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________________ २, १०, ७४.] भागाभागाणुगमे भवियमग्गणा [ ५१५ कुदो ? एदेहि सयजीवरासिम्हि भागे हिदे सादिरेयतिण्णिरूवोवलंभादो । तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सुक्कलेस्सिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ७१ ॥ सुगमं । अणंतभागो ॥ ७२॥ कुदो ? एदेहि सव्वीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूबोवलंभादो। भवियाणुवादेण भवसिद्धिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ॥ ७३ ॥ सुगमं । अणंता भागा ॥ ७४॥ कुदो ? भवसिद्धिएहि सयजीवरासिम्हि भागे हिदे एगरूवस्स अणंतभागसहिदएगरूवोवलंभाद।। क्योंकि, इन जीवोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर साधिक तीन रूप उपलब्ध होते हैं। तेजोलेश्यावाले, पनलेश्यावाले और शुक्ललेश्यावाले जीव सब जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? ॥ ७१ ॥ यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ॥ ७२ ॥ क्योंकि, इन जीवोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर अनन्त रूप प्राप्त होते है। भव्यमार्गणाके अनुसार भव्यसिद्धिक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं १ ॥७३॥ यह सूत्र सुगम है। भव्यसिद्धिक जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं ॥ ७४ ॥ क्योंकि, भव्यसिद्धिक जीवोंका सर्व जीवराशिमें भाग देनेपर एक अपके मनन्तवें भाग सहित एक रूप उपलब्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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