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________________ २, ११, ५९. ] अप्पाबहुगाणुगमे कायमगणा [५३५ कुदो ? असंखेज्जलोगमेत्तवाउकाइयपज्जत्तएहि अकाइएसु ओवडिदेसु अर्णतस्वावलंभादो। वणप्फदिकाइयअपज्जत्ता अणंतगुणा ॥ ५६ ॥ गुणगारो अभवसिद्धिएहितो सिद्धेहिंतो सव्वजीवाणं पढमवग्गमूलादो वि अणंतगुणो । कुदो ? अकाइएहि ओवट्टिदकिंचूणसधजीवरासिसंखेज्जदिभागपमाणत्तादो । वणफदिकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुणा ॥ ५७ ॥ एत्थ गुणगारो तप्पाओग्गसंखेज्जसमया । वणप्फदिकाइया विसेसाहिया ।। ५८ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? वणप्फदिकाइयअपज्जत्तमेत्तो। णिगोदा विसेसाहिया ॥ ५९॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरबादराणिगोदपदिद्विदमेत्तो । अण्णेणेक्केण पयारेण अप्पाबहुगपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि क्योंकि, असंख्यात लोकमात्र वायुकायिक पर्याप्त जीवों द्वारा अकायिक जीवोंके अपवर्तित करनेपर अनन्त रूप उपलब्ध होते हैं। अकायिकोंसे वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीव अनन्तगुणे हैं ।। ५६ ॥ यहां गुणकार अभव्यसिद्धिकों, सिद्धों और सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलसे भी अनन्तगुणा है, क्योंकि, उक्त गुणकार अकायिक जीवोसे अपवर्तित कुछ कम सर्व जीवराशिके संख्यातवें भागप्रमाण है। वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंसे वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव संख्यातगणे हैं ॥५७॥ यहां गुणकार तत्प्रायोग्य संख्यात समयप्रमाण है। वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंसे वनस्पतिकायिक जीव विशेष अधिक हैं ॥ ५८ ॥ विशेष कितना है ? वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवों के प्रमाण है। वनस्पतिकायिकोंसे निगोदजीव विशेष अधिक हैं ॥ ५९ ॥ विशेष कितना है ? बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर बादर-निगोद-प्रतिष्ठित जीवोंके बराबर है । अन्य एक प्रकारसे अल्पबहुत्वके निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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