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२, ६, ७७. 1
ताग वेदमगणा
संखेज्जदिभागे । कुदो ? संखेज्जुवसामग - खवगजीवग्गहणादो ।
समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ७५ ॥
सुगमं ।
वा ॥ ७६ ॥
लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे
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मारणंतियसमुग्धाद्गदा उवसामगा चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइजा दे। असंखेज्जगुणे । एवं दंडगदा त्रि । कवाडगदा वि एवं चेत्र । णवरि तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे त्ति वत्तव्यं । पदरगदा लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु । कुदो १ वादवलएसु जीवपदे साभावादो | लोगपूरणे सव्वलोगे, जीवपदेसेहि अणोद्धलोग पदेसाभावादो ।
उववादं णत्थि ॥ ७७ ॥
तत्थुष्पज्ज माणजीवाभावादो ।
और मानुषक्षेत्र संख्यातवें भाग में रहते हैं, क्योंकि, यहां संख्यात उपशामक और क्षपक जीवोंका ग्रहण है ।
अपगतवेदी जीव समुद्घातकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ७५ ॥ यह सूत्र सुगम है |
अपगतवेदी जीव समुद्घातकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागमें, अथवा असंख्यात बहुभागों में, अथवा सर्व लोकमें रहते हैं ।। ७६ ।।
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मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त उपशामक जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । इसी प्रकार दण्डसमुद्घातको प्राप्त जीव भी चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । कपाटसमुद्घातको प्राप्त जीवोंका क्षेत्र भी इसी प्रकार ही है । विशेष इतना है कि तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग में रहते हैं ऐसा कहना चाहिये । प्रतरसमुद्घातको प्राप्त वे ही जीव लोकके असंख्यात बहुभागों में रहते हैं, क्योंकि, इस अवस्थामें वातवलयों में जीवप्रदेशोंका अभाव रहता है । लोकपूरणसमुदघातको प्राप्त जीव सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, जीवप्रदेशों से अनवपृब्ध लोकप्रदेशांका इस अवस्था में अभाव रहता
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अपगदवेदी जीवों में उपपाद पद नहीं होता ॥ ७७ ॥
क्योंकि, अपगतवेदियों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंका अभाव है।
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