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________________ २, १, ४९. ] सामित्ताणुगमे संजममग्गणा समिओ | एवं सामाइयच्छेदोवङ्कावणसुद्धिसंजदाणं पि चत्तव्वं । होदु णाम देसिं खओवसमलद्धी, गोत्रसमिया खइया च, अणियट्टीगुणट्ठाणादो उवरि देसिमभावा । ण च हेट्ठिमखवगुवसामगदोगुणट्ठाणेसु चरित्तमोहणीयस्स खत्रणा उवसामणा वा अत्थि जेणेदेसिं खइया उवसमिया वा लद्धी होज ? ण, खवगुवसामग अणि गुणणे विलोभसंजलणवदिरित्तासेस चरित्त मोहणीयस्स खवणुवसामणदंसणेण तत्थ खइय उवसमियलद्वीणं संभवलंभा । अथवा खवगुत्रसामगअपुव्वकरण पढम समय पहूडि उवरि सव्वत्थ खइय-उवसमियसंजमलद्धीओ अस्थि चेत्र । कुदो ? पारद्ध पढमसमय पहुडि थोवथ|वखवणुत्र सामणकज्जणिष्पत्तिदंसणादो । पडिसमयं कज्जणिष्पत्ती विणा चरिमसमए चेव णिष्पज्ज माणकज्जाणुवलंभादो च । कथमेक्कस्स चरित्तस्स तिष्णि भावा ? ण, एक्स्स विचित्तपयंगस्स बहुवण्णदंसणादो | संयम भी इसी कारण क्षायोपशमिक होता है । इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापन शुद्धिसंयतों के विषय में भी कहना चाहिये । [ ९३ शंका-सामायिक और छेदोपस्थापन शुद्धिसंयतोंके क्षयोपशम लब्धि भले ही हो, किन्तु उनके औपशमिक और क्षायिक लब्धि नहीं हो सकती, क्योंकि अनिवृत्तिकरण गुणस्थान से ऊपर इन संयतोंका अभाव पाया जाता है । और नीचेके अर्थात् अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दो क्षपक व उपशामक गुणस्थानों में चारित्रमोहनीयकी क्षपणा व उपशामना होती नहीं है, जिससे उक्त संयतोंके क्षायिक व औपशमिक लब्धि संभव हो सके ? समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि क्षपक व उपशामक सम्बन्धी अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में भी लोभ संज्वलनको छोड़कर अशेष चारित्रमोहनीयका क्षपण व उपशमनके पाये जानेसे वहां क्षायिक व औपशमिक लब्धियोंकी संभावना पाई जाती है । अथवा, क्षपक और उपशामक सम्बन्धी अपूर्वकरणके प्रथम समय से लगाकर ऊपर सर्वत्र क्षायिक और औपशमिक संयमलब्धियां हैं ही, क्योंकि, उक्त गुणस्थानके प्रारंभ होने के प्रथम समयसे लगाकर थोड़े थोड़े क्षपण और उपशामन रूप कार्यकी निष्पत्ति देखी जाती है । यदि प्रत्येक समय कार्यकी निष्पत्ति न हो तो अन्तिम समय में भी कार्य पूरा होता नहीं पाया जा सकता । शंका- एक ही चारित्र के औपशमिकादि तीन भाव कैसे होते हैं ? Jain Education International समाधान - जिस प्रकार एक ही चित्र पतंग अर्थात् बहुवर्ण पक्षीके बहुत से वर्ण देखे जाते हैं, उसी प्रकार एक ही चारित्र नाना भावोंसे युक्त हो सकता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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