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________________ २, ६, १२२.] खेत्ताणुगमे आहारमग्गणा (३६५ तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे त्ति वत्तव्यं । असण्णी सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेते ? ॥११९॥ सुगम। सव्वलोगे ॥ १२०॥ एदस्सत्थो- सत्थाणसत्थाण-वेयण-कसाय-मारणंतिय उववादेहि असण्णी सब्यलोगे । विहारवदिसत्थाण-वेउब्धियपदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । णवरि वेउव्वियं तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागे। आहाराणुवादेण आहारा सत्थाणेण समुग्घाण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ १२१ ॥ सुगममेदं । सव्वलोगे ॥ १२२ ॥ क्षेत्रमें रहते हैं, ऐसा कहना चाहिये। असंज्ञी जीव स्वस्थान, समुद्घात व उपपाद पदसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ११९ ॥ यह सूत्र सुगम है। असंज्ञी जीव उक्त पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं ॥ १२० ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदोंसे असंही जीव सर्व लोकमें रहते हैं। विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, और अढाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । विशेष इतना है कि वैक्रियिक पदकी अपेक्षा तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । ___ आहारमार्गणानुसार आहारक जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं १ ॥ १२१ ॥ यह सूत्र सुगम है। आहारक जीव उक्त पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं ॥ १२२ ।। १ अ-आप्रमोः ‘वत्तव्वं भागिदव्वं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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