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________________ २, ७, ८६.] फोसणाणुगमे पुढविकाइयादणिं फोसणं [४०७ सुगमं । लोगस्स संखेज्जदिभागो॥ ८३ ॥ कुदो ? पंचरज्जुबाहल्लरज्जुपदरमादूरिय अबढाणादो। लोगते अट्ठपुढवीणं हेट्ठा वि अवट्ठाणमत्थि किंतु तमेदस्स असंखेजदिभागो । समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ८४ ॥ सुगमं । (लोगस्स संखेज्जदिभागो॥ ८५॥ सुगमं । ) सब्बलोगो वा ॥८६॥ एत्थ वासदत्यो बुच्चदे- वेयण-कसाय-वेउब्बिएहि तिहं लोगाणं संखेजदि यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव स्वस्थान पदोंसे लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥ ८३॥ क्योंकि, पांच राजु बाहल्यरूप राजुप्रतरको पूर्ण कर उक्त जीवोंका अवस्थान है । उनका अवस्थान लोकान्तमें तथा आठ पृथिवियोंके नीचे भी है, किन्तु वह इसके असंख्यातवें भागमात्र है। उपर्युक्त जीव समुद्घात व उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ ८४॥ यह सूत्र सुगम है। ( उपर्युक्त जीव उक्त पदोंसे लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं ॥८५॥ यह सूत्र सुगम है।) अथवा, सर्व लोक स्पर्श करते हैं ॥ ८६ ॥ यहां वा शब्दसे सूचित अर्थ कहते है- वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे तीन लोकोंका संख्यातवां भाग तथा मनुष्यलोक व तिर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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