________________
अपात्रहुगागमे जोगमग्गणा
मोसवचिजोगी संखेज्जगुणा ॥ १२० ॥
एत्थ विपु व दुविकारणं वत्तं । सच्चमोसवचिजोगी संखेज्जगुणा ॥ १२१ ॥ एत्थ वितं चैव कारणं । darकाय जोगी संखेज्जगुणा ॥ १२२ ॥ कुदो ? मण-वचिजोगद्धाहिंतो कायजोगाए संखेज्जगुणत्तादो । असच्चमोसवचिजोगी संखेज्जगुणा ॥ १२३ ॥ कुदो ? बीइंदियपज्जत्तजीवाणं गहणादो | वचिजोगी विसेसाहिया ॥ १२४ ॥ केत्तियमेत्तेण ? सच्च-मोस - सच्च मोसवचि जोगिमेत्तेण । अजोगी अनंतगुणा ॥ १२५ ॥
को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो ।
२, ११, १२५. ]
सत्यवचनयोगियों से मृपावचनयोगी संख्यातगुणे हैं ॥ १२० ॥ यहां भी पूर्वके समान दोनों प्रकारका कारण कहना चाहिये । मृषावचनयोगियोंसे सत्य- मृषावचनयोगी संख्यातगुणे हैं ।। १२१ ॥ यहां भी वही उपर्युक्त कारण है ।
सत्य- मृषावचनयोगियोंसे वैक्रियिककाययोगी संख्यातगुणे हैं ।। १२२ ।। क्योंकि, मन वचनयोगकालोंसे काययोगकाल संख्यातगुणा है । वैक्रियिककाययोगियोंसे असत्य - मृषावचनयोगी संख्यातगुणे हैं ॥ १२३ ॥ क्योंकि, यहां द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका ग्रहण किया गया है । असत्य-मृषावचनयोगियोंसे वचनयोगी विशेष अधिक हैं ॥ १२४ ॥
कितने मात्र विशेष से अधिक हैं ? सत्य, मृषा और सत्यमृषा वचनयोगिमात्रविशेष से अधिक हैं ।
Jain Education International
वचनयोगियों से अयोगी अनन्तगुणे हैं ।। १२५ ॥
गुणकार कितना है ? अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा है ।
[ ५५३
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org