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________________ २, ७, २४०.] फोसणाणुगमे सम्मत्तमागणा [ १५१ संखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिमागो तत्तो संखेज्जगुणो वा, अड्डाइज्जादो. असंखेज्जगुणो फोसिदो । एसो बिदियवासद्दसमुच्चिदत्थो।। सव्वलोगो वा ॥ २३७॥ एवं लोगपूरणगदकेवलिं पडुच्च परूविदं । एत्थ वासद्दो उत्तसमुच्चयत्थो । उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २३८ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २३९ ॥ एत्थ वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो। अदीदे तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। वेदगसम्मादिट्ठी सत्थाण-समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २४०॥ केवलियोंके द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग या उससे संख्यातगुणा, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह द्वितीय वा शब्दसे संगृहीत अर्थ है। अथवा, सर्व लोक स्पृष्ट है ॥ २३७ ।। यह सूत्र लोकपूरणसमुद्घातगत केवलीकी अपेक्षासे कहा गया है । यहां या शब्द पूर्वोक्त अर्थके समुच्चयके लिये है। उपपादकी अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥ २३८ ॥ यह सूत्र सुगम है। उपपादकी अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ २३९ ॥ यहां वर्तमानप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है । अतीत कालमें तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। वेदकसम्यग्दृष्टि जीव स्वस्थान और समुद्घात पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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