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________________ २, ६, ११०.] खेत्ताणुगमे सम्मत्तमग्गणा [ ३६१ तसकाइएसु अभवसिद्धिया पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्ता । कधमेदं णव्वदे ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ततससादियबंधगेहितो तसधुवबंधगाणमसंखेज्जगुणहीणतण्णहाणुववत्तीदो । भवसिद्धियाणमोघभंगो । सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी खइयसम्मादिट्ठी सत्थाणेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ १०९॥ सुगम । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ११० ॥ एदस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-उववादेण चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तरासित्तादो । ............................ बहुत्वानियोगद्वारके सूत्रसे जाना जाता है। त्रसकायिकोंमें अभव्यसिद्धिक जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हैं। शंका- यह कैसे जाना जाता है कि त्रसकायिकोंमें अभव्यसिद्धिक जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही हैं ? समाधान-क्योंकि, यदि ऐसा न माना जाय तो पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र त्रस सादिबन्धकोंकी अपेक्षा त्रस ध्रुवबन्धकोंके असंख्यातगुणहीनता बन नहीं सकती। भव्यसिद्धिक जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुसार सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि स्वस्थान और उपपादकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ १०९ ॥ यह सूत्र सुगम है। सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ११० ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहारपत्स्वस्थान और उपपाद पदसे उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, उक्त जीवराशि पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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