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________________ २, ५, १२७.] दवपमाणाणुगमे केवलणाणीणं पमाणं [२८७ संखेज्जस्स वि । जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जपडिसेहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण ॥ १२३ ॥ एत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागो अंतोमुहुत्तमिदि घेत्तव्यो । कुदो ? .. आइरियपरंपरागदुवदेसादो । मणपज्जवणाणी दवपमाणेण केवडिया ? ॥ १२४ ॥ सुगमं । संखेज्जा ॥ १२५॥ एदेण असंखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो । सेसं सुगमं । केवलणाणी दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ १२६ ॥ सुगमं । अणंता ॥ १२७ ॥ एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो । सेसं सुगमं । ख्यात, युक्तासंख्यात और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका भी प्रतिषेध किया गया है। जघन्य असंख्यातासंख्यातके प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं -- उक्त तीन ज्ञानवाले जीवों द्वारा अन्तर्मुहूर्तसे पल्योपम अपहृत होता है ॥१२३॥ यहां आवलीका असंख्यातवां भाग अन्तर्मुहूर्त है, इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि ऐसा आचार्यपरम्परागत उपदेश है। मनःपर्ययज्ञानी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १२४ ॥ यह सूत्र सुगम है। मनःपर्ययज्ञानी द्रव्यप्रमाणसे संख्यात हैं ॥ १२५ ॥ इस सूत्रके द्वारा असंख्यात व अनन्तका प्रतिषेध किया गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। केवलज्ञानी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ १२६ ॥ यह सूत्र सुगम है। केवलज्ञानी द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं ॥ १२७ ॥ इस सूत्र द्वारा संख्यात और असंख्यातका प्रतिषेध किया गया है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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