश उदयस्थान होते हैं । २० । २१ । २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ ।९।८। मनुष्यगति', पंचेन्द्रियजाति', तैजस और कार्मणशरीर', वर्ण', गंध', रस', स्पर्श', अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर", शुभ, अशुभ, सुभग", आदेय, यशकीर्ति और निर्माण इन वीस नामकर्म प्रकृतियोंका उदय प्रतर और लोकपूरण समुद्धात करनेवाले सयोगिकेवलोके होता है। यहां भंग एक है (१)। यदि वह सयोगिकेवली तीर्थकर हो तो पूर्वोक्त वीस प्रकृतियोंके अतिरिक्त तीर्थकर प्रकृतिके उदय सहित इक्कीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है । भंग एक (१)। कपाट समुद्घात करनेवाले विशेषविशेष मनुष्यके भी ये ही प्रकृतियां उदयमें आती हैं, विशेषता केवल यह है कि उनके औदारिकशरीर और समचतुरस्रसंस्थान होता है। तीर्थकर प्रकृतिके उदयसे रहित जीवोंके छह संस्थानोंमेंसे कोई एक, औदारिक शरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंहनन, उपघात और प्रत्येकशरीर, इन प्रकृतियोंके ग्रहण करलेनेसे छव्वीस या सत्ताईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान हो जाता है। यहां भंग छव्वीस प्रकृतियोंवाले उदयस्थानमें छहों संस्थानोंके विकल्पसे छह होंगे और १देवाहारे सत्थं कालवियप्पेसु मंगमाणेज्जो। वोच्छिण्णं जाणित्ता गुणपडिवण्णेसु सव्वसु ॥ गो.क.६.२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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