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११०] छक्खंडागमै खुदाबंधो
[२, १, ७८. मोहणीयत्तविरोहादो । अणंताणुबंधीचदुक्कं तदुभयमोहणं चे ? होदु णाम, किंतु णेदमेत्थ विवक्खियं । अणंताणुबंधीचदुक्कं चरित्तमोहणीयं चेवत्ति विवक्खाए सासणगुणो पारिणामिओ त्ति भणिदो।
सम्मामिच्छादिट्ठी णाम कधं भवदि ? ॥ ७८ ॥
सुगमं । खओवसमियाए लद्धीए ॥ ७९ ॥
सम्मामिच्छत्तस्स सव्वधादिफद्दयाणमुदएण सम्मामिच्छादिट्ठी जदो होदि तेण तस्स खओवसमिओ भावो त्ति ण जुज्जदे ? होदु णाम सम्मत्तं पडुच्च सम्मामिच्छत्तफयाणं सव्वघादित्तं, किंतु असुद्धणए विवक्खिए ण सम्मामिच्छत्तफद्दयार्ण सव्वघादित्तमत्थि, तेसिमुदए संते वि मिच्छत्तसंवलिदसम्मत्तकणस्सुवलंभादो । ताणि सव्वधादिफहयाणि उच्चंति जेसिमुदएण सव्यं घादिज्जदि । ण च एत्थ सम्मत्तस्स णिम्मूल
सकता है और चरित्रमोहनीयके दर्शनमोहनीय मानने में विरोध आता है।
शंका-अनन्तानुवन्धीचतुष्क तो दर्शन और चारित्र दोनोंमें मोह उत्पन्न करनेवाला है ?
समाधान-भले ही अनन्तानुवन्धीचतुष्क उभयमोहनीय हो, किन्तु यहां वैसी विवक्षा नहीं है । अनन्तानुबन्धीचतुष्क चारित्रमोहनीय ही है, इसी विवक्षासे सासादन गुणस्थानको पारिणामिक कहा है।
जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि कैसे होता है ? ॥ ७८ ।। यह सूत्र सुगम है। क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है ॥ ७९ ॥
शंका-चूंकि सभ्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय प्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है, इसलिये उसके क्षायोपशमिक भाव उपयुक्त नहीं है ?
समाधान-सम्यक्त्वकी अपेक्षा भले ही सभ्यग्मिथ्यात्व स्पर्धकोंमें सर्वधातीपना हो, किन्तु अशुद्धनयकी विवक्षासे सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके स्पर्धकोंमें सर्वघातीपना नहीं होता, क्योंकि, उनका उदय रहने पर भी मिथ्यात्वमिश्रित सम्यक्त्वका कण पाया जाता है। सर्वघाती स्पर्धक तो उन्हें कहते हैं जिनका उदय होनेसे समस्त (प्रतिपक्षी गुणका) घात हो जाय । किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्पत्तिमें तो हम
१ प्रतिषु ' होदिज्जदि ' इति पाठः ।
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