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________________ २, ७, ५८. फोसणाणुगमे वियलिंदियाणं फोसणे एत्थ वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणेहि तीदे तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एत्थ सत्थाणखेत्ते आणिज्जमाणे सयंपहपव्वदादो परभागट्टियखेतमाणिय संखेज्जसूचीअंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं सत्थाणखेत्तं होदि। विहारवदिसत्थाणखेत्ते आणिज्जमाणे तिरियपदरं ठविय संखेज्जजोयणाणि बाहल्लं होति त्ति संखेज्जजोयणेहि गुणिय पुणो एवं बाहल्लमेगुणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि । अपज्जत्ताणं विहारवदिसत्थाणं णत्थि । समुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ ५७ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा ॥ ५८॥ लोगस्स असंखेज्जदिभागो ति वट्टमाणकालावेक्खो णिदेसो। तेणेत्थ खेतपरूवणा कायया । वेयण-कसायपदेहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखज्जदिभागो, तिरिय ................ यहां वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान पदोंसे अतीत कालमें तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। यहां स्वस्थानक्षेत्रके निकालते समय स्वयंप्रभ पर्वतके पर भागमें स्थित क्षेत्रको लाकर संख्यात सूच्यंगुलोसे गुणित करनेपर तियेग्लोकका सख्यातवां भागमात्र स्वस्थानक्षेत्र होता। विहारवत्स्वस्थानक्षेत्रके निकालनेमें तियेप्रतरको स्थापित कर ‘संख्यात योजन वाहल्य हैं' अतः संख्यात योजनोंसे गुणित कर पुनः इस बाहल्यके उनचास खण्ड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है। अपर्याप्त जीवोंके विहारवत्स्वस्थान नहीं होता।। समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥५७॥ यह सूत्र सुगम है। समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ ५८ ॥ 'लोकका असंख्यातवां भाग' यह निर्देश वर्तमान कालकी अपेक्षा है, इसलिये यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये । वेदनासमुद्धात और कषायसमद्धात पदोंकी अपेक्षा अतीत कालमें तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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