Book Title: Jain Nibandh Ratnavali 02
Author(s): Milapchand Katariya
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन निबन्ध रत्नावली (भाग २) [ शोध खोज पूर्ण मौलिक निबन्ध ] लेखक 'विद्याभूषण' स्व० पं० मिलापचन्द्र कटारिया केकड़ी ( अजमेर - राजस्थान ) 0 वि०नि०सं० २५१६ जनवरी १६६० प्रकाशक श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ चौरासी, मथुरा - २८१००४ [उ०प्र० ] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : प्रधानमंत्री, भा० दि० जैन संघ चौरासी- मथुरा प्रथम संस्करण ( प्रति १००० जनवरी १६६० मूल्य ३० रुपये · मुद्रक : दिनेश प्रिंटिंग प्रेस ३१ जगन्नाथपुरी, मथुरा Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन निबन्ध रत्नावली (भाग २) Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * साधुवाद जैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् स्व० प० मिलाप चन्द्र जी कटारिया केकडी निवासी के विद्वत्ता पूर्ण लेख स्व० पं० कैलाश चन्द जी शास्त्री के सम्पादन मे जैन सन्देश को वर्षों पूर्व निरन्तर प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त हुआ है कुछ लेख अन्यत्र भी छपे हैं उस समय इन लेखो की भारतीय विद्वत् स्तर पर काफी सराहना की गई, हमे हर्प है कि वर्षों बाद इन निबन्धो को संग्रहीत करके स्व० मिलाप चन्द्र जी कटारिया के सुयोग्य सुपुत्र प० श्री रतनलाल जी कटारिया के सहयोग से इस जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ को प्रकाशित करने का सौभाग्य भारतवर्षीय दिगम्बर जैन सघ चौरासी मथुरा को हो रहा है । प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन मे निम्न महानुभावो ओर ट्रस्ट की ओर से आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ तदर्थं हार्दिक साधुवाद | ५०००) स्व० पूज्य श्री मिश्रीलाल जी कटारिया केकड़ी की पुण्य स्मृति मे बाबू श्रीपाल जो कटारिया [ फर्म किस्तूरमल जी मिश्रीलाल जी कटारिया केकड़ी ] ५०००) सिंघई श्री टोडरमल कन्हैया लाल दिगम्बर जैन पारमार्थिक ट्रस्ट कटनी [म० प्र० ] तारा चन्द प्रेमी प्रधानमन्त्री Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. 4.35am-R - - - HAMARAN diephenippine . USIC 2 . . li PA w Sar" १. देहरा (तिजारा) मे भगवान चन्द्रप्रभु की ५०० वर्ष प्राचीन प्रतिमा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ महोदधि । प्रदीपेनार्चयेदकं, उदकेन वागीश्वर तथा वाग्मि, मगलेन च मंगल ॥ • त्वदीयं वस्तु हे विज्ञ ! तुझ्य मेव समर्प्यते • ( अर्पित है गुणवत, तुम्ही को वस्तु तुम्हारी) समर्पण विद्वदुरत्न, प्रतिभामूर्ति, पाण्डित्य विभूति, सरस्वती पुत्र, प्रज्ञापु ज, शोधखोज पटु, प्रख्यात उद्भट सम्पादक, शुद्ध प्रामाणिक कुशल लेखक, प्राच्य विद्यामहोदधि, शताधिक निबन्ध प्रणेता, अनेक भाषा निष्णात, मार्मिक समालोचक, निष्पक्ष विचारक, इतिहास मर्मज्ञ, अनेक ग्रन्थमाला निर्देशक, पुरातत्वज्ञ, गुणिजनानुरागी, सज्जनोत्तम, प्राध्यापक, मान्यवर, दिवंगत श्रीमान् डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय की पुनीत सेवा में यह विद्वज्जनमनरजनो ज्ञाननिधि महान् मौलिक कृति सादर समर्पित जन्म ६ फरवरी सन् १६०६ सदलगा (बेलगाव ) स्वर्गवास ८ अक्टूबर सन् १६७५ कोल्हापुर (महाराष्ट्र) 2 1 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत 'रत्नावली' भाग २ मे विद्वान् लेखक के उन मौलिक निबन्धो का महान संग्रह है जिसे जैन साहित्य, संस्कृति, इतिहास, सिद्वांत, धर्म और समाज के सम्बन्ध मे प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त होता है इस निवन्ध रत्नावली भाग २ के लेखक स्व०प० मिलापचन्द्र जी कटारिया केकडी (अजमेरराजस्थान) निवासी हैं अपने व्यवसाय में व्यस्त रहते हुए भी ज्ञानकी आराधना मे लग कर इन्होने इन रोचक शोध खोज पूर्ण निवन्धो का प्रणयन किया है. शास्त्रीय अध्ययन मे तुलनात्मक एव आलोचनात्मक पद्धति की प्रमुखता का दिग्दर्शन इनके प्रस्तुत निबन्धों में प्राप्त होता है. इनके निवन्ध जनसाधारण एव विद्वान् दोनो के लिए ज्ञातव्य सामग्री से परिपूर्ण रहते हैं Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवन्ध-सूची नाम पूर्व प्रकाशन १. रात्रि भोजन त्याग ("दि० जन" विशेपाक से १६८४ वर्ष २१) २. पचकल्याणक तिथिया और नक्षत्र (बाबू छोटेलाल जी स्मृति गन्थ सन् १६६८) ३ नदीश्वर भक्ति का १८वा पद्य ("वीरवाणी" जुलाई ६८) ४ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ("अनेकात" अक्टूबर ६६) ५ ऐलक की आहार चर्या ("जैन सिद्धात" मासिक वीर स २४५७) ६ प० टोडरमलजी और शिथिलाचारी साधु ("वीरवाणी" मार्च ६७) ७ चामुण्डराय का चारित्रमार (जैन सिद्धात भास्कर" दिसम्बर ३५) ८ राजाश्रेणिक का आयुष्य काल ("अनेकात" . जून ६७) ६ चातुर्मास योग ("अनेकात" जून १६६६) १० सिद्धाताध्ययन पर विचार ("दि० जन" विशेपाक वि स. १६८६ वर्ष २३) ११ भट्टारक सकलकीति का जन्मकाल ("वीरवाणी" १८ सितम्बर ६६) १२. जैन धर्म मे जीवो का परलोक ("कल्याण" पुनर्जन्म विशेपाक ६६) १२६ १३८ ૧૪૨ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १५१ १५५ १६६ १७३ नाम पूर्व प्रकाशन १३ क्या चन्द्र सूर्य का माप छोटे योजनो से है ? ("वीरवाणी" १ दिसम्बर ६) १४ आर्यिकाओ का केशलोच ("सन्मति सदेश" मार्च ३७) १५. जैनधर्म मे नागतर्पण ( 'सन्मति सदेश" मई ६८) १६ प्रतिष्ठा तिलक कार नेमिचन्द्र का समय ("अनेकांत" अप्रेल ६८) १७ जिनवाणी को भ्रमात्मक लेखन से बचाइये ("दि० जैन" विशेषाक वि स १६८५ वर्ष २२) १८ प० आशाधरजी का विचित्र विवेचन (दि. जैन" विशेषाक स. १६८७ वर्ष २४) १६ समाधिमरण के अवसर पर मुनि-दीक्षा ("महावीर जयती स्मारिका" सन् ६६) २०. कातत्र व्याकरण के निर्माता कौन है ? ("जैन सिद्धात भास्कर" स १६६३) २१ भगवान् महावीर तथा अन्यतीर्थंकरो के वश ("सन्मतिवाणी" मई ७१) ६२ दि० परम्परा मे श्रावक धर्म का स्वरूप (जिनवाणी" मार्च ७०) २३. १० टोडरमलजी का जन्म काल तथा उनकी एक और साहित्यिक रचना ("सन्मति सदेश" दिसम्बर ६८) २४ क्या पउमचरिय दि० ग्रन्थ है ? ("दि० जन" विशेषाक स १६८८ वर्ष २५) २५ प्रतिष्ठाचार्यो के लिए विचारणीय विषय मोक्षकल्याणक ("सन्मति सदेश" अप्रेल ७०) २०२ २१३ २२० २२६ २५३ २८४ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( * ) नाम पूर्व प्रकाशन २६ नवकोटि विशुद्धि ("सन्मति गदेश" सितम्बर ६२ ) २७. अटाई द्वीप के नकणे में मुधार की आवश्यकता ( " मन्मति संदेश " फरवरी ६७) २८ कतिपय ग्रन्थकारी का समय निर्णय ( महावीर जयनी स्मारिका सन् २ ) २६ अर्जन साहित्य में जंन उल्लेख और साप्रदायिक संकीर्णता से उनका लोप (महावीर जयनी स्मारिका ७१ ) ० मूर्ति-निर्माण जो प्राचीन रीति (महावीर जयंती स्मारिका नन् ६८ ) ३१ पीठिकादि मत्र और शासनदेव (महावीर जयती स्मारिका सन् ७० ) ३२ जैनधर्म मे महिमा की व्याख्या ("दिव्यध्वनि" जनवरी ६६ ) ३३ जैनधर्म श्रेष्ठ क्यो है ? (ट्रैक्ट, मार्च ३१ ) ३४ दर्शनभक्ति ( माथुरसघी) का शुद्ध पाठ ( जैन मदेश शोधाक न. २७ नवम्बर ६८ ) ३५ जैन खगोल विज्ञान ( मरुधर केशरी अभिनन्दन ग्रन्थ सन् ६८ ) ३६ छप्पन दिक्कुमारियें ("जैनसदेश" १३-३-६६ ) ३७ द्रव्यसग्रह का कर्त्ता कौन ? ( " जैनसदेश" ५-१-६७ ) ३५ हवनकुण्ड और अग्निश्रय ("जैनमदेश " १६-११६१) ३६ मूलाचार का संस्कृत पद्यानुवाद ( जैनगजट १४-१२-६७) ४० परकायाप्रवेश एक सत्य घटना ( 'जैनमदेशा" ७-१-७१/ पृष्ठ २८७ ܘܬܐ २०५ ܝܕ ३३० ३३६ ३५४ ३६५. ३८३ ३६६ ४२७ ४३२ ४४२ ४४६ ४५५ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ४६१ ४६७ ४७३ ४८ ५१६ ५२३ (xii ) नाम पूर्व प्रकाशन ४१ नदीश्वर द्वीप मे ५२ जिनालय (जनगजट, २१-८-६७) ४२. तिलोय पण्णत्ती अनुवाद पर गलत स्पष्टीकरण (जनगजट, १६-११-६७) ४३ भगवान् की दिव्यध्वनि ("वीर" जुलाई-अगस्त ३६) ४४ जन कम सिद्धांत (श्रमणोपासक" ५, अक्टूवर ६७) ४५. क्या कभी जैनीभाई भी विद्वानो का आदर करना सीखेंगे ? (जैनसदेश, अप्रैल ६६) ४६. वास्तुदेव (जनसवेश, १८-४-६८) ४७ श्री सीमधर स्वामी का समय (जनसदेश, २ जून ८३) ४६. तत्वार्थ श्लोक वात्तिक की हिन्दी टीका का अवलोकन (जैनसदेश, जुलाई ६६) ४६. श्रावक की ११वी प्रतिमा (जैनसदेश, ८ मई ६६) ५०. साधुओ की आहारचर्या का समय (जैनगजट, १४ सितम्बर ६७ जैनसदेश, १५-२३ अगस्त ६८ २१ दयामय जैनधर्म और उसकी देव पूजा (जनमित्र ६ दिसम्बर सन् २६) (जनसदेश २७ करवरी ८६) १२ क्षपणासार के कर्ता माधवचन्द्र ("भनेकोत" जून सन् १६६५) ५३ उद्दिष्ट दोष मीमासा ("जनसदेश" ११, १८ जुलाई सन १६६८) ५४ पूज्यापूज्य विवेक और प्रतिष्ठा पाठ (जनसदेश) ५२८ स ५४४ ५६६ ६११ ६२२ ६३३ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम (xil) पूर्वप्रकाशन ५५. प० जौहरीलाल जी रचित विद्यमान विशति तीर्थकर पूजा पर विचार ("जैन मित्र" नवम्बर ६६) ६७४ संशोधन नोट-पृष्ठ ६१ पर निबन्ध का न०४ दिया है वहाँ ५ होना चाहिये इसीतरह पृष्ठ६७ पर निबन्ध का नं० ६ दिया है वहीं ७ होना चाहिये । पृष्ठ १०४ पर न० ७ दिया है वहाँ ८ होना चाहिये, पृष्ठ ११६ पर ८ दिया है वहाँ ६ होना चाहिये, पृष्ठ १२६ पर ६ दिया है वहाँ १० होना चाहिये। सिर्फ निबन्धो के न० मे गडबड है और कोई गडबड नही है । आगे क्रम न० ठीक हो गया है जहाँ गडबड है कृपया वहाँ पहिले से ठीक कर लेवे। Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका " जैन निबन्ध रत्नावली" का यह द्वितीय भाग है इसका प्रथम भाग सन् १६६६ मे कलकत्ता से प्रकाशित हो चुका है । इस ग्रन्थ ( भाग २ ) के लेखक स्व० प० मिलापचन्द जी कटारिया केकडी ( अजमेर) निवासी है । प्रथम भाग की तरह इस भाग मे भी दि० जैन धर्म के अनेक विषयो पर -ग्रन्थोपर - और ग्रन्थकारो पर शोध पूर्ण दृष्टि से प्रकाश डाला गया है । ५० निबन्ध प्रथम भाग में निबद्ध है और ५५ निबन्ध इस भाग में निबद्ध हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से शोध पूर्ण निबन्धो के लिखने मे दिगम्बर जैन लेखको मे स्व० प० नाथूरामजी "प्रेमी", स्व० प० जुगलकिशोर जी मुख्तार, स्व० सूरजभानजी वकील, स्व० डॉ० ज्योति प्रसाद जी, स्व० डॉ० ए एन उपाध्याय, स्व० डॉ० हीरालालजी, स्व० प० परमानन्दजी शास्त्री आदि अनेक विद्वान इस युग मे हो चुके है । इन सबमे स्व० प० मिलापचन्दजी कटारिया का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । शोध की दिशायें दो धारा मे बहती हैं । प्रथम धारा मे लेखक अपने तर्क और विश्वास को प्रमुख रखकर उपलब्ध प्रमाणो का उपयोग करता है । इससे उसके विचारो का पोषण होता है साथ ही ऐतिहासिक तथ्यों का प्रकाशन भी होता है । इस पद्धति को स्वीकार करने वाले लेखक प्रमाणो के आधार पर तो लिखते हैं पर प्राय उन प्रमाणो का संग्रह करते है जो उनकी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xvi) श्रद्धा और विचार श्रेणी के पोपक हो । आगम के अनुकूल तत्वी के निर्णय पर उनकी दृष्टि नहीं रहती, बल्कि उसके विपरीत दृष्टिकोण भी अनेको का रहता है और वे इसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं कि लेखक प्राचीन आचार्यों के विरुद्ध भी निरकुश होकर लिख सके हैं । इसे वे अपना पक्षपात रहित निर्णय मान लेते हैं और इसी के अनुरूप जनता मे अपना रूप निखारते है। दूसरी धारा के विद्वान्-आगम के श्रद्धानी होते है उनका विश्वास है कि जिनागम वीतरागी सन्तो की वाणी है जो सर्वज्ञ वीतराग तोर्थंकर महावीर भगवान के द्वारा प्रसूत है अत सत्य तो वही है। भले ही उसके अनुकूल तर्क या प्रमाणो को हम अपनी न्मस्थता से एकत्र न कर सके हो उनकी शक्ति उन प्रमाणो के अन्वेषण मे लगती है, उसे विरुद्ध सिद्ध करने मे नहीं। स्व० प० मिलाप चन्द जी कटारिया दूसरी धारा के निष्णात विद्वान् थे । आगम की प्ररूपणा को तर्क की कसौटी पर रखकर उसका यथार्थ रूप निखारते थे। यह भी अवश्य है कि उनकी दुधारू तलवार के सामने जिनागम के नाम से लिखे लेख व कपोल कल्पित विचार टुकडे-टुकडे हो जाते थे और जिनागम का यथार्थ रूप सामने आ जाता था। प्रस्तुत ग्रन्थ मे कटारिया जी के प्राय सही प्रमाणो व तर्को का दर्शन होता है। यह स्वीकार करने योग्य है कि आज कुछ ऐसे ग्रथ भी भण्डारो मे पाये जाते है जो वास्तव मे न तो जिनागम हैं, न उनके लेखक जैनाचार्य हैं जिनके नामो का उल्लेख उन ग्रन्थो मे ग्रथकर्ता के रूप मे लिखा गया है। इसका प्रमाण यह है कि उन आचार्यों के अन्य सुप्रसिद्ध ग्रथो से उनका विषय मेल नहीं खाता, किन्तु उन आचार्यों के ही नही अन्य Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XVII ) सुप्रसिद्ध वीतरागी सन्तो के ग्रन्थो मे प्रतिपादित विषयो से भी विरुद्ध पडते है | यहां मैं उन ग्रंथो की विस्तृत चर्चा नही करना चाहता कारण वह विषयान्तर हो जायेगा तथापि " त्रिवर्णाचार", "सर्वोदय तीर्थ" आदि इसी कोटि के अनेक ग्रन्थ हैं। द्वादशाग का मूल रूप पूर्ण अ-प्रकट है मात्र उनके आशिक ज्ञान के आधार पर ही आचार्यो ने षट्खडागम - कषायपाहुड-गोम्मटसार महापुराण - रत्नकरण्ड श्रावकाचार - त्रिलोकसार लब्धिसार आदि ग्रन्थो का निर्माण किया है । आचाराग आदि अग और उत्पाद पूर्वादि पूर्वो का सद्भाव नही है तो भी आज लघु विद्यानुवाद आदि नाम से कल्पित ग्रन्थ प्रकाश मे आ रहे है । जिनका विषय और प्रक्रिया स्पष्ट रूप से जैन धर्म के मूल सिद्धातों के प्रतिकूल है । जैनाचार्यों के नाम से शासन देवता पूजा के ग्रन्थ ज्वालामालनी कल्प, भैरव - पद्मावती कल्प आदि प्रकाशित हैं जिनमे मात्र उनकी पूजा आदि ही जिनागम विरुद्ध नही, किन्तु पूजा पद्धति भी हिंसा पूर्ण अभक्ष, अग्राह्य पदार्थों से लिखी गई है जैन प्रतिष्ठा पाठी के नाम पर गोवर-पूजा-आरती का भी विधान लिखा गया है । यह सब कपोल कल्पित है । अथवा जिनागम को भ्रष्ट करने का ही प्रयास उन लेखको द्वारा कल्पित जैनाचार्यों के नाम पर किया गया है । स्व० प० मिलापचन्दजी कटारिया ने अपने अनेक शोध पूर्ण लेखो मे कतिपय विषयो का विश्लेषण करते हुये उनके Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xviii ) निराकरण पूर्वक जिनागम के रहस्य का उद्घाटन किया है । ६ मे आगम का स्वरूप इस प्रकार वर्णित है धवल पुस्तक पेज २५१ जो पूर्वापर विरोधरहित, निर्दोष हो, पदार्थ प्रकाशक हो ऐसे आप्त वचन ही आगम है पूर्वापर विरुद्धादेर्व्यपैतो दोष सहते . । द्योतकः सर्वभावना, आप्त व्याहृति रागम. ॥६१|| Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ का विपय परिचय इस ग्रन्थ मे ५५ निबन्ध है । (१) कुछ मे ग्रन्थो और ग्रन्थकारो की प्रचलित मान्यता की शोध पूर्ण समीक्षा है । (२) कुछ मे इतिहास की दिसगतियो का तर्क पूर्ण खण्डन है । (३) कुछ लेख आचारो-विचारो मे जो जो विकृतिया आगई हैं उनपर तीखा प्रहार है । (४) अनेक लेख सिद्धातो की सतर्क प्रमाणता के निरूपक हैं । (५) कुछ सिद्धात प्ररूपक हैं । सब लेखो के शीर्षक निवन्ध-सूची से जाने जा सकते हैं अत पुनरावृत्ति न हो उनके नाम यहा न देकर केवल वर्गीकरण किया गया है तथापि कुछ लेख तो अवश्य अपनी विशेषता रखते हैं। जैसे १-रात्रि भोजन त्याग (१) २-पचकल्याणक तिथिया और नक्षत्र (२) ३-अलब्धपर्याप्तक और निगोद (४) ४-ऐलकचर्या (५) ५-"समाधिमरण के समय मुनि दीक्षा" (१६) आदि अनेक लेख सतक सप्रमाण लिखे गये है जिनसे अनेक गलत धारणाओ का परिमार्जन होता है । कुछ लेख विद्वानो के लिए विशेष विचारणीय है उनमे ३ लेख निम्न प्रकार हैं : (१) सिद्धाताध्ययन पर विचार (१०) (२) उद्दिष्ट दोष मीमासा (५३) (३) साधुओ की आहार चर्या का समय (५०) Page #22 --------------------------------------------------------------------------  Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकार का परिचय स्व० प० मिलापचन्द जी कटारिया का जन्म केकडी ( अजमेर) मे वि स १६५८ मे हुआ था । ये किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय के छात्र न थे । स्कूल मे स्वयं उपलध्ध साधारण शिक्षा प्राप्त थे तथापि जन्म जात सस्कारो या पूर्वोपार्जित धार्मिक सस्कारो से उनकी आत्मा सस्कारित थी अतः स्वय के सत्प्रयत्न से उन्होने संस्कृत- प्राकृत भाषा का अध्ययन किया तथा जैनधर्म, जैन सिद्धात जैन न्याय, जैन ज्योतिष और जैन प्रतिष्ठा विधि आदि विषयों की उल्लेखनीय जानकारी प्राप्त कर विद्वानो मे अग्रगण्य बने । , वे अपनी सन्तान को भी उसी प्रकार धार्मिक सस्कारी से सस्कारित करते रहे उनके सुपुत्र श्री प० रतनलाल जी कटारिया से और उनकी लेखनी से जैन जगत् परिचित है उनके भी लेख निबन्धावली के प्रथम भाग मे हैं। पिता पुत्र दोनो की विचार धारायें जैसे एक ही मस्तिष्क से प्रसूत हो ऐसा लगता है । कटारिया जी खण्डेलवाल दि० जैन जाति के भूषण हैं इनके पिताजी श्रेष्ठिवयं श्री नेमिचन्द जी कटारिया थे । माता श्री का नाम दाखा बाई जैन पहाडिया गोत्र की थी। श्री मिलाप चन्द जी की पत्नी का नाम फूलबाई है वे श्री जीवन लाल जी चांदवाड, बघेरा की सुपुत्री हैं । श्रीमती फूलबाई का स्वर्गवास आषाढ सुदी ६ स २०३७ को हो गया है । स्व० प० मिलापचन्दजी के २ पुत्र हैं ? १ श्री रतनलाल कटारिया २ पदमचन्द कटारिया २ पुत्री हैं १ श्रीमती सुशीला कुमारी ( बम्बई ) तथा २. श्रीमती चन्द्रकांता देवी (व्यावर ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xx11 ) प० मिलापचन्द जी का स्वर्गवास वैशाख सुदी १० वि. स २०२८ बुधवार (५ मई १६७१ ) मे हो चुका है । आपके स्वर्गवास होने से एक श्रेष्ठ विद्वान् का अभाव हो गया। समाज के समस्त विद्वानो और समाज प्रमुख नेताओ ने "जैन संदेश " पत्र के विशेषाक मे जो ४ मई १६७२ को प्रकाशित हुआ था उसमे शोक संवेदना के समाचार श्रद्धाजलिया संस्मरणात्मकं लेख प्रकट हुये थे यह प० जी के सम्बन्धमे एक सचित्र परिचयात्मक विशेषाक था । प० जी चारो अनुयोगो के विद्वान् थे, विवादग्रस्त विषयो को सुलझाने की उनकी अपनी निराली पद्धति थी । सामने वाले व्यक्ति के हृदय पर वे अपनी अमिट छाप छोड़ते थे । देहली पचकल्याणक प्रतिष्ठा उनके आचार्यत्व मे हुई थी और वहाँ मुझे उनका गहरा परिचय हुआ था । वे विद्वान् तो थे ही सुप्रतिष्ठित प्रतिष्ठाचार्य भी थे अनेक स्थानो पर पंचकल्याणक प्रतिष्ठाये कराईं साथ ही वेदी प्रतिष्ठा, कलशध्वजारोहण अनेक प्रकार के विधि विधान, जैन पद्धति से विवाह आदि भी बहु सख्या मे उनके द्वारा सम्पन्न हुये हैं । "विद्याभूषण" की उपाधि समाज ने उन्हे २०२४ मे दी थी । वे शुद्ध आम्नायी मर्मज्ञ विद्वान् थे । उनके कुछ अप्रकाशित लेख व ग्रंथ हैं जो प्रकाशन योग्य हैं । प्रतिष्ठा शास्त्र पर उनके कुछ शोध पूर्ण लेख अभी भी अप्रकाशित है । समाज के धनी सज्जनो से अनुरोध है कि उनके द्वारा लिखित अमूल्य सामग्री को प्रकाशित कर उसे सामने लावें । उनके सुपुत्र श्री रतनलालजी कटारिया के पास वह सब सामग्री सुरक्षित है | श्री रतनलाल जो भी स्वयं एक निष्णात I Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxiii ) विद्वान् है जैन सदेश के वे यशस्वी सम्पादक व सुलेखक है पाठक उनकी लेखनी से सुपरिचित है। ___ यह निबन्धावली का दूसरा भाग-हम दि जैन संघ मथुरा से प्रकाशित करने मे लेखक के दिवगत होने के १८ वर्षों के बाद सफल हो सके है। इसमे पडितजी के ५५ निबन्ध संगृहीत हैं। इस प्रकाशन मे अपना योगदान देने वाली सस्था श्री दिगम्बर जैन संघ मथुरा के तथा आर्थिक सहयोग देने वाले सज्जनो के आभारी हैं जिनकी नामावली अन्यत्र प्रकाशित है । जगमोहन लाल शास्त्री कुण्डलपुर (दमोह) म०प्र० मायोमयोषधं शास्त्र, शास्त्र पुण्य निबधनम् । चक्षु सर्वगत शास्त्र, शास्त्र सर्वार्थ साधकम् ॥ स्वाध्यायाध्यान मध्यास्ते, ध्यानात्स्वाध्याय मातनोत्। ध्यान स्वाध्याय सपत्या, परमात्मा प्रकाशते ॥ जिणवयण मोसह मिण, विसयसुह विरेयण आमिद भूत। जरमरण वाहिहरण, खयकरण सव्वखुक्खाण ।। Page #26 --------------------------------------------------------------------------  Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ रात्रि - भोजन त्याग ★ ऐसा कौन प्राणी है जो भोजन विना जीवित रह सके । जब तक शरीर है उसकी स्थिति के लिए भोजन भी साथ है । और तो क्या वीतरागी निस्पृटपही साधुओ को भी शरीर कायम रखने के लिए भोजन की आवश्यकता पडती ही है, तो भी जिस प्रकार विवेकवानो के अन्य कार्य विचार के साथ सम्पादन किये जाते हैं उस तरह भोजन में भी योग्यायोग्य का ख्याल रक्खा जाता है। कौन भोजन शुद्ध है, कौन अशुद्ध है, किस समय खाना, किस समय नही खाना आदि विचार ज्ञानवानो के अतिरिक्त अन्य मूढ जन के क्या हो सकते हैं । कहा है- " ज्ञानेन हीना पशुभि समाना" वास्तव मे जो मनुष्य खाने-पीने मोज उडाने मे ही अपने जीवन की इतिश्री समझे हुए हैं उन्हे तो उपदेश ही क्या दिया जा सकता है किन्तु नरभव को पाकर जो हेयोपादेय का ख्याल रखते है और अपनी आत्मा को इस लोक से भी बढकर परजन्म मे सुख पहुँचाने की जिनकी पवित्र भावना है उनके लिए ही सब प्रकार का आदेश उपदेश दिया जाता है । तथा ऐसो ही के लिए आगमों की रचना कार्यकारी है । आगम मे श्रावको के आठ मूलगुण कहे है, जिनमे रात्रि भोजन त्याग भी एक मूलगुण है जैसा कि निम्न श्लोक से प्रगट हैं आप्तपंचनुतिर्जीवदया सलिलगालनम् । विमद्यादि निशाहारोदुबराणां च वर्जनम् ॥ धर्मसंग्रह श्रावकाचार Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ इसमे देव वन्दना, जीवदया पालन, जल छानकर पीना, मद्य, मास, मधु का त्याग, रात्रि-भोजन त्याग और पचोदवर फल त्याग, ये आठ मूलगुण वताये है। जव रात्रि भोजन त्याग श्रावको के उन कर्तव्यो मे है जिन्हे मूल (खास) गुण कहा गया है तब यदि कोई इसका पालन नहीं करता तो उसे श्रावक कोटि में गिना जाना क्यो कर उचित कहा जायगा ? यदि कोई कहे कि रात्रिभुक्ति त्याग तो छठवी प्रतिमा मे है इसका समाधान यह है कि छठवी प्रतिमा वो कई ग्रन्थकारो ने तो दिवामैथुन त्याग नाम से कही है। हाँ। कुछ ने रात्रिभुक्ति त्याग नाम से भी वर्णन की है, जिसका मतलब यही हो सकता है कि इसके पहिले रात्रि भोजन त्याग मे कुछ अतीचार लगते थे सो इस छठवी प्रतिमा मे पूर्ण रूप से निरतिचार त्याग हो जाता है । यदि ऐसा न माना जावे तो रात्रि भोजन त्याग को मूलगुणो मे क्यो कथन किया गया बल्कि वसुनन्दि श्रावकाचार मे तो यहाँ तक कहा है कि-रात्रि भोजन करने वाला ग्यारह प्रतिमाओ मे से पहिली प्रतिमा का धारी भी नही हो सकता । यथा एयावसेसु पढग विजदो णिसिभोयणं कुण तस्स । ठाणं ण ठाइ तम्हा णिसिभुत्तं परिहरे णियमा ॥३१४॥ - बसुनन्दि श्रावकाचार छपी हरिवश पुराण हिन्दी टीका के पृष्ठ ५२६ मे कहा है कि "मद्य, मास, मधु, जुआ, वेश्या, परस्त्री, रात्रि भोजन, कन्दमूल इनका तो सर्वथा ही त्याग करना चाहिए। ये भोगोपभोग परिमाण मे नही है।" मतलव कि हरएक श्रावक को चाहे वह किसी श्रेणी का हो रात्रि भोजन का त्याग अत्यन्त Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि - भोजन त्याग ] [ ३ आवश्यक है । यहाँ भोजन से मतलव लड्डू आदि खाद्य; इलायची, ताबूल आदि स्वाद्य, रबडी आदि लेहय, पानी आदि पेय इन चारो प्रकार के आहारो से है । रात्रि के समय "उक्त चार प्रकार के आहार के त्याग को रात्रि भोजन त्याग कहते हैं । शास्त्रकारो ने तो यहाँ तक जोर दिया है कि सूर्योदय और सूर्यास्त से दो घडी पूर्व भोजन करना भी रात्रि भोजन में शुमार किया गया है । यथा वासरस्य मुखे चांत विमुच्य घटिकाद्वयम् । योऽशनं सम्यगाधत्ते तस्यानस्तमितव्रतम् ॥ 1 -- प्रथमानुयोग की कथनी पद्मपुराण मे कथन है- जिस समय लक्ष्मण जी जाने लगे तो उनकी नव विवाहिता वधू वनमाला ने कहा कि - " हे प्राणनाथ । मुझ अकेली को छोड कर जो आप जाने का विचार करते हो तो मुझ विरहिणी का क्या हाल होगा ?" तब लक्ष्मण जी क्या उत्तर देते है सुनिये - स्ववधू लक्ष्मणः प्राह मंच मां वनमालिके । कार्ये त्वां लातुमेष्यामि देवादिशपथोऽस्तु मे ॥ २८ ॥ पुनरूचे तयेतोशः ब्रूहि चेन्नैमि लिप्येऽहं कथमध्य प्रतोतया । रात्रिभुक्तेरघैस्तदा ॥ २६ ॥ धर्मसंग्रह श्रावकाचार - I भावार्थ - हे वनमाले । मुझे जाने दो, अभीष्ट कार्य के हो जाने पर मैं तुम्हे लेने के लिए अवश्य आऊँगा । मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अगर मैं अपने वचनों को पूरा न करूँ तो जो दोष हिसादि के करने से लगता है उसी दोष का में भागी होऊँ । 1 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग सुनकर वनमाला लक्ष्मण जी से वोली-मुझे आपके आने में फिर भी कुछ सन्देह है इसलिए आप यह प्रतिज्ञा करे कि-"यदि मैं न आऊँ तो रात्रि भोजन के पाप का भोगने वाला होऊँ ।" देखा पाठक | रात्रि भोजन का पाप कितना भयकर है। प्रीतकर के पूर्व भव के स्याल के जीव ने मुनीश्वर के उपदेश से रात्रि में जल पीने का त्याग किया था जिसके प्रताप से वह महा पुन्यवान् समृद्धिशाली प्रीतकर हुआ था। वास्तव मे वात सोलह आना ठीक है कि रात्रि भोजन अनेक दोषो का घर है। जो पुरुप रात्रि को भोजन करता है वह समस्त प्रकार की धर्म क्रिया से हीन है, उसमे और पशु मे सिवाय सीग के कोई भेद नही है। जिस रात्रि मे सूक्ष्म कीट मादि का सचार रहता है मुनि लोग चलते-फिरते नही, भक्ष्याभक्ष्य का भेद मालूम नही होता, आहार पर आये हुए बारीक जीव दीखते नही ऐसी रात्रि मे दयालु श्रावको को कदापि भोजन नही करना चाहिये। जगह-जगह जैन ग्रन्थो मे स्पष्ट निषेध होते भी आज हमारे कई जैनी भाई रात्रि मे खूब माल उडाते हैं। कई प्रान्तो के जैनियो ने तो ऐसा नियम बना रक्खा है कि रात्रि में अन्न की चीज न खानी--शेप पेडा, वरफी आदि खाने में कोई हर्ज ही नही समझते । न मालूम ऐसा नियम इन लोगो ने किस शास्त्र के आधार पर बनाया है। खेद है जिन कलाकन्द, वरफी आदि पदार्थों मे मिठाई के प्रसग से अधिक जीव घात होना सम्भव है उन्हे ही उदरस्थ ; करने की इन भोले मादमियो ने प्रवृत्ति कर अपनी अजानता और जिह्वा लपटता का खूव परिचय दिया है। श्री सकलकोति जी ने श्रावकाचार मे साफ कहा है कि Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि-भोजन त्याग ] भक्षितं येन रात्रौ च स्वाद्य तेनाप्नमंजसा। यतोऽन्नस्वाययोर्भवो न स्याद्वान्नादियोगतः ॥ ३ ॥ अर्थ-जो रात्रि मे अन्न के पदार्थों को छोडकर पेडा, वरफी आदि खाद्य पदार्थों को खाते है वे भी पापी हैं क्योंकि अन्न और स्वाद्य पदार्थों मे कोई भेद नही है। तथा और भी कहा है कि दशकीटपतगादि सूक्ष्मजीवा अनेकधा । स्थालमध्ये पतन्त्येव रात्रिभोजनसगिनाम् ॥ ७ ॥ दोपकेन बिना स्थूला दृश्यन्ते नांगिनः क्वचित् । तदुद्योतवशादन्ये प्रागच्छन्तीव भाजने ॥ ६ ॥ पाकभाजनमध्ये तु पतन्त्यैवांगिनो ध्रुवम् । अन्नादिपचनादात्रो म्रियन्तेऽनंतराशयः॥ १०॥ इत्येव दोषसयुक्त त्याज्यं संभोजनं निशि । विषानमिव नि.शेष पापभीतैर्नर सदा ॥१॥ भक्षणीय भवेन्नव पत्रपूगीफलादिकम् ।। कोटाढ्य सर्वथा वरिपापप्रदं निशि ॥ ५४॥ न ग्राह्य प्रोदक धीरविभावर्यां कदाचन । तृटशांतये स्वधर्माय सूक्ष्मजन्तुसमाकुलम् ॥ ५॥ चतुर्विध सदाहार ये त्यजन्ति बुधा निशि। तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासस्य जायते ॥ १६ ॥ अर्थ-रात्रि में भोजन करने वालों की थालियो मे डाँस, मच्छर, पतगे आदि छोटे-छोटे जीव आ पडते है। यदि दीपक न जलाया जाय तो स्थूल' जीव भी दिखाई नही पडते और यदि दीपक जला लिया जाय तो उसके प्रकाश से और Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६' ] [★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अनेक जीव आ जाते हैं। भोजन पकते समय भी उस अन्न की वायु गध चारो ओर फैलती है अत उसके कारण उन पात्रो में जीव आ आकर पडते हैं । पापो से डरने वालो को ऊपर लिखित अनेक दोषो से भरे हुए रात्रि भोजन को विपमिले अन्न के समान सदा के लिए अवश्य त्याग कर देना चाहिए | चतुर पुरुषो को रात्रि मे सुपारी, जावित्री, ताबूल आदि भी नही खाने चाहिये क्योकि इनमे अनेक कीडो की सम्भावना है अत इनका खाना भी पापोत्पादक है। धीरवीरो को दया धर्म पालनार्थ प्यास लगने पर भी अनेक सूक्ष्म जीवो से भरे जल को भी रात्रि मे कदापि न पीना चाहिये । इस प्रकार रात्रि मे चारो प्रकार के आहार को छोडने वालो के प्रत्येक मास मे पन्द्रह दिन उपवास करने का फल प्राप्त होता है । f रात्रि भोजन के दोष के वर्णन मे जैन धर्म के ग्रन्थो के ग्रन्थ भरे पडे हैं । यदि उन सबको यहाँ उद्धृत किया जावे तो एक बहुत बड़ा ग्रन्थ हो सकता है । अत हम भी इतने से ही विश्राम लेते है | 11 रात्रि भोजन खाली धार्मिक विषय ही नही है किन्तु यह शरीर शास्त्र से भी बहुत अधिक सम्बन्ध रखता है । प्राय रात्रि भोजन से आरोग्यता की हानि होने की भी काफी सम्भावना हो सकती है । जैसे कहा है कि ! मक्षिका वमनाय स्यात्स्वरभंगाय मूर्द्धज । यूका जलोदरे विष्टि: कुष्टाय गृहकोकिली ॥ २३ ॥ धर्मसंग्रह श्रावकाचार ( मेधावीकृत) } अर्थ-रात्रि में भोजन करते समय अगर मक्षिका खाने मे आ जाय तो वमन होती है, केश खाने मे आ जाय तो स्वर Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि-भोजन त्याग ] [ ७ भग, जवा खाने मे आ जाय तो जलोदर और छिपकली खाने मे आजाय तो कोढ उत्पन्न होता है । इसके अलावा सूर्यास्त के पहिले किया हुआ भोजन जठराग्नि की ज्वाला पर चढ जाता है-पच जाता है इसलिए निद्रा पर उसका असर नही होता है । भगर इससे विपरीत करने से रात को खाकर थोडी ही देर में सो जाने से चलना फिरना नही होता अत पेट में तत्काल का भरा हुआ अन्न कई वार गम्भीर रोग उत्पन्न कर देता है। डाक्टरी नियम है कि भोजन करने के वाद थोडाथोडा जल' पीना चाहिए यह नियम रात्रि मे भोजन करने से नही पाला जा सकता है क्योकि इसके लिए अवकाश ही नही मिलता है । इसका परिणाम अजीर्ण होता है । हर एक जानता है कि अजीर्ण सब रोगो का घर होता है । "अजीर्ण प्रसवा रोगा" इस प्रकार हिंसा की बात को छोड़कर आरोग्य का विचार करने पर भी सिद्ध होता है कि रात्रि मे भोजन करना अनुचित है। इस तरह क्या धर्मशास्त्र और क्या आरोग्य शास्त्र सव ही तरह से रात्रि भोजन करना अत्यन्त बुरा है। यही कारण है जो इसका जगह-जगह निषेध जैन धर्म शास्त्रो मे किया गया है जिनका कुछ दिग्दर्शन ऊपर कराया गया है। अब हिंदू ग्रन्थो के भी कुछ उद्धरण रात्रि भोजन के निषेध मे नीचे लिखकर लेख समाप्त किया जाता है क्योकि लेख कुछ अधिक बढ गया है। अस्तंगते दिवानाथे आपो रुधिरमुच्यते । अन्नं मांससम प्रोक्त मार्कंडेयमहर्षिणा ।। - मार्कंडेयपुराण Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ पीछे जल रुधिर के समान अर्थ- सूर्य के अस्त होने के और अन्न मास के समान कहा है यह वचन मार्कडेय ऋपिका है | ८] J कंदभक्षणम् । महाभारत में कहा है किमद्यमांसाशन राम्रो भोजन ये कुर्वन्ति वृथा तेषा तीर्थयात्रा जपस्तपः ॥१॥ चत्वारिनरकद्वारं प्रथमं रात्रि भोजनम् । संघानानतकायकम् ॥ २ ॥ परस्त्रीगमनं चैव ये रात्री सर्वदाहार वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते ॥ ३ ॥ नोदकमपि पातव्य रात्रावत्र युधिष्ठिर ! तपस्विनां विशेषेण गृहिणां ज्ञानसंपदाम् ॥ ४ ॥ अर्थ-चार कार्य नरक के द्वार रूप है । प्रथम रात्रि मे भोजन करना, दूसरा परस्त्री गमन, तीसरा सधाना (अचार) खाना और चौथा अनन्तकाय कन्द मूल का भक्षण करना । ॥ २ ॥ जो बुद्धिवान एक महीने तक निरन्तर रात्रि भोजन का त्याग करते हैं उनको एक पक्ष के उपवास का फल होता है || ३ || इसलिए हे युधिष्ठिर । ज्ञानी गृहस्थ को और विशेष - कर तपस्वी को रात्रि मे पानी भी नहीं पीना चाहिए ॥ ४ ॥ जो पुरुष मद्य पीते है, मास खाते है, रात्रि में भोजन करते हैं और कन्दमूल खाते हैं उनकी तीर्थयात्रा, जप, तप सव वृथा है || १ || और भी कहा है कि दिवसस्याष्टमे भागे मंदीभूते दिवाकरे । एतन्नक्तं विजानीयान नक्तं निशिभोजनम् ॥ मुहूर्तोनं दिनं नक्तं प्रवदंति मनीषिणः । नक्षत्रदर्शनान्नक्तं नाह मन्ये गणाधिप । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि - भोजन त्याग ] [ ६ भावार्थ-दिन के आठवे भाग को जब कि दिवाकर मन्द हो जाता है ( रात होने के दो घडी पहले के समय को ) " नक्त" कहते है । नक्त व्रत का अर्थ रात्रि भोजन नही है । हे गणाधिप । बुद्धिमान् लोग उस समय को "नक्त" वताते है जिस समय एक मुहूर्त ( दो घडी ) दिन अवशेष रह जाता है । मैं नक्षत्र दर्शन के समय को "नक्त" नही मानता हूँ । और भी कहा है कि अंभोदपटलच्छन्ने नाश्रन्ति रविमण्डले । अस्तंगते तु भुंजाना अहो भानो' सुसेवकाः ॥ मृते स्वजनमात्रेऽपि सूतक जायते किल । अस्तंगते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ॥ अर्थ - यह कैसा आश्चर्य है कि सूर्य भक्त जव सूर्य मेघो से ढक जाता है तब तो वे भोजन का त्याग कर देते है । परन्तु वही सूर्य जव अस्त दशा को प्राप्त होता है तव वे भोजन करते है । स्वजन मात्र के मर जाने पर भी जब लोग सूतक पालते है यानी उस दशा में अनाहारी रहते हैं तव दिवानाथ सूर्य के अस्त होने के बाद तो भोजन किया ही कैसे जा सकता है ? तथा कहा है कि नैवाहुति न च स्नानं न श्राद्ध देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः ॥ अर्थ - आहुति, स्नान, श्राद्ध, देवपूजन, दान और खास करके भोजन रात्रि मे नही करना चाहिए । कूर्मपुराण मे भी लिखा है कि Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ न ह्येत् सर्वभूतानि निन्द्रो निर्भयो भवेत् । न नक्तं चैव भक्षीयाद् रात्रौ ध्यानपरो भवेत् ॥ _ - २७ वां अध्याय ६४५ वां पृष्ठ अर्थ--मनुष्य सब प्राणियो पर द्रोह रहित रहे। निद्वंद्व और निर्भय रहे तथा रात को भोजन न करे और ध्यान मे तत्पर रहे । और भो ६५३ वे पृष्ठ पर लिखा है कि "आदित्ये दर्शयित्वान्नं भुंजीत प्राडमुखे नर.।" भावार्थ-सूर्य हो उस समय तक दिन मे गुरु या वडे ___ को दिखाकर पूर्व दिशा मे मुख करके भोजन करना चाहिये। इस विषय मे आयुर्वेद का मुद्रा लेख भी यही है किहन्नाभिपद्मसंकोचश्चंडरोचिरपायत. । । अतो नक्तं न भोक्तव्यं सूक्ष्मजीवादनादपि ॥ भावार्थ—सूर्य छिप जाने के बाद हृदय कमल और नाभिकमल दोनो सकुचित हो जाते है और सक्ष्म जीवो का भी भोजन के साथ भक्षण हो जाता है इसलिये रात मे भोजन न करना चाहिये। रात्रि भोजन का त्याग करना कुछ भी कठिन नही है । जो महानुभाव यह जानते हैं कि-"जीवन के लिए भोजन है भोजन के लिए जीवन नही" वे रात्रि भोजन को नहिं करते Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक तिथियाँ और नक्षत्र तीर्थंकरो की पच कल्याणक तिथियाँ लम्बे अरसे से गडबड मे चली आ रही है। इन तिथियो की उपलब्धि के खास स्थान पूजा पाठ के ग्रन्थ है। किन्तु सस्कृत में लिखी चौवीस तीर्थकरो की पूजायें तो प्रचलित है नही, हिन्दी पद्यो मे रची भाषा पूजाओ का ही इस समय अधिक प्रचार है । इन भापापूजाओ मे उल्लिखित कई पच कल्याणक तिथिये आपस मे एक दूसरे से मिलती नही है। यह तो निश्चित है कि भाषा पूजाओ मे दी हुई तिथियो के आधार कोई प्राचीन संस्कृत प्राकृत के ग्रन्थ रहे है । इसलिए हम भी प्रकृतविपय मे भाषापूजाओ को एक तरफ रखकर इस सम्बन्ध के अन्य प्राचीन सस्कृत प्राकृत के ग्रन्थो पर विचार करना उचित समझते हैं। हमारी जानकारी मे इन तिथियो के प्राचीन उल्लेख त्रिलोक प्रज्ञप्ति, हरिवश पुराण और उत्तर पुराण इन तीन ग्रन्थो मे मिलते हैं। किन्तु तीनो ही ग्रन्थो की कई तिथिये भी आपस में मिलती नही हैं । इनमे से त्रिलोक प्रज्ञप्ति और हरिवश पुराण मे सिर्फ चार हीकल्याणको की तिथियाँ दी है, गर्भकल्याणक की तिथियो का कोई उल्लेख ही नही है । न जाने इसका क्या कारण है ? पर हरिवश पुराण मे ऐसा भी है कि-उसके ६० वे पर्व में जहाँ कि तीर्थंकरो के अनेक ज्ञातव्य विषयो का विवरण दिया है वहाँ तो गर्भ कल्याणक की तिथियो का कतई कथन नही है। किन्तु इसी ग्रथ मे जहाँ ऋषभदेव, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ और महावीर इन चार तीयं Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] [* जैन निबन्ध रलावली भाग २ करो का चरित्र लिखा है वहाँ इनकी गर्भ की तिथियें भी लिख दी है। इससे ऐसा जान पडता है कि ६० वे पर्व का यह कथन जिनसेन ने शायद किसी अन्य ग्रथ से अर्थ रूप से ज्यो का त्यो उद्धृत किया है। इसलिए उसमे गर्भकल्याणक की तिथिये न होने से इसमे भी नही है। इस सम्भावना की पुष्टि इससे भी होती है कि इस ही हरिवश पुराण पर्व १६ मे भगवान् मुनिसुव्रत की कल्याणक तिथियो से नही मिलती है। यथा-- पर्व ६० मे दीक्षातिथि-वैशाखसुद ६ (श्लोक-२२६) ज्ञानतिथि-फागुणबुद ६ (श्लोक-२५७) मोक्षतिथि-फागुणबुद १२ (श्लोक-२६७) . .. जन्मतिथि-आसोजसुद १२ (श्लोक-१७८) पर्व १६ में काती सुद ७ (श्लोक-१२) मगसर सुद ५ (श्लोक-६४) माघ सुद १३ (श्लोक-७६) माघ बुद १२ (श्लोक-१२) इस प्रकार एक ही ग्रथकार के एक ही ग्रंथ मे मुनिसुव्रत के कल्याणको की भिन्न-भिन्न तिथियो का कथन होना विद्वानो के सोचने की चीज है। हरिवश पुराण के ६० वे पर्व मे जिस प्रकार तीर्थंकरो के अनेक ज्ञातव्य विषयो का विवरण दिया है। उसी प्रकार पद्मपुराण पर्व २२ मे भी दिया है। किन्तु पद्मपुराण में Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचकल्याणक तिथियाँ और नक्षत्र ] [ १३ वहाँ किसी भी तीर्थकर की कल्याणक तिथियो का कोई उल्लेख नही है । सिर्फ नक्षत्र दिये है । अव हमको यह देखना है कि - कल्याणको की जो तिथिये उक्त तीनो ग्रन्थो मे भिन्न-भिन्न रूप से पायी जाती हैं उनमें से कौन तिथि प्रमाण यानी सही मानी जावे और कौन नही। इसके लिए और नही तो भी यह तो अवश्य विचारणीय है कि उस तिथि के साथ जो नक्षत्र लिखा है वह उस तिथि से मेल खाता है या नही । अगर मेल नही खाता है तो अवश्य ही या तो वह तिथि गलत है या वह नक्षत्र गलत है | इसमे कोई सन्देह नही । क्योकि ज्योतिष शास्त्र का यह नियम है कि हर मास की पूर्णिमा या उसके अगले पिछले दिन मे उस मास का नाम वाला नक्षत्र जरूर आता है । जैसे चैत्र मास की पूर्णिमा या उसके अगले पिछले दिन मे चित्रा नक्षत्र आवेगा । वैशाख की पूर्णिमा को विशाखा नक्षत्र आवेगा । ज्येष्ठा की पूर्णिमा को ज्येष्ठा नक्षत्र आवेगा । इत्यादि वास्तव मे मासों के नाम ही मासात मे आने वाले नक्षत्रो के कारण पडे है । जिस पूर्णिमा को जो नक्षत्र है उसके आगे के नक्षत्र जिस क्रम से उनके नाम है । २७ नक्षत्रो के क्रमश: नाम इस प्रकार हैं - १ अश्विनी २ भरणी ३ कृत्तिका ४ रोहिणी ५ मृग शिरा ६ आर्द्रा ७ पुनर्वसु ८ पुष्य आश्लेषा १० मघा ११ पूर्वा फाल्गुणी १२ उत्तरा फाल्गुणी १३ हस्त १४ चित्रा १५ स्वाति १६ विशाखा १७ अनुराधा १८ ज्येष्ठा १६ मूल २० पूर्वाषाढ २१ उत्तरापाढ २२ श्रवण २३ धनिष्ठा २४ शततारका २५ पूर्वा भाद्रपद २६ उत्तरा भाद्रपद २७ रेवती ॥ J Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] [★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ उसी क्रम में अगली प्रत्येक तिथि मे प्राय प्रत्येक नक्षत्र नम्वर वार आता जावेगा । जैसे चैन सुद १५ को चित्रा नक्षत्र है तो वैशाख वुद १० को या उसके अगले पिछले दिन मे चित्रा के वाद का १० व नक्षत्र शतभिषा आवेगा । इस हिसाव से सदा ही तिथियो के साथ किन्ही निश्चित नक्षत्रो का सम्बन्ध पाया जा सकेगा । हाँ कभी-कभी एक या दो नक्षत्रो का आगा पीछा भी हो सकता है । इसके लिए कोई सा भी नया पुराणा किसी भी वर्ष का पचाग उठाकर देख लीजिये । इस गणना के अनुसार हम जान सकते है कि अमुक मास की अमुक तिथि को अमुक-अमुक नक्षत्र ही हो सकते हैं । दूसरे नहीं । जवकि हमारे यहाँ कल्याणको की हर तिथि के साथ नक्षत्र भी दिया गया है तो इस कसौटी को लेकर हम क्यो न जाँच कर कि किस ग्रन्थ की तिथियाँ उनके साथ मे लिखे नक्षत्रो से मिलती है और किसकी नही ? उक्त ग्रन्थो मे सबसे प्राचीन त्रिलोक प्रज्ञप्ति ग्रथ माना जाता है । मत पहिले इसी की जाँच करते है । इस ग्रन्थ मे चार कल्याणको की तिथियाँ और उनके साथ नक्षत्र दिये गये हैं । गर्भ कल्याणक के तिथि नक्षत्र नही लिखे हैं । इस ग्रंथ मे लिखी तिथियो के साथ जब हम इसमे लिखे नक्षत्रो का मिलान करते है तो अनेक जगह तिथियो के साथ नक्षत्र नही मिलते है । नमूने के तौर पर नीचे की तालिका देखिये - ( अधिकार ४) -- जन्म कल्याणक- सम्भवनाथ - मगसर सुद १५ ज्येष्ठा । सुमतिनाथ श्रावण सुद ११ मघा । दीक्षा कल्याणक अनुराधा । धर्मनाथ-भादवासुद १३ पुण्य । पुष्पदन्त-पोस सुद ११ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक तिथियाँ और नक्षत्र ] ज्ञान कल्याणक [ १५ सुमतिनाथ -पोस सुद १५ हस्त । विमलनाथ पोस सुद १० उत्तराषाढ । मोक्ष कल्याणक विमलनाथ - असाढ सुद ८ पूर्वभाद्रपद । मल्लिनाथ फागण बुद ५ भरणी । त्रिलोक प्रज्ञप्ति में इनके अलावा और भी तिथि नक्षत्र अनमेल है । जिन्हे लेख विस्तार के भय से यहाँ हम लिखना नही चाहते । उक्त तिथियो के साथ उक्त नक्षत्रो की संगति किसी भी तरह नही बैठ सकती है । अत त्रिलोक प्रज्ञप्ति की ये तिथियाँ और नक्षत्र परस्पर अवश्य ही गलत है इसमे कोई सन्देह नही है । त्रिलोक प्रज्ञप्ति की तिथियो के गलत होने में एक-दूसरा हेतु भी है । वह यह है कि त्रिलोक प्रज्ञप्ति मे श्री मल्लिनाथ स्वामी का दीक्षा लिये बाद छद्मस्थ काल ६ दिन का बताया है । अर्थात् दीक्षा लिये वाद ६ दिन मे उनको केवल ज्ञान हुआ है । किन्तु इसी त्रिलोक प्रज्ञप्ति में मल्लिनाथ की दीक्षा तिथि मगसर सुद ११ की और केवल ज्ञान तिथि फागण बुद वारस की लिखी है । दोनो मे अन्तर ढाई मास का पडता है जबकि अन्तर पडना चाहिए ६ दिन का ही । इसी तरह उनमे लिखा अन्य भी कुछ तीर्थंकरो का यह छद्मस्थकाल उनकी तिथियो के साथ मेल नही खाता है । त्रिलोक प्रज्ञप्ति जैसे प्राचीन ग्रथ का इस प्रकार का पूर्वापर विरोध कथन अवश्य ही चिन्तनीय है । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ इसी तरह हरिवंश पुराण में उल्लिखित तिथि नक्षत्र भी कही कही अनमेल रहते है । जिनका विवरण लेखवृद्धि के भय से यहाँ छोड़ा जाता है । हरिवंश पुराण मे जन्म और मोक्ष इन दो कल्याणको के ही नक्षत्र दिये हैं। शेष कल्याणको के नक्षत्र शायद इसलिये नही दिये कि उनके नक्षत्र भी ही है जो जन्म के हैं । कल्याणको के नक्षत्रो का अनायास ही कुछ ऐसा योग वन गया है कि प्राय प्रत्येक तीर्थकर के पाचो कल्याणक एक ही नक्षत्र मे हो गये है । जैसे ऋषभदेव के सभी कल्याणक उत्तरापाढ में हुए है । अजितनाथ के सभी रोहिणी मे हुए है इत्यादि । कही कुछ मामूली फर्क भी है जिसका विवरण लेख के अन्त में दिये नक्शे से ज्ञात कर सकते है । जब हम आचार्य गुणभद्रकृत उत्तर पुराण मे लिखे तिथि नक्षत्रो मे मेल की जाच करते हैं तो उन्हे हम एक दम सहपाते है। यहाँ तिथियो के साथ जो नक्षत्र दिये गये हैं वे ज्योतिष सिद्धात की गणना के अनुसार वरावर बैठते चले जाते हैं । कही कुछ भी अन्तर नही पडता है । ये मास पक्षतिथियाँ इतनी प्रामाणिक है कि प० आशाधर जी ने इन्ही को अपनाई है । आशाधर जी ने एक कल्याणमाला नामक पुस्तिका निर्माण की है जो सिर्फ ३५ श्लोक प्रमाण है । वह माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला के "सिद्धांतसारादि सग्रह" के साथ छपी है । उसका अन्तिम पद्य यह है इतीमां वृषभादीनां पुष्यत्कल्याणमालिकाम् । करोति कंठे भूषां यः सः स्यादाशाधरेड़ित ॥ इससे निश्चय ही यह प० आशाधर की कृति है । इसमे आशाधर ने पचकल्याणको की जो मास पक्ष - तिथियाँ दी है Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचकल्याणक तिथियाँ और नक्षत्र ] [ १७ वे सब उत्तरपुराण के अनुसार ही हैं। और खूबी यह की है कि वर्णन मास-पक्ष तिथियो के अनुक्रम से किया है जिससे लिपिकारो के द्वारा भी कोई गल्ती होने की सम्भावना नही रहती है और न किसी शब्द के विभिन्न अर्थ करने की गुजायश ही। हाँ कही-कही कल्याणमाला और मुद्रित उत्तर पुराण की तिथियो में भी कुछ भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। उस पर भी यहां विचार कर लेना समुचित हैं। दोनो की तिथिभिन्नता निम्न प्रकार है मुद्रित उतरपुराण कल्याणमाला में - - - चन्द्रप्रभ का मोक्ष फागुण सुद ७ ज्येष्ठा फागुण बुद ७ धर्मनाथ का गर्भ वैशाख सुद १३ रेवती वैशाख बुद १३ अरनाथ का गर्भ फागुण बुद ३ रेवती फागुण सुद ३ मल्लिनाथ का ज्ञान मगसर सुद ११ पोस बुद २ पार्श्वनाथ का ज्ञान चैत बुद १४ विशाखा चैत बुद ४ इसमे से जो तिथिये कल्याण माला की हैं वे सही हैं। क्योकि जो नक्षत्र ऊपर उत्तर पुराण मे दिये हैं उनकी सगति कल्याण माला की तिथियो के साथ बैठती है, मुद्रित उत्तर पुराण की उक्त तिथियो के साथ नही। अत' उत्तरे पुराण की उक्त तिथियो के प्रतिपादक श्लोक लिपिकारो के प्रमाद से अशुद्ध लिखने मे आ गये हैं। ऐसा ज्ञात होता है। इसमें से शुक्ल कृष्ण पक्ष का अन्तर तो हो जाना आसान ही है । और । जो मल्लिनाथ के ज्ञानकल्याण की तिथि मे अन्तर है वहाँ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ भी पोस बुद २ की मिति ही सही है क्योकि उत्तर पुराण मे मल्लिनाथ का सयम अवस्था का दीक्षा दिन मगसर सुद ११ का लिखा है । अत दीक्षा से ६ दिन वाद पोस वुद २ को इन्हे केवल ज्ञान हुआ यह सिद्ध होता है देखो उत्तरपुराण पर्व ६६ श्लोक ५१-५२ । इनका हिन्दी अनुवादको ने सगति पूर्वक ठीक अर्थ नही देकर जन्म की तरह ही अर्थात् मगसर सुदी ११ अर्थ कर दिया है किन्तु दोनो श्लोक युग्म हैं उनका अर्थ यह होना चाहिए कि जन्म की तरह के ही दिनादि (मगसर सुदी ११) मे छाद्मस्थ्य काल के ६ दिन बीतने पर अर्थात् पोष वुदी २ को केवल ज्ञान हुआ। , रहा पार्श्वनाथ के ज्ञान कल्याण की तिथि मे अन्तर सो यहां भी मुद्रित उत्तर पुराण के पर्व ७३ श्लोक १४४ मे उल्लिखित चैत बुदी १४ की मिति वाला "चतुर्दश्या" पाठ अशुद्ध है इस तिथि के साथ विशाखा नक्षत्र का मेल वैठता नही है इस वास्ते पाठ भी "चतुर्थ्याच" चाहिए। चैत बुदी ४ को विशाखा नक्षत्र की सति भी भली प्रकार बैठ जाती है। पार्श्वनाथ के सभी कल्याणक विशाखा नक्षत्र मे हुए है अत इनके ज्ञान कल्याणक में भी जो विशाखा बताया है वह ठीक है। उसका मेल चौथ के साथ ही . बैठता है १४ के साथ नही अत चैत बुदी ४ ही ज्ञानकल्याणक की तिथि है। इस प्रकार कल्याण माला की तिथियो और उत्तर पुराण की तिथियो मे जो मामूली फर्क था वह भी रफा होकर दोनो ग्रन्थो की सव ही तिथियां वरावर वरावर मिल जाती हैं। मुद्रित उत्तर पुराण मे सम्भवनाथ की दीक्षा की तिथि और मुनि सुव्रत की जन्म तिथि का उल्लेख नही है ऐसा हस्तलिखित प्रतियो मे उक्त तिथि सूचक पाठ छूट जाने Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचकल्याणक तिथियां और नक्षत्र ] [ १६ से हुआ है। वर्ना गुणभद्र स्वामी ने जब सब की हो कल्याणक तिथिये दी है तो वे इन दो तिथियो को न दें ऐसा कैसे हो सकता है । अथवा इसका कारण यह हो कि सभवनाथ का मृगशिर नक्षत्र तो निश्चित है ही और नियमत यह नक्षत्र मगसर सुदी १५ को आता ही है अत यह तिथि विना बताये स्वत ही सिद्ध हो जाती है इस ख्याल से ग्रन्थकार ने यह तिथि नही लिखी है। अब रही मुनिसुव्रत की जन्म तिथि की वात सो ३, ५, १८, २४ इन चार तीर्थंकरो को छोडव र वाकी के तीर्थंकरो की अपनी-अपनो तप की जो तिथि है वही जन्म को तिथि है इस तरह मुनिसुव्रत की जो तप की तिथि वैशाख बुदो १० दी है वही जन्म तिथि हो जाती है इमलिए उसे अलग से नही दिया है। - इन प्रकार अशुद्ध पाठो की वजह से जो उत्तर पुराण की कुछ तिथियो मे गडबड पडी हुई थी वे तो शुद्ध करली गई किन्तु फिर भी एक चीज का हल होना वाकी रह गया कि उत्तर पुराण की कुछ एक तिथियो की सगति उनके साथ मे लिखे नक्षत्रो से नही बैठती है। नीचे हम उसी पर विवेचन करते हैं - (१) अरनाथ के सव कल्याणक रेवती नक्षत्र में हुए है किन्तु ज्ञानपीठ से प्रकाशित उत्तरपुराण पर्व ६५ श्लोक २१"मार्गशीर्षे सिते पक्षे पुष्ययोगे चतुर्दशी," अर्थात् अरनाथ का जन्म मगसर सुदी १४ पुष्य नक्षत्र मे लिखा है यहा तिथि के साथ नक्षत्र का मेल बैठता नही है अत यह पाठ अशुद्ध है शुद्ध पाठ 'पुष्य योगे' के स्थान मे पूषयोगे' होना चाहिए तव उसका अर्थ रेवती नक्षत्र होता है क्योकि रेवती' का स्वामी देव 'पूपा' माना गया है। पुष्पदन्त कृत अपभ्र श महापुराण Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ 1 २० ] भाग २ पृष्ठ ३२८ पर भी "पूस जोइ चउ दह मइ वासरि" पाठ दिया है और टिप्पणी मे भी "पूस जोइ का अर्थ "रेवती" नक्षत्र ही किया है । यहाँ यह बात ध्यान मे रखने की है कि उत्तर पुराण मे सभी तीर्थंकरो के जन्म कल्याण के नक्षत्र बताते हुए नक्षत्र का नाम न लिखकर उसके स्वामी देव का नाम ही लिखा गया है । ( २ ) नमिनाथ के सव कल्याणक अश्विनी नक्षत्र मे हुए हैं किन्तु मुद्रित उत्तर पुराण मे इनका जन्म पर्व ६६ श्लोक ३० मे 'आपाढे स्वाति योगे' अर्थात् आषाढ वद १० स्वाति नक्षत्र मे लिखा है यहाँ भी तिथि के साथ नक्षत्र का मेल वनता नही है अत यह पाठ अशुद्ध है । शुद्ध पाठ 'आषाढेऽश्विनी योगे' होना चाहिए अर्थात् 'स्वाति, की जगह अश्विनी होना चाहिए । आपाढ वद १० के साथ अश्विनी की गति बैठ जाती है । यहाँ यह शा नही करनी चाहिए कि ग्रथकार ने जन्म नक्षत्रो मे तो नक्षत्र के स्वामी देव के नाम दिये हैं फिर यहाँ अश्विनी नक्षत्र नाम कैसे दिया इसका उत्तर यह है कि अश्विनी नक्षत्र के स्वामी देव का नाम भी अश्विनी ही है । ( ३ ) विमलनाथ का मोक्ष पर्व ५६ श्लोक ५५ मे " आषाढस्योत्तराषाढे" अर्थात् अपाढ बुदी ८ उत्तराषाढ मे लिखा है किन्तु शुद्ध पाठ " आषाढस्योत्तरा भाद्र होना चाहिए क्योकि आषाढ बुदो ८ को उत्तर भाद्रपद ही पडता है और यही नक्षत्र विमलनाथ के अन्य सव कल्याणको मे है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक तिथियाँ और नक्षत्र 1 [ २६ (४) वासुपूज्य के सव कल्याणक शतभिषा नक्षत्र मे हुए है किन्तु मुद्रित उत्तर पुराण में इनकी दीक्षा तिथि फागुण बुदी १४ ज्ञान तिथि माघसुदी २ और मोक्ष तिथि भादवा सुदी १५ की लिखी है और तीनो का नक्षत्र विशाखा लिखा है लेकिन इन तीनो तिथियो के साथ विशाखा की सगति किसी तरह बैठती नही है, 'शतभिषा' के साथ बैठती है यहाँ भी पाठ की अशुद्धि ही जान पडती है । तीनो पाठो मे विशाखा वाक्य अशुद्ध ही जान पडता है तीनो पाठो मे विशाखा,वाक्य अशुद्ध है उसके स्थान मे शुद्ध वाक्य भिषका' अथवा 'भिषाका' होना चाहिये । शतभिषा के आगे 'का' प्रत्यय लगाने से शत 'भिषका' या शत 'भिषाका रूप वनता है--जिसका सक्षिप्त नाम भिषका या भिषाका होता है जैसे सत्यभामा का भामा, यह सक्षिप्त नाम होता है। ग्रथकार गुणभद्र ने भी यहाँ “शतभिषाका" इस वाक्य का सक्षिप्त नाम "भिषाका" का प्रयोग किया है। प्रतिलिपि करने वालो ने भिषाका प्रयोग को अशुद्ध समझकर उसे विशाखा वना डाला है । इस तरह की गल्तियाँ अन्य कई हस्तलिखित ग्रथो में भी देखने को मिलती है । और शुद्ध पाठ को अशुद्ध बना दिया जाता है। इसका एक उदाहरण इस लेख में ऊपर भी बताया गया है कि "आषाढेऽश्विनी योगे” यह शुद्ध पाठ था जिसका "आषाढे स्वातियोगे" ऐसा अशुद्ध बना दिया गया है। यह हम इस लेख मे ऊपर लिख चुके हैं कि प्राय प्रत्येक तीर्थंकर के अपने-अपने पाँचो, कल्याणक अधिकतर एक ही नक्षत्र में हुए है। इस अपेक्षा से भी वासुपूज्य के गर्भजन्म की तरह शेष तीन कल्याणक भी शतभिषा मे ही होने चाहिए। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ एक ही नक्षत्र मे प्रत्येक तीर्थंकर के प्राय पाचकल्याणक होने के सम्वन्ध मे इतना और समझ लेना चाहिए कि उत्तर पुराण में कही कही उस नक्षत्र के स्थान में उसके पास वाले नक्षत्र का नाम दिया है । जैसे श्रेयासनाथ के चार कल्याणक श्रवण नक्षत्र में और मोक्ष उनका धनिष्ठा में लिखा है । पार्श्वनाथ के चार कल्याणक विशाखा में और जन्म उनका अनिलयोग में लिखा है । अनिल कहिये पवनदेव यह स्वाति नक्षत्र का स्वामी माना जाता है । अत यहाँ अनिल का अर्थ स्वाति नक्षत्र होता है । चन्द्रप्रभ के तीन कल्याणक अनुराधा मे और जन्म उनका शक्रयोग मे लिखा है । शक्र का अर्थ इन्द्र यह ज्येष्ठा नक्षत्र का स्वामी देव माना जाता है । अत यहाँ शक्र का अर्थ ज्येष्ठा नक्षत्र होता है । मोक्ष भी इनका ज्येष्ठ मे ही लिखा है । पुष्पदन्त के चार कल्याणक मूल नक्षत्र मे और जन्म इनका जैत्र योग मे लिखा है । जैत्र का अर्थ इन्द्र यह ज्येष्ठा का स्वामी माना जाता है । अत यहाँ जैत्र का अर्थ ज्येष्ठा नक्षत्र होता है इत्यादि । इस प्रकार कल्याणको के एक समान नक्षत्रो के साथ उनके समीप का नक्षत्र का नाम कही किसी कल्याणको मे दिये जाने का तात्पर्य यही समझना चाहिए कि उस तिथि को वे दोनो ही नक्षत्र क्रम से भुगत रहे थे । आप पचांग उठाकर देखिए तो आपको बहुत बार एक ही तिथि मे क्रमवार दो नक्षत्रो के अश भुगतते नजर आयेगे। बल्कि कभीकभी तो एक ही तिथि मे दो नक्षत्रो के अश और पूरा एक नक्षत्र इस तरह तीन नक्षत्र भुगतते मिलेगे । इसलिये समीप के क्षण का नाम होने से उसे भी एक तरह से अन्य समान नक्षत्र के अन्तर्गत ही गिनना चाहिए और एक ही नक्षत्र में Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ इसे अपवाद कथन नही समझना पचकल्याणक तिथियाँ और नक्षत्र ] पाँचो कल्याणक होने में चाहिए । इस प्रकार उत्तरपुराण की सब तिथियो और उनके साथ लिखे हुए नक्षत्रो की संगति भी अच्छी तरह से बैठ जाती है । यहाँ मैं यह भी सूचित किये देता हूँ कि कवि पुष्पदन्त कृत अपभ्रश महापुराण मे भी कल्याणको के तिथि नक्षत्र उत्तर पुराण के अनुसार ही लिखे है । प० आशाधर जी के सामने त्रिलोक प्रज्ञप्ति और हरिवंश पुराण के मौजूद होते हुए भी उन्होने स्वरचित कल्याणमाला मे इन दोनो ग्रन्थो की तिथियो की उपेक्षा करके एक उत्तरपुराण की कल्याणक तिथियो को स्थान दिया है । इससे उत्तरपुराण की तिथियो की प्रामाणिकता पर गहरा प्रकाश पडता है । इस सारे ऊहापोह का फलितार्थ यही है कि उत्तर पुराण की शुद्ध तिथियां वे ही हैं जो प० आशाधर जी ने कल्लाणमाला में लिखी हैं । और कवि पुष्पदन्तकृत महापुराण मे जो तिथि नक्षत्र लिखे हैं वे भी सब उत्तरपुराण के अनुसार लिखे है । यहाँ लिखी तिथियां भी कल्याणमाला से मिलती हैं । ये पुष्पदन्त गुणभद्राचार्य से करीव १७५ वर्ष बाद ही हुए हैं । इस तरह उत्तरपुराण, अपाश महापुराण और कल्याणमाला इन तीनो की तिथिये एक समान मिल जाने से तथा नक्षत्रो की संगति उनके साथ लिखी तिथियो के साथ बैठ जाने से तिथि विषयक गडवड जो लम्बे चली आ रही थी वह अब समाप्त हो हमको हमारी पूँजा पाठ की पुस्तको की माफक शुद्ध करके काम में लेनी चाहिए । अरसे से हमारे यहाँ गई है | अतः अव तिथियो कों इसी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ इसके अलावा मूल ग्रन्थ मे शुद्ध पाठ होने पर भी अनुवादकों ने कही कही गलत मास- तिथि नक्षत्र लिख दिये हैं। अत. सहूलियत के लिये पचकल्याणक तिथियो का शुद्ध नकशा भी हम साथ मे दिये देते हैं । इस विषय में एक विशेष ज्ञातव्य बात यह है कि -- महापुराण कार दक्षिणी होते हुए भी उन्होने पंचकल्याणक तिथियाँ दक्षिणी पद्धति से नही देकर सभी उत्तरी पद्धति से ही दी है क्योंकि सभी तीर्थकरो के पाँचो केल्याणक उत्तर प्रान्त मे ही हुए हैं । Page #51 --------------------------------------------------------------------------  Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पंच कल्याणक शुद्ध तिथि और नक्षत्र । तीर्थकर गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष नक्षत्र १ ऋषभनाथ प्रापाठकृ. २ चैत्र कृ ६ चंय ६ फाल्गुनकृ११ माघ कृ १४ उत्तरापान २ प्रजितनाथ ज्येष्ठ क ३० माघ शु १० घ शु ६ गौप शु ११ चैत्र शु १ रोहिणी ३ सभवनाथ फाल्गुन शु.८ तिक शु १५ मा शी शु १५ । र्तिक कृ ४त्र शु६ मृगशिरा ४ अभिनन्दननाथ वैशाख शु ६ माघ शु १२ माघ शु १२ शु १४ वैशाख शु ६ नवंमु ५ सुमतिनाय श्रावण शु. २ चैत्र शु. ११ वैशाख शु ६ चैत्र शु ११ चैत्र शु ११ मघा ६ पद्मप्रभ माघ कृ ६ कार्तिक १३ कार्तिक कृ १३ चैत्र शु १५ ाल्गुन कृ ४ चित्रा ७ सुपाश्र्वनाथ माद्रपद शु ६ ज्येष्ठ शु १२ प्ठ शु १२ फाल्गुन कृ ६ ॥ कृ ७ विशाखा ८ चन्द्रप्रभ व ५ गोप कृ ११ प कृ ११ ल्गुन कृ.७ । कृ ७ तुराधा ६ पुष्पदत ल्गुन कृ ६ मा शी.शु १ मा शो शु १ कार्तिक शु. २ पाद्रपद शु ८ मूल १० शीतलनाथ चैत्र कृ ८ माघ १२ माघ क १२ पिक १४ प्राचिन ८ पूर्वापाठ ११ श्रेयांसमाप k : ६ का १९. गुन.. - १२ वासुपूज्य Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनतनाथ १५ धर्मनाथ १६ शातिनाथ १७ कुन्थुनाथ १८ अरनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ नेमिनाथ प्राषाढ कृ ६फा कृ १४ फाल्गुन कृ १४माघ शु २ भाद्रपद शु १४ शतभिषा ज्येष्ठ कृ १०माघ शु ४ माघ शु ४ माघ शु ६ प्राषाढ कृ ८ उत्तराभाद्रपद कार्तिक कृ ज्येष्ठ कृ १२ ज्येष्ठ कृ १२ चैत्र कृ. ३० चैत्र कृ ३० रिवती व कृ १३रेवती माघ शु १३ माघ शु १३ पौष शु १५ ज्येष्ठ शु ४ पुष्य भाद्रपद कृ ज्येष्ठ कृ १४ज्येष्ठ कृ १४ पौष शु १० ज्येष्ठ कृ १४ भरणी श्रावण कृ १० वैशाख शु १ वैशाख शु. १ चैत्र शु ३ वैशाख शु १ कृत्तिका फाल्गुन शु मा शो शु. १४मा शो शु १० कार्तिक शु १२वंत्र कृ ३० रिवती चैत्र शु १ मा शो शु ११मा शी शु ११ पो कृ पुष्य २ फाल्गुन शु ५ आश्विनी श्रावण कृ २ वैशाख कृ १०वैशाख कृ १० वैशाख कृ ६ का कृ १२ श्रवण प्राश्विन कृ आषाढ कृ.१० प्राषाढ कृ १०म. शी शु १ वैशाख कृ १४/प्राश्विनी कार्तिक शु ६श्रावण शु ६ श्रावण शु ६ आश्विन शु आपाढ शु ७ चित्रा उत्तराषाढ वैशाख कृ २पौष कृ ११ पोष कृ ११ चैत्र कृ ४ श्रावण शु ७ विशाखा पापाढ शु ६ चैत्र शु १३ मा शी कृ १०वैशाख शु १० कातिकक १४/उत्तराफाल्गुनी स्वाति ३० २३ पाश्र्वनाथ २४ महावीर Page #54 --------------------------------------------------------------------------  Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 नन्दीश्वर भक्ति का १८ वाँ पद्य ( एक विलुप्त प्राचीन प्रथा ) * निष्ठापित जिनपूजा शचूर्ण स्नपनेन दृष्ट विकृत विशेषा । सुरपतयो नंदीश्वर जिन भवनानि प्रदक्षिणीकृत्य पुनः ॥ १८ ॥ इस पद्य का " चूर्णस्नपनेन" वाक्य गम्भीर अध्ययन का विषय है । इस श्लोक का सही शब्दार्थ निम्न प्रकार है - "जिन्होने जिन पूजा को समाप्त किया है और चूर्णस्नान से जिनमे विकार - विशेष देखा जाता है ऐसे इन्द्र नन्दीश्वर द्वीप के जिन मन्दिरो की प्रदक्षिणा करके फिर ..." इसकी संस्कृत टीका मे प्रभाचन्द्र ने "चूर्णस्नपनेन दृष्ट विकृत विशेषा ।" वाक्यो की व्याख्या ऐसी की है-(देखो - "क्रिया कलाप " पृष्ठ २४० ) । 1 "चूर्णं सुगन्धि द्रव्याणा पिष्ट तेन स्नपने अभिपवस्तेन दृष्टो विकृतो विकारवान् विशेषो ये येषु वा" इसमे सुगन्धित, द्रव्यो के पिसे हुए आटे को चूर्ण बताते हुए लिखा है किउस चूर्ण के स्नान से जिन इन्द्रो मे विकार - विशेष दिखाई, दे रहा था । इसके विपरीत प० लालाराम जी ने इस पद्य का अर्थ इस प्रकार किया है - " सुगन्धित चूर्ण से अभिषेक करके जिन्होंने महाभिषेक और जिनपूजा पूर्ण करली है और इसीलिये। जिनको महा आनन्द आ रहा है उस आनन्द से Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ जिनकी आकृति कुछ विकृत हो रही है ऐसे इन्द्र नन्दीश्वर द्वीप के उन चैत्यालयो की प्रदक्षिणा देते हैं" ॥ १६ ॥ यहाँ लालाराम जी ने पूजा समाप्ति के अवसर पर इन्द्रो द्वारा जिन प्रतिमाओ का सुगन्धित चूर्ण से अभिषेक किया जाना अर्थ किया है यह अर्थ किसी तरह उचित नही है क्योकि एक तो जिन - प्रतिमाओ का चूर्णाभिषेक कही नही बताया है । दूसरा, चूर्णाभिषेक के साथ जिन पूजा की समाप्ति यानि - जिनपूजा के अनन्तर प्रतिमा का चूर्णाभिषेक भी कही किसी शास्त्र मे नही बताया है और न ऐसा कही प्रचलित ही है अत 'चूर्ण स्नपन' शब्द का सम्बन्ध प्रतिमा के साथ न होकर इन्द्रो देवो के साथ है और उन्ही मे विकार विशेष लक्षित किया गया है कोई प्रतिमा मे माने ऐसा नही । चैत्य भक्ति मे भी, वताया है कि - "विगता-युध विक्रिया विभूषा प्रकृतिस्था कृतिना जिनेश्वराणाम्" ।। १३ ।। जिन प्रतिमा आयुध और अलंकारादि से रहित सदा स्वाभाविक रूप से युक्त होती है । इसके सिवा लालाराम जी साहब ने जो 'आनन्द' विषयक उल्लेख किये है उनके वाची भी कोई शब्द मूल श्लोक मे नही है अत उनका यह कथन भी निराधार है । f इस विषय को ठीक तौर से समझने के लिए आचार्य जिनसेन का निम्नाकित कथन देखिये जो उन्होने जिन जन्माभिषेक के पूर्ण होने के अवसर का 'आदि पुराण' मे किया गंधांम्बु स्नपनस्यांते जय कोलाहलः समम् । व्यास्युक्षीम मराश्चक्र: सच्चूर्णे गंधवारिभिः ॥ --- 1 ॥ १६६ ॥ पर्व १३ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदोश्वर मुक्ति का १८ वा. पद्य ] . [ २७. . अर्थ, मेरु पर सुगन्धित जल से.. भगवान् का अभिषेक किये वाद-देवो ने जय जय शब्द के कोलाहल के.साथ उत्तम चूर्ण और सुगन्धित जल को आपस मे एक दूसरो पर डाला। इसी विषय को जटासिंह नन्दि कृत वरागचरित मे भीस्पष्टता से वताया गया हे निम्नाकित श्लोक देखियेतत प्रहृष्टो वर चूर्णवासः, सद्गधिमिश्र. सलिल सलीलम् ॥ लाक्षारस रंजनरेणुभिश्च, चिक्षेप गानेषु परस्परस्य । ॥१०१॥ सर्ग २३ अर्थ-पूजा किये वाद हर्षित हुए राजा ने लीला पूर्वक उत्तम सुगन्धित चूर्ण और उत्तम गध मिश्रित जल को तथा लाल रग गुलाल' को परस्पर मे एक-दूसरो के शरीर पर डाला। __ ऊपर के इन दो उद्धरणो से स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि-महाभिषेक पूजा समारोह की पूर्णता के अवसर पर इन्द्रादि देव आनन्द विभोर होकर आपस मे सुगन्धित चूर्ण और रग-रगीला सुगन्धित जल एक दूसरे के शरीर पर डालते थे और इसी का अनुसरण प्राचीन काल मे मनुष्य श्रावक भी करते थे जैसा कि ऊपर वराग चरित्र मे बताया है । यह प्रथा. श्वेतावरो के यहाँ तो अव भी प्रचलित है, उनके यहाँ पयूषण, पर्व मे एकम के रोज भगवान का जन्म कल्याणक मनाते हुए अभिषेक पूजा करके फिर सर्वसाई परस्पर एक दूसरे के कपडो पर केशरिया रंग का हाथ का छापा लगाते है । आज दिगम्बर सम्प्रदाय मे इस प्रकार की परम्परा का लोप हो गया है किन्तु ऊपर लिखे नन्दीश्वर भक्ति पाठ के १८ वें पद्य का यही आशय है । उस पद्य मे इन्द्रो का एक विशेषण "दृष्ट विकृत विशेषा" लिखा है उससे तो यह वात- और भी स्पष्ट हो जाती है कि-इन्द्रो के परस्पर मे सुगन्धित चूर्ण या सुग Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ धित जलं डालने से ही उनको वेषभूषादि का रूप पलटा हुआ नजर आने लगा था। अत. उक्त पद्य का जो प० लालाराम जी ने "सुगन्धित चूर्ण से प्रतिमा का अभिषेक किया जाना" अर्थ किया है वह ठीक नही है। जैसे इन पण्डितो ने आदि पुराण के "गोदोहै प्लाविता धात्री" वाक्य का दुग्धाभिषेक गलत अर्थ करके लोगो को भ्रम में डाल रखा था जिसका स्पष्टीकरण हमने "जैन निवन्ध रत्नावली' ग्रन्थ मे किया है, उसी तरह की भूलं ये लोग नन्दीश्वर भक्ति पाठ के उक्त श्लोक के अर्थ करने में भी कर रहे है। उक्त पद्य की सस्कृत टीका मे प्रभाचन्द्र ने भी प्रतिमा का चूर्ण-स्नपन करना नही बताया है किन्तु चूर्णस्नपन से इन्द्रो मे विकार विशेष होना लिखा है, इससे प्रभाचन्द्र के विवेचन का भी वही आशय प्रगट होता है जैसा कि आदिपुराण और 'वरागचरित्र मे खुलासा लिखा गया है। अर्थात् इन्द्रो ने प्रतिमा का अभिषेक चूर्ण से नही किया किन्तु चूर्ण को आपस मे एक ने दूसरो पर डाला ऐसा मूल' ग्रन्थकार और टीकाकार दोनो का अभिप्राय साफ प्रगट होता है। यही बात सकलकीति कृत आदिपुराण (लघु) मे इस प्रकार लिखी है 'व्यातुक्षी निर्मला चक्र . जय कोलाहलैः समम् । ' पूरित कलरोः भक्त्या सचूगर्गंधवारिभि ॥२०॥ पार्श्वपुराण में भी इस प्रकार लिखा है - गंधाम्बुस्नपनस्वांत जयनंवादि सत्स्वरः। व्यातुक्षी ममरारचक्र . सचूणर्गंधवारिभिः ॥१४॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PL अलब्धपर्याप्तक और निगोद ससारी जीव पर्याप्तक, निवृत्य पर्याप्तक और अलब्धपर्याप्तक ऐसे तीन प्रकार के होते हैं। अलब्धपर्याप्तक का पर्याय नाम लब्ध्य पर्याप्तक भी होता है। जिस भव मे जितनी पर्याप्तिये होती है उतनी को जो पूर्ण कर लेते है वे जीव पर्याप्तक कहलाते हैं। अगर उनके कम से कम शरीर पर्याप्ति भी पूर्ण हो जाये तब भी वे पर्याप्तक कहला सकते है। और जो पर्याप्तियो को पूर्ण करने में लगे हुए हैं किन्तु अभी शरीर पर्याप्ति को भी पूरी नहीं की हैं आगे पूरी करने वाले है वे जीव निवृत्यपर्याप्तक कहलाते हैं। तथा जो जीव एक उच्छ्वास के १८ वें भाग प्रमाण आयु को लेकर किसी पर्याय मे जन्म लेते है और वहां की पर्याप्तियो का सिर्फ प्रारम्भ हो करते हैं । अत्यल्प आयु होने के कारण किसी एक भी पर्याप्ति को पूर्ण न करके मर जाते हैं वे जीव अलब्धपर्याप्तक कहलाते हैं । ऐसे जीवो के भव क्ष द्रभव कहलाते है। वे जीव १ उच्छ्वास मे १८ वार जन्मते है और १८ वार मरते हैं । इस प्रकार के क्षुद्रभवो के धारी अलब्धपर्याप्तक जीव ही होते हैं अन्य नही। सभी सम्मान जन्म वाले जीव पर्याप्तक, निवृत्यपर्याप्तक और अलब्धपर्याप्तक होते हैं। शेष गर्भ और उपवाद जन्म वाले जीव पर्याप्तक-निवृत्यपर्याप्तक ही होते है, १ शास्त्रो मे सिर्फ 'अपर्याप्तक' शब्द में भी इसका उल्लेख किया Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] [★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अलब्ध पर्याप्त नही होते । विशेष यह है कि - सिर्फ सम्मूच्छिम मनुष्य अलब्ध पर्याप्तक ही होते है । वे पर्याप्तकनिवृत्यपर्याप्तक नही होते हैं। सभी एकेन्द्रिय- विकलेन्द्रिय जंग्वो का एकमात्र सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है । सज्ञीअसज्ञी पचेन्द्रिय नरतिर्यञ्च सम्मूच्र्छन जन्म वाले भी होते है और गर्भज भी होते है । भोगभूमि मे सम्मूर्च्छन त्रस जोव नही होते हैं । अत वहाँ अलब्धपर्यान्तक त्रस जीव भी नही होते है । दिगम्वर मत मे सम्मूच्छिम मनुष्यो को भी सज्ञी माना है । परन्तु श्वेताम्बर मत में उन्हें असज्ञी माना है और उनकी उत्पत्ति भोगभूमि मे भी लिखी है। जो जीव अलब्ध पर्यातक होते है उनकी जघन्य और उत्कृष्ट आयु एक उच्छ्वास के १८ वे भाग मात्र होती है । अर्थात् न इससे कम होती और न इससे अधिक होती है । 4 1 दिगम्वर मत मे मनुष्यो के भेद इस प्रकार बताये Ĉ हैं “.. ' आर्य खण्ड, म्लेच्छं खण्ड, भोगभूमि और कुभोग भूमि ( अन्नद्वीप ) इनं ४ क्षेत्रो की अपेक्षा गर्भज मनुष्यो के ४ भेद होते हैं। ये चारो ही पर्याप्त निर्वृत्य पर्याप्त होने से प भेद होते हैं । सम्मूर्च्छन मनुष्य आर्यखण्ड मे ही होते हैं और वे नियम से अलब्धपर्याप्तक ही होते हैं । अत उसका एक ही भेद हुआ । इस १ को उक्त ८ मे मिलाने से कुल ६ भेद मनुष्यो के होते हैं । t -1 ܆ 1 T अलब्ध पर्याप्त जीव एकेन्द्रिय को आदि लेकर पाँचो ही इन्द्रियो के धारी होते है । एकेन्द्रियो मे पृथ्वीकायिक आदि अलब्धपर्याप्त स्थावर 'जीव अपनी-अपनी स्थावर काय मे पैदा होते हैं । इसी तरह विकलत्रय अलब्धपर्यास्तको के Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलव्धार्याप्तक और निगोद । [ ३१ उत्पत्ति स्थान भी पर्याप्त विक्लत्रयो की तरह हो समझने चाहिये। तथा सम्मूच्छिम पर्याप्त तिर्यञ्चो के भी जो-जो उत्पत्ति स्थान होते है, उन्ही में सम्मझिम अलब्धपर्याप्तक पचेन्द्रिय तिर्यञ्चो की उत्पत्ति समझ लेनी चाह्येि। क्योकि ये अलब्ध पर्याप्तक जोव गर्भज तो होते नही, ये तो सव सम्मृछिम होते है। अत जैसे अन्य पर्याप्त सम्मूच्छिप त्रस जीव इधर-उधर के पुद्गल परमाणुओ को अपनी कायें बनाकर उनमे उत्पन्न हो जाते है । उसी तरह ये अलब्धपर्याप्तक त्रस जीव भी उत्पन्न हो जाते है। किन्तु अलब्धपर्याप्तक मनुष्यो की उत्पत्ति स्थान के विषय मे स्पष्ट आगम निर्देश इस प्रकार है। -"कर्म भूमि मे चक्रवर्ति-वनभद्रनारायण की सेनाओ मे जहाँ मल मूत्रो का क्षेपण ोता है उन स्थानो मे, तथा वीर्य, नाक का मल, कान का मल, दन्तमल, कफ इत्यादि अपवित्र पदार्थों मे सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं । वे अलव्धपर्याप्तक होते हैं और उनका शरीर अगुल के असख्यातवे भाग प्रमाण होता है। - "मूलाराधना पृष्ठ ६३८" गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा ६३ मे लिखा है कि -सम्मूच्छिम मनुष्य नपुसक लिंगी होते हैं। इसी प्रमग मे इस गाथा की सस्कृत टीका मे लिखा है कि-"स्त्रियो की योनि, काख, स्तन मूल और स्तनो के अन्तराल मे तथा चक्रवर्ती की पटराणो विना अन्य के मलमूत्रादि अशुचि स्थानो मे सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। । श्री कुन्दकुन्दाचार्य सूत्र पाहुड मे लिखते हैं किलिगम्मिय इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु । भणिओ सुहुमो काओ तासं कह होइ पन्यज्जा ॥ २४ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जैन निवन्ध गनावली भाग २ अर्थ-त्रियो की योनि मे, स्तनो के बीच में, नामि में और काख मे सूटम शरीर के धारक जीव (सम्मच्छिममनुप्य) कहे गये है। अन स्त्रियो की महाव्रती दीक्षा को हो सकती है । ( नही हो सकती है । ) इस विषय में कवि द्यानतराय जी का निम्न पद्य देखिये-~ नारि जोनि पन नाभि काख में पाइये। नर नारिन के मलमूत्तर में गाइये ॥ मुरदे मे सम्मूच्छिम सनी जोयरा । अलगधपरयापत्ती दयाधरि होयरा ॥ - "धर्मविलास" लोकप्रकाश (श्वेताम्बर ग्रन्थ) के ७ वें सर्ग के श्लोक ३ से २ मे लिखा है कि "मल, मूत्र, कफ, नासिकामल, वमन, पित्त, रक्त, राध, शुक्र,मृतकलेवर, दम्पति के मैथुनकर्म मे गिरने वाला वीर्य पुरनिर्द्ध मन (खाल-चर्म, गदी नाली ) गर्भज मनुष्य सम्वन्धी सव अपवित्र स्थान, इतनी जगह सम्मूच्छिम मनुष्यो जैनागम शब्दसग्रह (अर्धमागधी-गुजराती कोश) मे पृष्ठ ३६८ पर इसी का पर्यायवाची "णगरनिटमण" (नगरनिधमन) को अर्थ इस प्रकार दिया है- शहर का गन्दा पानी निकालने का मार्ग, खाल। यहां दोनो अर्थ उपयोगी हैं, दोनो मे सम्मच्छिम मनुष्योत्पत्ति होती है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] की उत्पत्ति होती है। ३. (३) जीवसमास की मलधारी हेमचन्द्र कृत सस्कृत वृत्ति (श्वेतांबर) में लिखा है-सम्मूच्र्छन-गर्भनिरपेक्ष वात पित्तादिष्वेवमेव भवन सम्मूछस्तस्माज्जाता सम्मूछेजा मनुष्या, एते च मनुष्यक्षेत्र एव गर्भजमनुष्यामेवोच्चारादिषूत्पद्य ते नान्यत्र, यत उक्त प्रशापनायाम्-"कहि ण भते । सम्मुच्छिम मणुस्सा समुच्छन्ति ? गोयमा । अतो मणुस्स खेत्तं पणया लीसाए जोयणसय सहस्सेसु अढ्ढा इज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीतु छप्पण्णाए अन्तर दीवेसु गम्भवक्कतिय मणुस्साण चेव इच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा वतेसु वा पित्तेसु वा पूएसु वा मोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्क पोग्गलपरिमाडेसु वा थीपुरिस सजोएसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव अणुइएसु ठाणेसु सम्मूच्छिम मणुस्सा समुच्छति, अगुलस्स असखेज्जइभागमित्ताए ओगाहणाए असण्णी मिच्छादिट्ठी सव्वाहिं पज्जत्तीहिं अपज्जत्तगा अतोमुहुत्ताउया चेव काल करेंति, सेत्त सम्मृच्छिम मणुस्सा।" (1) कह भयव उववज्जेपणिदि मणुया सम्मुच्छिमाजीवा।। गोयम | मणुस्मखित्ते णायव्वा इत्थ ठाणेसुः ।। उच्चारे पासवणे रवले सिंघाणवत पित्तेसु । सुक्के सोणिय गय जीवकलेवरे नगर णिद्धमणे । महुमज्जमस मंखण थी सगे सव्व असुइठाणेसु.।'. उप्पज्जति चयति च समुच्छिमा मणुय पचिदी ।। - नैक टाइप मे छपे शब्द अन्यत्र नही मिलते । ... . -' विचारसार,प्रकरण (पंद्य म्न सूरि) जीवाभिगमे Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ ऐसा झलकता है कि-जैनधर्म के जिन फिरको मे स्त्री मुक्ति मानी है उनके यहां स्त्रियो के नाभि, काख, स्तन आदि अवयवो मे सम्मूछिम मनुष्यो की उत्पत्ति का कथन नहीं किया है। इनकी उत्पत्ति अढाई द्वीप से बाहर नहीं है। क्योकि जिन पदार्थों में इनकी उत्पत्ति होती है ये सब गर्भज मनुष्यो से सम्बन्धित होते है। लोक मे भोगभूमि-कर्मभूमि के जितने भी मनुष्य होते हैं उनसे असख्यात गुणी सख्या इन सम्मच्छिम मनुष्यो की रहती है । ऐसा मूलाचार पर्याप्ति अधिकार की गाथा १७५-- १७८ और त्रिलोकप्रज्ञप्ति अधिकार ४ गाथा २६३४ मे कहा है। जिस प्रकार सभी सम्मूच्छिम मनुष्य अलब्ध पर्याप्तक होते हैं और उनकी काय एक अगुल के असख्यातवें भागप्रमाण की होती है, उस प्रकार से न तो सभी सम्मूच्छिम पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अलब्धपर्याप्तक होते है और न उन सवकी काय एक अगुल' के असख्यातवें भाग की ही होती है। बल्कि सम्मूछिम पचेन्द्रियतिर्यञ्च मत्स्य की काय तो एक हजार योजन की लिखी है। जबकि गर्भज तिर्यञ्चो मे किसी भी तिर्यञ्च की काय पांच सौ योजन से अधिक नही लिखी है। तथा न केवल सम्मच्छिम पचेन्द्रिय तिर्यञ्च ही किन्तु एकेन्द्रिय से चौइन्द्रिय तक के तिर्यच भी सव ही अलब्धपर्याप्तक नही होते है। हाँ जो तिर्यंच अलब्धपर्याप्तक होते है उन सवकी काय अलवत्ता एक अगुल' के असख्यातवें भाग की होती है। किन्तु इसमे भी तरतमता रहती है, क्योकि असख्यातवें भाग के भी हीनाधिक भाग होते है। इसलिए Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] [ ३५ , तो आगम मे लिखा है कि -सबसे छोटा शरीर सूक्ष्म निगोदिया अलब्धपर्याप्तक का होता है। अगर सभी अनब्धपर्याप्तको के शरीरो का प्रमाण एक समान होता तो केवल सूक्ष्म निगोदिया का ही नाम नही लिखा जाता। (देखो त्रि० प्रज्ञप्तिद्वि० भाग पृष्ठ ६१८)। अलब्धपर्याप्तक जीव सूक्ष्म और वादर दोनो तरह के होते है । तथा ये प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति कायिक ही नही किन्तु सभी स्थावरकाय और सम्मच्छिमत्रसकाय के धारी होते है। तथा ये एक श्वास मे १८ वार जन्म-मरण करते है। कितने ही शास्त्रसभा में भाग लेने वाले जैनी भाई यह समझे हुए हैं कि जो १ श्वास में १८ बार जन्म-मरण करते हैं वे निगोदिया जीव होते है। यह उनकी भ्रात धारणा है । एक श्वास मे १८ बार जन्म-मरण करना यह निगोदिया जीव का लक्षण नहीं है। यह तो अलब्धपर्याप्तक जीव का लक्षण है । ऐसे अलब्धपर्याप्तक जोव तो केवल निगोद मे ही नही, अन्य स्थावरों और त्रसो मे भी होते है। जहाँ वे एक उच्छवास मे १८ बार जन्म-मरण करते है। इसलिए एक श्वास मे १८ बार जन्म-मरण करना यह निगोदिया का कतई लक्षण नहीं है। किन्तु एक शरीर मे अनन्त जीवो का रहना यह निगोद का निर्वाध लक्षण है। निगोद का ही दूसरा नाम साधारण वनस्पति है जिन्हे अनन्तकाय भी कहते ४ देखिये-स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा-उस्सासट्ठारसमे, भागेजो मरदि ण समाणेदि । एक्को fय पज्जत्ती, लद्धि अपुण्णो हवे सो दु॥ १३७ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] [* जेन निवन्ध रत्नावली भाग २ हैं एक शरीर मे रहने वाले वे अनन्त जीव सब साथ-साथ ही जन्मते है साथ-साथ ही मरते है और साथ-साथ ही श्वास लेते है। एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण करने वाले अलब्धपर्याप्तक जीव तो न तो साथ-साथ जन्मते-मरते हैं, न साथ-साथ श्वास लेते हैं और न उन वहुतसो का कोई एक शरीर ही होता है। हाँ अगर ये जीव साधारण-निगोद मे पैदा होते हैं तो बेशक वहाँ वे सव साथ-साथ ही जन्मते-मरते और श्वास लेते है। ये ही अलब्धपर्याप्तक जीव वहाँ एक श्वास मे १८ बार जन्म-मरण करते है। इनसे अतिरिक्त अन्य जीव निगोद मे एक श्वास मे १८ वार जन्म-मरण नही करते हैं। तात्पर्य यह है कि समस्त निगोद मे पर्याप्तक जीव भी होते हैं। उनमे एक अलब्धपर्याप्तक जीव ही सिर्फ एक श्वास मे १८ वार जन्म-मरण करते है, पर्याप्तक नही । पर्याप्तक जीव भी वहाँ अनन्तानन्त हैं जिनकी संख्या हमेशह अलब्धपर्याप्तको से अधिक रहती है। निगोद ही नहीं अन्यत्र सादिको मे भी जो अलब्धपर्याप्तक जीव होते है वे ही एक श्वास मे १८ वार जन्म-मरण करते है, सव नही । सिद्धान्तग्रन्थो मे इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी लोगो मे भ्रात धारणा क्यो हुई ? इसका कारण निम्नाकित उल्लेख जात होते है - (१) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की सस्कृत टीका ( शुभचन्द्रकृत ) पृष्ठ २०५ गाथा २८४ मे-निगोदेषु जीवो अनन्तकाल वसति । ननु निगोदेषुएतावत्कालपर्यन्त स्थितिमान् जीव एतावत्कालपरिमाणायु किं वा अन्यदायु. इत्युक्त प्राह-"उपरिहीणो" इति आयु परिहीन उच्छ्वासाष्टादशैकभागलक्षणान्तर्मुहूर्तः स्वल्पायुविशिष्ट प्राणी । इसका हिन्दी अनुवादक जी ने कोई अनुवाद नही किया है, Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] [ ३७ इसका हिन्दी अर्थ इस प्रकार है - निगोद मे जीव अनन्तकाल तक रहता है इससे क्या निगोद की इतनी आयु होती है ? इसका उत्तर है कि यहां आयु 'परिहीन' पाठ का अर्थ है - एक उच्छ्वास के १८ वें भाग प्रमाण अन्तर्मुहूर्त की स्वल्पायु निगोद की होती है । ( २ ) बनारसी विलास ( वि० स० १७०० ) के कर्मप्रकृति विधान प्रकरण मे एक निगोद शरीर में, जीव अनन्त अपार । धरें जन्म सब एकठें मरहिं एक ही बार ॥ ६५ ॥ मरण अठारह वार कर, जनम अठारह बेव, एक स्वास उच्छ्वास से, यह निगोद को टेव ॥ ६६ ॥ ( ३ ) बुधजन कृत - "छहढाला” ढाल २ जिस दुख से थावर तन पायो वरण सको सो नाहि । बार अठारह मरा औ, जन्मा एक श्वास के माँहि ॥ १ ॥ (४) दौलतराम जी कृत — छहढाला काल अनंत निगोद मंझार, बोत्यो एकेन्द्रीतनधार ॥ ४ ॥ एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दुखभार ॥ (५) दौलत विलास - - ( पृष्ठ ५५ ) सादि अनादि निगोव दोय में पर्यो कर्मवश जाय । स्वांस उसास मशार तहाँ भवमरण अठारह थाय ॥ ( ६ ) द्यानतराय जी कृत पद संग्रह -- ज्ञान बिना दुख पाया रे भाई । भौवस आठ उसांस साँस मे साधारण लपटाया रे, भाई Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ माणा। काल अनत यहाँ तोहि वीते जब भई मन्द पवाया रे, सरत निकास निगोद सिंधु ते पावर होय न सारा रे, भाई. (७) बुध महाचन्द्र कृत भजन संग्रह(क) जिनवाणी सरा सुख दानो। इतर नित्य निगोद माहि जे, जीव अनन्त समानी, एक सांस अष्टादश जामन-मरण कहे दुखदानी ॥ जिन० () सदा सुख पावे रे प्राणी । निगोद बसि एक स्वांस अष्टादस मरण कहानी। सात-सात लत योनि भोग के, पढ़ियो यावर आनी । स० (८) स्वरूपचन्द जी त्यागीकृत स्वरूप भजन शतक (क) काल मनन्त निगोद विताये, एक उश्वास लखाई। अण्टादश भव मरण लहे पुनि थावर देह धराई। हेरत क्यो नहीं रे । निज शुद्धातम भाई । (ख) दुख पायोजी भारी। नित इतर सि युग निगोद मे, काल अनन्त वितायो । विधिवश भयो उसांस एक मे, अठवस जनमि भरायो॥ दुख पायो जो भारो। इन उल्लेखो मे निगोद (एकेन्द्रिय) के एक श्वास मे १८ बार जन्म-मरण बताया है । इससे प्राय सभी विद्वानो तक ने एक श्वास मे १८ वार जन्ममरण करना निगोद का लक्षण समझ लिया है जो भ्रान्त है, क्योकि एक श्वास मे १८ वार जन्म-मरण अन्य पचस्थावरो और नसो मे भी जो अलब्धपर्याप्तक हैं पाया जाता है अत उक्त लक्षण अति व्याप्ति दोष से दूषित है। तथा सभी निगोदो मे श्वास के १८ वे भाग मे मरण नही पाया जाता (सिर्फ अलब्धपर्याप्तको मे ही पाया Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] जाता है, पर्याप्तको मे नही ) अत उक्त लक्षण अव्याप्ति दोष से भी दूषित है । एकेन्द्रियो मे महान् दुख बताने की प्रमुखता से ये कथन किये गये है । इन सब उल्लेखो मे "अलब्धपर्याप्त" विशेषण गुप्त है वह ऊपर से साथ में ग्रहण करना चाहिए "छहढाला " ग्रन्थ का वहुत प्रचार है यह विद्यार्थियों के जैन कोर्स मे भी निर्धारित है मत इसके अध्यापन के वक्त निगोद का निर्दोष लक्षण विशेषता के साथ विद्यार्थियो को बताना चाहिए ताकि शुरू में ही उन्हे वास्तविकता का ज्ञान हो सके और आगे वे भ्रम मे नही पडे । टीकाओ मे भी यथोचित सुधार होना चाहिए । ग्रन्थकारो ने इस विषय मे अभ्रान्त ( निर्दोष ) कथन भी किये हैं, देखो - ( १ ) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका पृष्ठ ३३ ( गाथा ६८ ) सूक्ष्म निगोदीऽपर्या तक. XXX क्षुद्रभवकाल १/१८ जीवि - त्वामृत । (२) दौलत बिलास ( पृष्ठ १५ ) - सुधि लीज्यो जी म्हारी । लब्धि अपर्याप्त निगोद मे एक उसास मझारी । जन्ममरण नव दुगुण व्यथा की कथा न जात उचारी । सुधि लीज्यो जी म्हारी | ( ३ ) मोक्षमार्ग प्रकाशक ( तीसरा अधिकार ) प० टोडरमल्ल जी साहब । LO पृष्ठ ९२ ( एकेन्द्रिय जीवो के महान् दुख ) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ], [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ वहुरि आयुकर्मते इनि एकेन्द्रिय जीवनि विषै जे अपर्याप्त है तिनि के तो पर्याय की स्थिति उश्वास के १८ वे भाग मात्र ही है । पृष्ठ ६६ ( तिर्यञ्च गति के दुख ) बहुरि तिर्यञ्च गति विषै वहुत अलब्धपर्याप्त जीव हैं तिनि को तो उश्वास के १८ वें भाग मात्र आयु है । पृष्ठ ९७ ( मनुष्य गति के दुख ) वहुरि मनुष्य गति विषे असख्याते जीव तो लब्धिअपर्याप्त हैं ते सम्मूर्च्छन ही है तिनि की तो आयु उश्वास के १८ वे भाग मात्र है । ( ४ ) नयनसुख जी कृत पद ( अद्वितीय भजनमाला प्रथम भाग पृष्ठ ६० ) = नैन चैन = नैनसुख । नैन-नयन, चैन= सुख= नयनसुख । .. सुन चैन चैन जिन बैन अरे मत जनम वृथा खोवे । तरस तरस के निगोद से निकास भयो, तहाँ एक श्वास में अठारह वार मरे थो । सूक्ष्म से सूक्ष्म थी तहाँ तेरी आयुकाय, परजाय पूरी न करे थो फिर मरे थो । भाव पाहुड में कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है छत्तीस तिष्णि सया छावट्टिसहस्सवारमरणाणि । अन्तो मूहूत मज्झे पत्तोसि निगोयवासम्मि ॥ २८ ॥ वियलदिए असीदो सट्ठी चालीसमेव जाणेह । पंचिन्दिय चउवीसं खुदभवंतोमूहूत्तस्स ॥ २६ ॥ इन गाथाओ मे निगोद वास मे ६६३३६ वार जनममरण एक अन्तर्मुहूर्त में बताया है । तथा विकलत्रय और - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलब्धपर्याप्त और निगोद ] [ ४१ पचेन्द्रिय के क्षुद्रभवो की सख्या बताई है किन्तु एकेन्द्रिय के क्षुद्रभवो की सख्या नही दी है विना उसके ६६३३६ भवो का जोड नही बैठता है गोम्मटसार जीवकाड गाथा १२२ से १२४ मे यही कथन है वहाँ एकेन्द्रियो के क्षुद्रभवो की अलग सख्या बताई है इस पर सहज प्रश्न उठता है कि क्या भाव पाहुड में यहाँ एक गाथा छूट गई है ? इसका समाधान यह है किमंजित ब्रह्मकृत - "कल्लाणालोयणा" ( माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला के सिद्धान्तसारादि संग्रह मे प्रकाशित ) ग्रन्थ मे भी ये ही दो गाथायें ठीक इसी तरह पाई जाती हैं । श्रुतसागर ने भी सहस्रनाम ( अध्याय ६ श्लोक ११९ ) की टीका में पृष्ठ २२७ पर ये ही २ गाथाएं उद्धृत की है। इससे १ गाथा छूटने का तो सवाल नही रहता है । अब रहा एकेन्द्रिय जीवो के क्षुद्रभवो की संख्या का सवाल सो वह परिशेष न्याय से बैठ जाता है । वह इस तरह कि - विकलतय और पचेन्द्रिय के क्षुद्रभवो की कुल संख्या गाथा २६ मे २०४ बताई है इसे ६६३३६ में से बाकी निकालने पर अपने आप शेष ६६१३२ एकेन्द्रिय के क्षुद्रभव हो जाते हैं । कुन्दकुन्द के पाहुड ग्रन्थ सूत्र रूप है अत यहाँ परिशेष न्याय का आश्रय लेकर १ गाथा की बचत की गई है । ~ निगोद का अर्थ साधारण अनन्तकायिक वनस्पति होता है देखो - (1) अनगार धर्मामृत पृष्ठ २०२ ( माणिकचन्द्र ग्रन्थ माला ) & निगोत लक्षण यथा - ( गोम्मटसार गाथा १६० से १६२ धवला प्रथम भाग पृष्ठ २७० ) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ गोम्मटसारादि सिद्धात ग्रन्थो मे निगोद का कही भी १८ वार एक श्वास मे जन्म मरण करना ऐसा लक्षण नही दिया है प्रत्युत एक शरीर में अनन्तजीवो का एक साथ निवास करना ऐसा लक्षण दिया है । ४२ ] ( साहारणोदयेण णिगोद शरीरा हवति सामण्णा । ते पुण दुविहा जीवा बादर सुहमाति विष्णेया ) ।। १६० ।। साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥ १६१ ॥ जत्थेक्कु मरइ जीवो तत्थ दु मरणं हवे अणताणं । arrat जत्थ एक्को वक्कमणं तत्थ णंताणं ॥ १६२ ॥ ( 11 ) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका शुभचन्द्रकृत पृष्ठ २०४ ( गाथा २८४ ) - "नि नियता गामनन्तसंख्याविच्छिन्नानां जीवानां गां क्षेत्र ददातीति निगोदं । निगोदं शरीरं येषां ते निगोदा: निकोता वा साधारण जीवाः ( अनन्तकायिका ) ॥"" ऐसी हालत में उपरोक्त भाव पाहुड गाथा २८ में जो निगोद शब्द दिया है उसका अर्थ "अनन्तकायिक एकेन्द्रिय वनस्पति नही बैठता है क्योकि ६६३३६ भव जो निगोद के बताए है उनमे त्रस स्थावर सभी है। इसका समाधान बहुत से भाई यह करते है कि --- निगोद का अर्थ लब्ध्यपर्याप्तक करना चाहिए किन्तु यह अव्याप्ति दूषण से दूषित है क्योकि सभी निगोद लब्ध्यपर्याप्तक नही होते बहुत से पर्याप्तक भी होते हैं । इसके सिवाय यह अर्थ निगोद के प्रसिद्ध अर्थ (अनन्त Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] [ ४३ कायिक वनस्पति ) से भी विरुद्ध जाता है । जयचन्द जी की वचनिका भी अस्पष्ट और कुछ भ्रात है । अत हमारी राय में भावपाहुड गाथा २८ के 'निगोद' का अर्थ " क्षुद्र" करना चाहिए गाथा २६ मे निगोद का पर्यायवाची क्षुद्र शब्द दिया भी है। इसके सिवा गोम्मटसार जीवकाण्ड में भी जो इसी के समान गाथा है उसमे भी निगोद की जगह क्षुद्र शब्द का प्रयोग है देखो -- तिष्णिसया छत्तीसा छावट्टि सहस्सगाणि मरणामि । अन्तो मुहुत्तकाले तावदिया चेव खुद्दमवा ॥ १२२ ॥ 'निगोद' का 'क्षुद्र, कुत्सित, अप्रशस्त, हीन, अर्थ भी होता है देखो ( १ ) सूत्र प्राभृत गाथा १८ "तत्तो पुण जाई निग्गोद” मे निगोद का अर्थ श्रुतसागर ने अप्रशसनीय दिया है ( निगोदं प्रशंसनीयर्गात न गच्छतीत्यर्थः ) (२) हरिवंश पुराण ( जिनसेन कृत ) सर्ग ४ - मृदङ्ग नाडिकाकारा निगोदा पृथ्वीवये ॥ ३४७ ॥ ते चतुर्थ्यांच पंचम्यां नारकोत्पतिभूमयः ॥ ३४८ ॥ सर्वेन्द्रिक निगोदास्ते विद्वाराश्च त्रिकोणकाः ॥ ३५२ ॥ धर्मा निगोवजा जीया खमुत्पत्य पतन्त्यघः ॥ ३५५ ॥ नरंक में नारकियो के जो उत्पत्ति स्थान इन्द्रक आदि विल है उन कुत्सित स्थानो को यहाँ 'निगोद' कहा है । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ संस्कृत टिप्पणकार ने भी यही अर्थ किया है - "निगोद. नारकोत्पत्ति स्थानानि ।" धर्म विलास ( द्यानतराय कृत ) पृष्ठ १७ - ( उपदेश शतक ) 4 वसत अनन्तकाल बीतत निगोद मांहि । अनन्तभागज्ञान अनुसरे है । अखर छांसठि सहस तीन से छत्तीस वार जीव । अंतर मुहूरत मे जन्मे और मरे हैं ॥ ४८ ॥ दौलत विलास पृष्ठ ८० - जव मोहरिपु दीनी घुमरिया तसवश निगोद मे पडिया । } तहं श्वास एक के मांहि अष्टादश मरण लहाहि ॥ हि मरण अन्तर्मुहूर्त मे छयासठ सहस शत तीन ही। षट्तीस काल अनन्त यो दुख सहे उपमा ही नहीं ॥ पृष्ठ ३७ -- फिर सादि औ अनादि दो निगोद मे परा, जहं अंक के असंख्य भाग ज्ञान ऊबरा । तहं भवअन्तर्मुहुर्त के कहे गणेश्वरा । छयासठ सहस त्रिशत छत्तीस जन्मधर मरा । यो बसि अनन्तकाल फिर तहाँ ते नीसरा ॥ · इन उल्लेखो मे ६६३३६ क्षुद्रभव सिर्फ निगोद-एकेन्द्रिय के ही बताए हैं यह ठीक नही है । 1 वृन्दावन कृत चौबीसी पूजा ( विमलनाथ पूजा जयमाल ) मे यह कथन ठोक दिया हुआ है वहाँ देखो । श्वेताम्बर ग्रन्थो में इस विषय मे कथन इस प्रकार है f Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलब्धपर्याप्त और निगोद | " जनमिद्धात बोलम ग्रह " ग्रन्थमाला बीकानेर ) पृष्ठ १६ - २१ मे [ ४५ दूसरा भाग ( सेठिया जैन लिखा है - अनन्न जीवो के पिण्ड भूत एक जिनने प्रदेश है शरीर को निगोद कहते हैं । लोकाकाश के उतने सूक्ष्म निगोद के गोले हैं एक एक गोले मे असख्यात निगोद हैं एक-एक निगोद मे अनन्त जीव है । ये एक श्वास मे -- कुछ अधिक १७ जन्म मरण करते हैं, ( एक मुहूर्त में मनुष्य के ३७७३ श्वासो च्छ्वास होते है ) एक मुहूर्त्त मे ६५५३६ भव करते है, निगोद का एक भव २५६ आवलियो का होता है । सूक्ष्म निगोद मे नरक से भी अनन्तगुणा दुख ( अज्ञान से ) है । कु सत्तरस समहिया फिर इगाणु पाणम्मि हुति खुड्डुभवा । सगतीस सय तिहत्तर पाणू पुण इग मुहुत्तम्मि | पणसट्ठि सहस्स पणसय छत्तीसा इग मुहुत्त खुड्डुभवा । आवलियाणं दो सय छप्पन्ना एग खुडुभवे ॥ दिगम्वर आम्नाय मे जहाँ १८ वार जन्म-मरण बताया है श्वेताम्वर आम्नाय मे कुछ अधिक १७ वार बताया है । दिगम्बर आम्नाय मे क्षुद्रभवो की सख्या ६६३३६ बताई है तब श्वे० आम्नाय मे ६५५३६ वताई है दिगम्वर आम्नाय मे यह सख्या स्थावर और त्रस सभी लब्ध्यपर्याप्तको की बताई है किन्तु श्वेताम्वर आम्नाय मे इसके लिए सिर्फ एक निगोद शब्द का सामान्य प्रयोग किया है। दोनो आम्नायो मे इस प्रकार यह मान्यता भेद है ( यह भेद सापेक्षिक है दोनो की सगति सम्भव है ) महान् सिद्धान्त ग्रन्थ धवला मे निगोद का कथनभाग ३ पृष्ठ ३२७, भाग ४ पृष्ठ ४०६, ४०८ भाग ७ पृष्ठ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ ५.०६, भाग ८ पृष्ठ १६२, भाग १४ पृष्ट ८६ आदि मे है। ब्रह्मचारी मूलशकर जी देशाई ने अपनी वृहद् पुस्तक "श्री जिनागम" पृष्ठ १७५ से १८१ मे धवला के कथनो की आलोकी है और यहाँ तक लिखा है कि-धवलाकार ने "निगोद" के अर्थ को समझा ही नही है किन्तु हमे देशाई जी के कयन मे कुछ भी वजन नही मालुम पडता है। धवला का कथन कोई आपत्तिजनक नही है। अगर देशाई जी हमारे इस लेख की रोशनी मे पुनर्विचार करें तो उन्हे भी धवला का कथन सुसगत प्रतीत होगा। भावपाहुड को उक्त २८ वी गाथा की संस्कृत टीका श्रुतसागर ने शब्दार्थ भात्र की है। अत उससे भी विषय स्पष्ट नही होता है। इन दिनो श्री शान्तिवीर नगर से अष्ट पाहुड ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है जिसके हिन्दी अनुवादक श्री प० पन्नालाल जी साहित्याचार्य सागर हैं। अनुवादक जी ने उक्त गाथा २८ का अर्थ करते हुए लिखा है कि-६६३३६ भव निकोत जीवो के होते है न कि निगोद जीवो के। निकोत शब्द का अर्थ आपने लब्ध्यपर्याप्तक जीव किया है । किन्तु आपने ऐसा कोई शास्त्र प्रमाण नही लिखा जहाँ निकोत का अर्थ लब्ध्यपर्याप्तक किया हो। वल्कि लाटो सहिता सर्ग ५ श्लोक ६१, ५ जिस तरह "श्री महावीर जी" पोस्ट आफिस है उसी तरह नदी के इस पार "श्री शातिवीर नगर"--नाम से अलग नया पोस्ट आफिस खुल गया है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] [ ४७ २,६४, ८२ मे साधारण और निकोत दोनो को एकार्थवाचक लिखा है ।" ऊपर जो ६६३३६ भव संख्या बताई है उसका मतलब यह है कि एक अलब्धपर्याप्तक जीव जिसकी कि श्रम और स्थावर पर्यायों में अलग-अलग अधिक से अधिक भव सख्या आगम मे वताई है उन सब भवो को यदि वह लगातार धारण करे तो ६६३३६ भव धारण कर सकता है । इससे अधिक नही, इन सबो को धारण करने मे उसे ८८ श्वास कम एक मुहूर्त्तकाल लगता है जिसे "अन्तर्मुहुर्त्त काल" सज्ञा शास्त्रो मे दी है । इस हिसाव से - अलब्धपर्याप्तक जीव एक उच्छ्वास मे १८ बार जन्मता है और १८ बार मरता है । अत १८ का भाग ६६३३६ मे देने से नब्ध सख्या ३६८५- १/३ आती हैं। यानी ३६८५ उच्छ्वासो मे वह ६६३३६ भव लेता है और एक मुहूर्त्त के ३७७३ उच्छ्वास होते है । फलितार्थ यह यह हुआ कि ६६३३६ भव लेने में उसे ८८ श्वास कम एक मुहूर्त का काल लगता है । इन ६६३३६ क्षुद्रभवो में से किसकिस पर्याय मे कितने कितने भव होते है उसका विवरण इस भाँति है ६ स्वामी कार्ति के यानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका पृष्ठ २०४ गाथा २८४ मे लिखा है - निगोद शरीर येषा ते निगोदा निकोता वा साधारण जीवा । भाव पाहुड गाथा ११३ की स्रुतमागर कृत संस्कृत टीका मे भी निगोद और निकोत एकार्थवाची हो लिखे हैं । मूलाचार ( पचाचाराधिकार गाथा २८ को वसुनन्दि कृत टीका ) में पृष्ठ १६४-१६५ पर निकोत शब्द निगोद के पर्यायवाची रूप में दिया है । ' 4 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ ] एकेन्द्रियो के द्वोन्द्रिय के त्रीन्द्रिय के चतुरिन्द्रिय के पचेन्द्रियों मेअसज्ञी तिर्यच के सनी तिथंच के मनुष्य के ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ ६६१३२ ५० ६० ४० is is its ८५ कुल जोड=६६३३६ देखो गोम्मटसार जोवकाड गाथा १२२ - आदि तथा स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा वडा पृष्ठ ७६ एकेन्द्रियो के ६६१३२ क्षुद्र भवो का विवरण निम्न प्रकार है चार स्थावर और साधारण वनस्पति ये पाँचो सूक्ष्म वादर होने से १० भेद हुए । प्रत्येक वनस्पति वादर ही होती है मत उसका एक भेद १० मे मिलाने से ११ हुए । इन_११ का भाग उक्त ६५१३२ मे देने से लब्ध ६०१२ आते हैं । वस हर एक अलब्धपर्याप्तक स्थावर जीव के ६०१२ क्षुद्रभव होते हैं । इस विषय को इस तरह समझना कि — कोई जीव किसी एक पर्याय में मरकर पुन पुन उसी पर्याय मे लगातार जन्ममरण करे तो कितने वार कर सकता है इसकी भी आगम मे नियत सख्या लिखी मिलती है । जैसे नारकी - देव - भोग भूमिया जीव मरकर लगते हो दुवारा अपनो उसी पर्याय मे पैदा नही हो सकते हैं । कोई जीव मनुष्य योनि में जन्म लिए Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] [ ४६ वाद फिर भी उसी ' मनुष्य योनि मे लगातार जन्म ले तो वह वार से अधिक नही ले सकता । पृथ्वी आदि ४ सूक्ष्म पर्याप्तक स्थावर जीव मर-मरकर अपनी उसी पर्याय मे लगातार अधिक से अधिक असख्य वार जन्म ले सकते है । और पर्याप्त निगोदिया जीव अनन्त वार जन्म ले सकते है । उसी तरह अलब्धपर्याप्तक जीव के लिये लिखा है कि वह भी यदि अलब्धपर्याप्तक के भव धारण करे तो ऊपर जिस पर्याय मे जितने भव लिखे हैं वहाँ वह अधिक से अधिक उतने ही भव धारण कर सकता है । जैसे किसी जीव ने सूक्ष्म निगोदिया मे अलब्धपर्याप्तक रूप से जन्म लिया । यदि वह मरकर फिर भी वहाँ के वहाँ ही वार वार निरन्तर जन्म मरण करे तो अधिक से अधिक ६०१२ वार तक कर सकता है । इसके बाद उसे नियमत पर्याप्तक का भव धारण करना पडेगा । भले ही वह भव निगोदिया का ही क्यो न हो । यदि वह पर्याप्तक मे न जाये और फिर भी उसे अलब्धपर्याप्तक ही होना है तो वह सूक्ष्म निगोदिया मे जन्म न लेकर वादर निगोदिया या अन्य स्थावर तसो मे अलब्धपर्याप्तक हो सकता है । वहाँ भी जितने वहाँ के क्षुद्रभत्र लिखे है उतने भव धारण किये बाद वहाँ से भी निकल कर या तो उसे पर्याप्तक का भव लेना होगा या उसी तरह अन्य स्थावर त्रसो मे अलब्धपर्याप्यक रूप से जन्म लेना होगा। इस प्रकार से कोई भी जीव यदि सभी स्थावर त्रसो मे निरन्तर अलव्धपर्याप्तक के भवो को धारण करे तो वह ६६३३६ भव ले सकता है, इससे अधिक नही । ऊपर अलब्धपर्याप्तक मनुष्य के अधिक से अधिक ८ लगातार क्षुद्रभव लिखे है जिनका काल अधे श्वास से भी कम होता है । मतलव कि वह अर्द्ध श्वास कालमात्र - Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ तक ही मनुष्य भव मे रहता है। इतना ही काल अलब्धपर्याप्तक पचेन्द्रिय सज्ञी-असज्ञी तिर्यञ्चो का है। तदुपरात उन्हे या तो किसी पर्याप्तक मे जन्म लेना पडेगा या अन्य किसी स्थावरादि मे अलब्धपर्याप्तक होना पडेगा । यहाँ प्रश्न अनादि काल से लेकर जिन जीवो ने निगोद से निकलकर दूसरो पर्याय न पाई वे जीव नित्यनिगोदिया कहलाते है । नित्यनिगोदिया जीव पर्याप्तक ही नहीं, वहुत से अलब्धपर्याप्तक भी होते हैं। वहाँ के उन अलब्यपर्याप्तिको ने भी आज तक निगोदवास को छोडा नही है। ऐसी सूरत मे आप यह कैसे कह सकते हैं कि-निगोदिया अलब्धपर्याप्तक जीव अधिक से अधिक निरन्तर अपने ६०१२ क्षुद्रभव लिए वाद उन्हे निश्चय ही उस पर्याय से निकलना पडता है। उत्तर हाँ वहाँ से उन्हे भी अवश्य निकलना पडता है । अलब्धपर्याप्तक पर्याय को छोड कर वे पर्याप्तक-निगोद मे चले जाते है। मूल चीज निगोद को उन्होने छोडी नही जिससे वे नित्यनिगोदिया ही कहलाते है। इसी तरह वे पर्याप्त से अपर्याप्त और सूक्ष्म से बादर एवं वादर से सूक्ष्म भी होते रहते है । होते रहते है निगोद के निगोद मे ही जिससे उनके निगोद का नित्यत्व वना ही रहता है। निगोदिया जीव अलब्धपर्याप्तक अवस्था मे निरन्तर रहे तो अधिक से अधिक सिर्फ ४ मिनट तक ही रह सकते है । क्योकि उनके लगातार क्षुद्रभव ६०१२ लिखे है। जो ३३४ उच्छ्वासो मे पूर्ण हो जाते है। ३३४ उच्छ्वासो का काल ४ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] [ ५१ . मिनट करीव का होता है। इस थोडे से ४ मिनिट के समय मे ६०१२ जन्म और इतने ही मरण करने से सूक्ष्म निगोदिया अलब्धपर्याप्तक जीवो के इस कदर सक्लेशता बढती है कि उसके कारण जब वे जीव आखिरी ६०१२ वां जन्म लेने को विग्रहगति मे ३ मोडा लेते है तो प्रथम मोड में ज्ञानावरण का ऐसा तीव्र उदय होता है कि उस समय उनके अतिजघन्य श्रुतज्ञान होता है । जिसका नाम पर्याप्तज्ञान है । यह ज्ञान का इतना छोटा अश है कि यदि यह भी न हो तो अ.त्मा जड वन जाए। यह कथन गोम्मटसार जीव काड गाथा ३२१ मे किया है। निगोद के विषय मे एक और भ्रान्त धारणा फैली हुई है । कुछ जैन विद्वान, ऐसा समझे हुए है कि-'नरक की ७ वी पृथ्वी के नीचे जो एक राजू शून्यस्थान है, जहाँ कि यसनाडी भी नही है वहाँ निगोद जीवो का स्थान है ।" ऐसा ७ (१) सूरत, जबलपुर आदि मे प्रकाशित तत्वार्थ सून (पाठ्य पुस्तक) में तीन लोक का नकशा दिया है उसमे ७ वे नरक के नीचे एक राजू मे निगोद बताया है। ऐसा ही वथन वार्तिकेयानुप्रेक्षा (रायचन्द्र शास्त्रमाला) पृष्ठ ५६, ६२ मे तथा सिद्धान्तसार सग्रह (जीवराज ग्रन्थमाला ) पृष्ठ १४४ मे हिन्दी अनुवादको ने वि या है जब कि मूल और सस्कृत टीका में ऐसा कुछ नहीं है । (२) जैन बा न गुटका ( प्रथम भाग बाबू ज्ञानचन्द जैनी, लाहौर) पृष्ठ ३२ अमनाली मे नीचे निगोद - (३) यशोधर छरित्र ( ल वानप्रेक्षा वे णन मे, हजारी लाल जी कृत भाषा ) पृष्ठ १६१- नर्क निगोद पाताल विष जहाँ क्षेत्र जुराजू सात वखानी।" Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ प्रश्न - " सूक्ष्मनिगोद सर्वत्र है यह ठीक है पर ७ वी { पृथ्वी के नीचे जो निगोद कही जाती है वह बादर निगोद है ।" " 3 ५४ ] ; उत्तर-ऐसा कहना भी उचित नही हैं। क्योकि वादर जीव विना आधार के रह नही सकते ऐसा सिद्धान्त है । गोम्मटसार जीवकाड गाथा १८३ मे लिखा है कि- " आधारे १ थूलाओ सव्वत्य णिरतरा सुहमा ।" वादर जीव आधार पर रहते हैं और सूक्ष्म जीव सर्वत्र विना व्यवधान के भरे हैं । स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा मे लिखा है कि पुण्णा वि अण्णा वि य थूला जीवा हवति साहारा । छविह सुहुमाजीवा लोयायासे वि सव्वत्य ॥ १२३ ॥ अर्थ - चाहे पर्याप्त हो या अपर्याप्त हो सव ही वादर जीव आधार के सहारे से रहते हैं । तथा पृथ्वी - जल अग्निवायु नित्य निगोद और इतरनिगोद ये ६ सूक्ष्म जीव लोकाकाश मे सव जगह भरे हैं । 20% नरक की ७ वी पृथ्वी के नीचे एक राजू प्रमाण क्षेत्र मे वातवलयो को छोडकर वाकी सारा स्थान निराधार f - है । और विना आधार के वादर शून्यमय जीव रहते +1 , नही है तो वहाँ वादर निगोद भी कैसे मानी जा सकती ६. प० माणिकचन्द जी न्यायाचार्य ने "तीन लोक का वर्णन" लेख में (सरल जैन धर्म) पृष्ठ १०६ मे ) लिखा है -अघो लोक मे सबसे नीचे एक राजू तक बावर निगोद जीव भरे हुए हैं और 4. उससे ऊपर छह राजुओ में सात पृथ्विय हैं । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] [ ५५ है ?10 दूसरी वात यह है कि गोम्मटसार जीवकाड गाथा १६६ मे वनस्पतिकायिक-विकलत्रय पचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यो के ( केवल शरीर-आहार शरीर को छोडकर ) शरीरो मे वादर निगोदिया का स्थान बताया है। और सातवी पृथ्वी के नीचे वातवल्यो को छोडकर शेष स्थान मे न प्रत्येक वनस्पतिकायिक है और न स है इससे भी वहाँ बादर निगोद का अभाव सिद्ध होता है। प्रश्न-सातवे नरक के नीचे नित्य निगोद का स्थान मान ले तो क्या हानि है ? उत्तर-ऐसा त्रिलोक सार की आर्यिका विशुद्धमति जी कृत हिन्दी टीका के पृष्ठ १५१ तथा ग्रन्थारम्भ मे दी गई त्रिलोका कृति मे प्रदर्शित है। किन्तु वह भो शास्त्र सम्मत नही है। यह विशेष कथन उनका स्वकल्पित है। त्रिलोक सार की मूल' गाथा सस्कृत टोका और वचनि का किसी मे ऐसा कथन नही है और न किसी अन्य ग्रन्थ मे ही ऐसा कथन है। प० पन्नालाल जी आचिटेक्ट दिल्ली ने भी तीन लोक के नकशे मे सातवें नरक के नीचे नित्य निगोद प्रदर्शित किया हैवह भी सम्यक् नही है। नित्य निगोद वहाँ मानने मे यह बाधा आती है कि-नित्य निगोद सूक्ष्म तथा वादर दोनो प्रकार का होता है। देखो-गोम्मटसार जीवकाड गाथा ७३ ( यही कथय ‘पचसग्रह' तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा की शुभचन्द्र १.. चर्चा समाधान ( चर्चा न० ६५ ) में सातवें नरक के नीचे बादर निगोद ( पचकल्याणक ) का अभाव बताया है। सुदृष्टि तरगिणो मे भी #० टेकचन्द जी सा० ने लिखा है कि सातवें .. नरक के नीचे बादर निमोद बताने वाले भोले जीव हैं। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ कृत टीका में है । ) जबकि बादर निगोद सातवे नरक के नोचे सम्भव नही है क्योकि वह एक राजू स्थान निराधार है । और 'आधारे धूलामो' सूत्रानुसार वादर साधार रूप मे ही होते है, निराधार रूप मे कदापि नही । अत नित्य निगोद की अन्यत्र भी विद्यमानता होने से इस स्थान को ही नित्यनिगोद का वताना ठीक नही है । इसके सिवा सातवे नरक के नीचे सूक्ष्म निगोद हो नही अन्य भी सूक्ष्म स्थावर जीव पाये जाते हैं । ऐसी हालत में उसे एक मात्र नित्य निगोद का ही क्षेत्र बताना भी समुचित नही है । अत सातवें नरक के नीचे न तो एक मात्र नित्य निगोद या इतर निगोद है किन्तु निगोदादि पच सूक्ष्म स्थावर है ऐसा मानना ही परिपूर्ण और निर्दोष होगा । और सव मान्यता एकागी एव असम्यक् होगी । “त्रिलोक भास्कर " ( पृष्ठ ३ ) मे आर्यिका ज्ञानमती जीने भी सातवे नरक के नीचे नित्य निगोद बताया है वह भी इसी तरह सदोष है । इससे यह भी प्रगट होता है कि जिस प्रकार प्रत्येक वनस्पति के आश्रित वादर निगोद होने से वह सप्रतिष्ठित कहलाती है उसी तरह त्रस जीवो के शरीरों के आश्रित भी वादर निगोद जीव रहते हैं अत सकाय भी संप्रतिष्ठित कहलाता है गोम्मटसार की उक्त गाथा १९६ मे यह भी लिखा है कि- पृथ्वी - जल अग्नि वायु इन ४ स्थावरो के शरीर, तथा देव शरीर नारकी शरीर, अहारक शरीर, और केवली का शरीर - ११ अनागार धर्मामृत पृष्ठ ४६१ मे मलपरीषह प्रकरण मे लिखा है - उद्वर्त्तन ( उबटन, मैल उतारने) मे बादर प्रतिष्ठित निगोद, जीवो का घात होता है । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] सिर्फ इन आठ शरीरो मे निगोदिया जीव नही होते, शेष सब शरीरो मे निगोद जीव होते है । इसलिए अमृतचन्द्र स्वामी ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय के निम्न श्लोक मे मास मे निगोद जीव होने का कथन किया है आमास्वपि पक्वस्वपि विपच्यमानासु मांस पेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोताना ॥ ६७ ॥ ५७ अर्थ - कच्ची पक्की, पकती हुई मास की डलियो मे मास जैसे वर्ण-रस-गध वाले निगोद जीव निरन्तर ही उत्पन्न होते रहते है । पुरुषार्थ सिद्धयुपाय के इस श्लोक में प्रयुक्त "तज्जातीना निगोताना " का अर्थ कोई ऐसा करते है कि - जिस जाति के जीव का माँस होता है उसमे उसी जाति के जीव पैदा होते है । जैसे बैल का माँस हो तो उसमें बेल जैसे ही सूक्ष्म त्रस जीव पैदा होते है ।" ऐसा अर्थ करने पर जब निगोद शब्द के साथ सगति बैठती नही, क्योकि निगोदिया जीव त्रस होते नही तव वे निगोत शब्द का लब्ध्यपर्याप्तक अर्थ करके संगति बैठाने का प्रयत्न करने लगते है पर निगोत का लब्ध्यपर्याप्त अर्थ किसी शास्त्र मे देखने में आया नही है । यह गडवड 'तजातीना' शब्द का ठीक अर्थ न समझने की वजह से हुई है । इसलिए 'तज्जातीना' का सही अर्थ यो होना चाहिए कि - " उसी मास की जाति के ( न कि उसी जीव की जाति के ) अर्थात् उस मास का जैसा वर्ण-रस-गध है उसी तरह के उसमे निगोद जोव पैदा होते है ।" ऐसा अर्थ करने से कोई असंगतता नही रहती । जिस प्राकृत गाथा की छाया को लेकर पुरुषार्थ सिद्धयुपाय मे उक्त पद्य रचा गया Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] [★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ है उस गाथा मे भी मास मे निरन्तर निगोद जीवो की ही उत्पत्ति वताई है । वह गाथा यह है आमासु अ पक्कासु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु । सययं चिय उववाओ भणिओ उ निगोअजीवाणं ॥ यह गाथा श्वेताम्वराचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के तीसरे प्रकाश में उद्धृत की है । स्याद्वादमजरी के पृष्ठ १७६ पर भी यह गाथा उद्धृत हुई है । तथा पुरुषार्थ सिद्धयुपाय की पण्डित टोडरमल जी साव ने वचनिका लिखी है । उसमे उक्त पद्य न० ६७ का अर्थ इस प्रकार किया है- 'आली होउ, अग्निकरि पकाइ होउ, अथवा पकती होउ, कछु एक पकी होउ, ऐसे सबही जे मास की डली तिनवर्षे उसही जाति के निगोदिया अनन्ते जीव तिनका समय-समय विषै निरन्तर उपजना होय है । सर्व अवस्था सहित मॉस को डलिनी विषै निरन्तर वैसे ही माँस सारिखे नये-नये अनन्त जीव उपजे है ।" यहाँ टोडरमल जी साव ने भी माँस मे मांस जैसे ही निगोद जीव की उत्पत्ति लिखी है । न कि लब्ध्यपर्याप्तको की । और देखो सागारधर्मामृत अ० २ श्लोक ७ मे प० आशाधर जी भी माँस मे प्रचुर निगोद जीव वताते हुए निगोत का अर्थ साधारण - अनन्तकाय लिखते है । लब्ध्यपर्याप्तक नही लिखते । यहाँ यह भी समझना कि - जैसे स्थावर वनस्पतिकाय में जो बादर निगोदजीव पैदा होते हैं । वे भी तो उस वनस्पति के रूप-रस-गन्ध जैसे ही पैदा होते हैं । वैसे ही त्रस जीवो के कलेवरो मे समझ लेना चाहिए। यह एक जुदी बात है कि - तिर्यञ्चो के मास में निगोद जीवो के अतिरिक्त लब्ध्यपर्याप्तक और पर्याप्तक कृमि आदि तस जीव भी पैदा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] [ ५६ हो जाते है । यहाँ तक की उसमे सम्मूच्छिम पचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यञ्च तक पैदा हो सकते हैं । परन्तु इसका मायना यह नही है कि बैल के कलेवर मे बैल जैसे पचेन्द्रिय सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक जीव पैदा होते हैं । ऐसा कोई आर्ष प्रमाण हो तो बताया जावे । मनुष्य के कलेवर मे लब्ध्यपर्यान्तक मनुष्यो का पैदा होना ऐसा तो शास्त्रो मे स्पष्ट कथन मिलता है । परन्तु जिस जाति के तिर्यंच का कलेवर हो उसमे उसी तियंच जाति के लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्म जीव पैदा होते हैं ऐसा कथन नही मिलता है । तथा जिस प्रकार सभी सम्मूच्छिम मनुष्य नियमत लब्ध्यपर्याप्तक ही होते है । उस तरह सभी सम्मूच्छिम तियंच लब्ध्यपर्याप्तक नही होते वे पर्याप्त भी होते है । इस तरह दोनो मे विषमता होने से यह भी नही कह सकते कि जैसी उत्पत्ति लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यो की है । वैसी ही तियंचो की भी है । यद्यपि आगम मे पचेन्द्रिय तिर्यञ्चो के गर्भज और सम्मूच्छिम ऐसे दो भेद जरूर किये है। पर इसका मतलब यह नही है कि जो बैल, हाथी घोडे गर्भजन्म से पैदा होते हैं वे ही सम्मूच्छिम भी होते हैं । सम्मूच्छिम पचेन्द्रिय तिर्यंच और ही होते हैंजिस जाति के गर्भज तिर्यंच होते हैं उसी जाति के सम्मूच्छिम तियंच नही होते ऐसा कहने मे कोई वाधक प्रमाण नजर नही आता है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ६६ की टीका में प० सदासुख जी ने लिखा है - "मनुष्य तिर्यंचनि के माँस का एक कण मे एतं वादर निगोदिया जीव हैं जो एकेन्द्रिय से पचेन्द्रिय तक जितने जीव हैं उनसे ताते अन्न जलादिक असख्यात वर्ष भक्षण करे तिसमे जो त्रैलोक्य के अनन्तगुणे है Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ एकेन्द्रिय हिंसा होय ताते अनन्तगुणे जीवनि की हिंसा सुई की अणीमात्र मांस के भक्षण करने मे है पृष्ठ १८१ ।" प० सदासुख जी साव ने भी मांस मे जो निगोदिया जीव सतत उत्पन्न होते है उन्हे एकेन्द्रिय ही माना है। किन्तु "श्री जिनागम" पुस्तक के पृष्ठ ३२३ पर देशाई जी ने इस कथन की आलोचना - की है जो ठीक नहीं है। प० सदासुख जी का कथन आगमानुसार है। श्री मूलशकर जी देशाई ने अलब्धपर्याप्तक त्रसो को त्रसनिगोद की सज्ञा दी है। किन्तु वे सख्यात या असख्यात ही उत्पन्न होते हैं अनन्त नहीं। यहाँ अनन्त का उल्लेख होने से स्थावर निगोद ही ग्राह्य है जो अपर्याप्तक औरपर्याप्तक दोनो होते हैं जवकि त्रस निगोद पर्याप्तक नही होते । . आशा है वहश्रुतज्ञ विद्वान और त्यागी वर्ग इस निवन्ध पर गहरे चिंतन के साथ अपने विचार प्रकट करने की कृपा करेगे। -/ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ऐलक-चर्या * क्या होनी चाहिये और क्या हो रही है ? हमारे कितने ही भाई ऐलक और मुनि मे इतना ही भेद समझते हैं कि ऐलक लगोट लगाते है और मुनि लगोट नही लगाते नग्न रहते है। इसके सिवाय दोनो की चर्या में और कोई अन्तर नही समझते । और ऐलक जी भी स्वय ऐसा ही समझते है। किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है और आगम भी ऐसी साक्षी नही देते । शास्त्रो में वाह्यवेश के सिवाय दोनो की चर्या में भी कुछ अन्तर जरूर रखा है। पर वह अन्तर आज लोप किया जा रहा है और बहुत कुछ लोप हो भी चुका है जिसका भान विद्वानो तक को नहीं होता । किन्तु तद्विषयक आगमो के देखने वालो को उक्त भेद स्पष्ट नजर मे आने लगता है वह कैसे छिपाया जा सकता है। ऐलक यह एक श्रावक का उत्कृष्ट लिंग है। इसके ऊपर मुनि होने के अतिरिक्त और कोई श्रावक का दर्जा नही इसी अभिप्राय से किन्ही ग्रन्थो मे उनका लघुमुनि, देशयति, मुनिकुमार या ऐसे ही किसी नाम से उल्लेख किया गया है। जब तक शरीर पर वस्त्र का एक धागा भी पड़ा रहेगा तव तक मुनि नहीं कहाये जा सकते, फिर उनके पास तो वस्त्र की वडी सी कौपीन रहती है। इसलिए ऐलको की मान्यता और चर्या ऐलको ही के अनुरूप होनी चाहिये, न कि मुनि के तुल्य । लेकिन हम देखते हैं कि ऐलक पद के लिए पूर्वाचार्यों ने जो कुछ सीमा वाँधी थी आज उसका उल्लङ्घन किया जा रहा । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ है। इदानी लगोटधारी मुनियो की एक नई सृष्टि हो रही ग्रन्थो मे लिखा है कि जो जिस प्रतिमा का धारी है उसे उससे नीचे की प्रतिमाओ का पालना भी अनिवार्य है। प्रसिद्ध आचार्य स्वामी समन्तभद्र के 'रत्नकरण्ड' ग्रन्थ क कौन नही जानता । जैन विद्यालयो के छोटे-छोटे विद्यार्थी तको उसमे परिचित हैं उसमे साफ लिखा है कि श्रावक पदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणे सह सतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धा ॥१३६ ॥ अर्थ-अर्हन्त देव ने श्रावको के ग्यारह पद बतलाये हैं। उनमे अपनी प्रतिमा के गुण पहिले की प्रतिमाओ के गुणो के साथ-साथ अनुक्रम से वढते हुये रहते हैं। __ यही वात निम्न ग्रन्थो मे भी पायी जाती हैअध्यधिवतमारोहेत्पूर्व पूर्ववत स्थित । - सोमदेवकृत यशस्तिलक ४४ वा काव्य स्थानेष्वेकादशस्वेवं स्वगुणाः पूर्वसद्गुणः।। संयुक्ताः प्रभवन्त्येते श्रावकाणां यथाक्रमम् ॥ ५४६ ॥ - वामदेवकृत भाव सग्रह . "बतादयो गुणा दर्शनादिभिः पूर्व गुणै सह क्रमप्रवृद्धाः भवंति ।" - चामुन्डराय कृत चारित्रसार सस्कृत पृष्ठ २ सकल कीति ने "धर्मप्रश्नोत्तर" नामक ग्रन्थ के पृष्ठ ६० मे 'उत्कृष्ट श्रावक कौन कहलाता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखा है कि Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐलक चर्या क्या होनी चाहिये और क्या हो रही है ? ] [ ६३ " जो अपनी पूर्ण शक्ति से ग्यारह प्रतिमाओ का ( न कि एक ११ वी का ) पालन करते है वे उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं ।" ग्रन्थो के इस कथन के अनुसार ऐनको को जो कि ११ वी प्रतिमा के धारी होते हैं नीचे की दसो प्रतिमाओ का पालन करना चाहिये किन्तु आजकल के प्राय ऐलक प्रोषध नाम की चौथी प्रतिमा का जिसमे अष्टमी चतुर्दशी को चार प्रकार के आहार का त्यागरूप प्रोषधोपवास करना होता है कोई पालन नही करते। वे तो अपने को मुनि की तरह अतिथि बतलाते हैं । कदाचित् किसी ग्रन्थ मे प्रसंगोपात्त कहीं उन्हें अतिथि लिख दिया हो तो उसका यह अभिप्राय कदापि नही हो सकता कि पर्व तिथियो मे उनके लिए उपवास करने का नियम टूट गया समझ लिया जावे। वहाँ अतिथि शब्द को भिक्षुक अर्थ मे लेना चाहिए क्योकि ऐलक भिक्षाभोजी होते है । अगर अतिथि शब्द का यह मतलब न लिया जावेगा तो आचार्यों की आज्ञा एक दूसरे के विरुद्ध पडेगी । वल्कि निम्नलिखित ग्रन्थो मे ११ वी प्रतिमा का स्वरूप वर्णन करते हुये उसके धारी को पर्व तिथियों मे उपवास करने की खासतौर से प्रेरणा की गई है ---- 'उववास पुर्णणियमा चउब्विह कुणई पव्वेसु' ॥ ३०३ ॥ वसुनन्दिकृत श्रावकाचार - " पर्वसु चोपवास नियमतश्चतुविधं कुरुते ।" तत्त्वार्थवृत्ति भास्कर नन्दि कत - अ० ७ सू० ३६ पृष्ठ १८१ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ 'कुर्यादेव चतुपर्व्यामुपवास चतुविध' ॥ ३६ ॥ अ० ७ - आशाधरकृत सागारधर्मामृत 'तुविद्योपवास च कुर्यात्पर्वसु निश्चयात् ॥ ६३ ॥ अ०८ मेधावीकृत धर्मसंग्रह श्रावकाचार इन चारो उद्धरणो मे 'निश्वयात्' आदि वाक्यों मे इस बात का बहुत अधिक जोर दिया गया है कि वह निश्चय से चागे पर्वतिथियों मे उपवास करे ही । स्वयं आशाधर ने स्वोपज्ञ टीका मे उक्त श्लोका के कुर्यादेव' शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि कुर्यादेव अवश्य विदध्यादसौ । क उपवासमनशनं । कि विशिष्ट चतुविद्य चतस्रोविधा आहारास्त्याज्या यस्मिन्नसौ चतुविधस्तं । चतुष्प मासि मासि द्वयोरण्टम्योर्द्वयोश्चतु श्यो । ग्यारहवी प्रतिमा में व्रत एक ऐसी ऊँची हद तक पहुच जाते हैं कि नीचे की प्रतिमाओ के व्रत विना कहे ही उनमे अन्तर्लीन हो जाते है किन्तु प्रोपघोपवास प्रतिमा का वहाँ अन्तर्भाव नही होता इसलिए उसे यहाँ खासतौर से अलग कहा है । मुनि और ऐलक में भेद डालने वाली यह तो हुई एक वात । अब हम एक दूसरी वात और बतलाते है । वह यह है कि आजकल जो ऐलक खडे आहार लेते है यह विधान मुनियो के लिये है ऐलको के लिए नही । इस विषय के लगभग सभी ग्रन्थो मे १९ वी प्रतिमाधारी को केवल बैठे भोजन करने Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐलक चर्या क्या होनी चाहिये और क्या हो रही है ? ] [ ६५ इजाजत दी है । पाठको को जानकारी के लिए उन सव प्रमाणो को नीचे उद्धत किये देते है -- "पाणिपात्र पुटेनोपविश्यभोजी" चारित्रसार संस्कृत पृष्ठ १६ "भुजइ पाणपत्तम्मि भायणे वा सुई समुव इट्ठो " ॥ ३०३ ॥ वसुनन्दि श्रावकाचार पाणिपात्रे भाजने वा समुपविष्ट सन्नेकवार भुक्त े । तत्त्वार्थ वृत्ति भास्कर नन्दि कृत अ० ७ सू० ३६ पृ० १८१ 'स्वयं समुपविष्टोऽद्यात्पाणिपात्रेऽथ भाजने ॥ ४० ॥ अ० ७ आशाधरकृत सागारधर्मामृत 'आद्य पानेऽथवा पाणी भू क्त े य उपविश्य ॥ ६३ ॥ अ० ८ मेधावीकृत धर्मसग्रह् श्रावकाचार 'उपविश्य चरेद्भिक्षा करपात्र े ऽङ्ग सवृत ' ॥ ५६६ ॥ वामदेवकृत 'भावसंग्रह' ― -- - ― लोच पिच्छ च सधत्ते भुक्तेऽसौ चोपविश्य ॥ २७२ ॥ ब्रह्मनेमिदत्तकृत "धर्मोपदेश पीयूषवर्ष" ―― लोच पिच्छ धृत्वा मुक्तेा पविश्य पाणिपुटे । शुभचन्द्रकृत स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका यही श्लोक श्रुतसागर ने पट्प्राभृत की टीका में उक्त च रूप से लिखा है । * पाणिपात्रेऽन्यपात्रे वा भजेदमुक्ति निविष्टवान् ॥ १८५ ॥ गुणभूपणकत श्रावकाचार -- ★ देखो सूत्र पाहुड की गाथा २१ को टीका । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ ऊपर के इन तमाम ग्रन्थो मे उपविश्य, समुवइट्ठो, समुपविष्ट निविष्टवान्' वाक्य से साफतौर से ऐलक के लिये बैठा रहकर भोजन करना लिखा है । ,, यहाँ इतनी वात और कह देना योग्य है कि ग्यारहवी प्रतिमा का जो स्वरूप ग्रन्थो मे मिलता है वह एक प्रकार से नही पाया जाता । इसकी सज्ञा भी एक रूप मे नही मिलती । कही इसे उद्दिष्टविरत, कही उत्कृष्ठ श्रावक, और कही इस समूची हो प्रतिमाधारी को क्षुल्लक कहा गया है | कही इसके दो भेद किये है -१ प्रथमोत्कृष्ट और २ द्वितीयोत्कृष्ट । कही प्रथमोत्कृष्ट के भी दो भेद किये है- १ एक भिक्षा नियम और २ अनेक भिक्षा नियम । इतना सब कुछ होते हुए भी प्राचीन ग्रन्थो मे कही ऐलक नाम की उपलब्धि नहीं होती । ऐलक नाम की कल्पना वहुत ही पीछे की जान पडती है । प्रचलित मे जो क्षुल्लक और ऐलक कहलाते है वे क्रम से प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट के भेदो मे गणना किये जा सकते हैं । साधारणतया क्षुल्लक और ऐलक की चर्या में यह भेद है कि क्षुल्लक क्षौर ( हजामत ) कराता है, एक वस्त्र ( पछेवडी ) रखता है, और पात्र मे भोजन करता है । किन्तु ऐलक केशो का लौच करता है, कौपीन मात्र वस्त्र रखता है और करपात्र भोजी है । कुछ भी हो यह तो निश्चित है कि ११ वी प्रतिमा के किसी भी भेद प्रभेद वाले के लिए बैठे भोजन करने के सिवाय आगम मे कही खडे भोजन का कथन नही है । सागारधर्मामृत, धर्मसग्रह - श्रावकाचार और गुणभूषणकृत श्रावकाचार मे पहिले प्रथमोत्कृष्ट श्रावक के लिए बैठे भोजन का वर्णन किये बाद द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक की केश लुचन आदि उन क्रियाओ का वर्णन किया है जो प्रथमोत्कृष्ट Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐलक चर्या क्या होनी चाहिये और क्या हो रही है ? ] [ १७ से द्वितीयोत्कृष्ट मे विशेष है। शेष क्रिया में द्वितीयोत्कृष्ट के लिए 'तद्वद्वितीय' 'तथा द्वितीय.' 'द्वितीयोऽपि भवेदेव' इन वाक्यो से वही रहने दी है जो प्रथमोत्कृष्ट के लिए कही गई थी । वसुनन्दि श्रावकाचार मे भी इसी तरह से कथन किया गया है । जैसा कि उसकी निम्न गाथा से प्रगट है एवं भेओ होई णवर विसेसो कुणिज्ज नियमेण । लोचं धरिज्ज पिच्छं भुजिज्जो पाणिपसम्मि ।। ३११ ॥ इस गाथा मे लिखा है कि- ११ वी प्रतिमा में प्रथम भेद से दूसरे भेद वाले मे यही विशेषता है कि यह नियम से लौंच करता है, पीछी रखता है, और पाणिपात्र में भोजन करता है । और कोई विशेषता नही है । ' जरा सोचने की बात है कि अगर ग्रन्थकारो को ऐलक के लिए खडा भोजन कराना अभीष्ट होता तो उक्त विशेषताओ के साथ एक विशेषता खडा भोजन की भी लिख देते । किन्तु ऊपर के किसी ग्रन्थ मे ऐसा नही लिखा गया है । धर्मोपदेशपीयूषवर्ष, भावसग्रह और स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा को टोका मे तो साक्षात् द्वितोमोत्कृष्ट श्रावक (जिसे वर्तमान मे ऐलक कहते है) को ही बैठे भोजन की आज्ञा की है । रहा चारित्रसार सो उसमे उद्दिष्टविनि वृत नाम की समूची ही ११ वी प्रतिमाधारी को बैठे भोजन करना प्रतिपादन किया है । १ - कोपीन मात्र वस्त्र का रखना भी इसकी विशेषता है वह यहाँ इसलिए नहीं बताई कि उसका कथन ऊपर गाया मे कर दिया था । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] [★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ यद्यपि ऊपर लिखित प्रमाणो मे बैठे भोजन का विधान करना ही खडे भोजन का निषेध सिद्ध कर देता है । फिर भी कुछ भाई कहते है कि क्या हुआ अगर बैठे भोजन करना लिख दिया तो, कही यह तो नही लिखा कि 'ऐलक खडे भोजन न करे ।' ऐसे कदाग्रहियों के सन्तोष के लिए भी वैसा एक प्रमाण नीचे और दे देते हैं । जिसमे साफ खडे भोजन का निषेध किया गया है क्षुल्लकेष्वेककं वस्त्रं नान्यन्न स्थितिभोजनम् । आतापनादियोगोऽपि तेषां शश्वन्निषिध्यते ॥ १५५ ॥ टीका - क्षुल्लकेषु सर्वोत्कृष्ठ श्रावकेषु । एकक-एक वस्त्र अवरं पट | नान्यत् - अन्य - द्वितीय वस्त्र न भवति । न स्थितिभोजन उद्भीभूयभ्यवहारोऽपि न भवति । आतापनादियोगोऽपि आतापवृक्षमूला भ्रावकाशयोगश्च । तेषा - क्षुल्ल- काना । शश्वत् सर्वकाल । निषिध्यतेप्रतिषिध्यते । गुरु दासाचार्य का बनाया हुआ एक 'प्रायश्चित्तसमुच्चय' नाम का ग्रन्थ है । जिस पर श्री नन्दिगुरु ने एक संस्कृत टीका भी लिखी है । वही का यह श्लोक मय टीका के है इसमे लिखा है कि - " क्षुल्लको के लिये एक वस्त्र का ही विधान है दूसरे का नही। वे खडे होकर भोजन भी नही कर सकते और उनके लिये आतापनादि योग भी सदैव निषिद्ध है । "यह कथन क्षुल्लक के लिए है, ऐलक के लिए नही । श्लोक में भी साफ क्षुल्लको के स्थिति भोजन का निषेध किया है ।" ऐसी शका भो नही करनी चाहिए। क्योकि प्राचीन ग्रन्थो मे ऐलक नाम आता ही नही । जिसे आज हम ऐलक Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐलक चर्या, क्या होनी चाहिये और क्या हो रही है ?] [ ६६ कहते हैं उसे ही शास्त्रकारो ने क्षुल्लक नाम से भी लिखा है। स्वय इसी ग्रन्थ मे इसके अगले ही श्लोक में इस रहस्य को खोल दिया है । यथा क्षौरं कुर्याच्च लोच वा पाणौ भुक्तऽथ भाजने। - कौपीनमानतोऽसौ क्षुल्लक परिकीर्तितः ॥१५६ ॥ ___ अर्थ-क्षौर कराओ चाहे लौच, हाथ मे भोजन करो चाहे पात्र मे वह कोपीन मान का धारी क्षुल्लक कहा जाता इससे स्पष्ट है कि यहाँ उस ऐलक को भी क्षुल्लक कहा गया है जो लौंच करता है, करपात्र मे भोजन करता है और कौपीन रखता है। इसलिए इस ग्रन्थ मे जिस क्षुल्लक के लिये स्थितिभोजन करना मना किया है उसे ऐलक भी समझना चाहिए। यह कथन उस वक्त का है जवकि ११ वी प्रतिमा के २ भेद नहीं थे एक ही था और उसे क्षुल्लक (टोका में उत्कृष्ट श्रावक) ही कहते थे इसी से उसके एक वस्त्र ही बताया है। आज यह एक वस्त्र ऐलक के माना जाता है और क्षुल्लक के दो वस्त्र ( कोपोन और उत्तरीय ) माने जाते हैं। " यह तो हुई सस्कृत प्राकृत ग्रन्थो की बात । अब हम इसकी पुष्टि में भाषा ग्रन्थो के भी तीन प्रमाण लिख देते हैं (१) प० बुधजन जी कृत-तत्त्वार्थ बोध पृ० १५६ मे लिखा है ___ अईलक महापुनीत, केश लौंचे निज करते । ले करपान अहार, बैठि इक धावक धरते ॥ २॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ★ रंन नियन्य भाग २ 5 ) दो या सुमन जी पात्र संसार, 36 1 By ति को वरदान अगर दुनिया मा मे प्रार मेमिः सर्वा बैठा गार || २७ ॥ प्रतिमावर्तनामार (१) १० -- पर शुमर भाग को श हम एक अधिक पुनीत 1 रमर कोषोन हायबमा पोतो सोन ॥ १६७ ॥ विधियों टिकेहि महारादिपात्र भाग अनुसार करें मे सुन अतिशेष कीन मशरीर ॥ ९६८ ॥ आहार पनि जो नि । affron यो रहे तिहिवार, मतिरहित भोजन त ।। १६६ ।। एक हाथ में प्राग परि, एक हासों म पावर मे पर आपके, ऐनक ससन परे ॥ २२० ॥ यह प्यार प्रतिमा wwe, freat feaांत निहार | और प्रश्न बाकी रहे, अब तिनि को अधिकार ॥ ६य अधिकार | (ऐनक २- मदर ओके में नितिपुरान है उनमे भी पीठ है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐलक चर्या क्या होनी चाहिये और क्या हो रही है ?] [ ७१ तीनो ही भाषा ग्रन्थो मे ऐलक के लिए बैठा भोजन लिखा है। साथ ही दौलत क्रिया कोश में अर्यका के लिये भी बैठे भोजन करने का विधान किया है । भगवती आराधना अध्याय १ गाथा ८३ की वचनिका में पण्डित प्रवर सदासुख जी सा० ने भी आर्यिका के लिये बैठकर माहार ग्रहण करने की बात लिखी है। आर्यिका उपचार महाव्रती होती है जबकि क्षुल्लक-ऐलक पचम गुणस्थानी अणुवती ही होता है ऐसी हालत मे जब आर्यिका तक बैठा भोजन करती है तो क्षुल्लक-ऐलक खडे भोजन कैसे कर सकता है ? यह तो साधारण बुद्धि भी सोच सकता है । खडा भोजन तो निर्ग्रन्थ महाव्रती साधु ही करता है इसीलिए साधु के ही २८ मूलगुणो मे 'स्थिति भोजन' नाम का एक मूल' गुण बताया है, अन्य के नही। स्त्रियो मे क्षुल्लिका और आर्यिका पद ही होता है ऐलिका पद नही। प० भूधरदास जी ने एक नई और बात लिखी है। वे लिखते हैं कि-मुनि जो पाणिपात्र में आहार करते हैं वे अजुली जोड कर करते है परन्तु ऐलक अजुली जोड कर नहीं करते। वह तो एक हाथ पर धरे हुए ग्रास को अपने दूसरे हाथ से उठा कर खाता है । न मालूम भूधरदास जी ने यह बात किस मआधार से लिखी है। सम्भव है कि यह ठीक हो क्योकि इस विषय के ग्रन्थो में सामान्यरूप से पाणिपात्र आहार का उल्लेख मिलता है। दोनो ही तरह को पाणिपान कह सकते हैं । विद्वानो को इसकी खोज करनी चाहिए। प० भूधरदास जो इस स कथन को सिद्धात के अनुसार लिखा बताते है । यहां पर एक आक्षेप का समाधान करना अनुचित न होगा, कुछ भाई कहते हैं कि-"अगर ऐलक मुनि को तरह Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HEI. 73 17 wint forfixit ना पा चोप गोरो। HEART ARE I T HTET परे । marrifting frre ने। irtiffaloria .. ___ i -१८ at : : और Lamic trailer मं यजयाम्पिनेः पुन । yि गमलो हिमा गा प्रतिमानपते ॥ पानिमा जिसमातिास पिति भोलने । पाताव भने हाम्चारमन्यमा ॥ - तीसराकार . मागद निमा * ५6 TRE पी मा महो । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐलक चर्या क्या होनी चाहिए और क्या हो रही है ? ] [ ७३ मूलाचार संस्कृत पृष्ठ ४४, अनगार धर्मामृत संस्कृत पृष्ठ ६८२, आचार सार पचमोधिकार श्लोक १२२ मे भी मुनि के स्थिति भोजन मे यही कारण बताया गया है । पाठक समझ गये होगे कि मुनि जो खडे आहार लेते है उसमे कितनी भीषण प्रतिज्ञा है । ऐसे कठिन अनुष्ठान के लिये श्रावक को अयोग्य समझकर ही ग्रन्थो मे १९ वी प्रतिमाधारी के लिए बैठे भोजन की आज्ञा प्रदान की गई है । और इसी आधार पर शायद भूधरदास जी ने पार्श्वपुराण मे ऐलक के लिये अजुली जोड कर भोजन करने का भी उल्लेख नही किया मालूम होता है । जो ऐलक कौपीन मात्र को नही त्याग सकता उसमें इतना साहस कहाँ से आ सकता है ? और इसीलिये उसके आतापनादि योगो का भो निषेध शास्त्रो मे किया गया जान पडता है। खुद प० वामदेव ने भावसग्रह मे ११ वी प्रतिमा वाले के वीरचर्या न होने का कारण कौपीन मात्र परिग्रह वतलाया है । वह वाक्य इस प्रकार है 'वीरचर्या न तस्यास्ति वस्त्रखेड परिग्रहात्' । ५४८ । सोचने की बात है अगर ऊँची क्रिया के बहाने शास्त्र - विरुद्ध प्रवृत्ति की जायेगी तो - आर्यिका क्षुल्लक व ब्रह्मचारी गण भी खडे भोजन करना प्रारम्भ कर देंगे फिर उन्हें कैसे रोका जायगा ? अत शास्त्रानुसार प्रवृत्ति करने मे ही सबका हित है इसी से त्यागी वर्ग मे अनुशासन वना रहेगा, अन्यथा स्वछन्दता फैल जायेगी । अगर ऐलक शुद्ध मन से ऊंची किया पालने की भावना रखते है तो साहस करके लगोटी छोड दे फिर उन्हे कोई खडे भोजन से रोकने वाला नही मिलेगा । - Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ इस प्रकार इस विषय मे जितना भी विचार किया जाता है किसी भी तरह ऐलक के लिये खडा भोजन सिद्ध नही होता । इस विषय के सभी संस्कृत प्राकृत के उपलब्ध ग्रन्थ देखे गये उनमे कोई एक भी ऐलक को खडे आहार की आज्ञा नही देता और किसी मे भी यह लिखा नही मिलता कि ऐलक के वास्ते पर्वतिथियों में प्रोषधोपवास करने का नियम नही है । इतना विवेचन किये वाद भी यदि किसी अर्वाचीन मामूली ग्रन्थ मे इसके विरुद्ध लिखा मिल जावे तो वह प्रमाण नही माना जा सकता । क्योकि आधुनिक किसी भी ग्रन्थ का कोई भी शास्त्रीय विधान तब तक मान्य नही हो सकता जब तक कि उसका समर्थन पूर्वाचार्यों के ग्रन्थो से न होता हो । मुझे उस वक्त बडा आश्चर्य होता है जब में वर्तमान के कुछ पण्डितो की लिखी हुई छोटी मोटी पुस्तको मे ऐलक के लिये खडा भोजन का कथन पढता हूँ । वगैर शास्त्रो के देखे यो ही किसी सुनी सुनायी वात को शास्त्र का रूप दे देना बहुत ही बुरा है ऐसी पद्धति पण्डितो को शोभा नही देती । जो ऐलक मुनियो की बराबरी करने के लिये पूर्वाचार्यों के ग्रन्थो मे आज्ञा न होते भी खडा भोजन करता है और पर्व तिथियों में उपवास नही करता वह शास्त्र विहित चर्या नही करता है । उसकी इस प्रवृत्ति का विचारशील शास्त्रवेताओ को पर्याप्त विरोध करना चाहिये। विज्ञजनो की उपेक्षावृत्ति से ही शास्त्र विरुद्ध रोतियो का जन्म होता है । इति । सम्पादकीय नोट - लेखक ने बहुत श्रम करके लेख Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐलक चर्या क्या होनी चाहिए और क्या हो रही है ? ] [ ७५ लिखा है विद्वानो को विचार करके इस विषय मे अपना मत प्रगट करना चाहिये | हम भी प्रमाण सचित करने का प्रयत्न कर रहे हैं परन्तु अभी तक लेखक के विरोध मे सिवाय रूढि के और कोई प्रमाण नही मिला है। मूलचन्द किशनदास कापडिया सूरत द्वारा सगृहीत प्रकाशित (वीर स० २४४० ) " क्षेपन क्रिया विवरण" पुस्तक के पृष्ठ १३ पर लिखा है - ऐलक पदवीमाँ विशेषता एछे कि - " उभारही ने पाणिपात्रज आहारज करें" किन्तु यह किसी प्रमवश या गलती से लिखा गया है क्योकि इसके लिए कोई प्रमाण या आधार वहाँ नही दिया गया है । यही हालत प० हीरालाल जी शास्त्री की है उन्होने भी श्रावकाचार संग्रह भाग ४ की प्रस्तावना पृष्ठ ६३ मे ऐलक के खड़े भोजन करने की बात लिखी है जो निराधार है । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ 1 पं० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु जिन देव-शास्त्र-गुरू की हम नित्य पूजा करते हैं उनमे देव शास्त्र के साथ गुरू का नाम भी जुडा हुआ है। इससे प्रगट होता है कि - गुरू यानी मुनि का पद भी कम महत्व का नही है | गुरू के लिये एक कवि ने यहाँ तक लिख दिया है कि - " वे गुरू चरण धरे जहाँ जग मे तीरथ होइ ।" ऐसे महान् पद के धारी मुनि भी केवल वेषमात्र से ही मुनि न होने चाहिए, किन्तु वेष के अनुसार उनमे मुनिपने का वह उज्ज्वल चारित्र भी होना चाहिये जो मुनियो के आचार शास्त्रो मे लिखा है । आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार मे गुरू का लक्षण इस प्रकार लिखा है विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ अर्थ - जो इन्द्रियो के विषयो की आशा से दूर रहता हुआ आरम्भ परिग्रह से रहित और ज्ञान-ध्यान तप मे तल्लीन रहता है, वही प्रशसनीय मुनि कहलाता है । इस महान पद की सुरक्षा के लिए हमारे पूर्वाचार्यों ने मुनियो के शिथिलाचार पर वडी कडी दृष्टि रक्खी है । वेषमात्र को तो उन्होने आदरणीय ही नही माना है । उन्होने इस दिशा मे सावधान रहने के लिए मुनिभक्तो को जो आदेश दिया है उसके कुछ नमूने हम यहाँ लिख देना उचित समझते हैं Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [ ७७ CDCOG०८०००००००००००००००००००००००००००००००००००० मोक्षमार्ग मे सम्यक्त्व और चारित्र का ही सर्वाधिक महत्व है । (इसलिए गुणस्थानो का क्रमसम्यक्त्व और चारित्र की अपेक्षा से है, ज्ञान की अपेक्षा से नहीं है । ज्यों ज्यो चारित्र बढ़ता जावेगा त्यो त्यो ही आत्मा ऊपर के गुणस्थानो में चढ़ता जावेगा । ऐसी बात ज्ञान की वृद्धि के साथ नहीं है - ज्ञान बढ़ता रहे तब भी गुणस्थान बढता नहीं ।) GOGO०००००००००००००००००००००००००००००००००००० सबसे पहिले इस विषय मे हम महर्षि कुन्दकुन्द की वाणी उद्धृत करते है -- अस्संजद ण वदे वत्यविहोणोवि सोण वंदिज्जो । दोष्णिवि होति समाणा एगोवि ण सजदो होदि ।। २६ ।। "दर्शन पाहुड़" अर्थ - असयमी कहिये जो कि महाव्रतो नही है -गृहस्थ है उसकी वन्दना न करे । और जो वस्त्र त्याग कर नग्नलिंगी बन गया है परन्तु सकल सयम का पालन नही करता है वह भी वन्दना के योग्य नही है। दोनो ही यानी गृहस्थ और मुनि वेषी एक समान है । दोनो मे एक भी सयमी - महाव्रती नही है । fungसह चरिय बहुपरियम्मो य गरूयभारो य । जो विहरइ सच्छद पाव गच्छेदि होदि मिच्छत् ॥ ६ ॥ 'सूत्र पाहुड़" अर्थ - जो स्वच्छन्द कहिये जिनसूत्र को उलघन कर प्रवर्तता है, वह उत्कृष्ट सिंह - चारित्र का धारी, वहुपरिकर्मवाला और गच्छनायक ही क्यो न हो तव भी वह पापी और मिथ्यादृष्टि ही है । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ७८ } [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ भावविसुद्ध निमित्त बाहिरगंथस्स कीरए चाओ । बाहिरचाओ विहलो अभ्यंतरगथजुतस्स ॥ ३ ॥ भा पा अर्थ- 'भावों को निर्मल रखने के लिये वाहिर मे परिग्रहो का त्याग किया जाता है। (त्याग करके भी जो अभ्यतर परिगह कहिये विषय कषायादि का धारी है तो उसके वाह्यत्याग निष्फल है । भावविमुत्तो सुत्तो णय मुसो बधवाइमित्तेन । इय भाविऊण उज्झसु गंथं अन्नंतर धीरा ॥ ४३ ॥ देहाविचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर । अत्तावणेण जावो बाहुबली कित्तियं कालं ॥ ४४ ॥ "भावपाहुड" अर्थ -- जो रागादिभावो का त्यागी है वही त्यागी माना जाता है । केवल कुटुम्वादि के त्याग कर देने मात्र से ही कोई त्यागी नही कहलाता है । हे धीर । ऐसी भावना रखकर तू अभ्यन्तर परिग्रह जो रागादि भाव उनका त्याग कर । - देहादि से ममत्व त्याग परिग्रह छोडकर कायोत्सर्ग मे स्थित हुए बाहुवली मानकषाय से कलुषितचित्त हुए कितने ही काल तक ( एक वर्ष तक ) आतापन योग मे रहे तो उससे क्या हुआ ? कुछ भी सिद्धि न हुई । भावेण होइ नग्गो बाहिरलिगेण किं च णग्गेण । कम्मपयडीण जियरं णासह भावेण दव्वेण ॥ ५४ ॥ "भावपाहुड़" अर्थ - भाव से भी नग्न होना चाहिये, केवल बाहरी नग्नवेष से हो क्या होता है ? जो द्रव्यलिंग के साथ-साथ - Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [ ७९ भावलिंग का धारी है वही कर्म प्रकृतियो के समूह का नाश करता है। बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो ॥१५३॥ - "भावपार" अर्थ-जो साधु मलिनचित्त हुआ मुनिचर्या मे अनेक दोष लगाता है वह श्रावक के समान भी नहीं है। धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं । णाऊण धुव कुज्जा तवयरणं गाणजुत्तो वि ॥६० ॥ - "मोक्षपाहुड" ___ अर्थ-चारज्ञान के धारी और जिनकी सिद्धि निश्चित है, ऐसे तीर्थङ्कर भी तपश्चरण करते है ऐसा जानकर विद्वान् मुनि को भी निश्चय से तपस्या करनी चाहिये । सुहेण भाविद णाण दुहे जादे विणस्सदि। तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावय ॥ १२ ॥ - "मोक्षपाहुड़" अर्थ-सुख की वासना मे रहा ज्ञान दुख पड़ने पर नष्ट हो जाता है। इसलिये योगी को यथा शक्ति दुख सहने का अभ्यास करना चाहिये । अर्थात् परीपहो को सहना चाहिये । नाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहण च सणविहूणं । · संजमहीणो य तवो जइ चरइ णिरत्ययं सवव ॥५॥ - 'शोलपाहुड़" अर्थ-चारित्रहीन ज्ञान को, सम्यक्त्वरहित लिंगग्रहण को और सयमहीन तप को यदि कोई आचरता है तो ये उसके निरर्थक हैं। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] [* जैन निवन्ध रलावली भाग २ जो विसयलोलएहि णाणीहि हविज्ज साहिदो मोक्खो। तो सो सच्चइपुत्तो दसपुत्वीओ वि कि गदो गरयं ॥३०॥ - "शीलपाड़" अर्थ-यदि इन्द्रिय-विपयो के लोलुरी शास्त्रज्ञानियो ने ही मोक्ष साध लिया होता तो दशपूर्त का ज्ञाता होकर भो सात्यकिपुत्र-रुद्र नरक मे क्यो जाता? यह तो हुआ श्री कुन्दकुन्द स्वामी का उपदेश । इन्ही सवका साराग आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में एक ही पद्य मे कह दिया है। गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः॥ __ अर्थ-गृहस्थ यदि निर्मोही है तो वह मोक्षमार्ग का पथिक है । किन्तु मुनि होकर मोह रखता है तो वह मोक्षमार्ग का पथिक नही है। मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ माना जाता है। __आचार्य गुणभद्र को तो वन को छोड रात्रि मे वस्ती के समीप आ जाने मात्र मुनियो की इतनी सो शिथिलता भी सहन न हुई है। वे आत्मानुशासन मे लिखते है इतस्ततश्च त्रस्यंतो विभावार्या यथा मृगा । वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः ॥ १६७ ॥ ____अर्थ-जिस प्रकार इधर उधर से भयभीत हुए गीदड रात्रि मे वन को छोड गांव के समीप अ) जाते है, उसी प्रकार इस कलिकाल मे मुनिजन भी वन को छोड रात्रि में गांव के समीप रहने लगे है। यह खेद की बात है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [ ८१ रानी रेवती की कथा मे आचार्य महाराज ने श्राविका रेवती को तो आशीर्वाद कहला भेजा। परन्तु वही पर रहने वाले ग्यारह अङ्ग के पाठी किन्तु चारित्र भ्रष्ट भव्यसेन मुनि को आशीर्वाद कहला नही भेजा। मोक्षमार्ग मे सम्यक्त्व और चारित्र का ही सर्वाधिक महत्व है। इसीलिए गुणस्थानो का क्रम सम्यक्त्व और चारित्र की अपेक्षा से है, ज्ञान की अपेक्षा से नहीं है । ज्यो-ज्यो चारित्र बढता जायेगा त्यो त्यो ही आत्मा ऊपर के गुणस्थानो मे चढता जावेगा। ऐसी बात ज्ञान की वृद्धि के माथ नही है-जान बढता रहे तव भी गुणस्थान वढ़ता नही। अल्पश्रत के धारी शिवभुति मुनि ने तुसमाष को घोषते हुए ही सिद्धि को प्राप्त कर लिया। यही वात मूलाचार मे कही है धोरो वइरग्गपरो थोवं हि य सिक्खिदण सिझदि हु। णय सिज्झदि वेरग्गविहीणो पढिरण सव्वसत्थाई ॥३॥ -- मूलाचार-"समय साराधिकार" अर्थ-धोरवोर वैराग्यपरायण मुनि तो थोडा पढ लिखकर ही सिद्धि को पा लेता है। किन्तु वैराग्यहीन मुनि सव शास्त्रो को पढकर भी मिद्वि को नहीं पाता है। ___ इन सब उल्लेखो मे मुनि के निर्मल चारित्र को प्रधानता दी है। अर्थात् किसी मुनि मे अन्य सभी गुण हो और चारित्र की उज्ज्वलता न हो तो सव निरर्थक है।। यह तो हुआ पूर्वाचार्यों का कथन । तदनन्तर वि० स० १३०० के करीव मे मुनिवेपियो का जो कुछ हाल था उसे देखकर प० आशाधर जी ने अनगार धर्मामृत के दूसरे अध्याय मे अपने निम्न विचार व्यक्त किये है Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ मुद्रां सांव्यवहारिकों त्रिजगतीवंद्यामपोद्यार्हती, वामां केचिदहंयवो व्यवहरन्त्यन्ये बहस्तिां श्रिता । लोकं मूतवदाविशत्यवशिनस्तच्छायया चापरे, म्लेच्छन्तीह तर्क स्त्रिधा परिचयं पुं देहमोहैस्त्यज ॥ ६३ ॥ इस पद्य का अर्थ आशाधर जी ने स्वोपज्ञ संस्कृत टीका मे जैसा किया है उसका हिन्दी अनुवाद निम्न प्रकार है वर्तमान काल मे एक प्रकार के अहकारी साधु तो वे हैं जो समीचीनरूप से व्यवहार में आने वाली और तीन जगत में वन्दनीय ऐसी आर्हतीमुद्रा जिनमुद्रा को छोडकर उससे उल्टी जटा रखना, भस्म रमाना आदि विपरीत मुद्रा को धारण किये हुए है वे तो तापसी आदि है । जिस प्रकार क्षुद्र लोग खोटे सिक्के (मुद्रा) बनाकर प्रचार मे लाते हैं उसी प्रकार ये तापसी विपरीत मुद्रा को धारण कर साधु नाम से प्रचार मे आ रहे है। दूसरी प्रकार के साधु वे है जो द्रव्य जिनलिंग के धारी बाहर से यानी शरीर से ( न कि मन से ) जिन मुद्रा को धारण कर जैन मुनि कहलाते है किन्तु इन्द्रिये उनके वश मे नही है । वे धार्मिक लोगो से अनेक ऐसी चेष्टायें कराते है जैसे उनको कोई भूत लग गया हो । अर्थात् वाहर से जैन मुनि का वेप देख कर विचारे धर्मपिपासु भोले जैनी भाई उन पर ऐसे आकर्षित हो जाते है कि वे मुनि जैसा कहते हैं वैसा हो वे करने लग जाते है । उन भोले भावुक लोगो की ऐसी चेष्टा देखने से ऐसा प्रतीत होने लगता है कि मानो इन जैनी भाइयो को कोई भूत-प्रेत लग गया है जिसमे वावले होकर यद्वा तद्वा चेष्टाये करते है । तथा तीसरी प्रकार के साधु वे हैं जो द्रव्य जिनलिंग Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [ ८३ को धारण करके मठो में निवास करते है । और मठो के अधिपति वने हुए है । वे जिनलिंग की नकल करके मुनियो की तरह दिखते हुए म्लेच्छो के समान लोकविरुद्ध व शास्त्र विरुद्ध आचरण करते हैं । इस प्रकार ये तीनो ही तरह के कुत्सित साधु मानो मनुष्य शरीर के आकार मे साक्षात् मोह के रूप ही हैं। ऐसा जान कर सम्यक्त्व के आराधक भव्यजीवो को चाहिये कि वे इनको न तो मन से अनुमोदना करे, न वचन से प्रशंसा करे और न काय से ससर्ग रक्खे' | इस वक्तव्य मे प० आशाधर जी ने द्रव्यलिंग के धारी उन नग्न जैन मुनियो को भी खोटे तापसियो की श्रेणी में बैठा कर उन सबको ही उन्होने पुरुषाकार मोह मिथ्यात्व वताकर उनसे ससर्ग न रखने का उपदेश दिया है, यह खास तौर पर ध्यान देने की चीज है । प० आशाधर जी ने अपने मतव्य की पुष्टि मे यहाँ एक पुरातन श्लोक भी उद्धृत किया है जिसमे लिखा है कि ऐसे ही कुसाधुओ ने भगवान जिनेन्द्र के निर्मल शासन को मलिन किया है । यथा पण्डिते श्रष्टचारितंबंठरंश्च तपोधनैः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ आशाधर जी के इस प्रकार के उल्लेख से साफ प्रगट १ - ( ' लेख विस्तार के भय से हमने यहाँ टीका के संस्कृत वाक्यो को नहीं लिखा है । इतना जरूर है कि प० आशाधर जी ने सस्कृत टीका मे जैसा लिखा है उसी को हूबहू हमने हिन्दी मे लिख दिया है । हमने अपनी तरफ से बढाकर कुछ भी नहीं लिखा है यह बात मूल पुस्तक से मिलाकर कोई भी देख सकता है ।) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] [ ★ जेन निवन्ध रत्नावली भाग २ होता है कि वे भी जैन मुनियो के शिथिलाचार के सख्त विरोधी रहे है । एक वात ऊपर लिखनी रह गई है वह यह कि - पद्मनन्दिपचविंशतिका में शय्या हेतु तृणादि का ग्रहण भी मुनियो के लिये लज्जाजनक बताया है । यथा दुर्ध्यानार्थमवद्य कारणमहो निर्ग्रन्यताहानये । शय्या हेतुतृणाद्यपि प्रशमिना लज्जाकर स्वीकृतम् ॥ यतत्कि न गृहस्थयोग्यमपरं स्वर्णादिकं साप्रतं निग्रयेष्वपि चेत्तदस्ति नितरा प्रायः प्रविष्टः कलि । ५३ MA अर्थ - शय्या के निमित्त जहाँ तृणादि ( पयाल ) का ग्रहण भी मुनियो के लिए लज्जाजनक है । क्योकि तृणादि दुर्ध्यान और पाप के कारण है, उनका उपयोग करने से निर्ग्रन्थता मे भी हानि पहुँचती है तव यदि आजकल के निर्ग्रन्थ साधु लोग गृहस्थयोग्य अन्य स्वर्ण, वस्त्र, रुपैया, पेसा, घडी ( वॉच ) मठ, मकान, खेत आदि रखते हैं तो समझना चाहिये कि घोर कलिकाल आ गया । अब हम लेख के शीर्षक के अनुसार प० टोडरमल जी का इस विषय मे क्या मत था, यह बताते हैं देश भाषा मे ग्रन्थ बनाने वाले पिछले पण्डितो मे श्री प० टोडरमल जी साहव वडे ही गम्भीर विचारक और मननशील विद्वान् हुए है। उन्होने देश भाषा मे अभूतपूर्व और उच्चकोटि का एक मोक्षमार्ग प्रकाशक नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ का निर्माण किया है, जिसमे जैन धर्म के कई विषयो पर बडे ही मार्मिक ढंग से ऊहापोह किया गया है । यह ग्रन्थ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० टोडरमल जो और शिथिलाचारी साधु ] [ ८५ प्रत्येक जिज्ञासु के पढने योग्य है । इसी मे साधुओ के शिथिलाचार के विषय मे भी विशद विवेचना की है । उसके हम यहाँ दो उदाहरण देते है । ये सब उद्धरण उसके ६ वें अधिकार के हैं "बहरि इनि भेषीनिविष केकेई भेषी अपने भेष की प्रतीति करावने अर्थ किचित् धर्म का अग को भी पाले है । जैसे खोटा रुपय्या चलावने वाला तिस विषै किछु चादी का भो अश राख है । तेसे धर्म का कोऊ अग दिखाय अपना उच्च पद मना है । इहा कोई कहे कि । उन्होने ) जो धर्म साधन किया ताका तो फल होगा । ताका उत्तर—जैसे उपवास का नाम धराय कणमात्र भी भक्षण करें तो पापी है । अर एकासन का नाम धराय किचित् ऊन भोजन ( पूरे भोजन मे कुछ कम ) करें तो भी धर्मात्मा है । तैसे उच्चपदवी का नाम धराय तामें किंचित् भी अन्यथा प्रवर्ते तो महापापी है । अर नीची पदवी का नाम धराय किछु भी धर्मसाधन करें तो धर्मात्मा है । जाते धर्मसाधन तो जेता बने तेता ही कीजिये किछु दोष नाही. परन्तु ऊंचा नाम धराय नीची क्रिया किये महाग ही हो है । सोई पट्पाहुड विषै कुन्दकुन्दाचार्य करि कहा है - जह जायरूवसरिसो तिलतुसभित्तं ण गहृदि अत्येसु । जइ लेइ अप्पबहुयं सत्तो पुण जाइ णिग्गोयं ॥ १८ ॥ "सूत्रपाहुड" 6 याका अर्थ - मुनिपद है सो यथाजातरूप सदृश है । जैसा जन्म होते था तैसा नग्न है । सो वह मुनि अर्थ जे धनवस्त्रादिक. वस्तु तिन विषै तिलतुषमात्र भी ग्रहण न करें । बहुरि कदाचित् Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अल्प या वहुत वस्तु हैं तो तिसतै निगोद जाय । सो इहा देखो गृहस्थपने मे बहुत परिग्रह राखि किछू प्रमाण करें तो भी स्वर्ग का अधिकारी हो हैं । अर मुनिपने मै किचित् परिग्रह अगीकार किये ही निगोद जाने वाला हो है । तातै ऊँचा नाम धराय नीची प्रवृत्ति युक्त नाही । अब इहा कुयुक्ति करि जे तिनि कुगुरुनि का स्थापन कर है तिनिका निराकरण कीजिये है । तहा वह क है है - गुरु बिना तो निगुरा होय, अर वैसे गुरु अबार दीस नाही, ताते इनही को गुरु मानना । ताका उत्तर - निगुरा तो बाका नाम है जो गुरु मान ही नाही | ( बहुरि जो गुरु को तो मान अर इस क्षेत्र विषं गुरु का लक्षण न देखि काहू को गुरु न माने तो इस श्रद्धान ते तो निगुरा होता नाही । जैसे नास्तिक तो वाका नाम हैं जो परमेश्वर को मान ही नाही । बहुरि जो परमेश्वर को तो मान अर इस क्षेत्र विषै परमेश्वर का लक्षण न देखि काहू को परमेश्वर न माने तो नास्तिक तो होता नाही । तैसे ही यह जानना ।) बहुरि वह कहँ है (जैनशास्त्रनि विषे अबार केवली का तो मभाव कया है, मुनि का तो अभाव कह्या नाही ताका उत्तर (ऐसा तो कह्या नाही इनि देशनि विषै सद्भाव रहेगा । भरतक्षेत्र विषं कहे है सो भरतक्षेत्र तो बहुत बड़ा है | कही सद्भाव होगा तातै अभाव न कया हैं । जो तुम रहो हो तिस ही क्षेत्र विषे सद्भाव मानोगे तो जहाँ ऐसे भी गुरु न पावोगे, तहाँ जावोगे तब किसको गुरु मानोगे । जैसे हसनि का सद्भाव बबार कह्या हैं अर हस दीसते नाही 173 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ५० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [८७ तो और पक्षीनि को तो हस मान्या जाता नाही। तैसे मुनि का सद्भाव अबार कहा है, अर मुनि दीसते नाही तो औरनि को तो मुनि मान्या जाय नाही) बहुरि वह कहै है एक अक्षर का दाता को गुरु मान है । जे शास्त्र सिखावै या सुनावै तिनिको गुरु कैसे न मानिये ? ताका उत्तर-गुरु नाम बडे का है। सो जिस प्रकार की महतताजाकै सभवै तिस प्रकार ताको गुरु सज्ञा सभवै जैसे कुल अपेक्षा माता पिता को गुरु सज्ञा है। तैसे ही विद्या पढावने वाले को विद्या अपेक्षा गुरु सज्ञा हैं। यहाँ तो धर्म का अधिकार है। तातै जाकै धर्म अपेक्षा महतता सभवै सो ही गुरु जानना। सो धर्म नाम चारित्र का है। "चारित्त खलु धम्मो” (प्रवचनसार १-७) ऐसा शास्त्रविषे कया है । ताते चारित्र का धारक ही को गुरु सज्ञा हैं। बहुरि जैसे भूतादिक का भी नाम देव है, तथापि यहा देव का श्रद्धान विषै अरहत देव ही का ग्रहण हैं, तैसे औरनिका भी नाम गुरु है, तथापि इहा श्रद्धान विषै निर्ग्रन्थ ही का ग्रहण है । सो जिन धर्भ विष अरहंत देव निग्रंथ गुरु ऐसा प्रसिद्ध वचन है।" तातै बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह रहित निग्रंथ मुनि है सो ही गुरु जानना। यहाँ कोऊ कहै-ऐसे गुरु तो अबार यहां नाही। ताते जैसे अरहत की स्थापना प्रतिमा है तैसे गुरुनिकी स्थापना ये भेषधारी है। ताका उत्तर-जैसे राजाजी की स्थापना चित्रामादिक करि कर तो राजा का प्रतिपक्षी नाही। अर कोई सामान्य मनुष्य आपको राजा मना तो राजा तिसका प्रतिपक्षी होइ.। तैसे अरहतादिक की पाषाणादि विषै स्थापना बना तो। म Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ तिनिका प्रतिपक्षी नाही । अर कोई सामान्य मनुष्य आपको मुनि मनावै तो वह मुनिनिका प्रतिपक्षी भया । ऐसे भी स्थापना होती होय तो अरहन्त भी आपको मनावो । बहुरि वह कहे है - अवार श्रावक भी तो जैसे सम्भव तैसे नाही । तातै जैसे श्रावक तैसे मुनि । ताका उत्तर- श्रावक सज्ञा तो शास्त्रविषे सर्व गृहस्थ जैनी को है। श्रेणिक भी असयमी था ताको उत्तर पुराण विध श्रावकोत्तम कह्या । बारह सभाविषे श्रावक कहे, तहाँ सर्व व्रतधारी न थे, जो व्रतधारी होते तो असयत मनुष्यनिकी जुदी सख्या कहते सो कही नाही । ताते गृहस्थ जैनी श्रावक नाम पावै हैं । अर मुनिसंज्ञा तो निर्ग्रन्थ विना कही कही - नाही । "मुनि के अट्ठाईस मूलगुण हैं सो भेषीनिके दीसते नाही । ताते मुनिपनो काहू प्रकार करि सभवे नाही । बहुरि गृहस्थ अवस्था विषै तो पूर्वे जम्बू कुमारादिक बहुत हिसादिक कार्य किये सुनिए है । मुनि होय करि तो काहूने हिसादि कार्य किये नाही, परिग्रह राखे नाही, तातै ऐसी युक्ति कारजकारी नाही । बहुरि देखो आदिनाथजी के साथ च्यारि हजार राजा दीक्षा लेय बहुरि भ्रष्ट भये तब देव उनको कहते भये- जिनलिंगी होय अन्यथा प्रवर्तोगे तो हम दंड देंगे। जिनलिंग छोडि तुम्हारी इच्छा होय सो तुम करो । ताते जिनलिंगी कहाय अन्यथा प्रवते ते तो दडयोग्य हैं, वदनादियोग्य कैसे होय ? " अन्य जीव उनकी सुश्रूषा आदि करे हे ते भी पापी हो है । पद्मपुराणा। विषै यह कथा है - जो श्रेष्ठी ( सेठ ) धर्मात्मा चारणमुनिनि को भ्रमते भ्रष्ट जानि आहार न दिया तो प्रत्यक्ष भ्रष्ट तिनको दानादिक देना कैसे सम्भव ? Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [ पर्द (यहाँ कोऊ क है - हमारे अन्तरग विषे श्रद्धान तो सत्य है परन्तु बाह्य लज्जाकरि शिष्टाचार करे है सो फल तो अन्तरंग का होगा । ) ताका उत्तर- षट्पाहुडविषै लज्जादि करि वदनादिक का निषेध दिखाया था सो पूर्वे ही कह्या था । बहुरि कोऊ जोरावरी मस्तक नमाय हाथ जुडावै तब तो यह सम्भव जो हमारा अंतरंग न था । अर आपही मानादिक ते नमस्कार करें तहा अतरग कैसे न कहिये । जैसे कोई अतरग विपैं तो मास, मदिरा को बुरा जाने अर राजादिक का भला मनावने को मदिरा पान और मास भक्षण करें तो वाको व्रती कैसे मानिये ? तैसे अतरग विषे तो कुगुरु सेवन को बुरा जाने अर तिनिका या लोकनि का भला मनावने को कुगुरुसेवन करे तो श्रद्धानी कैसे कहिये ? जातै बाह्य त्याग किये ही अन्तरग त्याग सम्भव है । ताते जे श्रद्धानीजीव हैं तिनको काहू प्रकार करि भी कुगुरुनिकी सुश्रूषा आदि करनी योग्य नाही .... श्रद्धानी तो रागादिक को निषिद्ध श्रद्ध है । वीतराग भाव को श्रेष्ठ मान है । तातै जिनके वीतरागता पाइये वैसे ही गुरुओ को उत्तम जानि नमस्कारादि करें है । जिनके रागादि पाइये तिनको निषिद्ध जानि नमस्कारादि कदाचित भी करें नाही । कोऊ कहै - जैसे राजादिक को नमस्कार करें तैसे इनको भी करें है । Inthe head warran ताका उत्तर - राजादिक धर्मपद्धति विषे नाही । गुरु का सेवन धर्मपद्धति विर्ष है सो राजादिका सेवन तो लोभादिक तं हो है । तहा चारित्रमोह ही का उदय सभव है । अर गुरूनि की जायगा कुगुरूनिको सेये तत्त्वश्रद्धान के कारण गुरू थे तिनते प्रतिकूली भया, सो लज्जादितें जाने कारण विषै Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ε० ] [ ★ जंन निवन्ध रत्नावली भाग २ विपरीतता निपजाई ताकै कार्यभूत तत्वश्रद्धान विषै दृढता कैसे सभवे ? तातै तहादर्शनमोह का उदय सभव है ।" इस प्रकार पंडित प्रवर टोडरमलजी ने विवेचन किया है जिसे देखकर कहना पडता है कि आपने भी साधुओ के शिथिलाचार के विषय में पूर्वाचार्यो का ही अनुसरण किया है । इन्ही के कुछ समय बाद पडित जयचन्द जी भी बडे ही प्रतिभाशाली विद्वान् हुये है । आपने सस्कृत प्राकृत के कोई तेरह चौदह गन्थो की देशभाषा मे वडी उत्तम टीकाये लिखी है । आपने दर्शनपाहुड की २६ वी गाथा को टीका के भावार्थ मे इस सम्बन्ध में निम्न प्रकार कथन किया है( यह गाथा इस लेख में ऊपर उद्धत हुई है | ) "जो गृहस्थ भेष धारया है सो तो असयमी है ही । बहुरि जो बाह्य नग्नरूप धारण किया अर अन्तरंग मे भावसयम नाही है तो वह भी असयमी ही है । ताते ये दोऊ ही असयमी हैं, ताते दोऊ ही वदवे योग्य नाहीं । इहा आशय ऐसा है जो ऐसे मति जानियो - जो आचार्य यथाजातरूप के दर्शन करते आवे है सो केवल नग्नरूप ही यथाजातरूप होगा, जाते आचार्य तो बाह्य आभ्यतर सव परिग्रह सू रहित होय ताकू यथाजातरूप कहैं है, अभ्यंतर भावसयम बिना बाह्य नग्न भये तो किछू सयमी होय है नाही, ऐसे जानना । لہ इहा कोई पूछे – बाह्यभेप शुद्ध होय आचार निर्दोष पालता तार्क अभ्यंतर भावो में कपट होय ताका निश्चय कैसे होय ? तथा सूक्ष्म भाव केवलीगम्य हैं, मिथ्यात्व होय ताका निश्चय कैसे होय, निश्चय विना वदने की कहा रीति ? 7 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० टोडरमल' जी और शिथिलाचारो साधु ] [६१ ताका समाधान-ऐसा जो कपट का जेते निश्चय नाही होय तेतै आचार शुद्ध देखि वदै, तामैं दोष नाही, अर कपट का कोई कारणते निश्चय हो जाय तब नहीं वदै । बहुरि केवलीगम्य मिथ्यात्व को व्यवहार मे चर्चा नाही, छद्मस्थ के ज्ञानगम्य की चर्चा है। जो अपने ज्ञानका विषय ही नाहो ताका वाध निर्बाध करने का व्यवहार नाही, सर्वज्ञ भगवान् की भी यही आज्ञा है ) व्यवहारी जीव कू व्यवहार का ही शरण है।" मतलव यह है कि मुनिलिंग पूज्य है अवश्य, पर केवल द्रलिंग यानी वेषमात्र पूजनीय नही है। मुनि का वाह्य वेष द्रव्यलिंग कहलाता है। और कषायोपशम सयम सम्यक्त्वादिका होना भावलिंग कहलाता है। जैनशासन मे भावलिग रहित द्रव्य लिंग मान्य नही है। और द्रव्यलिंग रहित भावलिंग भी मान्य नही है, न दोनो ही लिंग रहित तीसरी अवस्था ही मान्य है। जनमत मे तो सयुक्त द्रव्य भावलिंग मान्य है। इस विषय में सिक्के का उदाहरण अच्छा घटित होता है। अगर रुपया चादी का हो पर उस पर सरकारी मोहर ठीक नही हो तो वह ग्राह्य नही होता । और जो मोहर ठीक हो पर वह चादी का न हो तो वह रुपया भी ग्राह्य नही होता। तथा चादी और मोहर दोनो ही ठीक न हो तो वह भी ग्राह्य नहीं होता। रुपया वह चलेगा जिसमे चादी और मोहर दोनो ठीक होगी । वस यही वात मुनिलिंग के विमेषय समझना चाहिये । (सिक्के की चादी को भावलिंग और मोहर को द्रव्यलिंग जानना चाहिये । फलितार्थ यह हुआ कि-भावलिंग के साथ धारण किया द्रव्यलिंग ही सिद्धि का कारण होता है। अकेले द्रव्यलिंग मे कुछ सिद्धि नहीं होती। यही बात कुन्दकुन्द स्वामी ने भाव पाहुड मेलिखी है Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ - T णग्गत्तणं अकज्जं भावणरहियं जिणेहि पण्णतं । इयणाऊण य णिच्चं भाविज्जहि अप्पय धीर ॥५।। __ अर्थ-भावरहित नग्नपणा कार्यकारी नही है ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है । यह जानकर हे धोर | सदा तु आत्मा की भावना कर। सिक्के के दृष्टात मे यह बात समझने की है कि-जिस रुपये मे चादी ठीक हो पर उस पर सरकारी छाप ( मोहर) ठीक न हो तो भले ही वह व्यवहारिक क्षेत्र मे चल नहीं सकेगा तथापि उसकी चादी का मूल्य तो कुछ मिलेगा ही किन्तु द्रव्यसिक्का तो गिलट का हो और मोहर उसकी ठीक हो तो वह तो कुछ भी मूल्य न पावेगा। इसी तरह द्रव्यलिग रहित भावलिंग चाहे अन्तिम सिद्धि मोक्ष का साक्षात् साधक नही है तथापि परम्परा साधक तो हो ही जावेगा । जैसा कि शिवकुमार भावश्रमण होकर सन्यास से मरण कर ब्रह्मस्वर्ग मे विद्युन्माली देव हुआ। वही जबूकुमार के भव मे भावलिंग के साथ द्रव्यलिग को धारण करके मोक्ष मे गया। (देखो 'जबू स्वामी चरित') प्रश्न-ये मुनिवेषी शिथिलाचारी हे तो क्या हुआ। पापपक मे लिप्त हम गृहस्थो से तो अच्छे ही है। मुनिनिंदा करने से घोर पाप का वध होता है। उत्तर-जिनकी अभी जिह्वालपटता, पैसे की तृष्णा, विषय वासना नही छूटी, इद्रियें जिनकी वश मे नही हैं, जो अपने आदर सत्कार के इच्छुक है, कषाय भाव रखते हैं और परीषह नहीं सहते है ऐसे मुनि हम गृहस्थो से अच्छे नही कहला सकते है । नग्न होना एवं पिच्छी कमडलु धारण करना तो बाह्य भेष है । इस भेष के साथ अन्तरग मे त्याग वैराग्य Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [ ६३ भाव हो तो अच्छा कहा जा सकता है । खाली भेपमात्र तो अच्छा नही कहा जा सकता। अगर हर सूरत मे मुनि का वेपमात्र ही गृहस्थ से श्रेष्ठ हाता हो तो आचार्य समतभद्र स्वामी रत्नकरड श्रावकाचार में यह नही लिखते कि मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है । और महर्षि कुन्दकुन्द भी दर्शन पाहुड की २६ वी गाथा में असयमी मुनि को गृहस्थ तुल्य नहीं बताते । फिर गृहस्थ तो यह दावा नही करता कि मुझे तुम ऊचा मानो वह तो भीतर बाहर एकसा है अत गृहस्थ तो कपटी नही है । किन्तु ये मुनिवेपी तो अपने को परम गुरु कहते हुये गृहस्थो से प्रणाम विनय कराते है और अपनी जयजयकार बुलाते है । परन्तु बाहर जैसा मुनि का रूप इन्होने वना रक्खा है, तदनुसार ये मुनि का आचार पालते नही हैं अर्थात् भीतर से मुनि नही है तो यह तो कपट व्यवहार हुआ । तव ये गृहस्थो से अच्छे कैसे हो गये ? गृहस्थो से कोई ठगाया तो नही जाता, इन भेषियो से तो भोली जनता पग २ पर ठगाई जा रही है । व्याघ्र से इतना खतरा नहीं जितना कि गोमुख व्याघ्र से होता है । ऐसे ढोगी साधुओ की आलोचना करना मुनिनिन्दा नही कहलाती है । वे मुनि ही नही तो निदा का सवाल ही नही रहता । प्रश्न- यह जानते हुये भी कि - "अमुक जैन मुनि आचारहीन है" तथापि लोकलाज से हम गृहम्थो को उन्हें भी भोजनादि देना पडता है। हमारे द्वार पर आने वाले अन्य कोई भी जव भूखे नही जाते तो ये तो जैनमुनि का वेष लेकर आते हैं, तब भला इनको आहार कैसे नही दिया जाये ? उत्तर - अन्य को आहार देने में और जैनमुनि को आहार देने मे बडा अन्तर है । अन्य को आहार देना यह गृहस्थ का terw 1 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ÷४ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ शिष्टाचार लौकिक पद्धति में है, और जैनमुनि को आहार देना यह धर्म पद्धति मे है । इसीसे जैनमुनि को जो आहार दिया जाता है वह गुरु भाव से नवधा भक्ति पूर्वक दिया जाता है । नवधा भक्ति उनकी की जाती है जबकि हमारे गुरु सच्चे और श्रेष्ठ तपस्वी हो। अगर हम जानते हुये भी ढोंगी साधु की नवधा भक्ति करते है तो हम अवश्य ही परम्परा से चले आये जेनमुनि के आदर्श और पवित्र मार्ग को बिगाडते है । और ऐसा करके ढौग को प्रोत्साहन देने से निश्चय ही हम पाप का बन्ध करते हैं, रही लोकलाज की बात, सो बुरा काम तो लोकलाज से करने पर भी बुरा फल देगा ही । आचार्य नेमिचन्द्र त्रिलोकसार मे कुभोग भूमिका वर्णन किये बाद गाथा ६२२ मे लिखते हैं कि इन कुभोग भूमियो मे वे जैन मुनि जाते हैं जो मुनि होकर कपट करते हैं ज्योतिष व मन्त्रादि का प्रयोग करते है, धन की वाछा रखते हैं, ऋद्धियश साता रूप तीन गारवदोप युक्त और आहार-भय मैथुन - परिग्रह सज्ञा के धारी है । कुछ लोग पुलाकमुनि का उदाहरण देकर आधुनिक मुनियो के शिथिलाचार का पोपण करते हैं वह भी ठीक नही है । पुल मुनि का वर्णन तत्त्वार्थ सूत्र के ह वे अध्याय के सूत्र ४६-४७ मे आया है। उसकी सर्वार्थ सिद्धि टीका मे पुलाक मुनि को भावलिंगी और सामयिक छेदोपस्थापना सयम के धारी निर्ग्रन्थ बताते हुए यह लिखा है कि - " इनके कभी - कभी कही पर परवश से पाँच महाव्रतों मे से किसी एक की कुछ विराधना भी हो जाती है ।" इस कथन को देखते हुए जो Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [ ६५ LDKA - मुनि परवश न होकर भी अहर्निश कितने ही मूलगुणो मे दोष लगाते हैं वे पुलाक मुनि नही माने जा सकते हैं। आजकल के कतिपय साधुओ के शिथिलाचार का तो अजीब ही हाल है परिताप इस बात का है कि उनको भी मानने पूजने वाले कई भोले जैनी भाई है। यह अन्ध भक्ति महिला वर्ग मे विशेप पाई जाती है। धनादि की लालसा से कुछ सेठ लोग भी इसमें साथ दे रहे है और कतिपय स्वार्थी पण्डित भी हाँ मे हाँ मिला रहे है तथा देखादेखी साधारण जन भी इसी प्रवाह मे वह रहे है। कोई कहता है अमुक माधु बडे करामाती है मन्त्र-जन्त्र से भक्तो के कार्य सिद्ध करते है कुओ का पानी भी मीठा बना देते है। कोई कहते है अमुक साधु भूत भविष्यत् को बाते बता देते है । कोई कहते हैं अमुक साधु के चरणो मे और गले मे साप खेलते हैं। कोई कहते है अमुक साधु अपने तप के प्रभाव से खण्डित मूर्तियो को जोड देते हैं, आदि । किन्तु टन सब मे कोई तथ्य नही । मुनियो में जो शिथिलाचार तीव्र गति से बढता जा रहा है उसके कारण जेन धर्म की महान् अप्रभावना हो रही है-यह वडी ही चिन्ता का विषय है। दिगम्बरत्व की जो प्रतिष्ठा आज के पचास साठ वर्ष पहले जैनेतर लोगो के मन मे थो वह आज कहाँ है ? मैं इममे भक्तो की जिम्मेवारी ही ज्यादा समझता हूँ। भक्तो का कर्तव्य है कि वे मूलाचार आदि । मुनियो के आचार-ग्रन्थो को पढे और उनके अनुसार जिनका आचरण ठीक न हो उन्हे मुनि नही माने और उनके शिथिलाचार के विषय मे उन्हे स्पष्ट कहे। जब तक भेष पूजा का Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] [ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ व्यवहार दूर नही होगा, तब तक इस रोग का इलाज कभी नहीं होगा । पण्डित टोडरमल जी ने भेष पूजा का जो डटकर विरोध किया था उससे एक क्राति उत्पन्न हुई थी, आज भी वेसी क्राति की जरूरत है । हमे किसी भेषी का निन्दा के भाव से नही अपितु मुनित्व की वस्तुस्थिति को प्रकट करने के लिए निर्भय होकर अपने विचार प्रकट करना चाहिए । इस सम्बन्ध मे जो अपनी जिम्मेवारी को नही समझते वे वहुत बड़ी गलती करते है । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चामुण्डराय का चारित्रसार दिगबर जैन समाज मे "चारित्रसार" नामक ग्रन्थ के रचयिता चामुण्डराय समझे जाते हैं। ग्रन्थ के परिसमाप्तिसूचक गद्य से भी यही ध्वनित होता है। किन्तु ग्रन्थ की हालत को देखते हुए चामुण्डराय को उसका निर्माता नहीं कह सकते। अधिक से अ धक हम उन्हे सग्रहकर्ता कह सकते हैं। निर्माता और सग्रहकर्ती मे भेद है। निर्माता वह होता है जो ग्रन्थ की शाब्दिक रचना का अपनी बुद्धि से प्रणयन करता है। किन्तु संग्रहकर्ता मे यह बात नहीं है। वह दूसरो के रचित वाक्यो को सचित कर उसका कोई नया नाम धर देता है । 'चारित्रसार' की भी प्राय. यही हालत है । यद्यपि धर्मशास्त्र नये नही बना करते। परम्परा से जो वाडमय चला आता है उसी के अनुसार कथन उनमे रहता है और प्रामाणिक भी वे तभी माने जाते हैं। लेकिन यह बात उनके अर्थ के सबध मे है। शब्द से तो वे भी नये बनते हैं। प्राचीन गूढ अर्थ को स्पष्ट करना और अपने शब्दो मे कहना यही नवीन धर्मशास्त्रकारो का काम होता है। इस प्रकार को नवीन कृतियो मे कही कही प्राचीन मागमो के व क्य भी बिना उक्त च लिखे ज्यो के त्यो उद्धृत कर लिए जाते हैं। जैसा कि सर्वार्थसिद्धि के वाक्य राजवार्तिक मे और राजवार्तिक के वाक्य श्लाकवार्तिक मे पाये जाते है। किन्तु इनके कर्ताओ ने जितना कुछ दूसरी से लिया है उससे कई गुणा अपनी बुद्धि से बनाकर रक्खा है। इसलिए ऐसो को तो ग्रन्थकर्ता ही कहने चाहिए। पर जो ग्रन्थ का बहुभाग या Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 1 [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ } 4 t समग्र ही कलेवर दूसरे के रचे वाक्यो से भरते है और अपनी बुद्धि कुछ भी खर्च नही करते, या करते भी हैं तो इतनी सी जैसे ऊट के मुह मे - जीरा, वे उस ग्रन्थ के निर्माता नहीं कहला सकते । अपना आटा हो और दूसरे का नमक तो वह रोटी अपनी कही जायगी। पर दूसरे का आटा हो और अपना केवल नमक, तो वह रोटी दूसरे ही की कही जायगी । चारित्रसार के सम्बन्ध मे भी यही बात घटिन होती है । चामुंडराय की निज की रचना या तो उसमे कुछ भी नहीं है और हो भी तो 'नमक के बराबर - वाकी आटा मब दूसरों का ही उधार लिया हुमा है । यह बात चारित्रसार और तत्वार्थराज वार्तिक को तुलनात्मक ढंग से अध्ययन करने वाले को स्पष्टत दृग्गोचर हो सकती है । राजवार्तिक मे से अनेक जगह का चारित्र - विधेयक गद्य-भाग उठा उठाकर चारित्रसार मे ज्यो का त्यों या कुछ मामूला हेरफेर के साथ धर दिया गया है । चारित्रसारका करीब तीन तिहाई हिस्सा राजवांतिक की रचना से ही भरा हुआ है । नीचे हम दोनो के वे स्थान, बताते हैं । जहाँ एक समान गद्य पाया जाता हैं C 3 १ fr । ** भ ト : 1 चारित्रसार पृष्ठ २ पक्ति चौथी (रजिवार्तिक अध्याय सूत्र २ वार्तिक ३) चारित्रसार पृष्ठ २-३ मे सम्युक्तव का अष्टागस्वरूप (राजवार्तिक अध्याय ६ सूत्र २४ वांतिक बा० सा० पृ० ४ सम्यक्तव के अतीचार ( रा० वा० अ० ७ सु० २३) चा० सा० पृ० ४ शल्यविवेचन ( रा० वा० अ० ७ सू० १८) चा० सा० पृ० ५ पंचाणुव्रत के लक्षण ( रा० वा० अ० ७ सूत्र r 1 1 J P २०) चा० सा० पृ० ५ से ७ तक अणुव्रतो के अतीचार ( रा० बा० अ० ७ मे देखो इस विषय के सूत्र) चौ० " सा० पृ० से T i 1/ ل Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चामुण्डराय का चारित्रसार ] [ E १५ तक शीलसप्तक के सिर्फ लक्षण और अतीचार (रा० वा० अ०७ मे देखो इस विषय के सूत्र) चा० सा० पृष्ठ २२-२३ सल्लेखना का लक्षण और अतीचार (रा० चा० अ०७ सू० २२३७) चा० सा० पृ० २४ से २६ तक सोलह कारण भावनायें (रा. वा० अ०६ सूत्र २४) चा० सा० पृष्ठ २७ से ३० तक दशधर्मों का विवेचन (रा. वा० अ६ सू०६ मे बिल्कुल यही है)। फर्क इतना सा है कि यहां पहिले अलग अलग धर्म का स्वरूप बताकर वार्तिक २८ मे दसो ही का विशेष कथन किया है। और चारित्रसार मे इस विशेष कथन को प्रत्येक धर्म के वर्णन के साथ ले लिया है तथा यही पर चारित्रसार मे सत्य के १० भेदो का जो वर्णन है वह (राजवातिक अ० १ सूत्र २०, व ० १३ वे पर से लिया गया है) चा० सा० पृ० ३० समितियो का कथन (रा० वा० अ०६ सू०५) चा० मा० पृ० ३२ से ३७ तक अष्ट शुद्धियों का वर्णन (रा. वा० अ०६ सू०६ वा. १६) चा० मा० पृ० ३७ ३८ चारित्रकथन (रा० वा० अ० ६ सू० १८) चा० सा० पृ० ३६ वाक् मन का कथन (रा० वा० अ० ५ सू० १६ बा० १५ तथा २०) 'चा. सा० पृ. ३६ सरभ-समारभआरम्भ-कृत कारितानुमत के लक्षण (रा० वा० अ० ६ सू० ८) चा० सा० पृ० ४० से ४३ तक पच पापो के लक्षण और उनकी भावनायें (रा. वा० अ०७ मे इस विषय के सूत्र देखो। इसी अध्याय के ६वें सूत्र में जो पच पापो का विशेष कथन है उसे ही चारित्रसार में प्रत्येक पाप के वर्णन मे छाँट लिया है) चा० सा० पृ० ४४ (रा० वा० अ०७ सूत्र १० की व्याख्या) चा० सा० पृष्ठ ४५ से ४७ तक का कथन (रा० वा० अ०६ सू० ४६-४७) चा० सा० पृ० ४८ से ५७ तक बाईस परीषहो का वर्णन (रा० का० अ०६ सूत्र ८ से १७ तक) चा० सा० पृ० ५६ से ६३ तक Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ co [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ तपोवर्णन (रा० वा० अ०६ सूत्र १६-२०-२२, किस दोप में कैसा प्रायश्चित लेना यह रा. वा० अ०६ सूत्र २२ वा० १० में समूचा बता दिया है। इसे ही चारित्रसार मे हरण के प्रायश्चित के वर्णन में उधृत कर लिया है) चा० सा० पृ० ६४ की अन्तिम कुछ पक्तियाँ (रा० वा० अ०६ सू० २२ वा० १० का अन्तिम अश) चा० सा० पृ० ६५ से ६८ तक (रा. वा० अ० ६सू० २३ से २६ तक) चा० सा० पृ०७६ (रा० वा० अ०६ सू. ४४) चा० सा० पृष्ठ ७८ से ८६ तक द्वादश भावनाओ का वर्णन (रा. वा० अ०६पूत्र ७ से लिया गया है। यहाँ चारित्रमार पृष्ठ ८० का "तत्र यावंतो लोकाकाशप्रदेशा."...... " से लेकर "व्यवहारकालेषु मुख्य" तक का पाठ रा० वा० अ०५ सूत्र २२ वा० २५-२६ से लिया है) चा० सा० पृष्ठ ६३ से १०१ तक ऋद्धियो का वर्णन* (रा० वा० अ० ३ सूत्र ३६) वा० मा० पृष्ठ १०२ से १०३ तक त्याग आकिंचन्य ब्रह्मचर्य का स्वरूप (रा० वा० अ०६ सूत्र ६ वा०२१-२२-२८ सम्भव है चारित्रसार मे इस तरह के और भी उदरण हो। जितने हमारी नजरो से गुजरे वे यहां हमने लिखे हैं। पाठक देखेंगे कि चारित्रसार मे राजवार्तिक से कितना मसाला लिया गया है। चारित्रसार के कुल १०३ पृष्ठ हैं। जिनमे से करीब २५ पृष्ठ छोडकर बाकी सारा ग्रन्थ राज . . छापे की भूल से यहाँ दो एक स्थान में पक्तिया उलट पलट हो गयी हैं, जिससे वर्णन का सिलसिला टूट गया है। खेद है कि इस भूल की सूचना ग्रन्य भर मे कही नहीं दी है। ऐसी ही गडबड पृष्ठ ३३ मे भी हुई है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चामुण्डराय का चारित्रसार । [ १०१ यातिक से चचित है। एक तरह से इसे राजवाहिक का चारित्र भाग कहना चाहिए। __ यहां यह कह देना भी अनुचित न होगा कि मुद्रित राजवार्तिक मे अशुद्धियो की भरमार है। यही क्या अन्य अनेक जैनग्रन्थो का प्रायः यही हाल है। खासकर सैद्धातिक ग्रन्थो की छपाई मे तो पूर्ण ध्यान इस बात का अवश्य रहना चाहिए कि कही कोई अशुद्धि न रहले पाये। किन्तु क्या कहा जाय. जेनग्रन्थ-प्रकाशको का अजब हाल है। उनकी कार्यप्रणाली इस सम्बन्ध मे बडी ही अव्यवस्थित है जो महान खेदजनक है। चारित्रमार से राजवातिक की कई अशुद्धियाँ दूर की जा सकती हैं। चारित्रसार भी अशुद्धियो से खाली नहीं है। इसकी अशुद्धियाँ भी राजवातिक से दुरुस्त हो सकती हैं । क्योकि दोनो में अशुद्धियाँ एक स्थानीय नहीं हैं। अस्तु, कुछ लोग शायद यहाँ यह कहने का भी दु साहस करें कि "अकलकदेव ने ही चारित्रसार मे मसाला लेकर राजवातिक मे रक्खा हो" ऐसा कहने वालो को यह समझ रखनी चाहिए कि अकलकदेव चामु डराय से लगभग दो सौ वर्ष पहिले हुए हैं। तब उन्होने चामु डराय की कृति मे से कुछ लिया हो यह कैसे सम्भव हो सकता है । इसके अलावा जिनसेन ने आदि पुराण मे अकलकदेव का स्मरण किया है । और चामुडराय ने अपने चारित्रसार पृष्ठ १५ मे "तथा चोक्त महापुराणे" कहकर आदिपुराण का एक पद्य उद्धृत किया है। इससे भी चामुडराय अकलकदेव के उत्तरवती सिद्ध होते है। बल्कि Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ चामु डराय ने ही खुद चारित्रसार के अन्तु मे एक पद्य देकर इस विषय को खूब स्पष्ट कर दिया है । चामुंडराय लिखते हैं कि 'तत्वार्थराजवार्तिक, राद्धातसूत्र, महापुराण और आचार ग्रन्थो मे जो विस्तार से कथन है उसी को सजेप मे इस चारित्रसार मे मैंने कहा है ।" वह पद्य यह है तत्वार्थराद्धांत महापुराणेष्वाचारशास्त्रषु च विस्तरोक्तम् । आख्यात्समामानुयोगवेदी चारित्रसारं रणरगसिंह ॥ इस पद्य में प्रयुक्त तत्वार्थ" शब्द को अर्थ " तत्वार्थराज - वार्तिक करना चाहिए | तत्वार्थ के साथ राद्धात नही लगाना चाहिये । राद्धात. नामका अलग ग्रन्थ है । उसका उक्त च चारित्रसार पृष्ठ ७१ मे "आदाहीण पदाहीण.. " आदि प्राकृत गद्य दिया है । आचारशास्त्र यहाँ मूलाचारादि समझना चाहिए | चारित्रसार मे मूलाचार की भी गाथाये उक्त च रूप से पाई जाती हैं । L 3 इससे यह साफ सिद्ध हो जाता है कि चामुण्डराय न केवल अकलकदेव के बाद के ही है किन्तु महापुराणकार जिनसेन और गुणभद्र के भी बाद के है । यही समय नेमिचद्राचार्य का है । क्योकि चामुण्डराय और नेमिचन्द्र की समकालीनता निर्विवाद है । अत इतिहामज्ञो ने जो दूसरे प्रमाणो से उनका समय ११ वी शताब्दी प्रकट किया है वह बिल्कुल ठीक जान पडता है ।' और अब तो उसमे कोई सन्देह ही नही है । " - इस लेख मे जिस चारित्रसार के पृष्ठो का उल्लेख किया है वह 'माणिकचन्द्र ग्रन्थ माला' द्वारा प्रकाशित समझना चाहिए । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चामुण्डराय का चारित्रसार ] स० नोट - कटारिया जी का यह लेख विचारणीय है । इस "चारित्रसार" के संग्रह ग्रथ सिद्ध होने पर भी मैं समझना है कि पाठको की दृष्टि में विद्वद्वरेण्य चामुण्डराय जी का पाण्डित्य खटक नहीं सकता। क्योंकि इनके द्वारा रचित आजतक के उपलब्ध कन्नड. गद्य ग्रन्थो मे सर्वप्रथम 'आदिपुराण" ही इनकी विद्वत्ता का ज्वलन्त दृष्टान्त है। इसके अतिरिक्त यह भी निविवाद सिद्धान्त है -एव विज्ञ कटारियो जो भी सर्वर्था सहमन होगे कि हमारे यह कामुण्डराय जी सस्कृत के भी अच्छे ज्ञाता थे । इस चरित्रसार मे जिस प्रकार इन्होने राजवातिकादि ग्रन्थों से प्रचुर सहायता लेकर उसका उल्लेख नही किया है उसी प्रकार अपने कन्नड आ िपुराण में भी बीच बीच मे प्रस्तुत विषय को प्रमाणिता करने के लिए चामुण्डराय ने भिन्न भिन्न अन्धो के कई सस्कृत प्राकृत पद्यो को उद्धृत किया है। पर वहां भी उनका उल्लेख नही करने से कुछ विद्धानों ने उन पद्यो को इन्ही की रचमा समझ रक्खा था । इसो भ्रम को दूर करने के लिए मैने विवेकाभ्युदय" (मर्मसूर) के एक लेख में सप्रमाण सिद्ध कर दिया है कि ये पर्छ अमुक अमुक ग्रंथ के हैं।" , के बी० शास्त्री Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - राजा श्रेणिक या बिम्बसार का आयुष्य काल जैन शास्त्रो मे गजा श्रेणिक की आयु के विषय में कहीं कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता है कि उनकी कितनी आयु, थी। तथापि उनके कथा प्रसगो से उनकी आयु का पता लगाया जा सकता है। इस लेख में हम इसी पर चर्चा करते हैं - उत्तरपुराण के ७४ वै पर्व में राजा श्रेणिक का चरित्र निम्न प्रकार बताया है - ' "राजा कुणिक की श्रीमती राणी से श्रेणिक नाम का पुत्र हुआ। राजा के और भी बहुत से पुत्र थे। राजा ने एक दिन सोचा कि इन सब पुत्रो मे राज्य का अधिकारी कौन पुत्र होगा? निमित्तज्ञानी के बताये निमित्तो से राजा को निश्चय हुआ कि एक श्रेणिक पुत्र ही मेरे राज्य का उत्तराधिकारी बनेगा। तव राजा ने दायादो से श्रेणिक की रक्षा करने के लिए श्रेणिक पर बनावटी क्रोध करके उसे नगर से निकाल दिया। वहां से निकलकर श्रेणिक दूर देश में जाने की इच्छा से चलता हुआ नन्दिग्राम मे पहुचा। किन्तु नन्दिग्राम के निवासियो ने राजाज्ञा के भय से राजकुमार श्रेणिक को कोई आश्रय नहीं दिया। इससे नाराज हो श्रेणिक आगे बढा। रास्ते मे उसे एक ब्राह्मण का साथ हुआ । उससे प्रेमपूर्वक अनेक बातें करता हुआ श्रेणिक उस ब्राह्मण के Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा श्रेणिक या बिम्बसार का आयुष्य काल ] [ १०५ मकान पर जा पहुचा। श्रेणिक की वाक्चातुरी, यौवन आदि गुणो पर मुग्ध होकर उस ब्राह्मण ने उसके साथ अपनी युवा पुत्री का विवाह कर दिया । श्रेणिक अब यही रहने लगा । यहीं पर श्रेणिक के उस ब्राह्मण कन्या से एक अभयकुमार नाम का पुत्र हुआ। एक दिन श्रेणिक के पिता कुणिक को अपना राज्य छोडने की इच्छा हुई । कुणिक ने ब्राह्मण के ग्राम से श्रेणिक को बुलाकर उसे अपना सब राज्य सम्भला दिया । अब श्रेणिक राज्य करने लगा । पीछे मे अभयकुमार और उसकी माता भी राजा श्रेणिक से आ मिले । ( श्लोक ४१५ से ४३० ) उत्तरापुराण पर्व ७५ मे लिखा है कि . - 1 सिंधुदेश की वैशाली नगरी के राजा चेटक के १० पुत्र और ७ पुत्रियाँ थी प्रियकारिणी, मृगावती, सुप्रभा, प्रभावती, चेलना, ज्येष्ठा, चन्दना ये उन पुत्रियो के नाम थे । ये सब - वय में उत्तरोत्तर छोटी छोटी थी । इनमे सबसे बडी पुत्री प्रियकारिणी थी जो गजा सिद्धार्थ को ब्याही गई थी जिससे भगवान् महावीर का जन्म हुआ था । और सबसे छोटी पुत्री चन्दना थी जो बालब्रह्मचारिणी ही रह कर महावीर स्वामी की सभा मे आयिकाओ में प्रधान गणिनी हुई थी । तथा गधार देश के महीपुर के राजा' सत्यकी ने उत्तर पुराण पर्व ५७ श्लोक में 'सत्यको' पद है जिससे नाम 'सत्यक' प्रकट होता है किन्तु इसी के आधार पर बने पुष्पवत्त कृत अपनश महापुराण में इसी स्थल पर (भाग ३ पृ० २४३ में ) ( सवई' पद है जिससे नाम सत्यकि' प्रकट होता है इसके सिवा उत्तर 1 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ पुराण ही मे सगं ७६. श्लोक ४७४ मैं "सत्यकि-पुषक" पद देते हुए मत्यकि नाम सूचित किया है अत. पर्व ७५ श्लोक १३ मे सत्यको को जगह मत्यकि सत्यकी शुद्ध पाठ होना चाहिए। इससे छन्दों भंग भी नही होता है। - - - - - 1 - हरिव शपुराण, तिलोय; पण्णत्ती, तिलोयेसार, हरिपेण कथाकोश विचारसार प्रकरण (प्रवे .) , सभी मे ११ रुद्र का नाम सच्चाइ मु. (मत्य कि सुत) देते हुए इस राजा का नाम सत्य कि- ही प्रकट किया है। इसी राजा का मुंनि अवस्था मे उत्पन्न प्रत्र ११ वा रुद्र है। अन्न. हमने 'मत्य कि' ही नाम सब जगह दिया है। हरिषेण कथा कोष मे सत्यक के माथ कही कही सात्यकि नाम भी दिया है। व० नेमिदत्त कृत आगधना 'कथाकोष मे ता सात्यको ही दिया है। प्राकृत के 'सच्चई' पद का सात्यकि और सत्यचि दोनों बन जाता है। तथा 'कि' भी ह्रस्व और दीर्घ दोनो रूपो में हो जाती है। ज्येष्ठा पुत्री की याचना उसके पिता राजा चेटक से की थी। परन्तु चेटक ने उसे नही दी जिससे द्ध हो सत्यकि ने चेटक से सग्राम किया। सग्राम मे सत्यकि हार गयौं । अत लज्जित हो वह दमधर मुंनि से' दोक्षा ले मुनि हो गया। इसी तरह चलना पुत्री को भी राजा श्रेणिक ने मांगी थी परन्तु उस समय श्रेणिक की उम्र ढल चुकी थी जिससे चेटक ने उसे देने से इन्कार कर दिया था। फिर अभयकुमार के प्रयत्न से छिपे तौर पर चेलना के साथ श्रेणिक' का विवाह हुआ था उस प्रयत्न में ज्येष्ठा का विवाह सम्बन्ध भी श्रेणिक के साथ होने वाला था किन्तु चेलना की चालाकी से वैसा न हो Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजा श्रेणिक या विम्बसार का आयुष्य काल ] [ १०७ सका। इमी एक कारण से विरक्त हो ज्येष्ठा ने अपनी मामी मशस्वती आर्यिका से दीक्षा ले ली थी और वह आर्यिका हो गई थी। (श्लोक ३ से ३४ तक) . ___ उत्तरपुराण पर्व ७६ श्लोक ३१ आदि मे लिखा है किश्रेणिक ने महावीर के समवशरण, मे जा वहाँ गौतमगणधर से पूछा कि-"अन्तिम केवली कौन होगा ?" इस पर गौतम ने कहा कि वह यहाँ समवशरण मे आया हुआ विद्युन्माली देव है जो आज से 3 दिन बाद जम्बू नाम का सेठ पुत्र होगा। जिस समय महावीर मोक्ष पधारेंगे उस समय मुझे केवलज्ञान होगा और मैं मुधम गंगधर के साथ विचरता हुआ इसी विपुलाचल पर आऊंगा। उस वक्त इस नगर का राजा, चेलना का पुत्र कुणिक परिवार के साथ- मेगी. वदना को आवेगा। तभी जम्बूकुमार भी मेरे पास. आ दीक्षा लेने को उत्सुक होवेगा। उस वक 7 उसके भाई वन्धु उसे यह कह कर रोक देगे कि-योडे हो वर्षों में हम लोग भी तुम्हारे ही साथ दीक्षा धारण करेगे। वन्धु लोगो के इस कथन को वह टाल नही सकेगा और वह उस समय नगर मे वापिस चला जावेगा। तदनतर परिवार के लोग उसे मोह में फर्साने के लिए चार सेठो की चार पुत्रियों के साथ उसका विवाह रचे देंगे। इतने पर भी जम्बूकुमारं भोगानुरागी न हो कर उल्टे दीक्षा लेने को उद्यमी होगा। यह देख उसके भाई बन्धु और कुणिक राजा (श्लोक २१३) उसको दीक्षोत्सव मनायेंगे। Hamr} २ . __ _ उत्तर पुराण के अनुसार श्रेणिक के पिता का नाम भी कुणिर्क है और पुत्र का नाम भी कुणिक हैं।' ' 4. ५ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ उस वक्त मुझे विपुलाचल पर विराजमान जानकर वह जम्बू उत्सव के साथ मेरे पास आ मेरी भक्ति पूर्वक वदना कर सुधर्मगणधर के समीप संयम धारण करेगा। मेरे केवलज्ञान के १२ वें वर्ष जब मुझे निर्वाण प्राप्त होगा तब सुधर्माचार्य केवली और जम्बूस्वामी श्रुतकेवली होंगे। उसके बाद फिर १२ वें वर्ष मे जब सुधर्म केवली मोक्ष जायेगे तब जम्बूस्वामी को केवल ज्ञान होगा । फिर वे जम्बू केवली अपने भव नाम के शिष्य के साथ ४० वर्ष तक विहार कर मोक्ष पधारेंगे। उत्तर पुगण पर्व ७४ श्लोक ३३१ आदि मे लिखा है कि . एक दिन उज्जयिनी के स्मशान मे महावीर स्वामी प्रतिमायोग से विराजमान थे। उनको ध्यान से विचलित करने के लिए रुद्र ने उन पर उपसर्ग किया। परन्तु वह भगवान को ध्यान से डिगाने में समर्थ न हो सका। तब रुद्र ने भगवान का2 महतिमहावीर नाम रखकर उनकी बड़ी स्तुति की और फिर नृत्य किया । 2 भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित उत्तर पुराण पृ० ४६५-६६ मे महति और महावीर ऐसे २ नाम अनुवादक जी ने दिए हैं किन्तु मूल मे एक वचनांत पद होने से 'महतिमहावीर' यह एक ही नाम सिद्ध होता है देखो पर्व ७४ 'समहतिमहावीराख्यो कृत्वा विविधा स्तुती' ||१३६॥ इमी के आधार पर आशाधर ने भी त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्र में सर्ग २४ श्लोक ३४ मे 'महतिमहावीर' यह एक नाम सूचित किया है । इसी तरह स्वकृत सहस्त्रनाम के श्लोक १ में भी 'महति महावीर' यह एक नाम देते हुए उसका Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाणिक या विम्बमार का आयुष्य काल ] [ १०६ अपं इस प्रकार किया। -मस्य मनमा हतिदनन महति । महतो महावीर.- महति महावीर । (पापो के नाम करने में शूरवीर) पाक्षिनादि प्रतिक्रमण (क्रियाकलार पृ. ७३) में महटि-महावीरेण पदमाणेग महाकस्सयेण" पाठ आता है इसमे भी 'महति महावीर' यह एक नाम ही सूचित किया है। महदि प्राकृत पा सस्कृत मे माति और महाति दोनों रूप पनते हैं अत कवि अशग ने अपने महावीर चरित में 'महातिमहावीर' यह एक नाम दिया है जिसका अयं होता है महान् से भी अत्यन्त महान् वीर । स्व० ५० वचन्द जी सा० ने इसके हिन्दी अनुवाद में अतिवीर और महावीर ऐसे दो नाम बताये हैं जो मूल से विरुद्ध हैं मूल में तो एक धनांत प्रयोग किया है देखो स महाति महादिरेष वीर प्रमदादित्यभिधाष्य. पत्ततस्य ॥ १२६ ॥ पर्व १७ । अत अशग के अनुसार भी 'महातिमहावीर ' यह एक नाम ही सिद्ध होता है। धनजय नाम माला के श्लोक ११५ में लिखा है-सन्मति मंहति वीरो महावीरोऽ म्त्यकाश्यप ॥ यहाँ महति' 'वीर' महावीर ऐसे अलग अलग नाम बताये हैं यह कवि की प्रतिमा है अमरकीति ने इसके भाग्य में 'महति' नाम का अर्थ इस प्रकार किया है - महती-पूजा यस्य स महति । किन्तु उत्तरपुराण आदि मे 'महति महावीर' यह एक नाम ही दिया है। दो नाम इसलिए भी नही हो सकते कि - उत्तर पुराण पर्व ७४ श्लोक २६५ मे 'महावीर' यह नाम सपंवेपी संगमदेव ने पहिले ही रख दिया था, देखो-स्तुत्वा भवान्महावीर इति नाम चकार स । * सकल कीतिकृत महावीर चरित मे भी 'महति महावीर' यह एक ही नाम ठीक उत्तरपुराणानुसार दिया है स्वय स्खलपितु चेत समाधेरसमर्थक । स, महति महावीराख्या कृत्वा विविधी स्तुति ।। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] ★ जैन निवन्ध रत्नावली- भाग २ ऊपर हम लिख आये हैं कि - राजा चेटक की पुत्री ज्येष्ठा कुवारी ही आर्यिका हो गयी थी और राजा सत्यकि जो ज्येष्ठा को चाहता था वह भी मुनि हो गया था। उत्तरपुराण मे इनका इतना ही कथन किया है । किन्तु अन्य जैन कथा ग्रन्थो मे इनका आगे का हाल भी लिखा मिलता है । हरिपेण कथा कोश की कथा न०६७ मे लिखा है कि T एक वार ज्येष्ठा आदि कितनी ही आर्यिकाये आतापन योग मे स्थित उक्त सत्यकि मुनिकी वदनार्थ गई थी । वहाँ से लौट कर पहाड पर से उतरते समय अकस्मातु जन 'वर्षा होने लगी जिससे आर्यिकायें तितरबितर हो गईं। उस वक्त ज्येष्ठा एक गुफा मे प्रवेश कर अपने भीगे कपडे उतारकर निचोड़ने लगी । उसी समय वे सत्यंकि मुनि भी अपना आतापन योग समाप्त कर उसी गुफा मे आ घुसे। वहाँ ज्येष्ठा को खुले अंग देख 'एकात पा मुनि के दिल मे काम 'विकार 'हो उठा। दोनों का सयोग हुआ । ज्येष्ठा के गर्भ रहा । सत्यकि तो इस कुकृत्य का गुरु से प्रायश्वित ले पुन. मुनि हो गये । किन्तु ज्येष्ठा ' सगर्भा थी उसने अपनी गुर्वाणी 'यशस्वती के पास जा 'अपना सव' हाल यथार्थ सुना दिया । गुर्वाणों ने उसे रानी चेलना के यहाँ पहुचा दिया । चेलना [ 1 4 व्र० नेमिदत्तकृत आराधना कथा कोण मे, इस जगह आर्यिकाओ का भगवान महावीर की वदनार्थ जाना लिखा है । वह ठीक नही है । क्योकि इसे दंपत तक तो अभी महावीर ने दीक्षा ही नही ली है । तब उनकी वन्दना की कहना असंगत है । जैसा कि हम आगे बतायेगे । " 1 11 112 । T Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा श्रेणिक या विम्बसार का थायुष्य काल ] [ १39 ने शरण देकर ज्येष्ठा को गुप्त रूप से अपने पास रक्खा । वही उसके पुत्र पैदा हुआ। पुत्र जन्म के बाद ज्येष्ठा न अपनी गुर्वागी से प्रायश्चित लेकर पुन आर्यिका की दीक्षा ग्रहण कर ली । I 1 i ज्येष्ठा के जो पुत्र हुआ था उसका लालन पालन भी चलना ने ही किया । वह पुत्र बडा उद्दण्ड निकला। एक दिन 'उसकी उद्दण्डता से हैरान होकर चलना के मुख से निकल पड़ा कि "दुष्ट जार जात यहाँ से चला जा' यह सुन उसने अपनी उत्पत्ति चेलना से जॉननी चाही । चेंगना ने सब वृत्तान्त उम को यथावत् 'सुना दिया । सुन कर वह अपने पिता सत्यकिं मुनि के पास जा दीक्षा ले मुनि हो गया । वह नवदीक्षित मुनि ग्यारह अग 'दशपूर्वो का पाठी हो गया और 'रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्याओं 'व सात सौं क्षुद्र विद्याओं को भी 'उसे प्राप्ति हो गई । वह विद्या के प्रताप से सिंह का रूप बनाकर उन लोगो को डराने लगा जो लोग सत्यकि मुनि की वन्दनार्थं अति जाते थे। उसकी ऐसी चेष्टा जानकर मत्यकि मुनि ने उसे फटकारा और कहा कि तू स्त्री के निमित्त से एक दिन भ्रष्ट होवेगा । गुरु वाक्य सुनकर सत्यकिं पुत्र ने निश्चय किया कि में ऐसी जगह जाकर तप करू ' जहां स्त्री मात्र का दर्शन भी न हो सके तब मैं कैसे भ्रष्ट होऊंगा ? ऐसा सोचकर 'वह कली पर्वत पर जा पहुंची और वहाँ आतापन योग में स्थित हो गया। वहाँ एक विद्याधर की आठ कन्यायें स्नान करने को आईं। उनकी अनुपम सुन्दरता को देखकर वह उन पर मोहित हो गया । ज्यो हो वे कन्यायें अपने वस्त्राभूषण उतार वापिका के जल से स्नान करने को उसी तब ही उसने t ↓ 4 "P Y Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] [ ★ जंन निबन्ध रत्नावली भाग २ अपनी विद्या के द्वारा उनके वस्त्राभूषणो को मगा लिया। वापिका से निकल कर उन कन्याओ को जब तट पर अपने २ वस्त्राभूषण नहीं मिले तो उ होनें उन मुनि से पूछताछ की। मुनि ने उनसे कहा तुम सब मेरी भार्या बनो तो तुम्हारे वस्त्रादि तुम्हे मिल सकते है । उत्तर मे उन कन्याओ ने कहा कि यह बात तो हमारे माता पिता के आधीन है। वे अगर हमे आपको देना चाहे तो हमारी कोई इकारी नही है । उसने कहा अच्छा तो तुम सब अपने माता पिता को पूछ लो यह कह उसने उनके वस्त्राभूषण दे दिए। उन कन्याओ ने घर पर जा यह बात अपने माता पिता देवदारु को वही । देवदारु ने एक वृद्ध कचुकी को भेजकर सत्यकि पुत्र से कहलवाया कि मेरा भाई विद्युज्जिह्व मुझे राज्य से निकाल आप राजा बन वंठा है । अगर आप उससे मेरा राज्य दिला सको तो मैं ये सब कन्यायें आपको दे सकता है । सत्यकि पुत्र ने ऐसा करना स्वीकार किया और अपनी विद्याओ के बल से उसके भाई विद्युज्जिह्व को मारकर देवदारु को राजा बना दिया । तब देवदारु ने भी अपनी आठो कन्याओ की शादी सात्यकि के साथ कर दो । किन्तु वे सब कन्या ये रतिकर्म के समय उसके शुक्र के तेज को न सह सकने के कारण एक एक करके मर गईं। इसी तरह अन्य भी एक सौ विद्याधर कन्याये मरण को प्राप्त हुईं। आखिर मे एक विद्याधर कन्या ऐसी निकली जो इस काम मे उसका साथ दे सकी । उसके साथ उसने नाना प्रकार के भोग भोगे । फिर इसी सत्यकी पुत्र ( ११ वे रुद्र) ने I आकर भगवान महावीर पर उपसर्ग किया था। t 1 इस ११ वें रुद्र का असली नाम क्या था यह किसी ग्रन्थकार Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा थेणिक या विम्बसार का आयुप्य काल ] [ ११३ ने सूचित नहीं किया है किन्तु कवि अशग ने महावीर चरित सर्ग १७ श्लोक १२५-१२६ मे भव नाम दिया है। हरिपेण कथाकोश की कथा न० ६७ मे तथा श्रीघर के अपभ्रंश वर्द्धमाने चरित आदि मे भी भव दिया है लेकिन यह नाम नही है द को पर्यायवाची शब्द है देखो धनजय नाममाला श्लोक ७० अथवा अमरकोप । यह कथा श्रुतसागर ने मोक्ष पाहुड गाथा ४६ की टीका मे भी 'इसी तरह लिखी है । ब्र० नेमिदत्त ने भी आराधना कथा कोश मे लिखी है। इस प्रकार उत्तरपुराण की कथाओ के ये उद्धरण ऐसे है जिनसे हम राजा श्रेणिक की आयु का अदाजा लगा सकते है। श्रेणिक को देश निकाला होने पर उसने जो देशातर मे एक ब्राह्मण कन्या से विवाह किया था और उससे अभयकुमार पुत्र हुआ था उस समय श्रेणिक की उम्र कम से कम १८ वर्ष की तो होगी ही। आगे चल कर इसी अभयकुमार के प्रयत्न से श्रेणिक का चेलना के साथ विवाह हुआ है ऐसा कथा मे कहा है । तो चेलना के विवाह के वक्त अभयकुमार की आयु भी १८ वर्ष से तो क्या कम होगी ? इसी प्रकार यहाँ तक यानी चेलना के विवाह के वक्त तक श्रेणिक की उम्र करीब ३६ वर्ष की सिद्ध होती है। उसी से कथा मे लिखा है कि श्रेणिक की आयु ढल जाने के कारण ही राजा चेटक अपनी पुत्री चेलना को श्रेणिक को देना नहीं चाहता था । अब आगे चलिये- चेलना की बहिन ज्येष्ठा को श्रेणिक की प्राप्ति न हुई तो वह दीक्षा ले आयिका हो गई । इसी आर्यिका के सत्यकी मुनि के सयोग से सत्यकि पुत्र (रुद्र) उत्पन्न हुआ है । बेलना की विवाह के बाद सत्यको Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ पुत्र की उत्पत्ति होने तक कम से कम एक वर्ष का काल भी मान लिया जावे तो यहाँ तक श्रेणिक की उम्र ३७ वर्ष की होती है शास्त्रो मे रुद्रो के ३ काल माने है-कुमारकाल सयमकाल और असयमकाल । हरिवश पुराण सर्ग ६० में लिखा है कि वर्षाणि सप्त कोमार्ये विशति सयमेष्टमि. । एकादशस्य रुद्रस्य चतुस्त्रिशदसयमे ॥५४५।। अर्थ-११ वे रुद्र का कुमारकाल ७ वर्प, मयभकाल २८ वर्ष और अमयमकाल ३४ वर्ष का था। यह विपय त्रिलोकप्रज्ञप्ति मे भी आया है। उसके चौथे अधिकार की गाथा न० १४६७ इस प्रकार है - सगवासं कोमारो संजमकालो हवेदि चोत्तीस । अडवीसं भंगकालो एयारसयस्य रुद्दरस ॥१४६७'। इसमे ११ वे रुद्र का सयमकाल ३४ वर्ष का और असयमकाल २८ वर्ष का बताया है। यह गाथा अशुद्ध मालम पडती है । इसलिये इसका कथन हरिवणपुराण से नहीं मिलता है । इस गाथा में प्रयुक्त 'चोत्तीस' के स्थान मे 'अडवीस' और 'अडवीस' के स्थान मे 'चोत्तीस' पाठ होना चाहिये । जान पडता है किसी प्रतिलिपिकार ने प्रमाद से उलट पलट लिख दिया है। अब प्रकृत विषय पर आइये-रुद्र ने महावीर पर उपसर्ग किया तो वह ऐसा काम सयमकाल मे तो कर नही सकता है । रुद्र की सयमकाल की अवधि उसकी ३५ वर्ष की उम्र तक मानी गई है जैसा कि ऊपर लिखा गया है इन ३५ वर्षों को श्रेणिक की उक्त ३७ वर्ष की उम्र मे जोडने पर यहाँ तक श्रेणिक की उन्न Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा श्रेणिक या बिम्बसार का आयुष्य काल ] [ ११५ ७२ वर्ष की हो जाती है। फिर सयमकाल की समाप्ति के बाद सत्यकि पुत्र का कैलाश पर पहुँच कर वहाँ विद्याधर कन्याओ को ब्याहने और एक-एक करके उन कन्याओ के मरने पर अत मे विशिष्ट विद्याधर कन्या के साथ रमण करते हुए भगवान महावीर तक पहुँच कर उन पर उपसर्ग करने मे भी ज्यादा नही एक वर्ष भी गिन ले और महावीर को उनकी उम्र के ४२ वें वर्ष मे केवलज्ञान हुआ उसी वर्ष मे ही यह उपसर्ग भी मान ले तो इसका यह अर्थ हुआ कि महावीर को जब केवल ज्ञान पैदा हुआ तव राजा श्रेणिक की उमर लगभग ७३ वर्ष की थी। अर्थात् महावीर से श्रेणिक ३१ वर्ष बडे थे । इस हिसाब से जब श्रेणिक ने चेलना से विवाह किया तब श्रेणिक ३६ वर्ष के थे और महावीर ५ वर्ष के थे । इतिहास मे महावीर और गौतम बुद्ध को समकालीन माना जाता है । अत. उस वक्त गौतम बुद्ध भी बालक ही माने जायेंगे ऐसी हालत मे उस वक्त हम श्रेणिक को बौद्धमती भी नहीं कह सकते हैं । बौद्ध धर्म के चलाने वाले खुद गौतम ही जब उस वक्त बालक थे तो उस समय बौद्धधर्म कहा से आयेगा ? अगर हम इतिहास की गडबडी से बुद्ध और महावीर की वय मे १०-१५ वर्ष का अन्तर भी मान ले तब भी श्रेणिक के समय मे बौद्ध मत का सद्भाव नही था। इसीलिये हरिषेण कथाकोश मे श्रेणिक को भागवतमत (वैष्णवमत) का बताया है) वंह ठोक जान पडता है । तथा महावीर का निर्वाण उनकी ७२ वर्ष की वय मे हुआ माना जाता है अत महावीर से - ) पुण्याअवस्था कोश मे भी वैष्णव धर्मी ही बताया है। देखो पृष्ठ ४१.४३ अ नेमिदत्त के आराधना कथा कोथ मे भी वैष्णव (भागवत) धर्मी ही श्रेणिक को बताया है । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ ३१ वर्ष बडे होने के कारण श्रेणिक की उम्र वीर निर्वाग के बक्त १०३ वर्ष की माननी होगी। उम्र का यह टोटल यहाँ कम लगाया गया है, इससे अधिक भी सभव हो सकता है वीरनिर्वाण के वक्त श्रेणिक जीवित थे कि नही थे यह उत्तरपुराण से स्पष्ट नही होता है। किन्तु हरिवशपुराण मे वीरनिर्वाण के उत्सव मे श्रेणिक का शरीक होना लिखा है । और हरियण कथाकोण में कया न०:५५ मे श्रेणिक का अतकाल वीर निर्वाण से करीव ॥ वर्प वाद होना बताया है। यथा . - ततो निर्वाणमापन्ने महाबोरे जिनेश्वरे। . तित्रस्समाश्चतुर्थस्य कालस्य परिकोतिता ॥३०६॥ तथा मासाष्टकं ज्ञेय षोडशापि दिनानि च। “एतावति गते काले नूनं दुखमनामनि ॥३०७।। पूर्वोक्त. श्रेणिको राजा सोमत नरक ययौ ॥३०८।। अर्थ-महावीर के निर्वाण के बाद चतुर्थकाल के ३ वर्ष ८ मास १६ दिन व्यतीत होने पर दु खम नाम के पाचवे काल मे मनवाछित महाभोगो को भोग कर राजा श्रेणिक मर कर प्रथम नरक के सीमत विल मे गया । उक्त १०३ वर्ष मे वीर निर्वाण के बाद ये ३।।। वर्ष जोडने पर श्रेणिक की कुल आपु १०७ वर्ष करीव की बनती है। - 1 उत्तरपुराण मे चतुर्थकाल की समाप्ति मे ३ वर्ष ८॥ मास शेप रहने पर वीरनिर्वाण होना लिखा है । यहाँ ३ वर्ष ८ मास १६ दिन इसलिये लिखा है कि १६ वें दिन 'पचम काल का प्रारभ होता है और उसी दिन मे श्रेणिक की मृत्यु हुई है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा श्रेणिक या बिम्बसार का आयुष्य काल ] [ ११७ अब हम श्रेणिक की आयु के साथ जम्बूकुमार का संबंध वंताते है - और उत्तरपुराण की कथा मे लिखा है कि- गौतम केवली जब प्रथम बार विपुलाचल पर आये थे उस समय राजगृह का राजा कुणिक था। यानी राजा श्रेणिक उस समय नही थे वे मर चुके थे । अर्थात् वीर निर्वाण से ३ | | | वर्ष बाद जब श्रेणिक न रहे तब तक प्रथम बार गौतम केवली विपुलाचल आये थे । उस समय बाँधवो के अनुरोध से जम्बूस्वामी दीक्षा लेते २ रुक गये । पुन जब दुबारा गौतम केवली विपुलाचल पर आये तब उनके सान्निध्य मे सुधर्माचार्य के पास से जम्बूस्वामी ने दीक्षा ग्रहण की। इस दीक्षा को अगर हम अदाजन वीर निर्वाण सेयो कहिये गौतम के केवली होने से ६ वर्ष के बाद होना मान ले और दीक्षा के वक्त जम्बू कुमार की २० वर्ष की उम्र मानले तो कहना होगा कि वीरनिर्वाण के वक्त जम्बूकुमार १४ वर्ष के थे और जम्बू की १५ | | | वर्ष की उम्र के लगभग तक श्रेणिक जीवित रहे थे । इसलिये जम्बू का श्रेणिक की राज सभा में आना जाना व श्रेणिक द्वारा सन्मान पाना तो सगत हो सकता है । परन्तु कुछ जैन कथा ग्रन्थो मे लिखा है कि-' जम्बूकुमार की मदद से राजा श्रेणिक ने एक विद्याधर कन्या को विवाही थी" यह बात नही बन सकती है । क्योकि उस समय राजा राजा श्रेणिक उस वक्त अत्यत वृद्ध थे और कुणिक ने उन्हे वदी बनाकर रखा था अत राजा कुणिक को लिखा है इससे श्रेणिक की अविदय मानना सिद्ध नही होती वीरनिर्वाण से ३ ||| ( जब कि श्रेणिक जिन्दे थे ) गौतम विपुलाचल पर सभव है । वर्ष के अन्दर ही आये हो यह भी Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ । * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ श्रेणिक बहुत ही वृद्ध हो चले थे। जब जम्बू ११ वर्ष के थे तब श्रेणिक एक सौ वर्ष के थे। इसी तरह कुछ कथा ग्रन्थो मे जम्बू के दीक्षोत्सव मे श्रेणिक की उपस्थिति बताना भी गलत है। उत्तर पुराण के अनुसार दुबारा गौतम केवली विपुलाचल पर आये थे तब जम्बू ने दीक्षा ली थी किन्तु प्रथम बार जब गौतमकेवली विपुलाचल पर आये थे उस वक्त भी श्रेणिक मौजूद न थे उस वक्त भी कुणिक ही का राज्य था ऐसा उत्तर पुराण मे लिखा है तव जम्बू के दीक्षोत्सव में श्रेणिक को उपस्थित बताना अयुक्त है • जम्बू की दीक्षा के वक्त श्रेणिक की विद्यमानता का उल्लेख हरिवश पुराण और हरिषेण कथा कोष मे भी नहीं है । इम निबन्ध में ३ कथा ग्रन्थो का उपयोग किया गया हैउत्तर पुराण, हरिवंश पुगण और हरिषेण कथा कोश का। तीनो ही ग्रन्थ प्राचीन हैं। उत्तरपुराण का रचना काल वि० स०६१० के करीव । हरिवश पुराण का वि० स० ८४० और हरिषेण कथा कोष का त्रि० स०६८८ है। ॐ दुबारा आने का स्पष्ट कैथन नहीं है । प्रथमयार गौतम आये और कुछ दिन वही रहे तभी ही जेवू ने दुबारा आकर उनकी मौजूदगी मे दीक्षा ले ली। • वीरकवि कृत-'जवू चरिउ' की सधि १० कडधक १६ में जवू की दीक्षा के वक्त श्रेणिक को मौजूद बताया है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W चातुर्मास योग अनेकात वर्ष १ पृ० ३२४ पर एतद् विषयक मुख्तार सा का एक लेख देखो इस विषय मे प० आशाधरजी ने अनगारधर्मामृत अध्याय ६ में इस प्रकार लिखा है ततश्चतुर्दशीपूर्वरात्र सिद्धमुनिस्तुती । चतुर्दिक्षु परीत्यात्पाश्चत्यभक्ती रुस्तुतिम् ॥६६॥ शान्तिमक्ति च कुर्वाणैर्वर्षायोगस्तु गृह्यताम् । ऊर्जकृष्ण चतुर्दश्या पश्चाद्रात्रौ च मुच्यताम् ॥६७॥ अर्थ - उसके बाद अपोढ़ शुक्ला चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम पहर मे सिद्ध भक्ति और योग भक्ति करके चारो दिशाओ प्रदक्षिणा पूर्वक एक-एक दिशा मे लघुचैत्यभक्ति पढते हुए तथा पचगुरुभक्ति और शातिभक्ति पढी हुए वर्षायोग ग्रहण करे । और इस विधि से कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के चौथे पहर मे वर्षा योग को समाप्त करे । मास वासोऽन्यत्र योगक्षेत्र शुचौ व्रजेत् । मार्गेऽतीते त्यजेच्चार्थवशादपि न लघयेत् ॥ ६८ ॥ नभश्चतुर्थी तद्याने कृष्णा शुक्लोजपचमीम् ।' यावन्नगच्छेत्तच्छंदे कथचिच्छेदमाचरेत् ॥ ६६ ॥ युग्मम् Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ अर्थ-चतुर्मास के अलावा हेमतादि ऋतुओ मे मुनि लोग एक स्थान में एक मास तक ठहर सकते है। आषाढ मास मे श्रमण संघ वर्षायोग स्थान को चला जाये और मगमिर का महीना बीतते ही वर्षायोग स्थान को छोड़ दे। यदि आषाढ के महीने मे वर्षायोग स्थान मे न पहुच सके तो कारणवश भी श्रावणकृष्णा चतुर्थी का उल्लघन न करे । अर्थात् जहाँ चातुर्मास करना हो उस स्थान मे श्रावण कृष्णा चौथ तक अवश्य र पहुच जावे । तथा कार्तिक शुक्ला पचमी के पहिले प्रयोजनवश भी वर्षायोग स्थान को न छोड़े । वर्षायोग के ग्रहण विसर्जन का जो समय यहाँ बताया गया है उसका दुवार उपसर्गादि के कारण यदि उल्लघन करना पड़े तो उसका प्रायश्चित्त लेवे । योगांतेऽर्कोदये सिद्धनिर्वाणगुरुशान्तय ।। प्रणुत्या वीरनिर्वाणे कृत्यातो नित्यवदना ॥७॥ । अर्थ- कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के चौथे पहर में वर्षायोग का निष्ठापन किया जाता है। जैसा कि ऊपर लिखा है । यही समय भगवान महावीर के निर्वाण का आ जाता है। इसलिए वर्षायोग के निष्ठापन के मनन्तर सूर्योदय हो जाने पर वीर निर्वाण क्रिया करे । उसमें सिद्धभक्ति निर्वाणभक्ति गुरुभक्ति और शातिभक्ति करे। इसके बाद नित्यवदना करे। __ आशाधर के इस कथन से प्रकट होता है कि-वर्षायोग ममाप्ति का क्रिया विधान तो कार्तिक कृष्णा १४ की रात्रि के पिछले भाग मे ही कर लिया जाता है। परन्तु उसके अनन्तर ही उस स्थान को छोडकर अन्यत्र विहार नही किया जाता है। कम से कम कार्तिक शुक्ला ५ तक तो उसी स्थान मे रहना Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मास योग - ] [ १२१ आवश्यक बताया है । इससे पहिले तो मुनिजन कदाचित् भी वहां से विहार नही कर सकते हैं । और अधिक से अधिक मगसिर मास की समाप्ति तक भी उस स्थान को नहीं छोडने को कहा है। मूलाचार समयसाराधिकार गाथा १८ की टीका मे दश प्रकार के श्रमण कल्प का वर्णन करते हए मास नाम के ६ वें कल्प का कथन इस प्रकार किया है । - "मास. योगग्रहणात् प्राड मासमात्रमवस्थान कृत्वा वर्षाकाले योगो ग्राह्यस्तथा योग-समाप्य मासमात्रमवस्थान वर्तव्य । लोकस्थिति ज्ञापनार्थमहिंसादिव्रतपरिपालनार्थं च योगात्प्राड - मासमात्रमवस्थान, पश्चाच्च मासमात्रमवस्थान श्रावक लोकादिसक्लेशपरिहरणाय अथवा ऋती २ मासमासमात्र स्थातव्य मासमात्र च विहरण कर्तव्यमिति मास श्रमणकल्पोऽथवा वर्षाकाले योगग्रहण चतुर्बु चतुर्यु मासेषु नदीश्वरक रण च मास श्रमणकल्प ।" - अर्थ-जिस स्थान मे वर्षायोग ग्रहण करना है उस स्थान मे वर्षाकाल से एक मास पहले ही उपस्थित होकर वर्षायोग ग्रहण करना और वर्षायोग की समाप्ति हो जाने पर भी एक मास भर वही ठहरे रहना इसे मास कल्प कहते हैं । वहाँ के लोगो की परिस्थिति को जानने के लिए और अहिंसादि व्रतो की पालनाके लिए उस स्थान मे वर्षायोग से एक मास पूर्व ही चले जाते है । और श्रावक लोक आदिको को सक्लेश न होने देने के लिए वर्षायोग को समाप्ति के बाद भी एक मास तक वहाँ ठहरे रहते हैं । अयवा प्रत्येक ऋतु मे एक-एक मास तक एक जगह ठहरे रहना और एक-एक मास तक विहार करते रहना इसे भी माम नाम का श्रमणकल्प कहते हैं । अथवा वर्षाकाल मे Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ वर्षा योग ग्रहण करना और चार-चार महीने मे नदीश्वर करना यानी आष्टाह्निक पर्व के ८ दिन तक एक जगह ठहरे रहना यह भी मास श्रमणकल्प कहलाता है । भगवती आराधना गाथा ४२१ की मूलाराधना टीका में पं० आशाधर जी ने इस प्रकरण को विजोदया टीका से उद्धत करते हुए निम्न प्रकार लिखा है ? "प्रावृट्काले मासचतुष्टयमेकत्रावस्थान । स्थावरं जगमजीवाकुना हि तदा क्षितिरिति तदा भ्रमणे महान सयम ...." इति विशत्यधिक दिवसशतं एकत्रावस्थानमित्यय उत्सर्ग | कारणापेक्षया तु हीनमधिक बावस्थान । सयतानामाषाढ शुक्लदशम्या प्रभृति स्थितानामुपरिष्टाच्च कार्तिक पौर्णिमास्यास्त्रिशदिवसावस्थान । ... .. एकत्रेत्युत्कृष्ट काल. । मार्या दुर्भिक्षे ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमित्तं समुपस्थिते देशातर याति । अवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यति इति पौर्णमास्यामषाढड्यामतिक्राताया प्रतिपदादिषु दिनेषु यावच्चत्वारो दिवसा 1 एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य । एष दशम. स्थितिकल्पो व्याख्यातः टीकाया । टिप्पन के तु द्वाभ्या द्वाभ्या मासाभ्या निषद्यका द्रष्टव्येति ।" अर्थ - वर्षा काल में मुनियों को चार मास तक एक जगह रहना चाहिए । क्योकि उस समय पृथ्वी स्थावरत्रस जीवो से व्याप्त हो जाती है इससे उस समय विहार करने से महान 1 विजयोदया टोका मे इस स्थान पर ४ दिन की जगह २० दिन लिखे हैं । इसका कारण वहां पाठ की अशुद्धि मालूम पडती है । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मास योग । [ १२३ अमयम होता है। अत वर्षा काल मे एक सौ बीस दिन नक मुनियो का एक स्थान मे रहना यह उत्मर्ग मार्ग है । कारण अपेक्षा से यह अवस्थान १२० दिन से हीनाधिक भी होता है । आषाढ शुक्ला दशमी से लेकर कार्तिक की पूर्णमासी के बाद नीस दिन तक यानी मगसिर शक्ला १५ तक ( ५ मास ५ दिन ) मुनियो का एक स्थान मे रहना उत्कृष्ट काल कहलाता है । महामारी दुभिक्ष के होने पर जव लोग गांव देश को छोड भागने लगे अथवा मुनि संघ के नाश होने का कोई कारण आ उपस्थित हो तो ऐसी हालत में मुनिजन जहाँ वर्षायोग ग्रहण किया है उस स्थान को भी छोड वर्षाकाल मे अन्य स्थान मे जा सकते हैं। यदि न जावें तो उनके रत्नत्रय की विराधना होगी। यह स्थानातर आषाढ की पूर्णमासी से चार दिन बाद तक-श्रावण कृष्णा ४ तक किया जा सकता है । इस अपेक्षा से काल की हीनता समझनी । इस प्रकार टीका मे १० वाँ स्थिति कल्प का व्याख्यान किया है। टिप्पणमे तो दो-दो महीने मे निषद्यका का दर्शन करना दशवा स्थितिकल्प बताया है। यहाँ यह ध्यान मे रखने की बात है कि-शवे पज्जो नाम के स्थिति कल्प का जो स्वरूप टिप्पण मे बताया है । उमो से मिलता जुलता स्वरूप मूलाचार की टीका मे बताया है। वहा 'निषद्यका की उपासना करना" ऐसा स्वरूप पज्जो स्थिति कल्प का बताया है । जबकि भगवती आराधना की विजयोदया टोका मे वर्षायोग के धारण करने को पज्जो-स्थितिकल्प बताया है । इस तरह भगवती आराधना को टोका और मूलाचार को टोका मे इस विषय मे एक बडा कयन भेद पाया जाता है। नीचे हम इन सब कथनो का फलितार्थ बताते है - Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ (१) आषाढ शुक्ला १५ से कार्तिक शुक्ला १५ तक वर्षा काल माना जाना है । इन ४ मासीक मुनियो का एक स्थान मे रहना यह एक सामान्य नियम है । (२) मूलाचार मे लिखे माम कल्प के अनुसार वर्षा काल के प्रारम्भ से एक मास पूर्व और वर्षा काल की समाप्ति से १ मास बाद तक भी अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ला १५ से मगसिर शुक्ला १५ तक मास ६ तक भी मुनिजन लगातार एक स्थान पर रह सकते हैं । इतना समय शास्त्र रचना के लिए उपयुक्त हो सकता है (३) वर्षा योग की स्थापना का समय आषाढ शुक्ला १४ का है । भगवती आराधना की टोका के अनुसार उसके भी पहिले आषाढ शु० १० तक मुनियों को वर्षा योग ग्रहण करने के अर्थ अपन इष्ट स्थान पर पहुच जाना चाहिए । यदि किसी कारण वश उक्त समय तक न पहुँच सके तो भी श्रावण कृष्णा ४ का उल्लघन तो कदाचित् भी नहीं किया जा सकता है । उल्लवन करने पर प्रायश्चित्त लेना होगा । (४) अनगारधर्मामृत मे प० आशाधरजी ने वर्षा योग की समाप्ति की सिर्फ क्रिया विधि ( भक्ति पाठो का पढा जाना) कार्तिक कृ० १४ की रात्रि के पिछले भाग मे करना बताई है । उसके दूसरे ही दिन विहार करना नही बताया है । बल्के उसके 1 45 प्रत्येक पच वर्ष मे दो मास बढते हैं अत जिस वर्ष चातुर्मास मे अधिक मास हो उस वर्ष ७ मास तक भी एक स्थान पर स्थिति हो सकती है । -- रतनलाल कटारिया Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मास योग ] [ १२५ बाद भी वर्षा काल की समाप्ति तक यानी कार्तिक शु० १५ तक या मास कल्प के अनुसार मगसिर शु० १५ तक भी वही पर ठहरा जा सकता है, कारणवश इससे पहले भी विहार विया जा सकता है किंतु कार्तिक श्० ५ से पहिले तो कारणवश भी विहार नही हो सकता है । विहार करने पर प्रायश्चित लेना होगा । (५) महामारी आदि कारणों से यदि वर्षाकाल में स्थान छोडने की जरूरत आ पडे तो श्रावण कृ० ४ तक ही वे अन्यत्र जा सकते हैं। बाद में नही । बाद मे जाने पर प्रायश्चित लेना होगा । (६) चातुर्मास के अलावा हेमतादि दो-दो मास वी ऋतुओ मे प्रत्येक ऋतु मे १ मास तक मुनियो का एक स्थान पर ठहरे रहना और १ मास तक विचरते रहना ऐसा भी विधान 'मूलाधार में मास कल्प के स्वरूप कथन मे किया है । ८ (७) मुलाचार मे आष्टाह्निक पर्व के 5 दिन तक मुनियो को एक स्थान मे रहने के विधान का भी आभास मिलता है । (८) जो मुनिं श्रावण कृ० ४ के बाद वर्षायोग ग्रहण करते हैं और कार्तिक शु० ५ से पहिले ही वर्षायोग को समाप्त कर विहार कर जाते हैं । वे मुनि प्रायश्चित्त के योग्य माने गये है अर्थात् ऐसे मुनियों को इसका प्रायश्चित्त लेना चाहिए । · Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताध्ययन पर विचार - A क्षुधा आदि बाधाओ को भेटने के लिये जैसे पशुओ के आहार निद्रा भय मैथुन आदि कार्य होते हैं वैसे मनुष्योके भी होते है किंतु जिस ज्ञान को विशेषता मनुष्य समाज मे है वह पशुओमे नहीं है इसीसे मनुष्य श्रेष्ठ समझा जाता है। किसीने ठीक ही कहा है कि- ज्ञानेन हीना पशुभि समाना' जिस प्रकार खान से निकला हुआ रत्न सस्कारके योग से बहुमूल्यवान हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य भी ज्ञान सस्कारसे महान गिना जाता है । अथवा जसे बारबार अग्निसस्कारसे सुवर्ण दीप्तिवान हो जाता है उसी तरह बारबार ज्ञानाभ्याससे मनुप्य भी दीप्तिशाली माना जाता है । यह तो निश्चित है कि-माताके उदर से निकले बाद अगर मानव को शिक्षा ग्रहण से बिल्कुल ही रोक दिया जाए तो सचमुच वह पशुसे भी निकृष्ट हो सकता है। इसी विषयक नीतिका यह श्लोक कितना मर्मस्पर्शी है शुनः पुच्छमिव व्यर्थं जीवितं विद्यया विना॥ न गुह्यगोपने शक्तं न च दशनिवारणे ।। इसमे कहा है कि-विद्याविहीन जीवन कुत्ते को पू छकी भाति व्यर्थ है जो न तो गुह्यागको ढक सकती है और न मक्खियो को ही उडा सकती है . Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताध्ययन पर विचार ] ज्ञानकी इतकी अधिक महिमा होने के कारण ही शास्त्रकारीने स्वाध्यायको 'न स्वाध्यायात्पर तप' पदसे सभी तपो मे बढकर तप कहा है । मूलाचार मे कहा है कि बारसविधय तवे सम्भतरवाहिरे कुसल दिठे । णवि अत्थि णविय होहदि सझायसम तवो कम्मम् ६७० यही गाथा भगवती आराधना आश्वासर न० १०७ पर है । सूई जहा ससुत्ता ण णस्पदिहु प्रमाददोसेण । एवं ससुत्त पुरिसो ण णस्सदि तह पमाददोसेण ॥७१॥ "'" 'वट्टकेराचार्य ।' अर्थ - ( तीर्थंकर गणधरादिकर दिखाये अभ्यंतर बाह्य भेदयुक्त बारह प्रकार के तप मे स्वाध्याय के समान उत्तम अन्य तप न तो है और न होगा ।) जैसे सूक्ष्म भी सुई प्रमाद दोष से गिरी हुई यदि डोराकर सहित हो तो नष्ट नही होती - देखने से मिल जाती है, उसी तरह शास्त्र स्वाध्याय युक्त पुरुष भी प्रमाद दोष से उत्कृष्ट तप रहित हुआ भी ससार रूपी गढ्ढे मे नही पडता । 1 भूत जो ग्रंथ परमपूज्य केवली के बचनो की परम्परा लिये। हो और जिन मे आत्मा का परमाराध्य मोक्ष की कारणी भूत कथनी हो उससे बढकर कौन हो सकता है ? वर्तमान के उपलब्ध जैन परमागम की रचना गौतम गणधर कथित सूत्र के आधार से हुई है । गौतम स्वामी ने किस समय किस प्रकार ग्रंथ रचना की यह वर्णन उत्तर Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] [ जैन निबन्धनावली भाग २ पुराण में गुणभद्रसुरिने बडेही हृदयग्राही ढंग से किया है, पाठको की जानकारी के लिये उसे हम यहा देते है गौतम गणधर अपना जीवन वृत्तांत सुनाते हुये कहते हैं कि श्रीवर्धमानमानस्य संयमं प्रतिपन्नवान् । तदेव मे समुत्पन्ना परिणामदिशेषत ॥ ३६८ ॥ ऋद्वय सप्त सर्वागानामप्यर्थपदान्यत । भट्टारकोपदेशेन श्रावणे वहुले तिथौ ॥ ३६६ ॥। पदार्थावर्थरूपेण सद्यः पर्याणमन् स्फुटम् पूर्वा पश्चिमे भागे पूर्वाणामप्यनुत्रमात् ॥ ३७० ॥ इत्यनुज्ञातसर्वार्थो धीचतुष्कवान् । 1 अगानां ग्रंथसदर्भ पूर्वरात्रे व्यधामहम् ॥ ३७१॥ - पूर्वाणां पश्चिमे भागे ग्र थकर्ता ततोऽभवम् । इति श्रुतभि पूर्णोऽभूव गणभृदादिम ॥ ३७२ ॥ ७४ वां पर्व. · अर्थ - श्री वर्द्ध मान स्वामी को नमस्कार कर सयम धारण कर लिया। परिणामो की विशेष विशुद्धि होने से उसी समय मुझे सात ऋद्धिया प्राप्त हुई । तदनतर श्रीं वर्द्धमान भट्टारक के उपदेश से श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन सवेरे के समय सब अगो के अर्थ और पद शीघ्र ही अर्थ रूप से स्पष्ट जान पडे और इसी तरह उमी दिन के साम के समय अनुक्रम से सब पूत्र के अर्थ और पदो का ज्ञान होगया । तथा चौथा मन पर्ययज्ञान भी होगया । तदनतर मैंने रात्रि के पहिले भाग मे अगो की ग्रथ रूप से रचना की और रात्रि के पिछले भाग मे पूर्वो की ग्रथ रचना की इस तरह अग और पूर्वो से रचना कर Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताध्ययन पर विचार ] [ १२६ में ग्रन्थकर्त्ता प्रसिद्ध हुआ हू। इस प्रकार श्रुतज्ञानऋद्धि से पूर्ण होकर में श्री वीरनाथका पहिला गणधर हुआ हूँ । ' जिस जैन वाणी का प्रादुर्भाव इतनी महत्ता को लिए हुए है उसका प्रचार संसार में प्रचुरता के साथ होना चाहिए किन्तु इस विषय मे जैन समाज आज जो भी कुछ कर रहा है वह सन्तोषप्रद नहीं कहा जा सकता। और तो क्या हम अब तक ग्रन्थ प्रकाश का प्रबन्ध भी ऐसा नही कर पाये जिसे ठीक कह सकें। इसके लिए हमारे पास द्रव्य की कमी नही है क्योंकि जो समाज प्रतिसाल मेला प्रतिष्ठा की धूमधाम मे लाखो रुपये लगाती है उसके लिए यह कैसे कहे कि धन की कमी है ? कमी है सिर्फ ग्रन्थ प्रकाशन में रुचि होने की। सच तो यह है कि धनी लोग इसे महत्व का काम ही नही समझते हैं इसका भी एक कारण है । पिछले कुछ समय मे जैन समाज की बागडोर प्राय ऐसे लोगो के हाथो में थी जो स्वयं मदाध और विवेकशून्य होकर परमगुरु के पदपर आसीन थे और इसी महान पदपर अपने को हमेशा कायम रखने के लिये जनता को ज्ञानहीन बनाये रखना चाहते थे । इसके लिये लोगोको उल्टी पट्टी पढाई गई किश्रावकों को सिद्धात ग्रंथोके पढने का अधिकार नही है । गृहस्थो का तो केवल दान पूजा प्रभावना करना ही है । इसमे उनका कल्याण है। बस भोले लोग इस भुलावे में आगये । फल उसका यह हुआ कि जनता की रुचि पूजा प्रभावना के काम मे ही इतनी अधिक बढी कि आज भी वे अपने को न सम्हाल सके। खेद तो यह है कि उक्त प्रकार का स्वार्थ मूलक उपदेश ही नही दिया गया किंतु उसे संस्कृत प्राकृत भाषा मे ग्रंथबद्ध भी कर दिया गया जिससे इस चक्कर मे कतिपय विद्वान भी आते रहे । इस तरह यह Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1३० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ !! मिथ्या परम्परा चल पडी । आज भी कुछ पंडित कहलाने वाले ऐसे हैं जो कभी-कभी "श्रावको को सिद्धान्ताध्ययन की अधिकार नहीं है " इस मिथ्या धारणा को प्रगट किया करते हैं । प० उदयलालर्जी कासलीवालने तो संशयतिमिरप्रदीप' नामक ' पुस्तक मे इस भ्रमपूर्ण मान्यता को दिलखोल पुष्टि की है और एक मात्र अवनति का मूल कारण ही श्रावको का सिद्धांताध्ययन बताया है। उसमे अध्ययन तो दूर रहा आर्यका और गृहस्थेक सामने सिद्धात थो का वांचना ही अयोग्य ठहराया गया है ।' बलिहारी है ऐसी समझ को आश्चर्य इस बात का है कि जिसका विधान किसी भी आर्ष ग्रथ मे नहीं है उसे कुछ मामूली ग्रंथो मे देखकर ही ये लोग कैसे प्रमाण कर लेते हैं ? सिद्धांता ध्ययन का निषेध हमें तो किसी ऋषिप्रणीत ग्रथ मे लिखा नहीं मिलता बल्कि विधान ही पाया जाता है। नीचे हम ग्रथो के कतिपय उद्धरणो से यही सिद्ध करते है भगवज्विन सेनाचार्य आदिपुर ण पर्व ३६ में श्रावकों के ये क्रियाको का वर्णन करते हुये कहते हैं कि - पूजाराध्याख्यां ख्याता क्रियास्य स्वदतः परा पूजोपवास संपत्या श्रश्वतोऽगार्य संग्रहम् ॥४६ ततोऽन्या पुण्ययज्ञाख्या क्रिया पुण्यानुवधिनों। श्रृण्वत पूर्वविद्यानामर्थं सब्रह्मचारिण ५०॥ अर्थ -- पूजा और उपवासरूप संपत्ति को धारणकर ग्यारह अगो के अर्थ समूह को सुनने वाले श्री के पुजारा नाम पाचवी प्रसिद्ध क्रिया होती है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताध्ययन पर विचार | [ १३१ तदन्तर अपने साधर्मी पुरुषो के साथ चौदह पूर्वो का अर्थ सुनने वाले श्रावक के पुण्य बढाने वाली पुण्य यज्ञे नाम की छुट्टी क्रिया होती है । यह तो हुआ श्रावको के पढने सुनने का अधिकार | अव आकाओ का अधिकार भी देख लीजिये - मूलाचार के मचाचाराधिकार मे बट्टकेरस्वामी ने लिखा है कि---- तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्थवग्गस्स । एत्तो अण्णो गयो कप्पदि पढिदु असझाए ॥८१॥ अर्थ -- वे चार प्रकार के अग, पर्व, वस्तु, प्राभृत, रूफ सूत्र, कालशद्धि आदि के बिना स्यमियों को तथा आर्यकाओ को नहीं पढने चाहिये । इनसे अन्य ग्रथ कालशद्धि आदि के न होने पर भी पढने योग्य माने गये हैं । इसमें आर्यकाओ को कालशुद्धि आदि के होते हुये अग पूर्वादि ग्रन्थो के पढने की आज्ञा दी गई है । हरिवंश पुराण १२ वा सर्ग मे भी लिखा है कि- जयकुमार द्वादशागधारी भगवान का गणधर हुआ और सुलोचना ग्यारह अंग को धारिका आर्यिका हुई ।१५२।। इन उल्लेखो से उन लोगो का भी समाधान होजाता है जो वर्कों के लिये प्रचलित सिद्धात ग्रन्थो के पढने सुनने का तो अधिकार बताते हैं किंतु गणधर कथित अंग पूर्वदि ग्रन्थो के अध्ययन का निषेध करते है, उन्हें अब अपनी उस मिथ्या धारणा को निकाल देना चाहिये । कहते है कि नेमिचन्द्राचार्य ने चामुण्डराय के सामने सूत्रपाठ करना बन्द कर दिया था और पूछने पर कहा था कि श्रावको को सुनने का अधिकार नही है इत्यादि कथा काल्पनिक मालूम होती हैं । जहाँ X श्लोक और Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] [ ★ जीन निवन्ध रत्नावली भाग २ x टीप - ( मागारधर्मामृत अध्याय - ७ वा – पृ० ५१३ ) श्रावको वीरचर्याहः प्रतिमातापनादिषु ॥ स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ॥५०॥ टोका-न स्यात्कोऽसौ श्रावकः । किविशिष्टोऽधिकारी योग्य. । क्क वीरेत्यादि - वीरचर्या स्वयं भ्रामया भोजनं, अह प्रतिमा दिनप्रतिमा, आतापनादयस्त्रिकालयोगा- ग्रीष्मे सूर्याभिमुख गिरिशिखरेऽवस्थान, वर्षासु वृक्षमूले, शीतकाले रजन्या चतुष्पथे, इत्येव लक्षणास्त्रय कायक्लेशविशेपा । तथा सिद्धान्तस्य परमागमस्य सूत्ररूपस्य रहस्य च प्रायश्चित्तशास्त्र - स्याध्ययने पाठे श्रावको नाघिकारी स्यादिति संबंध: ॥ अर्थात् - श्रावको को वीरचर्या माने स्वयभ्रामरी वृत्ती से भोजन करना, दिनप्रतिमा, और गर्मी के दिनों में सूर्य के सन्मुख पर्वत के शिखर पर योग धारण करना, वर्षाऋतु मे वृक्ष के नीचे, शीतकाल की रात्रीयो मे नदियों के किनारे अथवा चौहटे में योग धारण करना आदि आतापनादि योग धारण करने का अधिकार नहीं है । तथा इसी प्रकार सिद्धान्त अर्थात् - परमागम के सूत्रों और प्रायश्चित शास्त्रो के अध्ययन करने का भी श्रावको को अधिकार नहीं है ||५०|| -0 गाथा तक मिथ्या रचली जाती हैं वहां ऐसी कथाओ को गढते कितनी देर लगती है ? ऋषि वाक्यो के सामने ऐसे कथन कदापि प्रमाण नही माने जा सकते। जिन सिद्धांतग्रंथो के बदौलत ही जैन धर्म का गौरव है । उनका पठन पाठन बन्द Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताध्ययन पर विचार ] '| १३३ करना भी क्या कभी उचित कहा जा सकता है ? यहा तो मूलभूत सम्यग्दर्शन ही तत्वार्थ श्रद्धान से होता है । मजा तो यह है कि- गोम्मटसार, लब्धिसार, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि महाग्रथो के रचयिताओ ने जब कहीं भी यह नही लिखा कि हमारे इस ग्रन्थ को श्रावक पुरुष न पढे तब ये दूसरे निषेध करने वाले कौन होते हैं ? प्रत्युत विद्यावदस्वामी ने अपने अष्टसहस्री ग्रन्थ के अत में कहा है कि मेरे इस ग्रन्थ को पढने का अधिकार कल्याणेच्छु भव्यो के लिए नियत है । इससे अध्ययन का मार्ग कितना विशाल हो जाता है ? चामुण्डरायकृत चारित्रसार शीलसप्तक प्रकरण के 'स्वाध्यायस्तत्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापर्ने स्मरण च' वाक्य से स्वाध्याय का लक्षण ही तत्वज्ञान *का पढना प्रढाना और चितवन करना किया है और जो खास"कर ऐसा स्वाध्याय श्रावको के पट्कर्म मे प्रतिपादन किया गया है ॥ X टीप -वसुबदी श्रावकाचार - पू- १२८ गाथा 'दिन पडिमवोरचरिया । तियालजोगेसु णत्थि अहियारो || "सिद्धान्त रहस्सार्णव । अज्झयण देसविरदाणां ॥ ३१२१३ 'दिनप्रति माबीरचर्यात्रिकालयोगेषु नास्त्यधिकार ॥ 'सिद्धान्त रहत्यानामप्यध्ययनं देशविरतानाम् ||३१२|| 1 अर्थ - दिन मे प्रतिमायोग, वीरचर्यो, त्रिकालयोग और सिद्धान्त रहस्य के अध्ययन, ये ऊपर के बातें करने को देशविरति श्रावक अनधिकारी है । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ नोट'- यह. सव' कथन क्षुल्लकादि सच्छूद्रो को लेकर है उन्हीं के लिये तप और सिद्धांत व प्रायश्चित ग्रों के अधिकृत पठन का निषेधा किया प्रतीत होता है जैसाकि वैदिक ग्रयो मे भी पाया जाता है । इसी से दि० मत मे शूद्रो को मुनि दीक्षा का भी निषेध है। इन सब बातों का निवर्गों के लिए निषेध नहीं है। क्या तत्वज्ञान से सिद्धान्त भिन्न है ? यह तो निश्चित है कि, देशनालन्धि देशविरती तो क्या अवती तकके होती है उसी देशनालब्धिका स्वरूप आचार्य नेमिचन्द्र ने लब्धिसार मे यो कहा है छवणवपयत्यो देसयरसूरिपदिलाहो जो। देसिदपदस्थधारणलाहो वा तदियलद्धी दु॥क्षा अर्य-छहद्रव्य और नव पदार्थों का उपदेश करने वाले आचार्य आदि का लाभ यानी उपदेश का मिलना और उन पर उपदेशे हुए पदार्थों के धारण करने ( याद रखने ), की प्राप्ति वह तीसरी देशनालब्धि है। ग्रन्थाध्ययन का निषेध करना एक ऐसी निर्मूल और अयुक्त बात है कि जिसकी पुष्टि किसी भी परमागमसे नहीं होती है और तो और, खास समवशरण मे ही भगवान की दिव्यध्वनि को तिर्यंच तक श्रवण करते है क्या कोई कह सकता है कि केवली की दिव्यध्वनि मे द्वादश सभा के समक्ष सिद्धातविषयक 卐और इसीलिए वह 'श्र त' कहलाता है "स्वय भगवान ने जिनको अधिकारी समझकर उपदेश सुनाया उन्हें अब कैसे अनधिकारी ठहराया जा सकता है क्या आप भगवान् से भी बड़े हैं ?' Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सिद्धान्ताध्ययन पर विचार [ १३५ उपदेश नही होता है? यदि कहो कि - "मिद्धाताध्ययन का अधिकार हो तो भले हो किंतु श्रावको को अध्यात्म ग्रंथो के पढने का तो अधिकार नही है सो भी ठीक नहीं है। जिनसेन स्वामी ने पंद्रहको व्रतचय क्रिया का वर्णन करते हये पर्व ३८ के कहा है कि - सूत्रमोपासिकं चास्य स्यावध्येयं गुरोर्मुखात् । विनयेन ततोन्यच्च शास्त्रमध्यात्मगोचरम् ॥११८॥ अर्थ - इसे प्रथम हो गुरुमुख से उपासकाचार पढना चाहिए और फिर विनय पूर्वक अन्य अध्यात्मशास्त्रो का अभ्यास करना चाहिए । कुछ भी हो, किसी ग्रथ के अध्ययन की मनाई करना 'विल्कुल निसार है । इसकी अनुपयोगिता का तो खासा प्रमाण यही है कि इस समय इस पर कोई ध्यान नही दिया जा रहा है । केवल अध परम्परा भक्तो को कहने भर की चीज रह गई है । अगर इस अनिष्टपूर्ण आज्ञा का पालन किया जाता तो बडा ही दुर्भाग्य होता - जैन धर्म की इस समय जैसी कुछ अवस्था है यह भी नही रहती । फिर भी सिद्धांत ग्रथो का जैसा पठन पाठन होना चाहिए वैसा नही हो रहा है । प्रत्येक साल इसमें विद्यार्थी पास हो जाते हैं किंतु वे खाली पास ही हैं, उससे सन्मार्ग का महत्व चे द्योतित नही कर सकते । क्योकि जिस उद्देश्य से इनका पठन पाठन होना चाहिए वह प्राय नही है । पूर्वकाल मे इनका अध्यन सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति, कषायो की मंदता और जैन मार्ग का गौरव प्रकट करना इन उद्देश्यो की लेकर होता था अब तो केवल टका पैदा करने और अपता आदर सम्मान होने के अर्थ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ } [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ इनका पठन होता है। इसके लिए वे जिन ग्रथो के समीचीन अध्ययन के लिए कम से कम दम पन्द्रह वर्ष चाहिए उन्हें पाच चार वर्ष ही में जैसे-तैसे पढकर प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेते हैं और फिर उनका मनन करना भी छोड दिया जाता है फल यह होता है कि पाच सात वर्ष वाद वे नथ अपठित से हो जाते है। ऐसे कितने ही विद्वान कहलाने वाले मिलेंगे जो नाम मात्र की पदवियों को निपटाये हुए गर्वोन्मत्त फिरते हैं। काम पड़ने पर सिद्धात विषयक खास शका का समाधान ये नही कर सकते। निरंतर के अध्ययन विना उनका प्रमाणपत्र विचाग घरा ही रह जाता है, वह केवल दिखाने भर की चीज रह जाती है और उससे कुछ अर्थ नही निकलता । इस तरह के प्रमाणपत्रो से कुछ लाभ भले ही हो किंतु हानि भी पूरी होती है। इन्हे प्राप्त कर मनुष्य अपने को ऐमा कृतकृत्य समझने लगता है कि फिर उस विषय मे कुछ भी प्रयत्न नहीं करता है। नतीजा जिसका यह होता है कि अजुली के जल की तरह वे शन. २ सिद्धात ज्ञान से खाली होते २ आखिर खोखले रह जाते हैं । मो टीक ही है 'अनभ्यामे विप विद्या' होता ही है। जिसकी स्थिति ही निरतर मनन चितवन के ऊपर निर्भर है। उसका प्रमाणपत्र सर्वदा के लिये मानना ही विडंबना पूर्ण है । जहा-जहा इन प्रमाणपत्रो की खटपट नही है वहां बहुत बड़ा लाभ यह है कि मनुष्य की अपनी लियाकत दिखाने को हर समय अपने को तैयार रखना पडता है। इससे मेरा अभिप्राय परीक्षा देकर प्रमाणपत्र लेने की व्यवस्था उठा देने का नती है दीघकाल तक यथेष्ट अध्ययन होना चाहिये यह भाव ह । अस्तु, अन्त मे हम यह लिखकर कि- 'किस तरह के ग्रन्थ काल शुद्धि आदि न होने पर पढने योग्य हैं।' विराम लेते है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताध्ययन पर विचार ] [ १३७ मूलाचार पचाचाराधिकार की गाथा ८२ में कहा है कि सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओ का प्रतिपादक ग्रन्थ, सत्रह प्रकार के मरण निरूपक ग्रन्थ, पच सग्रह ग्रन्थ, स्तोत्र ग्रन्थ आहार दि के त्याग का उपदेशक ग्रन्थ सामायिकादि षढावश्यक प्ररूपक और महापुरषो का चरित्र वर्णन करने वाली धर्मकथा इस तरह के ग्रन्थ बिना कालशुद्धि आदि के भी पढने योग्य माने गये है। (कालशुद्धि आदि का वर्णन इसी पंचाचाराधिकार मे है सो वह से देख लें। पट्खण्डागमभाग ६ मे भी इन ग्रथों को पढने के अधिकार और विधि का विशेष वर्णन है देखो पृ० २५५ से २७५ तक जगमोहन लाल शास्त्री सदक Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ भट्टारक सकलकीर्तिका जन्मकाल : विक्रम की १५ वी शताब्दि मे ईडर की गद्दी के सस्थापक मकलकीर्ति नाम के एक प्रसिद्ध भट्टारक हो गये है । जिन्होने संस्कृत मे ४० करीब जैन शास्त्रो की रचना की है । इनके गुरु पद्मन'द भट्टारक थे। इन पद्मनदि के शिष्यो मे शुभचन्द्र, देवेन्द्रकत और सकलकीति ये तीन प्रमुख शिष्य थे । । | 1 1 उक्त पद्मनदि की गुरुपरपरा में वि०स० १२७१ मे धर्मचन्द्र भट्टारकी पद पर आरूढ हुये थे । वे हूमडजाति के थे और २५ वर्ष तक पट्ट पर रहे। उनके वाद वि० सं० १२६६ मे धर्मचन्द्र के पट्ट पर रत्नकीर्ति बैठे । ये भी हूमडजाति के थे । ये १४ वर्ष तक पटट पर रहे। उनके बाद बि० स० १३१० मे दिल्ली में रत्नकीर्ति के पट्ट पर प्रभाचन्द्र वंठे । ये ब्राह्मण जाति के थे । ये ७५ वर्ष तक पट्ट पर रहे । तत्पश्चात् वि० स १३८५ पौष शुक्ला ७ को प्रभाचन्द्र के पट्ट पर वही दिल्ली मे पद्मनदि बैठे। ये ६५ वर्ष और १ = दिन तक पटट पर रहे । ये भी ब्राह्मण जाति के थे। इन्होंने अपनी १५ वर्ष और ७ मास की उम्र मे ही दीक्षा ले ली थी । दीक्षा के १३ वर्ष और ५ मास बाद ये पट्टारूढ हुये थे । कुल आयु इन्होने ६४ वर्ष की पाई । इस उल्लेख से यह प्रकट होता है कि - पद्मनदि का पट्टकाल स० १४५० तक रहा । यही समय उनके स्वर्गवास का समझना Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक सकलकीतिका जन्मकाल ] [ १३६ चाहिये । तत्पश्चात् उनके तीन शिप्यो मे से शुभचन्द्र स० १४५० की माघ शुक्ला ५ को दिल्ली में उनके पट्ट पर बैठे। ये ५६ वर्ष तक पट्ट पर रहे। ये भी ब्राह्मण जाति के थे। इन्होने अपनी १६ वर्ष की अवस्था मे दीक्षा ली थी । दीक्षा लेने के २४ वर्ष बाद वे गुरु के पट्ट पर बैठे थे। इन शुभचन्द्र की कुल उम्र ६६ वर्ष की थी। पद्मनदि के दूसरे शिष्य देवेन्द्रकीति के बाबत "सूरत के मूर्ति लेख संग्रह" नामक गुजराती भाषा की पुस्तक के पृ० ३५ पर ऐसा लिखा है "दिल्ली मे स्थापित भट्टारको को गद्दी की एक शाखा फिरोजशाह के वक्त मे वि० स० १३८३ मे आमोद के पास गाधार मे स्थापित हुई। तदनतर स० १४६१ मे भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति ने उसे वहा से उठाकर सूरत के पास रादेर मे स्थापित की। फिर देवेन्द्रकीति के शिष्य भट्टारक विद्यानदि ने वहा से उठा कर उसी गद्दी की स्थापना सूरत मे की।" इस लेख से कहा जा सकता है कि पद्मनंदि के विवगत हुये बाद दिल्ली की भट्टारकी गद्दी की जो शाखा गाधार मे थी वहा के भट्टारकी पद पर उनके दूसरे शिष्य देवेन्द्रकीर्ति आसीन हुये हैं। अब रहे तीसरे शिष्य सकलकीति उनका हाल जैन सिद्धात-भास्कर १३ किरण २ मे प्रकाशित एक ऐतिहासिक पत्र मे निम्न प्रकार लिखा है "ढूढाड देश मे नेणवे (नणवा) ग्राम में प्रभाचन्द्र के पट्टधर शिष्य श्रीपद्मनदि के पास से सकलकीति ने अपनी Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 1 [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ २४ वर्ष की उम्र मे दीक्षा ली और गुरु के पास रहकर ८ वर्ष तक व्याकरण - काव्य न्याय सिद्धातादि शास्त्रो का अध्ययन किया । चे २२ वर्ष तक नग्न रहे। इनके पगले नोगाम मे स्थापन किये । वि० सं० १४६६ तक वे जीवित रहे ।" यह पन सं० १८०५ का लिखा है । ऊपर हम बता आये हैं कि - वि० सं० गुरु पद्मनदि जीवित थे और इन पद्मनदि के कीर्ति ने अपनी २४ वर्ष की वय मे दीक्षा ली व दीक्षा के बाद ८ वर्ष तक उन्ही पद्मनदि के पास मे रहकर उन्होंने शास्त्राध्ययन भी किया । तो इस हिसाब से सक्ल कीर्तिका जन्म समय वि० सं० १४१७ सिद्ध होता है । यह १४१७ का समय भी उम हालत में होगा जब सकल कीति के अध्ययन करते ही गुरु का अनकाल हो गया हो जिससे वे ८ वर्ष तक ही गुरु के पास अध्ययन कर पाये हो । सभव है इसी से उनका अध्ययन काल ८ वर्ष का लिखा हो । १४५० तक इनके पास मे सकल किन्तु कुछ विद्वान् मकलकीर्ति का जन्म समय ०१४४३ का मानते है. वह उचित नही जान पडता । क्योकि वैमा मानने से पद्मनदि के समय के साथ उसकी सगति नही बैठती है । पट्टा वलियो मे पद्मनंदि की गुरु परपराओ और शिष्य परपराओ का जो पटटारोहण कान दिया हुआ है वह ऐसा श्रृखला बद्ध है कि यदि उसकी एक भी कडी गलत हो जाती है तो उसकी अगे की परपस सारी की सारी गडबड मे पड जाती है । इसलिये उसे अमान्य नहीं किया जा सकता है। अगर हम सकलकत का जन्म काल सं० १४४३ का मानकर चले और उन्होने २५ वर्ष की उम्र मे पद्मनदि से दीक्षा ली एव ८ वर्ष Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक सकलकीर्तिका जन्मकाल ] [ १४१ तक गुरु के पास पढे इसका अथ यह हुआ कि पद्मनदि स‍ १४५० तक भी जीवित थे । जव स० १४५० तक ही पद्मनदि की उम्र ६४ वर्ष की हो चुकी थी जैसा कि हम ऊपर बता आये हैं तो १४७६ तक उनका जीवित रहना मानने पर तो उनकी उम्र १२० वर्ष तक पहुँच जायेगी जो युक्त नही है । दूसरी बात यह है कि - " भट्टारक सप्रदाय" पुस्तक के पृ० ६७ में विजोलिया का शिला लेख छपा है। जोकि वि० स० १४६५ का उत्कीर्ण है | उसमे हेमकीर्ति यति की प्रशंसा करते हुये लिखा है कि - पद्मनदि के पट ट शिष्य शुभचद्र के ये हेमकीत शिष्य थे । अगर स० १४७६ मे पद्मनदि मौजूद होते तो इस शिला लेख मे स० १४६५ मे ही शुभचन्द्र को पद्मनदिका पट्टवर शिष्य नही लिखते । इसी तरह स० १४६१ में गाधार की गद्दी ( इसका जिक्र ऊपर देखो ) के स्थानातर करने मे पद्मनदि का नाम न लिखकर उनके अन्यतम शिष्य देवेन्द्रकीर्ति का नाम लिखा है । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि स० १४६५ मे ही नही स० १४६१ मे भी पद्मनन्दि जीवित नही थे। अगर सकलकीर्ति का १८ वर्ष की उम्र में भी दीक्षित होना मान ले तो वह समय भी १४६६ का तो होगा ही तव भी उसकी सगति शिलालेख के कथन से नही बैठेगी। "सकलकीर्तिनुरास" के अ धार पर सकलकीर्ति का जन्मकाल स १४४३ मानते हैं मगर इस रास के कर्त्ता कौन है ? और वे कब हये ? ऐसा कुछ ज्ञान नही होता है । सकलर्कीति के समकालीन ब्रह्म जिनदास ने तो सकलकीर्ति का कोई रास नही लिखा है । ऐसी हालत मे बिना किसी सवल प्रमाण के नगण्य रास के आधार पर पट्टावलियो को सहसा अप्रमाण कैसे मान लिया जावे ? Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] जैन निवन्ध रत्नावली भाग ३ ऐमा आभास होता है कि ऐतिहासिक पत्रादि मे जो सकलकोति को ५६ वर्ष की अवस्था लिखी है वह ५६ वर्ष का काल दर-अमल मे उनके दीक्षा लेने के बाद का है जिसे गल्ती से उनको मारो उम्र तो ५६ वर्षको समयली गई है। और चूकि सकलफोति का अतकाल म १५६६ मे हआ यह निश्चित्त है ही अतः गम के कर्ता आदि ने ५६ वर्ष का जोड बैठाने के लिये उनका जन्म सं १४४ मे होना लिख दिया है। और इसी तरह ३४ वर्ष की अवस्था मे उनका आचार्य होना लिखा है, उसे भी ५६ का जोड बैठाने का प्रयत्नमात्र रामझना चाहिये । क्योकि वे २२ वर्ष तक नग्न रहे इस कथन की सगति भी तो चंठानी थी। संभवत: स. १४४३ मे उनका जन्म न मानकर वह समय यदि उनकी दीक्षा का मान लिया जाय और उसके ३४ वर्ष बाद आचार्य होकर २२ वर्ष पर्यन्त नग्न रूप मे रहना मान लिया जाये तो इस विषय की मव आपत्ति दूर हो सकती है। ऐसी सूरत मे उनकी उम्र ८१ वर्ष की माननी होगी। भाणा है जो लोग उनको कुल उम्र ५६ वर्प को मानते हैं वे म पर पुनः विचार करने का उद्यम करेगे। इतिहास की मही खोज वे ही लोग कर सकते हैं जो दुराग्रही नहीं होते है और जब तक पूर्ण निर्णय नहीं हो जाता तब तक तटस्थ होकर जैसा भी अनुकल या प्रतिकूल प्रमाणे मिलता जाता है तदनुमार ही नि:संकोच वत्ति से अपने विचारों मे तबदीली करते रहते है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ZILLEL जैनधर्म में जीवों का परलोक "कल्याण" के पुनर्जन्म विशेषांक से उद्धृत ( जनवरी १६६६ ) अनेक योनियो में पुण्यपाप के पल। कहलाता है । इस जिस धर्म का यह सिद्धान्त हो कि जन्म-मरण प्राप्त करके ये जीव अपने किये को भोगते रहते है वह धर्म आस्तिक धर्म' टि से जैनधर्म भी एक आस्तिक धर्म है। उसका कहना है कि समस्त ससारी जीवों का अस्तित्व नारकी, देव तिर्यंच (पशु, पक्षी कीडे) और मनुष्य - इन चार भेदो मे पाया जाता है । इन्हें ही चार गतियाँ कहते है अर्थात् ससारी जीवो का आवा गमन सदा इन चार स्थानों में होता रहता है। हर एक गति के जीवो की अपनी अलग-अलग आयु होती है । जितनी जिसकी आयु होती है, उतने ही काल तक वह उस गति मे रहता है । तिर्यंच और मनुष्य कारणवश अपनी निर्धारित आयु से पहले भी मर जाते हैं, जिसे 'अकाल-मरण' कहते हैं । नरक और देवगति मैं अकालमरण नही होता है। मरने के बाद वह जीव अपनी अच्छी-बुरी करनी के फल से या तो उसी गति मे, जिसमे कि 'वह मरा है, फिर से जन्म लेता है, या अभ्याम्य गतियों मे जन्म लेना है । किन्तु नरक और देवगति के जीव लौटकर पुन, अपनी 'उसी गति मे जन्म नही लेते है. अन्य गतियों मे जाने के बाद Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ۹ [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ न नरक और देवगति को प्राप्त हो सकते है । नियमत देव और नरक दोनो ही गति के जीव तिर्यच और मनुष्यगति मे ही जन्म लेते है । देवो और नारकियो की आयु दम हजार वर्षो से कम नही होती, अधिक तो उतनी होती है कि जिसकी गणना लौकिक संख्या मे नही आती। किसी भी गति से मरे हुए जीव को भवान्तर मे जन्म लेने से निमेष ( आंख को टिमकार ) मात्र काल से भी बहुत कम समय लगता है । जिस शरीर मे से निकलकर कोई जीव जब भवान्तर मे जाना है, तब गस्ते मे उस जीव का आकार पूर्व शरीर जैसा रहता है। जब यह भवान्तर मे दूसरा नया शरीर ग्रहण करता है, तब उसके शरीर का आकार नये प्रकार का हो जाता है । जैनधर्म के सिद्धान्तशास्त्रो मे लिखा है कि देवो और नारकियो को वर्तमान भव की आयु के समाप्त होने मे जव छ माम का समय शेष रह जाना है, तब उनके किसी अगले भव की आयु का निर्माण होता है । अर्थात् तब उनके भव की आयु (कर्म) का बन्ध होता है, और उस आयु के कर्म फल से जितनी आयु उसने बाँधी है, उतने समय तक उसे अगले भव (योनि) मे रहना पडता है । इसी तरह मनुष्य और तिर्यंचो को अपनी वर्तमान भव की आयु के तीन भागो मे दो भाग व्यतीत हो जाने के वाद तीसरे भाग मे अगले भव की आयु का वन्ध होता है । किन्तु इनको यह पता नही लगता कि हमारी आयु कितनी है. और अगले भव की आयुबन्ध का कौनसा समय है । 1 आयु वध के समय मे श्रेष्ठ परिणाम होने से अगले भव मे अच्छी गति मिलती है। इसलिए मानवो को सदा ही अपना उत्तम आचार-विचार रखना चाहिए। पता नही, कब आयुबन्ध का समय आ जाए । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म मे जीवो का परलोक. ] [ १४५ । उपर्युक्त चार गतियों मे से मनुष्य और तियंच (पशु, पक्षी, कीडे) गति के जीवो का हाल तो प्रत्यक्ष ही है, अत: उनका वर्णन न करके यहां हम नरक और देवगति का वर्णन करते हैं - कुल नरक सात है । जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, उसका नाम 'रत्नप्रभा' है । उसके भीतर कोसो तक के लम्बे-चौडे अनेक बिल हैं । जमीन मे ढोल के गाड देने पर जो पोलाई ढोले मे रहती है, उस तरह के बिल है, जिनमें नारकी जीव रहते है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के भीतर बिलो मे जितने नारकी रहते हैं, वह सब प्रथम तरक कहलाता है । इससे नीचे कुछ फासले पर 'शर्कराप्रभा' नाम की दूसरी पृथ्वी है। उसके भीतर भी उसी तरह के कितने ही बिल है, जिनमे नारकी जीव रहते है। यह. दूसरा नरक कहलाता है। इसी तरह कुछ और फासले पर उत्तरोत्तर नीचे-से-नीचे पांच पृथ्वियाँ और हैं जिनके विलो. मे भी नारकी जीव रहते है. जिन्हे कि तीसरे से सातवाँ नरक कहना चाहिए । किसी एक नरक का नारकी अन्य नरको मे नहीं जा सकता , बल्कि किसी एकही नरक के भिन्न-भिन्न बिलो में रहने वाले नारकी अपने ही नरक मे अपने बिल के सिवा अन्य बिल में भी नही जा सक्ते । इन सबकी आयु ऊपर की अपेक्षा नीचे के नरको मे अधिक हैं। प्रत्येक बिल मे बहुत से नारकी रहते हैं और प्राय वे एक-दूसरे को मार-काट कर दु ख देते रहते है। यहाँ आने के बाद उन्हे अपनी पूरी, आयु तक यहाँ रहकर दु.ख सहना पड़ता है। चाहे उनके शरीरो का तिल-तिल मात्र भी क्यो न काट दिया जाए, वे अपनी आयु पूर्ण होने के पहले वहाँ से निकल नहीं सकते। उनके कटे हुए शरीर के टुवाडे पारे की तरह , Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ मिलकर फिर एक शरीर रूप बन जाते हैं। नरको में स्त्रियां नहीं होती हैं। उनका जन्म विलो की छत के अधोभाग मे होता है। उस समय वे चमगादडो की तरह आधे मुह लटकते हुए जन्मते हैं और नीचे जमीन पर गिरते है। जन्म लेने के बाद ही अपना मार-काट का काम शुरू कर देते हैं। सभी नारकियो का रूप बडा भयकर होता है । नरको मे आपस मे मार-काट का ही दुख नही होता, अपितु अन्य भी असहनीय दु ख होते हैं । वहाँ पर कितने ही विलो मे ऐसी भयानक गरमी पडती है कि जिस गरमी से लोहे का गोला भी गलकर पानी हो जाए। कितने ही विलो मे ऐसी प्रचण्ड ठड पडती है कि जिससे लोहे के गोले का खण्ड-खण्ड हो जाए । प्यास उन नारकियो को इतनी अधिक लगती है कि सब समुद्रो का पानी पी जाये, तवभी उन की प्यास बुझे नही परन्तु उनको विन्दुमात्र भी जल नही मिलता है । भूख उनको इतनी प्रचण्ड लगती है कि सारे ससार का अन्न खा जाए परन्तु उन्हे कणमात्र भी अन्न नहीं मिलता है। वहाँ की भूमि का स्पर्श ही इतना दुखदायी है कि जैसे विच्छुओ ने डक मार दिया हो। ये सब दारुण दु ख नारकियो को उम्रभर भोगने पडते हैं। वहाँ क्षण भर भी सुख नहीं है । घोर पापो का फल भोगने के लिए प्राणियो को इन नरको मे जाना पड़ता है। इसके विपरीत जो पुण्यात्मा होते हैं, वे देवलोक मे जाकर सुख भोगते हैं। जिस मनुष्य लोक मे हम रहते है. वह 'मध्यलोक' कहलाता है। उससे नीचे 'अधोलोक' है-उसमे नरक है। मध्यलोक से ऊपर 'ऊर्वलोक' मे देवो का निवासस्थान है। वहाँ देव किसी पृथ्वी पर नही रहते हैं। वे सब विमानो मे रहते हैं । इससे भी बहुत ऊपर स्वर्गलोक है। वह हमारे Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनधर्म मे जीवों का परलोक ] [ १४७ नेत्रगोचर नहीं हैं। वहां उत्तम श्रेणी के देवों का निवास है। उससे भी ऊपर 'अहमिन्द्रलोक' है, जहाँ उनसे भी उत्कृष्ट देव रहते हैं । कुछ निम्न श्रेणी के देव अन्यत्र भी रहते हैं । स्वर्ग १६ माने गये हैं। प्रत्येक स्वर्ग के दायरे मे बहुत से विमान होते हैं जिन सबका स्वामी उस स्वर्ग का एक इन्द्र होता है । उन सब विमानो के वासी सब देव उस इन्द्र की आज्ञा मे रहते हैं । अलग-अलग स्वर्ग के प्राय अलग-अलग इन्द्र होते हैं और हर एक स्वर्ग मे बहत से विमान होते हैं। हर एक स्वर्ग मानो एकएक देश है और बहुन से विमान उस देश मे अलग-अलग प्रदेश या नगर हैं। प्रत्येक विमान में अनेक वापिकाएँ', महल और उपवन होते हैं। विमानो की लम्बाई-चौडाई काफी विस्तृत होती है । उन देशो के अलग-अलग राजा अलग-अलग इन्द्र कहलाते हैं। जैसे मनुष्यलोक मे राजा, मन्त्री, पुरोहित, सेना, प्रजा आदि होते हैं, वैसे ही देवलोक मे भी होते है। वहां के राजा को इन्द्र कहते हैं और प्रजा के लोग 'देव' कहलाते हैं । इन इन्द्रादि देवो का शरीर बहुत सुन्दर होता है। उनके शरीर मे हाड, मास, रक्त, धातु. मज्जा, मल, मूत्र, पसीना नहीं होते हैं। उनको निद्रा नही होती. बुढापा नहीं होता और किसी प्रकार का रोग नही होता । उनको प्यास नही लगती । वे खाते कुछ नहीं । बहुत वर्षों में कही कभी भूख लगती है, तो उसी क्षण उनके कण्ठों में अपने आप अमृत झर पडता है । उससे वे तृप्त हो जाते हैं। वहाँ किसी प्रकार का उनको शारीरिक दुख नही होता ह । इसी प्रकार से वहाँ सुन्दर देवियाँ होती हैं जिनके साथ वे देव नाना प्रकार के भोग-विलास करते है। वे देवियां वहां केवल भोग-विलास के लिए ही होती हैं । उनके गर्भ धारण नही होता है । देवो और देवियो की उत्पत्ति वहां किसी स्थान Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ विशेप (जिसे उपपाद शैया कहते है) से होती है। पैदा होने के थोडे ही ममय बाद वे जवान हो जाते हैं और फिर उम्र भर जवान ही बने रहते है। उन सबकी कोई निश्चित आयु होती है। देवियों की आयु देवो में कम होती हैं । आयु समाप्त होने के बाद इन्द्रादि को भी अन्य योनियो में जन्म लेना पडता है। इसलिए मनुप्यादि की तरह वे भी समारी जीव ही हैं । एक प्रमिद्ध प्राचीन जैनाचार्य स्वामी ममताभद्र ने कहा है - "श्वापि देवोऽपि देव श्वा जायते धमकिल्विपात् । कापि नाम मवेदन्या सद्धर्माच्छरीरिणाम् ॥" अर्थात् - धर्म के प्रताप से कुत्ता भी देव हो जाता है। देवयोनि में जन्म लेता है और पाप के फल से देव भी मरकर कुत्ते की योनि में जाता है। इसलिए प्राणियो के लिए धर्म से अतिरिक्त अन्य कोई क्या मम्पदा हो सकती है? इम स्वर्ग लोक से ऊपर एक अहमिन्द्रलोक' भी है. जिसमे भी देवो का निवास है । देव भी स्वर्ग लोक जैसे ही है। उनकी आयु स्वर्ग लोक के देवो का निवास ह। वे देव भी स्वर्ग लोक जैसे ही है। उनकी आय स्वर्गलोक के देवो से अधिक हाती है। वा देवियाँ ही होी हैं अत वे आजीवन ब्रह्मचारी ही रहते है। उनकी गणना अनि उत्तम देवो मे की जाती है। उनके भी रहने के अनेक विमान है। उनमे गजा, मन्त्री, प्रजा आदि भेद, नही हैं । सभी अपने आपको इन्द्र मानते है। इसी से वे 'अहमिन्द्र कहलाते हैं । इनका भी समय पूरा हाने पर अन्य योनियो मे जाना पड़ता है। ___ इस अहमिन्द्रलोक से ऊपर शिवलोक' है ! वहां वे जीव Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म जीवो का परलोक ] [ १४६ पहुँचते हैं, जिन्होने मनुष्य जन्म मे वैराग्य, तप, सयम के द्वारा अपनी आत्मा को पूर्ण शुद्ध बना लिया हो । ऐसे जीव ससार-चक्र से निकलकर शिवलोक मे पहुचते है । वहाँ वे अनन्तकाल तक "अतीन्द्रिय, आत्मजनित सुख का अनुभव करते रहते है । उनका संसार का आवागमन सदा के लिए छूट जाता है । वे अनन्त ज्ञान-दर्शन सुख वीर्यं के धारी होते है । जैन धर्म मे जीवो की तीन दशाएँ मानी गई है शुभ दशा, अशुभ दशा और शुद्ध दशा | शुभ दशा वाले जीव पुण्यकर्म के फल से देव नोक को प्राप्त होकर सासारिक सुख भोगते है । अशुभ दशा वाले जीव पाप कर्म के फल से नरको मे जाकर दुख सहते हैं तथा कभी वे जीव पशु-योनि मे भी जाकर दुख उठाते है । जिनको शुभ और अशुभ दोनो मिलकर मिश्रदशा होती है, वे जीव पुण्य और पाप - दोनो के मिश्रित फल से मनुष्य योनि मे जन्म लेकर वहा सुख - दुख दोनो को भोगते है । तीसरी, शुद्ध दशा वह है, जिसमे आत्मा के साथ पुण्यकर्म और पापकर्म का कुछ भी मैल नही रहता । आत्मा कर्म मलरहित पूर्ण शुद्ध बन जाती है । ऐसी शुद्धदशा मनुष्य योनि मे हो हो सकती है, अन्य योनियो मे नही । शुद्धदशा वाला जीव मानवशरीर का छोडकर सीधा 'शिवलोक' मे पहुँच जाता है । वहाँ अब वह शरीर धारण नही करता । जहाँ शरीर है, वहाँ जन्म-मरण है, आवागमन है, और ससार का चक्र है । अत शिवलोक के निवानी जीव अशरीरी होते है - उनको केवल वहाँ अपनी शुद्ध आत्मा ही होती है । मोक्षस्थान, मुक्तिस्थान, सिद्धालय इत्यादि नाम शिवलोक के ही पर्याय है । वहाँ के जीव निरजन, निर्विकार, चिदुरूप, परमात्मा, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ परब्रह्म, सर्वज्ञ, ईश, सिद्ध इत्यादि नामो से पुकारे जाते हैं । ऐसे मिद्ध जीव वहां अगणित पहुंच चुके है और आगे भी पहुचते रहेंगे । यह स्थान सृष्टि का ऊपरी आखिरी स्थान ह । इससे ऊपर अलोक है, जहाँ एकमात्र आकाश के मिवा अन्य कोई पदार्थ नही है । उस प्रकार हमने यहाँ जोवो के आवागमन के स्थानो का जैन मतानुसार सक्षिप्त वर्णन किया है। जैनशास्त्रो मे इस विषय का बहुत विस्तार से विवेचन | जैनकथाग्रन्थो मे ऐसी बहुत सी कथाएँ लिखी है, जिनमें जीवों के अनेक भवान्तरों का वर्णन किया गया है । 1 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ क्या चन्द्र सूर्य का माप छोटे योजनों से है ? दिनाक १८ नवम्बर सन् ६७ के वीरवाणी के गताक मे क्षुल्लकजो श्री सिद्धसागरजी का एक लेख "भारतीय अतरिक्ष विज्ञान" नाम से प्रकाशित हुआ है । जिसमे हस्तलिखित सग्रहणीसूत्र " शास्त्र की दो अपूर्ण प्रतियो की चर्चा की गई है । इस सिलसिले मे लिखा है कि ( पृ० ५६ कालम २ ) । "चद्र का विमान छोटे योजन की अपेक्षा हर्ष योजन प्रमाण है । अर्थात् ६ मील के आयाम गला है । और सूर्य का विमान x मील प्रमाण है । क्षुल्लकजी का ऐसा लिखना उचित नही है । क्योकि ज्योतिष्क विमानो का भी माप जैन शास्त्रो मे लिखा है वह सब as योजनों की अपेक्षा से है। एक छोटा योजन जिसको उत्सेध योजन कहते हैं उससे पांचसौ गुणा एक प्रमाण योजन अर्थात् वडा योजन होता है । अत सूर्य चंद्र की लवाई चौडाई भी बड़े योजन की अपेक्षा से ही समझना चाहिये । अर्थात् आपने योजनाशो को ८ से गुणाकर मील बनाने को लिखा है । जबकि उसकी जगह योजनांशी को चार हजार से गुणाकर मील सख्या लाने Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ को लिखा जाना चाहिये था। आगम प्रमाण के लिये देखिये आचार्य श्री विद्यान दि स्वामी कृत तत्वार्थ श्लोक वानिक का निम्न विवेचन "अष्टचत्वारिशद्योजनकपष्टि-भागत्वात् प्रमाणयोजनापेक्षया, सातिरेकत्रिनवतियोजनशतत्रयप्रमाणत्वादुत्सेधयोजनापेक्षया ।" - मूलमुद्रित पृ० ३७८ अर्थ-सूर्य का व्यास एक योजन के ६१ भागो मे ४८ भाग प्रमाण है। ऐसा कथन प्रमाण योजन की अपेक्षा से है। उत्सेध योजनो की अपेक्षा तो वही व्यास कुछ अधिक ३६३ योजनो का होता है। क्षल्लकजी की मान्यतानुसार सूर्य का व्यास सिर्फ ६॥ मील करीब ही होता है। जबकि श्लोकवार्तिक के अनुसार ३१४७।। मीलो का होता है । दोनो मे बहुत अतर है । गोल होने से सूर्यादि का जितना व्यास यानी चौडाई है उतनी ही उनकी लवाई है। जहा तक हमारा ख्याल है सूर्यचद्रादि का माप सग्रहणी सूत्र मे भी छोटे योजन की अपेक्षा से नही लिखा होगा । और न अन्य जैन शास्त्रो मे ही लिखा है। अगर कही लिखा हुआ देखा हो तो क्षुल्लकजी महाराज उसे प्रकट करने की कृपा करेगे। इन सग्रहणी सूत्रो का विषय और भी सविशेष रूप से तत्वार्थ सूत्र की टीका-राजवातिक-श्लोकवार्तिक आदि मे एव -त्रिलोकसार, त्रिलोक प्रज्ञप्ति, जबूद्वीप प्रज्ञप्ति और श्वे लोक प्रकाशादि ग्रंथो मे पाया जाता है अत इन संग्रहणी सूत्री को लेकर जो इतना लबा चौडा अंतिशयोक्ति पूर्ण कथन किया गया Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या चद्र सूर्य का माप छोटे योजतो से है ? ] [ १५३ है और माधुनिक विज्ञान वालो से जो अपील की गई है, उसमे विशेष मार प्रतीत नही होता । "सग्रहणी सूत्र' नाम से एक ग्रथ श्वेतावरो के यहाँ से करीब ४० वर्ष पहिले प्रकाशित हुआ है । हमने 'जैन निवध रत्नावली' के 'उपलब्ध जैन ग्रंथो मे ज्योतिष चक्र की व्यवस्था" शीर्षक निबंध मे इस संग्रहणी सूत्र का उपयोग किया है । इसी श्वेतावरीय ग्रथ की वे प्रतिया हैं । क्षुल्लकजी ने जो अपने लेख में नमूनार्थ २ गाथायें दी है वे इसी श्वे ० o ग्रन्थ की है और उनका नवर भी मुद्रित ग्रंथ मे ठीक वही है जो अल्लकजी ने सूचित किया है । क्षुल्लकजी महाराज ने मूलाचार के द्वितीयभाग मे "सग्रहणी सूत्र' के छपने की बात लिखी है वह भी ठीक नही है । मूलाचार मे तो 'पर्याप्ति संग्रहणी' नाम का अतिम अधिकार है जो भिन्न है । श्री क्षुल्लकजी ने जो यह लिखा है कि " आज का विज्ञान ज्योतिषियो मे उत्पन्न होने के सही तरीके को नही जानता अत राकेट मे बैठ उस ओर पहुचने मे ये विज्ञ संलग्न हैं । ज्योतिष विमान मे पहुँचने के लिए तापम बनना आवश्यक है - कहा भी है- "तावसजा जोइसिया" - गाथा नं० ११।" आपने अच्छा तरीका बताया कि मर कर ज्योतिष मडल मे पहुँचा जाय । यह तो ज्योतिष मडल है अगर स्वर्ग भी हो तो ऐसा कौन समझदार है जो मर कर स्वर्ग देखना चाहेगा । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ वैज्ञानिक इतने बेवकूफ नही है जो ऐसी बातो मे विश्वास करने लगें वे तो सदैव इसी जन्म मे ज्योतिष मडल मे पहुँचने मे प्रयत्नशील है। जैन शास्त्रो से भी इसमे कोई वाधा प्रतीत नही होती । जब इस देह से ही वहा पहुँचा जा सकता है तो तापसी बनने की क्या आवश्यकता है ? आपने अपने कथन से मिथ्या दृष्टि (तापसी) धनने का भी समर्थन कर दिया है । इस प्रकार आपका यह सवकथन समुचित नही है । जैन शास्त्रो मे तो यह लिखा है कि - 'मिथ्यादृष्टि तापसी मरकर ज्योतिर्लोक मे पैदा होते हैं आपने उसको घुमाकर उल्टा ही आशय निकाल डाला है जो समीचीन नहीं है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ आर्यिकाओं का केशलौंच हमारे यहा दि० जैन समाज मे मुनियो के केशलोचो के उत्सव होते हैं । जिनमे सैकडो हजारो जैन अजैन लोग एकत्रित होते है । एक मेला सा हो जाता है। ऐसे उत्सवो मे शामिल होने के लिये समाज की ओर से बाहर को आमंत्रण पत्रिकायें भी दी जाती है । इसी प्रकार के उत्सव हमारे यहा आर्यिकाओ के केशलोंचो के भी होते है । यद्यपि इस प्रकार के केशलोचो के उत्सवो का समर्थन किसी जैन आगम से नही होता है । और जन समूह के बीच होने वाले मुनियो के इन केशलोंचो से भले ही कोई खाम हानि नही भी मानी जावे किन्तु आर्यिका का जनसमूह के बीच बैठ कर केशलोच करना तो लौकिक दृष्टि से भी ठीक नही है । आर्यिकायें स्त्री जाति मे होती है, स्त्री जाति मे विशेषतौर पर लज्जा गुण होना यह लोकमर्यादा है। लोकमर्यादा का पालन जैनधर्म मे भी माना गया है । इसीसे जैनधर्म मे मुनि की तरह आर्यिका नग्नलिंग धारण नही कर सकती है । जैनशास्त्रो मे मुनियो की अलोकिकी वृत्ति वृताकर भी कही कुछ काम उनके लिये लोकमर्यादा के भी रक्खे हैं । जैसे अस्पृश्यके स्पर्श होने पर दडकस्तान आदि । इसी प्रकार जैनाचार्यों ने आर्यिकाओ के लिये भी लोकलज्जा का बड़ा ध्यान रक्खा है । 'यहा लज्जा का अर्थ है मुँह और हाथ पैरो के अतिरिक्त शेष अगो को वस्त्र से ढके रखना । मुह व हाथ पैर वस्त्राच्छादित होने से ईर्ष्यासमिति Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ आदि मे बाधा आती है । अत उनकी छूट रहती है । तथा यथाशक्य पुरुप जाति से सपर्क नहीं रखना-उससे दूर रहने का ध्यान रखना। तदर्थ आयिकायें दीक्षा भी किसी मुनि से नहीं लेती हैं। आयिकाओ की किसी गुराणी से लेती हैं। ऐसे कई उल्लेख जैन कथान थो मे आते है। उनके कुछ उदाहरण हम यहा जिनसेनगुणभद्र कृत महापुराण के देते हैं । (१) ललिताग के जीव राजा वामव ने अरिंजय मुनि से दीक्षा ली। उसकी रानी प्रभावतीने तव ही पद्मावती आयिका से दीक्षा ली। (२) जयकुमार को गनी सुलोचना ने ब्राह्मी आर्यिका से दीक्षा ली। (३) सजयत मुनि की कथामे राजा सूर्यावर्त ने मुनि चद्रमुनि से दीक्षा ली, तब ही उसकी राणी यशोधरा ने गुणवती आर्यिका से दीक्षा ली। (४) शातिनाथ चरित्र मे वज्रायुध की कथा मे राजा कनकशाति ने विमलप्रभ मुनि से दीक्षा ली। तब ही उसकी दोनो राणियो ने विमलमती आयका से दीक्षा ली। (५) नेमिनाथ के पूर्व भव मे राजकन्या प्रीति मती की इच्छा प्रतिज्ञानुसार चिंतागति को पति बनाने की थी। ऐसा न होने पर प्रीतिमती ने विवृत्ता आर्यिका से दीक्षा ली । तब ही विरक्त हो चिंतागति ने भी दमवर मुनि से दीक्षा ली। (६) देवकी के छह पुत्र मुनि होकर उसके घर भिक्षा के लिये आये। उनके पूर्वभवो की कथा मे सेठ भानुदत्त ने अभयनंदि मुनि से दीक्षा ली। तब ही उसकी सेठाती ने जिनदत्ता Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यिका का केशलोच ] [ १५७ '' आर्यिका से दीक्षा ली । उसी भानुदत्त के ७ पुत्रो ने चोरी का काम करते हुये विरक्त होकर वरधर्म मुनि से दीक्षा ली । तब ही उनकी स्त्रियो ने जिनदत्ता आर्यिका से दीक्षा ली । (७) श्रीकृष्ण की पटरानी गाधारी के पूर्व महेंद्रविक्रम ने चारण मुनि से दीक्षा ली । तब ही सुरूपाने सुभद्रा आर्यिका से दीक्षा ली । भव मे राजा उसकी रानी (८) श्रीकृष्ण की पटरानी पद्मावती के पूर्व भव मे राजा मेघनाद ने धर्म मुनि से दीक्षा ली। तब ही उसकी रानी' विमलश्री ने पद्मावती आर्यिका से दीक्षा ली । (६) पाडवो के पूर्व भव मे सोमदत्त आदि ब्राह्मणो ने वरुणाचार्य से दीक्षा ली । तबहो उनकी स्त्रियो मे से दो ने गुणवती आर्यिका से दीक्षा ली । (१०) पाडवो ने नेमिनाथ से दीक्षा ली । कुती, सुभद्रा, द्रौपदी ने राजमति से दीक्षा ली । (११) जीवधर ने महावीर से दीक्षा ली। उस की रानी ने चदना आर्यिका से दीक्षा ली । इन उदाहरणो से स्पष्ट सिद्ध होता है कि जिस प्रकार आर्थिक से कोई मुनि दीक्षा नही लेता था । उसी प्रकार आर्थिका की दीक्षा भी किसी मुनि के पास मे नही ली जाती थी। ऐसा ही कुछ आचार शास्त्री का नियम मालूम होता है । अगर ऐसा नियम न होता तो ऊपर लिखी कथाओ के उदाहरणो मे पतियो ने जिस वक्त जिन मुनियो से दीक्षा ली, तब ही उनकी पत्नियो का उन मुनियो से दीक्षा न लेकर अन्य आर्थिकाओ से दीक्षा लेने का कथन क्यो आता ? Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ __भगवती आराधना के प्रथम अध्याय की गाथा ५३ की बचनिका मे श्री पडित सदासुखदास जी साहब ने ऐसा लिखा है ' 'बहरि अन्य परिग्रह क धारती जे स्त्री तिनकै ह औत्सर्गिकलिंग वा अपवाद लिंग दो प्रकार होय है। तहां जो सोलह हस्त प्रमाण एक सुफेद वस्त्र अल्पमोल का ताते पग की एढ़ीसूलेय मस्तकपर्यंत सर्व अगक आच्छादनकरि अर मयूरपिच्छिका धारण करती अर ईर्यापथ में दृष्टि धारण करती, लज्जा है प्रधान जाकै सो पुरुषमात्र में दृष्टि नही धरती, पुरुषनित वचनालाप नहीं करती। अर ग्राम के वा नगर के अति नजीक नही अर अतिदूरह नही ऐसी वसतिका मे अन्य आर्यिकानिका संघ मे वसती, गणिनी को आज्ञा धारण करती, बहुत उपवासादिक तपश्चरण मे प्रवर्तती श्रावक के घर अयाचिक वृत्ति करि दोष रहित अंतराय रहित आप के निमित्त नही कियो जो प्रासुक आहार ताकि एक बार बैठि करि मौनतें ग्रहण करती । आहार का अवसर बिना गृहस्थनि के घर धर्मकार्य विना नही गमन करती, निरतर स्वाध्याय मे लीन रहती, एक वस्त्र विना तिलतुष मात्रहू परिग्रह नही ग्रहण करती, पूर्व अवस्था सबधी कुटु वादिसू ममत्व रहित रहती ऐसी जो स्त्री ताकै जो ये पचपापनिका मन वचन काय कृत कारित अनुमोदना ते त्यागकरि व्रतधारण समितिनि का पालना सो ही आर्यिका का व्रतरूप औत्सर्गिकलिंग कहिये सर्वोत्कृष्ट लिंग है।' आयिकायें भिक्षा के लिये जिस ढग से गमन करती हैं, उसका वर्णन मूलाचार के समाचार अधिकार में इस प्रकार किया है Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयिकाओ का केशलोच ] [ १५६ तिणिव पंचव सत्तव अज्जाओ अण्णमण रक्खाओ। थेरोहिं सहंतरिदा मिक्खाय समोदरंति सवा ॥१६॥ अर्थ-तीन या पांच या सात आर्यिकायें मिलकर वृद्ध स्त्रियों के साथ उनकी आड मे होकर सदा भिक्षा के लिए गमन करती हैं। और आपस मे एक दूसरे की रक्षा का भाव रखती हैं। - इस कथन से सहज ही यह जाना जा सकता है किआयिकायें वसतिका से किसी कार्यवश बाहर निकलती है तो आम जनता की निगाह से बचने के लिए आचार शास्त्रो मे उनके लिए कैसे २ नियन्त्रण रक्खे हैं। जहाँ जैन शास्त्रो मे आयिकाओ को पुरुषवर्ग से बचे रहने के लिए उनके दृष्टिपथ मे न आने देने के लिए ऐसे-ऐसे आदेश दिए हैं। यहाँ तक कि कोई भी महिला किसी मुनि के पास से दीक्षा भी नहीं ले सकती है। ऐमी सूरत मे एक जैन साध्वी मर्दो की भरी आमसभा मे जहाँ । जैन अजैन सैकडो, हजारो आदमी विद्यमान हो वहाँ ऊँचे मर्च। मे बैठ कर अपना शिर उघाड कर कैश लौंचन करे यह कहां तक उचित कहा जा सकता है । इस पर दि० जैन समाज के ज्ञानवान् भाइयो को गम्भीरता पूर्वक सोच विचार करके निणय । देना चाहिये । ऐसी उनसे मेरी विनती है। हॉ यदि उन आर्यिकाओ को एकान्त मे लौच करना रुचिकर न हो तो भले ही वे महिलाओ की सभा मे लोच करले परन्तु पुरुषो के समूह मे तो उनका लौच करना योग्य नहीं है। वि० स० २०२६ रक्षा बधन पर एक आचार्य महाराज ने दिल्ली में एक ब्रह्मचारिणी को क्षुल्लिका की दीक्षा दी Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ आचार्यजी ने जनसमूह के बीच अपने हाथ से क्षुल्लिका का केशलींच किया यह अत्यंत दूषित पद्धति है । इन्द्रनदि ने "नीतिमार समुच्चय" मे लिखा है: न योषित. स्पृशेदयोगी, काष्ठ चित्र कृतापि च । किं पुन: स्पशनं तासां यासां स्मरणमा पदे ॥ ६४ ॥ अर्थात् काष्ठ कागज आदि पर बनी स्त्री मूर्ति का भी साधु स्पर्श न करे क्योकि स्त्रियों का स्मरण मात्र ही अनेक आपत्तियो का आविर्भाविक है फिर उनके स्पर्श की क्या कथा वह तो किसी भी तरह विधेय नहीं । चिवत्थामपि संस्पृश्य, योषितं नैव मुज्यते । तस्मिन्नति भुंजयेत् षष्ठं स्यात्पापनाशनम् ॥ ६४ ॥ अर्थात् - स्त्री के चित्र का भी स्पर्श हो जाय तो साघु उस दिन भोजन का त्याग करे और शुद्धि के लिए बेला ( दो दिन तक उपवास) करे । 1 मूलाचार के चौथे समाचाराधिकार गाथा १६५ मे बताया है आर्यिका आचार्य साधु की वंदना भी ५-७ हाथ दूर रहकर करे । प्रथम तो क्षलिका का केशलोच ही शास्त्र विरुद्ध है दूसरे वह जनसमूह मे करना और भी विरुद्ध है तीसरे किसी भी पुरुष के हाथ का स्पर्श होना तो अत्यत ही दूषित पद्धति को प्रश्रय देना है। समाज को साहस के साथ ऐसी शालीनता रहित... 4 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयिकाओ का केशलोच ] [ १६१ लोकापवाद को पैदा करने वाली प्रक्रियाओ का नियंत्रण कर जिनेन्द्र के पवित्र मार्ग को भ्रष्ट विकृत होने से बचाना चाहिए। यही सच्ची जिनभक्ति है । १८ हजार शील के भेदो को धारण करने वाले साधु परमेष्ठी के लिये उपरोक्त क्रिया किसी तरह शोभास्पद नही । " छहढाला " मे लिखा है - " अठदस सहस विधि शीलधर चिद्ब्रह्म मे नित रमि रहे ||१|| छठीढाल । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ जैन धर्म में नाग तर्पण नागतर्पण शब्द सुनकर शायद हमारे जैनोभाई चोकेगे कि जैनधर्म मे नागतर्पण कैमा ? उन्हें जानना चाहिये कि हमारे जैनशास्त्र भण्डारो मे जहा एक ओर अमूल्य शास्त्ररल भरे है तो दूसरी ओर काचखण्ड भी रो है । आश्चर्य इस बात का है कि हमारे कुछ संस्कृत के धुरन्धर विद्वानो ने भी इन काचखण्डों को अपनाया है । जयपुर से पहिले अभिषेक पाठ सग्रह नाम से एक ग्र प्रकाशित हुआ था | उसमे जिन अभिषेक पाठों का संग्रह किया है उनके कुछ मुख्य रचयिताओ के नाम इस प्रकार हैं पूज्यपाद, गुण मद्र, सोमदेव, अभयनन्दि, गजाकुश, आशावर. अय्यपार्य, नेमिचन्द्र और इन्द्रनन्दी | यहाँ यह ध्यान मे रखना चाहिये कि पूज्यपाद, गुणभद्र, नेमिचन्द्र आदि नामवाले जो प्रसिद्ध आचार्य हमारे यहाँ हुए हैं के ये नही हैं । उन नाम के ये कोई दूसरे ही हैं । पूर्वोक्ति रचयिताओं मे से एक गजाकुश को छोड़कर बाकी सभी ने अपने २ अभिषेक पाठो मे नाग तर्पण लिखा है । प० आशाधर जी ने अपने बनाये "नित्य - महोद्योत ' नाम के अभिषेक पाठ मे नागतर्पण इस प्रकार लिखा है । " Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म में नाग तर्पण ] - १६३ उभात भोः षष्टिसहस्रनागाः क्षमाकामचार स्फुटवीर्यदर्पाः । 'प्रतप्यतानेन जिनाध्वरोवर्वी सेकात् सुधागर्वमृजामृतेन ॥४८॥ अर्थ-पृथ्वो पर यथेष्ट विवरने से जिनका पराक्रम प्रकट है ऐसे हे साठ हजार नागो । तुम प्रकट होओ। और जिन यज्ञ की भूमि मे तुम्हारे लिए सिंचन किए इस जल से जो कि अमृत-के गर्व को भी खर्व करने वाला है तुम तृप्त होगे। ऐसा कहकर ईशान दिशा मे जलाजलि देवे । इति नागतर्पणं । यहाँ यह मालम रहे कि-भूमिशुद्धि के लिए जो अभिमन्त्रित जल के छीटे दिए जाते हैं वह वर्णन तो आशाधर जी ने ऊपर श्लोक ४६ मे अलग ही कर दिया है । यहाँ खास तौर से नागो के लिए ही जल देने का कथन किया है । यही श्लोक आशाधर जी ने प्रतिष्ठासारोद्धार मे भी लिखा है। इन आशाधर जी से पहिले सोमदेव हुए उन्होने भी यशस्तिलक मे नागतर्पण का कथन इन शब्दो मे किया है रत्नाम्बुभि कुशकृशानुभिरात्तशुद्धी, मूमौ भुजगमपती नमृतरुपास्य ॥५३३॥ अर्थ पचरत्न रखे हुए जलपात्र के जल से और डाभ की अग्नि से पवित्र की हुई भूमि पर जल से नागेन्द्रो को तृप्त करके । ___ इन्होने साठ हजार की सख्या नही लिखी है । अन्य ग्रथकारो मे से किसी ने आशाधर का और किसी ने सोमदेव का Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] [ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अनुसरण किया है । यहाँ नागो का अर्थ सर्प नही है किन्तु नागकुमार देव है । नागकुमारी का वर्णन या तो भवनवासी निकाय के भेदो मे आता है या लवण समुद्र की ऊँची उठी जलराशि को थामने वाले वेलन्धर नागकुमारो मे आता है । इनमे से वेलन्धर नाग कुमारो की संख्या तो लोकानुयोगी ग्रथो मे कही भी साठ हजार देखने मे नही आई है। अलबत्ता भवनवासी नाग कुमारो के सामानिक देवो की मख्या राजवार्तिक मे अवश्य साठ हजार लिखी है । शायद इमौके आधार पर आशाधर ने नागो की सख्या साठ हजार लिखी हो । यहा के अमृत शब्द का अर्थ नित्यमहोद्योत की टीका मे श्रुत सागर ने जल किया है । नमिचन्द्रकृत अभिषेक पाठ मे अमृत की जगह स्पष्ट ही जल शब्द लिखा है अय्युपायं ने अपने अभिषेक पाठ के श्लोक ७ मे अमृत के स्थान मे शक्कर घृत लिखा है । यशस्तिलक की टीका मे प० कैलाशचदजी और प० जिनदास जी ने अमृत का अर्थ दुग्ध किया है । अभयनन्दिकृत लघुस्नपन के इलाक-६ की टीका से अमृत का अर्थ जल किया है । ॐ यहा विचारने की बात है कि - जैन सिद्धांत के अनुसार देव लोक के देवो का मानसिक आहार होता है । वे जल, घृत, शक्कर, दूध का आहार लेते नहीं हैं। तब उनके लिये ऐसा कथन इस श्लोक मे सरक्षणार्थ पाठ है वह हमारी समझ से अशुद्ध मालूम होता है उसकी जगह 'सतर्पणार्थं' पाठ होना चाहिये । टीकाकार भावशर्मा को अशुद्ध पाठ मिला इसीसे उसने खचखाच कर यह सुर्य की समति वैठाने का प्रयास किया है । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म मे नाग तर्पण ] करना कैसे सगत हो सकता है ? और यहाँ यह नागतर्पण को विधान किस प्रयोजन को लेकर किया गया है ? क्या इसलिये कि- वे जिनयज्ञ में विघ्न न करे ? मगर जैनागम के अनुसार तो देवगति के सभी देव जिनधर्मी होते है तव वे जिनयज्ञ में विघ्न करेगे भी क्यो ? और जो चीज उन्हें दी जा रही है वह उनके काम की न होने से वे विघ्न करते रुकेंगे भी क्यो यदि कहो कि - जैसे भगवान जिनेन्द्र क्षुधारहित है फिर भी हम उनकी पूजा नैवेद्य फेलादि से करते हैं वैसे ही यहां नागकुमार देवो के विषय में समझ लेना चाहिये। ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि भगवान की पूजा में 'द्रव्य चढाया जाता है यह उनके भोग के लिये नही चढाया जाता है । वह तो भक्ति से भेटस्वरूप है किन्तु यहाँ तो आशाधर ने नागकुमारो को तृप्त करने की बात लिखी है। इस प्रकार के विधिविधान एक तरह से बाल क्रीडा के समान मम पडते है । इस पर मनन शील विद्वानो को विचार करना चाहिये । ब्राह्मण ग्रंथो मे देवपितरो को जल देकर तृप्त करने को तर्पण कहा है। उसी तरह का यज्ञ यह नागतर्पण लिखा गया है । f [ १६५ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता नेमिचन्द्र का समय प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता नेमिचन्द्र हैं इन्होंने प्रतिष्ठातिलक से अपने वगका वर्णन उस प्रकार किया है -- 1 वीरसेन, जिनमेन, वादी सिंह और वादिराज इनके वश मे हस्तिम गृहाश्रमी हये । इन हस्तिमल्ल के टूल में परवादिमन मुनि हये | और भी कई हैं जिन्होंने दीक्षा ने जैनमार्ग की प्रभावना की । उसी कुल में लोकपाल द्विज गृहस्थाचार्य हुये जो चोल राजा के माथ अपने वधुवर्ग को लेकर कर्नाट देश में आये । उनके समयनाय नाम का तार्किक पुत्र हुआ । समयनाथ के आदिमल्ल, आदिमत्ल के वितामणि चितामणि के अनतवीर्य अनतवीर्य के पार्श्वनाथ, पाश्र्वनाथ के आदिनाथ । आदिनाथ के वैदिकोदड | वैदिकोदड के ब्रह्मदेव और ब्रह्मदेव के देवेन्द्र नामक पुत्र हुआ जो सहिताशास्त्रो मे निपुण या देवेन्द्र की भाय का नाम आदिदेवी था। यह आदिदेवी की विजयपार्य और श्रीमती की पुत्री थी । इस आदिदेवी के चद्रपार्य ब्रह्मसूरि और पार्श्वनाथ ये तीन सगे भाई थे। उस दंपति ( देवेन्द्र - आदिदेवी ) के तीन पुत्र हुये - आदिनाथ, नेमिचन्द्र और विजयम | आदिनाथ जिन सहिताशास्त्रों का पारगामी हुआ। इसके त्रैलोक्यनाथ, Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा तिलक के को नेरिचन्द्र का समय ] [ १६७ जिनच द्रादि विद्वान पुत्र हये । और विजयम ज्योतिष का पडित हुआ जिमका समतभद्र पुत्र साहित्य का विद्वान हआ। तथा नेभिचन्द्र, अभयचन्द्र उपाध्याय के पास पढकर तर्के व्याकरण का ज्ञाता हुआ । नेमिचन्द्र के दो पुत्र हुये- कल्याणनाथ और धर्मशेखर । दोनो ही महा विद्वान हये । नेमिचन्द्र ने सत्यशासन परीक्षा मुख्य प्रकरणादि शास्त्र रचे । राजसभाओ मे प्रतिवादियो को जीत कर जिसने जैनधम की प्रभावना की जिसको राजा द्वारा छत्र, चवर, पालकी भेट मे मिली । और जो स्थिर कदव नगर का रहने वाला है ऐसे नेमिचन्द्र ने अपने मामा ब्रह्मसूरि आदि वन्धुओ के अाग्रह से यह प्रतिष्ठातिलक ग्रथ वनाया है। इस पकार नेमिचन्द्र ने अपनी वेशावली तो विस्तृत लिख दो परन्तु वे किस साल संवत मे हुये यह लिखने को कृपा नही की। यह गृहस्थ थे, इन्होने उक्त प्रतिष्ठान थ आगाधरकृत प्रतिष्ठाशास्त्र को आधार बनाकर लिखा है । यद्यपि इन्होंने आशाधर का कही उल्लेख नही किया है किंतु दोनो मे इतना अधिक साम्य है कि उत्ते देखकर यह निसकोच कहा जा सकता हैं किन अकुरारोपण आदि कुछ विशेष प्रकरणो को छाडकर बाकी सारा का सारा न थ नेमिचन्द्रने आशाधर के ग्र थसे ज्यो का त्यो ले लिया है। सिर्फ दोनो मे शब्द रचना का ही अन्तर है, प्रायः अर्थ इकसार है । दोनो का मिलान करने से यह बात कोई भी ज न सकता है अतः उनके उदाहरण देने की मैं जरूरत नहीं समझता । किन्तु आशाधर प्रतिष्ठापाठ के कितने ही पद्य तो नेमिचन्द्र ने ज्यो के त्यो भी निये है। इससे स्पष्ट प्रकट होता है कि ये नेमिचन्द्र आशाधर के Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग ३ वाद हुये है। बाद में होने का दूमग हेतु यह है कि इन्होने अपने प्रतिष्ठातिलक के मगलाचरण मे इ द्रनंदि आदि कृत प्रतिष्ठाशास्त्रो के अनुसार कथन करने की बात कही है। और इद्रनंदि ने अपनी जिनसहिता मे आशाधरकृत सिद्वभक्तिपाठ को उद्घत किया है । तथा नेमिचद्र ने अपने प्रतिष्ठाग्रथ के १८३ परिच्छेद मे एकसधिसहिता के भी बहुत से श्लोक उद्धृत किये हैं। उधर एक सधि भी अपनी जिनसहिता के २० वें परिच्छेद में इन्द्रनदी का उल्लेख करते है। इन सब उल्लेखों से यही निश्चित होता है कि माशाधर के बाद इन्द्रनदी के बाद एकसधि और एक सधि के बाद नेमिचन्द्र हुए है। प० आशाधर जी वि० स १३०० तक जीवित थे यह नि नि है । अयंपार्य अपने बनाये "जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय" नामक प्रतिष्ठापाठ को वि० स० १३७६ मे पूर्ण करते हुये लिखते है किमैंने यह प्रतिष्ठान थ इन्द्रनर्दी, आशावर, हस्तिमल्ल और एक सधि के कथनो का सार लेकर बनाया हैं। इन्द्रनदि ने स्वरचित सहिता में एक जगह हस्तिमल्ल कर उल्लेख किया । (देखो उसका तीसरा परिच्छेद) किन्तु जनसिद्धातभास्कर भाग ५ किरण १ मे हस्लिमल्लकृत प्रतिष्ठाविधान की प्रशस्ति छपी है उसमे हस्तिमल्ल ने भी इन्द्रनदि का उल्लेख किया है। इससे, हस्तिमल्ल, और इन्द्रनदि दोनो समकालिक सिद्ध होने है। फलितार्थ यह हआ कि हस्तिमाल, इन्द्रनदि और एकसधि ये अतिम मन आशाधर के समय से लेकर वि० स० १३.६ के मध्य मे हुये है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता नेमिचन्द्र का समय ] [ १६६ उक्त प्रतिष्ठातिलक के पर्ता नेमिचन्द्र कब हुए ? अव हम इस पर विचार करते हैं। इन नेमिचन्द्र ने जो अपनी वंशावली दी है उसके अनुसार ब्रह्मसूरि रिश्ते मे इनके मामा लगते थे । मैमिचन्द्र ने हस्तिमल्ल के कुल मे होने वाले कोछपाल द्विज से लेकर अपने पिता देवेन्द्र तक करीब ६ पीढी का उल्लेख किया है। इन पीढियो का समय यदि दो सौ वर्ष भी मान लिया जाय तो नेमिचन्द्र का समय विक्रम की १६ वीं शताब्दि का पूर्वार्द्ध बनता है। किन्तु नेमिचन्द्र के समय में ही उनके मामा ब्रह्मसूरि हए हैं उन्होने भी प्रतिष्ठाग्राथ बनाया है उसमे वे लिखते हैं कि_ 'पांड्य देश मे गुडिपत्तन नगर के राजा पांडव नरेन्द्र थे । गोविद भट्ट यहीं के रहने वाले थे। उनके हस्तिमल्ल कों आदि लेकर छह पुत्र थे । हस्तिमल्ल के पुत्र का नाम पार्श्वपडित था। वह अपने बन्धुओ के साथ होयसल देश में जाकर रहने लगा था जिसकी राजधानी छत्रयपुरी थी। पार्श्वपडित के चन्द्रप, 'चन्द्रनाथ, और वैजय्य नामक तीन पुत्र थे। उनमे से चन्द्रनाथ अपने परिवार के साथ हमाचल मे जा बसा और दो भाई अन्य स्थानो को चले गए । चन्द्रप के पुत्र विजयेन्द्र हुआ और विजयेन्द्र के ब्रह्मसूरिं।" ब्रह्मसूरि के इस कथनानुसार हस्तिमल्ल उनके पितामह के पितामह थे । यदि एक एक पीढी के २५-२५ वर्ष गिन लिए जाये तो हस्तिमाल उनसे लगभग सौ वर्ष पहले के थे । इससे नेमिचन्द्र और ब्रह्मसूरि का समय विक्रम की १५ वीं शताब्दि का पूर्वार्द्ध सिद्ध हाता है । ऊरर हम १६ वीं सदी का पूर्वार्द्ध बता आये हैं । दोनो में एकमौ वर्ष का अन्तर है । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग १ यह अन्तर इस तरह दूर किया जा सकता है कि - नेमिचन्द्र ने जो वंशावली दी है उसमे वे अपना वराक्रम १० पीढी पूर्व मे होने वाले लोकपाल द्विज से शुरू करते है । और ब्रह्मसूरि अपनी वंशावली अपने से ४ पीढी पूर्व में होने वाले हम्तिमल्ल से शुरू करते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि नेमिचन्द्र ने हस्तिमल्ल से करीब एक मौ वर्ष पूर्व से अपनी खशावली शुरू की है । इस प्रकार यह अन्तर रफा होकर नेमिचन्द्र का समय विक्रम को १५ वी सदी का पूर्वार्द्ध हो ठीक रहता है और यही समय ब्रह्मसूरिका भी है । नेमिचन्द्र ने प्रशस्ति मे लोकपाल हस्तिमल्ल के हुआ तिखा है । इसका अर्थ यह नही समझना कि लोकपाल कुल मे हस्तिमन के बाद हुआ है । चुकि हस्तिनल्न एक विख्यात विद्वान हुये थे इसलिए नेमिचन्द्र ने हस्तिमन के पूर्वज लोकपाल आदि को हस्तिम के अन्वय मे होना लिख दिया है । क्योकि जिस वंश में कोई प्रसिद्ध पुरुष हो जाता है तो उसकी आगे पीछे पीढिये उसी के नाम के वश से बोली जाया करती है। यहा इतना जरूर समझ लेना कि नेमिचन्द्र और ब्रह्मसूरि दोनो समान वश में होते हुये भी जिस नान परंपरा मे नेमिचन्द्र हुये है उस सनान परंपरा मे न हस्सिम्हन हुगे और न ब्रह्मसूरि हो । अर्थात् नेमिचन्द्र और ब्रह्मसूरि दोनो के परदादो के परदादे आदि जुदे जुदे थे । "बाबू छोटेलालजी स्मृति ग्रंथ" मे डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री आरा वालो का "भट्टारकपुगीन जैनसस्कृत साहित्य की प्रवृत्तियाँ" नामक लेख प्रकाशित हुआ है । उसमे लेखक ने न मालूम इन नेमिचन्द्रको समय ( पृ० ११८ ) विक्रम की १३ वी Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा-तिलक के कर्ता ने मचन्द्र का समय ] [ १७१ सदी किस आधार से लिखा है ? आपने कुछ और भी न थकारों का समय यद्वातद्वा लिख दिया है। जैसे कि आपने भैरवपदमावतोकल्प आदि मत्रशास्त्रो के कर्ता मल्लिषेण का समय १३ वी शती लिखा है । यह बिल्कुल गलत है। इन मल्लिपेण ने महापुराण की रचना वि० सं०-११०४ मे पूर्ण की है । अतः ये ११ वी सदी के अत व १२ वी सदी के प्रारम्भ मे हये है। इसी तरह आपने वाग्भट्रालंकार के टीकाकार वादिराज को तोडानगर के राजा मानसिंह का मत्री और उनका समय वि० स-१४०६ लिखा है। यह भी ठीक नही है । उक्त वादिराजमानसिंह के नहीं रायसिंह के मत्री थे और उनका समय वि० की १० वी का पूर्वार्द्ध था। इन वादिराज के बडे भाई जगन्नाथ कवि भी बड़े विद्वान थे, जिन्होने चतुर्विशतिसधान, सुखनिधान और श्वेतांबरपराजय आदि अनेक ग्रंथ रचे थे। इन तीनो ग्रथो की प्रशस्तिये वीरसेवामन्दिर दिल्ली से प्रकाशित प्रशस्तिसग्रह के प्रथम भाग में छपी है। सुखनिधान ग्रथ में विदेहक्षेत्रीय श्रीपाल चक्रवति का कथानक है। यह कथा आदिपुराण मे जयकुमार के पूर्वभवो मे आई है। इस ग्रथ की रचना इन जगन्नाथ कवि ने मकलचन्द्र, सकलकीति (ये सकलकीर्ति प्रसिद्ध सकलकीर्ति से जुदे है) और पद्मकीर्ति आदिको की प्रेरणा से मालपुरा गांव मे को थी। ये खडेलवाल जैन सोगाणी गोत्रके थे, शाह पोमराज के पुत्र थे ओर भ० नरेन्द्रकीति के शिष्य थे। उक्त पद्म कीति-सकलकीति का समय भट्टारकसप्रदाय पुस्तक के पृ. -२०८ पर १८ की शती का प्रथन चरण लिखा है। यही समय वादिराज और जगन्नाथ का है। डा० नेभिचन्द्रजी शास्त्री ने शायद उक्त सकलकीति को १५ वी शती मे होने वाले प्रसिद्ध सकलकीति समझकर वादिराजकृत वाग्भट्टालंकार का टीकाकाल वि० स-१४२६ लिख Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ । [ * जैन निबन्ध रलावली भाग २ दिया हो ऐमा प्रतीत होता है । ओपने उपदेशरत्नमाला के कर्त्ता भट्टारक सकलभूपण का समय विक्रम की १५ वी शती लिखा है यह भी समीचीन नहीं है। स्वयं ग्रंथकार ने उपदेशरत्नमाला की समाप्ति का समय वि० सं० १६२७ दिया है । यथा सप्तविशत्यधिके षोडशशत वत्सरेषु विक्रमत । श्रावणमास शुक्ल पक्षे षष्ठ्यो कृतो ग्रंथ ॥२६५।। अत. सकलभूपण १७ वी गती के है । न कि १५ वीं गती के। अद्यावधितक बहेत सी ऐतिहाँ सेक सामग्री प्रकाश में आचुकी है इतने पर भी विहान लोग भूले कते है यह वेद की बात है। ★ *नोट - इसी तरह की- गलतियां विद्वपरिपद् के सन् ६८ के अध्यक्षीय भापर्ण (मुद्रित) मे की है देखो जैन मिभ ज्येष्ठज्द ४-२०२५. के अंक में । भावसेन ने विश्वतत्व प्रकाश तथा आशाधर के अध्यात्म रहस्य को अप्रकाशित बताया है किन्तु वे तो सन् ६% से कुछ वर्षों पहिले प्रकाशित हो चुके हैं । एक जगह पारने लिखा है-"जिसमे कथा वस्तु एक ही नरिक से संबद्ध हो वह नहाकाज्य कहा जाता है" किन्तु यह ठीक नही है ऐसें को तो चरित-काव्य कहते हैं क्योकि आपने स्वय आगे उसी लेख मे लिखा है कि एक व्यक्ति को मानकर लिखी गयी कथा कुतियां चरित काव्य मे रखी जा सकती हैं।" Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जिनवाणी को को भ्रमात्मक लेखोंसे बचाइये अहा । परमपावनी जिनेन्द्र की वाणी न होती तो अनादिकाल से भवन मे तापित प्राणियों का उद्धार कैसे होता ? इस जगत मे यथार्थ मार्ग दिखाने वाले हितकारी अगर कोई है तो ये वीतराग देवके वचन ही हैं । जैन ग्रन्थो का विवेचन किसी पाखडी कपाय कलुपित क्षुद्र बुद्धि आत्माओ द्वारा नही हुआ है किंतु उसकी मूल रचना निर्दोषी आगमाधिपति सर्वज्ञ द्वारा आविर्भूत हुई है । यही कारण है जो उसके कथन मे आज तक कोई किसी प्रकार की अयथार्थता दिखलाने मे कृतकार्य नही हो सका है। प्रस्तुत उसकी जितनी ही जाच पडताल की जाती है वह असली सुवर्ण की तरह अधिकाधिक उज्ज्वल दिखलाई देने लगता है । किन्तु हमे लिखते वडा ही दुख होता है कि वही जगदुद्धारकर्त्री पवित्र जिनवाणी आज हमारे ही पडितो द्वारा विकृत की जा रही है । जिसका कुछ पता आपको आगे इसी लेख मे मिलेगा और यह देखकर और भी अधिक खेद होता है कि आजतक उसके प्रतिबंध का कोई उपाय समाज की ओर से नही किया गया है । बल्कि समाज के किसी भी व्यक्ति ने इस Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ ओर ध्यान तक नही दिलाया है। इसलिये आज मैंने इस पर अपनी लेखनी उठाना उचित समझा है । हमारे यहा प्राचीन जैन ग्रथ प्रायः संस्कृत प्राकृत भाषा मे मिलते हैं जिनका रसास्वादन तद्भापा विज्ञ ही कर सकते है किन्तु अधिकतर जनता संस्कृत प्राकृतज्ञ नही है । अत उन्हे भी जैनधर्म की शिक्षा मिलती रहे इसी उद्देश्य से पहिले के विद्वान - जयचन्दजी, दौलतरामजी, टोडरमलजी सदासुखजी आदिको ने संस्कृत प्राकृतमय आगमो की हिन्दी वचनिकाए बनाई थी । उनका किया हुआ प्रयास सफल भी खूब हुआ है । आज सर्वसाधारण में जो गहन जैन सिद्धांतो की कुछ २ चर्चा सुन पडती है यह श्रेय उन्ही को है । उसी सदुद्देश्य को लेकर वर्तमान के कतिपय संस्कृत - प्राकृतज्ञ विद्वान भी आये साल जैन ग्रयो का अनुवाद बना २ कर प्रकाशित किया करते है । लेकिन उनमे और इनमे वडा अन्तर है । तब के विद्वान इतने नाम के भूखे नही थे जितने कि अब हैं । पहिले के विद्वानो के किये अनुवाद देखने से मालूम होता है कि उन्हे उत्सूत्र कथन करने मे वडा भय लगता रहता था । वे विद्वान् शक्तिभर मूलग्र थ के भाव को अन्यथापन से बचाये रखने का ध्यान रखते थे यहा तक कि जो बात समझ मे नही आती थी तो फौरन अपनी अल्पज्ञता दिखाकर उस स्थल को वहु ज्ञानी से समझ लेने की कह देते थे जैसा कि प० टोडरमलजी ने यत्रतत्र त्रिलोकसार मे लिखा है । किन्तु अबके विद्वान् ऐसा करना प्राय उचित नही समझते । अपनी अल्पज्ञता स्वय प्रकट करना निज के गौरव की भारी हानि समझते है । इन विद्वानो के अनुवादों मे बहुत कम अनुवाद ऐसे मिलेंगे जिनमे Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणीको भ्रमात्मक लेखो से बचाइये 1 [ १७५ कहीं न कही अर्थ का अनर्थ न हुआ हो। इसका कारण है शास्त्रीय विषयो का अल्प परिचय । किसी जैन ग्रन्थ का अनुवाद अच्छा क्याकरण और सस्कृत का प्रकाड ज्ञाता है इतने पर ही उसका अनुवाद ठीक नहीं होजाता किन्तु तद् ग्रन्थ विषयक परिज्ञान होना भी जरूरी है तभी अनुवाद मे यथार्थता आ 'सकती है। नीचे हम कुछ ऐसे विद्वानो के अनुवादो में अयथार्थता दिखलाते हैं जो जैन समाज मे गणनीय समझे जाते है पंडित गजाधरलालजी और हरिवंशपुराण। (१) मध्यलोक के नीचे एक तनुवातवलय है। पृष्ठ ५३ । (२) हैमवत, हरि, विदेह....ये मेरुपर्वत की उत्तर दिशा मे है । पृ० ५३ । (३) हर एक मेरुपर्वत पर सोलह २ वक्षारगिरि है। पृ० ६४ । (४) मांस, मदिरा, मधु, जुमा, जिन वृक्षो से दूध झरता हो उनके फलो का खाना, वेश्या, पर स्त्री, इन सात व्यसनो का काल की मर्यादा लेकर त्याग करना नियम कहलाता है। पृ० २०६। (५) कृष्ण ने बलभद्र के साथ अष्टम भक्त (चौला) धारण किया, पृ० ३६७ । ऊपर लिखित नं. १ से न०३ तक का वर्णन जिसे जैनधर्म के क्षेत्र ज्ञान का थोड़ा भी परिचय है वह भी नही लिख Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ सकता । न० ४ का निरूपण तो बिलकुल ही चारित्र मे शैथिल्य लाने वाला है | क्या मास, मदिरा जैसी चीजो का नियम रूप से त्याग कराने का उपदेश किसी जैनाचार्य का हो सकता है । कभी नही, इनका परित्याग तो यमरूपेण हुआ करता है । पाच उदवर तीन मकार का त्याग तो श्रावक के मुख्य रूप से हाता है । न० ५ मे अष्टम भक्त का अर्थ 'चौला " करना गलत है । 'तेला' लिखना चाहिये जैसा कि इसी हरिवशपुराण के पृष्ठ ३६१ पर लिखा मिलता है कि - 'उपवास विधि मे चतुर्थक शब्द से उपवास, पष्ट शब्द से वेला, और अष्टम शब्द से तेला लिया गया है ।' अफसोस है आपको यह भी स्मरण नही रहा । अगर हमारे पास मूल ग्रंथ होता तो उसके श्लोक देकर उक्त अनुवादको सदोप सिद्ध करते तथापि प० दौलतरामजीकृत वचनिका जो इससे बहुत पहिले की बनी हुई है उसमे से इन्ही स्थलो को हम नीचे देते है । पाठक | देखेंगे कि इसमे कितना सुमगत लिखा है । ( १ ) यह मध्य लोक मध्यतनुवातवलय के अतपर्यंत तिष्ठा है । पृ० ७४ । (२) सो ऐरावत तो सुमेरु की उत्तर ओर है अर भरतक्षेत्र सुमेरु की दक्षिण ओर है । पृ० ७५ । (३) अथानतर एक मेरु सम्वन्धी सोलावक्षारगिरि.... पृ० ८८ । H (४) अर मास मद्य मधु उदबरारादि पच फलो का त्याग अर जिन वृक्षो मे दूध झरे जवू करोदा आदि उनके फलो का त्याग अर जुवा, वेश्या, चोरी, परनारी, आखेट इत्यादि पापो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० आशाधरजी का विचित्र विवेचन ] [ २०१ आश्चर्य तो यह है कि साधारण ही नही कुछ विशेषज्ञ भी ऐसे हैं जो प० आशाधरजीके परमभक्त हैं और इस ग्रंथको यहातक चिपटाये बैठे हैं कि इसे विद्यालयो के पठनक्रममे भी रख दिया है और इस तरह विद्यार्थियोंके लिये उनके प्रारभिक जीवन मे ही उन्मार्गका बीजारोपण किया है। अगर ऐसा ग्रथ छात्रोको व्युत्पन्न बनाना है । तो भी कुछ कामका नही है । क्योकि - 'मणिना भूषितः सर्प किमसो न भयंकरः ' खेद है कि जिस जैनधर्ममे आप्त तककी परीक्षा की जाती है उसीमे ऐसे कथन भी आगमके नामसे आंख मीचकर माने जाते है ! नोट:- इस लेख के लिए वसुनदि श्रावकाचार को प्रस्तावना पृष्ठ ३१ तथा जैम बोधक और सिद्धात वर्ष ५१ बैंक १२ (अप्रेल सन् ३५) भी देखिये | --- Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ समाधिमरणके अवसर में मुनिदीक्षा जब किमी ब्रह्मचारी मादि श्रावक की जिस दिन मृत्यु होने को होती है तो प्राय आज-कल उसे नग्न लिंग धारण कराकर और उमका गृहस्थावस्था का नाम भी बदलकर मुनित्व का द्योतक दूसरा ही कोई नाम रखकर पूर्णत उसे मुनिहीं मानलिया जाता है और मृत्यु के बाद उसको उसी नये नाम से पुकारा भी जाता है । परन्तु क्या यह प्रथा वर्तमान मे ही देखने मे आ रही है या पहिले भी थी? और इसका किसी समीचीन आगम से समर्थन भी होता है या नही, इस पर विचार होना आवश्यक है। यह नही हो सकता कि आजकल के साधु स्वैच्छा से जो कुछ कर दें वही प्रमाण मान-लिया जावे। अतिम समय में सावधक्रियाओ का त्याग कर सब परिग्रहो का छोड देना यह जुदी चीज है और मुनि बनना जुदी चीज है । मुनि बनने के लिये गुरू से दीक्षा लेनी पड़ती है और दीक्षा मे प्रथम ही लोच करना जरूरी होता है जिसे आजकल अतिम समय मे मुनि बनने वाले नही करते है। वे प्राचीन मर्यादा का भग करते हैं। मरण के अवसर मे मुनि बनने वालो को पंच समितियो षट् आवश्यक, स्थिति, भोजन, अस्नान, अदतधावन, आदि मूल गुणो के पालन करने का अवसर ही Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणके अवसर मे मुनिदीक्षा ] [ २०३ नही आता है। परीषहो का सहना, तपस्या आदि भी उन्हे नही करनी पड़ती है। फिर भी उन्हे मुनि मान लेना यह तो एक तरह से मुनित्व की विडवना है। यदि कहो कि किसी की मुनि दीक्षा लिये बाद दस पाच घटो मे ही सर्प विष आदि से मृत्यु हो जाये तो क्या वह मुनि नही माना जा सकता? क्योकि उसको भी मुनि के मूलगुणो के पालने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ है । उत्तर इसका यह है कि उसमे और इसमे अतर है। उसको तो यह पता नही था कि-मेरी मृत्यु आज ही हो जायगी इसलिये उसके तो मुनि बनते वक्त यह सकल्प रहता है कि-मुझे मूलगुणो का पालन करते हुये परीषहे सहनी हैं एव तपस्या करके निर्जरा करनी है इसलिये वह तो मुनि माने जाने के योग्य है किन्तु दूसरा मृत्यु की निकटता के वक्त मुनि बनने वाला जब यह देखता है कि-मैं अव मरने ही वाला हू, यह भोगसामग्री व धन कुटुम्बादि सब थोडी ही देर मे वैसे ही छूट रहे हैं तो इनको मैं ही क्यो न त्यागदू जिससे मैं मुनि माना जाने लगू गा और उससे मेरा वेडा भी पार हो जाय तो इसके सिवा और कल्याण का सरल मार्ग भी क्या हो सकता है ? ऐसा विचार कर वह मुनि बनता है । इस प्रकार दोनो की परिणति मे बडा अतर है। दूसरी बात यह है कि-मुनि के भी जब यही बाछा रहती है कि-उसकी मृत्यु समाधि मरण पूर्वक हो तो श्रावक को अतिम समय मे मुनि बनने की क्या आवश्यकता है ? उसका भी लक्ष्य उस वक्त सल्लेखनापूर्वक मरण करने का ही होना चाहिये न कि मुनि बनने का। अपने जीवन मे चिरकाल तक अणुव्रतो और महाव्रतो का पालना भी तभी सफल होता है जब समाधिमरण से देहात हो । ऐसी हालत मे मरणकाल मे मुनि Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ दीक्षा लेना निरुपयोगी है। रत्नकरड श्रावकाचारमे कहा है कि अंतक्रियाधिकरणं तप फलं सकलशिन स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ॥२॥ अधिकार ५ अर्थ-तपश्चर्या का फल समाधिमरण पर आश्रित है ऐसा सर्वज्ञ भगवान् कहते है। इसलिये अतसमय में अपनी सारी शक्ति समाधिमरण के अनुष्ठान मे लगानी चाहिये । आदि पुराण मे राजा महावल की कथा में लिखा है 'महाबल ने अवधिज्ञानी मुनि से अपनी शेप आयु एक मास की जानकर ममाधिमरण मे चित्त लगाया। आठ दिन तक तो उसने अपने घर के चैत्यालय में महापूजा की। तदनतर उसने सिद्धवरकूट चैत्यालय जा, वहां सिद्धप्रतिमा की पूजाकर सन्यास धारण किया। उसने गुरू की साक्षी से जीवनपर्यंत के लिये आहार, पानी, देहकी ममता, व बाह्याभ्यतर परिग्रहो का त्याग कर दिया। उस वक्त वह मुनि के समान मालूम पडता था। उसने प्रायोपगमन सन्यास लिया था। इस प्रकार वह २२ दिन तक सल्लेखना विधि मे रहकर अत मे प्राण त्यागकर दूसरे स्वर्ग मे ललिताग देव हुआ।" इस कथा मे भी महावल के मुनि बनने की बात न लिखकर यही लिखा है कि 'वह मुनिके समान जान पड़ता था।' (देखो पर्व ५ का श्लोक २३२) आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण के पर्व ३६ श्लोक १६१ मे ऐसा लिखा है कि-"आचार्य को चाहिये कि-वह किसी को Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणके अवसर मे मुनिदीक्षा ] [ २०५ मुनि दीक्षा देवे तो शुभ महर्त देखकर देवे । अन्यथा उस आचार्य ही को सघवाह्य कर देना चाहिये।" इस कथन से मृत्यु समय मे मनि दीक्षा देने का स्पष्ट निषेध सिद्ध होता है। क्योकि अव्वल तो दीक्षा लेने वाले का मरण समय होना यही अशुभ है। दूसरे उस दिन सभी को शुभ मुहूर्त का संयोग मिल जाये यह भी संभव नहीं है। अतसमय मे मुनि दीक्षा लेने देने का कथन जैन-शास्त्रो मैं कही नही है। इस विषय का वर्णन शास्त्रो मे जिस ढग से किया है उसका मतलव लोगो ने भ्रम से मुनि दीक्षा लेना समझ लिया है। जब कि वैसा मतलब वहा के कथन का निकलता नहीं है। इस प्रकार का वर्णन प० आशाधरजी कृत सागारधर्मामृत के ८ वें अध्याय में निम्न प्रकार पाया जाता है विस्थानदोषयुक्तायाप्यापवादिकलिगिने । महावताथिने दद्याल्लिगमौत्सगिक तदा ॥३५॥ निर्यापके समर्प्य स्वं भक्त्यारोप्य महावनम् । निश्चेलो भावयेदन्यस्त्वनारोपितमेव तत् ॥४४॥ अर्थ-अडकोश और लिगेन्द्रिय संबधी तीन दोष युक्त भी हो तथापि आपवादिक लिंगी कहिये ११ वी प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक जो कि आर्य कहलाता है वह यदि महाव्रत का अर्थी हो तो उसे समाधिमरण के अवसर मे आचार्य मुनि के ४ (लिगोचिह्नो) मे से एक नग्नलिंग को देवे । अर्थात् वस्त्र छुडावर उसको नग्न बनादे। जब वह निश्चेल हो जाये तो अपने को भक्ति से निर्यापक Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ कहिये समाधिमरण कराने वाले आचार्य के अधीन करके और उनके वचनोसे अपने मे महाव्रतो की भावना भावे । यह उत्कृष्ट श्रावक यदि लज्जा आदि के वश से समाधिमरण के वक्त वस्त्र त्याग न कर सके तो वह अपने मे महाव्रतो का आरोपण नहीं कर सकता है। क्योकि सग्रथ को महाव्रतो के आरोपण करने का अधिकार नहीं है। उसे बिना आरोपित किये ही महाव्रतो की भावना भानी चाहिये । भगवती आराधना की गाथा ८० मे नग्नत्व, लौच, पिच्छिका धारण, और शरीर सस्कार हीनता ऐसे ४ चिह्न (लिंग) मुनि के बताये है । इस प्रकरण मे आशाधर ने श्लो ३८ मे ऐसा कहा है कि औत्सगिकमन्यद्वा लिंगमुक्त जिन. स्त्रियाः। पुंवत्तदिष्यते मत्युकाले स्वल्पीकृतोपधे ॥३८॥ अर्थ-जिनेन्द्रो ने स्त्री के जो औत्सर्गिक और आपवादिक खिंग कहा है। उसमे औत्सर्गिक लिंग श्रुतज्ञो ने मृत्युकाल मे पुरुप की तरह एकातवसतिका आदि सामग्री के होने पर वस्त्र मात्र को भी त्याग देने वाली क्ष ल्लिका के लिये माना है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार औत्सर्गिक लिंग धारण करने वाले पुरुप के मरण समय मे औत्सगिक लिंग ही कहा है । और आपवादिक लिंग वाले के लिये ऊपर जैसा कपन किया है वैसा ही स्त्री के लिये भी समझना चाहिये। अर्थात् योग्य स्थान मिलने पर आर्यिका नग्न लिंग धारण करे और क्षु ल्लिका भी नग्न लिंग धारण करे। किन्तु क्ष ल्लिका यदि समृद्धिशाली घर Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण के अवसर में मुनिदीक्षा ] [ २०७ की हो यानी राजघराने आदि की हो और नन्न होने मे उसे शर्मं आती हो तो वह नग्न न होकर क्षुल्लिका के वेप मे ही रह कर समाधि मरण करे । " ऊपर के श्लोको मे क्षुल्लक पुरुष के लिंग धारण का कथन किया है और इस श्लोक मे स्त्री क्ष ल्लिका के लिये कथन किया है । श्लोक में प्रयुक्त "स्वल्पीकृतोपधे वाक्य का अर्थ यहां क्षुल्लिका मालम पडता है । प० आशाधर जी ने इसी कथन को भगवती आराधना की गाथा ८१ की अपनी मूलाराधना टीका में निम्न प्रकार किया है। “स्त्रियां अपि औत्सगिकं आगमेऽभिहित, परिग्रह मल्पं कुर्वत्या इति योज्यं । औत्सर्गिक तपस्विनीना, शाटकमात्र परिग्रहेऽपि तत्र ममत्वपरित्यागादुपचारतो नैर्ग्रन्थ्य व्यवहरणानुमरणात् । आपवादिक श्राविकाणा तथा विधममत्व परित्यागाभावादुपचारतोऽपि नै नभ्यव्यवहारानवतारात् । तत्र सन्यास काले लिंग तपस्विनी नामयोग्यस्थाने प्राक्तन इतरासा पुसामिवेति योज्यम् । इदमंत्र तात्पर्यं - तपस्विनी मृत्युकाले योग्ये स्थाने वस्त्रमात्रमपि त्यजति । अन्या तू यदि योग्य स्थान लभते, यदि च महद्धिका सलज्जा मिथ्यात्त्व प्रचुर ज्ञातिश्च न तदा 'पुवद्वस्त्रमपि मुचति | नो चेत् प्रातिगेनैव म्रियते ।" अर्थ - आगम में स्त्री के भी उत्सर्ग लिंग वताया है वह अल्पपरिग्रहवाली श्राविका (क्ष ल्लिका) के सत्यासकाल मे बताया है। आयिकाओ के तो वैसे ही भीत्सर्गिक लिंग होता है । क्योकि उनके साडी मात्र मे भी भ्रमत्व न होने से उपचार से उनमें निर्यस्थता का व्यवहार है। जबकि क्षुल्लिका Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ श्राविकाओ के उस प्रकार से ममत्व का त्याग नही होता इसलिये उनमे उपचार से भी निर्ग्रन्थता का व्यवहार नही है । अत उनके आपवादिक लिंग होता है । सन्यासकाल मे योग्य स्थान आदि न मिले तो आर्थिकाओ के पूर्वकालीन लिंग ही रहता है । तथा चल्लिकाओ के सन्यासकाल मे क्षुल्लक पुरुषो की तरह उत्सर्ग लिंग और अपवाद लिंग दोनो होते है । तात्पर्य यह है कि - आर्यिका मृत्युकाल मे योग्य स्थान के मिलने पर वस्त्र मात्र को भी त्याग देती है और क्ष ुल्लिका योग्य स्थान मिलने पर यदि महद्धिका, सलज्जा और कट्टर मिथ्यात्वी जाति की न हो तो वह भी क्षुल्लक पुरुष की तरह वस्त्रो को त्याग कर नग्न हो जाती है । और यदि वह सलज्जा आदि हो तो समाधि मरण के समय मे अपने पूर्वलिंग को धारण की हुई ही मरती है ।" क्षुल्लिका वह कहलाती है जो आर्यिका से कुछ अधिक वस्त्र रखती है और जितना रखती है उतने मे भी उसके ममत्व भाव रहता है मस्तक के वाल केची आदि से उतरवाती है । उसे क्षुल्लक पुरुष के स्थानापन्न समझनी चाहिये। उसकी गणना श्राविकाओ मे की जाती है । और आर्यिका के अपनी माडी मे ममत्व नही होता इसलिये वह सवस्त्रा होकर भी मुनि के स्थानापन्न समझी जाती है और इसी से शास्त्रो में उसके उपचार से महाव्रत माना है । इन उपर्युक्त उल्लेख से यही प्रगट होता है कि - उत्कृष्ट श्रावको ( क्षुल्लको ) के लिये समाधिमरण के अवसर मे नग्न हो जाने की शास्त्राज्ञा है । जिससे कि उनमें महाव्रतो की स्थापना करके उन्हे आरोपित महाव्रती बना सके । इसका अर्थ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण के अवसर में मुनिदीक्षा ] [ २०६ मुनि दीक्षा नही है । क्योकि ऐसा करना तो आर्यिका व क्ष ुल्लिका श्राविका के लिये भी लिखा है तो क्या नग्न हो जाने से इनकी भी मुनि दीक्षा मान ली जावे ? और तब क्या उनके छठा गुणस्यान सनझा जावे ? नग्न हो जाना मात्र कोई मुनि दीक्षा नही है। मुनि दीक्षा में लौंच कराया जाता है, पिच्छिका पकडाई जाती है । पर यहा ऐसा कुछ नहीं लिखा है । न यहा उनको मुनि नाम से ही लिखा है । तब यह कैसे माना जावे कि समाधिमरण के वक्त मे क्षुल्लक को मुनि दीक्षा देने का विधान है । यदि कहो कि क्षुल्लक के लौंच पिच्छी तो पहिले से ही चली आ रही है जिससे नही लिखा है। इसका उत्तर यह है कि भले ही पहिले से चनी आवे तब भी मुनि दीक्षा के वक्त भी लौंचादि करा कर ही दीक्षा दिये जाने का नियम है । और सभी क्षुल्लक लौंच करें ही ऐसी भी शास्त्राज्ञा नही है । इसलिये यह भी नही कह सकते कि क्षुल्लक के लोच पहिले ही से चला आ रहा है । यह विचारने के योग्य है कि उक्त श्लोक ४४ मे क्षुल्लक मे महाव्रती का आरोप करना लिखा है । इस आरोप शब्द पर भी ध्यान देना चाहिये । रत्नकरड श्रावकाचार के 'आरोप ये महाव्रतमामरणस्थायि नि. शेषम् ।। १२५ ।। पद्य में भी महाव्रतो का आरोप करना ही लिखा है । मेधावी -- श्रावकाचार मे (अधिकार १० श्लो० ५४ ) तथा चामुण्डराय - कृत चारित्रसार मे भी आरोप ही लिखा है । सभी ग्रन्थो में एक आरोप के सिवा दूसरा शब्द प्रयोग न करने में भी कोई रहस्य है । और इससे यही प्रतिभासित होता है कि - सन्यास काल में नग्न होने का अर्थ मुनि बनने का नही है । जिस पुरुष को कामेन्द्रिय मे चर्मरहितत्व आदि दोष होते है उसको मुनि दीक्षा देने का आगम मे निषेध किया है । उस प्रकार के Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ दोप वाले क्षुल्लक को भी ऊपर उद्धृत श्लोक ३५ मे सन्यास काल मे नग्नलिंग दिया गया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि - यहा की इस नग्नता का मुनिदीक्षा से कोई सम्बन्ध नही है | चारित्रसार मे लिखा है कि गूढ ब्रह्मचारी नग्न वेप मे रहकर ही विद्याध्ययन करता है। इसलिये सभी जगह नग्न हो जाने का अर्थ मुनि बनना नही है । सागराधर्मामृत के इसी वें अध्याय के अन्त मे आराधक के उत्तम, मध्यम, जघन्य तीन भेद करके उनकी आराधनाओ का फल बताते हुए लिखा है कि - " उत्तम आराधक मुनि उसी भव मे मोक्ष जाता है । मध्यम आराधक मुनि इन्द्रादि पद को प्राप्त होता है । और वर्तमान काल के मुनि जो कि जघन्य आराधक है वे आठवे भव मे मोक्ष पाते हैं । इतना कथन किये वाद आगे आशा धर जो लिखते है कि यह तो मुनियों की आराधना अर्थात् समाधिमरण का फल बताया । अव श्रावको की आराधना का फल बताते हैं । जो कि श्रमणलिंग धारण कर समाधिमरण करते है । इस कथन से यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि समाधिमरण के समय मे जो श्रावक नग्न लिंग धारण करके आरोपित महाव्रती बनते है उनको आशाधरजी ने मुनि नही माना है । यहा यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आशाधर ने जो यहा नग्नलिंग धारणकर आरोपितमहाव्रती बनने की बात लिखी हैं । वह भी आपवादिकलगी कहिये क्षुल्लक के लिये लिखी है न कि ७वी प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी आदि के लिये । पं० मेघावी ने भी स्वरचित धर्मसंग्रह श्रावकाचार के वे Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरणके अवसर में मुनिदीक्षा ] [ ૨૧૧ अध्याय में उत्कृष्ट श्रावक को अपवादलिगी कहा है । यषा उत्कृष्टः श्रावको य प्राक्क्षुल्लोऽवेव सूचित.। स चापवालिंगी च वानप्रस्थोऽपि नामत ॥ २८० ॥ अर्थ-उत्कृष्ट श्रावक जिसे कि पहिले इस ग्रन्थ मे क्षुल्लक नाम से सूचित किया है उसीका नाम अपवादलिंगी और वानप्रस्थ भी है। इस प्रकार ५० आशाधरजी के उक्त विवेचन से यही फलितार्थ निकलता है कि-जिस श्रावक को समाधिमरण के अवसर मे नग्नलिंग दिया जाता है वह ११वी प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक होता है और वह आरोपित महाव्रती माना जाता है मुनि नही। उस समय की नग्नता मुनि अवस्था की नहीं है। किंतु सन्यास अवस्था को है । ऐसा समझना चाहिये। इसलिये आजकल जो ११ वी प्रतिमाधारी ही नही सातवी प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी तक को भी समाधिमरण के समय मे साक्षात् मुनि बनाकर व उसका नाम ही बदलकर मुनिपने का नाम रख दिया जाता है यह सब शास्त्र सम्मत नहीं है। मनमानी है। मैंने यह लेख मननशील विद्वानो के विचारार्थ प्रस्तुत किया है। मेरा लिखना कहाँ तक सही है इसका निर्णय वे करेंगे। निर्णय करते समय यह ख्याल रखेंगे कि-आशाधर ने समाधिमरण के इस प्रकरण मे नग्नलिंग की चर्चा की है, न कि मुनि होने की। क्योकि यहा इसीके साथ मे आयिका व श्राविका के सम्बन्ध मे भी नग्नता का कथन किया है। इससे यही सिद्ध होता है कि यहा जो वर्णन किया है वह नग्नलिंग का वर्णन किया है मुनि होने का वर्णन नहीं Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ किया है । अत उसका अभिप्राय मुनिदीक्षा समझना उचित नही है । नग्न हुये वाद भी उसको महाव्रत देने की बात नहीं लिखी है । ऊपर उद्धृत आशाधर के ४४वें श्लोक पर ध्यान दीजिये | उसमे वह निर्यापक के वचनों से अपने मे महाव्रतो का आरोपण करके महाव्रतो की भावना भात्रे, ऐसा लिखा है । इसका तापर्य यह हुआ कि वह नग्न हुये वाद 'में महाव्रती है' ऐसी कल्पना कर लेते । साक्षात् महाव्रती मुनि अपने को न माने । रत्नकर्ड श्रावकाचार के उक्त उद्धरण मे आये "आरोपयेत्" की व्याख्या प्रमाचन्द्र ने भी महाव्रतो की स्थापना करना की है। धारण करना अर्थ नही किया है। 25 आजकल आधुनिक मुनियों की मूर्तिया बनने का रिवाज चानू हो गया है मानो जैसे तीर्थकर मूर्तियो से ऊब गये हो - यह सब हमारे अविवेक का परिणाम है। जिन मूर्ति और जिन मन्दिर के वजाय अब तो मुनि मूर्ति ओर मुनि-मन्दिर का युग आ गया है। इस युग प्रवाहमे सब डुबकी लगाना चाहते हैं नई नई होशियारी - कलाबाजी धर्म में भी प्रविष्ट हो गई है अब तो कोई भी जैनी बिना मुनिपद के मरने वाला ही नही इसके लिये मुनिदीक्षा की केशलोच तपस्यादि की भी कोई झझट तकलीफ नही अन्त समय में झट से परिवार के लोग मुनि बना देंगे और सागरान्त नाम रखकर फिर उन मुनि की फोटूए, पूजायें, स्तोत्र, चालीसा, समाधिस्थल, मूर्तिया बना देंगे। गरीव हो चाहे अमीर इसमे कोई क्यों पीछे रहेगा सब अपने दादा पिता-भाई मृतियाँ बनाकर जगह-२ भगवान की जगह सबके रजनीश आदि ४० करीव नाना-ममा आदि परिजनो की छोटी बडी मन्दिरो मे विराजमान कर देंगे फिर तो परिजन ही पूजे जाने लगेंगे। जब जगत में भगवान हो गये तो जंनी ही क्यों पीछे रहने लगे । अभी पंचम काल (कलिकाल ) के २१ हजार वर्ष मे से सिर्फ २ || हजार वर्ष अभी से इसका रंग चढ़ने लगा है । ही बीते हैं Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातंत्र व्याकरण के निर्माता कौन है ? इस ग्रन्थ में संस्कृत-व्याकरण का विषय ऐसे ढग से गुफित किया गया है जो न अधिक विस्तृत और न अधिक सक्षिप्त ही कहा जा सकता है। साथ ही क्लिप्ट भी नहीं है । व्याकरण की मध्यमरूप से शिक्षा पाने के लिये यह ग्रन्थ बहुत ही उच्चकोटि का है। वर्तमान मे इसका विशेष प्रचार नही है । सभव है पहिले किसी समय इसका अच्छा प्रचार रहा हो । यह बात तो हमारी बाल्यावस्था मे भी थी कि हमारे इधर इसका सधिपाठ अपभ्रंशरूप से विद्यार्थियो को कठस्थ कराया जाता था। और जिसको "सीधा" के नाम से बोला करते थे। इस ग्रन्थ को "कात्तत्र" के अलावा "कौमार" और "कालापक" के नाम से भी कहते हैं। इसके कर्ता कोई 'शर्ववर्मा" हैं। किन्तु वे जैन थे या जैनेतर यह अभी विवादग्रस्त है। महाकवि सोमदेव भट्ट-रचित "कथासरित्स गर" मे इस ग्रन्थ की उत्पत्ति की कथा मिलती है। उससे इसका निर्माता अजैन सिद्ध होता है । वह कथा उसके प्रथम लवक षष्ठ तरग श्लोक १०७ वे से लेकर सातवी तरंग के श्लोक ११ वे तक है। उसका साराश पाठको की जानकारी के लिये यहा लिख दिया जाता है। "एक समय राजा सातवाहन वसत के उत्सव मे रानियो के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। उस बीच मे एक Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ रानी ने संस्कृत मे राजा को कहा " हे नाथ मोदकैस्ताडय" । सुनकर राजा ने वह लड्डू मगवाये । तव वह रानी हंसकर वोली- हे राजन् यहा जल क्रीडा मे मोदको का क्या काम ? मैंने तो आप से यह कहा था कि "हमे जल से मत ताडना, करो" आप 'मा' शब्द और 'उदक' शब्द की सधि भी नही जानते है और मौके को भी नही समझते है । उस समय राजा की और रानियो ने हसो की । इससे राजा वडा लज्जित हुआ। वह जलक्रीडा छोड अपमान से खेदित हो राजमहल मे चला गया । वहा वह मौन पकड के चिन्तातुर सा रहने लगा । शर्ववर्मा और गुणाढ्य इन दो मंत्रियो ने राजा से बातें करना चाहा पर राजा बोला नही । तव शर्ववर्मा ने राजा का मोनभग कराने के अभिप्राय से एक चौका देनेवाली बात कही कि मुझे रात्रि को एक स्वप्न हुआ है - जिसका फल यह है कि सरस्वती आप के मुख मे प्रवेश कर गई है । यह सुन कर राजा बोल उठा कि तुम बताओ मनुष्य प्रयत्न करे तो कितने दिनो मे पण्डित हो सकता है ? म ुझे पाण्डित्य के बिना यह राज्यलक्ष्मी अच्छी नही मातृम होती उत्तर मे गुणाढ्य ने कहा- व्याकरण का ज्ञान मनुष्य को बारह वर्ष मे होता है परन्तु आपको मैं छ. वर्ष मे ही सिखा दूंगा। वीच ही मे बात काटकर ईर्ष्या से शर्ववर्मा ने कहा सुखी पुरुप इतना श्रम कैसे कर सकता है ? हे राजन् | मैं आपको छः हो मास मे व्याकरण सिखा सकता हू । यह सुन कर गुणाढ्य क्रोधित हो बोला- जो तुम छ मास में राजा को व्याकरण सिखा दो तो मैं संस्कृत प्राकृत और अपने देश की बोली ये तीनो भाषाये जिन्हे कि मनुष्य बोला करते है बोलना छोड़ दूंगा । तव शर्ववर्मा ने कहा जो मैं छ महीने मे इन्हे व्याकरण न पढादू तो बारह वर्ष तक तुम्हारी खड़ाऊँ Bandcamcomm Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ कात व्याकरण के निर्माता कौन है ] कै मह क अपने सिर पर रक्ख । इस तरह दोनो प्रतिज्ञा करके अपने घर को चले गये । शर्ववर्मा को अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह होना दुस्तर दिखने लगा और पश्चात्ताप सहित अपना वृत्तात अपनी 3 स्त्री को कहा। तब वह बोली- हे स्वामिन ऐसे सक्ट मे सिवाय "स्वामिकुमार" की आराधना के और कोई पार नही लगा सकता । स्त्री की बात को ठीक समझ कर शर्ववर्मा प्रभात ही स्वामिकुमार के पास जा, वहा निराहार मौन धारण कर और अपने शरीर को न गिन कर ऐसा तप किया, कि जिससे प्रमन्न हो कर भगवान् स्वामिकुमार ने उनका मनोरथ पूर्ण किया । साक्षात् स्वामिकुमार ने उन्हे दर्शन दिये और उनके मुख मे सरस्वती का प्रवेश हुआ । वाद्र मे भगवान् स्वाभिकुमार छहो मुखो से "सिद्धो वर्ण समाम्नाय " यह सूत्र बोले । जिसे सुन कर शर्ववर्मा ने चपलता से इसके आगे का सूत्र बोल दिया । तव स्वामिकुमार ने कहा - यदि तुम बीच मे न वोलते तो यह शास्त्र पाणिनीय शास्त्र से भी बढ कर होता । अव छोटा होने के कारण इसका "कातन्त्र" नाम होगा और कलापी ( मेरे वाहन ) के नाम से इसका अपर नाम "कालापक" भी होगा ।" 1 इस कथा में शर्ववर्मा को स्वा कुमार कहिये कार्तिकेय नाम के अजैन देव के उपासक ही नहीं वतलाया गया है बल्कि ग्रन्थ का उद्गम कार्तिकेय ही से हुआ बतलाया गया है । और इसी अभिप्राय को लेकर ग्रन्थके "कालापक" व "कौमार" नामो को सृष्टि हई बतलाई गई है। इससे यह ग्रन्थ साफ तौर पर एक अजैन की कृति सिद्ध होता है । साथ ही इस ग्रन्थ का प्राचीनत्व भी सिद्ध होता है। क्योकि कथा मे इसे सातवाहन राजा को सिखाने के अर्थ बनाया गया बतलाया गया है । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ सातवाहन संभवत वे ही शालिवाहन राजा हैं जिनका शक सवत् आज १८५७ चल रहा है। इस ग्रन्थ पर कई संस्कृत टीकायें मुनी जाती है। श्वेनावर टीका का उल्लेख 'भास्कर' की पिछली किरण में भी हुआ है। लेख मे भी इसे अर्जन ग्रन्थ प्रकट किया गया है । इतनी टीकाओं के होते भी इसके कर्ता के विषय में ऐसा विवाद रहना एक आश्चर्य की बात है। अभी तक यह ग्रन्थ 'भावमेन' मुनि-रचित रूपमाला' नाम की टीकामहिन छपा है । और इसीलिये " कातन्त्र रूपमाला" इस नाम से प्रचार में आ रहा है । इम टोका के देखने से पता लगता है कि भावसेन मुनि दिगवर धर्म के माननेवाले थे। और उन्होंने अपने नाम के साथ त्रैविद्यदेव" और "वादिपर्वतवत्री ये दो विशेषण भी लिखे है । ये मुनि अधिक प्राचीन मालूम नही होते है । क्योकि इन्होने रुपमाला टीका की प्रशस्ति में एक एलोक दिया है वह सोमदेव कृत "नीतिवाक्यामृत" की प्रशस्ति गत पद्य की नकल है । तद्यथा- क्षीणेऽनुग्रहकारिता समजने सौजन्यमात्माधिके, सम्मान नुतमावसेनमुनिषे त्रविद्यदेवे मयि । सिद्धान्तोऽयमथापि यः स्वधिषणागर्वोद्धत केवलम् सम्पद्धत तदीयगवंकुहरे वजायते मद्वचः ॥ "रूपमाला प्रशस्ति" अल्पेऽनुग्रहधीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तोऽयमुदात्त-चित्त-चरिते श्रीसोमदेवे मथि । यः स्पर्धेत तथापि ददृढता प्रोटिप्रगाढा ग्रहस्तस्थाखवित गर्व पर्वतपविषकृतान्तायते ॥ नीतिवाक्यामृत प्रशस्ति” Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 कातंत्र व्याकरण के निर्माता कौन है ] [ २१७ इन समान पद्यो से यह अनुमान किया जा सकता है कि भावसेन सोमदेव के बाद हुए हैं। ऐसा मालूम होता है कि भावसेन ने कातंत्र को एक जैन कृति ममझ कर ही उस पर टीका बनाई है । यह बात रूपमाला के निम्न पद्यो से साबित होती है - वद्ध मानकुमारेणार्हता पूज्येन वज्रिणा कोमारे ऋषमेणापि कुमाराणां हितषिणा ।। मुष्टिव्याकरणं नाम्ना कातन्त्र वा कुमारके कालापकं प्रकाशात्मब्रह्मणामभिधायकं ॥ प्रकाशित श' प्रबोधसंपदे श्रयसों पदं । समासानां प्रकरणं भावसेन इहाम्यधात् ॥ (पृष्ठ ३५) चतु. षष्ठिः कलाः स्वीणां ताश्चतुःसप्ततिर्नृ णाम् । आपक. प्रापकस्तासां श्रीमानुषभतीर्थकृत् ॥ तेन ब्राहम् कुमार्ये च कथित पाठहेतवे । कालापक तत्कौमारं नाम्ना शब्दानुशासनम् ॥ यद् वदन्त्यधिय केचित् शिखिन. स्कंदवाहिन । पुच्छान्निर्गतसूत्र स्यात्कालापकमतः परम् ॥ f तन्न युक्त यत केकी वक्तिं प्लुत स्वरानुगम् 1 विमान च शिखीब्र यादिति प्रामाणिकोक्तित ॥ न चात्र मातृकामनाये स्वरेषु प्लुतसग्रह 1 'तस्मात् श्री ऋषभादिष्टमित्येव प्रतिपद्यताम् ॥ ""पृष्ठ ११३” यहाँ हम यह भी बतला देते हैं कि कातंत्र रूपमाला की अब तक दो आवृत्तिया निकल चुकी हैं । प्रथम आवृत्ति को Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ प्रकाशन आज से लगभग चालीस वर्ष पहिले सेठ हीराचन्द जी नेमाचद जी के द्वारा हआ है। उसमे ये श्लोक कतई नहीं हैं। दूमरी आवृत्ति ६ वर्ष पहिले “जनमाहित्य-प्रमारक कार्यालय" की तरफ से प्रकाशित हई है, उसी में ये मब श्लोक है। और जहां ये दिये गये है वहा कुछ अप्रकरण से मालम होते हैं । इस प्रकार के श्लोक मगलाचरण के बाद मे या ग्रन्थ के अन्त मे दिये जाते तो प्रकरण-सगत लगते। यह भी मालूम होता है कि कातक की उत्पत्ति की ऊपर दी हुई कथा से भी भावसेन अपरिचित नही थे, क्योकि इन श्लोको मे उमी कथा का विरोध किया गया है। और कातत्र के कोमार और कालापक नामों का अर्थ जैन-मान्यता मे घटाया गया है। इससे यह ध्वनित होता है कि भावसेन के वक्त भी इसके कर्ता के विपय में मतभेट था। कोई उने जैन मानते ये और कोई अजैन । भावस्न का इसे जैनग्रन्थ घोपित करना चाहे ठीक ही हो तथापि इसे अन्तिम निर्णय नही समझ लेना चाहिये । हमारी समझ से अभी इस दिशा में और भी खोज होने की आवश्यकता है । शर्ववर्मा गृहस्थ विद्वान् थे या साधु ? इसका पता लगाना चाहिये। ऐमा नाम भी बहुत कर के गृहस्यावस्था का ही उपयुक्त हो सकता है। मुनि अवस्था का तो कुछ अटपटा सा दीखता है। अगर वे मुनि ही थे तो उनकी गुरु-परम्परा क्या है ? उन्होने और भी क्या कोई जैन ग्रन्थ बनाये है ? जब कि वे इतने प्राचीन है तो पिछले शास्त्रकारों ने उनका या उनके कातत्र का या अन्य ग्रन्थ का नोट-कातन्त्र के अवतरण-विषयक एक लेख भास्कर के १ म भाम की ३ री किरण मे सम्पादकीय स्तम्भ मे निकल चुका है। हाँ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I [ २१६ कही उल्लेख भी किया है या नही ? इत्यादि बातो का अन्वेषण होना जरूरी है । आशा है इतिहासज्ञ जैन विद्वान् इस पर प्रकाश डालेंगे | कातंत्र व्याकरण के निर्माता कौन है ] इसके रचयिता के बारे मे इस लेख मे कुछ प्रकाश डाला गया है, इसी लिये लेखक के आग्रह से इस किरण में इसे प्रकाशित कर दिया गया है । मेरा अनुरोध है कि लेखक के अन्तिम कथनानुसार इसके रचयिता के बारे मे इतिहास - वेत्ता कुछ विशेष प्रकाश डालेंगे । इसमे कात को जैन व्याकरण ही माना है | के० वी० शास्त्री Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ भगवान् महावीर तथा अन्यतीर्थंकरों के वंश आदिपूगण पर्व १६ श्लो. २५६ से २६१ मे लिखा है कि"ऋषभदेव ने हरि, अकपन, काश्यप और सोमप्रभ इन चारों क्षत्रियों को बुलाकर उन्हें महा-मांडलिक राजा बनायै । हरि का हरिकात नाम हआ उमसे हरिवश चला। अकपनका श्रीधर नाम हुआ उससे नाथवंश चला (१) काश्यप का मघवा नाम हुमा उससे उग्रवंश चला और कुरुदेश का राजा सोमप्रभ अपना कुरुराज नाम पाकर उसने कुरुवंश चलाया।" (मोक्ष शास्त्र के "आर्याम्लेच्छाश्च" सूत्र की श्रुतसागरी वृत्ति में भी इसका अच्छा खुलासा है) इसी पर्व के श्लो. २६५-२६६ मे लिखा है कि- "गो का अर्थ स्वर्ग हैं। उत्तम स्वर्ग से आने के कारण श्री ऋषभदेव गौतम कहलाते थे और काश्य कहिये तेज को रक्षा करने से वे काश्यप भी कहलाते थे।" (१) इसी से मादि पुराण पर्व ४३ श्लोक २:३, ३३६ तथा पर्व ५४ प्रलोक ४५ मे मकम्पन को नाथवश का अग्रणी लिखा है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर तथा अन्यतीर्थंकरोके वंश ] [ २२१ पद्मपुराण पर्व ५ के प्रारम्भमे ही लिखाहै कि "इक्ष्वाकु वंश, सोमवश, विद्याधर वश और हरिवश ये चार वश प्रसिद्ध हुये । ऋषभदेवका वश इक्ष्वाकु वश था। उनके पोते अर्ककीति से सूर्यवंश चला। बाहुबली के पुत्र सोमयश से सोमवश चला। सूर्यवश और सोमवश मे अनेक गजा हुये जिनकी नामावली यहा दी है। __ इसी के २१ वे पर्व मे हरिवश की उत्पत्ति शीतलनाथ स्वामी के तीर्थ मे राजा सुमुख के जीव द्वारा हुई लिखी है। इसी हरिवश मे मुनि सुव्रतनाथ हुये। और इसी व श मे राजा जनक हुये । (श्लो ४५) इक्ष्वाकु व श मे दशरथ हुये । (यहा इक्ष्वाकुव शी ऋषभदेव से लेकर दशरथ तक की राजपरपरा का कथन किया है ।) हरिवश पुराण (जिन्सेन प्रणीत) सर्ग: श्लो ४३ मे लिखा है कि:- "ऋषभदेव के कुटुम्बी इक्ष्वाकु वशी कहलाये । कुरुदेश, के. शासक कुरुवशी। जिनकी आज्ञा उग्र थी वे उग्रवशी, न्याय से प्रजा की रक्षा करने वाले भोजवशी (२) कहलाये। (२) भोजवश का उल्लेख तत्वार्थ राजवातिक मे 'भाम्लेिच्छाश्च' सूत्र की व्याख्या मे तथा वराग- चरित पृष्ठ ११ मे भी पाया जाता है। हरिवंश पुराण सर्ग ५५ श्लोक ७२ तथा ८२ मे भी राजिमती को भोजसुता लिखा है- इसी से 'चर्चा समाधान' में भी उग्रसेन का दूसरा नाम 'भोज' दिया है। श्वे० नेमिचरित मे भी राजिमती को भोज पुत्री बताया है देखो अनेकात वर्ष १६ किरण ४ पृ. १६३ की टिप्पणी हरिवश पुगण सर्ग ४० श्लोक २० मे भी भोजवश का उल्लेख है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ इन व शो के नाम ऋपभदेव ने ही निश्चित किये थे। श्रेयाशमोमप्रभ राजा कुरुवणी माने गये।" उनी के १३ वे मगं के श्लो १५-१६-१६ मे लिखा है कि "भरत के पुत्र अर्ककीनिने मूर्य व श की स्थापना की तथा बावनी के पुत्र सोमयश ने सोमव श चलाया। इक्ष्वाकुव श - को शाखा म्वरुप इन मूर्यव श-सोमवश में अनेक राजा हये। उय और कुरुवश मे भी अनेक राजा हुये ।" इसी पर्ग के श्लो ३३-३४ मे लिखा है कि समार में सबसे प्रथम इक्ष्वाकु वण उत्पन्न हुआ। फिर सूर्यवश सोमवण हुये तथा उसी समय कुम्वग उग्रवंग जादि वंण भी हये । शीतलनाथ के तीर्थ में हरिवश हुआ।" इसी के पर्व ४५ मे कुरुवग की उत्पत्ति सोमप्रमश्रेयाश राजा से बताते हुये अनेक राजामो की नामावली देकर' गातिनाथ कु युनाथ-अरनाथ तीर्थकरो को कुरुवशियो में' लिखा है। ___ आचार्य गुणभद्रात उत्तरपुराण में "धर्मनाथ कुथुनाय का कुरुनश और काश्यप गोत्र लिखा है । अरनाथ का सोमवशकाश्यप गोत्र और मुनिसुव्रत नेमिनाथ का हरिश काश्यप गोत्र लिखा है।" यहा जो अरनाय का सोमवश लिखा है सो उसका 'भाव यह है कि राजा सोमप्रभ (श्रेयांश के भाई) से कुरुवश की उत्पत्ति हुई । इसलिये यहा कुरुवश को ही सोमवश के नाम से लिखा गया है। वराग चरित सर्ग २७ श्लो ८८ मे भी मुनिसुव्रतनेमिनाथ को गौतमगौत्री और शेप तीर्थकरो को काश्यप गोत्री Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर तथा अन्यतीर्थंकरो के वश ] [ २२३ 6 लिखा है तथा प० आणाधरजी ने भी अपने प्रतिष्ठासारोद्धार ग्रंथ के अध्याय ४ के श्लो ११ मे तीर्थंकरो के गोत्रो का कथन वरागचरितवत् ही किया है तथा विचारसार प्रकरण (श्वेतावर - ग्रंथ) मे भी ऐसा ही कथन है । किंतु गोत्रो का कथन न त्रिलोकप्रज्ञप्ति में है न पद्मपुराण - हरिवंश पुराण मे । आ दामनदिने पुराणसार संग्रह में महावीर का काश्यपवश लिखा है किन्तु वश का अर्थ यहाँ 'गोत्र' लेना चाहिये। तभी सगति होगी । त्रिलोकप्रज्ञप्ति अधिकार ४ गाथा ५५० मे लिखा है कि "धर्मनाथ, अरनाथ, कु थुनाथ ये तीन कुरुवश मे उत्पन्न हुये । महावीरणाह नाथवश में, पार्श्वनाथ उग्रवश मे मुनिसुव्रतनेमिनाथ हरिवश ( यादवव श ) मे और शेष तीर्थंकर इक्ष्वाकु वश मे उत्पन्न हुये ।” यहाँ शातिनाथ को इक्ष्वाकुवशी लिखा है । जबकि हरिवशपुराण सर्ग ४५ मे कुरुवशी लिखा है । उत्तरपुराण मे शातिनाथ के पिता को काश्यप गोत्री लिखा पर उनके वश का नाम नही लिखा । आचार्य जिनसेनकृत आदिपुराण मे कुरु, उग्र, नाथ, हरि इन चारवंशो की स्थापना भगवान् ऋषभदेव द्वारा बताई है । जैसा कि ऊपर लिखा गया है। इक्ष्वाकु यह उनका खुद का ही वश था। इस प्रकार इन पाच नशो मे तीर्थंकर पैदा हुये है । त्रिलोक प्रज्ञप्ति मे भी ऊपर ये ही ५ वश बताये हैं । प० आशाधर ने भी स्वरचित प्रतिष्ठासारोद्धर के अध्याय ४ श्लो० १० तथा अनगार धर्मामृत पृष्ठ ५७० मे इन्ही पाचव्वशो कर Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] उल्लेख किया है । (१) [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ उत्तरपुराण पर्व ७३ ग्लो० ६५ में पार्श्वनाथ का उग्रवश लिखा है और उसी के पर्व ७५ श्नो० ८ में भगवान् महावीर के पिता सिद्धार्थ का वश नाथवश लिखा है। स्वामी समन्तभद्रं ने स्वयम् स्तोत्र के श्लोक १३५ मे पार्श्व नाथ का कुल उग्र बताया है- " समग्रधीरून कुलाबराशुमान्" ऋषभ का कुल श्लोक ३ मे इध्वाकु और नेमि का वंश श्लोक १२१ मे 'हरि' बताया है । वरागचरित मर्ग २७ ग्लो०८६ मे लिखा है कि- "चार तोर्घकर कुरुवंशी, दो हरिवणी एक उग्रवंशी, एक नाथवणी और शेप १६ इटवाकुवंशी हुये हैं ।" त्रिकोल प्रज्ञप्ति मे तीन तीर्थंकरो को कुरुवंशी लिखे है । यहां चार लिखे हैं । शायद यहा चौथे शातिनाथ को कुरुवंशी बताया हो । • J धनजयनाम माना श्लो० ११५ मे महावीर का नाथवंश और काश्यप गोत्र लिखा है। इसके अमर कीर्तिकृत भाष्य में " चत्वार कुरुव शजा...." यह उक्तच पद्य दिया है। इसमे लिखा है कि - " धर्मनाथ आदि ४ तीर्थंकर कुरुवंश मे, नेमि मुनि सुव्रत हरिवश मे, महावीर नाथवंश में और शेष १७ तीर्थकर इक्ष्वाकुवश मे उत्पन्न हुये है ।" ऊपर पार्श्वनाथ कॉ उग्रवश लिखा है | यहा उनका इक्ष्वाकुवंश लिखा है । -- ऊपर इस लेख मे त्रिलोकप्रज्ञप्ति वरांगचरित, धन (१) शुभचन्द्र कृत पाडव पुराण सर्ग २ श्लोक १६४ में भ प्रायः यही कथन है | Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर तथा अन्य तीर्थंकरो के वंश ] [ २२५ जयनाम माला, उत्तरपुराण और प्रतिष्ठासारोद्धार के अवतरणो मे भगवान् महावीर के वश का नाम नाथवश बताया गया है तथा जयधबला टीका प्रथमभाग के पृ० ७८ पर भी "कुंडपुर पुरवरिस्सर सिद्धत्य नरवत्तियस्सणाह कुले" गाथा मे महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ की जाह (नाथ) वशी बताया है । किंतु अकलक ने राजवार्तिक मे तत्वार्थसूत्र के "उच्चैर्नीचैश्च" सूत्र की व्याख्या में महावीर के कुल का नाम " ज्ञाति" दिया है । यथा "लोकपूजितेषु कुलेषु प्रथित माहात्म्येषु इक्ष्वाक् प्रकुरुहरिज्ञाति प्रभृतिषु जन्म यस्योदयाद् भवति तदुच्चगोत्रम - वसेयम् ।" इसमे तीर्थकरो के इक्ष्वाकु, उग्र, कुरु, हरि और ज्ञाति ऐसे पाचो ही नशो के नाम लिख दिये हैं । अशगकवि ने महावीर चरित के सर्ग १७ श्लो० २१ मे यो " ज्ञातिवशममलेन्दु” वाक्य देकर राजा सिद्धार्थ के वश को " ज्ञाति" नाम से लिखा है तथा इसी सर्ग के श्लो० " ज्ञाति कुलामलाबरेन्दु” पाठ मे भी महावीर के उल्लेख 'ज्ञाति' शब्द से किया है । १२७ मे कुल का चारित्र भक्ति पाठ में आये श्रीमज्ज्ञातिकुलेंदुना पद मे भी महावीर का कुल 'ज्ञाति' लिखा है । यद्यपि भक्तिनाठो को छपी पुस्तक में ज्ञाति के स्थान मे ज्ञात शब्द छपा है, परन्तु इसकी प्रभाचद्रकृत टीका मे ज्ञाति शब्द माना है । इससे मालूम होता है कि उनके सामने ज्ञाति पाठ था। हालाकि उनने यहा Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ टीका मे ज्ञाति और कुल का अर्थ क्रमश मातृवंश और पितृवंश किया है। ऐसा अर्थ करने से अकलक के राजवार्तिक से विरोध आता है अत. वह योग्य नही है । बृहज्जैन शब्दार्णव प्रथमभाग पृष्ठ ७ पर राजासिद्धार्थ को हरिवशी (नाथ वश की एक शाखा ) बताया है किन्तु यह ठीक ज्ञात नही होता । हरिवंश और नाथवश शास्त्रो मे बिल्कुल जुदा बताये है । कवि वृन्दावन जी व्रत- वर्द्धमान जिन पूजा की जयमाला मे भी महावीर स्वामी को हरिवशी बनाया है देखो "हरिवंश सरोजन को रवि हो । बलवंत महंत तुम्ही कवि हो ॥" किन्तु यह भी प्राचीन आधार के अभाव से ठीक प्रतीत नही होता। बृहज्जैन शब्दार्णव भाग २ पृ० ६१० में लिखा है कि- "सोमप्रभ ने कुरु या चन्द्रवंश की स्थापना की ।" ऐसा लिखना गलत है सोम शब्द से भ्रम मे पड गए हैं सोमप्रभ से तो कुरुवश चला है और बाहुबलि के पुत्र सोमयश से सोम (चन्द्र) वंश चला है । दोनो सोम भिन्न भिन्न है । इसी के आगे फिर लिखा है- 'इक्ष्वाकु वंश को ही सूर्य वश कहते है” यह भी गलत है । क्योंकि ऋषभ का वंश इक्ष्वाकु बताया है और उनके पोते अर्कैकीर्ति से सूर्य वश चला है तथा दूसरे पोते सोमयश से सोमवंश चला है इस तरह सूर्य और चन्द्रवश इक्ष्वाकु वंश की शाखा हैं । इक्ष्वाकु और सूर्य वश एक नही हैं । अनेकांत वर्ष ३ किरण ३ मे एकं विस्तृत लेख मे मुनि कवीन्द्र सागरजी बीकानेर ने ज्ञातवंश और जाटवश को एक माना है और दोनो मे काश्यप गोत्र होना बताया है । अनेकात Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर तथा अन्य तीर्थंकरों के वंश ] [ २२७ वर्ष १६ पृ० १६१ मे मुनि नथमलजी ने णय से ज्ञात की बजाय 'नाग' लेकर महावीर को नागवशी बताया है । 'भगवान् महावीर' पुस्तक के पृ० २५ पर कामताप्रसादजी ने ज्ञात का समीकरण नाट (नट) जाति से किया है । किसी ने 'ज्ञातृ' का समीकरण 'जयरिया' जाति से किया है । स्वार्थ अर्थ मे 'क' प्रत्यय करके 'णय' से नायक जाति भी ली जा सकती है | परन्तु ये सब समुचित मालूम नही पडते | धनंजय नाम माला, जयधवला, महापुराण आदि में महावीर को नाथ वशी ही बताया है, और यह नायवश भगवान् ऋषभदेव के वक्त से ही चला आ रहा है, नया नही है । यह सब हम पूर्व मे बता आये हैं । फिर भी इसके लिये नीचे और कुछ प्रमाण प्रस्तुत करते है घवला पुस्तक १ पृ ११२ मे कुछ 'उक्त च' गाथायें देते हुए १२ शो के नाम बताये है उसमे १२ वा गश दिया है"बारसमो णाहनसो दु" । उक्त धवला पुस्तक १ के पृष्ठ ६६ तथा १०१ में छठे अग का नाम- "णाहधम्मकहा" ( नाथ धर्म कथा ) दिया है ( जबकि तत्वार्थ सूत्र की सर्वार्थसिद्धि राजवार्तिक आदि टीकाओ में अध्याय १ सूत्र २० में तथा हरिवंश पुराण आदि में छठे अंग का नाम ज्ञात धर्म कथाग दिया है) गोम्मटसार जीवकाड गाथा ३५७ मे भी गाहधम्मकहाग (नाथधर्म कथाँग) नाम ही दिया है । ly तिलोयपण्णत्ती अ ४ गाथा ६६० में महावीर के दीक्षावन का नाम णाधवन=नाथवन दिया है। उत्तरपुराण (गुणभद्रकृत ) पर्व ७४ श्लोक ३०२ मे भी ऐसा ही लिखा है- "नाथखडवन Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भीग २ प्राप्य"। अशगकृत महावीर चरित्र सर्ग १७ श्लोक ११३ मे. "भगवान् वनमेत्य नागखड लिखा है। शायद यहाँ 'नाग' की जगह 'नाथ' हो। दामनदि ने पुराणसार संग्रह के वर्धमान चरित सर्ग ४ मे ज्ञात खडमवाप स. ॥३६॥ लिखा है जिससे ज्ञात खड नाम सूचित होता है । इससे एक बात यह फलित होती है कि महावीर के नश का नाम और छठे अग का नाम तथा महावीर के दीक्षावन का नाम सब एक ही है । मूलत. प्राकृत मे णाह, णाध शब्द रहा है जिसका संस्कृत रूप नाथ बना है। किसी ने णाह की बजाय णाय माना है जिससे सस्कृत मे जात और बातृ रूप बने हैं। किन्तु है ये सब एक। योगियो मे नाथ और सिद्ध सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं इनमे पारस नाथी और नेमिनाथी दो शाखाये भी है। हो सकता है. नाय वश से इनका सवध रहा हो। 卐 卐 बौद्ध ग्रन्थों मे जो सर्वत्र महावीर के लिए सिर्फ एक नाम- 'णिग्गठ पाथ पुत्र' ही आता है इस मे भी स्पष्ट रूप से महावीर को नाथ पुष ही बताया है इस से भी महावीर का वश 'नाथ' ही प्रमाणित होता है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ दिगम्बर परम्परा में श्रावक-धर्म का स्वरूप जीवो का वह आचरण जिससे जीव सांसारिक दुखो से छुटकारा पाकर आध्यात्मिक सुख की ओर अग्रसर होते है, सम्यक् चारित्र कहलाता है । उसे ही धर्म नाम से भी बोलते हैं । "चारित' खलु धम्मो " ऐसा शास्त्र वाक्य है । जो लोग प्राय घर मे रह कर इस चारित्र का आशिक रूप से पालन करते है, वे श्रावक कहलाते है, और गृह के साथ-साथ धनधान्यादि परिग्रहो का त्याग कर जो इस चारित्र को पूर्णतया पालने का उद्यम करते है, वे साधु या मुनि कहलाते हैं । इस अपेक्षा से धर्म दी 'भेदो में बट जाता है- एक श्रावक धर्म और और दूसरा मुनिधर्म । • श्रावक धर्म मे अनेक यम-नियम होते हैं। कितने ही श्रावक उच्चकोटि का चारित्र पालते हैं । कितने ही निम्न कोटि का चारित्र पालते हैं। पर उन सब की एक श्रावक सज्ञा ही है । अत एक श्रावक धर्म के भी अनेक उपभेद है । जैसे १० से लेकर ६६ तक की संख्या उत्तरोत्तर अधिकाधिक होती है, तब भी उन सब की गणना दाई की संख्या मे ही शुमार की जाती है । जो धर्म के २ भेद किये हैं, उसका मतलव इतना ही समझना चाहिये Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भौष २ कि - अमुक सीमा तक का आचरण श्रावक धर्म कहलाता है और उसके ऊपर का आचरण मुनिधर्मं कहलाता है । जैसे विद्यालय मे नीची-ऊँची कक्षायें होती हैं जिन्हे क्लासे बोलते है. उसी तरह श्रावक धर्म मे भी नीची-ऊंची कक्षाये (श्रेणियें) होती हैं। श्रावक धर्म के विविध आचारो को आचार्यों ने ११ श्रेणियो मे विभाजित किया है। वे ११ श्रेणियाँ ११ प्रतिमाओं के नाम 1 से बोली जाती है) । प्रथय प्रतिमा में प्रवेश करने वाले श्रावक के लिये यह आवश्यक होता है कि वह सम्यग्दर्शन का धारी हो । बिना उसके वह श्रावक धर्म की प्रथम कक्षा मे भी नहीं बैठ सकता है । यह कोई नियम नहीं है कि - श्रावक धर्म की सब कक्षाओ का अभ्यास किये बाद ही मुनिधर्म मे प्रवेश हो सकता हो । यदि ससार शरीर भोगो से तीव्र विरक्तता हो जाये तो वह वगैर श्रावक धर्म की पालना किये भी एकदम से मुनि बन सकता है, किंतु मुनिधर्म मे प्रवेश करने के लिये भी यह जरूरी होता है कि वह पहिले सम्यक दर्शन को प्राप्त करले । ( सच्चे देव - गुरु-शास्त्रो का श्रद्धान करना और जीवादि तत्वो के स्वरूप को समझकर उन पर प्रतीति करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । इस सम्यग्दर्शन के बिना श्रावक और मुनि दोनों ही धर्मो में प्रवेश करने का अधिकारी नहीं होता है । इसका कारण यह है कि - किसी मुमुक्ष जीव को जिस उत्तम सुख की अभिलाषा लगी हुई है, उसको प्राप्त करने के साधनो की जानकारी जिन देव - शास्त्र - गुरुओ से उसे मिली है, उनपर उसका अगर पक्का श्रद्धान नही होगा तो वह धर्म की साधना मे शिथिल रहेगा, क्योकि धर्म का साधन करने मे अनेक कष्टोपरीपो का सामना करना पडता है । उस वक्त यदि कच्ची श्रद्धावाला हो तो साधना के कष्टो से घबडा कर भ्रष्ट भी हो Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Re दिगम्बर परम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २३१ सकता है, उसके दिल मे ऐसे विचार पैदा हो सकते है कि धर्मसाधन के मधुर फल आगामी भव मे मिले या न मिलें इस दुविधा मे वर्तमान मे कष्ट में क्यो भोगू ? इसलिये साधक की देव - गुरु-शास्त्र पर पक्की श्रद्धा होनी चाहिये। तभी वह नि शक होकर साधना मे प्रवृत्त हो सकता है। उसकी ऐसी समझ होनी चाहिये कि - मोक्षमार्ग के प्रणेता जितने अर्हत देव हुए हैं वे भी किमी दिन मेरी ही तरह से दुखिया ससारी थे । फिर जिन साधनाओ से उन्होने सर्वोच्च स्थान पाया, उन्ही साधनाओ को उन्होंने भव्यजीवो को बताया है । साथ ही उसे इतना बोध भी होना चाहिये कि जिस ससार के दुःखो से वह छूटना चाहता है वह ससार क्या है ? और उसमे यह दुखी क्यो है ? दुख इसको कौन देता है ? और जिस कारण से वह इस दुख-मय ससार मे पडा हुआ है तथा उसका स्वयं का स्वरूप क्या है ? मोक्ष क्या है जिसको वह प्राप्त करना चाहता है । मोक्ष प्राप्ति के अव्यर्थ साधन कौन हैं ? इन सबकी जानकारी होने को ही तत्वबोध कहते हैं । ससार, संसार के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारण इन चारो का परिज्ञान होकर उनपर अटल प्रतीति होना इसी का नाम तत्वार्थं श्रद्धान है ।) ? उक्त चार बाते ही सात तत्व है, उनसे भिन्न कोई तत्व नही है । जीव, अजीव, आश्रव, वध, सवर, निर्जरा और मोक्ष ऐसे ७ तत्व माने हैं। जीव अजीव ये २ तत्व ससार है। आश्रव ध ये २ तत्व ससार के कारण हैं एवं सवर - निर्जरा ये २ तत्व मोक्ष के कारण हैं, और मोक्ष यह जीव का साध्य तत्व है । इस वास्ते साधक के लिये तत्वार्थ- श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन भी होना अति आवश्यक है । इस प्रकार के सम्यग्वत्टि जीव ऐसे विवेकी और पारखी (परीक्षक) हो जाते हैं कि वे 'तथ्यहीन लौकिक 1 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ रूढियो की दल-दल मे फसते नहीं हैं। वे वीतराग देव को छोडकर अन्य काल्पनिक मिथ्या देवो व रागी-द्वषी देवो की उपासना नही करते, बल्कि भवनत्रिक और स्वर्गवासी देवो का भी उनकी निर्मल दृष्टि मे कोई महत्व नहीं रहता है। वे केवल वेषमात्र के पुजारी नही होते हैं, उसके साथ समीचीन गुणो को भी देखते हैं । वे भेदविज्ञान के धारी नाशवान् सासारिक वैभव को पाकर कभी अभिमान नहीं करते हैं, क्योकि वे सम्यग्दष्टि तो सबसे बडा वैभव धर्म को समझते हैं। जैसा कि समतभद्राचार्य ने फरमाया है श्वापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात्। - कापि नाम भवेदन्या संपद्धर्माच्छरोरिणाम् ॥ अर्थ जिस संसार मे धर्म के फल से कुत्ता भी मरकर देव हो जाता है और पाप के फल से देव भी मर कर कुत्ता हो जाता है। उस ससार मे जीवो को धर्म के सिवा अन्य क्या संपदा हो सकती है ? | यदि पापनिरोधोऽन्य संपदा कि प्रयोजनम् । ( अथ पापाश्रवोस्त्यन्य सपदा कि प्रयोजनम् ॥ अर्थ-यदि पापाश्रवका निरोध है किन्तु किसी लौकिक संपदा का कोई लाभ नही हो रहा है तो न सही। उस लौकिक सपदा से जीव को प्रयोजन भी क्या है ? पापो का निरोध होना, यह क्या कम सपदा है ? इस आत्मिक सपदा से तो उसे एक दिन मोक्ष की शाश्वती लक्ष्मी मिलेगी। और यदि घोर पाप कर्मों का आश्रव हो रहा है किन्तु साथ ही उससे धनादि लौकिक Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २३३ सादा की अत्यन्त प्राप्ति होती जा रही है तो उस धन वृद्धि से भी जीव का क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? एक दिन उस धन को छोड कर जीव को पापाश्रव के कारण नरक जाना पडेगा और वहाँ उसे दारुण दु ख सहने पड़ेंगे।) प्रतिमा - धारण एक विश्लेषण १. पहली दार्शनिक प्रतिमा-ऐसा सम्यग्दृष्टि जीवोंजब महा पापो का त्याग कर देता है तो उसके श्रावक की पहिली प्रतिमा होती है। पांच उदु वर फल और मद्य मांस, मधु, इनका सेवन आठ महापाप कहलाते हैं, इनका वह त्याग कर देता है। इन आठो का त्याग करना श्रावक के ८ मूलगुण कहलाते हैं। बड, पीपल, ऊमर, कठूमर, और पाकर इन पांचो के फलो को उदु बर फल कहते है। इन फलो मे चलते-फिरते बहुत से त्रस जीव होते हैं। इनका सेवन महापाप माना जाता है। अन्य भी मोटे पाप वह छोड देता है जैसे पानी को वह वस्त्र से छानकर काम मे लेता है क्योकि जल मे अगणित ऐसे सूक्ष्म त्रस जीव होते हैं कि जो हमको आँखो से दिखाई नहीं देते है। वह रात्रि भोजन भी नही करता है। महापाप रूप सात व्यसनो का वह सेवन नहीं करता है। जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री ये सात व्यसनो के नाम हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुष भगवान जिनेन्द्रदेव का अनन्य भक्त होता है। इसलिये उसके इस प्रतिमा मे नित्य जिनदर्शन करने का नियम होता है। यह प्रश्न उठ, सकता है कि इस प्रथम प्रतिमा मे वह मद्यमांसादि महापापो का त्याग कर देता है तो क्या वह Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ सम्यग्दृष्टि इससे पूर्व मद्यमांसादि का सेवन करता था? सम्यक्त्वी होकर भी मद्यमांसादि का सेवन करे यह कैसे हो । सकता है ? उत्तर में कहा जा सकता है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के साथ ही प्रशम, सवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य ये चार गुण (पैदा हो जाया करते हैं। इसलिये सम्यग्दृष्टि का ऐसा भद्र स्वभाव हो जाता है कि जिससे उसकी उन महापापो के सेवन मे स्वभावत. ही प्रवृत्ति नही होती। पर उनका वह जब तक संकल्प पूर्वक त्याग नही करता है तब तक उसके प्रथम प्रतिमा नही कही जा सकती है । व्रत नाम तो तभी पाता है जब सकल्प से किसी का त्याग करे। जैसे मृग - कपोतादि अपने स्वभाव से ही मांस नहीं खाते है। पर मांस का उन्होने सकल्प पूर्वक त्याग नही किया है। इसलिये उनका मांस- त्याग व्रत नही माना जा सकता है। उसी तरह सम्यग्दृष्टि के सम्बन्ध मे समझ लेना चाहिये । और चू, कि श्रावक की प्रथम प्रतिमा ५ वेंगुण स्थान मे मानी जाती है। क्योकि इसमे यत्किंचित् श्रावक के व्रत शुद्ध हो जाते है । इस प्रतिमा के पूर्व सम्यग्दृष्टि के चौथा गुणस्थान रहता है जिसका नाम अविरत सम्यक्त्व है। उसमे सम्यक्त्व तो होता है पर विरति किसी प्रकार की नहीं होती क्योकि वहाँ अप्रत्या - ख्यानावरणो कषाय का उदय रहता है । इस कषाय के उदय मे जीवो के किंचित् भी त्याग नहीं होता है। चतुर्थ गुणस्थान का स्वरूप गोम्मटसार मे इस प्रकार बतलाया है - -- णो इन्दियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि । जो सदहदि जिणुत्त, सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥२६॥ -जीवकांड Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा में श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २३५ अर्थात जो इन्द्रियो के विषयो से तथा उस स्थावर जीवो 1 की हिंसा से विरत नहीं है किन्तु जिनेन्द्र द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है। वह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान का धारी माना जाता है । - - (अगर हम चौथे गुणस्थान में भी कुछ त्याग मान लेते हैं तो और फिर चौथे और पांचवे गुणस्थान में कोई अन्तर नहीं रहता है। इसलिये फलितार्थ यही निकलता है कि अविरत सम्यग्दृष्टि के यद्यपि प्रतिज्ञा रूप काई त्याग नही होता तथापि वह मांसमक्षण आदि जैसे महापापो मे प्रवृत्ति नही करता। सम्यक्त्व के प्रभाव से ऐसी ही उसकी प्रकृति हो जाती है।) २ दूसरी व्रत प्रतिमा-जब प्रथम प्रतिमा वाला (श्रावक) ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षा व्रत इन १२ व्रतों का माया-मिथ्यात्व निदान रूप तीन शल्य रहित होकर पालन करने लगता है तो उसके श्रावक की दूसरी प्रतिमा होती है। ये १२ व्रत श्रावक के उत्तर गुण कहे जाते हैं। इन १२ मे ३ गुणवतो और ४ शिक्षावतो की सप्तशील सज्ञा है। ये सप्तशील वाडी की भाँति व्रतरूप खेती की रक्षा करते हैं। इस प्रतिमा का धारी ५ अणवतो को तो निरति चार पालता है, परन्तु शेष ७ शील व्रतो मे उसके अतिचार लग जाते हैं। (क) पांच अणुव्रत स्थूलहिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्यूल कुशील और स्यूल परिग्रह इन पाचो पापो के त्याग करने को पांच अणव्रत कहते हैं। वे निम्न है Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ १. अहिंसाणुवत कपाये भाव पूर्वक मन-वचन-काय और कृत-कारित अनुमोदना.से ग्रस जीवो को मारना स्थूल हिंसा कहलाती है । उसके त्याग करने वाले के प्रथम अहिंसाणुव्रत होता है । इस प्रतिमा का धारी यद्यपि स्थावर जीवो की हिंसा का त्यागी नही होता है तथापि स्थावर हिंसा से उसका दिल कांपने लगता है जिससे वह व्यर्थ स्थावर हिंसा भी नही करता है। छेदन, वधन, पीडन, अतिभारारोपण और भोजनपान निरोध ये ५ अहिंसाणुव्रत के अतिचार होते हैं । जो इस प्रकार है (१) दुर्भावना से प्राणियो के शरीर के अवयवो को छेदन करना छेदन अतिचार कहलाता है। आभूषण पहनाने के अभिप्राय से वच्चा-बच्ची के कान-नाक का छेदन करना अतिचार नहीं है। (२) रस्सी, सांकल आदि से किसी प्राणी को दुख देने की भावना से बांधना वधन अतिचार है। किसी पागल आदि को बांधना अतिचार नहीं है, क्योकि उसमे बांधने वाले की दुर्भावना नही है। पालतू पशुओ को ढीला बांधना चाहिये जिससे उनको कष्ट न हो। वांधने का ढग ऐसा हो कि आग लगने आदि विपद काल मे वे स्वय छूट कर अपनी रक्षा कर सके। (३) दुर्भावना से बेत, चाबक आदि से किसी प्राणी को चोट पहुँचाना पीडा नामक अतिचार होता है। शिक्षा देने के लिये अगर मास्टर उद्दड विद्यार्थी को चपेट आदि से हलकी ताडना देता है तो वह अतिचार नहीं है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा में विक-धर्म का स्वरूप ] [ २३७ ४) जानवरों आदि पर उनकी सामर्थ्य के अतिरिक्त बोझा लादना अतिभारारोपण अतिचार है । . (५) अपने आश्रित प्राणियो को यथा ममय आहार पानी न देना भोजनपान निरोध नाम अतिचार है। २. सत्याणुवत जो जानबूझकर स्थूल झूठ को न तो आप बोलता है और न दूसरों से बुलवाता है तथा न केवल असत्य ही किन्तु सत्य भी ऐसा नही बोलता जिससे सुनने वालो को पीडा पहुँचती हो वह सत्याणुव्रती कहलाता है। यह अणुव्रत का दूसरा भेद है। यहाँ स्थूल झूठ का अर्थ है वह मोटी झूठ जो राजदण्ड के योग्य हो तथा लौकिक दृष्टि मे निंद्य हो, जिसमे विश्वास दिला कर धोखा दिया जाता हो। परिवाद, रहोभ्याख्यान, पैशून्य, कूटलेखकरण, और न्यासा पहारिता ये पाँच सत्यापुंवत के अतिचार (दोप) हैं। जो इस प्रकार हैं (१) निंदा करना, गाली निकालना परिवाद नामक अतिचार है। (२) किसी की गुप्त बात को प्रकाशित करना, यह रहोभ्याख्यान अतिचार है। इससे जिसकी गुप्त बात प्रगट होती है, उसे दुख होता है। (३) चुगली खाना यह पैशून्य अतिचार है। (४) कपट से ऐसी तहरीर लिखना जिसका अर्थ सत्यअसत्य दोनो निकल सकतर हो, जैसा कि युधिष्ठिर ने Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.३८ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ "अश्वत्थामा हतो नरो वा कु जरो वा" बोल कर चालाकी की थी, इसे कूटलेखकरण अतिचार कहते हैं । (५) बेईमानी से किसी की धरोहर का आशिक हरण करके भी अपनी वेईमानी का पता न पड़ने दें, ऐसी वाग्जाल को न्यासा पहारिता अतिचार कहते हैं । ३. अचौर्याणुव्रतः बिना दिये पर द्रव्य को चाहे वह कही रक्खा हो, गढा हो, या गिर गया हो या भूला हुआ हो उसे लोभवेण स्वय न लेना और न दूसरो को देना यह तीसरा अचौर्याणुव्रत कहलाता है । बाप दादो के मर जाने आदि पर जिस कौटुंबिक सपत्ति पर अपना वाजिब हक पहुँचता हो उसे बिना दिये लेने मे इस अणुव्रती को चोरी का पाप नही लगता । चौर प्रयोग, चौरार्थादान, विलोप, सदृशसम्मिश्र और हीनाधिक विनिमान ये ५ अचौर्याणुव्रत के अतिचार होते हैं जो इस प्रकार हैं (१) घडाई - सिलाई, व्यापारादि का पेशा करने वाले सुनार, दरजी, व्यापारी ( क्रय-विक्रय करने वाले ) आदि लोग किस तरकीब से आँखो में धूल झोककर जनता को ठगते हैं । सुनार सोना चुराता है, दरजी कपडा चुराता है और व्यापारी असली घी मे डालडा या जीरे आदि मे विजातीय द्रव्य मिला देते है | यहा तक कि साफ नकली वस्तुओं को भी असली बताकर उन्हें असली के भावो मे बेच देते है। उनके इन हथकण्डो का पता तक वे नही लगने देते हैं । अचौर्याणुव्रत का Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mant दिगम्बर पराम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २३६ धारी खुद तो ऐसा काम नही करता है किन्तु ऐसी वचकता की विद्या अगर वह अपने भाई- बेटे - मित्रो को बताता है तो उसके चौरप्रयोग नामक अतिचार लगता है । " " (२) जान बूझकर चोरी का माल लेना चौरार्थादान अतिचार कहलाता है । (३) सरकारी टेक्स की चोरी करना, टेक्स जितना जुडे उससे थोडा देना या देना ही नहीं अथवा राज्य विप्लव के समय सरकारी नियन्त्रण से निकलकर मनमानी तौर पर पराये धन कहने का प्रयत्न करना विलोप नामक अतिचार है । (४) अनुचित लाभ उठाने के लिये बहुमूल्य की वस्तुओ मे उसी रंग रूप वाली अल्पमूल्य की वस्तुये मिला कर उन्हें बहुमूल्य मे बेचना या उनका वजन बढाने को उनमे अन्य वस्तु का मिश्रण कर देना, जैसे दूध मे पानी, अनाज मे ककरी मिला देना आदि । इसे सदृशसम्मिश्र अतिचार कहते हैं । 1 (५) न्यूनाधिक नाप, बाट तराजू आदि से लेन-देन कर उनसे अनुचित लाभ उठाना यह हीनाधिक विनिमान अतिचार है । ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत जो पाप के भय से ( न कि राजादि के भय से ) न तो पर स्त्रियो को आप सेवन करता है और न दूसरो को सेवन कराता है । किन्तु अपनी विवाहिता स्त्री मे सन्तोष रखता है उसके ब्रह्मचर्याणुव्रत होता है । अन्य विवाहकरण, अनगक्रीड़ा, विटत्व, विपुल तृष्णा, Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ और इत्वरिकागमन ये ५ ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार है जो इस प्रकार है ( १ ) अपने कुटुम्ब से भिन्न गैरो का विवाह करना अन्य विवाहकरण अतिचार होता है । (२) काम - सेवन के अगो को छोड अन्य अगो मे या अन्य अगो से काम-क्रीडा करना, जैसे हस्त- गुदा मैथुनादि, वह अनग क्रीडा अतिचार है | (३) काय की अश्लील चेष्टा व भड वचन बोलना विटत्व नाम अतिचार है | (४) कामवासना की तीव्रना होना विपुलतृष्णा, अतिचार है । गर्भवती, रजस्वला, प्रसूतियुक्त रोगिणी, बालिका, वृट्टा, ऐसी अपनी स्त्री हो उसका भी सेवन इस अतिचार मे शामिल है । (५) व्यभिचारिणी स्त्री से लेन-देन, हसी विनोद करना, उसके यहा आवागमन रखना इत्वरिकागमन अतिचार है । उसका सेवन करना तो अनाचार है । ५ परिग्रह - परिमाण व्रत धन-धान्यादि १० प्रकार के परिग्रहो का परिमाण करके उससे अधिक मे वांछा नही रखना, इसे परिग्रह परिमाण व्रत कहते है । अतिवाहन, अतिसंग्रह, अतिविस्मय, अतिलोभ और अतिभारवहन ये परिग्रह-परिमाण व्रत के ५ अतिचार हैं जो इस प्रकार हैं - Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा मे श्रावक धर्म का स्वरूप ] [ २४१ (१) अधिक लाभ उठाने की दृष्टि से वैलादिको को बहुत लवे ममय तक चलाना, दौडाना, जोतना अतिवाहन अतिचार है । (२) विशेष लाभ की आशा से अधिक काल तक धान्यादि का अधिक सग्रह रखना अतिसग्रह अतिचार है । (३) दूसरो के अधिक नफा देखकर चकित होकर पछताना कि हाय यह व्यवसाय हम भी करते तो आज हम भी मालोमाल हो जाते । यह अतिविस्मय अतिचार है । 7 (४) अच्छा लाभ मिलने पर भी और अधिक लाभ की लालसा रखना अतिलोभ अतिचार है । (५) लोभवश किसी पर उसकी शक्ति से अधिक बोझा लादना अतिभारवहन अतिचार है । अणुव्रतो के पालने का फल पंचाणुव्रतनिधयो निरतिक्रमण फलति सुरलोकम् । यत्रावधिरष्टगुण, दिव्य शरीरं च लभ्यते ॥ अर्थात निरतिचार रूप से पालन किये गये पाच अणुव्रत निधि स्वरूप हैं । और वे उस सुर-लोक को फलते हैं जहा पर 'अवधि ज्ञान, अणिमादि ८ ऋद्धियें और दिव्य शरीर प्राप्त होते है । (ख) तीन गुण व्रत दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत, और भोगोपभोग परिमाणव्रत ये तीन गुण व्रतो के नाम हैं । इनके धारण करने से अणुव्रत कई गुणे बढ जाते हैं । इसलिये इनका नाम गुणव्रत है । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] १. दिग्वतः [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ दिशाओं को मर्यादित करके जो पापो की निवृत्ति के अर्थ मरणपर्यंत के लिए यह संकल्प करना कि मे दशों दिशाओ मे अमुक-अमुक दिशा मे इतने इतने क्षेत्र से बाहर नही जाऊँगा । इसे दिग्वत कहते हैं । यह मर्यादा प्रसिद्ध नदी, पर्वत, वन, देश, नगर और समुद्र को लक्ष्य करके की जाती है, तथा योजनो की गिनती से भी की जाती है। इस दिव्रत से मर्यादा के बाहर स्थूल सूक्ष्म सभी तरह के पापो की निवृत्ति हो जाने के कारण अणुव्रत हैं वे पंच महाव्रतो की परिणति को प्राप्त हो जाते है २. अनयं दण्डव्रतः मर्यादा के भीतर भी निरर्थक और अति अनर्थ कारक पाप योगो से बचते रहना अनर्थ दण्ड व्रत कहलाता है । उसके पाच भेद निम्न प्रकार है (1) ऐसी बातें सुनाना जिससे सुनने वालो की प्रवृत्ति हिंसामय व्यापारो, आरभो ओर ठगाई करने आदि मे हो जाये, उसे पापोपदेश नामक प्रथम अनर्थ दण्ड कहते है । (२) बिना प्रयोजन फरमा, तलवार, गंती, फावडा, अग्नि, अन्य आयुध, विष, साकल आदि हिंसाकारक पदार्थों का किसी को मागे देना या दान करना हिंसा दान नामक दूसरा अनर्थदण्ड है । (३) द्वेषभाव से किसी के वध, बन्धन, च्छेद, क्लेशादिका चिंतन करना और रागभाव से पर स्त्री आदि के रूप श्रृंगारादिका चितवन करना अपध्यान नामक तीसरा अर्थदण्ड हैं । 2 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २४३ (४) जिन पुस्तको के पढ़ने सुनने से आरम्भ - परिग्रह मे लालसा, दुःसाहस मिथ्यात्व, रागद्वेष, मान, कामवासना आदि दुर्भाव पैदा होते हैं, उनका पढ़ना-सुनना चौथा दुश्रुति नाम अर्थदण्ड है । (2) व्यर्थ ही जमीन खुरचना, जल को उछालना - छिडकना, आग सुलगाना, पखा करना, वनस्पत्ति को वृक्ष से सोडना - छेदन - भेदन करना, सैर-सपाटा करना, हाथ-पैर हिलाना और कुत्ता - विल्ली आदि हिंसक जीवो को पालना, यह सब प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है । ३ भोगोपभोग परिमाण व्रतः जो एक बार भोगने मे आये जैसे अशन, पान, विलेपनादि वे भोग पदार्थ कहलाते हैं, और जो वार-बार भोगने मे आये जैसे, वस्त्र, आभूषणादि वे उपभोग पदार्थ कहलाते हैं । इस प्रकार भोग और उपभोग दोनो ही प्रकार के पदार्थों में इन्द्रियों को विषयासक्ति को घटाने के लिये चाहे वे प्रयोजनीय ही क्यो न हो तथापि उनकी संख्या का किसी नियत काल तक निर्धारित कर लेना कि इतने पदार्थ इतने समय तक नही सेवन करूँगा या अमुक-अमुक पदार्थों का शीत ऋतु मे ही अथवा ग्रीष्मऋतु आदि मे ही मेवन करूगा, इस प्रकार निषेधमुख या विधिसुख दोनो ही तरह से नियम करना भोगोपभोग परिमाण व्रत नामक तीसरा गुण व्रत है । पहिले परिग्रह परिमाण व्रत में जितनी वस्तुओ का परिमाण किया था, वह परिमाण इस व्रत भे कुछ काल के लिये और भी कम हो जाता है जिससे उसके अणुव्रत वृद्धिगत हो जाते हैं । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ अलावा इसके इस व्रत के धारी को उन भोगोपभोगो का भी त्याग करना होता है जिनमे त्रसजीवो का घात होता हो, अनन्त स्थावर जीवो का घात होता हो, जो मादक (नशाकारक) हो, अनिष्ट हो और अनुपसेव्य हो। बीधा अन्न, बेर, (बदरी फल) सडेफल, बासी भोजन, नीमकेतकी के फूल, मर्यादा बाहर का आटा (आटे की मर्यादा शीतऋतु मे ७ दिन, ग्रीष्म मे ५ दिन, वर्षाऋतु मे ३ दिन की है। तदुपरांत उसमे त्रस जीवो की उत्पत्ति शुरू हो जाती है) रात मे बनाया भोजन, चर्मपात्र मे रक्खा घृत-तेल-जलादि द्रव द्रव्य, डकलगे सिंघाडे-पिस्ता-चिरोजी-छुवारा-जायफलसूठ-इलायची आदि, द्विदलान्न या द्विदलान की बनी वस्तुओ को गोरस (दही, दूध, छाछ) के साथ खाना, बहुत दिनो का अचार, प्रसिद्ध २२ अभक्ष्य, जलेबी, फाल्गुण बाद के तिल इत्यादि वस्तुओ मे त्रसजीव पैदा हो जाते हैं । अतः उनके भक्षण का तो यावज्जीवन त्याग करना होता है। तथा कन्दमूल, आदो, आलू, गाजर, मूली, सकरकद, सूरण, गीली हलदी, प्याज, गिलोय, मूग-वणा आदि जिनमें अ कुर फूट निकले हो, इत्यादि हरी वनस्पतियो को आगम मे अनन्तकाय माना है। प्रायः प्रत्येक जीव का अपना २ अलग २ शरीर होता है। परन्तु उक्त वनस्पतियो मे अनन्त जीवो का एक ही शरीर होता है, जिससे ये अनन्त काय कहताती है । इनका भक्षण करने से अनंतानत एकेन्द्रिय जीवों का घात होता है। अतः इनका भी आजीवन त्याग कर देना आवश्यक है । आगम मे मद्य-मांस की तरह मक्खन को भी महाविकृति कारक माना है, अत. यह भी अभक्ष्य है, तथा मादक वस्तुये-भाग, Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २४५ धतूरा, अफीम, गांजा आदि को भी त्याग देना चाहिये । जो हिंसाजनक भी न हो और मादक भी न हो किंतु अपनी प्रकृति के अनुकूल न हो अर्थात जिनके खाने से अपने बीमारी पैदा होती हो वे अनिष्ट वस्तुयें कहलाती हैं उनका भी त्याग होना चाहिये | क्योकि बिना प्रतिज्ञा किये योही किन्ही वस्तुओ को सेवन नही करने से व्रत नही होता है और उसका फल भी नही मिलता है । अयोग्य विषयो का तो त्याग करना लाजिमी है ही किन्तु योग्य विषयो का भी प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करना चाहिये इसी को व्रत कहते हैं । स्वामी समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड मे कहा है - "अभिसंधिकृता, विरतिविषयाद्यो ग्याद् व्रत भवति " ॥ कुछ चीजें ऐसी भी होती है जो निर्दोष होने के साथ २ अपने लिये अनिष्ट भी नही है किन्तु उत्तम पुस्पो के सेवन योग्य नही होती हैं, उन्हें अनुपसेव्य कहते हैं। धूम्रपान, गोमूत्र, ऊटनी का दूध, शखचूर्ण, लहसन, जरदा, उच्छिष्ट आहार, रजस्वला आदि स्पर्शित भोजन-पान, सूवासूतक युक्त गृह का आहार अनार्यो की वेषभूषा, अश्लील भंड वचन बोलना या वैसे गीत गाना, अशुद्धचर्या - गदा रहना इत्यादि अनुपसेव्यो कर भी त्याग कर देना चाहिये । जीभ के थोडे से स्वाद के लिये सजीवो और अनन्त स्थावर जीवो की हिंसा करके घोर पाप कर्मों का वध करना श्रावक के लिये किसी भी तरह से उचित नही है । (ग) चार शिक्षा व्रत : देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, और वैयावृत्य ये ४ शिक्षाव्रत हैं । इनसे महानतो की ओर बढ़ने को शिक्ष Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ २४६ ] मिलती है, जिससे इनका नाम शिक्षाव्रत है । (१) देशावकाशिक व्रत - दिव्रत मे यावज्जीवन के लिये जितने क्षेत्र का परिमाण रक्खा था उसे गाँव, नदी, आदि को लक्ष्य करके काल की मर्यादा से घटाते रहना, जैसे आज या इतने दिन मास तक मै अमुक नदी, खेत, गाँव, घर आदि से आगे नही जाऊगा इसे देशावकाशिक व्रत कहते हैं । यह व्रत नित्य रहता है यानी इस व्रत के धागे को एक दफे क्षेत्र की मर्यादा जितने समय तक के लिये की है उस समय के समाप्त होने पर फिर काल परिमाण से नई मर्यादा करते रहना आवश्यक है । इस व्रत मे उतने काल तक के लिये मर्यादा के बाहर के क्षेत्र मे व्रती के सभी प्रकार के पाप छूट जाते हैं । वह वहा की अपेक्षा महाव्रतो का साधक वन जाता है । (२) सामायिक व्रत - किसी विवक्षित समय तक पाँचों पापों का सर्वथा त्याग कर कायवचन की प्रवृत्ति और मन की व्यग्रता को रोककर वन, मकान, या चैत्यालय में जहाँ भी एकांत - निरूपद्रव स्थान हो वहाँ प्रसन्नचित्त होकर सब तरह के दुध्यानो को छोड़ता हुआ एकाग्र मन से वैठकर या खडे होकर परमात्मा की स्तुति, वदना करना, उनके गुणों का स्मरण व वारह भावनी का चिंतन आदि शुभ ध्यान मे लगे रहना सामायिक नाम शिक्षाव्रत कहलाता है । यह सामायिक प्रोषध के दिन करे या नित्य भी कर सकता है। सामायिक मे शीतोष्ण को, दशमशक आदि परीषहो को और अन्य कोई उपसर्ग आवे तो उसको भी निश्चल होकर शांत भाव से सहना चाहिये । इसका अभ्यास महाव्रती बनने में सहायक होता है। इसमे वस्त्र के सिवा कोई परिग्रह नही रहता है और आरभ भी सब छूट Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर पराम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [२४७ जाते है । अत सामायिक धारी श्रावक को उतने काल के लिये एक ऐसे मुनि की तरह समझना चाहिये जैसे किसी ने वस्त्र डालकर मुनि पर उपसर्ग किया हो। (३) प्रोषधोपवास व्रत - एक मासमे दो अष्टमी और दो चतुर्दशी ऐसे चार पर्व-दिन माने जाते है । पर्व दिन से पूर्वोत्तर दिन मे मध्यान्ह मे एक बार भोजन करके धारणा, पारणा करना और पर्व के दिन मे सब प्रकार का भोजनपान, छोडकर समय को निरालसी होकर ध्यान, स्वाध्याय या उपदेश मे विताना यह प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहलाता है, यह उपवास धर्मकामना से (सवर निर्जरा के ध्येय से) किया जाना चाहिये न कि मत्रसिद्ध, लघन आदि के उद्देश्य से । प्रोषधोपवास के काल मे पचपापो का त्याग करने के साथ ही साथ श्रृ गार-करना, सुगन्ध लगाना, पुष्पमाला पहिनना, स्नान करना, अजन लगाना, तमाखू सू घना आदि नस्य,दातो का मजन,उद्योग,धधा,नृत्य गीत आदि को त्याग देना चाहिये और पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना चाहिये । (४) वैयावृत्य व्रत.-सम्यग्दर्शनादि गुणो के धारी, गृहत्यागी, निष्परिग्रही, निरारभी साधु को केवल धर्ममावना से भक्ति पूर्वक यथाशक्ति आहार, औषध, उपकरण और वसतिका प्रदान करके तथा गुणानुराग से उन सयमियो की पग चपी आदि रूपसे जितनी भी सेवा अपने से बन मके करके उनका कष्ट निवारण करना वैय्यावृत्य नामक चौथा शिक्षा-व्रत है। इस वैय्यावृत्य से गृहस्थ के कामधधो से सचित हुए पाप धुल जाते हैं साधुओं को दिया हुआ थोडा भी दान बहुत फलका कारण होता है। जैसे बड के छोटे से बीज को वोने से वहुत छाया व बहुत फलवाला वट वृक्ष पैदा होता है। न थातरो मे Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ आहार, औषध, शास्त्र और अभय ऐसे ४ दान लिखे हैं। स्वामी समतभद्राचार्य ने शास्त्रदान-अभयदान के स्थान मे उपकरणदानवसतिका दान लिखा है । शास्त्र ज्ञानोपकरण है अत उपकरण दान मे शास्त्रदान आ जाता है। पीछी सयमोपकरण है उसका अतर्भाव अभयदान मे हो सकता है । वसति का दान भी अभयदान ही है। उसके अतर्गत जिनालय, धर्मशाला आदि भी आ सकते है । ज्ञानदान की अपेक्षा उपकरण दान का कुछ अधिक व्यापक क्षेत्र है । कमडलु. (जलपात्र) पूजा के उपकरण, जाप करने की माला, प्रातिहार्य, मंगलद्रव्य, पाटा, चौकी, मेज, चदोवा, विछायत आदि पदार्थों के दान का अ तर्भाव उपकरण दान मे ही हो सकता है । जघन्य-मध्यम पात्रो को वस्त्रादि देना भी उपकरण दान मे ही शुमार किया जा सकता है, क्योकिदानादि से वैयावृत्य केवल उत्तम पात्रमुनियो की हो' नहीं की जाती है किन्तु अवरित सम्यग्दृष्टि और देशव्रती श्रावको की भी की जाती है जोकि जघन्य और मध्यम पात्र माने जाते है। साधारणजनो और दीनजनो के लिए उपकार व करुणा बुद्धि से प्याऊ, औषधालय, अनाथालय, सदावत आदि भी दान के क्षेत्र हैं। ३. तीसरी सामायिक प्रतिमा : सामायिक मे सामायिक दंडक व चतुर्विशतिस्तव के पाठ बोलने के साथ-साथ तीन-तीन आवों का चार बार करना, चार प्रणाम करना, ऊर्ध्व कायोत्सर्ग और २ उपवेशन इत्यादि अनुष्ठान किया जाता है जिसकी विशेष विधि शास्त्री से समझनी चाहिये । वह सामायिक पहले शिक्षाव्रती मे दूसरी प्रतिमा के स्वरूप वर्णन मे कह आये हैं वही यहा तीसरी प्रतिमा Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २४६ मे विशेष रूप से की जाती है। वहा उसे पर्व के दिनो मे करना या नित्य करना यह व्रती की इच्छा पर छोड दिया था और वहाँ तीनो सन्याओ मे करने का भी कोई खास नियम न था । दिन मे एक बार भी कर सकता था, और उसके अनुष्ठान मे कभी अतिचार भी लग जाता था। अब इस प्रतिमा मे नित्य, त्रिकाल निरतिचार रूप से सामायिक करना आवश्यक होता हैं। ४. चौथी प्रोषध प्रतिमा प्रोषध का स्वरूप ऊपर शिक्षाव्रतो मे वता आये हैं। वहीं इस व्रत मे कभी कुछ त्रुटियाँ भी हो जाया करती थी। और वहाँ ऐसा पक्का नियम भी न था कि-हर पर्व मे १६ पहर ही अनशन मे बिताया जावे। कभी-कभी धारणे-पारणे के दिन एकाशन न करके केवल पर्व के खास दिनो मे ही उपवास कर लिया जाता था। किन्तु इस चौथी प्रतिमा मे प्रोषधव्रत पूरी शक्ति के साथ पूर्णरूप से पूरे काल तक निरतिचार पाला जाता है। ५. पांचों सचित्तत्याग प्रतिमा: वनस्पति के अधिकत्तया ८ अग होते है-मूल, फल, शाक, शाखा, कूपल, कद, पुष्प और बीज । जो दयालु श्रावक वनस्पति के इन ८ अवयवो को सचित्त (हरी) अवस्था मे नही खाता है और यथाणक्य स्थावर काय की भी विराधना नहीं करता है, वह सचित विरत पद का धारक होता है। ६ छठी रात्रिभक्तविरत प्रतिमा: अन्न, पान, खाद्य, लेह्य ऐसे ४ आहार के भेद हैं। धान्य Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ से बना भोजन रोटी-पुडी आदि अन्न कहलाता है । लड्डू, पेडा, बर्फी, पाक, मेवा, फलादि खाद्य कहलाता है। जल, दुग्ध, शर्वत, आम्ररस, इक्षु रस आदि पान कहलाता है । चटनी, रबडी, आदि लेह्य कहलाता है । इन चार प्रकार के भोज्य पदार्थों को जीवो पर अनुकपा करने वाला जो श्रावक रात्रि मे नही खाता है वह रात्रिभक्त विरत पद का धारक होता है । यद्यपि रात्रिभोजन जैसे महापाप का त्याग तो प्रथम प्रतिमा में ही हो जाता है किन्तु वहाँ कभी-कभी रात्रि में जल, औषधादिक ले लेता था और दूसरो को रात्रि मे भोजन जिमा भी देता था । वे सव त्रुटिया इस प्रतिमा मे नही रहती हैं I अथवा ग्रथांतरो मे रात्रिभक्त व्रत का दूसरा अर्थ यह किया है कि - जिसके रात्रि मे ही स्त्री सेवन करने का नियम हो, दिन मे उसका त्याग हो वह रात्रिभक्तव्रत का धारी कहालता है । भक्त शब्द के भोजन और सेवन इन दो अर्थों को लेकर इस प्रतिमा का स्वरूप दो तरह से बताया गया है । ७ सातवीं ब्रह्मचर्यं प्रतिमा : जिस स्त्री के शरीर मे कामीजन रति करते हैं, वह शरीर मल से उत्पन्न हुआ है, मल को पैदा करने वाला है, दुर्ग धित और मलो से भरा हुआ होने से घिनावना है । इस प्रकार के शरीर को देखकर जो श्रावक मैथुन कर्म से विरक्त हुआ स्त्रीमात्र का त्याग कर देता है, वह ब्रह्मचारी सातवी प्रतिमा का धारी होता है इस प्रतिमाधारी के परस्त्री सेवन का तो पहिले ही त्याग था । अब वह इस प्रतिमा मे स्वस्त्री सेवन का भी त्याग कर देता है | Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा में श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २५१ ८वीं आरम्भ त्याग प्रतिमा : जो श्रावक नौकरी, खेती, व्यापारादि ऐसे आजीविकाओ को त्याग देता है जिनसे जीव हिंसा होती हो, वह आरम्भ त्याग माम ८वी प्रतिमा का धारी माना जाता है । ६वीं परिग्रह त्याग प्रतिमा : जिसके १० प्रकार के बाह्य परिग्रहो मे ममत्व छूट जाने से जो सतोषपरायण बन गया है ऐसा श्रावक परिग्रह परिमाण व्रत मे जितने परिग्रह का परिमाण कर रखा था उससे भी जिसके विरक्त भाव पैदा हो गये है। इसलिये उनमे से जो अल्प मूल्य के थोडे वस्त्र-पात्रादि रखकर शेष का त्याग कर देता है, वह परिग्रह त्याग प्रतिमा धारी श्रावक माना जाता है। १०वी अनुमति त्याग प्रतिमा: ___ इस पद का धारी श्रावक आरभ, परिग्रह-ग्रहण, और विवाहादि लौकिक कार्यों को करना तो दूर रहा उनमे अपनी अनुमति भी नहीं देता है । वह ऐसा उदासीन रहता है किपरिवार के लोग इन कार्यों को करो या न करो उन पर उसका कोई लक्ष्य ही नही जाता है। इस प्रतिमा का धारी चैत्यालय मे स्वाध्याय करता हुआ जब मध्याह्न वदना से निपट जाता है उस वक्त बुलाया हुआ जाकर या तो अपने घर मे भोजन करता है या अन्य साधर्मों के घर में भोजन करता है। इस उदिष्ट भोजन को भी जल्दी से जल्दी छोड़ देने की भावना करता रहता है। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ ११वीं उदिष्ट त्याग प्रतिमा : इस पद को धारण करने के लिये घर छोडना पडता है और गुरु के पास जाकर ही यह पद ग्रहण करना पड़ता है। इस प्रतिमा का धारी अनुद्दिष्ट भिक्षा भोजन करता है, तपस्या करता है, गुरु के सघ मे रहता है और खड वस्य रखता है । खंडवस्त्र का अर्थ है या तो लगोट मात्र रखता है या ऐसी एक छोटी चादर रखता है जिसे पैर पसार कर मोढी जाये तो पूरा शरीर ढका नही जा सके। इस प्रतिमा के धारी को उत्कृष्ट श्रावक कहते हैं। क्ष ल्लक भी इसी का नाम है। यहाँ तक श्रावक धर्म की सीमा है। इससे आगे निर्वस्त्र रूप मे मुनि का धर्म शुरू होता है। इन प्रतिमाओ के विषय मे विशेष यह , समझना चाहिये कि-जो जिस प्रतिमा का धारी होता है उसे उससे नीचे की सब प्रतिमाओ का आचार पालना जरूरी होता है। आयु के अन्त में सभी तरह के श्रावको को सल्लेखना से मरण करना आवश्यक होता है। इस प्रकार यहाँ दिगम्बर जैन शास्त्रों के अनुसार सक्षेप मे श्रावक धर्म का स्वरूप निरूपित किया गया है। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ | पं० टोडरमलजी का जन्मकाल तथा उनकी एक और साहित्यिक रचना प्राचीन हिन्दी गद्य के साहित्यकारो मे पडित प्रवर टोडरमलजी साहब का नाम सर्वोपरि है । यदि वे गोम्मटसारादि सिद्धात ग्रन्थो की वचनिका नही बनाते तो आज के जिज्ञासुओ को इतनी विशदता से सैद्धांतिक ज्ञान का लाभ नही होता । टीका ग्रन्थो के अतिरिक्त "मोक्षमार्ग प्रकाशक" जैसा हिन्दी मे अपूर्व स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखकर तो आप अपना नाम ही अमर कर गये हैं । आपके देहान्त की दुखद घटना विस १८२४ के लगभग घटी है । इस घटना का वर्णन कवि बखतरामजी साह कृत “बुद्धि विलास” नाम ग्रन्थ मे मिलता है । बखतरामजी मूलत चाटसू के निवासी थे। तदुपरात वे सवाई जयपुर मे रहने लगे थे आदि चाटसू नगर के वासी तिनिको जान । हाल सवाई जयनगर माहि बसे है आन ॥ उन्होने बुद्धि विलास को वि० स० १८२७ मे पूर्ण क्रिय Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ था। अत वे भी प टोडरमलजी के वक्त मे ही हुये थे इसीसे उनकी मृत्यु घटना की उनको पूरी जानकारी थी। बुद्धि विलास मे उन्होने इस घटना का वर्णन "अथ कलिकाल दोपकरि उपद्रव वर्णन" ऐसा शीर्षक देकर हिन्दी छन्दो मे किया है। (पृष्ठ १५१) उनके कथनानुमार माधव सिंह जी के वक्त में जयपुर और उसके आस-पास वि० स० १८१८ से लेकर १८२६ तक के समय मे दि. जैनो पर तीन वार घोर उपद्रव हुये है। वि० स० १८१८ मे राजा माधवसिंहजी ने एक श्याम नाम के तिवाडी ब्राह्मण का राजगुरु के पद पर स्थापन किया था। अत उसीने जैनो पर उपद्रव किया, जिसमे अनेक जैन मन्दिगें का विध्वस किया गया। यह जैनो पर प्रथम उपद्रव था। उसका वृत्तात इस प्रकार दिया हैअमलराज को जैनी जहाँ, नाम न ले जिनमत को तहाँ ।। अवावति (आमेर) मे एक श्याम प्रभु के देहुरे। रही धर्म की टेक बच्यो सु जान्यो चमत्कृत ॥१२६४॥ कोऊ आधो कोऊ सारो, बच्यो जहाँ छत्री रखवारो। काहू मे शिवमूरति धर दी, ऐसी मची श्याम की गरदी ॥१२६।। यह विध्वंस तीला अधिक समय तक नहीं चल सकी। अकस्मात् उस राजगुरु श्याम तिवाडी पर राजा ने कुपित होकर उसे देश से निकाल दिया । और राजाज्ञा से जनायतनो की क्षति पूर्ति होकर पूर्ववत् पून जैनी लोग अधिकाधिक धर्मोत्सव करने लग गये । उसीके परिणाम स्वरूप वि० स० १८२१ मे जयपुर में ... • यह ग्रन्थ "राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर" मे प्रकाशित हुमा है । मूल्य ३) रु० ७५ नये पैसो मे वही से मिलता है। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० टोडरमलजी का जन्मकाल "" ] [ २५५ इन्द्रध्वज पूजा का ऐसा महान उत्सव किया गया कि जिसमे ६४ गज का लम्बा चौडा तो केवल एक चबूतरा ही मडल रचना के अर्थ बनाया गया था। राज्य का भी तब उस काम मे पूरा सहयोग था। ऐसा ब्र० रायमल्लजी की लिखी उस उत्सव की पत्रिका से जाना जाता है । (जनियों के ये समारोह तत्कालीन ब्राह्मण समाज को सहन नहीं हो रहे थे। इसलिये उनकी तरफ से जैनियो के विरुद्ध एक षड्यन्त्र रचा गया, जिसमे ब्राह्मणो ने अपनी शिवमूर्ति उठाने का इल्जाम जैनो पर लगाकर राजा को जैनो से विमुख कर दिया और गजा ने सख्त नाराज होकर जैनो की पकडाधकडी की। तथा उनके प्रसिद्ध प० टोडरमलजी को इस काम मे अगुआ समझ कर उनकी हत्या करवा दी । यह जैनियो पर रोमाचकारी दूसरा उपद्रव था) तदनन्तर फिर जैसे तैसे जैनी लोग रथयात्रा के जलूस निकाल निकालकर नाचने कूदने लग गये तो उससे चिढकर अब के हजारो ब्राह्मणो ने मिलकर झूठमूठ ही शिवमूर्ति उठाने का दोष जैनो पर मढ कर बिना राजा को सूचित किये स्वय ही जैन मन्दिरो को लूटा और वहाँ की मूर्तियों का विध्वस किया। जयपुर मे जनो पर यह तीसरा उपद्रव वि० स० १८२६ मे हुआ था। इस उपद्रव का हाल “बुद्धि विलास" मे निम्न प्रकार लिखा है फुनि भई छब्बीसा के माल, मिले सकलद्विज लघु रु विशाल । सवनि मतो यह पक्को कियो , शिव उठान फुनि दूषन दियो ।।१३०७।। द्विजन आदि बहु मिले हजार , बिना हुकम पाये दरबार । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ दोरि देहुरा जिन लिय लुटि , प्रतिमा सब डारी तिन फूटि ॥१३०८॥ काह की मानी नहिं कानि , कही हुकम हमको है जानि । ऐसी म्लेच्छनहु नहि करी, बहुरि दुहाई नृप की फिरी ॥१३०६।। इस प्रकार प ० टोडरमलजी साहब का निधन समय तो एक तरह से निश्चित ही है। परन्तु उनका जन्म समय निश्चित नही है। जिससे हम यह नहीं कह सकते हैं कि मृत्यु के वक्त उनकी कितनी उम्र थो? प० देवीदासजी गोधा ने अपने चर्चा ग्रंथ मे उनका जन्म सवत् १७६७ दिया है। उसमे भूल मालूम पड़ती है। क्योकि टोडरमलजी ने लब्धिसार की टीका वि० स० १८१८ मे पूर्ण की है। ऐसा उसकी प्रशस्ति में लिखा है। और व० रायमल जी की चिट्ठी से यह जाना जाता है कि-टोडरमलजी ने गोम्मटसार लब्धिमार, क्षपणासार और त्रिलोकसार इन चार ग्रन्थो की टीका तीन वर्ष में बनाई है। त्रिलोकसार को छोड शेष ३ ग्रन्थो के सशोधन, प्रतिलिपि उतरवाने आदि कार्यों में अगर हम २ वर्ष का काल और मान ले तो इसका अर्थ होता है उन्होंने वि० स० १८१३ मे टीकामओ का रचना शुरू किया था। टीकाओ के रचने के पूर्व उन्होने इन ग्रन्थो का एक दो वर्ष तक मनन चिन्तन भी किया ही होगा। ऐसी हालत मे गोम्मटसारादि ग्रन्थो के पठन का समय उनका वि० सं० १८११ तक पहुँच जाता है। अगर हम उनका जन्म समय वि० स० १७६७ को ही सही मान लेते है तो इसका मतलब यह होता है कि वे १४ वर्ष की उम्र मे ही सिद्धात शास्त्रो का मनन करने जैसे हो Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० टोडरमलजी का जन्मकाल "" ] [ २५७ गये थे इतनी छोटी उम्र में ही बुद्धि का इतना विकास नही हो सकता है कि जो वे सिद्धात के रहस्यो का उद्घाटन कर सकें। अगर ऐसी बात होती तो व० रायमलजी अपनी चिट्ठी मे जहाँ टोडरमलजी की अन्य-अन्य प्रशमा लिखी है वहाँ वे यह भी जरूर लिखत्ते कि उन्होने इतना विशाल ज्ञान छोटी उम्र मे ही पा लिया था सो तो रायमल्लजी ने कही ऐसा लिखा नही है। उल्टे उन्होने तो 'इन्द्रध्वजोत्सव की पत्रिका मे यह लिखा है कि "टोडरमलजी की इच्छा और पांच सात शास्त्रो की टीका करने की है सो ऐसा तो आयु की अधिकता होने पर बन सकेगा* इससे यही फलितार्थ निकलता है कि यदि गोम्मटसारादि की टीका रचनेके वक्त उनकी उम्र१८वर्ष करीवकी होती तो रायमल जी ऐसा नही लिखते । अत. उनका जन्मकाल जो ऊपर चि० स० १७६७ दिया है वह ठीक नही है। आभास कुछ ऐसा होता है कि १७६७ की जगह १७७६ हो सकने की सभावना की जा सकती है। किसी प्रतिलिपिकार के द्वारा प्रमाद से ७६ की सख्या ६७ लिख दी गई। इसको गलत मानने में एक हेतु यह भी है कि प० टोडरमलजी कृत गोम्मटसार पूजा का निर्माण महाराजा जयसिंह के राज्यकालमे होना लिखा है । वुद्धिविलास मे जयपुर राजवश के राजाओ की क्रमवार नामावली दी है उसमे लिखा है कि- राजा जयसिंह के ईश्वरसिंह और माधवसिंह ये दो पुत्र थे (पृष्ठ २६) छोटे पुत्र माधवसिंह को * भाई रायमल्लजी ने एफ जगह अपने परिचय मे प० टोडर मलजी को गोम्मटसारादि की टीका बनाने की प्रेरणा देते हुए लिखा है, "तुम या ग्रन्थ की टीका करने का उपाय शीघ्र करो आयु का भरोसा है नहीं। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ रामपुरे का राज्य दिया गया और जयसिंह के बहुत वर्ष राज्य किये बाद ईश्वरसिंह को राजगद्दी मिली। ईश्वरसिंह के बाद माधवसिंह रामपुरे से आकर जयपुर के राजा बने । यह वर्णन बुद्धिविलास मे निम्न प्रकार किया है भये भूप जयसाहि के पुत्र दोय अभिराम । ईश्वरसिंह भये प्रथम लघु माधवसिंह नाम ।।१६८।। रामपुरी दुर्ग भान को ताको लेके राज । दीनो माधवसिंह को सगि दिये दल साज ॥१६६।। बहुत वर्ष लो राज किय श्री जयसिंह अवनीप । जिनिके पटि बैठे सुदिनि ईश्वरसिंह महीप ॥१७०।। बहुरि पाट बैठे नृपति रामपुरे ते आय । भाई माधवसिंह जू दुर्जन को दुखदाय ||१७३।। 'इस विवरण से जाना जाता है कि जयसिंह के बाद जयपुर मे ईश्वरसिंह ने राज्य किया और उनके बाद माधवसिंह ने राज्य किया। माधवसिंह का राज्यकाल वि० स० १८११ से १८२४ तक का माना जाता है। माधवसिंह के राज्यकाल मे ही टोडरमल्ल जी ने गोम्मटसारादि ग्रन्थो की टीकाये रची हैं। जयसिंह का राज्यकाल वि० स० १७५६ से १८०१ तक का माना जाता है। जबकि गोम्मटसार की पूजा को पडित जी ने जयसिंह के राज्यकाल मे लिखा है तो उनका जन्म स १७६७ मे होना कैसे बन सकता है ? जयसिंह के आखिरी राज्यकाल तक ही जव उनकी उम्र ४ वर्ष की थी तो इस उम्र मे साहित्यिक रचना कैसे हो सकती है ? अत स० १७६७ मे उनका जन्म मानना सरासर असगत है । गोम्मटसार की टीका लिखने से Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० टोडरमलजी का जन्मकाल "" ] [ २५६ पूर्व ही उसकी पूजा बनाना तो असगत नही कहा जा सकता। क्योकि ऐसा तो उनकी गोम्मटसार के प्रति विशेष भक्ति होने से भी हो सकता है। दूसरी बात यह है कि महावीर जी अतिशयक्षेत्र से प्रकाशित "राजस्थान के जैन शास्त्रभडारो की ग्रन्थसूची" के ३रे भाग के पृष्ठ १६१ पर प० टोडरमलजी कृत आत्मानुशासन की टीका का रचनाकाल वि० स० १७६६ भादवासुदी २ लिखा है । इससे भी उनका जन्मकाल स० १७६७ मानना गलत सिद्ध होता है। इस वक्त तक यदि हम पडित जी की उम्र १७-१८ वर्ष की भी मान ले तो हमने जो ऊपर उनका जन्म स० १७७६ की कल्पना की है वह ठीक मालम देता है । इस ऊहापोह से यह सिद्ध होता है कि जब दुर्घटना से उनकी मृत्यु हुई तब उनकी उम्र ४५ वर्ष के करीव थी 150 5 १७६७ की जगह १७६७ भी सभव है । ६ को गलती से ६ पढा गया है प० देवीदास जी गोधा ने सिद्धांतसार संग्रह की अपनी भाषाटीका के अन्न मे लिखा है कि " प० टोडरमलजी महा बुद्धिमान के पास शास्त्र-श्रवण का अवसर मिला। प० टोडरमलजी के बडे पुत्र हरिश्चन्दजी और छोटे पुत्र गुमानीरामजी भी उस वक्त थे दोनो महा बुद्धिमान कुशल वक्ता थे जिनके पास मी शास्त्रो के अनेक रहस्य ज्ञातकर ज्ञान प्राप्त किया" (देखो वीरवाणी वर्ष २३अ क ५) इस वक्त को अगर हम श्री पं० टोडरमलजी की मृत्यु से कम से कम दो वर्ष पूर्व भी अर्थात् १८२२ भी मान लें तो उस वक्त उनके दो बडे बडे विद्वान पुत्र थे जिनकी आयु ३०-३५ वर्ष भी मान लें तो उस वक्त प० टोडरमलजी की आयु ५५ वर्ष के करीव अवश्य होनी चाहिये अत कम से कम १७६७ मे उनका जन्म सवत् मानना ठीक होगा। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ - अब तक उनकी ११ रचनाओ का पता लगा है। उनके नाम कालक्रम से इस प्रकार हैं , आत्मानुशासन टीका, गोम्मटसार पूजो, रहस्यपूर्ण चिट्ठी, गोम्मटसार जीवकाड-कर्मकांडे टीका, लब्धिसारक्षपणासार टीका, अर्थसदृष्टि, त्रिलोकसार टीका, मोक्षमार्ग प्रकाशक और पुरुषार्थ सिद्ध युपाय टीका। इनमे से पिछली दो रचनायें अपूर्ण हैं। वि० स० १८२१ मे लिखी इन्द्रध्वजमहोत्सव की पत्रिका मे ब्र० रायमल्लजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक का उल्लेख किया है अतः यह ग्रन्थ उस वक्त बन रहा था। इसी बीच पडित जो पुरुषार्थ-सिद्ध युपाय की टीका भी बनाने लग गये थे और अकस्मात् ही वि० स० १८२४ के करीब वे मार दिये गये। फलतः उनकी दोनो ही रचनायें अधूरी रह गईं। उनमे से पुरुषार्थसिद्ध युपाय की उनकी अधूरी टीका को तो प० दौलत राम जी ने वि० स० १८२७ मे जयपुर मे पूर्ण कर दी। उस वक्त वहाँ पृथ्वीसिंह का राज्य था परन्तु मोक्षमार्ग प्रकाशक उनका स्वतंत्र ग्रन्थ होने के कारण पूरा नहीं किया जा सकता है। इन ११ रचनाओं के अलावा एक १२वी रचना उनकी और मिली है वह है हिन्दी गद्य मे समवशरण का वर्णन। यह रचना उन्होने त्रिलोकमार की टीका पूर्ण किये बाद की है और हस्त 0 अजमेर के शास्त्रमहार में "सामुद्रिक पुरुष लक्षण" ग्रंथ की १ हस्तलिखित प्रति है उसके अन्त मे लिखा हुआ है 'स० १७६३ भादवासुदी १४ के दिन जोबनेर मे ५० टोडरमलजी के पठनार्थ प्रतिलिपि की गई"। इन सब प्रमाणो से स्पष्ट सिद्ध है कि उनका जन्म १७६७ में मानना और उनकी मृत्यु अल्पायु मे मानना नितान गलत है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० टोडरमेलजी का जन्मकाल ... ] [ २६१ लिखित त्रिलोकसार की प्रतियो मे उनके साथ लगी हुई उपलब्ध होती है । न मालूम मुद्रित त्रिलोकसार मे वह कैसे छूट गई है ? समवशरण का यह वर्णन हस्तलिखित पत्रो अर्थात १८ पृष्ठो मे किया गया है। उसका आदि भाग ऐसा है - 'बहुरि अठ आगे धर्मसग्रह श्रावकाचार वा आदि पुराण वा हरिवश पुराण वा त्रिलोकप्रज्ञप्ति, या के अनुसार समोशरण का वर्णन करिये हैं सो हे भव्य तू जाणि । दोहाअशरण शरण जिनेश को समवशरण शुभ थान । ताको वर्णन जानि तुम पावहु चैन सुजान ।। बीच का कुछ अश बहुरि जिस प्रकार यहु अवसर्पिणीकाल विषै तीर्थ करनि के घटता क्रम लिये वर्णन किया तसे उत्सर्पिणीकाल विष बधता क्रम जानना । बहुरि विदेह क्षेत्र विष प्रथम तीर्थकरवत् जानना। ऐसे समवशरण विर्षे रचना वा प्रमाण वर्णन त्रिलोक प्रज्ञप्ति, धर्मसंग्रह, समवशरण स्तोत्रादिक की अपेक्षा लिखा है। बहुरि कोई रचना वा प्रमाण का वर्णन केई आचार्य अन्य प्रकार कहे है। जैसे कोई सर्व तीर्थकरनि के समवशरण भूमि का प्रमाण बारह योजन ही कहे हैं । अर केई प्रसाद भूमि की रचना न कहे है। इत्यादि रचना प्रमाण विप विशेप है सो हमारी बुद्धि सत्य असत्य निर्धार करने की नाही ताते केवलो देख्या है तसे प्रमाण है।' 'कोई ऐसा जानेगा कि भगवान के तो इच्छा नाही । -- - MyMont Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २६२ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ इच्छा विना कैसे डग भरे अर कैसे उठे बैठे ? ताका उत्तर(भगवान् के इच्छा ना ही यह तो सत्य है परन्तु भगवान् के शरीरादि वा चार अघातिया कर्म बैठा है ताका निमित्त करि मन वचन काय योग पाइये है । तासो ही भगवान् के मनका प्रदेशा का चचलपना वा वाणी का खिरना, वा शरीर का उठना बैठना वा डग भरना सभव है, चामे दोष नाहीं । जायगा - जायगा ग्रन्थ विषे कहा है ।' अन्तिम अश - 'ऐसे बिहारकर सहित समवशरण का वर्णन सम्पूर्ण ।) इति श्री त्रिलोकसार जी श्री नेमीचन्द्र आचार्य कृत मूल गाथा ताकी टीका संस्कृत का कर्त्ता आचार्य ताकी भाषा टीका टोडरमलजी कृत सम्पूर्णम् ।' इस प्रकार पं० टोडरमल्लजीसाब की यह भी एक स्वतंत्र कृति मालूम पडती हैं । मुद्रित त्रिलोकसार के साथ इसके प्रकाशित न होने से लोग उनकी इस कृति को भूल बैठे है । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० क्या 'पउमचरिय' दिगम्बर ग्रंथ है ? विमलसूरिकृत प्राकृत पद्योमे एक 'पउमचरिय' नामका ग्रथ है। जिसे १८ वर्ष पहिले 'जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर' ने छपाया था और जिसका सशोधन प्रोफेसर हर्मनजेकोवी जर्मन ने किया था । यह ग्रन्थ ११८ पर्वो मे विभक्त है जिसमे मुख्यतया रामरावण की कथा है एक तरहसे इसे प्राकृत जैन रामायण कहना चाहिये। ग्रन्थ के अतमे उसका निर्माण समय इस प्रकार लिखा है पचेव य वाससया दुसमाए तीसवरिससजुत्ता। वीरे सिद्धिमुवगए तओ निबद्ध इम चरियं ॥१०३॥ इस गाथापरसे ऐतिहासिक विद्वान इसे वीर निर्वाण संवत ५३० ( विक्रम संवत ६०) मे बना बताते हैं। इससे यह ग्रथ बहुत ही प्राचीन मालूम होता है। समग्र जैन संप्रदाय मे इतना प्राचीन कथा ग्रथ अभी कोई उपलब्ध न हुआ होगा। इस अथ के कर्ता अपना परिचय प्रथात मे इस प्रकार देते है राहू नामायरियो ससमयपरसमयगहियसभावो विजओ य तस्स सीसो नाइलकुलवंसन दियरो॥११७॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · て [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ सीसेण तस्स रइयं राहवचरियं तु सूरिविमलेणं । सोऊणं पुव्वगए नारायणसीरिचरियाइ ॥ ११८ ॥ २६४ ] इन पद्योमे यह सूचित किया है कि स्व समय पर समय मे सद्भाव रखनेवाले 'राहू' नामक आचार्य के एक नागिलवशज 'विजय' नामके शिष्य थे। उनके शिष्य 'विमलसूरि' ने यह रामचरित्र रचा है । ग्रन्थकी अतिम सधिसे यह भी प्रगट होता है कि इस ग्रन्थके कर्त्ता पूर्व धारी थे । वह सन्धि इस प्रकार है "इइ नाइलवमदिणयर राहुसूरिपसीसेण पुव्वहरेण विमलायरियेण विरइय सम्मत्तं पउमचरियं ।" नागिलवंशके सूर्य जो राहुसूरि उनके प्रशिष्य पूर्वधारी विमलाचार्य रचित पउमचरिय समाप्त हुआ । अपने दिगबर संप्रदाय मे रविषेणाचार्यकृत पद्मचरित भाषा बचनिकाका, जो पद्मपुराणके नाम से मशहूर है काफी प्रचार है । उसके बाबत में बहुत दिन पहिलेसे सुन रहा था कि यह प्राकृत पउमचरियसे मिलता हुआ है। अब जब कि वह पद्मचरित माणिकचन्द्र ग्रन्थ माला द्वारा मूल संस्कृत मे छपा तो उसे पउमचरिय से मिलाने का मुझे अवसर मिला। इसीके साथ मैंने हेमचन्द्राचार्यकृत श्वेतार्बर जैन रामायणका हिन्दी अनुवाद तथा स्व० प० दौलतरामजीकृत पद्मपुराण वचनिका भी साथ मिलान किया हैं । WO इस प्रकार चार ग्रन्थोको परस्पर निरीक्षण करने से मुझे कितनी ही नई बाते जानने मे आई है । और वह भेद भी कितने Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या पउमचरिय दिगम्बर ग्रन्थ है ] ही अशो मे खुल गया है जो अबतक चला आ रहा था कि 'यह पउमचरिय दिगम्बर ग्रन्थ है या श्वेताम्बर' । जैन हितैषी भाग ११ मे जैन समाजके ऐतिहासज्ञ विद्वान प० नाथूरामजी प्रेमीका इस सम्बन्धमे एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसमे इस ग्रन्थको उस समयका अनुमान किया है जिस समय जैनधर्ममे श्वेताबर दिगबर भेद ही न हुए थे। माथ ही उन्होने लिखा था कि "मैं इसे रविषेणके पद्मचरितसे मिला रहा हू । दोनो सप्रदाय सम्बन्धी कोई खास बात इसमे निकलेगी तो वह आगे प्रकट कर दी जायेगी। इसके बाद फिर कभी इस सम्बन्ध मे उन्होने लिखा या नही यह मेरे देखनेमे नहीं आया। सस्कृत पद्मचरितकी भूमिका भी उन्होने' लिखी पर वहाँ भी प्रेमीजीने एतद्विषयक कोई प्रकाश नही डाला। इसके अलावा 'खडेलवाल जैन हितेच्छुमे भी किसी विद्वानने इस सम्बन्धमे लेख छपाया था। जिसमे पउमचरियको दिगम्बर ग्रन्थ सिद्ध करने की चेष्टा की थी। यह बात उन दिनोकी है जब “हितेच्छु के सम्पादक प० पन्नालालजी सोनी थे। मैंने जो इसका यत्किचित् तुलनात्मक ढंगसे निरीक्षण किया है उससे मैं इस नतीजेपर पहुंचा है कि 'यह ग्रथ न तो उस वक्तका कहा जा सकता है जिस वक्त कि जैनधर्ममे दिगम्बर श्वेताबर भेद ही न हुए थे, और न यह दिगम्बर ग्रन्थ ही है। यही सब खोज आज मैं पाठकोके सामने रखता है। यो तो पद्मचरितमें जो कुछ है वह सब पउमचरिय के अनुसार ही है। दोनो ग्रन्थोका रचनाक्रम शब्द और भाव विन्यास अधिकाशमे समानरूपसे पाया जाता है। ऐसा मालूम Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ । [I★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग : अधिक विस्तामने रखकर ही यहाँतक कि होता, है कि पउमचरियको सामने रखकर ही उसकी छाया के आधारपर कुछ अधिक विस्तार से पद्मचरित रचा गया है। यहाँतक कि दोनों का नाम भी एक ही है 卐 प्रकृत मे जिसे पउंमचरिय ' कहते हैं उसका ही संस्कृतनाम पदमचरित है। नमूने के तौर पर दोनो के कुछ अश यहाँ लिख देना ठीक होगा। देहं रोगाइण्णं जीयं तडिविलसियं पिव अणिच्वं । नवरं , कम्वगुणरसो नाव य ससिसूरगहचक्कं ॥१७॥ अल्पकालमिदं जंतो', ' शरीरं , रोगनिर्भरम् । यशस्तु सत्कथाजन्म यावच्चद्रार्कतारकम् ॥२५॥ ते नाम होंति कण्णा जे जिणवरसासणम्मि सुइपुण्णा । , अन्ने, विदूसगस्स व , दारुमया चेव निम्मविया ॥१६॥ सत्कथाश्रवणो यो च श्रवणो तो मतो मम । , अन्यौ। विदूषकस्थव श्रवणाकारधारिणी ॥२८॥ तं चेवः उत्तमंग नं धुम्मइ वण्णणांइ, सासन्ने । अन्नं पुण गुणरहियं - नालियरकर कयं चेव ॥२०॥ सच्चेष्टावर्णनावर्णा घूर्णते यत्र 'मूर्द्धनि । अयं मूर्धान्यमूर्द्धा - तु ' नालिकेरकरकवत् ॥२६॥ , जेविय सममुल्लावं भणति ते उत्तमा इह ओट्ठा। । अन्ने सुत्तजलुगा - पट्ठीसबुक्कसमसरिसा ॥२४॥ प रविषेण ने विमलसूरि की शैली को यहाँ तक अपनाया है कि-पउमचरिय, मे जहां पर्वान्त मे विमल, शब्द दिया गया है वहां पट्मचरितः मे रविषेण ने रवि, शब्द का प्रयोग किया है। दोनो के उद्देश्यों के नाम तक एक हैं। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या पउमचरिय दिगम्बर ग्रन्थ है ] [ २६७ श्रेष्ठावोष्टौ च तावेव यौ सुकीर्तनतिनौ । . न . शम्बूकास्यसभुक्तजलौकापृष्ठसन्निधौ ॥३१॥ । त पिय्य इबइ पहाण मुहकमल जं गुणेसु तत्तिल्लं । अन्न बिलं व मण्णइ भरिय चिय दन्तकीडाण ॥२६॥ मुख श्रेयः परिप्राप्तेमुख मुख्यकथारतं । अन्यत्त मलसपूर्ण दंतकीटाकुल बिलम् ॥३३॥ जो पढह सुणइ पुरिसो सामण्णे उज्झमेइ सत्तीए । . सो उत्तमो हु लोए अन्नो पुण सिप्पियकओ व ॥२७॥ वदिता योऽथवा श्रोता श्रेयसां वचसां नर । -पुमान् स एव शेषस्तु शिल्पिकल्पितकायवत् ॥३४॥ ये सब पद्य दोनों ही पथके प्रथम पर्व के है । इनमे जो सस्कृतके है वे पद्मचरितके हैं और प्राकृतके है वे पउमचंरिय के । आगेकै पर्वोका भी प्राय यही हाल है। इतना सादृश्य होते भी कही २ कुछ कथनभेद भी दोनोमे पाया जाता है। जिसकी तालिका बतौर नमूनेके नीचे दी जाती है "पउमचरियमे" ' १–'विद्य हष्ट्र मोक्षगया' 'पर्व ५' २-अजितनाथको दीक्षा लिये बाद १२ वर्षमे केवलज्ञान हुआ। 'पर्व ' ३-केकईके भरत, शत्रुघ्न दो पुत्र हुये, दशरथके तीन ही राणिये लिखी हैं-सुप्रभा नामको चौथी राणीका उल्लेख नही है। 'पर्व २५' ४-अतिवीर्यको पकडने के लिये रामलक्ष्मणके नृत्यकारिणीका स्वाग भवनवासिनी देवीने बनाया। 'पर्व ३७ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ ५- बाहुबलीकी राजधानी 'तक्षशिला है। 'पर्व ४' ६-संस्थानका जिकर ही नहीं। ७-रावणकी मृत्यु ज्येष्ठकृष्णा ११ को हुई । 'पर्व ७३ के अतमें' -रावण लक्ष्मण चौथे नरक गये 'पर्व ११८' "पद्मचरितमे" १-विद्य दृष्ट स्वर्ग गया। २-चौदह वर्ष बाद केवलज्ञान हुआ। ३ - सुप्रभाराणीके शत्रुघ्न और केकईके भरतका जन्म हुमा । दशरथके चार राणिये थी जिनके चारो पुत्र हुये। ४-नृत्यकारिणीका रूप स्वयंने बनाया । भवनवासिनीका उल्लेख ही नहीं है। ५-बाहुबलीको राजधानी 'पौतनापुर' है। ६-रामचन्द्रजीके न्यग्रोधपरिमंडल सस्थान लिखा है। 'पर्व ४६ ७-मितीका कोई उल्लेख नही है। ८-तीसरे नरक गये पर्व १२३' इन्हे आदि लेकर कुछ और भी जहाँ-तहां सूक्ष्म फर्क है जो विस्तारमय से छोडे जाते है। दोनोकी पर्चसख्या भी समान नहीं है । पउमचारियमे ११८ और पद्मचरितमे १२३ पर्व हैं। किन्तु इसके कारण कथनमे रंचमात्र भी भेद नही पडा है। सिफ कथनके विभाग करने में फर्क है। उसमें भी ५५ पर्वतक तो दोनो एक हैं। आगे ५६, ६७, ६६, और १०७, ११२वा ये ५ पव पदमचरितमे बढाये गये है। ये तो हुई अन्य २ बातें। अब में पाठकोको पउमचरियमे Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या पउमचरिय दिगम्बर ग्रन्थ है ] [ २६६ से वे बातें बतलाता हूँ जो इसे श्वेतावर ग्रन्थ होना सिद्ध करती हैं । J पुराने विद्वानोंने जो दिगम्बर श्वेताम्बरके ८४ अन्तर छाटे हैं उनमेसे कितने ही अन्तर इस पउमचरियमे पाये जाते है । जैसे- भगवान्को माताको चौदह स्वप्न दीखना, हरिवशकी उत्पत्ति भोगभूमिज युगलसे होना, स्वर्गीकी सख्या १२ मानना और चक्रवर्तीके ६६ हजारसे कम राणिये बताना | ये सब बातें पउमचरियके निम्न पद्योमे देखिये - १ - अह सा सुह पसुत्ता रयनीए पच्छिमम्मि जामम्मि । पेच्छइ चउदस सुमिणे पसत्यजोगेण कल्लाणी ||१२|| 'पर्व २१' अर्थ- सुनिसुव्रतको मात्ताने रात्रिके पिछले प्रहरमे १४ स्वप्न देखे | २ - सीयल जिणस्स तित्थे सुमुहो नामेण आसि महिपालो । कोसंबीनयरीए तत्येव य वीरयकुविदो ॥ २ ॥ हरिऊण तस्स महिलं वणमाल नाम नरवंइ तत्थ । मुज्जइ भोगसमिद्ध रईए समयं अणंगो व्व ॥ ३ ॥ अह अन्नया नारदो फासूयदाण मुणिस्स दाउण । असहिओ उववन्नो महिलासहिओ य हरिवासे ||४|| कंताविओयदुहिओ पोट्टिलय मुगिस्स पायमूलम्मि । घेत्तणय पव्वज्झ कालगओ सुरवरो जाओ ॥ ५ ॥ अवहिविसएण नाओ देवो हरिवंस सभवं मिहुण । अवहरिऊणय तुरियं चपानयरम्मि आणेइ ॥ ६ ॥ X 'हरिवस ' पाठ अशुद्ध है गल्ती से छप गया मालूम होता है 1 'हरिवास' पाठ चाहिये, हरिवस तो अभी पैदा ही नही हुआ तब उसमे Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ हरिवाससमुप्पन्नो जेण हरिऊण आणिो इहइ। तेण चिय हरिराया विक्खाओ तिहुयणे जाओ ॥ ७ ॥ पर्व २१ वां अर्थ-शीतलनाथके तीर्थमे कोसावी नगरीमे एक सुमुख नामका राजा हुआ। वही 'वीरक' कुर्विद★ (जुलाहा) रहता था। उसकी वनमाला स्त्रीको राजाने हरकर उसके साथ कामदेवके समान भोग भोगने लगा । एकदिन राजाने मुनिको प्रासुक दान दिया और वह वज्रपातसे मरकर स्त्री सहित हरिवर्प ( भोगभूमिक्षेत्र) मे पैदा हुआ। वह वीरक भी स्त्री वियोगसे - दुखी हो पोट्टिल (प्रोण्टिल) मुनिसे दीक्षा ले मरा और देव हुआ। अवधिज्ञानसे जानकर वह देव हरिवर्पमे उत्पन्न उक्त जोडेको हरकर चपानगरीमे लाया। हरिवर्षमे पैदा होने और वहासे हरकर लाने के कारण वह हरि राजाके नामसे विख्यात हुआ (आगे उसीसे हरिवश चला)। ३- सो हम्मीसाण सणकुमार माहिंदवभलोगों य ।। लतयकप्पो य तहा छठो वि य होइ नायवों ॥३५॥ एत्तो य महासुक्को सहसारो आणवो तह य चेव ।' तह पाणओ य आरण अच्चुयकप्पो य बारसमो ॥३६॥ पर्व ७५ जन्म कैसे बताया जासकता है ? गाथा ४ व ७ मे 'हरिवास' पाठ है जत यहा भी वही होना ठीक है। * इसने मुनि दीक्षा ली है, जुलाहा आम तौर पर नीच जाति होता है इसीलिये पद्मचरितमे वीरकको वणिज लिखा जान पडता है। शूद्र दीक्षाका यह भी दोनों ग्रन्थोमे साप्रदायिक खास भेद हो सकता है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या पउमचरिय दिगम्बर ग्रन्थ है . ] . , २७१ अर्थ-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, , महिंद्र, ब्रह्मलोक, छठवा लातव, कल्प, मागे महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और-बारहवा अच्युत, इस प्रकार १२ कल्प है। ४- "सगरोवि चषकवट्टी चउसठिसहस्सजुवइकयविहवो" ॥ १६८ ॥ पर्व ५ ___ सगर चक्रीके चौसठहजार स्त्रियोका विभव था (पत्र ७ मे भी इतनी ही राणिये लिखी हैं) इस प्रकारका कथन श्वेतावर सम्मत है। इसीलिये रविपेणके पद्मचरितमे उन्ही पर्वो और उन्ही प्रकरणोमे वदलकर लिखा गया है। जैसे चौदहके स्थानमे १६ स्वप्ने, १२ के स्थानमे १६ स्वर्ग, और चौसठ हजारकी जगह चक्रीके ६६ हजार राणियें। हरिवंशकी उत्पत्तिके सम्बन्धमे भी बदलनेकी चेप्टा की गई प्रेर वह पूरी तौरसे बदला न जासका। जैसा कि पद पचरितके निम्न श्लोकोंसे प्रकट है जिनेन्द्र दशमे नीते राजातीत्तुमुखश्रुतिः । कौशांच्यामपरोऽवेव वणिजो वीरकश्रुति ॥२॥ हृत्वा तदयितां राजा श्रित्वा काम यथेप्सित । दत्वा दानं विरागाणां पुरे हरिपुरसजके ॥३॥ उत्पन्नौ दंपती क्रीडां कृत्वा रुक्मगिरि ययौ । तत्रापि दक्षिणश्रेण्या भोगमूमिशिधियत् ॥४॥ दयिताविरहांगारदग्ददेहस्तु वीरक. । तपसा देवतां प्राप देवोनिवहसंकुलम् ॥५॥ विदित्वावधिना देवो वैरिण हरिसम । भरतेऽतिपद्यात दुर्गात पापघोरिति ॥६॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ यतोऽसौ हरितः क्षेवादानीतो भार्यया सम। ततो हरिरिति ख्याति गतः सर्वत्र विष्टपे ॥७॥ 'पर्व २१वा इनमें लिखा है कि दशवें तीर्थकरके तीर्थमे कौशावीके राजा सुमुखने वीरंक सेठकी स्त्रीको हरकर उसके साथ भोग भोगा। फिर मुनिदान दे मरकर हरिपुरमे दपति हुये, जो विजयाई की दक्षिणश्रेणीमे क्रीडाकर भोगभूमिमे पहुँचे। उधर वीरक स्त्रीवियोगसे दग्ध हो तप कर देव हुआ। अवधिज्ञानसे हरि (?) मे पैदा हुआ। वैरीको जानकर उसे भरत क्षेत्रमे ले आया। इस प्रकार वह पापबुद्धि दुर्गतिको गया। क्योकि वह हरिक्षेत्रसे भार्या सहित लाया गया जिससे लोकमे 'हरि' इस नामसे विख्यात हुमा। कहनेकी आवश्यकता नहीं कि पद्मचरितका यह कथन, कितना अस्पष्ट और संदिग्ध है। श्लोकोकी रचना भी-विलक्षण हो गईहै। चौथे श्लोकपदोका एक दूसरेसे सम्बन्ध ही नहीं मिलता। छठवे श्लोकमे हरिके साथ पुर शब्द भी उड़ गया है। और भी विचारिये-"राजा सुमुख और उसकी रखेल स्त्रीका हरिपुरमे दपति उत्पन्न होना" यह कथन कितना भ्रमपूर्ण है। मरकर दपति होना तो भोगभूमिमे ही सभवहो सकता है। कर्मभूमिमे तो दोनो ही अलग २ मातापिताओके यहाँ जन्म लेकर फिर विवाह होनेपर दपति बनते है। यहाँ दोनोके कौन मातापिता थे ऐसा कुछ भी उल्लेख नहीं है। यह सब गडबड़ पउमचरियके अनुकरणके कारण हुई मालूम होती है। यहाँ मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि दिगम्बर श्वेताबरमे ८४ बातोंके अतिरिक्त भी अन्य कितना ही अन्तर है - - - Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हु क्या पउमचरिय दिगम्बर ग्रन्थ है ] [ २७३ जो मुझे इसकी छानबीनमे ज्ञात हुये हैं उनमेसे भी एक दो यहां लिख देता हू दिगम्बर सप्रदायके मामूली शास्त्रज्ञ भी यह जानतेहै कि तीर्थकर प्रकृतिकी कारणभूत भावना.१६ होती है जिसे षोडशकारण भावनाके नामसे बोलते है और यही पदुमचरितमे लिखा है किन्तु पउमचरिय उसकी २० भावना लिखी है । यथा'चीस जिणकारणाइ भावेओ' पर्व २ गाथा ८२ । इसी तरह जहा पद्मचरितमे सुमेरु और सौधर्मके वीच बालाग्न मात्र अतर वत्तलाया है वहा पउमचरियमे सौधर्मको मेरुकी चूलिकासे स्पशित बताया गया है । यथा‘रालाग्रमानविवरास्पष्टसौधर्मभूमिक।' पद्मचरित पर्व ३ श्लोक ॥३४॥ 'उरि च चूलियाए सोहम्म चेव फुसमाणो ।' पउमचरिय पर्व ३ गाथा २४ यहांतक तो दिगम्बर मान्यता के प्रतिकूल जो भी कयन ऊपर पउमचरियमेसे निकालकर बताया गया है उसे एक तरह से मामूली कहना चाहिये । दिगम्बर श्वेताम्बरमे जो केवलीमुक्ति स्त्रीमुक्ति और साधुको वस्त्रपानादि रखनेका खास भेद है वह पउमचरियमे मिलना चाहिये। इसके लिये मैंने खूब ढूढ खोज की, आखिर मुझे ऐसा कथन भी मिलगया। केवलीमुक्ति और स्त्रीमुक्तिका कथन तो कही न मिला किन्तु मुनिके वस्त्रपात्रादि x श्वेतावरोके मावश्यक सूत्रादि ग्रन्थोमे भी २० भावना लिखी हैं। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ रखनेका आमास पउमरियमे अवश्य पाया जाता है जो इस प्रकार है पउमचरिय पर्व २२ मे लिखा है कि-'मांस भक्षी राजा सोदासको राज्यच्युत कर निकाल दिया तो वह घूमता हुआ दक्षिण देशमे श्वेत वस्त्रधारी मुनिको पाकर उनसे श्रावक दीक्षा ली। ग्रन्थके पद्य इस प्रकार है पेच्छइ परिब्भमंतो दाहिणदेसे लियंवरं पणओ। तस्स सगासे धम्म सुणिऊण तो समादत्तो ॥७॥ सुणिऊण वयणमे यं मुणिवरविहियं भएण दु.खाणं । होउं पसन्नहियओ सोदासो सावओ जाओ ॥६०।। इसमें साफ तौरपर मुनिके लिये सियबर शब्द है जो सितांबर यानी सफेद कपडेका वाचक है। पद्मचरितमे इस जगह वस्त्राश्रय रहित मुनि लिखा है । जैसे दक्षिणापथमासाद्य प्राप्यानंबरसंश्रयं । श्रुत्वा धर्म बभूवासावणुव्रतधरो महान् ॥१४॥ यह तो हुआ मुनिके वस्त्रविधान, अब पात्र रखनेका विधान सुनिये-पर्व ८६ अह अन्नया कयाई साहू मज्झण्हदेसयालम्मि । उप्पइय नहयलेणं साएयपुरि गया सन्वे ॥११॥ पर्व २२ गाथा १ "अह ततो किनधरो मुणिवसभो मलविलित्त सबगो" रेखाकित से दि.त्व सिद्धि होती है । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७५ - भिक्खट्ठे विहरन्ता घरपरिवाडीए साहवो धीरा । ते सावयस्स भवण संपत्ता अर हदत्तस्स ॥१२॥ चितेइ अरहदत्तो वरिसाकाले कहि इमे समणा । हिण्डन्ति अणायारी नियय ठाणं पमोत्तणं ॥१३॥ ते सावएण साहू नवदिया गारवस्स दोसेणं । सुहाए तस्स णत्रर तत्तो पडिलाभिया सव्वे ||१७|| दाऊण धम्मलाभं ते जिणमवण कमेण सपत्ता । अभिवदिया जुईण ठाणनिवासीण समणेण ॥१८॥ ते तत्य जिणाययणे मुणिसुव्वयसामियस्स वरपडिम । अभिवदियो निविष्ठा जुइणसमय कया हारा ॥२०॥ क्या पउमचरिय दिगम्बर ग्रन्थ है ] | I अर्थ - एक दिन वे सप्तर्षि चारण मुनि मध्याह्न कालमे आकाशमार्ग से चलते हुये 'साकेत' पुरीमे आये वहाँ भिक्षार्थ घूमते हुये अर्हदत्त श्रावकके घर गये । उन्हे देखकर अर्हदत्त विचारता है कि ये अनाचारी साधु नियतस्थानको छोडकर वर्षाकालमे कैसे विहार करते है । आखिर 'अर्हदत्त' ने उनकी वदना तक न की । तब केवल उसकी स्नुषा कहिये पुत्रवधूने उन मुनियोको पडगाहा । वे मुनि धर्मलाभ देकर पैदल जिनभवनको गये । तत्स्थाननिवासी द्यति नामके श्रमणने उनकी वदना की । वे मुनि वहा जिनालय मे मुनिसुव्रतस्वामीकी प्रतिमाको नमस्कार कर बैठ गये और वही 'द्य ति' श्रमणके समीप उन्होने आहार किया। 1 1 इस कथन से यह साफ सिद्ध है कि अदत्तके घर मुनियो ने भोजन उदरस्थ किया नही । सिर्फ वहासे तो वे भोज्य सामग्री को अपने साथ ले आये थे । जिसे उन्होंने 'द्य ुति' श्रमण के उपाश्रयमे आके जीमा । दाताके घरसे भिक्षा प्राप्त कर उसे Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ उपाश्रयमे लेजाकर जीमना ही उनके पात्र रखनेका निश्चित सुवूत है। यही कथा श्वेतांवर जैन रामायण x मे भी इसी तरह पाई जाती है। उसके अनुवादको यहाँ मे ज्योका त्यो दे देता हूँ "एकबार वे मुनि पारणा करनेके लिये अयोध्यामे गये । यहा अहंदत्त सेठके घर भिक्षाकै लिये गये । सेठने अवज्ञाके साथ उनकी वदना की और मनमे सोचा कि ये कैसे साधु हैं जो वर्षाऋतुमे भी विहार करते है मैं इनसे कारण पूछू ? नहीं। ऐसे पाखडियोसे बात करना वृथा है सेठकी स्त्रीने उनको आहारपानी दिया। वे आहारपानी लेकर धु ति नामा आचार्य के उपाश्रयमे गये। छ ति आचार्यने उनको आसान दिया उसी पर बैठकर उन्होंने पारणा किया।" पृष्ठ ३८७ पाठक मोचते होंगे कि इस जगह पद्मचरितमे कंसा कथन है ? पदमचरितमे और तो सब ऐसा ही कथन है किन्तु उसमे चारण मुनियोका'छु ति भट्टारकके यहा आकर भोजन जीमनेका कथन नहीं है। इसके अलावा एक बात और भी विचारणीय है और वह x हेमचन्द्राचार्यकृत 'त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र' के सम्म पर्वमे जो राम रावणकी कथा है उसीका हिन्दी अनुवाद पन्थ भण्डार, मटूगा, बबई ने जैन रामायणके नामसे छपाया है । अनुवादक हैं कृष्णलालजी वर्मा 'प्रेम' । ग्रथ वडासा है जिसमे १० सर्म हैं। कथा पउम परिय और पद्मचरितसे अधिकाशमे मिलती हुई हैं, कही २ थोडा बहुत फर्क भी है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या पउमचरिय दिगम्बर ग्रन्थ है ] [ २७७ यह है कि-दोनो ही ग्रथोमे सैकडो जगह मुनिवाचक शब्द आये है। किन्तु पद्मचरितमे जहा जातरूप, नग्न, अचेल, पाणिपात्र, गगनांबर, दिग्वास आदि या इन्ही अर्थवाले अन्य नाम आते है वहा पउमचरियमे मुनिके पर्यायवाची ऐसे नाम भूलकर भी न मिलेंगे (उपर्युक्त 'सियवर' शब्दको छोडकर) किन्तु वहा मिलेंगे निर्ग्रन्थ, मुनि, साधु, श्रमण, यति आदि सामान्य शब्द । श्वेतावराम्नायमे जिनकल्पी साधुका स्वरूप नग्न होते भी इतने वडे भारी पुराणमे जिसमे चतुर्थकालकी आदिसे लेकर अन्त तक होने वाली कितनी ही कथाओका समावेश है एक भी साधुको नग्न नही लिखना ग्रन्थकर्ताका नग्नत्वके प्रति अवश्य उपेक्षाभाव जाहिर होता है। (इसप्रकार जिस पउमरियमे इतनी बातें दिगवर संप्रदायकै विरुद्ध पायी जाती हैं यहातक कि मुनिके वस्त्र और पात्र तक रखना जिसमे प्रमाणित होता है और जिसका कर्ता मुनिके लिये दिगबर शब्द तकका प्रयोग करना नहीं चाहता उसे दिगंबर ग्रथ बतलाना भारी भूलहै । और यह भी नही कह सकते कि 'यह ग्रन्थ उस समय वना है जव जैनधर्ममे दिगवर श्वेतोबर भेद नही हुआ था। फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि- शायद यह ग्रथ उस वक्त का हो जव जैनधर्ममे दिगबर श्वेतावर भेद स्पष्ट तौरपर न होकर उसकी परिस्थिति तैयार होरही हो कोई एक दल नय मार्ग निकालनेकी फिराकमे हो जिसके लिये धार्मिक गयोमे छिपे तौरपर मिलावट भी की इससे यह ज्ञात होता है कि परामचरिय से कीतिघर के ग्रन्थ का अनुसरण करते हुए भी ग्रथ को किसी श्वेतावर ने बदला है अथवा कीतिघर के प्रथ को बदलकर श्वेतरवर बनाने का प्रयत्न किया है । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ★ जैन विबन्ध रत्नावली भाग. २ - २७८ ] I जारही हो । यह अनुमान इसलिये भी ठीक होसकता है कि पउमचरिय जैसे एक बडे ग्रन्थमे मुनिके वस्त्र पात्रका उल्लेख सिर्फ एक-एक ही मिला है । और वह भी अति सक्षेपसे । 1 यहापर 'खडेलवाल जैन हितेच्छु' के उस लेखपर विचार करना भी आवश्यक प्रतीत होता है, जिसमे पउमचरियको farar ग्रन्थ सिद्ध करनेका उद्योग किया गया था। जिसका कि जिकर ऊपर किया गया है । वह लेख जिस अकमे मैंने पढा था उसमे अपूर्ण था, आगेके अकोमें पूरा निकला होगा किन्तु वे मेरे देखने मे नही आये । अत उक्त लेखाशमे जो लिखा था उसीपर मैं यहाँ विचार करताहू | 1 ( उस लेख मे लिखा था कि - " पउमचरियमे महावीर जिनका गर्भापहरण व उनका विवाह नही पाया जाता और केवलीके उपसर्गका अभाव भी उसमे निरूपण किया है इससे वह दिगम्बर ग्रन्थ है ।”) बेशक में यह मानता हूँ कि पउमचरिय के दूसरे पर्वमे जी महावीर स्वामीका चरित्र लिखा है, उसमे महावीरका माता त्रिशलाके गर्भमे आना बताया गया है व विवाहका कथन भी नही है । जिसका उत्तर यह भी होसकता है कि कथन सक्षेप होनेके कारण वैसा न लिखा गया हो। क्योकि यहां खासतौर से महावीरका चरित्र तो कहना ही न था जो सिलसिलेवार पूरा वर्णन करें। यहा तो कथाकी उत्थानिकाके तौरपर मामूली कयन करना था । अथवा सभव है कि गर्भापहरणकी कल्पना श्वेताबर ग्रन्थकारोकी पीछेकी हो । केवलोके उपसर्गका अभाव इसीमे क्या अन्य श्वेताम्बर ग्रन्थो मे भी पाया जाता है । वीर जिनके केवली अवस्थामे उपसर्गका होना जो श्वेताम्बर आगम मे पाया Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयी पउमचरिय दिगम्बरे ग्रन्थ है ] [ २७६ जाता है वह एक विशेष बात है जिसे उन्होने भी आश्चर्य नाम से लिखा है । और वह पउमचरियमे संक्षेपताके कारण नही लिखा गया है ऐसा जान पडता है । लेखक ने एकबात अपनी जाण मे as मार्केकी लिखी है । वह पउमचरियके निम्न पद्यको जिसमे पाच तीर्थंकरोको कुमारावस्थामे दीक्षा लेनेका कथन है महावीर की अविवाह सिद्धिमे पेश किया है ******* मल्लो भरिट्ठनेमी यासो वीरो य वासुपुज्जो ॥५७॥ एए कुमारसीहा गेहाओ णिगया जिणर्वारिदा । सेसा वि हू रायाणो पुहई भोत्तण क्खिता ॥५८॥ पर्व २० अर्थ - मल्लि, अरिष्टनेमि, पार्श्व, वीर और वासुपूज्य ये पाच तीर्थंकर कुमारपणे मे घर से निकले - यानी दीक्षा ली, ओर शेप तीर्थकर राजा हो पृथ्वीको भोग दीक्षा ली । Bada Ar Pl यहा भी लेखकने कुमार शब्दमे गलती खाई है । यहा कुमारसे मतलब है राज्याभिषेक के पूर्व की अवस्था, न कि बालब्रह्मचारित्व | नही तो ग्रन्थकर्त्ता यो नही लिखते कि - 'शेष तीर्थकर राज भोगकर दीक्षा ली' । इसी तरहका वर्णन श्वेताम्बरोके 'आवश्यक सूत्र' मे भी पाया जाता है । यथा वीर अरिट्ठनेम पासं मल्ल च वासुपुज्ज च । एए मोत्तण जिणे अवसेसा आसि रायाणो ॥ २४३॥ ★मय इच्छियाभिसेया कुमारवासंमि पवइया । आवश्यक सूत्र • ★ रायकुलेसु विजाया वियुद्धवसेसु खनिसकुलेसु । य इत्थि आभिसेभा कुमारं वासमि पव्वय ॥ आवश्यक निर्युक्ति ? Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अर्थ - वीर, अरिष्टनेमि, पार्श्व, मल्लि और वासुपूज्य इन पच तीर्थकरोको छोड़कर बाकी तीर्थंकर राजा हो दीक्षा ली । और उक्त पाचो ने राज्याभिषेकको नही चाहते हुए कुमारावस्था मे ही दीक्षा ली। पाठकोको यह स्मरण रहे कि इसी आवश्यक सूत्रमें महावीर जिनका विवाहही नही उनके सतान तकका उल्लेख है । इसप्रकार लेखकने पउमचरियको दिगम्बर ग्रन्थ सावित करनेके लिये जो-जो दलीले दी वे सब नि सार और अकिचित्कर है । पद्मपुराणकी प्रामाणिकता मे संदेह रविषेणके पद्मचरितमे कितना ही कथन ऐसा भी है जो दिगम्बर मान्यता के विरुद्ध पडता है । और वह पउमचरिय का अनुसरण करते हुये किसी तरह उसमे प्रविष्ट होगया जान होगया पडता है । जैसे मेरुको कपित करनेसे महावीर नाम होना X ( खण्ड १ ष्ठ १५) विद्याधर वशकी उत्पत्ति नमिविनमिसे बताना + (ख० १ पृ० ६८ ) जबूद्वीप के अधिपति यक्षकी देवियोका, रावणपर मोहित हो उससे सभोगकी इच्छा करना। (खड १ पृष्ठ १६४ ) जिन प्रतिमाके मुकुट धारण, (खड २ पृष्ठ ३०) दो केवलीका X अशग कविकृत महावीर चरित और श्री धर्मचन्द्रकृत गौतमचरितमे भी ऐमा उल्लेख है वह पद्मचरित परसे लिया गया ज्ञात होता है। तथा इसकी भी गणना दिगम्बर श्वेतावर के ८४ अन्तरोमे है । + क्या पहिले विद्याधर नही थे । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या पउमचरिय दिगम्बर ग्रन्थ है । [ २८१ साथ २ रहना और दोनोकी एक ही गधकुटी बनना, (खं० २ पृ० १६२) लक्ष्मणका खरदूपणकी स्त्रीपर आसक्त होना,* (ख०२ पृ० २४३) देवोका परस्परयुद्ध, (ख० ३ पृ० २१) उत्कृष्ट अणुव्रती क्षुल्लकका शस्त्रविद्या सिखाना, (ख० ३ पृ०२४७) मुनि का रात्रिमे मामूली बात के लिये बोलना, (ख० ३ पृ० ३१८) । इन सबका विशेष कपन लेख बढ़ जाने के भयसे छोडा जाता है। यहाँ मैं इतना स्पष्ट और कर देता हूँ कि पद्मचरितकी उक्त बातें जिन्हें देखना हो उन्हें माणिकचन्द्र ग्रन्थमोलासे प्रकाशित संस्कृत मूल पद्मचरित++देखना चाहिये उसीके ऊपर खंड, पृष्ठ लिखे गये हैं। स्वर्गीय प० दौलतरामजी कृत वचनिकामे प्रायः ये बाते न मिलेगी। वचनिकार तो येही क्या और भी कितनी ही सैकड़ों वाते उडा गये है और इस तरह ग्रन्थकर्ताके कितने ही अभिप्रायोसे पाठकोको वचित रक्खा है। किसी अनुवादकको ऐसी कृति प्रशसनीय नही कही जासकती । सच तो यह है कि पचनि * यह सिद्धांत विरुद्ध तो नही है किन्तु बात मई सी है। ++यह ग्रंय वहुत ही अशुद्ध छपा है। पं० वीरेन्द्रकुमारजी शास्त्री केकडीने एक हस्तलिखित प्रतिसे छपी प्रतिको मिलाकर उसकी ढेर अशुद्धिये छाटकर अलग सग्रह किया है। संस्कृत ग्रन्थका इस तरह चेपर्वाह और अधाधु धी से छपना अफसोसकी बात है । उन अशुद्धियोको शुद्ध कर लेनेपर भी प्राकृत लेखमे उठाये पये आक्षेपोमे कोई फेरफार नही होता। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ काकारकी इस कृपासे ही यह ग्रन्थ अबतक थोडा बहुत प्रमाण मांना जारहा है। अन्यथा ऐसी बातोका दिगबर संप्रदायमे क्या काम ? मुझे आश्चर्य और साथही खेद भी है कि दिगवर मतका कहा जानेवाला एक प्राचीन पौराणिक ग्रन्थका यह हाल है। यह सब एक विभिन्न आम्नायके ग्रन्थकी नकल करनेका परिणाम है। नकलका रग तो यहातक बढा है कि आप सारे पद्मचरितको देख जाइये सैकड़ो जगह मुनि धर्मके कथनका प्रसंग होते भी उसमें २८ मूल गुणोंके नाम न मिलेंगे क्योकि जब पउमचरियमे नही तो पद्मचरितमे कहाँसे मिल सकते हैं । और इसीलिये हरिवंशकी उत्पत्तिमे भी गडबडी हुई है जैसा कि ऊपर कहा गया है। पदुमचरित पर्व ३२ के अन्तमे जो जिनप्रतिमाके पंचामृताभिषेकका विवेचन है वहभी हबह पउमचरिय की नकल है। आश्चर्य नहीं जो अन्य दि ग्रन्थों में पचामृताभिषेक का पाया जाना इसीका प्रताप हो उत्तरोत्तर ग्रन्थकर्ता देखादेखी ऐसा ही कथन करते चले गये हो और इस तरह पर एक भिन्न सप्रदायकी थोथी क्रियाकाडकी परम्परा चल पड़ी हो । तेरहपथ का उसे न मानना भी इस अनुमानको दृढ करता है कुछ भी हो ये बाते हमको सावधान करनेके लिये पर्याप्त है कि किसी सस्कृत प्राकृत ग्रन्थको महज एक प्राचीन होनेकी वजहसे ही मान्य नही कर लेना चाहिये। किन्तु ऐसे मामले मे सदसद्विवेक बुद्धिसे पूरा काम लेना चाहिये। दोनो ग्रन्थों में एक अत्यंत चितनीय स्थल अउसछि सहस्साई वरिसाणं अंतर समक्खायं । तित्थयरेहि महायस भारहरामायणांण तु ॥१६॥ पर्व १०५ 'पउमरिय'। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या पउमचरिय दिगम्बर ग्रन्थ है ] [ २८३ वष्टिवर्षसहस्राणि चत्वारि च तत. पर। रामायणस्य विज्ञयमतरं भारतस्य च ॥ २८॥ . 'पद्मचरित' पर्व १०६ (इनमे लिखा है कि महाभारत और रामायणमे यानी श्रीकृष्ण पाडवादि और रामरावणादिक, समयका अतर ६४ हजार वर्षका है । " यह अन्तर बहुत ही विचारणीय है मुनिमुव्रतके तीर्थमे श्रीरामचन्द्र हुए और नेमिनाथके वक्त श्रीकृष्ण । तथा दोनो ही ग्रन्थोंके पर्व २० मे जो तीर्थकरोका अन्तराल कथन है वहा लिखा है कि मुनिसुव्रतके छह लाख वर्षवाद तो हुए नमिनाथ और नमिनाथके ५ लाख वर्षबाद हुए नेमिनाथ । अर्थात् मुनिसुव्रत और नेमिनाथका अन्तराल ममय ११ लाख वर्षका होता है । तब यहाँ भारत और रामायणका अन्तर ६४ हजार वर्ष ही कैसे लिखा है। हमने खूब ही विचार किया पर किसी तरह इस कथनकी सगति नही बैठती । अन्य विद्वानोको भी सोचना चाहिये । इति)* *पद्मचरित की प्रशस्ति में रविषेण ने जिनको गुरु रूप में नमस्कारादि किया है वे जनाभास प्रतीत होते हैं- यापनीय सघादि या चैत्यवासी हो । 'पउमचरिय' की हस्तलिखित प्रतियां भी मात्र श्वे. ग्रथ मण्डारो मे हो पाई जाती है दि० ग्रथ भण्डारो मे कतई नहीं इससे भी पूउमचरिय श्वे० कृति सिद्ध होती है । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ प्रतिष्ठाचार्यों के लिये एक विचारणीय विषय मोक्षकल्याणक आजकल प्रतिष्ठाचार्य भगवान् अहंत देव की प्रतिष्ठा मे मोक्षकल्याण के विधान मे अग्निकुमार देव के मुकुट से उत्पन्न अग्नि में भगवान के दाह संस्कार का दृश्य दिखाते है। ऐसा करना उनका शास्त्र सम्मत प्रतीत नहीं होता है । क्योकि दाह संस्कार के समय में जब भगवान्, अरिहन्त ही न रहेंगे तो उनकी प्रतिमा भी अहंत प्रतिमा कैसे मानी जायेगी। दाह संस्कार भगवान के निर्वाण होने बाद किया जाता है । उस वक्त अरिहन्त अवस्था का लेश भी नहीं रहता है। अरिहन्तदेव के अघातिया कर्मों का नाश होता नहीं और दाह संस्कार उनका अघातिया कर्मों के नाश होने के बाद ही किया जाता है। वर्तः मान में प्रचलित किसी भी प्रतिष्ठाशास्त्र मे दाह-सस्कार का दृश्य दिखाने का उल्लेख नही है। फिर न जाने ये प्रतिष्ठाचार्य मनमानी कैसे कर रहे हैं ?"चूकि भविष्य मे प्रतिमा अरिहन्तदेव की मानी जायेगी, अत. उनका मोक्ष गमन दृश्यरूप मे बताना किसी तरह उचित नहीं है। अर्थात केवल ज्ञानी भगवान् का धर्मोपदेश-विहार आदि बताये बाद उनका दश्यरूप मे मोक्ष गमन न बताकर उनके मोक्ष गमन का मात्र स्मरण कर लेना Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठाचार्यों के लिए एक विचारणीय " ] [ २८५ चाहिये कि इसके बाद भगवान् मोक्ष पधार गये । इसी आशय को लेकर जयसेन ने स्वरचित प्रतिष्ठा शास्त्र के पद्य न० ६११ के आगे गद्य मे ऐसा लिखा है - 'निर्वाण भक्तिरेव भक्तिरेव निर्वाण कल्याणारोपण, साक्षात्त न विधेयं स्मरणीयमेवेति । इसकी वचनिका - 'अर पंचकल्याणनि मे च्यारिकल्याण तो विधान सयुक्त किया । अर पुचम कल्याण मोक्षकल्याण है सो निर्वाणभक्ति पाठमात्र ही आरोपण करना । साक्षात् विधान नही करना । स्मरणमात्र ही है। ऐसा अनिर्वाच्य समझि लेना ।' (यहाँ मोक्ष कल्याण का विधान निर्वाणभक्ति का पढलेना मात्र बताया है और साक्षात् विधान करने का निषेध किया है । ऐसी सूरत मे प्रभु के दाह संस्कार को दृश्यरूप मे बताना साक्षात् विधान करना होगा और स्पष्ट ही शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करना कहलावेगा । जयसेन ने मोक्षगमन का साक्षात् विधान नही लिखने के साथ ही साथ उन्होने मोक्षकल्याण के अर्थ इन्द्रादि देवो का आगमन भी नही लिखा है और न चौवीस तीर्थंकरो की मोक्षति थियो की पूजा ही लिखी है । जब कि वे अन्य कल्याणको मे उन कल्याणको को तिथियो को पूजा लिखते रहे हैं इससे यही फलितार्थ निकलता है कि जयसेन की दृष्टि अर्हतप्रतिमा में मोक्षकल्याण की प्रधानता नही है । और जवकि मोक्षकल्याण मे देवो के आगमन का ही उल्लेख नही है तो अग्निकुमारदेव के मुकुट से अग्नि उत्पन्न करना आदि दृश्य दिखाना स्पष्ट ही शास्त्र विरुद्ध है ।) इसके अतिरिक्त अरिहन्त Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ मूर्ति के पादपीठ पर जो प्रतिष्ठा की तिथि अकित की जाती है वह भी ज्ञानकल्याणक के दिन की ही अकित की जाती है। (इससे भी यही सिद्ध होता है कि अईत्प्रतिमा मे मोक्षकल्याण का माक्षात् विधान नही है, स्मरणमात्र है, साक्षात् विधान असगत है (सिद्ध प्रतिमा मे पचम कल्याण प्रदर्शन फिर भी सगत हो सकता है, अर्हत्प्रतिमा मे नही))। आशा है वर्तमान के प्रतिष्ठाचार्य इस पर गम्भीरता से विचार करेंगे । उनके विचारार्थ ही हमने यह लेख प्रस्तुत किया है । अगर अर्हत्प्रतिमा मे दाह-सस्कार का विधान करना उन्हे भी अयुक्त नज़र आये तो उनका कर्तव्य है कि आगे के लिए उन्हे ऐसा करना बन्द करना चाहिये ताकि गलत परम्परा यहीं समाप्त हो जाये । प्रतिष्ठा सम्बन्धी और भी भूले हमने पहिले दिखाई थी जिनकी चर्चा 'जैन निबन्ध रत्नावली' पुस्तक मे की गई है उन पर भी ध्यान दिया जाये ऐसी प्रार्थना है । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकोटि विशुद्धि जिन आहारादि के उत्पादन मे मुनि का मन, वचन, काय के द्वारा कृत कारित अनुमोदितरूप कुछ भी योगदान न हो ऐसा आहारादि का लेना मुनि के लिऐ नवकोटि विशुद्धिदान कहलाता है.। अर्थात जो आहारादि मुनि के मन के द्वारा कृतकारित-अनुमोदित न हो। न उनके वचन के द्वारा कृत-कारित अनुमोदित हो और न उनके काय के द्वारा कृत-कारित-अनुमोदित हो ऐसे आहारादि का दान नवकोटि विशुद्ध दान कहलाता है। मतलब कि देयवस्तु के सम्पादन मे मुनि का कुछ भी संपर्क नहीं होना चाहिये । इससे आहारादि के निमित्त हुआ आरम्भदोष मुनि को नही लगता है । वरना वह मुनि अध कर्म जैसे महादोष का भागी होता है। अनेक ग्रन्थो मे नवकोटि विशुद्धि का यही स्वरूप लिखा मिलता है । किन्तु आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण पर्व २० मे नवकोटि विशुद्धि का एक अन्य स्वरूप भी लिखा है। यथा दातु विशुद्धता देय पानं च प्रपुनातिसा। शुद्धि यस्य दातार पुनीते पानमप्यद ॥१३६।। पात्रस्य शुद्धि दातारं देय चंद पुनात्यत । नवकोटि विशुद्ध तदानं भूरिफलोदयम् ॥१३७॥ अर्थ-दाता की शुद्धि देय और पाय को पवित्र बनाती Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ है देय की शुद्धि दाता और पात्र को शुद्ध करती है। एक पात्र की शुद्धि दाता देय को पवित्र करती है। इस प्रकार का नवकोटि शुद्ध दान प्रचुर फल का देने वाला होता है। इसमे जो लिखा है उसका अभिप्राय ऐसा है कि दाता, देय (दान का द्रव) और पात्र (दान लेने वाता) इन तीनो मे यदि तीनो ही अशुद्ध हो तब तो वह दान विधि दोषास्पद है ही। किन्तु इन तीनो मे से कोई भी दो अशुद्ध हो और एक शुद्ध हो तो उस हालत मे भी वह दान विधि दोषास्पद ही है। यही नहीं तीनो मे से यदि दो शुद्ध हो और सिर्फ एक ही कोई सा अशुद्ध हो तब भी वह दान विधि दोषास्पद ही समझनी चाहिए। मतलब कि दान विधि मे दाता देय और पात्र ये तीनो ही निर्दोप होने चाहिये तब ही वह बहुत फल को दे सकती है। तीनो मे कोईसा एक भी यदि सदोष होगा तो वह दान विधि प्रशस्त नही मानी जा सकती है । उक्त श्लोक द्वय मे लिखा है कि दाता की शुद्धि देय और पात्र को पवित्र बनाती है। इस लिखने का भाव यह है कि यद्यपि देय और पात्र शुद्ध है मगर दाता अशुद्ध है तो इस एक की अशुद्धि ही सब दान विधि को सदोष बना देगी और दाता व पात्र शुद्ध है मगर देय कहिये दान का द्रव अशुद्ध है तो यहाँ भी इस एक की अशुद्धि ही समस्त दान विधि को सदोष वना डालेगी। इसी तरह दाता और देय शुद्ध है मगर पात्र अशुद्ध है तो वह दान विधि भी सारी की सारी सदोष ही समझी जाएगी। जिन सेना चार्य का यह कथन आशाधर ने सागर धर्मामृत अध्याय ५ श्लोक ४७ की टीका मे तथा अनगारधर्मामृत के Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकोटि विशुद्धि ] [ २८६ ५ वें अध्याय के अन्त में और शुभचन्द्र ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा ३६० की टीका में उद्धृत किया है । किन्तु सोमदेव ने यशस्तिलक के निम्न श्लोक मे जिनसेन के उक्त कथन के विरुद्ध लिखा है । मुक्तिमात्रप्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् । ते संतः संत्यसंतो वा गृही दानेन शुद्ध्यति ॥ ८१८ || अर्थ - भोजनमात्र के देने में साधुओ की क्या परीक्षा करनी ? वे चाहे श्रेष्ठ हों या हीन हो । गृहस्थ तो उन्हें दान देने से शुद्ध हो ही जाता है । सोमदेव ने इस श्लोक मे यह शिक्षा दी है कि मुनि को आहार दान देते वक्त गृहस्थ को यह नही देखना चाहिए कि यह मुनि आचारवान् है या आचार भ्रष्ट है उसकी जाँच पडताल करने की जरूरत नहीं है। मुनि चाहे कैसा ही अच्छा बुरा क्यों न हो गृहस्थ को तो आहारदान देने का अच्छा ही फल मिलेगा । सोमदेव का ऐसा लिखना जिनसेनाचार्य की आम्नाय के विरुद्ध है क्योकि जिनसेन ने ऊपर यह प्रतिपादन किया है किपात्रकी शुद्धि दाता और देय दोनोको पवित्र बनाती है । प्रकारातर से इसी को यो कहना चाहिए कि - पात्र की (दान लेने वाले साकी अशुद्धि दाता और देयको भी अशुद्ध बनादेती है । भावार्थ उत्तमदाता और उत्तम देय के साथ-साथ दान लेने वाला भी सुपात्र होना चाहिए तबही दानीको दानका यथेष्टफल मिलता है । महर्षि जिनसेन और सोमदेव के इन परस्पर विरुद्ध वचनो मे किनका वचन प्रमाण माना जाए यह निर्णय हम विचारशील पाठको पर ही छोड़ते है । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढाई द्वीप के नक्शे में सुधार की आवश्यकता ___ यह नक्शा हाल ही में श्रीयुत पन्नालाल जी जैन दिल्ली की ओर से प्रकाशित हुआ है। जैन भूगोल के ज्ञान की जैन समाज में बडी कमी है । और तो क्या जैन विद्वान तक भी इस दिशा में पूरी जानकारी नहीं रखते है । ऐसी अवस्था मे आपका यह प्रयास समयोपयोगी और स्तुत्य है। आपने परिश्रम के साथ यह नक्शा तैयार किया है तदर्थ आप धन्यवाद के पात्र है । इसके पहिले आपने चौबीस तीर्थंकरों के ज्ञातव्य विपयो का नक्शा भी प्रकाशित करके वितरण किया है। ऐसे कामो में आपकी अभिरुचि होना यह एक सराहनीय बात है। उक्त अढाई द्वीप का नक्शा मेरे सामने है। देखने पर उसमे मुझे भूलें नजर आई हैं, जिनका मैं यहाँ उल्लेख कर देना उचित समझता हूँ। (१) विदेह क्षेत्र मे सीता के उत्तर तट और सीतोदा के दक्षिण तट के देशो को नक्शे मे उल्टेकम से लिखे है। यानी दें लवणसमुद्र से भद्रशालवन की तरफ लिखे गये हैं। ऐसा लिखना मलत है । उन्हे क्रम से भद्रशाल से लवण समुद्र की तरफ लिखने Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६१ चाहिये । प्रमाण के लिये देखो त्रिलोकसार की ६८७ आदि गाथायें । अढाई द्वीप के नक्शे मे सुधार """ ] (२) नक्शे में युग्मधर का स्थान सीताके दक्षिण तटपर, का सीतोद के दक्षिण तटपर और सुबाहुका सीतोदाके उत्तर तटपर बताया है वह भी गलत है । क्योकि ग्रन्थो मे युग्मधर की नगरी का नाम विजया लिखा है । यह नाम शास्त्रो मे सीता के दक्षिण तट की नगरियो मे कही नही है । और बाहु की नगरी का नाम सुसीमा लिखा है यह नाम भी सीतोदा के दक्षिण तट की नगरियो मे नही है । तथा सुबाहु की नगरी का नाम वीतशोका लिखा है यह नाम भी सीतोदा के उत्तर तट की नगरियो मे नही है । इससे मालूम होता है कि इन तीनो तीर्थंकरोके जो स्थान नक्शेमे बताये गये हैं वे गलत हैं । और इसी माफक नक्शे मे अन्य चार मेरु सम्बन्धी विदेहो मे शेष १६ विद्यमान तीर्थंकरो के स्थान बताये है वे गलत है। सही स्थान युग्मधर, बाहु, सुबाहु का क्रमश. सीतोदा का उत्तर तट, सीता का दक्षिण तट और सीतोदा का दक्षिण तट है । इसी माफक धातकी द्वीपादि के विदेहो में समझना चाहिये । प्रमाण के लिये देखो कवि द्यानतराय जी कृत धर्म विलास मे 'वर्तमानबीसी दशक' नामक पाठ । इस विषय मे हमारा एक लेख गत कार्तिक कृष्णा ५ के जैन मित्र के अंक मे छपा है उसे देखना चाहिये । (३) नक्शे में हैमवत, हरि, रम्यक और हैरण्यवत इन क्षेत्रो के मध्य मे वैताढ्य पर्वत बताया है । वह गलत है, उसकी जगह नाभिगिरि लिखना चाहिये । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ (४) नक्शे मे गंगा सिन्धु को दक्षिण की तरफ के लवण समुद्र में गिरना चित्रित किया है। यह गलत है, दोनो नदिय दक्षिण भरत के अर्द्ध भाग तक ही दक्षिण की ओर वह कर फिर पूर्व-पश्चिम की ओर मुडकर सीधी पूर्व-पश्चिम की तरफ के लवण ममुद्र में गिरी है। इसी तरह की गलती रक्ता रक्तोदा के सम्बन्ध में की गई है। प्रमाण के लिये देखो त्रिलोकसार की गाथा ५६६ वी। (५) नक्शे में धातकी और पुष्कराद्ध द्वीप की रचना अकित की है परन्तु दोनो द्वीपो के नाम कही नही लिखे है। ६)-नक्शे मे धातकी और पुष्कराद्ध के पूर्वापर भागो को विभाजित करने वाले चार पर्वतो के नाम वक्षारगिरि लिने है। यह गलत है, उनकी जगह इक्ष्वाकार गिरि नाम लिखने चाहिये। ७) धातकी और पुष्कराद्ध मे गंगाको आधे भरत क्षेत्रमे लिखकर उसीको आधे भरतमे सिंधु नामसे लिंखाहै । और सिंधु को भी आधे भरतमे गंगा के नामसे लिखा है। यही भूल उक्त दोनो द्वीपों के ऐरावत क्षेत्र मे की है। (८) नदीश्वर द्वीप मे ५२ जिनालयो को रचना में दधिमुख और रतिकर पर्वतो के नाम लिखकर यह सूचित किया है कि उनपर जिनालय हैं। किन्तु उनकी तो सख्या ४८ ही होती है। शेष ४ जिनालय कहा किस पर्वत पर है यह नक्शेमे कहीं नहीं लिखा गया है। ४ जिनालय 'अजन गिरि' पर है। ४ दधिमुख भी नही लिखे हैं वे भी लिखने चाहिए । (६) २५ से ३२ तक के क्षेत्रो पर 'भूतारण्य' तथा १७ से Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढाई द्वीप के नक्शे में सुधार" - ] [ २६३ २४ पर "देवारण्य' दिया है उनकी जगह क्रमश "देवारण्य" "भूतारण्य" परिवर्तित करना चाहिए । देखो त्रिलोकसार गाया ६६० की वचनिका। __ (१०) नक्शे मे हृद् जगह-जगह लिखा है सर्वत्र ह्रद चाहिए अथवा द्रह कर देना चाहिए। (११) कालोदधि समुद्र लिखा है यह गलत है क्योकि उदधि, समुद्र दोनो एकार्थक हैं अत 'कालोदक समुद्र' नाम देना चाहिए अथवा सिर्फ "कालोदधि" । (१२) हैरण्यवन क्षेत्र हैमवन क्षेत्र लिखा है चाहिए हैरण्यवत क्षेत्र हैमवत क्षेत्र । (१३) नदी नामो मे हरि नदी लिखा है चाहिए हरित् नदी। इमोतरह कही-कही 'नरकाता' नदी का नाम भी गलत लिखा है।' इस प्रकार ये भूले नक्शे में हमारी दृष्टि मे आई है । यदि इस विषय के किसी अच्छे जानकार विद्वान् से परामर्श करके नक्शा तैयार किया जाता तो ये भूले उसमे नहीं रहती। नक्शे का आकार भी बेडौल है। अगर कुछ महीन अक्षरो मे छापा जाता तो नक्शा कुछ छोटा बनकर काच मे जडने योग्य चन जाता व उसमे और भी आवश्यक जानकारी दी जा सकती थी। जैसे विदेह क्षेत्र सम्बन्धी मुख्य नगरियो के नाम, विभगा नदिये, वक्षारगिरि, जम्बूशाल्मली वृक्ष, भद्रशाल आदि वन वगैरह। नक्शे मे सकेतसूचिका, सबोधन आदि देकर व्यर्थ ही नक्शे का कलेवर भरा गया है। इनकी जगह अढाई द्वीप मे कहाकहा अकृत्रिम चैत्यालय है उनकी कुल कितनी सख्या है, मेरु को Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ ऊचाँई, चौडाई कितनी है। विदेह के प्रत्येक देश में चक्रवर्ती छहखडो का विजय करता है वे छह खण्ड वहा कैसे बनते है, इत्यादि विवरण लिखा जाना चाहिये था । जो भूले हमने यहा बताई हैं उनका सशोधन नक्शे मे जरूर सूचित किया जाना चाहिये । वर्ना गलत प्रचार होगा जो अच्छा नही है । हमारी राय मे नक्शे में जहा सकेतसूचिका और सबोधन शीर्षक के नीचे जो कुछ छपा है वे खास आवश्यक नहीं है उसके ऊपर ही सशोधनपत्र चिपका देने चाहिये। __ आशा है भाई पन्नालाल जी साहब इस पर ध्यान देने की कृपा करेंगे। नोट --वर्धमान प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित जम्बूद्वीप का नक्शा (मोटा ग्लेज कागज) काफी शुद्ध है त्रिलोकसारानुसार बिल्कुल सही है। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ कतिपय ग्रंथकारों का समय निर्णय शुभचन्द्राचार्य यहा हम उन शुभचन्द्राचार्य के समय की चर्चा कर रहे हैं जिन्होने ज्ञानार्णव नामक उत्तम शास्त्र बनाया है। उसमे संस्कृत के कोई ४३ पद्य अन्य प्रथो के 'उवतच' रूपसे पाये जाते है। ये सब पद्य स्वयं ग्रन्थकार ने ही उद्धत किये है, टीकाकार ने नही । हमारे समक्ष ज्ञानार्णव की एक ऐसी हस्तलिखित मूल प्रति है जिसको सकलकीति की शिष्यपरम्परा मे होने वाले शुभचन्द्र के शिष्य विशालकीति मुनि ने वि० सं० १६११ मे लिखाई थी। उसमे भी ये पद्य इसी तरह से "उक्त च" लिखे है। उन पद्यो मे पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय और यशस्तिलक के भी पद्य हैं। यशस्तिलक के पद्य ज्ञानार्णव के पृ० ७० और ८७ पर तथा पुरुषार्थसिद्ध्युपाय का "मिथ्यात्वचेदरागा" पद्य पृष्ठ १६५ पर उद्धत है। यह पृष्ठसंख्या ज्ञानार्णव के तीसरे सस्करण की समझनी चाहिये । इनमे से यशस्तिलक का रचनाकाल पूर्णतया निश्चित है । यशस्तिलफ की प्रशस्ति मे उसके कर्ता सोमदेव ने उसको वि० सं० १०१६ मे बनाकर समाप्त किया लिखा है। इससे प्रगट होता है कि ज्ञानार्णव के रचनाकाल की पूर्वावधि वि० सं० १०१६ की है। यानी वह वि० स०१०१६ से पहिले कर बना हुआ नहीं है। बाद मे बना है। कितने वाद मे बना है? इसके लिये रत्नकरडश्रावकाचार की प्रभाचन्द्र कृत खस्कृत Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ टीका दृष्टव्य है। उसके ५ वे परिच्छेद के श्लोक २४ की टीका मे प्रभाचन्द्र ने ज्ञानार्णव का निम्न पद्य उद्ध त किया है क्षेत्र वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । शयनासनं च यानं कुप्यं भांडममी दश ॥४॥ सर्ग १६ प्रभाचन्द्र ने कुछ साहित्य राजा भोज के राज्य मे और कुछ साहित्य भोज के उत्तराधिकारी राजा जयसिंह के राज्य मे निर्माण किया है। इतिहास मे राजा भोज का राज्यकाल वि.स १०७० से १११० तक का और उसके बाद जयसिंह का राज्यकाल वि सं १११६ तक का माना है। यही और इससे कुछ आगे तक का समय प्रभाचन्द्र का है । शुभचन्द्र के समय की उत्तरावधि भी यही समझनी चाहिये यानी इस समय से पहिले पहिले ज्ञानार्णव का निर्माण हुआ है । अर्थात् ज्ञानार्णवकी रचना विक्रम की ११ वी शती का दूसरा तीसरा चरण हो सकता है। श्री विश्वभूषण ने इन शुभचन्द्र को राजा मुज और भोजदेव के समकालीन लिखा है। इस कथन की सगति भी उक्त समय से मिल जाती है । विश्वभूषण ने भर्तृहरि को भी इन्ही शुभचन्द्र के समसामयिक लिखा है सो ये मर्तृहरि शतकत्रय के कर्ता भर्तृहरि से भिन्न कोई अन्य ही भर्तृहरि हो सकते हैं। क्योकि मत हरि के नीतिशतक का "नेता यस्य वृहस्पति" और वैराग्यशतक का "यदेतत्स्वच्छद" ये दोनो पद्य गुणभद्रकृत आत्माशासन मे क्रमश ३२ और ६७ नम्बर पर पाये जाते हैं। अतः तकत्रय की रचना गुणभद्र से भी पहिले हुई है। गुणभद्र का 'स्तित्व वि. स ६१० के लगभग तक का माना जाता है। इसनये जानार्णव के रचयिता शुभचन्द्र जिनका कि समय ऊपर Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय ग्रन्थकारों का समय निर्णय ] [ રણ हम विक्रम की ११ वीं शती बता आये हैं, के काल मे शतकत्रय के कर्ता भर्तृहरि के होने की सभावना नहीं है ।। हेमचन्द्र ने योगशास्त्र (श्वेताबर) लिखा है ज्ञानार्णव और योगणास्त्र के बहुत से स्थल एक समान मिलते है। दोनों मे पहिले कौन हुआ? यह प्रश्न बराबर चला आरहा था। हेमचन्द्र का समय निश्चित है कि वे वि से १२२६ तक जीवित ये। इसलिये अब यह सिद्ध हुआ कि ज्ञानार्णव से करीब डेढ सौ वर्प बाद योगशास्त्र बना है। आचार्य अमतचन्द्र अमृतचन्द्रकृत पुरुषार्थसिद्ध्युपायके कितनेही पद्यजयसेनके धर्मरत्नाकरमे पाये जाते हैं। धर्मरत्नाकर का रचनाकाल वि स १०५५ है। अत पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के रचनासमय की इसे उत्तरावधि समझनी चाहिये । अर्थात् पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रन्थ वि स १०५५ से पहिले बना है, बाद मे नही। कितने पहले बना है । इस पर जब विचार किया जाता है तो पट्टावली में अमृतचन्द्र के पट्टारोहण का समय वि सं ६६२ दिया है वह ठीक जान पडता है इससे उनका अस्तित्व अधिकतया विक्रम की ११ वी शती के एक दो दशक तक कहा जा सकता है। यही समय यशस्तिलक के कर्ता सोमदेव का है। दोनो समकालीन हैं। पद्मनंदी हम जिन पदमनंदी के समय पर विचार कर रहे हैं वे हैं "पद्मनदिपचविंशतिका" मन्थके कर्ता पद्मनदी। इस ग्रन्थके "अध्र वाशरणे" आदि २ पद्य जिनमे १२ अनुप्रेक्षाओ के नाम Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ लिखे हैं रत्नकरंडश्रावकाचार के परिच्छेद ४ श्लो १८ की प्रभाचन्द्रकृत टीका मे पाये जाते है। इससे ज्ञात होता है कि यह पंचविशतिका ग्रन्थ प्रभाचन्द्र से पहिले का बना हुआ है । रत्नकरड की टीका के कर्त्ता प्रभाचन्द्र का काल विक्रम की ११ वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर १२ वी के प्रथम चरण तक का है जैसा कि हम ऊपर बता आये है । इस समय को 'पचविशतिका' की उत्तरावधिका समझना चाहिये । अर्थात् यह ग्रन्थ इस समय से बाद का बना हुआ नही है, पहिले का बना हुआ है । कितना पहिले का बना है ? इस सम्बन्ध मे फिलहाल हम इतना ही कह सकते हैं कि इस ग्रन्थ के प्रथम प्रकरण के श्लो १६७ मे, द्वितीय प्रकरण के श्लो ५४ मे और ६ वे प्रकरण के श्लो ३२मे पद्मनदी ने वीरनदि को अपना गुरु लिखा है। बोधपाहुड गाथा १० की टीका मे श्रुतसागर ने भी वीरनदि को इन पद्मनदी का गुरु लिखा है । एक वीरनदि वे हुये हैं जिन्होने चन्द्रप्रभ काव्य बनाया था । उनके गुरु अभयनदी थे । इन वीरनटि का समय विक्रम की ११ वीं शती का पूर्व भाग माना जाता है । यदि यही समय पद्मनदी का भी माना जाये तो दोनो का समकाल होने से हमारा मन कहता है कि कहीं ये ही वीरनदि तो इन पद्मनदी के गुरु नही हैं ? 'पद्मनदिपंचविंशतिका के चतुर्थप्रकरण-एकत्वसप्तति की कन्नडभाषा मे एक टीका भी उपलब्ध है । उस टीका के रचयिता भी पद्मनंदी ही हैं। पर ये टीकाकार पद्मनदी और मूलग्रन्थकार पद्मनंदी दोनो एक नहीं, भिन्न २ हैं । क्योकि टीकावाले पद्मन्दी के गुरु का नाम शुभचन्द्रराद्वातदेव लिखा है । जबकि मूल ग्रन्थकार पदुमनदी स्वय अपने गुरु का नाम Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय ग्रन्थकारों का समय निर्णय ] वीरनदि लिखते हैं । वे सारे ग्रन्थभर मे शुभचन्द्र का कही कोई उल्लेख नहीं करते हैं तथा कनडी टीका वि सं. ११६३ के आसपास रची गई है । अगर यही समय मूलग्रन्थकारे पद्मनदी का मान लिया जाये तो विक्रम स. ११०० के लगभग होने वाले प्रभाचन्द्र के द्वारा एचर्विशतिका का पद्य उद्ध त कसे किया जाता? जैसाकि हम ऊपर लिख भाये हैं। कनडीटीकाकार और मूलग्रंथकार पद्मनदी को अभिन्न समझने की भ्राति ने इतिहास मे बहुत गडबडी पैदा की है । इस भ्रांति में पड़ कर ही आत्मानुशासन (जीवराज ग्रन्थमाला से प्रकाशित) की प्रस्तावना मे आत्मानुशासन, समाधिशतक और रत्नकरड इन तीनो ही ग्रन्थो के टीकाकार प्रभाचन्द्र को प आशधरजी के वक्त का बता दिया गया है (पृ. २०) जो बिल्कुल तथ्यहीन है। वसुनंदी यहां हम उन वसुनंदी के समय की चर्चा कर रहे है जिन्होने प्राकृतभाषा मे एक श्रावकाचारसथ लिखा है, जिसका प्रचलित नाम वसुन दिश्रावकाचार है। इन्होने ग्रन्थ के अत मे अपनी प्रशस्ति लिखी जरूर है पर उस मे आपने ग्रथ का रचनाकाल लिखने की कृपा नहीं की है। प्रशस्ति मे आपने जो अपनी गुरुपरपरा दी है उसमे तीन नाम लिखे हैं। प्रथम ही श्रीनदी हुये, उनके शिष्य नयनदी हुये, नयनदी के शिष्य नेमिचन्द्र हुये । उन नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनदी ने यह उपासकाध्ययन (वसुन दिश्रावकाचार) ग्रन्थ बनाया। इन वसुन दि के प्रगुरु चे नयनदी तो हो नहीं सकते जिन्होने वि. स ११०० मे सुदर्शन Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ चरित (अपभ्र श) की रचना की है क्योकि वे अपने गुरु का नाम माणिक्य नदि (परीक्षामुख के कर्ता) लिखते है, जबकि वसनदि ने नयनदि के गुरु का नाम श्रीनदि तिखा है। एक श्रीनदि वे हुए हैं जिनके शिष्य श्रीचन्द्र ने पुराणसार बनाया है तथा पुष्पदत के अपभ्रंश महापुराण और रविषेण के पदमचरित पर टिप्पण लिखे है। इन तीनो की रचना श्रीचन्द्र ने धारा नगरी में राजा भोज के समय क्रमश १०७०, १०८० और १०८७ मे की थी। पदमचरित के टिप्पण की प्रशस्ति में श्रीचन्द्र ने अपने गुरु श्रीनंदि को बलात्कारगण का आचार्य लिखा है (देखो "भट्टारकसंप्रदाय" पृ० ३६) । बलात्कारगण के साथ कुन्दकुन्दान्वय और सरस्वती गच्छ ये दो विशेषण भी लगे रहते है। सरस्वती गच्छ विशेषण विक्रम की १४ वी सदी से लगने लगा है । इस गण के साधु ११ वी १२ वी सदी मे ही भूमि-दान लेने लग गये थे। वसुनदि ने जो अपनी गुरु परम्परा लिखी है उसमे उन्होने श्रीनदि को कुन्दकुन्दान्वयी लिखकर उनका बलात्कारगण इगित किया है। अत वसुनदि की गुरुपरम्परा के श्रीनदि और उक्त श्रीचन्द्र के गुरु श्रीनदि दोनो एक ही मालूम पड़ते हैं। इन्ही श्रीनदि के शिष्य नयनदि हुये हो और नयनदि के शिष्य नेमिचन्द्र तथा नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनंदि को मान लिया जावे और जो समय श्रीचन्द्र का स० १०८७ आदि उपर लिख आये है वही समय वसुनदि के दादा गुरु नयनदि का भी मान लिया जावे तो इस हिसाब से वसुनदि का अस्तित्व विक्रम की १२ वीं शती के दूसरे चरण मे माना जा सकता है। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय ग्रन्थकारो का समय निर्णय ] [ ३०१ एक और श्रीनदि का उल्लेख स्व० पडित जुगलकिशोर जी मुख्तार ने वसुन दि के समय का निर्णय करते हुए रत्नकरण्ड -श्रावकाचार की प्रस्तावना पृ०७४ मे किया है वहा लिखा है . "श्रीनदि को दिये हए कुछ दानो का उल्लेख गुडिगेरि के टूटे हुए एक कनडी शिलालेख में पाया जाता है जो वि० स० ११३३ का लिखा हुआ है। इससे मालूम होता है कि श्रीनदि वि० सं० ११३३ मे भी मौजूद थे। ऐसी हालत मे आपके प्रशिष्य नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनदि का समय विक्रम की १२ वीं शताब्दी का प्रायः अन्तिम भाग और सभवत्त, १३ वी शताब्दी का प्रारम्भिक भाग भी अनुमान किया जा सकता है ।" इस तरह अब तक के अन्वेषण के अनुसार १२ वी शताब्दी का दूसरा चरण और १३ वी का प्रथम चरण दोनो ही समय वसुनदि के हो सकते है। प्रभाचन्द्र ने रत्नकरड टीका पृ० ८० मे "पडिगहमुच्चठाण" गाथा दी है। यह गाथा वसनदि श्रावकाचार मे २२५वे नम्बर पर है परन्तु दोनो गाथाओ का चौथा चरण भिन्न है इससे ऐसा आभास होता है कि इस प्राचीन गाथा का चौथा चरण वदल कर वसुनदि ने इसे अपनी बना ली है। प्रभाचन्द्र ने इसे अन्यत्र से ली है। वसुनदि के नाम से श्रावकाचार के अतिरिक्त मूलाचार पर आचारवृति भी पाई जाती है। कुछ विद्वान दोनो रचनाओ को एक ही वसुनदि की कृति मानते हैं पर मैं इससे सहमत नहीं हूँ मैं उक्त दोनो रचनाओ को वसुचदि नाम के दो भिन्न-भिन्न Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ ग्रथकारो की कृति समझता हूँ। आचारवृत्ति मे एक स्थान पर अमितगतिश्रावकाचार के कुछ पद्य उद्धृत है इससे यह कहना कि आचार वृत्ति के कर्ता वसुनदि अमित-गति के बाद हुये है ठीक नहीं अमितगति ने भी तो सस्कृत भगवती आराधना के अत मे वसुनदि का उल्लेख किया है इससे अमितगति और वसुनदि दोनो समकाल मे हुए सिद्ध होते है और सभवतः ये ही वसुनदि आचारवृत्ति के कर्ता है । अमितगति ने वि० सं० १०५० मे राजा मुज के समय मे "सुभाषित रत्नसदोह" बनाया है। उस वक्त यदि अमित गतिकी आयु २५ वर्ष के लगभग को मान ले और पूरी आयु उनकी ७५ वर्ष करीब की भी मान ले तो अमितगति का अस्तित्व वि० स० ११०० के आसपास तक ही रहता है और इनके समकालीन होने के कारण इन वसुनदि का अस्तित्व भी ११०० के आसपास ही मानना होगा जबकि श्रावकाचार के कर्ता वसुनादि का कम से कम निकट का समय ऊपर १२वी शताब्दी का दूसरा चरण सिद्ध किया है। ऐसी हालत में दोनो वसुन दि अपने आप ही भिन्न-भिन्न सिद्ध हो जाते है। इसके अलावा मूलाचार समयसाराधिकार के प्रारम्भ मे टीकाकार वसुनदि ने नरेन्द्रकीति का उल्लेख किया है। जबकि श्रावकाचार के कर्ता वसुनदि ने नरेन्द्रकीर्ति का प्रशस्ति आदि मे कही कोई नाम नही दिया है इससे भी दोनो वसुनदि जुदे-जुदे ही सिद्ध होते है। प्रभाचन्द्र जो प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्ड व न्यायकुमुदचन्द्रोदय Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय ग्रन्थकारो का समय निर्णय ] [ ३०३ ग्रन्थो के कर्त्ता हैं तथा जिन्होंने अनेक ग्रन्थो पर टीका टिप्पण लिखे है उनका समय विक्रम की ११वी शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर १२वी के प्रथम चरण तक का है। यह समय अब अनेक प्रमाणो और उल्लेखो से अच्छी तरह स्पष्ट हो गया है अत यहाँ उसके दोहराने की जरूरत नही है । यहाँ हम विद्वानो का ध्यान इस बात पर आकृप्ट करना चाहते है कि प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र आदि की समाप्ति पर जो पुष्पिका वाक्य लिखे है उनमे वे अपने को धारा निवासी पडित प्रभाचन्द्र लिखते है इसका क्या मतलब है ? इन वाक्यों से साफ तौर पर यह प्रतिभासित होता है कि उस वक्त तक प्रभाचन्द्र ने गृहत्याग नही किया था । प्रमेयकमलमार्त्तण्ड को उन्होने धारा मे राजा भोज के समय मे बनाया और न्यायकुमुद को भोज के उत्तराधिकारी राजा जयसिंह के समय मे बनाया | अगर वे महाव्रती हो गये होते तो भोज से लेकर जयसिंह तक के लम्बे समय तक एक ही धारा नगरी मे कसे रह सकते थे ? और मुनि हुये बाद स्वयं ही अपने को किसी एक खास नगर का निवासी भी कैसे लिख सकते थे ? और देखिये इन्ही प्रभाचन्द्र ने आराधना गद्य कथाकोश लिखा है जिसमे ८वी कथा के आगे पुष्पिका वाक्य लिखे है और ग्रन्य- समाप्ति पर भी लिखे हैं इस प्रकार एक ही ग्रन्थ मे दो जगह प्रशस्ति लिखी है इसका कारण यही मालूम होता है कि- ८६ कथा तक की रचना उन्होने गृहस्थावस्था मे की है और उनसे वाद की कथायें भट्टारक होकर की हैं इसीसे वे प्रथम प्रशस्ति मे अपने को पडित प्रभाचन्द्र लिखते है और दूसरी प्रशस्ति मे अपने को भट्टारक प्रभाचन्द्र लिखते हैं । और जो इन्होंने न्यायकुमुद आदि की प्रशस्तियो मे अपने Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भार्ग २ को पद्मनदि का शिष्य लिखाहै उसका तात्पर्य इतनाही समझना चाहिये कि पद्मनद के पास से उन्होने जैन शास्त्रो का अध्ययन किया था जिससे वे उनके विद्यागुरु लगते थे अत प्रभाचन्द्र ने विद्यागुरु के नाते पद्मनन्दि का उल्लेख किया है । इसके सिवा ग्रन्थ की प्रामाणिकता को जाहिर करने की दृष्टि से भी निर्ग्रन्थ गुरु का उल्लेख करना उन्होने आवश्यक समझा है । ( जिस तरह गृहस्थ मेधावी ने अपने श्रावकाचार मे जिनचन्द्र मुनि का उल्लेख किया है ) भास्कर नंदि जिन्होने तत्वार्थ सूत्र पर सुखबोधा नाम की संस्कृत मे टीका लिखी उन भास्करनन्दि के समय का निर्णय भी अभ तक नही हो पाया है । इन्होने इस टीका के अंत मे प्रशस्ति f -खी है जिसमे केवल अपने गुरु और प्रगुरु का नाम मात्र लिखा है पर टीका का कोई समय नही दिया है । प्रशस्ति के जिन श्लोको मे भास्करनन्दि ने अपने प्रगुरु का नाम दिया है वह नाम अशुद्ध प्रतीत होता है, जिससे भास्करनन्दि का समय गडबड होरहा है, देखिये - नोनिष्ठीवेन्न शेते वदति च न परं ह्येहि याहीति जातु । नोकंडू येत्गात्रं व्रजति न निशिनोद्घाटयेत् द्वार्न दत्त ॥ नावष्टाति किंचिद् गुणनिधिरितियो बद्धपर्यं कयोगः कृत्वासन्या समंतेशुभगतिरभवत्सर्वसाधुः स पूज्य ॥३॥ तस्यासीत्सुविशुद्धदृष्टि विभवः सिद्धांत पारं गतः, शिष्य श्रीजिनचंद्रनामकलितश्चारित्रभूषान्वित | शिष्यो भास्करनंदिनामविबुधस्तस्याभवत्तत्ववित् । तेनाकारि सुखादिबोधविषया तत्वार्थवृत्तिःस्फुटं ॥४॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय ग्रथकारो का समय निर्णय ] [ ३०५ इनमे तीसरे श्लोक के चौथे चरण मे जो "शुभ गति" शब्द है वह अशुद्ध है, उससे अर्थ की सगति ठीक नही बैठती। इस श्लोक मे भास्करनन्दि ने अपने जिनचन्द्रगुरु के गुरु का नाम लिखा है पर श्लोक मे सर्वसाधु के सिवा अन्य किसी नाम की उपलब्धि नही होती किन्तु “सर्वसाधु" कोई नाम नहीं होता। . अगर 'शुभगति' के स्थान पर 'शुभयति' पाठ मान लिया जाये तो मामला सब साफ हो सकता है। शुभयनि का अर्थ होगा शुभचन्द्र भट्टारक । प्रशस्ति के उक्त श्लोको का तब इस प्रकार अर्थ होगा . जो न तो थू कते हैं, न सोते हैं, न दूसरो को आने जाने को कहते हैं, न शरीर को खुजाते हैं, न रात्रि मे गमन करते हैं, न हार को खोलते हैं, न द्वार को बद करते हैं, न पीठ लगाकर दीवार के सहारे बैठते हैं । ऐसे शुभचन्द्र मुनि (सवस्त्र भट्टारक) बद्धपर्यंक होकर आयु के अन्त मे सन्यास धारण कर सर्वसाधु (नग्न दिगम्बर) हो गए थे वे पूज्य हैं । उनके शुद्धदृष्टि, सिद्धातपारगामी, चारित्र भूषण जिनचन्द्र नाम के शिष्य थे। उन जिनचन्द्र के तत्वज्ञानी भास्करनन्दि नाम के विद्वान् शिप्य हुए जिन्होने तत्वार्थसूत्र पर यह सुखबोधिनी टीका बनाई" । __ पद्मनन्दि के शिष्य ये वे शुभचन्द्र है जिन्होंने दिल्ली जयपुर की भट्टारकीय गद्दी चलाई। इनका समय वि स १४५० से १५०७ तक माना है। फिर इनके पट्ट पर जिनचन्द्र बैठे थे। जिनचन्द्र का समय वि. म १५०७ से १५७१ तक का माना जाता है। इन जिनचन्द्र ने प्राकृत मे सिद्धातसार ग्रन्थ लिखा था जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला द्वारा "सिद्धातसारादि सग्रह" में Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ छपा है । वि. सं. १५४८ मे सेठ जीवराजजी पापडीवाल ने शहर मुडासा मे इन्ही जिनचन्द्र भट्टारक से हजारो मूर्तियो की प्रतिष्ठा कराई थी । श्रावकाचार के कर्त्ता प० मेधावी इन्ही जिनचन्द्र के शिष्य थे । उक्त भास्करनन्दि को भी सभवत इन्ही का शिष्य समझना चाहिये । इस हिसाब से इन भास्करनन्दि का समय विक्रम की १६ वी शताब्दी माना जा सकता है । एक " ध्यानस्तव" नाम का संस्कृत ग्रन्थ जिसमे अधिकतया रामसेन कृत तत्वानुशासन का अनुसरण किया गया है और जो जैन- सिद्धात भास्कर भाग १२ किरण २ मे छपा है वह भी इन्ही भास्करनन्दि का बनाया हुआ है । उसकी प्रशस्ति में भी वे ही पद्य हैं जो तत्वार्थ टीका मे लिखे है अत. दोनो के कर्त्ता एक ही है । श्री कुमार कवि इनका वनाया हुआ १४६ संस्कृत पद्यो का एक "आत्मप्रबोध" नामक ग्रन्थ है, जो भारतीय जैन सिद्धात प्रकाशिनी सँस्था कलकत्ता से हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुआ था । अनुवादक प० गजाधरलालजी न्यायतीर्थ थे । यह अध्यात्म विषय का बडा ही सरस सुन्दर ग्रन्थ है । कवि ने ग्रन्थ के अन्त मे अपना नाम देने के सिवा और कुछ भी परिचय नही दिया है, रचनाकाल भी नही लिखा है, इस ग्रन्थ का निम्नांकित पद्य प आशाधरजी ने अनगारधर्मामृत अ० ६ श्लो० ४३ की टीका मे उद्घत किया है : मनोवोधाधीनं विनयविनियुक्त निजवधुर्वच पाठायत्त करणगणमाधाय नियतम् । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय ग्रंथकारो का समय निर्णय ] [ ३०७ दधान स्वाध्यायं कृतपरिणतिजैनवचने करोत्यात्मा कर्मक्षयमिति समाध्यन्तरमिदं ॥५१॥ -आत्मप्रबोध अर्थ :-जिस स्वाध्याय मे भन ज्ञान के ग्रहण धारण मे लीन रहता है , शरीर विनय सयुक्त रहता है, वचन पाठ के उच्चारण में लगा रहता है और इन्द्रिय-समूह नियत्रित रहता है इस प्रकार सारी परिणति जिसमे जिनवाणी की ओर रहती है ऐसे स्वाध्याय को धारण करने वाला निश्चय ही कर्मों का क्षय करता है, अत्त. स्वाध्याय भी एक तरह से समाधि का रूपान्तर ही है। इससे सिद्ध होता है कि यह आत्म-प्रबोध ग्रथ आशाधरजी से पहिले का बना हुआ है । हस्ति मल्लके विक्रात कौरव'नाटकसे पता पडताहै कि एक श्रीकुमार कवि उनके ४ बडे भाइयो मे सब से बडे भाई थे। अगर उनके समय का आशाधर की प्रौढावस्था के समय से मेल बैठता हो तो वे ही श्रीकुमार कवि इस आत्मा-प्रबोध के कर्ता माने जा सकते है और तब यो कहना चाहिये कि आशाधर की पिछली उम्र मे वे मौजूद थे। अनगारधर्मामृत की टीका वि स १३०० मे पूर्ण हुई अत उससे पांच सात वर्ष पहिले श्रीकुमार कवि ने आत्म-प्रबोध बनाया होगा। ऐसी हालत मे हस्तिमल्ल के साहित्यिक जीवन का प्रारम्भिक समय विक्रम की १४ वीं शती का प्रथम चरण समझना चाहिये। इस तरह ७ ग्रन्थकारो के समयादि पर यहाँ कुछ नया प्रकाश डाला गया है। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ स्व० पं• मिलापचन्द्रजी कटारिया ने अपने अध्ययन के बल पर जैन समाज के मूर्धन्य विद्वानों में स्थान प्राप्त किया था अध्ययन को उनको यह दृष्टि बडी पेनी थी। स्मारिका को अपने जीवन के प्रारंभ काल से ही उनका सहयोग मिला था। खेद है वे अब हमारे बीच नहीं रहे । जैन शास्त्रों का तलस्पर्शी अध्ययन रखने वाले विद्वानों को माला का एक मणिया टूट गया । पुरानी पीढी के विद्वान् एक एक कर काल कवलित हो रहे हैं और नए उनका स्थान ग्रहण करने को आ नही रहे है । निश्वय हो जैन समाज के लिये यह स्थिति शोचनीय और विचारणीय है । सम्बन्धित आचार्यों के काल निर्णय सम्बन्धी विवाद ह करने में प्रस्तुत रचना पर्याप्त अशो मे सहायक सिद्ध होगी । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजैन साहित्य में जैन उल्लेख और सांप्रदायिक संकीर्णता से उनका लोप भमर कोष अमरकोष संस्कृत का एक जगविख्यात प्राचीन कोश प्रथ है । इसके कर्ता अमरसिंह हैं जैसाकि तीनों काडो के अन्त मे दिये " इत्यमरसिंह कृती नामलिंगानुशासने" श्लोक द्वारा प्रकट है। ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के आरम्भ मे देवनामो मे प्रथम अपना नाम 'अमर' दिया है। इसी तरह ग्रन्थ के आदि मगलश्लोक मे भी "अमृताय च" के रूप मे 'अमर' नाम द्योतित किया है। ग्रन्थ का नाम पूर्वोक्त श्लोकानुसार "नामलिंगानुशासन" है (जिसमे नाम और लिंग दोनो एक साथ बताये गये है जो इसकी अन्य कोशोसे खास विशेषता है, किन्तु ग्रंथकारके नाम पर इसका नाम अमरकोष प्रसिद्ध हो गया है और आज यह कोष संस्कृत जगत् मे वास्तव मे ही अमर हो गया है। इसमे ३ कोड होने से 'त्रिकाड कोश' और देवभाषा-सस्कृत मे होने से देव कोश भी इसके नाम है। इस पर संस्कृत को निम्नाकित टोकाये है -१ व्याख्या प्रदीप २. काशिका ३. अमरकोषोद्घाटन, Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ ४ कौमुदी ५ पदार्थ कौमुदी ६. शब्दार्थ सदीपिका ७ अमर पजिका अमर दीपिका ६ सुबोधिनी १० व्याख्या सुधा ११ शारदा सुन्दरी १२ विन्मनोहरा १३ अमर विवेक १४ मधु माधवी १५ पद चन्द्रिका १६ त्रिकाड चिन्तामणि १७ त्रिकाड विवेक २० वैषम्य कौमुदी १६ पीयूप २२ पदमजरी २५ टीका सर्वस्व २३ व्याख्यामृत २४ मन्देह भजिका २६ अमरकोप टीका ( आशाधर कृत) २७ त्रिकाड रहस्य २८. अमर चंद्रिका आदि । १५ प्रदीप मजरी २१ पद विवृति इनके अतिरिक्त - कनडी, काश्मीरी, चीनी, फारसी, तिब्बती, तेलगु, मराठी, ब्राह्मी, श्यामी, सिंहली, अग्रेजी, हिन्दी, गुजराती, उर्दू, आदि भाषाओ मे भी अमरकोप पर टोका बनी हैं। "कवि काव्यकाल कल्पना" नाम के बृहद् ग्रन्थ मे अमरकोप की ६६ टीकाओ का विवरण दिया है । विविध प्राचीन ग्रंथो की संस्कृत टीकाओ मे इस कोष के अनेक जगह प्रमाण दिये गये हैं । इसका पठन पाठन संस्कृत की प्राय. सभी पाठशालाओ मे अद्यावधि चला आ रहा है । यह सव इस कोश की महान लोकप्रियता का द्योतक है । इसी से-कवियो ने ये उद्घोष किये हैं- " अमरोऽयं सनातन 33 ' " अमरकोपो जगत्पिता" । अमरकोप मे बौद्ध और वैदिक धर्म के अवतारी पुरुषो के नाम हैं किन्तु जैन तीर्थंकरो के कोई नाम नही है | ग्रन्थकार वहुत उदार रहे हैं । (उन्होने मगलाचरणमे भी किसी धर्माराध्य का नाम नही दिया है ) फिर उन्होने जैन महापुरुषो के नाम Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजैन साहित्य मे जैन उल्लेख " ] [ ३११ ? नही देकर अपने कोष को अपूर्ण क्यो रखा यह प्रश्न प्रत्येक निष्पक्ष विचारक और जैन धर्मानुयायी के मस्तिष्क मे सहज उठता है । इसके लिए जब हमने अमरकोप की कुछ संस्कृत टीकाओ को देखा तो मालम हुआ कि बुद्ध के नामो के आगे जिन देव के भी नाम अवश्य मूल ग्रन्थकार ने दिये है किन्तु वह श्लोक सप्रदायाभिनिवेश के कारण मूल से निकाल दिया गया है और धीरे-धीरे उसका लोप कर दिया गया है देखिये (१) ओरियटल बुक एजेसी पूना से सन् १६४१ मे प्रकाशित क्षीरस्वामि कृत ( ईस्वी ११वी शती) टीका पृष्ठ ७ प्रथम काड-श्लोक १५ की टीका के आगे ( सर्वज्ञो वीतरागोऽर्हन् केवली तीर्थकृज्जिनस्त्रिकाल विदाव्या ऊह्या ) (२) निर्णय सागर प्रेस मुम्बई से सन् १६१५ मे प्रकाशित - व्याख्या सुधा पृष्ठ ८ " यद्यपि वेद विरुद्धार्थानुष्ठातृत्वा ज्जिन शाक्यों नरकवर्गे वक्तुमुचितौ । तथापि देवविरोधित्वेन बुद्धयुपारोहादवोक्तौ ।” ( अर्थ - यद्यपि वेद विरोधी होने से जिनेन्द्र और बुद्ध के नाम नरक वर्ग मे देने चाहिये तो भी यहा इसलिये दिये गये हैं कि उनका देव विरोधित्व साथ साथ बुद्धि मे आ जाये) इसी पर टिप्पणी १ लगाकर लिखा है - क्वचित्पुस्तके इत उत्तरम् - "सर्वज्ञोवीतरागोऽहन् केवली तीर्थकृज्जिन । जिन देवता नामानि षट् । इत्यधिकम् ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ (३) आज से ११२ वर्ष पूर्व विक्रम स..१६१६ मे प्रकाशित देवदत्त त्रिपाठी कृत हिन्दी टीका पृ० ३ पर लिखा है:"सर्वज्ञ , वीतराग , अईन्, केवली, तीर्थकृत, जिन ये नास्तिक के देवताओ के नाम है।" (मूल मे श्लोक नही दिया है, जब हमने पूरे श्लोक के लिये अमरकोष की हस्तलिखित प्रतियो की खोज की तो बघेरा, टोक, निवाई आदि के जैन भण्डारो की प्रतियो मे वह पूरा श्लोक इस प्रकार उपलब्ध हुआ "सर्वज्ञो वीतरागोऽहकवली तीर्थकृज्जिन । स्याद्वादवादी निर्हीकः निन्याधिप इत्यपि ॥" अनेक जैन विद्यालयो के संस्कृत कोर्स (पाठ्यक्रम) मे अमरकोष नियत है। अधिकारियो का कर्तव्य है कि-वे यह श्लोक विद्यार्थियो को अमर कोष मे पढाने का प्रबन्ध करावें जिससे इसका प्रचार हो। साथ ही जैन प्रकाशन संस्थाओ का भी कर्तव्य है कि-वे भी अमरकोष मे बुद्ध के नामो के आगे यह Y नोक मोटे टाइप मे प्रकाशित कर अमरकोष के विविध सस्करण निकाले जिससे दीर्घकाल से चली आ रही क्षति की कुछ पूर्ति हो। इसी की टाइप (नकल) का श्लोक धनंजय नाममाला मे इस प्रकार है सर्वज्ञो वीतरागोऽन्वे वली धर्मचक्रमत् ॥११६॥ इससे भी अमरकोष मे उक्त श्लोक वर्तमान रहना प्रमाणित होता है। जिन देव के नाम वाले श्लोक के सिवा अमरकोष के Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजैन साहित्य मे जैन उल्लेख...] [ ३१३ द्वितीय कांड के ब्रह्म वर्ग मे श्लोक ६ के बाद आठ दार्शनिको मे जैनदर्शन के भी दो नाम दिये हैं देखिये- स्यात्स्याद्वादिक आहेत ॥ पूरे आठ दर्शनो के दो-दो नाम इस प्रकार दिये है - मीमांसको जैमिनीये, वेदांती ब्रह्मवादिनी । वैशेषिके स्यादौलूक्यः, सौगत शून्यवादिनि ॥१॥ नैयायिक स्त्वक्षपादः स्यात्स्याद्वादिक आर्हतः । चार्वाक लोकायतिको, सत्कार्ये सांख्य कापिलौ ॥२॥ इनमे सभी भारतीय (श्रमण वैदिक) दर्शन आ गये हैं अत ये श्लोक बहुत महत्वपूर्ण हैं फिर भी अनेक सस्करणो मे इन्हे क्षेपक रूप में प्रदर्शित किया है और अनेक मे बिल्कुल निकाल ही दिया है सभवत. यह सब बौद्ध और जैन इन दो श्रमण-धर्मों से विरोध के कारण किया गया है* अन्यथा ये श्लोक मूल ग्रन्थकार कृत हैं, क्योकि हेमचन्द्राचार्य ने भी(१२वी शती मे ) इसी की स्टाइल पर निम्नाकित श्लोक "अभिधान चिन्तामणि" के मर्त्यकाड ३ मे इस प्रकार बनाये है - स्थाद्वाद वाद्याहत स्यात्, शून्यवादी तु सौगतः ॥५२५॥ नयायिकस्त्वक्षपादो योग. सांख्यस्तु कापिल । *श्लोक १ के चौथे चरण में वौद्ध के और श्लोल २ के दूसरे चरण मे जैन के नाम हैं अगर इन नामो को हटाकर सिर्फ वैदिक दशन के ही नामा रहने से देते तो दोनो श्लोक अधूरे हो जाते अत विवश हो दोनो श्लोको को ही मूल से निकाल दिया है । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ वैशेषिकः स्यादोलुक्यः, बार्हस्पत्यस्तु नास्तिकः ॥१५२६|| - चार्वाक लोकायतिकश्चैते षडपि तार्किकाः । (इनमें षड् दर्शनों के ही नाम दिये हैं शेष दो मीमांसा और वेदात के नाम देवकाड २ के श्लोक १६४-६५ मे दिये है) अत: जैन ग्रन्थ प्रकाशको को चाहिये कि वे इन दो "मीमांसको जैमिनीये...” श्लोकों को भी अमरकोष काड २ के ब्रह्मवर्ग मे श्लोक ६ के बाद मोटे टाइप में प्रकाशित करने का प्रक्रम करे जिससे सांप्रदायिकों का प्रयत्न विफल हो और ग्रन्थ अक्षुण्ण बने + + बघेरा, उदयपुर, टोक आदि के जेन भण्डारों में प्राप्त अमरकोष की प्रतियो के अन्त मे लेखको ने भिन्न-भिन्न प्रशस्तिया दी हैं पाठको के उपयोगार्थं समुच्चय रूप से नीचे उन्हे भी प्रस्तुत किया जाता है इनमें प्रथम जन और द्वितीय शव हैं: - - अन्त्य प्रशस्ति कृतावमर सिंहस्य, नामलिंगानुशासने काण्डस्तृतीय. सामान्यः, साग एव समर्थित इत्युक्त व्यवहारार्थं नाम लिंगानुशासनम् । शब्दाना न मतोअन्त, तावपीन्द्रवृहस्पती ॥ पद्मानि बोधयत्यकं काव्यानि कुरुते कवि । तत्सौरभ नभस्वत, सन्तस्तन्वन्तु तद्गुणान् ॥ 9 (वायुरित्यर्थः) Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ३१५ अजैन साहित्य मे जैन उल्लेख". ] अमसिंह किस संप्रदाय-विशेष के थे यह उन्होंने कही नहीं लिखा है किन्तु अमरकोप के सूक्ष्म अध्ययन और अन्य प्रमाणो से इसका निर्णय किया जा सकता है वही नीचे देखिये:अमरदीपिका टीका मे अमरकोप के मगलाचरण को बुद्ध वाची बताया है। इसी तरह क्षीर स्वामी (वैदिक) टीका मे भी मगलाचरण को जिन (बुद्ध) वाची ही बताया है। तथा वामनाचार्य-दुर्गाप्रसाद, काशीनाथ, शिवदत्त, एन जी देसाई, शीलस्कध वेवर आदि वैदिक, बौद्ध, अग्रेज विद्वानो ने अपने प्रस्तावना-निवन्धों मे अमरकोप कार को वौद्ध ही माना है इसके लिये इन्होने निन्नाकित ३ युक्तिया दी है - (१) अमरसिंह ने देव विशेष के नामों में सर्वप्रथम यदक्षर पद भ्रष्ट, स्वर व्यंजन वजित । तत्सर्वं क्षम्यता देवि, प्रसीद परमेश्वरि ॥ यावत्पृथ्वी रविर्यावत् यावच्चन्द्र हिमाचली । पठ्यमाना बुध स्तरव, देषा नन्दतु पुस्तिका ॥ यावच्छी वीतरागस्य, धर्मो जयति भूतले । विद्वन्दि वाच्यमानोऽय ग्रन्यस्तावद्विनन्दतु ॥ यावच्चन्द्र दिवाकरो ग्रहपती क्षोणी समुद्रा अपि । यावद् व्योम वितान सलिभतया दिक् चक्र माक्रामति ।। यावद् देहनिवामिनी पशुपते गोरी मुख चुम्वति । ताव तिष्ठतु कोष एष सुधिया कठेषु रत्नोपम ।। नानाकवीना भुवि नाम कोषा । सन्त्येव शब्दार्थविदा प्रवधा । तथापि सूक्तेऽमरसिंह नाम्न । कवे रतीव प्रसृत मनो मे । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ भगवान् बुद्ध और उनके अवातर भेदो के नाम दिये है फिर वैदिक देवी-देवताओ के नाम दिये है । (२) काड ३ नानार्थ वर्ग ३ के श्लोक ३१ मे "धर्मराजौ जिनयमों" पाठ दिया है इसमे जिन (बुद्ध) को प्रथम दिया ह और यम (वैदिक श्राद्ध देव) को वाद मे । अगर ग्रन्थकार चाहते तो 'यमजिनो' पाठ भी दे सकते थे इसमे छदोभग की भी आपत्ति नही थी किन्तु उनके तो जिन (बुद्ध) आराध्य थे अत. पहिले उन्हे स्थान दिया । ( 3 ) यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि- अमरसिंहो हि पापीयान् सर्वभाष्यमचूचुरत् अर्थात् - पापी अमरसिंह ने सारा भाष्य (पातजल महाभाप्य) चुरा लिया । अगर अमर सिंह वैदिक होते तो वैदिक विद्वान् कभी उनको पापी और भाप्य की चोरी करने वाला नही बताते । इनसे स्पष्ट है कि अमर सिंह बौद्ध विद्वान् थे । इसके वावजूद भी कुछ जन विद्वान् अमरसिंह को जैनधर्मानुयायी बताते है और अमरकोष को जैन कोष । इसके लिये उनकी युक्तिया निम्नाकित है (१) किसी जैन ग्रन्थकार ने एक कथा दी है कि अमरसिंह नाममालाकार धनजय कवि के साले थे । (२) जैन शास्त्र भण्डारो मे अमरकोष की अनेक प्रतिया मिलती हैं । (३) अमरकोष पर जैन विद्वान् आशाधर (वि. १३ व . शती) ने टीका बनाई है । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१७ अर्जन साहित्य मे जैन उल्लेख... ] (४) शाकटायन ( जैन व्याकरण की स्वोपज्ञ अमोघवृत्ति (वि.स हवी शती ) मे अमरकोप का उल्लेख है । (५) " जैन वोधक" वर्ष ४३ अक ५ ( फरवरी १६३३) मे एक हस्तलिखित प्रति के अनुसार अमरकोष मे १२५ जन श्लोक दिये हैं और अमरसिह को जैन सिद्ध किया है एव उनको बौद्ध माने जाने का निरसन किया है । नीचे क्रमश सक्षेप मे इनकी समीक्षा की जाती है (१) यह कथा किसी ने यो हो गढ डाली है इसमे अनेक ऊलजलूलताये है अतः यह विल्कुल अप्रामाणिक है । इसमे अमर सिंह को धनजय का साला बताया है जो निराधार है क्योकि धनजय ८६ विक्रम शतीके हैं जबकि अमरसिंह इनसे कम से कम चार-पाच सौ वर्ष पूर्व हुए हैं जैसा कि इतिहास से प्रमाणित है - (क) ७वी वी विक्रम शती मे वौद्ध विद्वान् जिनेन्द्र बुद्रि काशिका विवरण पजिका में अमरकोप का " तत्र प्रधाने सिद्धांते" ||१८|| ( नानार्थ वर्ग, काड ३) प्रलोक उद्धृत किया है । ( (ख) उज्जयिनी के गुणराट् ने ईसा की ६ठी शती मे अमरकोष का चीनी अनुवाद किया है । " (ग) क्षीर स्वामी ( शिवोपासक, ईस्वी ११वी शती) ने अमरकोषोद्घाटन मे लिखा है कि अमरसिंह चन्द्रव्याकरणकार चन्द्र गोमिन् से पूर्व हुए हैं । चन्द्रगोमिन् वसुराट् के गुरु और ४५० ईस्वी मे होने वाले बगाली, बौद्ध विद्वान् है । 1 (घ) धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंह शकु वेताल भट्ट घटकपर कालिदासा । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सभाया रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य । इस प्रसिद्ध श्लोक मे अमरसिंह को विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नो मे से एक रत्न बताया है। ऐसी हालत मे अमरसिंह को धनजय का साला बताना कितना मनघढत है यह पाठक सहज जान सकते हैं । (२) जैन भण्डारो मे अमरकोप की प्रतिया मिलने से उसे जैन कोप बताना यह अद्भुत युक्ति है इस तरह तो जैन भण्डारो मे मिलने वाले अनेक वैदिक ग्रन्थ यथा-भर्तृहरि कृत शतकत्रय, कालिदास कृत मेघदूत, रघुवश आदि भी जैन ग्रन्य हो जायेंगे । और वैदिक भण्डारो मे मिलने वाले जैन ग्रन्थ वैदिक हो जायेगे अत यह युक्ति निस्सार ही नही बल्कि काफी आपत्तिजनक है । वास्तविकता यह है कि ग्रन्थ भण्डारो मे विरुद्ध धर्मों के ग्रन्थो का संग्रह उनका परस्पर अध्ययन समीक्षण करने की दृष्टि से किया जाता है। (३) आशाधर ने तो रुद्रट के काव्यालकार और वाग्भट के अष्टाग हृदय आदि वैदिक ग्रन्थो पर भी टीका बनाई है अत. किसी जैन विद्वान् के द्वारा जनेतर ग्रन्थ पर टीका बनाने से वह ग्रन्थ जैन नही हो जाता । जैसे जिनसेनाचार्य ने कालिदास के मेघदूत को अपने पार्वाभ्युदय मे वेष्टित कर लिया है इससे मेघदूत जैनग्रन्थ नही हो जाता। अमरकोष पर तो पचासो वैदिक विद्वानो ने टीकाये लिखी हैं इससे वह वैदिक ग्रथ नही हो गया। स्वय अनेक वैदिक विद्वानो ने युक्तिपूर्वक अमरकोष को बौद्ध ग्रन्थ सिद्ध किया है जैसा कि पूर्व मे बताया जा चुका है। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजैन साहित्य में जैन उल्लेख"" ] [ ३१६ (४) जैन ग्रन्थो मे किसी ग्रन्थ का उल्लेख मात्र होने से ही वह जैन ग्रन्थ नही हो जाता। जैन ग्रन्थो मे तो अनेक जनेतर ग्रन्थो के उल्लेख हैं इस तरह तो वे भी सब जैन ग्रथ हो जायेंगे अत. यह युक्तिवाद भी लचरहै। जनेतर ग्रन्थो मे भी अनेक जनग्रन्थो के उल्लेख है इससे जैनग्रन्थ जैनेतर नहीं बन जाते । सही बात यह है कि-परस्पर विद्वान् एक दूसरे धर्म के लोकप्रिय ग्रन्थो का प्रमाण रूप मे या समीक्षादि के रूप मे उल्लेख करते आये है। (५) जैन वोधक अक ५ मे जो १२५ श्लोक दिये है उनमे मगलाचरण का एक श्लोक "श्रिय पति पुष्यतु व समीहित "" बताया है। किन्तु यह श्लोक तो मूलत. वादीभसिंह कृत गद्य चिन्तामणि का है। इसी तरह की हालत कुछ अन्य श्लोको की भी है । ऐसा प्रतीत होता है कि-जब अमरकोष को जैन बनान के लिये कथा गढ डाली गई तो किसी जैन विद्वान् ने अमरकोष को स्पष्ट जैन बनाने की दृष्टि से या उसमे जैन कथनो क अभाव की पूर्ति करने की दृष्टि से यह प्रयत्न किया है। इस वक्त उक्त अक हमारे पास नहीं होने से हम उसकी पूरी समीक्षा नहीं कर रहे है। कोई भी विज्ञ पाठक थोडे से विचार से ही उसकी निस्सारता-युक्ति हीनता अच्छी तरह हृदयगम कर सकता है। से ही सही कर रहे हैं। वास नहीं होने से किया है। इस अब मैं नीचे ऐसे दो नये प्रमाण प्रस्तुत करता है जिनसे सहज जाना जा सकेगा कि अमरकोष जैन कोप नहीं है. (१) अमरकोष के टीकाकार प आशाधरजी ने अनगारधर्मामृत अध्याय १ श्लोक २४ के स्वोपज्ञ भाष्य मे पृष्ठ २६ पर Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ लोके यथा-"स्याद्धर्ममस्त्रिया पुण्य श्रेयसी सुकृत वृषइति" | लिखा है यह अमरकोप के काड १ काल वर्ग ४ का २४वा श्लोक है । इसी के बाद "शास्त्रे यथा-" करके आत्मानुशासन गुणभद्र कृत का एक श्लोक और नीतिवाक्यामृत (सोमदेव कृत) का एक सूत्र दिया है। इससे साफ प्रकट है कि आशाधर ने अमरकोष को लौकिक ग्रन्थ बताया है, जैन ग्रन्थ नही । (२) अमरकोष की अनेक प्रतियो मे प्राप्त-"सर्वज्ञी वीतरागोईन् .” श्लोक जो पूर्व मे उद्धृत किया गया है उसमे जिनेन्द्र का नाम 'निहींक' भी बताया है। जिसका अर्थ लज्जाहीन (नग्न) है । ऐसा नाम कभी कोई जैन अपने आराध्यदेव के प्रति नहीं दे सकता। धनजय कृत नाममाला और हेमचन्द्र कृत अभिधान चिन्तामणि जो प्रसिद्ध प्राचीन जैन कोष हैं उनमे कही भी यह नाम या इसके अर्थ का कोई पर्यायवाची नही है। हाँ शिवोपासक क्षीर स्वामी ने जरूर अमरकोष टीका मे पृष्ठ १७३ पर ब्रह्म वर्ग मे बुद्ध और जैनादि के नाम देते हए दिगम्बर जैन के इस प्रकार नाम उद्धृत किये हैं - क्षपणार्षि दिगम्बर । नग्नाट. श्रावकोऽह्रीको, निग्रंथो जीवजीवको ।' इसमे एक नाम 'अह्रीक' है जिसका भी अर्थ लज्जाहीन (नग्न) ही है । यह साफ अमरकोष के 'निहींक' का पर्यायवाची है Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजैन साहित्य में जैन उल्लेख ... ] [ ३२१ अत. स्पष्ट है कि अमरकोष जैन कोष नही है | अमरकोष मे २४ तीर्थंकरो के नाम, जैन सैद्धातिक प्ररूपण, जंन पारिभाषिक शब्द आदि कुछ भी तो जैनत्व सूचक कथन नही पाये जाते । उल्टा, काड ३ विशेष्यनिघ्न वर्ग प्रत्यक्ष स्यादेन्द्रियकमप्रत्यक्षमतीन्द्रिय ||७६ || मे ऐन्द्रियक ज्ञान को प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय ज्ञान को अप्रत्यक्ष बताया है जो तत्त्वार्थ सूत्र (जैन सिद्धात ग्रथ) के ' आये परोक्ष " "प्रत्यक्षमन्यत्" सूत्रो के विरुद्ध पडता है । ऐसी हालत मे अमरकोष को जैन बताना मिथ्या मोह मात्र है । निष्पक्ष दृष्टि से यह बौद्ध ही है - सत्य का अनुरोध भी यही है । अमरकोष के ब्रह्मवर्ग में जो ब्राह्मण धर्मीय कथन है उससे कोई इसे वैदिक माने तो यह ठीक नहीं है । अमरकोष के पहिले भी कात्य, वाचस्पति, व्याडि, भागुरि आदि के वैदिक कोष ग्रन्थ थे उन्ही मे ब्रह्म वर्ग के अपने विषयानुसार सामग्री ली गई है जो विषय की पूर्णता की दृष्टि से आवश्यक थी। इसी को ग्रथकार ने ग्रन्थारभ मे " समाहृत्यान्य तत्राणि सक्षिप्तः प्रतिसस्कृते " ||२|| श्लोक से व्यक्त किया है। श्वे. जैन हेमचन्द्राचार्य ने भी यह सब ब्राह्मण धर्मीय कथन अपने "अभिधान चिन्तामणि" कोष मे दिया है। कोष, व्याकरण, गणित, आयुर्वेद आदि विषय ऐसे हैं जो किसी सप्रदाय विशेष से सम्बद्ध नही होते । अगर कोई ऐसा करता है तो वह अपूर्णता को ही प्राप्त होता है उसे लोकप्रियता नही मिलती । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ । [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ अत पूर्णता की दृष्टि से अमर सिंह ने बौद्ध होते हुए भी अमरकोष मे बौद्ध जैन वैदिक सभी भारतीय धर्मों का परि- : चायक आवश्यक लोक प्रसिद्ध कथन बडी उदारता के साथ . सग्रह किया है। कहाँ तो ग्रन्थकार की महान् उदारता और कहा व्याख्या सुधाकर का यह लिखना कि-"वेद विरोधी होने से बुद्ध और जिनेन्द्र के नाम नरक वर्ग मे देने चाहिये थे"। यह क्थन कितना संकीर्ण और गौरव विहीन है पाठक स्वय विचार करें। ~ गार शतक(मोक्ष मार्ग प्रकाशक) के ५वे अधिकार मे "अन्यमतो से जैनमत की तुलना" प्रकरण के अन्तर्गत प टोडरमलजी सा. ने भर्तृहरि कृत वैराग्य शतक नाम के प्राचीन वैदिक ग्रन्थ से एक श्लोक दिया है जो इस प्रकार है. एको रागिषु राजते प्रियतमा देहार्धधारी हरो। नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासंगो न यस्मात्पर ॥ दुर्वारस्मर बाण पन्नग विष व्यासक्त मुग्धो जनः । शेष कामविडंबितो हि विषयान् भोक्तुन मोक्षुक्षम ॥ अर्थात्-रागियों मे तो एक महादेव हैं जिन्होने अपनी प्रियतमा (पार्वती) के आधे शरीर को धारण कर रखा है। और वीतरागियो मे एक जिनदेव है जिनसे बढकर स्त्री-त्यागी कोई दूसरा नही है। शेष लोग तो दुनिवार कामदेव के बाण रूपी सर्प विष से ऐसे गाफिल हैं कि जो विषयो को न तो भलीभाति भोग ही सकते हैं और न छोड़ ही सकते हैं-इस तरह वे Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२३ अजैन साहित्य मे जैन उल्लेख ... ] सिर्फ काम विडवना से पीडित हैं । इस श्लोक मे योगिराट् भर्तृहरि ने सरागियो मे महादेव को और वीसरागियो मे जिनदेव को प्रधान बताया है । सस्ती ग्रन्थमाला दिल्ली से प्रकाशित मोक्ष मार्ग प्रकाशक मै पृ २०१ पर इस श्लोक को श्रृंगार शतक का ६७वा श्लोक और मथुरा के संस्करण मे पृ १२६ पर इसे श्रृगार शेतक का ७१वा श्लोक बताया है । किन्तु हमने भर्तृहरि के अनेक मुद्रित शतकत्रयो को देखा - बहुत सो मे तो - " न रहेगा वास न बजेगी बांसुरी” यह सोचकर इस श्लोक को विल्कुल निकाल ही दिया है देखो - ज्ञानसागर प्रेस बम्बई से सन् १६०२ मे प्रकाशित "भर्तृहरि शतकम्" (संस्कृत हिन्दी टीका युक्त) तथा सन् १६२० से १६२३ मे हरिदास एण्ड कम्पनी मथुरा से प्रकाशित - विस्तृत हिन्दी टोका युक्त) प्रसिद्ध, सचित्र सस्करण कुछ संस्करणो मे यह श्लोक देने की तो कृपा की है किन्तु उसे इस तरह बदल कर रख दिया है: एको रागिषु राजते प्रियतमादेहार्धहारी हरो । नोरागेष्वपि यो विमुक्तललनासगो न यस्मात्पर ॥ दुर्वारस्मर बाण पन्नग विष ज्वालावलीढो जन । शेषः काम विबितो हि विषयान् मोक्तु च मोक्ष क्षमः ॥८३॥ देखो - सन् १६१६ मे निर्णयसागर प्रेस मुम्बई से प्रकाशित कृष्ण शास्त्रि कृत संस्कृत टीका सहित 'श्रृगार शतक' का चतुर्थ सस्करण । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमे खास परिवर्तन - "नीरागेषु जिनो” की जगह "नीरागेष्वपि यो” किया गया है। इस तरह मूल ग्रंथ कार ने जो जिनेन्द्र को वीतरागियो मे प्रधान बताया था उस विशेषता का सर्वथा ही लोप कर दिया है। और मन कल्पित पाठ परिवर्तन कर अर्थ यह दिया गया है कि - सरागियो और वीतरागियो दोनो मे ही एक महादेव ही प्रधान है किन्तु यह अर्थ श्रृंगार शतक के ही प्रथम - श्लोक के विरुद्ध है जिसमे स्पष्ट बताया है कि - " उस विचित्र चरित्र कामदेव को नमस्कार हो जिसने महादेव ब्रह्मा और विष्णु को भी मृगनयनी गृहिणियो का दास बना दिया है । " " पद के साथ दूसरी बात यह है कि - "न यस्मात्पर कृष्ण शास्त्रीजी का पूर्वोक्त अर्थ जमता ही नही है । इसके सिवा इस पद के 'न' को श्लोक के अन्तिम पद के साथ जोडकर अर्थ किया गया है उससे महान् दूरान्वय दोष उत्पन्न हो गया है । तथा 'भोक्तु न मोक्ष क्षम" इस अन्तिम पद के 'न' की जगह 'च' कर दिया गया है इससे भी बड़ा बेतुकापन हो गया है । ܒ सही बात है - सम्प्रदायाभिनिवेश न ग्रन्थ के गौरव को देखता है और न अर्थ को वास्तविकता को ( उसे तो दोनो की मिट्टी पलीद करने से काम ) कहाँ तो मूल ग्रन्थकार की निष्पक्ष उदात्त भावना और कहा सकीर्णतावश उसका लोप और विपर्यास ! दोनो पर विज्ञ पाठक विचार करें। - वंशम्पायन सहस्रनाम - 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के उक्त प्रकरण मे ही आगे देश Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजैन साहित्य मे जैन उल्लेख"" ] [ ३२५ म्यायन सहस्रनाम का यह श्लोक दिया गया है -कालनेमिर्महावीर. शूर. शौरि जिनेश्वर' ॥ यह श्लोक महाभारत के अनुशासन पर्व, अध्याय १४६ का ५२वा श्लोक है। जहा वैशम्पायनजी ने विष्णु के सहस्रनाम का प्ररूपण किया है। इसमे विष्णु का एक नाम 'जिनेश्वर' दिया है। (सभवत इसीसे हेमचन्द्राचार्य ने 'अनेकार्थ संग्रह' काड २ श्लोक २६६ मे लिखा है"जिनोऽर्हद् बुद्ध विष्णुषु' ।) परन्तु साम्प्रदायिकता को यह भी सहन नही हुआ है और किसी ने इसको इस प्रकार बदल दिया है -कालनेमिनिहा वीर शौरि शूरजनेश्वर । देखो-श्रीपाद दामोदर सातवेलकर, औंध (सितारा) से सन् १६३१ मे प्रकाशित महाभारत । तथा गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत पृ ६०४३ (सन् १६५८) । मूलग्रन्थकार की उदारता का हनन कर अप्रमाणिकता को प्रश्रय देने की पद्धति कहा तक शोभनीय है इस पर विज्ञ पाठक विचार करें। -मनुस्मृति, यजुर्वेदआगे 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' मे निम्नाकित ३ श्लोक मनुस्मृति से और १ मंत्र भाग यजुर्वेद से उद्धृत किया है कुलादि बीजं सर्वेषां प्रथमो विमलवाहन । चक्षुष्मान यशस्वी नाभि चन्द्रोऽयप्रसेन जित् ॥१॥ मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुल सत्तमा । अष्टमो मरुदेव्या तु नामेति उरुक्रमः ॥२॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ दर्शयन्वमं वीराणां सुरासुर नमस्कृत । नीति व्रितय कर्त्ता यो युगादौ प्रथमो जिनः ॥३॥ ॐ नमोऽर्हतो ऋपभो ॐ ऋषभ पवित्र पुरुहूत मध्वर यज्ञेषु नग्न परममाहसस्तु त वर शत्रु जयत पशुरिन्द्रमाहुति गिति स्वाहा । ॐ त्रातारमिद्र ऋषभ वदति अमृतारमिन्द्र हवे गत सुपार्श्वमिन्द्र हवे शक्रमजित तद्वर्धमान पुरुहूत मिन्द्रामाहुरिति स्वाहा । " आज ये दोनो कथन भी मनुस्मृति और यजुर्वेद मे नही पाये जाते । प टोडरमलजी के वाद २०० वर्षो मे ही माप्रदायिको ने साहित्य का कितना अगभग और उसमे कितना रद्दोबदल कर दिया है यह इन प्रमाणो से अच्छी तरह जाना जा सकता है 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' मे पं टोडरमलजी ने और भी विविध वैदिक ग्रन्थो से जैन उल्लेख उद्धृत किये है शायद उनमे से कुछ और की भी यही हालत हुई हो । इस प्रकार जैन उल्लेखो के निष्कासन और विपर्यास को यह छोटी सी कहानी है । अव एक दो उदाहरण ऐसे भी नीचे प्रस्तुत किये जाते हैं जिनमे एतद् विषयक बड़ा ही अर्थ का अनर्थ किया गया है - 'सत्यार्थ प्रकाश' हि सस्करण सन् १८८४ के पृष्ठ ४४७ पर लिखा है: न भुक्ते केवलीन स्त्री मोक्ष मेति दिगंबराः । प्राहुरेषामय भेदो महान् श्वेतावरं सह ॥ इसका अर्थ स्वामी दयानन्दजी सा. ने इस प्रकार किया · Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजैन साहित्य मे जैन उल्लेख [ ३२७ है - "दिगबरो का श्वेताम्बरो के साथ इतना ही भेद है किदि लोग स्त्री का ससर्ग नही करते और श्वे करते है इत्यादि बातो से मोक्ष को प्राप्त होते हैं । यह इनके साधुओ का भेद है" । उर्दू संस्करण मे भी लिखा है - दि श्वे मे इतना ही इखलाफ है कि - दि औरत के नजदीक नही जाते और श्वे जाते हैं ।" ... ] यह श्लोक वास्तव मे सायण माधवाचार्यकृत " सर्व दर्शनसग्रह " ( १३०० ईस्वी सन् ) का है । खेमराज श्री कृष्णदास बम्बई से वि स १६६२ मे प्रकाशित सस्करण मे पृष्ठ ७३ पर यह दवा श्लोक दिया है । उदयनारायणसिंहजी ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है: - " अकेला न भोजन करते न स्त्री वो भोगते ऐसा दिगम्बर मोक्ष को पाते हैं यह बडा भेद श्वेताम्बरो के साथ कहा है ।" ये सब अर्थ कितने असत्य और शालीनता से बाहर है यह जैनधर्म से थोड़ा भी परिचय रखने वाले अच्छी तरह जान सकते है | 6 बादके सस्करणोमे इस अर्थ मे थोडा परिवर्तन कर दिया है फिर भी सही अर्थ नही हो पाया है । पूरा सही अर्थ इस प्रकार है - "केबली (अर्हन्त) भोजन नही करते और स्त्री मोक्ष नही प्राप्त करती ऐसा दिगम्बर कहते हैं यही श्वेताम्बरो के साथ इनका महान् भेद है ।" सत्यार्थ प्रकाश मे जो जैन धर्म की आलोचना के लिये एक लम्बा चौडा समुद्देश लिखा है इस एक नमूने से ही उसकी भी असत्यता और अप्रमाणिकता का अच्छी तरह परिचय मिल जाता है । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग इसी प्रकार के गलत हिन्दी अनुवाद इस 'सर्वदर्शनसग्रह' " मे पद पद पर है-उदाहरणत पृष्ठ ७२ पर देखिये-'अण्टादश दोपा न यस्य च ॥३॥' इसका अर्थ किया है-"ये ही १८ नयदोप है।" जबकि इसका मही अर्थ यह है कि-"जिसके १८ दोप नही है" (ऐसे जिनेन्द्र है) । इसी तरह पृ ७३ पर देखिये लुचिता पिच्छकाहस्ता पाणिपाता दिगंबरा'। ऊर्वाशिनो गृहे दातु द्वितीयास्यु जिनर्षय ॥६१।। इममे तीसरे चरण का अर्थ इस प्रकार किया है"दिगवर लोग दाता के घर भी भोजन नही करते हैं।" जवकि मही अर्थ यह है कि-'दाता के घर में खडे भोजन करने वाले दि हैं।' निष्पक्ष उदार विद्वानो से प्रार्थना है कि-वे साम्प्रदायिक सकीर्णता की पर्याप्त निंदा करें और जो इस प्रकार के कार्य हुए हो उन्हे वापिस सुधारे जिससे श्रमण ब्राह्मण धर्म मे परस्पर भ्रातृभाव की और भी वृद्धि हो। 'शोरपि गुणा वाच्या' के रूप मे कहो चाहे सहज रूपमै कहो पूर्वकालीन अनेक वैदिक विद्वानो ने जैनधर्म के प्रति वात्सल्य भाव प्रदर्शित किया है जो उनकी उदात्त भावना का द्योतक है। इसकी जड उन्होने इतनी गहरी डालो थी कि-जैनो के भगवान् ऋषभदेव को ८वे ऋषभावतार के रूप मे मान्य किया था। आज के साप्रदायिको को उस ओर ध्यान देना चाहिये एव पूर्वजो के गुणानुराग का अनुसरण करना चाहिये। इसी मे भारतीत एकता है जो आज के युग की खास आवश्यकता है। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२६ अमरकोष के कर्त्ता अमरसिंह किस धर्म के मानने वाले थे यह आज मी निश्चय रूप से नही कहा जा सकता, यद्यपि ऐतिहासिको का रावजी सखाराम दोशी के अनुसार पूत्रं दो श्लोक प्राचीन प्रतियो मे २ नम श्री शान्तिनाथाय ...." बहुमत उम्हे बौद्ध मानता है । स्व यस्य ज्ञान वाले श्लोक से , ... 7000 • १ जिनम्य लोक त्रयवन्दितस्य' और थे जिन्हे धार्मिक असहिष्णुता के कारण निकाल दिया गया । इस में से श्लोक संख्या १ तो गद्य चिन्तामणि का मंगलाचरण है किन्तु २ का श्लोक कहरे का है अभी भी शायद अज्ञात हो है । इस ही प्रकार 'सर्व झोवीतरागो" .." वाला श्लोक भी मुद्रित प्रतियो मे नही है जबकि हस्तलिखित कई प्रतियो मे वह मिलता है, कोषकार ने जिनेन्द्र वाची नाम अपने कोष मे न दिये हो यह बात मानी निष्पक्ष ऐतिहासिकों को इस सम्बन्ध मे ओर भी प्रस्तुत करनी चाहिये । अजैन साहित्य मे जैन उल्लेख 100 Ultras 1 नही जा सकती । अनुसधान कर सचाई Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिश चन्द्र टोलिए 15. नवजीवन उपवन, मोती डूंगरी रोड, जयपुर-त ३० मूर्ति निर्माण की प्राचीन रीति आज कल हम देखते हैं कि जिस किसी बन्धु को जिन मूर्ति की प्रतिष्ठा करानी होती है, वह यदि मूर्ति बडे परिमाणकी चाहता हो या और कोई विशेष प्रकार की चाहता हो और वैसी बनी बनाई तैयार मूर्ति कारीगरों के यहाँ नही मिलती हो तो प्रतिष्ठा से बहुत पहिले ही किसी कारीगर को साई देकर व कीमत तय करके उसका सौदा कर लिया जाता है और जो साधारण प्रतिमा की ही प्रतिष्ठा करानी होती है तो प्रतिष्ठा के आस-पास के वक्त में ही बनी बनाई मूर्ति किसी कारीगर से खरीद ली जाती है । जहाँ पचकल्याणक प्रतिष्ठा का महोत्सव होता है वहां भी तैयार मूर्तियां लेकर बेचने को कितने ही कारीगर लोग पहुँच जाते हैं। उनसे भी कितने ही जैनी भाई मूर्तियाँ खरीद कर प्रतिष्ठा करवा लेते हैं । आज कल सर्वत्र ऐसा ही आम रिवाज हो गया है। इस विषय मे शास्त्रोक्त मार्ग क्या है उसे लोग भूल से गये हैं। आज से करीब सवासात सौ वर्ष पूर्व के बने प० आशाधरजी के प्रतिष्ठा पाठ मे इस विषय मे जो कथन किया गया है उसको देखने से मालूम होता है कि आज की यह प्रथा पुराने जमाने मे नहीं थी । इस विषय मे जैसा कथन आशाधरजी ने किया है वैसा ही प्राय. वसुनन्दी ने भीं स्वरचित प्रतिष्ठा सार संग्रह ग्रन्थ मे किया है। यह प्रतिष्ठा पाठ अभी तक मुद्रित नही हुआ है । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति निर्माण की प्राचीन रीति ] मूर्ति घडाने के लिये जगल मे कैसा हो और किस विधि से लाया जावे मूर्ति घडाई जावे इत्यादि कथन जो इन प्रतिष्ठा ग्रन्थो मे लिखा मिलना है उसकी जानकारी आधुनिक जैन [ ३३१ जाकर खान से पाषाण और कैसे कारीगर से समाज को नही के वसुनदिकृत प्रतिष्ठा वरावर है । अत मैं यहा उस प्रकरण को पाठ से लिखता हू । यह वर्णन उसके तीसरे परिच्छेद मे है । गृहे निष्पाद्यमाने च निष्पन्ने भावयिष्यति । शिला विवार्थमानेतु गच्छेच्छिल्पि समन्वित ॥६७॥ जिन मन्दिर बन रहा हो उसके पूर्ण होने मे अभी थोड़ा काम वाकी हो तब ही प्रतिमा बनाने के लिए पाषाण लेने को शिल्पी के साथ जावे | कृत्वा महोत्सवं तत्र निमित्तान्य वलोक्य च । यात्रानुकूल नक्षत्रे सुलग्ने शोभने दिने ॥६८॥ जाने से पहिले वहा उच्छव करे और शुभ निमित्तो को देखे । फिर उत्तम लग्न और शुभ दिन मे अनुकूल नक्षत्र के होते यात्रा करे । ( आगे ७ श्लोक मे यात्रा मुहुर्त सम्बन्धी ज्योतिष का विषय लिखा है । विस्तारभय से वह कथन यहा छोड़ा जाता है | ) सम्यगवेषयेच्छिला । नदी नगवनेषु च ॥७६॥ गच्छत्वेवं प्रसिद्ध पुण्य देशेषु प्रयत्नेन प्रसिद्ध पुण्य स्थानो, नदी, पर्वत, वनो मे यत्न के साथ अच्छी तरह से प्रतिमा बनाने योग्य ढूढना चाहिए । जाकर वहा पाषाण को Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ श्वेता रत्ता 5 सिता पीता मिश्रा पारावतप्रभा । मुद्गकापोतपद्मामा मजिष्ठाहरिताप्रभा ॥७॥ कठिना शीतला स्निग्धा, सुस्वादा सुस्वरा दृढा । सुगंधात्यंततेजस्का मनोज्ञा चोत्तमा शिला ॥७॥ वह शिला जिससे कि प्रतिमा बनाई जायेगी सफेद, लाल, काली, पीली, कर्बुरी, सलेटिया, मू गिया, कबूतरिया, कमल जैसे रग की, मजीठ के रंग जैसी और हरे रग की होनी चाहिये । और वह कठिन, ठण्डी, चिकनी, उत्तम स्वाद वाली, उत्तम आवाज की (झोजरी न हो) मजबूत, अच्छी गधवाली, अत्यन्त चमकीली, मनोहर और उत्तम होनी चाहिए। मद्वी विवर्ण दग्धा वा लघ्वी रूक्षा च धूमिला। निःशब्दा विदुरेखादिर्षिता वजिता शिला ॥७६।। जो कमल, कुवर्ण, जली हुई, हल्की, रूखी, धूमिल, बिना आवाज की, और विदुरेखादि दोषो वाली हो ऐसी शिला प्रतिमा बनाने के काम में नहीं लेनी चाहिये।। । परीक्ष्यवं शिलां सम्यक् तत्र कृत्वा महोत्सवम् । पूजां विद्याय शस्त्राग्न हकारेणाभि मंत्रयेत् ॥०॥ परीक्षा से उत्तम शिला मिल जाय तो खान में से उस शिला को काटने के पहिले वहा भली प्रकार उच्छ्व के साथ पूजा विधान करके जिस शस्त्र से शिला को काटनी हो उस शस्त्र के अगभाग को "ओम् हू फट् स्वाहा” इस मत्र से मत्रित कर लेवे। शिलां विभिद्य शस्त्रेण पुनगंधादिभिर्यजेत् । प्रदोषसमये कृत्वा गधै हस्तानू लेपनम् ॥१ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३३ मूर्ति निर्माण की प्राचीन रीति ] फिर उस शस्त्र के द्वारा शिला को काटकर उसकी गधादि से पूजा करे । तत्पश्चात् रात्रि के पूर्व भाग मे गध द्रव्यो का हाथो मे लेपन करके सिद्धक्ति बिधाया दो मंत्र मनसि संस्मरेत् । ओम् नमोस्तु जिनेन्द्राय ओम् प्रज्ञाश्रवणे नम ॥२॥ नम केवलिने तुभ्यं नमोस्तु परिमेष्ठिने । स्वप्ने मे देवि विद्यांगे ब्रूहि कार्य शुभाशुभम् ।।३।। अनेन दिव्यमंत्रेण सम्यग्ज्ञात्वा शुभाशुभम् । प्रात स्तन पूनर्गत्वा पूजयेत्ता शिला तत ॥४॥ और प्रथम ही सिद्धभक्ति का पाठ करके आग के मत्र का मन मे स्मरण करें। "ओम् नमोस्तु जिनेन्द्राय, ओम् प्रज्ञाश्रवणे नमः । नम केव लिने तुभ्य, नमोस्तु परमेष्ठिने ।। स्वप्ने मे देवि । विद्यागे ।, ब्रहि कार्य शुभाशुभ" । इसका स्मरण करते हुये सो जावे । इस दिव्यमत्र से स्वप्न मे अच्छी तरह शुभा शुभ जानकर यदि कार्य शुभ दीखे तो प्रभात ही फिर कहा जाकर उस शिला की पूजा करे । यथा कोटिशिला पूर्व चालिता सर्व विष्णुभिः । चालयामि तथोत्तिष्ठ शीघ्र चल महाशिले ॥८॥ सप्ताभिमत्रिता कृत्वा मत्रेणानेन तां शिलाम् । पीडार्थ प्रतिमार्थ वा रथमारोपयेत्ततः ॥८६॥ "यथा कोटिशिला। ." यह पूरा श्लोक ही मत्र है। इस मत्र से उक्त शिला को ७ बार मत्रित किये वाद बैठक सहित प्रतिमा को बनाने के लिये उस शिला को रथ मे रखकर ले चले। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ एवमानीय तां सम्यक् त्रि परीत्य जिनालयम् । कृत्वा महोत्सवं तत्र सुदिने संप्रवेशयत् ॥८७॥ ३३४ ] t इस प्रकार उस शिला को अच्छी तरह लाकर किसी शुभ दिन मे उच्छव करके और जिनालय की तीन प्रदक्षिणा देकर जिन मन्दिर मे ले जावे । वही शिल्पी को बुलाकर उससे उस शिला की मूर्ति घडाई जावे | इस सम्बन्ध मे आशाधरकृत प्रतिष्ठा पाठ मे इस प्रकार लिखा है सुलग्ने शांतिकं कृत्वा सत्कृत्य वरशिल्पिनम् । तां निर्मापयितुं जैनं बिंबं तस्मै समर्पयेत् ॥ ६१ ॥ सदृष्टिर्वास्तु शास्त्रज्ञो मद्यादि विरत शुचिः । पूर्णांगो निपुण शिल्पी जिनार्चाया क्षमादिमान् ॥ ६२ ॥ [ अध्याय १] अर्थ - शाति विधान करके शुभ मुहुर्त मे जिनबिंब बनाने के लिये किसी अच्छे कारीगर को सत्कारपूर्वक वह शिला सुपुर्द कर देवे । वह कारीगर तेज नजर का, वास्तु शास्त्र का ज्ञाता मद्यादिका त्यागी, पवित्र, पूर्णांगो, शिल्पकाम मे निपुण और क्षमादिकाधारी - अक्र र परिणामी होना चाहिये । ऐसा शिल्पी जिन विब बनाने के योग्य होता है । पाठक देखेगे कि जिन प्रतिमा बनाने के कहा तो पूर्व काल के विधि-विधान और कहा आज की प्रथा, दोनो मे आकाश पाताल का अन्तर है । प्रतिमा निर्माणार्थ पाषाण लाने की विधि तो दूर रही आजकल तो इतना भी विचार नही किया जाता कि जिस मूर्ति को हम प्रतिष्ठार्थं ले रहे है उसका घडने Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति निर्माण की प्राचीन रीति ] [ ३३५ वाला शिल्पी कही मद्यमासाहारी तो नही है ? बस वाजार बिकती चीज खरीद की और प्रतिष्ठा मे रख दी ऐसी मूर्तियो मे चमत्कारो की आशा करना मृगमरीचिका है । पाषाण को भगवान बनाना कोई बच्चोका खेल नही है । पूर्वकाल मे भगवान की मूर्ति घडने वाले सलावट भी ऐसे विचारवान् होते थे कि वे अपना खानपान शुद्ध रखते थे और पवित्र रहते थे और हम परमेश्वर की मूर्ति घडने वाले हैं इस बात से अपने आप मे गौरव का अनुभव करते थे । इसी से आशाधारजी ने आकर शुद्धि का वर्णन : करते हुए जन्मकल्याणक से भगवान् का प्रथम धूली कलशाभिषेक सूत्रधार ( शिल्पी) के हाथ से कराना लिखा है । ऐसे शिल्पियों का सन्मान भी उस जमाने मे खूवं किया जाता था । उनके सम्मान का उल्लेख भी आशाधरजी ने उक्त कलशाभिषेक के कथन मे किया है । इन्होने ही प्रतिष्ठाविधि मे गर्भकल्याणक के प्रसग में एक और उल्लेख किया है सार्वकानि वरवस्त्रफलप्रसून शय्यासनाशनविलेपन सडनानि । तत्तत्क्रियोपकरणानि तथेप्सितानि तीर्थेशमातुरुपदी कुरुतां धनेश ॥२०॥ [ अध्याय ४ ] ओम् निधीश्वर जिनेश्वरमात्रे भोगोपभोगान्युपनयोपनयेति स्वाहा । चारुवस्त्र मुद्रिकाहार फल पत्रपुष्पादिक पीठाने प्रतिष्ठयेत् । तच्च सर्वं विश्वकर्मा गृहीयात् । अर्थ- सव ऋतुओ के उत्तम वस्त्र, फल, पुष्प, शय्या, आसन, भोजन, विलेपन, मडन तथा और भी उन उन क्रियाओं की साधक इच्छित सामग्री को कुबेर जिनमाता को भेंट करें । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ सुन्दर वस्त्र, अगूठी, हार, फल, पत्र पुष्पादि भेट की सामग्री को "ओम निधीश्वर" मादि ऊपर लिखे मत्र को बोलते हुए भद्रासन के आगे रक्खे। उस सब सामग्री को शिल्पी ग्रहण करे । आजकल इनमे से वस्त्र, शय्या, आसन आदि चीजो को कोई कोई प्रतिष्ठाचार्य:पण्डित ले लेते हैं या यह सामग्री मेला कराने वाली पचायत या यजमान के अधिकार मे रह जाती है। पहिले इसके लेने का नियोग शिल्पी का था जैसा कि आशाधर जी ने कहा है। गर्भावतार की विधि मे शिल्पी सम्बन्धी एक और उल्लेख आशाधरजी ने निम्न प्रकार किया है "तामेव रहसि पुरानिरूपितप्रतिष्ठेयामह प्रतिमा नूतनसितसद् वस्त्रप्रच्छादिता पुरश्चरतटकिकाकरविश्वकर्मा सोधमन्द्रो महोत्सवेनानीय सुविशुद्धभद्रासनगर्भपद्म निवेशयेत् ।" जिसके आगे टाको हाथ में लेकर प्रतिमा घडने वाला शिल्पी चल रहा है। ऐसा सीधर्मेन्द्र पूर्व कथित उसी प्रतिष्ठेय जिनप्रतिमा को नये सफेद उत्तम वस्त्र से ढककर और महोत्सव के साथ लाकर पवित्र भद्रासन पर कमल के मध्य में एकात मे स्थापन कर दे।* - - * आचार्यकल्प प० टोडरमलजी के साथी विद्वद्वर १० रायमल्लजी कृत 'ज्ञानानन्द श्रावकाचार" के पृष्ठ १०२-१०३ पर भी मूर्ति निर्माण के विषय में इस प्रकार वर्णन है ~ "आगे प्रतिमा का निर्मापण के अथं खान जाय पाषाण लावे ताका स्वरूप कहिये हैं सो वह गृहस्थो महा उछाव सू खान जावे Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति निर्माण की प्राचीन रीति ] [ ३३७ ___ इन उद्धरणो से सहज ही जाना जा सकता है कि प्राचीन काल में भगवान की प्रतिमा बाजारु खरीद वेच की चीज नही थी जिस शिला से वह बनाई जाती थी वह भी खान से बड़े विधि-विधान से लाई जाकर मन्दिर मे रखी जाती थी और वही पर सलावट आकर उसे बनाता था। बनाने वाला शिल्पी भी शुद्ध आचार-विचार का धारी होता था और वह समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। यहा तक कि प्रतिष्ठा की विधियो मे भी उसे साथ रक्खा जाता था और प्रतिष्ठोपयोगी कितने ही बहुमूल्य पदार्थों की प्राप्तिके अधिकार भी उसे मिले हुए थे जिससे वह मालोमाल हो जाता था। इसके अतिरिक्त और भी पुरस्कार उसे यजमान द्वारा मिला करते थे। खान की पूजा करे। पीछे खान को न्योत आवे अरु कारीगर ने मेल आवे सो वह कारीगर ब्रह्मचर्य अगीकार करे, अल्प भोजन ले, उज्ज्वल वस्त्र पहिरे, शिल्पशास्त्र का ज्ञानी बना विनय सू टाकी फरि पाषाण की धीरे-धीरे कोर काटे । पीछे वह गृहस्थ गृहस्थाचार्य सहित और घना जैनी लोग, कुटुम्ब परिवार के लोग गाजा-बाजा बजाते मगल गावते जिनगुण के स्रोत पढते महा उत्सव सू खान जाय । पीछे फेरि बोका पूजन कर विना चाम का सजोग करि महामनोज्ञ रूपा सोना के काम का महा पवित्र मन कू रजायमान करने वाला रथ विपे मोफली रूई का पहला में लपेट पाषाण रथ मे घरे । पीछे पूर्वतत् महा उत्सव सू जिन मन्दिर ला। पीछे एकांत स्थानक विषे धना विनय सहित शिल्पशास्त्रानुसार प्रतिमाजी का निर्माण करे ता विषे अनेक प्रकार गुण-दोष लिख्या है Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ । [ * जन निबन्ध रत्नावली भाग २ जिस मति को माध्यम बनाकर हम अपने आराध्य देव की आराधना करके अपना कल्याण करते है-इहलोक परलोक सुधारते हैं उस मूर्ति को बाजारू चीज बना देने से क्या उसका गौरव रहेगा, यह प्रश्न काफी गम्भीर और विचारणीय है। सो सर्व दोषा ने छोड सम्पूर्ण गुण सहित यथाजात स्वरूप निपुणता दोय चार पाच सात वर्ष मे होय, एक तरफ तो जिन मदिर की पूर्णता होय और एक तरफ प्रतिमाजी अवतार धरे। पीछे घने गृहस्थाचार्य पडित अरु देश-देश का धर्मी ताक प्रतिष्ठा का मुहुर्त ऊपर कागज दे दे घना हेत सू बुलावे। सर्व सघ को नित प्रति भोजन होय और सर्व दुखित को जिमावे, कोई जीव विमुख न होय रात्रि दिवस ही प्रसन्न रहे। पीछे भला दिन भला मुहुर्त विपे शास्त्रनुसार प्रतिष्ठा होय । धनो दान बटे इत्यादि धनी महिमा होय । ऐसी प्रतिष्ठी प्रतिमाजी पूजना योग्य है। बिना प्रतिष्ठी पूजना योग्य नहीं ॥" सारे देश में प्रतिवर्ष कितनी ही पचकल्याणक प्रतिष्ठायें होती हैं औप उनमे १०-२० नहीं किंतु सैकड़ों की संख्या में जैन मूर्तियो की प्रतिष्ठा होती है। लेकिन ये मूर्तिया शास्त्रोक्त विधि से निर्मित कलापूर्ण एव मनोज्ञ हैं या नहीं इस ओर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। प्रस्तुत लेख मे विद्वान् लेखक ने मूर्ति निर्माण की शास्त्रोक्त विधि पर विशद प्रकाश डाला है उस पर मूत्ति प्रतिष्ठापको एव प्रतिष्ठाचार्यो का ध्यान जाना आवश्यक है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ पीठिकादि मंत्र और शासनदेव कुछ पडितो का कहना है कि आदि पुराण मे भगवज्जिनसेन ने पीठिकादि मत्रो मे “सौधर्माय स्वाहा" "कल्पाधिपतये स्वाहा" "अनुचराय स्वाहा" इत्यादि सुरेन्द्र मत्र लिखे हैं। तथा अग्निकुमारो के इन्द्र और कुवेर का भी मत्रो मे उल्लेख किया है । ऐसा कथन करके आचार्य जिनसेन ने देवगति के देवो की पूजा करने का सकेत किया है उससे शासन देवो की पूजा करना सिद्ध होता है। नीचे हम इस लेख मे इसी बात पर ऊहापोह करते है आशाधरजी आदि कृत प्रतिष्ठा ग्रन्थो में चक्र श्वरी आदि २४ यक्षियो को शासन देवता और गौमुख आदि २४ यक्षो को शासन देव के नाम से लिखा है । इसके अलावा नवग्रह, दशदिनपाल, क्षेत्रपाल, जयादि देविये और रोहिणी आदि विद्या देविये इत्यादि देवदेवियो की यागमडल मे स्थापना कर उनकी प्रतिष्ठादि ग्रथो मे पूजा करने का कथन आता है। उनमे से भी किसी देव-देवी का नाम इन पीठिकादि मत्रो मे नही है। जब कि क्रियाकाडी ग्रन्थो मे अधिकतर इन्ही की पूजा-आराधना लिखी है तब जिनसेन का पीठिकादिमत्रो मे उनमे से किसी एक का भी उल्लेख न करना यह बताता है कि आचार्य श्री जिनसेन उक्त देव-देवियो की पूजा आराधना करने के पक्ष मे कतई नही थे। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ रही वात सुरेन्द्र मत्रो को सो इस विपय मे ऐमा समझना चाहिये कि भगवज्जिनमेन ने आदि पुराण मे गर्भ से लेकर निर्वाणपर्यंत ५३ गर्भान्वय क्रियाये कही है। उनमे से सब से उत्तम ७ क्रियाओं को परमस्थान बताते हुये उनका कन्वय नामकरण किया है। अगले तीसरे भवमे तीर्थंकर होनेवाला जीव जव उच्चवर्ण के शुद्ध जाति कुल मे जन्म लेकर गर्भाधानादि संस्कारों से युक्त होता है तब उसके सज्जाति नामक प्रथम परमस्थान माना जाता है। सज्जाति ही आत्मोन्नति का मूल आधार है। वह सज्जाति का धारी सम्यग्दृष्टि श्रावक जब इज्या, वार्ता, दत्ति, आदि षट्कर्मों को करता हुआ धर्म मे दृढ रहता है, अन्य गृहस्थो मे न पाई जावे ऐसी शुभ वृत्ति का धारी होता है और पाप रहित आजीविका करता है तथा शास्त्र ज्ञान और चरित्र मे विशिष्ट होता है तब वह गृहस्थो का स्वामी गृहस्थाचार्य कहलाता है इसे ही गृहीशिता नामकी २० वी क्रिया कहते है और यही सद्गृहित्व नामका दूसरा परमस्थान कहलाता है। वर्णोत्तम, महीदेव, सुश्रुत, द्विजसत्तम, निस्तारक ग्रामपति और मानार्ह इन नामों को कहकर लोग उसका सत्कार करते है। (आदिपुराणपर्व ३८ श्लोक १४७) उक्त सद्गृहस्थ जब वस्त्रादि परिग्रहो का त्याग कर जिनदीक्षा धारण करता है तव उसके जिनरूपता नाम की २४ वी क्रिया होती है। यह ही पारिव्राज्य नामक तीसरा परमस्थान कहलाता है। इस क्रियाका धारी ही आगे चलकर सोलह कारण भावना भाकर तीर्थकर प्रकृति का बध करता है। वह मुनि समाधिमरण से प्राण त्याग कर जब स्वर्ग मे उत्पन्न हो इन्द्रपदवी का धारी होता है तब उसके इन्द्रोपपाद नामकी ३३ वी क्रिया होती है Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिकादि मत्र और शासनदेव ] [ ३४१ और वह ही सुरेन्द्रत्व नामक चौथा परमस्थान कहलाता है। फिर वह इन्द्र स्वर्ग से च्युत होकर गर्भ-जन्मकल्याणक से युक्त तीर्थकर हो चक्रवत्तिपद का धारी होता है तब उसके साम्राज्य नामकी ४७ वी क्रिया होती है और वही साम्राज्य नामक ५ वा परमस्थान माना जाता है। तदनतर वे तीर्थंकर दीक्षा ले मुनि हो तप कर केवलज्ञान पा अहंत अवस्था को प्राप्त होते हैं तब उनके अष्टप्रातिहार्य, बारहसभाये, समवशरण आदि विभूतिये होती हैं, इसे ही ५० वी आर्हत्य क्रिया कहते है और यही ६ वा परमाहंत्य नामक परमस्थान माना जाता है। इस अर्हत अवस्था के बाद जब उन तीर्थंकर की मोक्ष होती है तब वह ५३ वी अग्रनिर्वृत्ति नाम की क्रिया कहलाती है और यही "परनिर्वाण" नामक ७ वा परमस्थान माना जाता है। यद्यपि ये क्रियायें गर्भान्वय की ५३ क्रियाओ के अतर्गत है तथापि जब ये क्रियायें किसी तीर्थकर होनेवाले जीव के होती है तब उनकी कन्वय नाम से जुदी सज्ञा कही जाकर वे सात परमस्थान माने जाते हैं। जैसे गर्भ से सम्बन्धित क्रियाये गर्भान्वय कही जाती हैं, और दीक्षा से सम्बन्धित क्रियाये दीक्षान्वय कही जाती हैं। उसी तरह किसी विशिष्ट कर्त्ता से (तीर्थकर जीव से) सम्बन्ध रखने वाली क्रियाये कन्वय कहलाती हैं। नही तो कन्वय सज्ञा का अन्य क्या अर्थ हो सकता है ? अतिनिकट काल मे तीर्थकर होने वाले ऐसे जो कोई पुण्यशाली जीव हैं उन्ही के ये कन्वय क्रियाये होती है। आदिपुराण मे लिखा है कि - अथात संप्रवक्ष्यामि द्विजा• कनन्वयक्रियाः । या प्रत्यासन्ननिष्ठस्य भवेयु भव्यदेहिन ॥१॥ पर्व ३६ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] . [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ तास्तु कन्वया ज्ञेया याः प्राप्याः पुन्यकर्तृभिः । फलरूपतया वृत्ताः सन्मार्गाराधनस्य वै ॥६६॥ सज्जाति. सद्गृहित्वं च पारिवाज्यं सुरेन्द्रता। साम्राज्यं परमाहंन्त्यं परनिर्वाणमित्यपि ॥६७॥ स्थानान्येतानि सप्त स्युः परमाणि जगत्त्रये । अर्हनवाग्मृता स्वादात् प्रतिलभ्यानि देहिनाम् ॥६॥ पर्व ३८ अय -अथानतर हे द्विजो मैं आगे उन कन्वय क्रियाओ को कहता हू जोकि अतिनिकट भव्यप्राणी ही के हो सकती है। कन्वय क्रियायें वे है जो पुण्य करने वालो को प्राप्त होती हैं। और जो समीचीन मार्ग की (सोलहकारण की) आराधना करने के फलस्वरूप प्रवृत होती हैं। उनके नामसज्जाति, सद्गृहित्व, पारिवाज्य, सुरेन्द्रत्व, साम्राज्य, परमाहत्य और परनिर्वाण । ये तीन-जगत् मे ७ परमस्थान माने गये है। ये स्थान अहंत के वचनामृत के पान से जीवो को मिलते है। अर्थात जिनवाणी के अभ्यास से मिलते हैं। ये ही सात परमस्थान पीठिकादि सात जाति के मत्रो मे गभित हैं । वे इस तरह कि- पीठिका मत्रो मे परनिर्वाण स्थान जातिमत्रो मे सज्जाति स्थान, निस्तारक मत्रो मे सद्गृहित्व, ऋपिमन्त्रो मे पारिव्राज्य, सुरेन्द्रमन्त्रो मे सुरेन्द्रस्थान,परमराजादिमन्त्रो मे साम्राज्य स्थान और परमेष्ठिमन्त्रो मे परमाहत्य स्यान । इस प्रकार सातो जाति के मन्त्रो मे सातो परमस्थान गभित हो रक्खे हैं। इन परमस्थानो के जिस अनुक्रम से उपर नाम लिखे है Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिकादि मत्र और शासनदेव ] [ ३४३ उसी अनुक्रम से ही वे तीर्थकर होने वाले जीव के होते है । ऐमा आदिपुराण के निम्नपद्यो से प्रगट होता है - भव्यात्मा समवाप्य जातिमुचिता जातस्तत सद्गृही। पारिवाज्यमनुत्तरं गुरूमतादासाद्य यातो दिवम् ॥ तनन्द्रों श्रियमाप्तवान् पुनरतश्च्युत्वा गतश्चक्रितां । प्राप्ताहत्यपद. समग्रमहिमा प्राप्नोत्यतो निर्वृतिन् ॥२११॥ पर्व ३८ अर्थ-वह भव्य पुरुष प्रथम ही योग्य जाति सज्जाति को पाकर सद्गृहस्थ होता है। फिर गुरू के पास से उत्कृष्ट परिव्रज्या (मुनि दीक्षा) धारण कर स्वर्ग जाता है। वहा उसे इन्द्र की सम्पदा मिलती है। तदनतर वहा से च्युत होकर चक्रवर्ती पद को प्राप्त होता है। फिर अहन पद को पाकर समस्त महिमा का धारी होता है । और इसके बाद निर्वाणको प्राप्त करता है। इस विवेचन से साफ तौर पर यही सिद्ध होता है कि पीठिकादि सप्तविधमन्त्रो मे केवल सप्त परम स्थानो का उल्लेख है वहा शासन देवो का कोई प्रसग ही नहीं है। सुरेन्द्रमन्त्र भी सुरेन्द्र नामक परमस्थान की वजह से समझने चाहिये, न कि शासनदेव की वजह से अथवा भाविनगमनय की दृष्टि से तीर्थकर पूज्यता को लेकर यह सब मन्त्र कल्प समझना चाहिये। खास ध्यान देने योग्य चीज यहा यह भी है कि इन सात जाति के मत्रो मे जो अर्हत, सिद्ध और ऋषि वाचकमत्र है। उनके आगे आचार्य ने केवल नम. शब्द लगाया है, स्वाहा शब्द भी नही लगाया है। और शेष मत्रो के आगे बिना नम शब्द के खाली स्वाहा शब्द लगाया है। इसका कारण स्पष्टत. यही । - - Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ ३४४ ] मालूम होता है कि अर्हत, ऋषि खास पूजनीय होने से उनके आगे नम शब्द का प्रयोग किया है । और शेष परमस्थान पूजनीय नही होने से उनके आगे नम शब्द नही लिखा है । खाली स्वाहा शब्द लिखकर आहुति ( आह्वान ) देने मात्र उनका सम्मान प्रदर्शित किया है । वह भी गर्भाधान, विवाहादि सासारिक कार्यो मेही । और अहंत, सिद्ध व ऋषि वाचक मत्रो के आगे जो स्वाहा शब्द भी नही लगाया गया है उससे आचार्य का अभिप्राय उनको यहा आहुति दिलाने का भी नही जान पडता है । क्योकि दूसरो को आहुति देने के साथ इनको भी आहुति देने के लिये स्वाहा शब्द लिख देते तो पूजा की पद्धति सबको समान हो जाती । ऐसा होना आचार्य को अभीष्ट नही था । इसलिये आचार्य ने अहंतादिको के आगे स्वाहा शब्द नही लिखा, खाली नम शब्द लिखकर यह भाव दर्शाया है कि अर्हतादिक को यहा आहुति नही देनी चाहिये, नमस्कार करना चाहिये । यहा आचार्य जिनसेन ने तो सुरेन्द्र परमस्थान के धारी सुरेन्द्र तक को सुरेन्द्रमत्रो मे नमस्कार के योग्य नही माना है । ऐसी हालत मे आशाधरादिको का अपने-अपने प्रतिष्ठापाठादि क्रियाकाडी ग्रंथो मे भवनत्रिक देवो की जो किसी तरह परमस्थान के धारी भी नही है अर्हतादि की तरह नम. शब्द के साथ पूजा का कथन करना निश्चय ही जिनसेनाचार्य की आम्नायं से वहिर्भूत है । अत मान्य नही है । 14 यहा ऐसा भी नही समझना कि सुरेन्द्रमत्रो मे स्वाहा शब्द से इन्द्र को आहुति देने का कथन करके ग्रन्थकार ने शासन देवो की पूजा का आशय व्यक्त किया है । ग्रन्थकार तो सुरेन्द्रमत्रो की तरह गृहस्थाचार्य के वाचक निस्तारक मंत्रो मे भी Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिकादि मंत्र और शासनदेव ] [ ३४५ स्वाहा लिखते है इससे यही फलितार्थ निकलता है कि ग्रन्थकार की दृष्टि स्वाहा शब्द लिखते वक्त परमस्थान की तरफ थी जिससे दोतो ही परमस्थानीय होने से दोनो ही के मत्रो मे उन्होने स्वाहा लिख दिया है । "क्या कोई शासन देव भी होते हैं " ऐसा तो उनके विचारो मे भी नहीं था। प्रश्न- अगर ऐसी ही बात थी तो पीठिकामत्रो मे अग्निकुमारो के इन्द्र का नाम और निस्तारक मत्रो मे कुबेर का नाम तथा सुरेन्द्रमत्रो मे "अनुचराय स्वाहा" जिसका अर्थ होता है इन्द्र के अनुचरो को स्वाहा इत्यादि उल्लेख क्यो किये हैं ? ये तो परमस्थान भी नहीं है फिर इन सब को स्वाहा कसे लिखा ? उत्तर - पीठिकामन्त्रो मे से जिस मन्त्र मे अग्निकुमारो के इन्द्र का नाम आया है वह मन्त्र यह है-सम्यग्दृप्टे २ आसन्नभय २ निर्वाणपूजाई २ अग्नीद्र स्वाहा ।" इसमे स्वाहा के पूर्व चतुर्थी विभक्ति नहीं है जैसाकि अन्य गन्त्रो मे है किन्तु सबोधन है। इसलिये अग्नीन्द्र के लिये “स्वाहा" ऐसा अर्थ तो यहा होता नहीं है। अग्निकुमारो के इन्द्र की गणना सप्त परमस्थानो मे भी नहीं है इसलिये भी उसके स्वाहा नहीं लिखा जा सकता है। अनेक दूसरे मन्त्रो के देखने से ऐसा विदित होता है कि कितने ही मन्त्रो मे स्वाहा शब्द का प्रयोग उस मन्त्र की पूर्ति अर्थ मे किया जाता है। यानी अखीर मे स्वाहा लिखकर उस मन्त्र की समाप्ति की सूचना दी जाती है । इसके सिवा वहा स्वाहा का अर्थ आहुति देना या द्रव्य अर्पण करना घटित नहीं होता है। उदारहण के लिये प्रतिष्ठापाठो मे शुद्धि मन्त्र इस प्रकार लिखा मिलता है ओ ह्री अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृत स्रावय २ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ झ्वी क्ष्वी हस स्वाहा । “ऐसा बोलकर जल के छीटे देवे । तथा विघ्न निवारण मन्त्र ऐसा लिखा है - ओ ह क्ष फट् किरिटि २ घातय..." ह्र' फट स्वाहा ।” बोलकर सरसो फेके । "ओ नमोहते सर्व रक्ष २ ह फट् स्वाहा ।" इसे ७ बार वोलकर पुष्पाक्षत परिचारको पर डाले । यह रक्षामन्त्र है। इसी तरह सकलीकरण विधि मे 'ओं हां णमो सिद्धाण स्वाहा” बोलकर ललाट का स्पर्श करे। इत्यादि इसी तरह से स्वाहा का प्रयोग यहा पीठिका मन्त्रो में जिनसेन ने अग्नीद्र के साथ किया है। इस प्रकार के मात्रिक प्रयोग जिनसेन ने आदि पुराण मे अन्यत्र भी किये हैं। देखिये पर्व ४० के श्लो० १२२ और १२६ "सम्यग्दृष्टे २ सर्वमातः २ वसुन्धरे २ स्वाहा" बोलकर बालक का नाभिनाल पृथ्वो मे गाड दे। "जिस प्रकार सम्यक्त्व को धारण करने वाली जिनमाता सब की माता है उसी प्रकार सबकी आधारभूत होने से पृथ्वी भी सबकी माता है ऐसी है पृथ्वो" ऐसा इस मन्त्र का भावार्थ है। सम्यग्दृष्टै यह विशेषण जिनमाता का है पृथ्वी का नही है । और सर्वमात. यह विशेषण दोनो ही का है। "सम्यग्दृष्टे २ आसनभव्ये २ विश्वेश्वरि २ उजित पुन्ये २ जिनमाता २ स्वाहा ।" यह मन्त्र बोलकर पुत्र की माता को स्नान कराके। सासारिक कार्यों को करते हुये पुण्य पुरुषो के नाम का उच्चारण करके यह भावना व्यक्त करना कि उन जैसे हम भी होबें या उनका स्मरण करना ऐसी इन मत्रो की शैली मालूम देती है। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिकादि मंत्र और शासनदेव ] । ३४७ इससे सिद्ध होता है कि-पीठिकामत्रो मे अग्नीन्द्र 'स्वाहा' का अर्थ अग्नीन्द्र के लिये पूजाद्रव्य अर्पण करने का नहीं है। किन्तु वहा स्वाहा का प्रयोग मन्त्रपूर्ति के लिये किया गया प्रतीत होता है। चूकि केवलियो के निर्वाण के वक्त उनका निर्जीव शरीर अग्निकुमारो के इन्द्र के मुकुट से उत्पन्न अग्नि से दग्ध हुआ करता है । इसलिये परनिर्वाण नाम के परमस्थान के सूचक इन पीठिका मन्त्रो के साथ अग्नीद्र का उल्लेख किया गया है। इसी से मन्त्र मे उसका एक विशेपण "निर्वाणपूजाह लिखा है। जिसका अर्थ होता है केवलियो की निर्वाणपूजा मे काम आने योग्य । इसी प्रकार वैश्रवण-कुबेर के लिये समझ लेना चाहिये। मन्त्र मे वैश्रवण शब्द को भी अग्नीन्द्र की तरह ही संबोधनात लिखकर आगे उसके स्वाहा लिखा है। अत यहा भी चतुर्थी विभक्ति न होने से कुबेर के लिये स्वाहा नहीं लिखा है । तथा सुरेन्द्रमन्त्रो में एक मन्त्र "मनुचरायस्वाहा" आता है जिसका अर्थ इन्द्र के अनुचर के लिये स्वाहा किया जाता है। ऐसा अर्थ करना गलत है। वाक्य मे अनुचराय यह चतुर्थी विभक्ति का प्रथम वचन है उससे इन्द्र का एक अनुचर अर्थ प्रगट होता है । इन्द्र के एक नही अनेक अनुचर होते हैं अत' उफ्त अर्थ स्पष्टत' असगत है। सही अर्थ उसका ऐसा है-"भगवान् का अनुचर-सेवक जो सुरेन्द्र है उसके लिये स्वाहा।" यही अर्थ पुराणे पंडित दौलतरामजी ने वचनिका मे किया है । पुराणे पडित श्री पन्नालालजी साहब सघी (विद्वज्ज Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] [* जैन निवन्ध रत्नावलो भाग २ बोधक के कर्ता) और पंडित फतहलालजी (विवाहपद्धति के रचयिता) ने तथा कई आधुनिक पडितो ने पीठिकादि सभी मत्री का अर्थ अर्हत सिद्ध-गुरु किया है। यहा तक कि सुरेन्द्र और निस्तारक मन्त्र जो स्वर्गेन्द्र और गृहस्थाचार्य के वाची है उनमे प्रयुक्त शब्दो के प्रसिद्ध अर्थ की भी उन्होंने अवहेलना करके उनका भी अर्थ जिनदेव मे ही घटाया है। ऐसा उन्होने क्यो किया ? इसके दो मुख्य कारण है। एक तो यह है कि इन मन्त्री मे प्रत्येक जाति के मन्त्र के अन्त मे सेवा फल षट् परमस्थान भवतु" आदि काम्यमत्र आता है। जिसका मतलब होता है उनकी सेवा करने का फल षट् परमस्थान की प्राप्ति चाहना। इस प्रकार की इच्छा पूति जिनदेव और गुरु की आराधना से तो हो सकती है किन्तु स्वर्ग के इन्द्र और गृहस्थाचार्य की आराधना से नही हो सकती है वे षट् परमस्थान आदि की प्राप्ति करा नहीं सकते हैं। दूसरा कारण है आदिपुराण का वह वाक्य जो मन्त्रों की विवेचना किये बाद लिखा गया है कि-एत सिद्धार्चनं कुर्यादा. धानादि क्रियाविधौ।" आधानादि क्रियाओ मे इन मन्त्री से सिद्धोका अर्चन करना चाहिये यहा इन मन्त्रीसे सिद्धार्चन करने की बात कही है। इसलिये मन्त्रो मे आये "ग्रामपतये स्वाहा" "षटकर्मणे स्वाहा” "कल्पाधिपतये स्वाहा" "सौधर्माय स्वाहा" इत्यादि का अर्थ सिद्ध भगवान करना चाहिये। इस प्रकार शब्दो के प्रसिद्ध अर्थ करने से उपरोक्त दो आपत्तिया खर्डी होती है। अत कोई ऐसा रास्ता ढू ढा जावे जिससे शब्दो के प्रसिद्ध अर्थ ही किये जावे और उक्त आपत्तिय भी न आने पावे। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिकादि मंत्र और शासनदेव ] [ ३४६ इस दिशा मे ऐसा ही कुछ हम यहा लिखने का प्रयत्न करते हैं ..... .. आदिपुराण पर्व ३८ श्लो० ७१ आदि मे लिखा है कि गर्भाधान आदि क्रिया सस्कारो के करते वक्त प्रथम ही वेदी बनाकर उस पर सिद्ध या अहंत का बिम्व विराजमान करे । उस के सामने तीन कुन्डो मे तीन अग्नियो की स्थापना कर वहीं छत्रत्रय और " • चक्रत्रय की स्थापना किये बाद प्रथम ही सिद्धपूजा करके फिर पीटिकादि मन्त्रो से हवन करना चाहिये" यह सब विधिविधान सिद्धार्चन कहलाता है । इसमे दो बातें बताई हैं - एक तो सिद्ध भगवान की पूजा करना और दूसरी किसी क्रियासस्कार के निमित्त मन्त्रो से हवन करना । हवन करना यहा सिद्धपूजा नही है । सिद्धपूजा तो हवन के पहिले ही हो चुकती है । जैसा कि आदिपुराण मे लिखा है वर्ह दिज्याशेषांशः आहुतिमत्र पूर्विका । विधेया शुचिभिद्रव्यैः पुंस्पुत्रोत्पत्तिकाम्यदा ।।७३॥ तन्मंत्रास्तु यथान्माय वक्ष्यतेऽन्यत्र पर्वणि । सप्तधापीठिकाजाति मंत्रादिप्रविभागत. ॥७४॥ विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषां मतो जिनं । अव्यामोहावतस्तज्ज्ञैः प्रयोज्यास्त उपासकै ॥७५॥ पर्व ३८ अर्थ - अर्हत्पूजा कर चुकने के बाद बचे हुये पवित्र द्रव्यों से पुत्रोत्पत्ति की इच्छा से उन अग्नियो मे मंत्रपूर्वक आहुति करनी चाहिये। उन क्रियाओ के मत्र तो यथाम्नाय आगे के पर्व मे कहे जायेंगे । वे पीठिकामत्र जाति मन्त्र आदि के भेदो से सात प्रकार के हैं । वे मन्त्र गर्भाधानादि क्रियाओ मे काम आते 1 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] हैं ऐसा भगवान ने कहा है । अत उस विषय के ज्ञाता श्रावकों को प्रमाद छोडकर उनका प्रयोग करना चाहिये । [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ इस कथन से यही प्रगट होता है कि ये मंत्र भगवान् की पूजा के नही हैं । ये तो गर्भाधानादि क्रियाओ के मत्र हैं । भगवान् की पूजा तो पहिले हो चुकती है । फिर गर्भाधानादि क्रियाओ के वास्ते उस पूजा के बचे द्रव्यो से मत्रो को बोलकर आहुति दी जाती है । इससे पूजा और मत्राहुतिये दो जुदी २ चीजें हुई । किन्तु भगवान् की प्रतिमाके सामने उनकी पूजा पूर्वक मत्रो से आहुतियें दी जाने के कारण यह सारा ही विधान ममुच्चय रूप से सिद्धार्चन के नाम से कहा जाता है । इसलिये एतं सिद्धार्चन" इन वाक्यो का अर्थ इन मंत्रो मे "सिद्धो की पूजा करे ।" ऐसा नही करना चाहिये, किन्तु इन मन्त्रो के साथ सिद्धो की पूजा करे" ऐसा अर्थ करना चाहिये । उसका मतलब यह होगा कि - सस्कार करते वक्त दो काम करने चाहिये - सिद्धो की पूजा करे और मन्त्रो से आहुतियें देवें दोनो भिन्न २ है । मन्त्रो से आहुतिया देना सिद्धपूजा नही है । आहुतियो के मन्त्र तो गर्भाधान, विवाह आदि सासारिक क्रियाओ के काम के हैं । इसीलिये ग्रन्थकार ने इन्हे क्रियामन्त्र नाम से लिखा है । यथा "क्रियामत्रास्त एते स्युराधानादिक्रियाविधो” यही बात इन वाक्यों से भी व्यक्त की है "विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषा मतो जिन. " तात्पर्य इसका यह है कि ये जनमन्त्र हैं । इन मन्त्रो का सांसारिक क्रियाओ मे उपयोग करना यह जैनरीति कहलाती है जो जिनेन्द्र की पूजा संसार और कर्मों के नाश करने के लिये व मोहादि विकारो को मिटाने के लिये की जाती है वह उद्देश्य Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिकादि मंत्र और शासनदेव ] [ ३५१ इन मन्यो का नही है। बल्कि ये मन्त्र तो उल्टे गर्भाधानविवाहादि ससार के बढाने के काम मे लिये जाते है। और जो ऐसे कामो मे सिद्धपूजा की जाती है बह तो मागलिकरूप से मगल के तौर पर की जाती है । ५३ गर्भावय क्रियाओ मे २२ वी गृहत्याग क्रिया के बाद तो हवनादि सम्भव ही नही है अंत वहा तो इन मन्त्रो का कोई उपयोग ही नहीं होता है गृहत्यागक्रिया से पहिले भी गर्भाधान से लेकर पाच वी मोद क्रिया तक की क्रियाओ मे नवमी निषद्या क्रिया, १०वी अन्नप्राशन क्रिया और १६ वी विवाह क्रिया इन क्रियाओ मे इन मन्त्रो का प्रयोग करने का उल्लेख आदिपुराण मे किया है और ये सब क्रियायें सासारिक है। अत ये मन्त्र सासारिक कार्यों के लिये हैं ऐसा कहे तो सभवत इसमे कोई अत्युक्ति नही होगी। और इसीलिये इन विवाहादि क्रियामो के अनुष्ठान जिन मन्दिर मे नही होते है, गृहस्थ के घर पर होते है। जैनरीति से की जाने के कारण व्यवहार मे हम इन्हें धार्मिक क्रियाये कहते हैं । जैन धर्म के गौरव को रखने के लिये ऐसे काम भी बडे आवश्यक हैं जिससे कि हमे लौकिक कामो मे भी अजैन ब्राह्मणो के अधीन न रहना पडे । और सभवतः इसी ध्येयको लेकर जिनसेनने यह क्रियाकाड लिखा है । रही बात "सेवाफल षट् परमस्थान" की सो तत्वार्थराजबार्तिक अध्याय ६ सूत्र २४ मे वैय्यावृत्य नाम के तप का वर्णन करते हुये आचार्य उपाध्याय मनोज्ञ आदिको का वैय्यावृत्य करना लिखा है। वहाँ मनोज्ञ का अर्थ असयत सम्यग्दृष्टि लिखकर उनका भी वैष्यावृत्य करने को कहा है। परमस्थान के धारी सुरेन्द्र व निस्तारक की गणना भी तो वैय्यावृत्य के भेद Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ मनोज्ञ मे ही आती है। उनके मन्त्रो मे स्वाहा बोलकर उन्हे आहुतिये देना यह उनका सम्मान है मो ही उनका वैय्यावृत्य ह उनकी सेवा है और वह एक तप है। उसका फल यदि कोई पद परमस्थान की प्राप्ति होना चाहता है तो इसमे क्या असगतता है ? आयतन सेवा भी धर्म का अग है ही। और स्वामी समत_ 'भद्र ने भी रत्नकरड मे देव पूजा तक का समावेश वैय्यावृत्य मे किया है। इस प्रकार पीठिकादि मन्त्रो मे प्रयुक्त कतिपय शब्दो का अर्थ अगर सिद्ध भगवान् न करके उनका सहजरूप से होने वाला प्रचलित अर्थ भी किया जावे तो उससे भी शासनदेव पूजा की सिद्धि नहीं होती है। और तो क्या इस सारे ही प्रकरण मे शासन देवी के नाम तक भी नहीं है । सुरेन्द्र मन्त्रो मे जिसप्रकार सौधर्मेन्द्र को आहुति दी गई है उसी प्रकार निस्तारक मन्त्रो मे सम्यग्दृष्टि गृहस्थाचार्य को भी आहति दी गई है। दोनो ही परमस्थान के धारी होने के कारण उनके लिये आहुति लिखकर उनका सन्मान वढाया है। वह सन्मान भी लौकिक क्रियाओ तक ही सीमित है पारमार्थिक विधानो मे तो पच परमेष्ठी की ही आराधना की जाती है । सप्त परमस्थानो मे भी सव का समान पद नही है इसी लिये मन्त्रो मे अहंत-सिद्ध गुरुओ को तो नम' लिखा गया है, *स्वाहा आहुति भी नही और शेष परमस्थानो को खाली स्वाहा (आहुति मात्र) लिखा गया है। इसका यही मतलब निकलता है कि इनकोही आहुति देना, परमेष्ठियो को ★आहुति (आह्वान) और स्वाहा का मतलब बुलाना, स्मरण करना, शिष्टाचार मात्र है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिकादि मत्र और शासनदेव [ ३५३ नही देना। उन्हे तो नमस्कार करना जिससे कि उनकी निम्नोन्नन पद की अभिव्यक्ति होती रहे । यह बात शब्द प्रयोगो से जानने में आ रही है । शब्द प्रयोग यो ही नही किये जाते हैं उनमे भी कोई तथ्य समाया हुआ रहता है। जैनाचार्यों के कथन सदा उच्चादर्श को लिये रहते हैं उनसे हीनादर्श अभिव्यजितं करना किसी तरह योग्य नही विद्वानो को इस ओर पं लक्ष्य रखना चाहिये । । द Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैन धर्म में अहिंसा की व्याख्या समार के किसी भी धर्म पर दृष्टिपात करिये तो उसमें दो बातें मुख्यत पाई जाती है । वे हूं आचार और विचार | उस धर्म मे बताये गये चारित्र के नियमो का पालन करना आचार कहलाता है | और तत्व निर्णय के लिये ऊहापोह जो किया जाता है उसे विचार कहते हैं । जैन धर्म में भी ये दो बाते बताई हैं और बहुत ही उत्तम बताई है। उनके नाम हैं- अहिंसावाद और स्यादवाद । जैन धर्म मे आचार का मूल आधार अहिंसा और विचारों का मूल आधार स्याद्वाद यानी अनेकात बताया गया है । स्याद्वाद से सब, सबके विचारों को शान्ति से समझे, व्यर्थ का वितडावाद न करें और अहिंसा से राव, सबके जीवन की रक्षा करें, खुद आराम से जीवे और दूसरों को भी आराम से जीने देवे । इस प्रकार जैन धर्म ने ससार को ये दो चीजें ऐसी अमुल्य दी हैं जिनके आश्रय से ससार के सभी प्राणियो को शान्ति का लाभ हो सकता है । क्योंकि वस्तुत अशान्ति के. वैमनस्य के प्राय दो ही कारण हुआ करते हैं - आपस मे विचारों का न मिलना और दूसरे के दुखो की परवाह न करना । इसमे कोई संदेह नहीं कि जैन धर्म ने अशान्ति के इन दोनो ही कारणों को मिटाने के लिये अहिंसा और स्याद्वाद बता कर दुनिया का बहुत बडा उपकार किया है। इन्ही बातों का निर्देश करते हुए स्वामी समतभद्र ने जैन मत को अद्वितीय मत बताया है Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म मे अहिमा की व्याख्या - [ ३५५ दया दम त्याग समाधिनिष्ठं नयप्रमाणप्रकृताऽऽञ्जसार्थम् । अधष्यमन्यैरखिलः प्रवाजिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥ अर्थ-हे जिनेन्द्र । जिस मत मे दया, दम, त्याग और समाधि मे तत्पर रहने को कहा गया है, और जो नयो तथा प्रमाणो के द्वारा सम्यक् वस्तु तत्व को बिल्कुल स्पष्ट करने वाला है तथा जो एकातवादियो के वितडावादो से अबाधित्त है, ऐसा आपका मत ही अद्वितीय है। स्याद्वाद तो एक कसौटी है जिसके जरिये मुमुक्ष को धर्म के असली स्वरूप की पहिचान होती है। किन्तु केवल पहचान से ही आत्मा का उद्धार नही हो सकता है । उद्धार होता है पहचान के बाद तदनुसार आचरण करने से । इसीलिए कहा है फ़ि "आचार प्रथमो धर्म ।" और इसी से जैन धर्म मे वताये गये ग्यारह अगो मे प्रथम अग का नाम आचारगि लिखा है। ऊपर हम लिख आये है कि जैन धर्म मे आचार का मूल अहिंसा वताई है। यो तो कुछ न कुछ अहिंमा सब ही धर्मों मे बताई है। क्योकि अगर अहिंसा किसी भी धर्म मे से निकाल दी जावे तो फिर उस धर्म मे सार चीज कुछ नही रहती है । तथापि जैन धर्म मे अहिंसा की जितनी प्रधानता, जितना उसका विस्तृत रूप और जितनी उसकी सूक्ष्म विवेचना है उतनी अन्य धर्मों मे नही है। अन्य धर्मो मे से किसी मे तो केवल मनुष्यो को ही वध न करने का उपदेश दिया गया है। किसी मे मनुष्यो व गो बैल अश्व आदि उपयोगी पशुओ को वध करने का आदेश दिया है। किन्तु जैन धर्म मे सूक्ष्म से सूक्ष्म को लेकर बड़े से बडे तक सव हो प्राणी मात्र की हिंसा न करने की आज्ञा दी गई है। और कहा है कि Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ "अहिंसा भूताना जगति विदितं ब्रह्म परमं ॥" जीवो की दया करना इसे ही जगत् मे परब्रह्म माना है। इस जगत् मे असख्य ऐसे वारीक जन्तु भी है जिनकी हिंसा चलने, वैठने, बोलने, खाना खाने आदि क्रियाओं मे टल नही सकती है। तव यहाँ कव कोई अहिंसक रह सकता है ? ऐसा प्रश्न गणधर देव ने भगवान मरहत देव से किया था। यथा कघं चरे कध चिठे कधमासे कधं सये । कधं भुजज्ज भासिज्ज कधं पावंण वज्झदि । अर्थ-अगणित जीवो से व्याप्त इस ससार मे कोई किस प्रकार से चले ? कसे ठहरे ? कैसे बैठे ? कैसे सोवे ? कैसे खावे? और कसे बोले ? जिससे पाप वन्ध न होवे । इन प्रश्नो का उत्तर भगवान ने इस प्रकार दिया जदं चरे जदं चिठे जदमासे जदं सये। जदं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावण वज्झइ ।। अर्थ-यत्न से चले, यत्न से तिष्ठे, यत्न से बैठे, यत्न से सोवे, यत्न से खावे और यत्न से वोले । इस प्रकार यत्लाचार पूर्वक प्रवृति करने वालो के पापो का वध नही होता है। मतलव इसका यह हुआ कि-जीव हिंसा को बचाने का विचार रखता हुआ जो क्रिया करता है उस क्रिया मे कदाचित् बाहरमे जीव हिंसा हो भी जावे तो अन्तरगमे बचानेकी भावना होने से उसे पाप नहीं लगता है। इसे ही यत्लाचार कहते हैं और यही जैन धर्म मे अहिंसा पालन का रहस्य है। जैसा कि जन शास्त्रो मे कहा है कि Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म मे अहिंसा की व्याख्या ] [ ३५७ उच्चालयहि पाये इरिया समिदस्स णिग्गमत्याए । आवाधेन कुलिंगं मरिज्ज त जोग मासज्ज ॥ हि तस्तणिमित्तो बधो सुहमोवि देसिदो समये ॥ अर्थ- देख भाल कर पैर उठा कर चलने वाले के पैर के नीचे आकर किसी जीव को बाधा पहुँचे या वह मर भी जावे तो भी उसके थोडा सा भी पाप आगम मे नही कहा है । विपरीत इसके जो यत्नाचार से प्रवृति नही 1 करता है, उसके हिंसा न होते हुए भी वह हिंसाजन्य पाप का भागी होता है मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । णत्थि बंधो हिंसा मेत्तरेण समिदस्स ॥ पयदस्स अर्थ - जीव चाहे जीवे चाहे मरे असावधानी से काम करने वालो को हिंसा का पाप अवश्य लगता है । किन्तु जो सावधानी से काम कर रहा है, उसे प्राणिवध होजाने पर भी हिंसा का पाप नही लगता है । अयदाचारो समणो छस्सुवि कायेसु वधगोत्ति मदो । चरदि जदं जदि णिच्च कमल व जले णिरुवलेवो ॥ अर्थ - यत्नाचार नही रखने वाला श्रमण छहो ही काय के जीवो के घातजन्य पाप कर्मों का बध करता है ऐसा सर्वज्ञ देव ने माना है । और जो यत्नाचार से प्रवृति करता है वह सदा ही जल मे कमल की तरह पाप लेप से रहित माना गया है । इससे सिद्ध होता है कि - जैन धर्म मे हिंसा अहिंसा का Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ होना प्रधानत भावो पर निर्भर है। यदि भावो के आधीन वध मोक्ष की व्यवस्था न हो तो मसार का ऐमा कोई भी प्रदेश नही है जहां पहुँच कर माधक पूर्ण अहिमक रहकर कोई साधना कर सके । जैसा कि कहा भी है कि विष्वग्जीवचिते लोके क्व चरन् फोऽप्यमोक्ष्यत। भावैकसाधनो बंधमोक्षो चेन्नाभविष्यताम् ।। अयं-यदि परिणामो के आश्रित के वध मोक्ष नहीं होता तो चारो ओर से जीवो मे भरे इस ममार मे कहां किसकी मोक्ष होनी ? क्योकि जीवो से ठमाठम भरे जगत् में जीव हिंसा से बच निकलना सभव नहीं है। न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा, न नेककरणानि वा न चिदचिद्वधो बंधकृत् । यदक्यमुपयोगमू समुपयाति रागादिभि , स एव किल केवल भवति वधहेतुन णाम् ।। अर्थ-कर्मवध का कारण न तो कर्म वर्गणाओ से भरा जगत् है । न चलन रुप कर्म यानी मन वचन काय की क्रिया स्प योग है । न अनेक प्रकार के करण (इद्रिये) है और न चेतन अचेतन का घात है किन्तु आत्मा का उपयोग जब रागादिको के माथ एकता कर लेता है तो निश्चय करके वही एकमात्र पुरुपो के बध का कारण हो जाता है । क्योकि विशुद्ध परिणामो के धारक जीव के उसके शरीर का निमित्त पाकर हो जाने वाला पर प्राणियो के प्राणो का व्यपरोपण हो यदि वध का कारण हो जाय तो फिर कोई मुक्त Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म मे अहिसा की व्याख्या ] [ ३५६ ही नही हो सकताहै। क्योकि वायु कायादि जीवो की विराधना तो योगियो के भी टल नही सकती है । जैसा कि कहा है___ जदि सुद्धस्सवि बंधो होहिदि बहिरगवत्थुजोएण । । णस्थिहु - अहिंसगो णाम वाउकायादिवध हेदू ॥ । अर्थ-यदि बाह्य वस्तु के सयोग से अर्थात् बाह्य मे किसी जीव का वध हो जाने मात्र से ही शुद्ध जीव के भी कर्मों का वध होने लगे तो कोई भी जीव अहिंमक नही हो सकता है। क्योकि श्वासादि के द्वारा सभी से वायु कायादि जीवो का वध होना निश्चित है। आचार्य सिद्धसेन ने कहा है कि-(द्वात्रिशतिका ३ मे) ' वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते । शिव च न परोपघातपरुषस्मतेविद्यते ॥ - वधोपनयमभ्युपति च पराननिघ्नन्नपि । .. त्वयायमतिदुगम. प्रशमहेतुरुद्योतितः ॥१६॥ अर्थ-कोई प्राणी दूसरेके प्राणो का वियोग करता है फिर भी वह हिंसाका भागी नही होता है। (क्योकि उसके भाव हिंसा करने के नहीं थे ) दूसरा कोई प्राणी जिसके कि बिचार परघात करने की भावना से कठोर हो गये है। (वह निश्चयत हिंसक है) उसका कल्याण नही हो सकता है । तथा तीसरा कोई प्राणी (जिसके कि भाव मारने के है ) वह दूसरो की हिंसा न करता हुआ भी हिंसकपने को प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार हे जिनेन्द्र ! आपने यह अतिगहन शाति का मार्ग बत्ताया है। यहा कोई शका करे कि 'आत्मा तो अजर अमर है उसका वध कभी होता नही है तब जीवहिंसा की बात कहना ही निरर्थक है।' इसका समाधान यह है कि तत्व का निर्णय स्याद्वाद Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावलो भाग २ से होता है । यहा भी स्याद्वाद से विचार करे तो आत्मा शरीर से सर्वथा भिन्न नही है । लक्षण की अपेक्षा से कथचित् भिन्न है । आत्मा चैतन्यमय है और शरीर जड है । तथापि दूध में शक्कर की तरह आत्मा शरीर के साथ ऐसा घुलमिल जाता है कि महसा दोनो को पृथक नहीं किया जासकता है । जैसे दोनो मानो एक हो गये हैं । यह अभिन्नता दोनो के एक दूसरे पर पडनेवाले प्रभाव से भी प्रगट होती है । जव आत्मा क्रोध करता है तो आखे लाल होती हैं, चेहरा विकराल हो जाता है । यह उदाहरण बताता है कि शरीर पर आत्मा का प्रभाव पडा है । वाल्य अवस्था मे आत्मा मे हीन शक्ति रहती है फिर युवावस्था तक क्रमशः आत्मा मे बल बढने लगता है, पुन. वृद्धावस्था मे बल घट जाता है इत्यादि से जाना जाता है कि शरीर का प्रभाव भी आत्मा पर काफी पड़ता है । इससे सिद्ध होता है कि आत्मा और शरीर मे लक्षण भेद से भिन्नता होते हुए भी दोनो का एक क्षेत्रावगाह हो जाने के कारण दोनो मे बहुत कुछ अभिन्नता भी है । और जब दोनो में अभिन्नत्व है तो शरीर को कष्ट देने से उसके साथ मिले हुये आत्माको भी कष्ट पहुचता है यही हिंसा है । इस तरह अजर अमर जीव को भी हिंसा होना सिद्ध होता है । जीव हिंसा का अर्थ यहा सर्वथा आत्मा का नाश हो जाना नही है किन्तु कष्ट से वर्तमान शरीर को छोडकर अन्य शरीर मे जाना यह जीव हिसा का अर्थ है । आत्मा और शरीर को सर्वथा भिन्न या अभिन्न मानने से तो हिंसा और अहिंसा दोनो ही नहीं बन सकेगी। जैसा कि कहा है - आत्मशरीरविभेदं वदंति ये सर्वथा गतविवेकाः । कायवधे हंत कथं तेषां संजायते हिंसा ॥७ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म मे अहिंसा की व्याख्या ] जीववपुषोरभेदो येषामैकातिको मतः शास्त्रम् । कायविनाशे तेषां जीवविनाश कथ वार्य । अर्थ जो अविवेकी आत्मा और शरीर मे सर्वथा भेद बताते है, खेद है कि उनके यहाँ शरीर के घात से हिंसा कैसे हो सकेगी। इसी तरह जिनके यहा आत्मा और शरीर मे एकातत अभेद माना गया है उनके यहा शरीर के नाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जावेगा इस आपत्ति का निवारण कैसे हो सकेगा। अर्थात् आत्मा और शरीर मे सर्वथा भेद मानने से किसी के शरीर का धात करने से आत्मा को कुछ भी आघात नही पहुंचेगा तो हिंसा नाम की कोई चीज ही दुनिया में न रहेगी तब हिंसा के त्याग का उपदेश भी कोई क्यो देगा? तथा आत्मा और शरीर का सर्वथा अभेद माना जावे तो शरीर के घात से आत्मा का भी घात हो जावेगा। इस तरह जीव का नाश मानने से दयापालनादि धर्माचरण भी व्यर्थ हो जावेगा। जव आत्मा नही तो परलोक भी न रहेगा। सत्य तो यह है कि-जैसे अग्नि से तप्त लोहे पर चोट देने से लोहे के साथ मिली हुई अग्नि पर भी आघात पहुँचता है, उसी तरह किसी के शरीर पर आघात पहुंचाने से उसके साथ मिले हुये आत्मा को भी बडी पीडा होती है इस पीडा ही का नाम हिंसा है। क्योकि जीव के शरीर, इन्द्रिय, श्वास आदि द्रव्य प्राण हैं इन्हीसे आत्मा प्रत्येक पर्याय मे जीता है। इन द्रव्य प्राणो का वियोग ही लौकिक मे मरण वहलाता है। 'नहि मृत्युसम दुख' मृत्यु का दुख जीवो के सबसे बडा दुख है। मरणात दुख देने वाले जीव घोर पातकी, महानिर्दयी, क्र रपरिणामी होते है । जहा क रता है वही हिंसा है-अधर्म है । दया के Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ बिना धर्म नही हो सकता है। कहा भी है कि यस्य जीवदया नास्ति तस्य सच्चरितं कुतः। न हि भूतद्र हां कापि क्रिया श्रेयस्करी भवेत् ।। अर्थ-जिसके जीवदया नहीं है उसके समीचीन चारित्र कैसे हो सकता है ? क्योकि प्राणियो के साथ द्रोह करने वालों का कोई भी काम कल्याण का करने वाला है । दयालोरव्रतस्यापि स्वर्गतिः स्याददुर्गतिः। प्रतिनोऽपि दयोनस्य दुर्गतिः स्याददुति ॥ अर्थ-दयालु पुरुष यदि व्रताचरण नहीं भी करता है तो भी उसके लिये स्वर्गगति मुश्किल नहीं है। और जो व्रतो का पालन करता है किन्तु हृदय मे दया नहीं है तो उसके लिये नरकादि दुर्गति भी सुलभ है। तपस्यतु चिरं तोनं व्रतयत्वतियच्छतु। निर्दयस्तत्फलहीनः पोनश्चैकां दयां चरन् । अर्थ-चाहे कोई चिरकाल तक घोर तपस्या करे, व्रत पाले और दान देवे, यदि दया नहीं है तो उनका कोई फल मिलने वाला नहीं है । और एक दया है तो उनका बहुत फल है। मनो दयानुविद्धं चेन् मुधा क्लिश्नासि सिद्धये । मनोऽदयानुविद्ध, चेन् मधा किलश्नासि सिद्धये ॥ अर्थ-अगर दया से भीगा हुआ मन है तो सिद्धि के लिये कलेश उठाने की जरूरत नहीं है क्योकि दयालु को सिद्धि प्राप्त Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म मे अहिसा की व्याख्या ] [ ३६३ कर लेना सुगम है । और जो दया से भीगा हुआ मन नही है तो उसको भी सिद्धि के लिये क्लेश उठाने की कोई जरूरत नही है । क्योकि निर्दयी को कभी सिद्धि प्राप्त नही हो सकती है। प्रसिद्ध सत कवि तुलसीदासजी ने भी कहा है कि 'परहित सरिस धर्म नही भाई, पर पीडा सम नही अधमाई ॥' वेदव्यास ने भी सारे पुराणो का सार २ शब्दो मे इस प्रकार बताया है- अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचन द्वय । परोपकार पुण्णाय पापाय परपीडनम् ॥ ( अर्थात् १८ पुराणो का सार यह है कि परोपकार हो पुण्य है और परपीडन = हिसा ही पाप है । t सर्वेषां समयानां हृवयं गर्भश्च सर्वशास्त्राणाम् । अतगुणशीलादीनां पिंड सारोपि चाहिसा || अर्थ - सब मतो का हृदय और सब शास्त्रो का गर्भ तथा व्रत गृण-शीलादिको की पिंड ऐसी सारभूत एक अहिसा ही है । 1 यद्यपि जैन दर्शन मे किसी को दुख देना पाप बताया है । किन्तु इसमे भी इतना और विशेष समझलेना चाहिये कि यदि वर्त्ता के वषायभाव हो तो पाप हो सकता है । अगर कषायभाव नही है तो अपने या दूसरे को पीडा देने मात्र से पाप नही होता है । क्योकि डाक्टर भी आपरेशन करके रोगी को पीडा तो पहुचाता ही है । साधु भी उपवासादि से अपने आपको कष्ट देता है । गुरु भी शिष्य की ताडना करता है । किन्तु ऐसा करते हुये भी इनको पाप नही लगता है । क्योकि इनके भाव अहित करने के नही हैं अतः इनके कषायभाव नही है । एक जीवहिसा ही नही अन्य पाप भी भावो पर ही निर्भर है । यथा - Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ मनसेव कृतं पापं न शरीरकृतं कृतम् । येर्नवालिगिता कांता तेर्नवालिगिता सुता ॥ अर्थ मानसिक परिणामों में रिया हुआ ही पाप माना जाना है । विना मन के केवल शरीर के द्वारा किया हुआ पाप नही माना जाता है। क्योकि जिस शरीर से अपनी स्त्री का आलिंगन किया जाता है उसी ने अपनी पुत्री का भी आलिगन किया जाता है । विन्तु दोनो क्रियायें बाहर से एक समान होते हुए श्री श्री भावी का वार रहता है 1 नगा एक और पद्य है सर्वासामेय शुद्धीनां भावशुद्धि. प्रशस्यते । अन्ययातिग्यतेऽपत्यमन्ययालिग्यते पति. ॥ अयं - मत्र शुद्धियों मे भावशुद्धि प्रधान है । एक महिला पुत्र को भी छाती से लगाती है और पति को भी । किन्तु जिस भाव से पुत्र की लगाती है उस भाव से पति को नहीं । इस प्रकार हिसा अहिंसा के मगले को समझने के लिये जैन शास्त्रों में बहुत ही गम्भीर विचार किया गया है । अहिंसा परमो धर्म यतो धर्मस्ततोजय । अहिंसा परमो धर्म अहिंसा परमागति ॥ अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग. । [पातंजापयोगदर्शन] "अप्रादुर्भाव खलु रागादीना भवयहसेति " [अमतचन्द्र ] Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. जैन धर्म श्रेष्ठ क्यों है ? + T ससार मे मत मतान्तरो का इतना जाल छाया हुआ है, कि उसके मारे किसी मुमुक्ष, को यह तक पता नही पडता कि मुझे किस मार्ग से चलने मे लाभ है । "हरित भूमि तृण सकुलित समुझि पर नहि पंथ । जिमि' पाखंडि विवाद ते लुप्त होहिं सग्रंथ ॥ अर्थात हरीघासो से अच्छादित मार्ग जिस प्रकार दिखाई नही देता उसी तरह पाखण्डियो के विवाद से यह नही जान पंडता कि उत्तम ग्रन्थ कौन है जिनके कथनानुसार चला जाये । सवही मजहबों की ओर आँख उठाकर देखिये वे सब अपनीअपनी तारीफो के पुल बाँधते हुए दीख पडेंगे, उन्हे सुनकर हितेच्छु प्राणी डाँवाडोल सा हो जाता है और वह अपने लिये कुछ भी निश्चित नही कर पाता । तब विवश हो यही एक करना सबको अच्छा मालूम होता है और ऐसा ही किया भी जाता है कि जो धर्म बाप-दादो से चला आता है उसीपर हम भी चलते रहे । कहा भी है कि " स्वधर्मे निधन श्रय. परधर्मो भयावह ' "" अपने धर्म का पालन करते-करते ही जीवन व्यतीत Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ करना ठीक है, अन्य धर्म तो भयानक है) कुछ मनुष्य इसके भी आगे बढे हैं, वे कोई धर्म ही नहीं मानते उनका विचार है कि ~~ तर्कोऽप्रतिष्ठ श्रु तयो विभिन्ना नंको मूनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्वं निहितं गुहाया महाजनो येन गतः स पंथा। ' अर्थ- तर्क को कोई प्रतिष्ठा नही (उससे असत्य को भी सत्य सिद्ध किया जा सकता है ) श्रुतियो का यह हाल है कि वे एक से एक मिलती नहीं, ऐसा कोई ऋषि भी नहीं जिसका कि वचन प्रमाण माना जाय इधर धर्म इतना गूढ है कि उसका ठीक तत्व समझ नहीं पडता तब उसी रास्ते चलना चाहिए जिसपर प्रतिष्ठित पुरुष चल रहे है। पर इस तरह अंधाधुन्ध चलना एक आत्महितेषी के लिये उचित नहीं कहा जा सकता। इसीलिये इस छोटे से ट्रेक्ट में यह चर्चा उठाई गई है और इसमे यह पूर्ण रीति से सिद्ध किया गया है कि एक ऐसा भी धर्म वर्तमान में प्रचलित है जो अपने को सर्व श्रेष्ठ और यथार्थ होने का दावा रखता है वह किस तरह किन्तु इसमे परीक्षा प्रधानता न होकर पक्षाधता है एक भव्य मुमुक्षु प्राणी इस तरह लकीर का फकीर नहीं बनता एक नीतिकार ने कहा है-"तातस्य कूपोऽय मिति व वाणा. क्षार जल का पुरुषा पिवति" (यह कुमआ हमारे बाप-दादो का है यह मानकर खारे जल को भी पीते रहने वाले कापुरुष हैं, विवेकी नहीं। जम चार पैसे की हाडी-ठोक बजाकर ली जाती है तो जिस धर्म से इस लोक और परलोक का सम्बन्ध है उसे यो ही मानते चले जाना समझदारों का काम नहीं। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ ३६७ से श्रेष्ठ है उसके बाबत जो बातें नीचे लिखी जायेगी उन्हे एक तरह से सब धर्मों की कसोटी कहना चाहिए, जिसपर कसकर देखने से सब धर्मों मे से एक असली धर्म का पृथक्करण किया नाकर एकमात्र उसे ही अपने जीवन में उतारा जाय । सबसे पहले विचार इस बात का होता है कि मनुष्य को किसी धर्म के धारण करने की क्यो आवश्यकता होती है ? इसलिए कि वह उसके द्वारा अपने दु खो से छुटकारा चाहता है। लेकिन इसको दुःख क्या है ? क्या विवाह न होना सतान न होना धन ऐश्वर्यादि का न मिलना इत्यादि ? मान लिया जाय कि ये सब मिल जाये तो क्या वह पूर्ण सुखी हो जायगा? कदापि नहीं। बड़े-बड़े राजाओ और बादशाहो के क्या इनकी कमी थी, फिर भी वे यथार्थ मे सुखी न हो सके। किसी ने ठीक ही कहा है कि राराः परिभवकारा बन्धुजनो बधन विष विषया । कोऽयं जनस्य मोहो ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ।। अर्थ स्त्रियाँ तिरस्कार की करनेवाली, परिवार के मनुष्य बन्धन के तुल्य और इन्द्रियो के बिषय विष रूप है । इतने पर भी मनुष्य के मोह को देखो जो इन शत्रुओ से भी मित्रता की आशा रखता है। संतोषामृततप्ताना यत्सुखं शांतचेतसाम् । कुतस्तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ।। अर्थ-जो सुख सतोषरूप अमृत से तृप्त होनेवाले शातचित्त पुरुषो मे है। वह इधर-उधर दौड़नेवाले धनलोलुपियो को कहाँ से मिल सकता है। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ बात बिलकुल ठीक है जो आशा और तृष्णा का दास है वह किसका गुलाम नहीं है। वास्तव मे जिस-जिस आत्मा में काम क्रोध, लोभ, मोह मद मत्सर आदि भाव जितनी ही जितनी मात्रा मे अधिक है उसे उतना ही उतना ज्यादह दुखी समझना चाहिए । और जिसमे ऐसे भावो की जितनी ही कमी है उसे उतना ही सुखी मानना चाहिये। "नास्ति रागसमं दुखं नास्ति त्यागसमं सुखम्। राग के समान दुख और त्याग के समान सुख नहीं है। आपदा कथित. पंथाः इन्द्रियाणामसंयमः ।.. तज्जयः संपदां मार्गो येनेष्टं तेन गम्यताम् ॥ अर्थ-आपदाओ-दुःखों का मार्ग इन्द्रियो का असयम है। और उन इन्द्रियो का जीतना उन्हे अपने वश में रखना यह सम्पदाओ का-सुखो का मार्ग है। जो तुम्हे इष्ट हो उसी परे चलिये। दुख चाहो तो इन्द्रियो के अधीन बने रहो और सुख चाहो तो उनपर विजय प्राप्त करो। "येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति" - जितने अशो मे राग द्वषादि भावो का सद्भाव है उतने ही अशो मे आत्मा का बन्धन मानना चाहिए। जब यह तय होचुका कि दरअसल मे जीव को दुख पहुँचाने वाले उसी के कामक्रोधादि भाव हैं, तब यदि कोई दुख से बचना चाहे तो उसका मुख्य कर्तव्य है कि वह ऐसा उपाय सोचे कि जिससे कामक्रोधादि नष्ट हो जायँ, ऐसे धर्म की शरण मे जाय, जो इन कुभावो के मेटने की तजवीज बताता हो, तभी उसकी आत्मा को शाति मिल सकती है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] अब यह देखना है कि वह धर्म कौनसा है जिसकी नीति कामक्रोधादि बुरे भावो के हटाने की हो आज हम आपके सामने एक ऐसी ही किस्म के मजहब का हाल बत ते है जिसका बाहरी परिचय हमारे कितने ही भाइयों को है, पर वे उसके अन्तस्तत्व से बहुत ही कम जानकारी रखते है, और इसीलिए जिसके कितने ही उपयोगी सिद्धात उलटपलट भी समझ लिये गये हैं। वह मत है "जैनमत' । यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि इस मत की नीति को देखते हुए ससाभर मे यही एक ऐसा भत है जिसके आश्रय से बहुत कुछ सासारिक संकटो से बचाव हो सकता है। उत्तम आदर्श किसी मत की उत्तमता को देखने के लिए सबसे पहले .. उसमे यह होना जरूरी है कि वह दुखी जीवो के दुख को दूर करने के लिये कोई उत्तम आदर्श रखता हो। ऊपर जिस दुख । का जिक्र किया गया है उसे मेटने के भरपूर साधन जनमत मे पाये जाते हैं जैनधर्म की रगरग मे इन काम लोधादि के दूर करने की आपको शिक्षा मिलेगी, उस मत की मूर्तियो को देखिए वे कितनी शात निविकार और वीतराग है, जिनके दर्शन करने से ही दर्शको के दिल मे एकवारगी हो शान्ति-धारा बह निकलती है, यही कारण है जो मूर्ति पूजा को भी जैनधर्म जैसे वैज्ञानिक धर्म मे दाखिल किया गया है। जो लोग मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं, उनका वह विरोध चाहे दूसरे धर्मों के लिये किसी तरह ठीक हो सकता है किन्तु जैनधर्म जिस मतलव को लेकर मूर्ति पूजा की इजाजत देता है उसके प्रति आक्षेप की गुञ्जाइम ही नहीं है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ उसका सिद्धात है कि जैसे एक विद्यार्थी नकशे को अपने सामने रखकर अपने हाथ से वैसा ही नकशा खेचने का अभ्यास करता है, वैसे ही शाति चाहने वाला शातिमय मूर्ति की उपासना कर उसके निर्विकार भाव को अपने हृदय पट पर उतारने का अभ्यास कर सकता है, बतलाइये इसमे कोनसी बात खण्डन के योग्य है। उसीके अनुरूप उसमत के साधु होते हैं, जिनके लिये लिखा है कि "वे विषयो की आशा से रहित होते हैं, आरम्भ और परिग्रह के त्यागी होते है और होते हैं ज्ञान, ध्यान, तप, मे लवलीन, साथ ही शाति के अवतार, निर्मोही, निर्लोभी, इद्रियो के विजेता, और विशाल क्षमा के धारी होते है। उनकी तपस्या, रहन-सहन इतने ऊँचे दर्जे की होती है कि हरएक विषय-लोलुपी उस वेष को धारण नही कर सकता। इसलिये "नारि मुई घरसपति नाशी। मूड मु डाय भये सन्यासी" जैसे फक्कडो का बोलबाला जैनधर्म मे दिखाई नहीं पड़ता। सुलफो, और गांजो की दम लगाने वाले लाखो नामधारी साधु समूह ने जो भारतवर्ष को बरबाद कर रक्खा है, उसमे जैन नाम धारी कोई साधु आपको न मिलेगा। जैन मुनि चाहे थोडेही मिलो, पर वे होंगे देश के लिये जवाहिरात की तरह कीमती चीज। जो दया पालन के लिये इतने मशहूर होते हैं कि वे अपने शिर के बालो को भी जूओं के बचाव के लिये उश्तरो से नही मुडवाते, किन्तु अपने ही हाथो से शिर और डाढी मूछ के बालो को घास की तरह उखाड कर फेंक देते हैं। यह है "सिंहवृत्ति" इसके लिये अदम्य साहस, शरीर से गहरी निस्पृहता और घोर धीरवीरता चाहिये, उसे दीन और विषयो के भिखारी धारण नहीं कर सकते। यह बात "श्रीयुत महामहोपाध्याय डा० शतीशचन्द्र विद्याभूषण जैसे प्रकाड Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ ३७१ अजैन विद्वान् ने "भी स्वीकार की है कि " जैन साधु एक प्रशस - ! नीय - जीवन व्यतीत करने के द्वारा पूर्ण रीति से व्रत नियम और इंद्रियसयम का पालन करता हुआ जगत् के सन्मुख आत्म-संयम, का एक बडा ही उत्तम आदर्श प्रस्तुत करता है" क्यो न हो जहा ज्ञान, वैराग्य, शम, दम, अहिंसा, समदृष्टि आदि गुणो मे एक भी गुण हो तो वह आदगीय होता है, फिर जहाँ वे सब ही गुण पाये जाये वह फिर किस बुद्धिमान् के पूज्य न होगा । इस तरह क्या तो जैन साधु क्या जैनियो की आराध्य मूर्ति दोनो ही ज्ञान वैराग्य शील-सतोप का हमारे सामने एक उत्तम आदर्श रखते हैं, इसीके सहारे से सभ्यजन अपना आत्म सुधार कर दुखदायी काम-क्रोधाटिक भावो को बहुत कुछ दूर कर सकता है। जैन आगमो मे भी पद पद आपको ज्ञान, वैराग्य, और सतोप की ही शिक्षा मिलेगी, जैनधर्म का सारा ढाँचा ही वैराग्य के रंग से रंगा हुआ है, वह जो कुछ भी अनुष्ठान या किया काण्ड बतलावेगा, वह ऐसा ही होगा जो प्रत्यक्ष ही शांति का दाता हो, वह आपको ऐसी बातें कमी न वतलावेगा जिसका कोई अच्छा-सा नतीजा वर्तमान मे निकलता कभी नजर न आता हो, और यूँ ही जिन्हे परलोक मे सुखदाई बतला दिया गया हो । जैन धर्म तो आपको ऐसे ही मार्ग मे चलने का आदेश करता है जिससे आत्मा को इस लोक और परलोक में शांति मिले। वह पुकार २ कर कहता है कि हे दुखी प्राणियो । तुम दुख से छूटना चाहते हो तो क्रोध को छोडो, मान को त्यागो, कपट को हटाओ, और लोभ को जलाञ्जलि दो । इद्रिय विषयो के क्षणिक सुख से ह मोडो, अपनी आत्मा को क्षमा, सत्य शौच, तप सयम, दया, शील और सतोष से खूब भरदो, तभी तुम्हारा दुखसक्टो से उद्धार होगा । चरना अगणित जन्मो मे यूँ ही ठोकरे खाते Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ फिरोगे । " जैसा करे वैसा ही भरे" यह बात जैनधर्म ही बताता है वह यह नहीं कहता कि " किसी को सुखी- दुखी बनाना परमेश्वर के हाथ में है" । किसी मजहब की ऐसी मान्यता कि "सुख-दुख का कर्त्ता ईश्वर है " दुनिया के लिये उपयोगी नही हो सकती । ऐसी नसीहत से तो लोग पाप कमाने मे और भी अधिक उच्छृंखल - निरकुश बन सकते है । उनके दिल मे यह धारणा होना सम्भव है कि हमसे अन्याय जुल्म और अनर्थ हो भी जायेंगे तो एक दिन परमेश्वरकी खुशामद-भक्ति-करके पापाचार के फल से छूट जायगे । लल्लो-चप्पो से खुश होकर ईश्वर हमारे गुनाहो को माफ करदेगा, लेकिन जैनधर्म को देखिये - उसके यहाँ कोई ऐसी रियायत नही । वहतो डकेकी चोट कहता है कि "सुखी और दुखी होना खुद मनुष्यो के हाथ मे ही है । नेक चलन चलेगा तो सुख पावेगा, वरना दुख उठावेगा । यह तो वस्तु स्वभाव है जा किसी के पलटाये पलट नही सकता है । जैसे कोई शराव पीले तो उसके ऊपर शराब अपना जरूर असर करेगी। शराब से यो कहा जाय कि "हे शराब । तुझे मे पीगया हू पर तू मुझे पागल मत बना" क्या शराब उसकी यह प्रार्थना सुनेगी ? कभी नहीं, वह तो असर डालेगी ही, क्योकि उसकी तासीर ही ऐसी है । ठीक वैसे ही जो पाप करेगा उसका फल उसे जरूर मिलेगा, पुण्य करेगा तो सुख रूप मिलेगा, क्यूँ कि पाप-पुण्य का स्वभाव ही ऐसा है - वस्तु स्वाभाव मे किसी की दस्तंदाजी चल नहीं सकती और इसके लिये किसी ईश्वर विशेप को बीच मे डालने की कोई जरूरत नही रहती, सब काम अपने आप वस्तु स्वभाव से ही होते रहते हैं । अग्नि का स्वभाव गर्म है, जल का शीतल है, इसमे कौन क्या कर सकता है " स्वभावोऽतर्क गोचर ” अलग-अलग पदार्थ का अगल-अलग स्वभाव अपना २ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ ३७३ काम करता रहता है इस तरह वस्तु-स्वभाव को मानने वाले जैन धर्म की बदौलत दुनिया के बहुत कुछ अत्याचार रफा हो सकते है। इसलिये कहना होगा कि जैन धर्म का अवतार विश्वहित के लिये है इमी प्रयोजन को लेकर वह हमारे सामने इतना अच्छा कार्यक्रम पेशकरता है जो सरल होने के साथ २ हमे पाप के कीचड़ से भी निकालता जाता है। हमे अगणित पापो के नाम गिनाकर उलझन मे नही डालता। किन्तु उन सब को पाच हिस्से मे बाट कर हमे सुगमरूप सुझाता है। वे पाच ये हैकिसी जीव को मताना, झ ठ बोलना, चोरी करना, जिनाकारो करना (व्यभिचार) और ममत्व- असतोप रखना। इन्ही पाच पापो मे सभी पाप समाजाते है। जैनधर्म इन्ही के त्याग का उपदेश देता है । जो जितनी मात्रा मे इनका त्यागी है वह उतना ही उत्तम चारित्री है। मनुष्यो की तरक्की के लिये जैनधर्म का चारित्र बहुत लाभकारी है । दर असल मे वह एक अहिंसाप्रधान धर्म है । यद्यपि अन्यधर्म भी अहिंसा का प्रतिपादन करते है, पर जैनधर्म जिस खूबी और जिस प्रणाली से व्याख्यान करता है वह निराली ही है। "याज्ञिकी हिंसा हिंसा न भवति" आदि कहने वाले अन्यधर्मों की तरह वह अपना अनुचित पक्षपात नहीं करता। वह नहीं कहता कि जैनधर्म के अर्थ की हई हिंसा अधर्म नहीं हैं। किसी को मौत के मुह मे पहचाने को ही जैनधर्म हिसा नही बताता किन्तु कषायवश किसी के दिल को दुखाना भी वह हिसा बताता है। साथ ही वह यह भी नही कहता कि मनुष्य और पशु जैसे मोटे जीवो को सताना ही हिंसा हो किन्तु वह तो आँखो से नजर न आनेवाला सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवो की हिसा से Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ भी टलने का कथन करता है जिन स्थानो मे ऐसे सूक्ष्म जीव पायेजाते हैं उन्हे अपने दिव्य ज्ञान से देखकर जनधर्म के सर्वदर्शी भगवान् ने उन स्थानो से यथाशक्ति बचे रहने की हिदायत की है। "खुद जीवो और दूसरो को जीने दो" यह जैनो का खास मिद्वान्त है। एतदर्थ वह कितने ही नियम भी बताता है। जैसेजल छानकर पीना, रात्रि मे भोजन न करना, अनत जीवो के पिण्ड ऐसे कदमूल न खाना, बहु जतु स्थान ऐसे हरे साग, पत्र, पुष्प, फल न खाना, सब से मैत्रीभाव रखना, प्रेम व्यवहार रखना, किसी से बैर विरोध न करना, शत्र का भी बुरा न चाहना आदि इसीके साथ वह ऊपर लिखे शेष ४ पापो के छोडने का भी पूर्णतया आग्रह करता है। एक गृहस्थ का जीवन भी अगर जैनत्व को लिये हुये हो तो वह इतना अधिक निर्दोष होगा कि भारतवर्ष को उसका अभिमान होना चाहिये* जैनधर्म की कथित आचरणव्यवस्था पर ध्यान देने से यह नि सदेह कहा जासकता है कि उससे समग्र देश और समाज मे अत्याचार और उत्पात मिटकर अमन चैन बना रह सकता है। और इस गुण से जैनधर्म को यदि विश्वहित का अवतार कहा जाये तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी। ईश्वरोयकथन यो तो सभी मतवाले अपने २ मत की उत्पत्ति किसी ऋषिमुनि और ईश्वर के द्वारा हुई बताते हैं। यह एक परोक्ष बात है, अपनी उत्तमता दिखाने को चाहे कुछ भी कह दिया * वह किसी भी देश की कोई भी दण्डविधान-धारा का कभी -भी शिकार नहीं हो सकेगा। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ ३७५ जाए । तथापि इसपर भी विचार हो सकता है। ईश्वर जो होता है वह काम, क्रोध, रागद्वषादि दोपो से रहित होता है। सर्वज्ञ होता है। इसलिये उसका उपदेश भी निर्दोप, पूर्वापरविरोधरहित सत्य, सर्व हित कर ही होगा। क्योकि वक्ता अपने गुण के मुआफिक ही व्याख्यान किया करता है । अत जिस मत मे न तो कामक्रोधादि दोषो के दूर करने का मार्ग सुझाया है और न कोई किसी खास हित के लिये ही कथन है तथा पूर्वापर विरोध जिन के वचनो मे पाया जाता है वह मत कदापि ईश्वरोक्त नही हो सकता। परोक्ष मे बोलने वाले पक्षी की आवाज सुनकर जैसे उसे बिना देखे ही जान लेते हैं वैसे ही किसी मत के वचन को देखकर ही उसके वक्ता का पता भी लग सकता है। यह एक सीधी सी बात है। जैनधर्म रागादि दोषो को हटाने की पूरी तौर से शिक्षा देता है। उसके सिद्धात मे कही कोई पूर्वापर विरोध भी नजर नही आता और वह हित कर्ता भी है जैसा कि ऊपर बतायागया है । इसलिये वही एक ईश्वरोक्त हो सकता है यह निश्चित है। उसके यहा इष्टदेव की मूर्ति बनाई भी रागादि दोषो से रहित जाती है। इसलिये भी उसका ईश्वरोक्त होना अधिक सभव है। सद्धातिक विवेचन जो धर्म सर्वज्ञ वीतराग द्वारा कहा हुआ होता है उसके सिद्धात मे अयथार्थता आही कसे सकती है। क्योकि असत्य कथन या तो ज्ञान की कमी से हो सकता है और या मोह, स्वार्थ लोभादि कषायो से हो सकता है । जैनधर्म वीतराग सर्वज्ञ आप्त के द्वारा प्रतिपादित है जैसाकि ऊपर कहा गया है । अत उसका अनेकातवाद, कर्म फिलासोफी, तात्विकसिद्धात आदि विषेच' ' Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ } [* जैन निबन्ध नायनी भाग: अगमात्र भी भुन नी । बापटर नर जगदीश चन्द्र वीम ने नाकापनिनोगीयो अस्तित्व बनाकर पाश्चात्य विनानी नकार दिया और frमने तो यन्त्री द्वारा आरसीयोगामिद गर निगनाये हैं पर जैन गन्यो मे बहन माननीनगर नि गिनना है कि कम्पनि मेनीय ने । जैन आगमो मे निया है कि शब्द पुद्गन का गुण है जब f अन्य प्रानो में आपका गुण बनाया है। एमपर परFITोमे गहरा यादविवाद भी निगा मिलता है। किंतु बाण मन्द के फोनोग्राफ में भरे जाने व टेलीग्राफ रेदियो से दूर दागे पहा आधिगह अनायाम ही मावित हो गया कि नद पद्गली गो पर्याय है, आकाश को नहीं। तभी तो उसका जग तन्त रोका जाना प्रत्यक्ष मे दिनरहा है। न्यादि उदाहरणों नाप है कि जनधर्मरामदातिक विवेचन भी विस्कूल यचार्य है। इटली के एक विद्वान् बा० एल० पी० टेनी टोरीसाहव इसी का ममर्थन करते हुये बतलाते हैं कि "जैनदर्शन बहुत ही ऊंची पक्ति का है। इसके मुन्यनत्व विज्ञान शान के माधार पर रचेहये हैं। यह केवल मेरा अनुमान ही नहीं है बल्कि पूर्ण अनुभव है । ज्योज्यो पदार्थविज्ञान उन्नति करता जाता है त्यो-त्यो ही जैनधर्म के सिद्धात मिद्ध होते जाते हैं।" जैनधर्म का तत्व और उपदेश वस्तु स्वरूप, प्राकृतिक नियम, न्याय शास्त्र, शक्यानुष्ठान और विज्ञानसिद्धात के अनुसार होने के कारण सत्य है। जैनियो का अनेकात और Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ३७७ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ] नयवाद एक ऐसा सिद्धात है जो कि सत्य की खोज मे पक्षपात रहित होने की प्रेरणा करता है। जैनदर्शन एक ऐसा अभेद्य किला है जिसका आजतक किसी प्रतिवादी से बाल भी बाका न होसका। पुराने ढर्रे के हिन्दू धर्मावलबी शास्त्री तो अबतक नही जानते कि जैनियो का स्याद्वाद किस चिडिया का नाम है। पा परीक्षा की प्रधानता अपने एक इसी बल पर वह स्पष्ट घोषणा करता है किपक्षपातो न मे वीरे न द्वष कपिलादिषु । . युक्ति मद्वचनं यस्य तस्य कार्य परिग्रह ॥ हरिभद्रसूरि] अर्थात-मेरे न तो वीर भगवान् मे पक्षपात है और न कपिलादि ऋषियो मे द्वष है । जिसके वचन युक्ति सहित हो उसे ही ग्रहण करना चाहिये । क्योकि "युक्तियुक्त प्रगृह्णीयाद् बालादपि विचक्षण " विचक्षण पुरुष वाजिब बात बालक की भी मानता है, इसी लिये जैन धर्म युक्ति और स्वतत्र विचारो से कभी भयभीत नहीं होता । वह इतर मतो की तरह ऐसा कभी नहीं कहता कि जो कुछ हम कहते हैं वही ठीक है। उस पर तर्क-वितर्क करने की जरूरत नहीं है । इस प्रकार “वाबावाक्य प्रमाण" की उसके यहा पूछ नहीं है । वह तो खुले रूप मे कहता है कि'निर्दोष कांचनं चेत् स्यात् परीक्षायां बिभेति किम्' असली सोना है, तो कसौटी का क्या डर है। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७= ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावलो भाग २ सिद्धात की दृढ असलियत का उसे पूर्ण निश्चय है और इसीलिये वह अपने अनुयायियो को जोर देकर आदेश करता है कि उसपर श्रद्धान करने पर ही तुम्हारे सम्यक्त्व नाम का वह चिह्न प्रकट हो सकेगा जो कल्याण का प्रथम सोपान है । प्राचीनता यह कोई नियम नही है कि जो प्राचीन हो वही सत्य हो । प्राचीनता और समीचीनता मे कोई सवध नही है । अगर सत्य प्राचीन हो सकता हो तो असत्य भी क्यों न प्राचीन माना जाय । अनुकूल-प्रतिकूल का द्वंद्व तो सदैव वना रह सकना लाजिमी है। फिर भी लोगो की अक्सर यह धारणा होना अनुचित नही कही जा सकती कि अमुकमत श्रेष्ठ था तो पहिले क्यो नही था अब ही नया क्यों हुआ । पूर्व कालीन मनुष्य अधिक विवेकी हुये हैं यह मार्ग क्यो नही सूझा। एक तरह से इस प्रकार का कथन भी उपेक्षणीय नहीं हो सकता । इसीलिये हरएक मत अपने आपको सबसे पूर्व का बतलाया करता है । 'जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने को किसी उलझन में पडने की आवश्यकता नही रहती । क्योकि जैनधर्म तो आत्मा का निज स्वभाव है । जब कि आत्मा अजर-अमर सदैव से चला आता है तो उसीके साथ जैनधर्म भी सदैव का रहा यह निर्विवाद है । आत्मा का खास स्वभाव काम, क्रोधादि रहित है, क्योकि स्वभाव सदा द्रव्य के साथ बना रहता है । आप देखेंगे कि मनुष्य सदैव निरन्तर क्रोधादि रूप नही रहता है। किसी कारण विशेष से उसके कुछ समय तक वैसा विकार हो जाता है, कारण के हटने पर पुन: उसी शात रूप मे आ जाता है । जैसे Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ રૂછયું जल का स्वभाव ठण्डा है किन्तु अग्नि के प्रसंग से गर्म भी हो जाता है । इससे सिद्ध है कि अगर आत्मा का स्वभाव क्रोधादि मय होता तो वह सदा क्रोधादि रूप ही बना रहता; पर ऐसा निरंतर पाया नहीं जात्ता क्योकि वस्तुन उसका असली स्वभाव क्षमादि शात रूप है। और जैन धर्म भी इसे उसी स्वभाव मे रहने की प्रेरणा करता है। अत जो आत्मा का स्वभाव है वही जैनधर्म है। इस लिए उसे नया नहीं कह सकते । और इसी कारण जैनधर्म की उत्पत्ति का पता लगाना असभव है। वर्तमान काल कलियुग है। इस निकृष्टकाल से पूर्ववर्ती काल उत्तरोत्तर उत्कृष्ट मान लेने पर जैन धर्म जैसा श्रेष्ठ धर्म भी पूर्वकाल मे अधिकाधिक रूप में माना जाना चाहिये । क्योकि उत्तम काल मे ही उत्तम चीज का पाया जाना न्याय सगत है । वर्तमान मे जैनधर्म का हीन-प्रभ दिखाई देना भी उक्त मान्यता को पुष्ट करता है। यह बात हम ही अपनी तरफ से कह रहे हों सो नही है किन्तु प्राचीनता का दम भरनेवाले इतर ग्रथ भी उसके साक्षी है । यथा १-शकराचार्य महाराज स्वय स्वीकार करते हैं कि जैनधर्म अति प्राचीन काल से है । वे वादरायण व्यास के वेदान्त सूत्र के भाष्य मे कहते है कि दूसरे अध्याय के द्वितीय पाद के सूत्र ३३ से ३६, जैनधर्म हो के सम्बन्ध मे हैं। शारीरिकमीमासा के भाष्यकार रामानुज जी का भी यही मत है । २-योगवाशिष्ठ वैराग्य प्रकरण के अध्याय १५ श्लोक ८ में रामचन्द्रजी ने जिनेन्द्र के सदृश शान्त होने की इच्छा प्रकट की है। ३- वाल्मीकि रामायण बालकाड सर्ग १४ श्लोक २२ मे Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ राजा दशरथ ने श्रमणगणों का अतिथि सत्कार किया, ऐसा लिखा है "तापसा मुंजते चापि घमणा मुजते तथा" भूपण टोका मे श्रमण का अर्थ जनमुनि किया है। ४- शाकटायन के उणादि सूत्र म जिन शब्द व्यवहृत हुआ है"इसिजजिनोडुष्य विभ्योनक" सूत्र २५६ पाद ३ सिद्धान्त कौमुदी के कर्ता ने इस सूत्र की व्याख्या में "जिनोऽर्हन" कहा है। मेदिनी कोष मे भी जिन शब्द का अर्थ अर्हत-जैनधम के आदि प्रचारक लिखा है। वृत्तिकारगण भी जिनका अर्थ "अर्हत्" करते है। यथा उणादि सूत्र सिद्धान्त कौमुदी । शाकटायन ने किस समय उणादि सूत्र की रचना की थी? यास्क के निरुक्त मे शाकटायन के नामका उल्लेख है । और पाणिनि के बहुत समय पहिले निरुक्त बना है इसे सभी स्वीकार करते हैं। और महाभाष्य प्रणेता पतजलि के कई सौ वर्ष पहिले पाणिनि ने जन्म ग्रहण किया था। अतएव अव निश्चय है कि शाकटायन का उणादिसूत्र अत्यन्त प्राचीन ग्रथ है और उसमे जैनमत का जिकर है। x ५-आज से २४५७ वर्ष पूर्व महावीर स्वामी हुए, जो x यह पुस्तक सर्वप्रथम वीर निर्वाण स० २४५७ मे प्रकाशित नई थी। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ ३८१ जैनो के चौबीस वे तीर्थकर थे। जिनका कि सवत् आज भी चल रहा है। उनके २५० वर्ष पहिले भगवान् पार्श्वनाथ हुये । कुछ लोगो का यह भ्रम पूर्ण विश्वास है कि पार्श्वनाथ जैनधर्म के आदि स्थापक थे उन्हे जानना चाहिये कि पार्श्वनाथ के पहिले भी २२ तोथंकर और हुये है जो जैनधर्म के विस्तारक थे। सब से प्रथम श्री ऋषभदेव ने इसका प्रचार किया है । भागवत के पाचवें स्कन्ध के अध्याय २-६ मे ऋषभदेव का कथन है जिसका भावार्थ यह है "चौदह मनुमओ मे पहिला मनु स्वय प्रभू का प्रपौत्र नाभि का पुत्र ऋषभदेव हआ जो जनमत का आदि प्रचारक था। इनके जन्मकाल मे जगत् की बाल्यावस्था थी इत्यादि ।" . महाभारत की टीका मे भी जैन ऋषभ का उल्लेख है। इससे मानना होगा कि हिन्दू शास्त्रो के मत से भी ऋपभ ही जैनधर्म के प्रथम प्रचारक थे। ६-डा० फुहरर ने जो मथुरा के शिला लेखो से समस्त इतिहास की खोज की है उससे जान पडता है कि पूर्वकाल में जैन लोग ऋषभदेव की मूर्तिया बनाते थे। इस विषय का “एपिग्रेफिया इडिका" नामक ग्रन्थ अनुवाद सहित सुद्रित हुआ है। ये शिला लेख दो हजार वर्ष पूर्व कनिष्क-हविष्क वासुदेवादि राजाओ के राजत्वकाल मे खोदे गये है। इससे सिद्ध है कि यदि महावीर-पार्श्वनाथ ही जैनधर्म के प्रथम प्रचारक होते तो दो हजार वर्ष पहिलेके लोग ऋषभदेवकी मूर्तिकी पूजा नहीं करते। ७ जैनियो के परम पूज्य चौबीस तीर्थकरो को वेदो से भी नमस्कार किया है। देखो Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ "ओं लोक्यप्रतिष्ठितानां चतुविशतितीर्थ कराणां ऋपभादिवर्द्धमानान्तानां सिद्धाना शरणं प्रपद्य"-ऋग्वेद । अर्थ-त्रैलोक्य प्रतिष्ठित ऋषभ से वर्तमान पयंत जो चौबीस तीर्थकर सिद्ध हैं उनकी में शरण प्राप्त होता है। यजुर्वेद मे कहा है कि - ओं नमोऽहंन्तो ऋषभो ऋग्वेद यजुर्वेद के एतद्विपयक कुछ प्रमाण इस निवन्ध में आगे भी दिये है। ८ उर्व, भारवि, भर्तृहरि, भर्तृ मेण्ठ, कठ, गुणाढ्य, व्यास, भास, वोस, कालिदास, वाण, मयूर, नारायण, कुमार, माघ, राजशेखर, आदि महाकवियो ने भी अपने २ काव्यो मै जैन विषयक उल्लेख यत्र तत्र किया है । इसके अलावा जैनो का उल्लेख कितने ही शिलालेखो, मूर्तिलेखो और ताम्रपत्रो मे भी काफी तौर से पाया जाता है। सबसे अधिक शिलालेख दक्षिण भारत मे है। मि० ई० हुलिस, मि० जे०एफ० फ्लीट, और मि० लेविस राईस आदि भिन्न २ पाश्चात्य विद्वानो ने साउथ इण्डिया इन्स्क्रिप्सन, इण्डियन ऐ टिक्केरी, ऐपिग्रॉफ्यिा कर्णाटिका आदि ग्रन्थो मे वहा के हजारो लेखो का संग्रह किया है। ये लेख शिलाओ तथा ताम्रपत्रो पर सस्कृत और पुरानी कनडी आदि भाषाओ मे खुदै ० देखो यशस्तिलक चपू आश्वास ४था पृष्ठ ११३ निर्णयसागर मे मुद्रित । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है? ] [ ३८३ हुए हैं। प्राचीन कनडी के लेखो मे जैनियो के लेख बहुत अधिक हैं, क्योकि उत्तर कर्णाटक, दक्षिण कर्णाटक, और मैसूर राज्य मे जैनियो का निवास प्राचीन काल से है | उत्तर भारत मे जो सस्कृत और प्राकृत भाषा के लेख मिले है, वे प्राचीनता और उपयोगिता की दृष्टि से बहुत महत्व के है , इन लेखो मे जैन लेखो की संख्या अधिक है, इन सब मे कुछ लेख तो २२०० वर्ष तक के पुराने हैं , ये लेख भारत के इतिहास के लिये भी बहुत सहायक है। बहुतसे राजाओ का पता तो केवल जैनियो के ही, लेखो से लगता है। जैसे --कलिंग (उडीसा) का राजा खारवेल ।' अगर जैन लेख प्रशस्ति न होती तो आज विख्यात कवि "भारवि" के समय का पता लगाना भी मुश्किल हो जाता *. __ तथा यह बात प्राय सभी जानते है कि जैनियो की कितनी ही मूर्तियाँ कितने ही स्थानो मे जमीन खोदते वक्त मिलती रही है, उनमें से कतिपय तो बहुत ही प्राचीन हैं, बल्कि कुछ मूर्तियां तो यहां के कडी के जैन मन्दिरो मे भी विराजमान है जो धनोप (जिला शाहपुरा मेवाड) की खुदाई में मिली थी। क्या इस प्रकार जमीन के अन्दर हिंदुस्थान मे चारो तरफ जैनियो के शिलालेखो और विशालकाय मूर्तियो का निकलना अच्छी प्रकार साबित नहीं करता कि जैन धर्म एक बहुत ही प्राचीन धर्म है जो किसी समय सर्वत्र विस्तृत था। साहित्य-सम्पदा जैन साहित्य समुदाय भी कम महत्व का नहीं है। ★ देखो महावीर प्रसाद द्विवेदी लिखित हिंदी किरातार्जुनीय की इण्डियन प्रेस इलाहाबाद में मुद्रित भूमिका पृष्ठ २ से ६ तक । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ संस्कृत, प्राकृत, मागधी, कनडी, आदि विविध भाषाओ मे ताडपत्रो पर लिखे कितने ही प्रभावशाली प्राचीन जैन ग्रन्थ पाये जाते हैं । यद्यपि अधिकाश - जैनग्रन्थ विरोधियो की द्वेषाग्नि मे और जैनियो की लापरवाही के कारण चूहो - दीमको आदि से नष्ट हो गये है, तथा कही २ जैनियो की वह लापरवाही अद्यापि वैमी ही बनी हुई है, तथापि ईडर, जैसलमेर, जयपुर, आरा, नागौर, मूडविद्री आदि स्थानो के ग्रन्थ भडारो मे अब भी जैनग्रन्थो का अच्छा संग्रह है। जैन ग्रन्थकर्त्ताओ ने सभी विषयो पर लेखनी उठाई है, उनकी रचना शब्द - सौन्दयं, भाव गाभीर्य और अर्थ- चमत्कृति मे अपूर्व कही जा सकती है जैनेन्द्र, शब्दानुशासन आदि व्याकरण, अभिधानचिंतामणि, विश्वलोचन आदि कोष गद्य चितामणि, तिलक मजरी, आदि गद्यग्रन्थ, धर्मशर्माभ्युदय, पाश्वभ्युदय, द्विसधान, चंद्रप्रभ चरित आदि काव्य, जीवधर च यशस्तिलक चपू आदि चपू, अलकार चिंतामणि, काव्यानुशासन आदि अलंकार ग्रथ अष्ट सहस्री, प्रमेयकमलमार्तंड, श्लोकवार्तिक, स्याद्वादरत्नाकर आदि न्यायग्रथ, मोक्षशास्त्र, धवल जयधवल, महाधवल आदि दार्शनिक ग्रन्थ, इसी प्रकार वैद्यक ज्योतिष गणित आदि विषयो के भी जैन ग्रन्थो की कमी नही है । इन सब मे कितने ही ग्रन्थ नि सदेह प्रकाण्ड विद्वत्ता के सूचक, गौरव शाली और साहित्य ससार के चमकते हीरे कहे जाने चाहिये । वर्तमान मे जितने जैन ग्रन्थ मुद्रित हुए है उनसे कई गुणे अभी हाल अप्रकाशित हैं। दक्षिण मे तामिल व कनडी इन दोनो भाषाओ के जो व्याकरण प्रथम प्रस्तुत हुए हैं वे जैनियो ने ही रचे थे। अपने उपयोगीं और सत्य सिद्धान्तो का सर्व साधारण मे प्रचार करने की गरज से कितने ही मुख्य जैनग्रन्थ प्राकृत भाषा मे रचे गये हैं । हरिभद्र सूरि ने भी यही हेतु Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ ३८५ दिया है जैसा कि उनके इस पद्य से प्रकट है। यथा "वालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्वज्ञे सिद्धान्त प्राकृत कृत.॥ जैन साहित्य के बाबत हम अधिक कुछ न लिखकर एक प्रसिद्ध अजैन विद्वान् श्रीमहामहोपाध्याय डॉ. "सतीशचन्द्र विद्याभूषण' सिद्धान्तमहोदधि कलकत्ता की सम्मति देते है, उसे देखिये जैनियो की विचार पद्धति, यथार्थता, सूक्ष्मता, सुनिश्चितता, और सक्षिप्तता को देखकर मुझे आश्चर्य हुआ था। और मैंने धन्यवाद के साथ इस बात को नोट किया है कि किस प्रकार से प्राचीन न्याय पद्धति ने जैन नैयायिको द्वारा क्रमश उन्नति लाभकर वर्तमान रूप धारण किया है । ब्राह्मणो के न्याय की आधुनिक पद्धति जिसे नव्यन्याय कहते है और जिसे गणेश उपाध्याय ने १४वी शताब्दीमे जारी किया है वह जैन और बौद्धो के इस मध्यकालीन न्याय की तलछट से उत्पन्न हुई है। व्याकरण और कोश रचना विभाग मे शाकटायन, देवनदि और हेमचन्द्र आदि के प्रथ अपनी उपयोगिता और विद्वत्ता मे अद्वितीय हैं। प्राकृतभाषा सपूर्ण मधुमय सौदर्य को लिये हुए जैनियो की रचनामे ही प्रकट की गई है । ऐतिहासिक ससार मे तो जैनसाहित्य शायद जगत् के लिए सबसे अधिक काम की वस्तु है । यह इतिहास लेखको और पुरावृत्त विशारदो के लिये अनुसंधान की विपुल सामग्री प्रदान करने वाला है।" आक्षेप परिहार १-हमारे अजैन भाई कह सकते हैं कि जिस जैन धर्म Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ की तुम इतनी डीग मारते हो वह दरअसल मे इतना श्रेष्ठ होता तो उसके मानने वालो की आज इतनी कम सख्या न होती। उत्तर यह है कि किसी मजहब की उत्तमता उसके अनुयायियो की अधिक संख्या पर निर्भर नही हो सकती, प्राय उत्तम चीज पाई भी थोडी जाती है। पत्थरो के ढेर मिलेंगे पर जवाहिरात विरली ही जगह पायेंगे। काको के झड मिलेंगे, लेकिन हस नजर न पडेंगे । एक बात यह भी है कि उत्तम चोज के रखने का पात्र भी तो उसीके योग्य चाहिये, सिंहनी का दूध सुवर्ण पात्र को छोड अन्यत्र नही ठहरता। जो दया प्रधान धर्म विषयकपाय छोड नेकी शिक्षा देता है, उसका पातन इन्द्रियो के गुलाम, कषायो के पुतले, कठोर चित्त वाले जिनकी कि अधिक संख्या है क्यो कर कर सकते है । विरोधियो के झठे अपवाद और उसपर जैनियो के प्रमाद से भी उसकी कम क्षति नही हुई है फिर भी देश मे जैन नाम धारियो को चाहे सख्या न बढी हो तो भी उसका अन्य धर्मों पर जो गहरा असर पड़ा है, उससे मप्रकट आशिक जैन तो बहुत अधिक हैं। इसे ही प्रसिद्ध देशभक्त लो० बालगगाधर तिलक ने भी प्रकट किया है कि 'यथार्थ पशु-हिंसा जो आजकल नही होती है यह एक वडी भारी छाप जैन धर्म ने ब्राह्मण धर्म पर मारी है" क्यो कि - यच्छुभं दृश्यते वाक्यं तज्जन पर दर्शने । मौक्तिकहि यदन्यत्र तदब्धौ जायतेऽखिलम् ।। अर्थ-जो अच्छा उपदेश पर मतो मे मिलता है उसे जैनों से ही लिया हुआ समझना चाहिए। क्योकि मोती कही पर भी हो, आता समुद्र से ही है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ ३८७ २ जैनियो को निरीश्वर वादो और नास्तिक कहना भी सरासर मिथ्या है अगर जैनी ईश्वर न मानते होते तो वे अपने आलीशान मन्दिरो मे किनकी उपासना करते है ? वास्तव मे जैन लोग निर्दोष, सर्वज्ञ, हितोपदेशी को ही अपना ईश्वर मानते है और उन्ही की प्रतिमा को वे पूजते हैं, अलबत्तह वे किसी ईश्वर को कर्ता हर्ता नही मानते हैं। जैसा कि उनका कहना है। यथा ‘परेषुयोगेषु मनीषयांधः प्रीति दधात्यात्मपरिग्रहेषु । तथापि देव स यदि प्रसक्तमेतज्जगदेवमयं समस्तम् ।। यशस्तिकचपू ४ था समाश्वास] अर्थ-जो शत्र ओ पर द्वष करता है और आत्मस्नेहियो मे प्रोति करता है ऐसा भी यदि ईश्वर होने लगे तो सारे जगत् को ईश्वरमय मानना चाहिये। क्योकि राग-द्वेष तो सभी मे पाये जाते हैं। इसीलिये किसो ईश्वर को दुनियावी झझटो मे पडना वे मान्य नही करते । अगर जैनो को इसी कारण से नास्तिक कहा जाता है तो भगवद्गीता मे ऐसा ही उपदेश देने वाले श्री कृष्ण को भी नास्तिक कहना चाहिये। क्योकि उन्होने भी लिखा है कि न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ नादत्त कस्यचित्पापं न कस्य सुकृत विभु । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्य ति जंतव ॥ [भगवद्गीता अध्याय ५ श्लोक १४-१५] Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अर्थ परमेश्वर जगत् के कर्तृत्व और कर्म को उत्पन्न नही करता और कर्म फल की योजना भी नही करता स्वभाव से सब होता है ॥१॥ ईश्वर किसी का पाप पुण्य ग्रहण नहीं करता, ज्ञान पर अज्ञान का परदा पडा होने से प्राणी मोह मे फंस जाते है ॥२॥ आत्मा, पुण्य, पाप और परलोक को मानने वाले जंनो को नास्तिक कहना भारी भूल है । तथा "नास्तिको वेदनिंदक" वैदिक मत को न मानने से भी जैनो को नास्तिक नही कह सकते । यो तो यवन भी कह सकते हैं कि कुरान शरीफ को न मानने वाले नास्तिक है। यदि ऐसा है तो विचारी नास्तिकता सब के गले पड़ने लगेगी। ३-जैन धर्म की अहिंसा को कायरता की जननी और भारतवर्ष के अध पतन का कारण कहना भी ठीक नहीं है। जिन दिनो सम्राट् चद्रगुप्त, गगराज, अशोक, अमोघवर्ष, कुमारपाल आदि जैन राजाओ का यहा राज्य था तब भारतवर्प बहुतकुछ उन्नति पर था। जैनो के पूज्य सभी तीर्थंकर क्षत्रिय कुल मे हुये है उनमे शाति, कु थु और अरनाथ इन तीन तीर्थंकरो ने तो दिग्विजय कर षट् खड पृथ्वी का शासन किया है। श्री नेमिनाथ तीर्थकर भी जरासध से युद्धार्थ रणभूमि मे गये हैं। चामु डराय भामाशाह, आशाशाह, आदि रण पारगत वीर जन ही थे। फिर मुसलमानी राज्यो मे अकबर का राज्य क्यो प्रशसनीय गिना जाता है ? इसलिए कि अकबर स्वय अहिंसाप्रिय बादशाह था और वह हीरविजय प्रभृति जैन विद्वानो के सदुपदेशो के अनुसार अपने राज्य मे अहिंसा को महत्व देने का प्रयत्न करता था। अगर हिंसा ही उन्नति का कारण होती तो मुसलमानी सल्तनत Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ ३८६ का नामशेष क्यो होता । सच तो यह है, कि जब से अहिंसा को छोडा तभी से भारत का पतन हआ है। राजाओ मे ईया, द्वष, विलासिता और पारस्परिक फूट बढने लगी तब पतन अवश्यभावी था । अहिंसा तो वीरो का धर्म है । प्रत्यक्ष देखलो, महात्मा गाधी की एक आशिक अहिंसा से ही सुदीर्घकालीन परतत्र भारत स्वतत्र हो गया। इस प्रकार जैन धर्म मे वे सभी बाते पाई जाती है, जो एक उत्कृष्ट धर्म में पाई जानी चाहिये, इसी से हम उसे नि सकोच बहुत ही श्रेष्ठ धर्म कह सम्ते है और इसीलिये समतभद्र जसे प्रचड नैयायिक उसे अद्वितीय बताते है । यथा "दयादमत्यागसमाधिनिष्ठं नयप्रमाणप्रकृताजसार्थन् । अधृष्यमन्यनिखिल प्रवादै जिन ! त्वदीय मतमद्वितीयम् ॥६॥ [युक्त्यनुशासन] अर्थ- हे जिनेन्द्र | आपका मत नय प्रमाण के द्वारा वस्तुतत्वको बिल्कुल स्पष्ट करने वाला, सपूर्ण प्रवादियो द्वारा अवाध्य होनेके साथ-साथ दया, दम, त्याग और समाधि (प्रशस्त ध्यान) की तत्परता को लिए हुये हैं यही सब उसकी विशेषता है अथवा इसीलिए वह अद्वितीय है ॥ तथा वेही आचार्य आगे चल कर उसे"सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयतीर्थमिदतवैव" इस पद से सपूर्ण आपदाओ का नाशक सर्वोदय तीर्थ तक बतलाते हैं। इतना अधिक समीचीन और परमोपयोगी होने की वजह Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ से ही उसके महत्व का यत्रतन कथन जैनेतर ग्रन्थकारो को भी करना पडा है । सो ठीक ही है । क्यो कि ' नहि कस्तूरि कामोद शपथेन निवार्यते" (कस्तूरी की खुशबू शपथ (सौगन्ध ) खाने से नही रोकी जाती ) । ऋग्वेद अष्टक २ अ० ७ वर्ग १७ मे अर्हत को केवल ज्ञानी अतुल्य वलशाली और सव की रक्षा करनेवाला लिखा है ।" " यजुर्वेद अध्याय ६ मत्र २५ मे २२ वे तीर्थंकर नेमिनाथ को आहुति प्रदान की है। साथ ही उन्हे आत्मस्वरूप के प्रकट कर्त्ता और यथार्थ वक्ता कहा है ।" यजुर्वेद अध्याय १६ मंत्र १४ मे लिखा है कि "अतिथिरूप पूज्य महावीर जिनेन्द्र की उपासना करो, जिससे त्रिविध अज्ञान और मद की उत्पत्ति न हो ।" शिव पुराण मे लिखा है कि "अडसठ ६८ तीर्थो की यात्रा का जो फल है, वह आदिनाथ ( ऋषभ देव ) के स्मरण से होजाता है" यथा अष्टषष्टिषु तीर्थेषु यात्रायां यत्फलं भवेत् । आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद्भवेत् ॥ योगवाशिष्ठ के वैराग्य प्रकरण मे रामचन्द्रजी ने जिनेन्द्र के सदृश शाति प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की है । यथा "माइ रामो न मे वांछा भावेषुच न मे मनः । शांतिमास्यातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनोयथा ॥ [ अध्याय १५ श्लोक २८ ] दक्षिणामूर्तिसहस्रनाम मे कहा है कि " शिवोवाच 17 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] जैनमार्गरतोजनो जितक्रोधो जितामय ॥ इसमे भगवान का नाम जैनमार्ग रत, और जैन बताया है । वैशम्पायन सहस्रनाम मे - कालनेमिनिहा वीरः शूर. शौरिजिनेश्वर । यहा भी जिनेश्वर को भगवान् कहा है । दुर्वासा ऋषिकृत महिम्न स्तोत्र मे - [ ३६१ " कर्ताऽर्हन् पुरुषोहरिश्चसविता बुद्ध शिवस्त्वं गुरु ॥ यहा अर्हन्त कहकर इष्टदेव की स्तुति की है । हनुमन्नाटक के मङ्गलाचरण मे - "अर्हन्नित्यथ जैनशासनरता, कर्मेति मीमांसका । सोऽयं वो विदधातु वाछितक्ल त्रैलोक्यनाथ प्रभु "॥ अन्यदेवो के साथ-साथ अर्हन्त से भी जिसे जैन लोग मानते हैं वाछित फल की प्रार्थना की है और उसे तीन लोक का नाथ तक लिखा है । इन सपूर्ण प्रमाणो तथा युक्तियो से जै. धर्म की श्रेष्ठता स्वय सिद्ध होती है । प्रभास पुराण मे - -- "देवताद्रो जिनो नेमि युगादि विमलाचले । ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम्" ॥ नेमिजिन को मुक्ति का कारण कहा है । नगर पुराण मे - दशभिर्मोजितः विप्रः यत्फल जायते कृते । मुनेरर्हत्सुभक्तस्य तत्फल जायते कलौ ॥ अर्थ - दस ब्राह्मणो के जिमाने का जो फल कृ-युग मे Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावलो भाग २ होता है वह फल कलियुग मे अर्हन्त भक्तमुनि को आहार देने से होता है । अब जरा मनुस्मृति मे भी लिखा देखिये "दर्शयन् वम वीराणां सुरासुर नमस्कृत. । नीतित्रितयकर्ता यो युगादौ प्रथमो जिन." ॥ अर्थ-युग के आदि मे होनेवाले जो प्रथम जिनेन्द्र हैं वे तीन नीति के कर्ता, वीरो के मार्ग दर्शक, और सुरासुरो से पूजित हैं। इत्यादि कितने ही प्रमाण है जो ग्रन्थ बढजाने के भय से छोडे जाते है जो धर्म इतना प्रशसित, इतना मान्य, और इतना अधिक उपयोगी है उसके लिये यो लिखना कि"हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमंदिरम् ।" । "हस्ति से ताडित होकर भी अपनी रक्षार्थ जिनमदिर मे न जाय।" लेखक के गम्भीर कलुषाशय को प्रकट करता है । जैसे उसने क्रोध के आवेश मे लिखा हो। इसलिये उसकी कदर भी उतनी ही होनी चाहिये जितनी एक क्रोधी की जबान की होती है। उसके ऐसा लिखने से जैनधर्म की हानि हुई हो चाहे न हुई हो, किन्तु उसने एक शातिदायी धर्म के ससर्ग से अलग रखकर अपने अनुयायियो को निश्चय ही गहरी हानि पहुचाई है। प्रध्वस्तघातिकर्माण केवलज्ञानभास्करा । कुर्वतु जगत शांति वृषभाद्या जिनेश्वरा ॥ ओ शांतिः ! शाति !! शाति. !! . Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ दर्शनभक्ति (माथुरसंघी) का शुद्ध पाठ अथ दर्शन-भक्ति वीरं विलीणमोह णमो णराऽमर णममियं विमलणाण* कम्म महा घण सेलो पलोट्टिदो जेणिमो अणादिपुराणो ॥१॥ मिच्छत्त बद्ध मूलो कसाय सोलस सिलायडो उसिदतु गो । थी पुणपुस वेदय गलदुज्झर धादु लिहिद चित्त देसो ॥२॥ हस्सरदि मिहण किण्णरणिसे विदो अरदिसोय सावय गुविल्लो भयसय अणेय दुस्सहदुगु छिदो वाहि विसम विसहरकडिल्लो ॥३॥ अट्ठविह कम्म पछ्य णगाहिओ मोह गिरिवरो णाम इमो जस्स भरेणऽक्कता समम्मि पडिवज्जिद सक्काण सक्का ॥४॥ भवसय सहस्स विहगगण णिसेविदो जेण णासिदो मोह गिरी मो सम्मणाणदसण चरित्त विहि देस ओ दिसदु मे सिद्धि ॥५॥ भव्य. सम्प्रति लब्धकाल करण प्रायोग्य लब्धयादिकः सम्यक्त्वस्य समुद्भवाय घटयन् मिथ्यात्वकर्म स्थितिम् । ★-'विउलणाण' पाठ । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ ते हरमोहविलाशुद्धविमिश्रितता स्त्रिधा भिद्यते कप्रक्रमते तरा त्रिकरण सवेगवैराग्यवान् सशुद्धासुदयावलेरूपरिजा कुर्वन् मूहूर्त स्थितिम् ।।१।। मिथ्यात्वं परतस्तत परिणतेहेतो स्त्रिधा भिद्यते शुद्धाशुद्धविमिश्रित प्रदलनादुभेदैर्यथा कोद्रवा.। ते दृम्मोहविकल्पना स्त्रिगणनाश्चारित्रमोहस्य ये। प्राग्भेदै. सहिताश्चतुभिरुदितास्ते सप्त दृग्घातिन ॥२१॥ यत्तषा प्रशमात् तदोपशमिक सम्यक्त्वमत्रान्तरे प्रक्षीणेषु च तेषु सप्तसु भवेत् तदर्शन क्षायिकम् । शुद्धश्चेदुदय गत प्रशमिता शेषास्तथैव स्थिता. __कर्माशा. षडुदीरित मुनिवरैस्तन्नामतो वेदकम् ॥३॥ रत्नाना गणनासु यान्ति गणनां प्रागेव यान्युज्ज्वला न्यत्राऽऽशानिचयै भवन्ति सहिता ये सयता. केचन मुक्ता स्यु सुखधाम यश्चविभवा यैरेव सलक्षिता. सम्यक्त्वानिविभाति तानि सुबृहन्मूल्यानि रत्नानि वा ॥४॥ भीमाऽनेक भवप्रपञ्चविपिना नि सर्पण सार्थवान् नाना दुख महासमुद्र भयतो निस्तारणे नौरिव सान्द्राऽज्ञानतम समूहदलने भास्वानिवाऽभ्युत्थित सम्यक्त्वत्रितय नमामि तदह तस्यैव संशुद्धये ॥५।। त्रैकाल्यं द्रव्यषट्क नवपदसहित जीवषट्काय-लेश्या. पञ्चाऽन्ये चाऽस्तिकाया. व्रत-समिति-गति-ज्ञान-चारित्र-भेदाः इत्येतन्मोक्षमूल त्रिभुवनमाहितै प्रोक्तमहभिरीशै प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य सवैशुद्धदृष्टि ॥६॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनभक्ति (माथुरसघी) का शुद्ध पाठ ] [ ३६५ अरहताऽऽगम सत्त्थे चरित्त सद्दहणलक्खण ततु उवमम वेदय-खइय तिविह सम्मत्तमभिवदे (१) ।।७।। सम्मत्ते थिरभावो कायव्वो मेरु पव्वय सरिच्छो जेण हु णाण चरित्ता हवति सम्मत्तमूलाओ (२) ।।८।। सम्मत्त सलिलपवहो णिच्च हिययम्मि पवहए जस्स कम्म बालुववरणुध्व तस्स बध च्चिय ण एइ (३) ।।६।। ॥ इति दर्शन भक्ति समाप्ता ।। नोट-यह दर्शन भक्ति-पाठ माथुर सघी (काष्ठा सघी) हैं मूल सघी नही हैं । मूल सघी और माथुर सघी (काष्ठासघी) भक्ति पाठ जुदे जुदे पाये जाते हैं। यह दर्शनभक्ति का माथुरसघी शुद्ध पाठ एक प्राचीन हस्तलिखित बसवा ग्राम के गुटके से उतारा गया है जो वि० स०१६२१ का है। इस पाठ में प्राकृत दर्शन भक्ति और सस्कृत दर्शन भक्ति के जुदे जुदे पाठ नहीं हैं किन्तु प्राकृत और सस्कृत दोनो भाषाओमें यह एक दर्शन भक्ति बनाई गई है। 'दिव्यध्वनि (मासिक) वर्ष १ अक ५ (अप्रैल ६६) तथा जैनसन्देश शोधाक न० २३ मे भी यह दर्शन भक्ति पाठ छपा है जो काफी अशुद्ध है। उनकी इस प्रस्तुत पाठ से तुलनाकर शुद्धाशुद्ध रूप को भली प्रकार जाना जा सकता है। इसकी जो अन्तिम हवी गाथा है वह पद्मनन्दि कृत 'धम्मरसायण' ग्रथ मे भी गाथा न० १४० के रूप में पाई जाती है। तथा कुन्दकुन्द के दर्शनपाहुष्ट मे भी गाथा न० ७ के रूप मे पाई जाती है और वहाँ से यहां ली गई है। अन्य भक्तियो की तरह दर्शन भक्ति-पाठ भी रहा है। प० सोमदेव ने भी यशस्तिलिकचम्पू (ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'उपासकाध्ययन' पृ. २२५) में 'दर्शनभक्ति की सुन्दर रचना की है। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ जैन खगोल विज्ञान आसमान मे चमकने वाले सूर्य चन्द्रमा तारे कौन है ? और इनका स्वरूप जैनधर्म मे कैसा बताया है ? ये हमारी इस पृथ्वी से कितने ऊँचे है ? इनका आकार कैसा है ? लम्बाई चौडाई इनकी कितनी है ? इनकी कितनी सख्या है ? ये चलते है ? या स्थिर? और इनके द्वारा किस तरह से रात्रि-दिन बनते हैं ? इत्यादि वर्णन जैसा भी जैनशास्त्रो मे पाया जाता है उसकी भी जानकारी न केवल सामान्य जैनो को किन्तु कितने ही जनविद्वानो को भी नही है और न उनको इतना अवकाश है जो वे इस विषय के सस्कृत-प्राकृत के बडे-२ जैन ग्रन्थो का अध्ययन-मननकर इस विषय को अच्छी तरह हृदयगम कर सके । इसलिये इच्छा हुई कि इस दिशा मे कुछ ज्ञान की सामग्री प्रस्तुत की जावे उसीके फलस्रूप यह लेख लिखा जा रहा है । जैनशास्त्रो मे सूर्य चद्रादिको के विमान लिखे है। ये विमान चमकदार पार्थिव परमाणुओ से बने है। इनसे भिन्न २ रगो की प्रभा निकलती है । सूर्य से तपे हुये सोने जैसी, चन्द्रमा से सफेद रग की, राहु-केतु से काले रग की, शुक्र से नई चमेली जैसी, वृहस्पति से मोती की सीप जैसी, बुध सेअर्जुनमय, शनि से तप्त सुवर्णसदृश और मंगल से लाल रंग की प्रभा निकलती है। किन्ही की प्रभा गहरी है और किन्ही की हलकी। सूर्य Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन खगोल विज्ञान ] [ ३६७ चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे ये इनकी ५ विस्मे है और ये ज्योतिष्क कहलाते हैं। ___ठोस गोल चीज जिसकी गोलाई गेद जैसी हो उसके दो खड करने पर उनमे से एक खडको ऊपर इस प्रकार स्थापन करें कि गोल भाग नीचे की तरफ रहे और समतल भाग ऊपर को रहे, ठीक ऐसा ही आकार इन ज्योतिष्को का समझना चाहिये । ये सब ऊपर को थाली जैसे गोल होने के कारण जितनी इनकी चौडाई है उतनी ही इनकी लबाई है। चद्रमा की चौडाई एक योजन के ६१ भागो मे ५६ भाग प्रमाण है। सूर्य की चौडाई एक योजन के ६१ भागो मे ४८ भाग प्रमाण है। शुक्र की १ कोश, वृहस्पति की कुछ कम १ कोश । बुध-मगल-शनि की आधा-२ कोश की चौडाई है। तारो की चौडाई किन्ही की पावकोश, किन्ही की आध कोश. किन्ही की पौन तथा एक कोश की है। किन्तु कही यह भी लिखा मिलता है कि- कोई भी तारा आध कोश से अधिक विस्तार का नही होता है। और न कोई भी ज्योतिष्क पाव कोश से कम विस्तार का होता है । __मोटाई का हिसाब प्राय ऐसा है कि-जिसकी जितनी चौडाई है उससे आधी उसकी मोटाई होती है। किन्तु राजवार्तिक - श्लोकवार्तिक आदि शास्त्रो ने शुक्र वृहस्पति-बुध-शनिमगल और राहु की मोटाई ढाई सौ धनुष की ही लिखी है। प्रसगोपात्त यहा हम क्षेत्रमान का भी कथन कर देते है ८ यवधान्य के मध्य की जितनी चौडाई हो उतने माप का एक उत्सेधागुल होता है। ऐसे २४ अगुलो का एक हाथ, चार हाथ का १ धनुष, दो हजार धनुषो का १ कोश और ४ कोशो का १ योजन होता है। यह उत्सेध योजन कहलाता है। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ इससे पाच सौ गुण एक प्रमाण योजन होता है । ऊपर सूर्यादि का माप प्रमाण योजन से बताया है। उत्सेध की अपेक्षा वह माप पाचसौ गुण अधिक होगा। श्लोकवार्तिक मे लिखा है कि"अष्टचत्वारिंशद्योजन कषष्टिभागत्वात् प्रमाणयोजनापेक्षया, सातिरेकविनवतियोजनशतवयप्रमाणत्वादुत्सेधयोजनापेक्षया ।" [मूल मुद्रित पृ० ३८] अर्थ - सूर्य का विस्तार जो एक योजन के ६१ भागो मे ४८ भाग प्रमाण बताया वह प्रमाण-योजन की अपेक्षा से बताया है। उत्सेध की अपेक्षा तो उसका विस्तार कुछ अधिक ३६३ योजनो (१५७२ कोश) का होता है। श्वेतावरमत मे प्रमाणयोजन को उत्सेध योजन से चारसी गुणा माना है न कि पाच सौ गुणा । अत. उसके अनुसार लोकप्रकाश नामक श्वेताबर ग्रन्थ मे सूर्य का विस्तार इस प्रकार बताया है शतानि द्वादशैकोनषष्टि क्रोशास्तथोपरि । चापाद्वात्रिंशत् विहस्ती वयोगुलाश्च साधिका. ॥ ततायतं सूर्यबिंबमुत्सेधांगुलमानत ॥ अर्थ-१२५६ कोश, ३२ धनुष, ३ हाथ और साधिक ३ अगुल इतना विस्तार उत्सेधागुलकी अपेक्षा से सूर्य बिंब का समझना चाहिये। ऊपर चन्द्रमा का विस्तार एक योजन के ६१ भागो मे ५६ भाग प्रमाण बता आये है। यह विस्तार पूर्णचद्र का है। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान ] [ ३६६ किन्तु चन्द्रमा घटता वढता भी दिखाई देता है । उसका कारण यह है कि -- चन्द्रमा के नीचे राहु का विमान विचरता रहता है । यानी राहु के विमान के ध्वजदड से ४ प्रमाणागुल ( उत्सेध की अपेक्षा कुछ अधिक ८३ हाथ ) ऊपर चन्द्रमा विचरता है। राहु के विमान का वर्ण श्याम है अत उसकी ओट में चन्द्रमा का अश आजाने से वह अश हमको दिखाई नही देता है। तथा राहु की गति चन्द्रमा की गति के समान नही है । इसलिये वह चन्द्रमा से जितना आगे पीछे रह जाता है, तदनुसार चन्द्रमा हमको इस धरातल पर घटवढ दीखता है । दोनो की गति मे अतर कुछ ऐसे ढग का रहता है जिससे कृष्णपक्ष मे चन्द्रमा का सोलह भागो (१६ कलाओ ) मे प्रतिदिन एक - एक भाग ढकता रहता है और शुक्ल पक्ष मे प्रतिदिन एक-एक भाग प्रगट होता रहता है । सिद्धात सारदीपक ग्रथ मे लिखा है कि - शुक्ल पक्ष मे राहु की गति चन्द्रमा से सदैव धीमी रहती है और कृष्ण पक्ष मे सदैव तेज रहती है । इसलिये दोनो पक्षो मे चन्द्रमा घटता बढता नजर आता है । फलितार्थ इसका यह हुआ कि कृष्णपक्ष के अत मे जब चन्द्रमा १६ भागो मे से १५ भाग प्रमाण राहु की ओट में छुप जाता है तो शुक्लपक्ष मे चन्द्रमा की गति से राहु की गति धीमी होने से शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से चन्द्रमा शनं २ ज्यो ज्यो राहु से आगे निकलता जाता है, त्यो त्यो ही वह हर दिन सोलह भागो मे एक-एक भाग अधिक २ बढता हुआ नजर आता है । पद्रहवे दिन वह इतते आगे निकल जाता है कि उसके नीचे राहु की ओट रहती ही नही । वह दिन पूनम की तिथि का होता है । उस दिन चन्द्रमा हमे पूर्णरूप मे दिखाई देता है । फिर उसके अनतर जब कृष्णपक्ष शुरू होता Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ है तो राहु की गति चन्द्रमा की गति से तेज हो जाने के कारण चन्द्रमा शनै २ पीछे रहता है । और ज्यो ज्यो ही राहु आगे आगे बढता जाता है त्यो त्यो ही चन्द्रमा हर दिन सोलह भागो मे एक एक भाग ढकता हुआ चला जाता है उससे वह हमे प्रतिदिन कम -२ नजर आने लगता है । अमावस को चन्द्रमा के १५ भाग राहु से आच्छादित हो जाने पर भी उसका एक भाग फिर भी अनावृत ही रहता है और सूर्यास्त के वक्त मे ही चन्द्रमा भी उस दिन अपने अस्तस्थान पर पहुँच जाने के कारण उसका वह अनावरण एक भाग भी हमको अमावस की रात्रि मे नजर नही आता है । यह स्थिति तो नित्य राहु की वजह से होती है । किन्तु दूसरा पर्व राहु ओर होता है, वह भी श्याम होता है जिसकी वजह से चन्द्रग्रहण होता है। पूनम के दिन जब नित्य राहु चन्द्र के नीचे नही रहता तो कभी-२ उस दिन पर्वराहु चन्द्रमा के नीचे आ जाता है । वह जितना कुछ आगे पीछे होता है उसी माफक चन्द्रग्रह्ण हमे दिखाई देता है । इसी तरह श्यामवर्ण का एक केतु नामक ज्योतिष्क भी होता है । वह भी कभी २ अमावस के दिन सूर्य के नीचे आजाता है जिससे सूर्यग्रहण होता है । त्रिलोकसार गाथा ३३६ मे चन्द्र को राहुग्रस्त और सूर्य को केतुग्रस्त ही होना बताया है । किन्तु भक्ताभरस्तोत्र ( मानतुं गकृत) के श्लोक न० १७-१८ में क्रमश सूर्यचन्द्र दोनो को राहुग्रस्त ही होना बताया है । श्वे० संग्रहणी सूत्र मे लिखा है कि-राहु के समान कभी कभी केतु से भी ग्रहण होता है । चन्द्रग्रहण सदा पूर्णिमा को और सूर्यग्रहण सदा अमावस को होता है। सूर्य और चन्द्रग्रहण कम से कम छह मास मे एक बार और अधिक से अधिक चन्द्रग्रहण ४२ मासो मे एक बार और सूर्यग्रहण ४८ वर्षो मे एक बार होता है । / Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०१ जैन खगोल विज्ञान ] धरातल से ज्योतिष्को की ऊंचाई इस धरातल से ७६० योजन की ऊचाई पर तारे है । उनसे दस योजन ऊपर सूर्य है। सूर्य से ८० योजन ऊपर चन्द्रमा है अर्थात पृथ्वी से ३५ लाख २० हजार मील की ऊंचाई पर चन्द्रमा है । चन्द्रमा से ४ योजन ऊपर नक्षत्र हैं । ग्रहो की सख्या ८८ मे से बुध का स्थान नक्षत्रो से ४ योजन ऊपर है । बुध से आगे शुक्र, वृहस्पति, मंगल और शनि ये क्रमश तीन तीन योजन ऊपर-२ हैं । राहु-केतु का स्थान चन्द्र-सूर्य से नीचे है । शेष ८१ ग्रहो का स्थान बुध और और शनि के अंतराल मे है । इसप्रकार ज्योतिष्क पटल इस धरातल से ७६० याजनो की दूरी से प्रारंभ होकर ६०० योजना पर्यंत स्थित है अर्थात् ऊपर ७६० योजनो बाद ११० योजनो तक ज्योतिष्को का सद्भाव पाया जाता है । और उन सबका तिर्यक् अवस्थान प्राय एक राजू प्रमाण त्रसनाली मे है । किन्तु इसमे इतना विशेष समझना कि जबूद्वीपस्थ मेरु के इर्दगिर्द ११२१ योजनो तक किसी भी ज्योतिष्क का सद्भाव नही है | बल्कि सूर्य चन्द्र तो हमेशा जबूद्वीप में मेरु से कम से कम ४४८२० योजन दूर रहकर ही घूमते है । जिस ज्योतिष्क की धरातल से जितनी ऊचाई बताई है वह धरातल से सदा उतना ही ऊचा रहता है जैसे सूर्य की ऊचाई पृथ्वी से ८०० योजन ऊपर बताई है तो वह उदयास्त के वक्त भी पृथ्वी से उतना ही ऊचा रहता है । दूर रहने की वजह से अपने को नीचा पृथ्वी से लगा हुआ दिखाई देता है । ऊपर सूर्य से चन्द्रमादि की जो ऊचाई बताई है उसने यह नही समझना कि चन्द्रमादि सूर्य की सीध मे परस्पर में इनकी समानगति नही है तो वे इतने ऊचे हैं । जब सदा एक सीध मे Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ कैसे रह सकते है ? कदाचित कोई कभी एक सीध मे भी आजाये तो आजाये पर इस सीध की अपेक्षा यहा एक से दूसरे की ऊचाई बताने की विवक्षा नहीं है। यहा तात्पर्य ऐसा समझना कि जो ज्योतिष्क आकाश की जिस सतह मे घूमता है यह सतह अमुक ज्योतिष्क से उतनी ऊची है। जैसे चन्द्रमा से ४ योजन ऊपर नक्षत्र बताये तो इसका अर्थ यह हुआ कि आकाश की जिस सतह मे नक्षत्र विचरते है वह सतह चन्द्रमा की विचरते की सतह से ४ योजन ऊपर है। यह ध्यान मे रखना कि जिनका स्थान जितनी ऊचाई पर बताया है वे सब आकाश मे उस स्थान मे एक ही सतह मे विचरते है। यह नियम है कि जिस द्वीप मे जितने चन्द्रमा होते हैं उनमे से प्रत्येक चन्द्रमा के साथ निम्नलिखित ज्योतिष्क भी अवश्य होते हैं । यह उसका परिवार कहलाता है '१ सूर्य, २७ नक्षत्र, ८८ ग्रह ओर ६६६७५ कोडाकोडी तारे" यहा कोडाकोडी से मतलब है ६६६७५ कोड को एक क्रोड से गुणा करने पर प्राप्त होने वालो सख्या। वह सख्या प्रचिलत के अनुसार ६६ सख, ६७ पद्म ५० नील होती है । जबूद्वीप मे २ चन्द्रमा होने से ज्योतिष्को की उक्त संख्या जबूद्वीप मे दूनी समझना चाहिये। जबूद्वीप मे जब कभी एक चन्द्रमा जहा अपने समस्त सूर्यादि परिवार के साथ, आकाश की गोलाई मे विद्यमान होगा, उसी वक्त आकाश की गोलाई मे सामने दूसरा चन्द्रमा भी अपने सूर्यादि परिवार के साथ विद्यमान रहेगा। जबूद्वीप मे जिस समय एक सूर्य अभ्यतर की प्रथम वीथी मे विचरेगा, उसी समय ठीक उसी के सामने दूसरा सूर्य भी उसी प्रथम वीथी मे (आकाश की गोलाई को वीथी कहते है) Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान ] [ 403 विचरेगा। उस वक्त दोनो सूर्यो के वीच 66640 योजनो का अतर रहेगा। वह इस तरह कि अभ्यतर की प्रथम वीथी जवूद्वीप की अतिम सीमा से 180 योजन भीतर है। अत दोनो तरफ का 180-180 मिताने पर 360 योजन हुए जिन्हे एक लाख योजन प्रमाण जबूद्वीप मे से कम करने पर 66640 योजनो की दूरी अभ्यतर की प्रथम वीथी स्थित दोनो पूर्यों के बीच जाननी चाहिये। ज्योतिष्को का आधार / __ ये पृथ्वी के पिंड स्वरूप ज्योतिष्क घनवात के आधार पर ठहरे हुये है। घनवात गाढी पवन का नाम है। अपने यहा जो पवन है वह तो पतली है जिसे ननुवात कहते है। किन्तु ज्यों ज्यो ऊपर को जाइये त्यो त्यो पवन मे गाढापन का अश बढता हुआ मिलेगा। प्रत्यक्ष मे देखते है कि-जब पतग नीचे को रहता है, तब तक वह गोत खाता रहता है यानी अधिक अस्थिर रहता है। वही ऊपर जाने पर स्थिर-सा हो जाता है। और जो घनवात है वह तनुवात पर ठहरी हुई है। तनुवात को आधार की जरूरत नहीं। ज्योतिष्को का गमन जैन शास्त्रो मे पृथ्वी का भ्रमण नही माना है। ज्योतिप्को का भ्रमण माना है / ये जम्बूद्वीप मे मेरुपर्वत के इर्द गिर्द मेरुसे 1121 योजन दूर रहकर गोलाकार घूमते हैं / मेरु से इतनी दूरी पर भी तारे ही घूमते हैं / सूर्य चन्द्रादि तो मेरु से कम से कम 44820 योजन दूर रहकर घूमते हैं। इनमे चन्द्रमा सबसे मदगति वाला है और सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, और तारे ये सब चन्द्रमा Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग 2 से उत्तरोत्तर शीघ्र गति वाले है। किन्तु ग्रहो मे राहु की गति चन्द्रमा से भी कभी-२ धीमी होती है। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है / यह एक अपवाद नियम है। वर्ना सबसे मद गति चन्द्रमा की है और सबसे तेज गति तारो की है। सग्रहणी सूत्र (श्वेताबर) मे कहा है कि "ग्रहो की गति परस्पर मे न्यूनाधिक है। बुध की गति सभी ग्रहो से मद है। बुध से शुक्र मगलवृहस्पति और शनि इनकी उत्तरोत्तर शीघ्रगति है / " चन्द्रमा, सूर्य और ग्रह ये आज जिस वीथी मे घूम रहे हैं कल वे दूसरी वीथी मे और परसो तीसरी मे, इस प्रकार नित्य ये अलग-२ वीथियो मे घूमा करते हैं। ऐसा भ्रमण अन्य ज्योतिष्को का नहीं है। जिस आकाशमार्ग मे गोलाकार घूमा जाता है / वह वीथी कहलाती है इसी को मडल भी कहते हैं / चन्द्र-सूर्य जव मेरु को बीच मे रखकर उसके इर्दगिर्द एक पूरा गोल चक्कर लगाते है तब वह एक मडल या एक वीथी होता है / फिर दूसरी दफे कुछ आगे बढ कर जब पूरा गोल चक्कर लगाते हैं तब वह दूसरा मडल होता है। इस प्रकार जितने मडल हैं वह उतनी ही बार मेरु के चक्कर लगाता है और कुछ-२ आगे बढता हुआ अगले 2 मडलो मे चलता है / जब वह अन्तिम मडल पर पहुँच जाता है तो उसी क्रम से वापिस फिर पीछे की ओर आते-२ पूर्ववत् उसी प्रथम मडल मे आ जाता है। सूर्य की गमन करने की कुल वीथिये (मडल) 184 है। और चन्द्रमा की 15 वीथिये है। सूर्य की प्रत्येक वीथी मे दो दो योजन का अतराल रहता है तथा चन्द्रमा की प्रत्येक वीथी मे 35 योजनो का अतराल रहता है। सूर्य की 65 वीथिये जम्बूद्वीप मे है और 116 लवण समुद्र मे हैं। तथा चन्द्रमा की Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान ] [ 405 5 वी थिये जंबूद्वीप मे है और 10 लवण समुद्र मे है। सूर्य चन्द्र की प्रथम वीथी जवूद्वीप की अन्तिम सीमा से 180 योजन भीतर हैं / और दोनो की आखिर की वीथी समुद्रतट से 330 योजन परे हैं / दोनो का दक्षिण उत्तर का गमन-क्षेत्र कुल 510 योजनो का होता है। यह गमन-क्षेत्र वीथियो की चौडाई और उनके अतरालो को जोडने पर निकलता है। प्रत्येक वीथी की चौडाई सूर्य-चन्द्र के विव प्रमाण है। इस गमन क्षेत्र मे इनके जाने आने को ही दक्षिणायन-उत्तरायन बोलते है। जबूढीप मे दो सूर्य और दो चन्द्रमा हैं। प्रत्येक वीथी मे दो सूर्य घमते है और दो चन्द्रमा घमते हैं। किन्तु चन्द्रमा की वीथी सूर्य की वीथीसे जुदी है / सूर्य से वह 80 योजन ऊपर को है और उसमे भी दो चन्द्रमा मते है प्रत्येक वीथी के घेरे मे एक सूर्य जहा से चलना शुरू करता है वहा तक आने मे उसे 60 मुहूर्त (2 अहोरात्र) लगते है। और इसी काम मे एक चन्द्रमा को 62 233 मुहूर्त लगते है। प्रत्येक अपनी-२ वीथी मे दो सूर्य और दो चन्द्रमा परिभ्रमण करतेहै और वे दोनो बिल्कुल आमने सामने रहकर भ्रमण करते है / जब एक सूर्य या एक चन्द्रमा चलता हुआ किसी एक वीथी के आधे घेरे को पूरा करता है तब हो शेष आधे घेरे को सामने का दूसरा सूर्य या चद्रमा चलकर पूरा कर देता है। जिस स्थान मे आज हम को जो सूर्य उदय होता दिखता है उस स्थान पर वही सर्य पुन' 60 मूहूर्त मे आवेगा किन्तु हमे 30 मुहूर्त मे ही आता हुआ नजर आता है वह सूर्य दूसरा है। जबूद्वीप मे दो सर्यो के उदयास्त की व्याख्या इस प्रकार है जवूद्वीप की एक लाख योजनो की चौडाई के 3 भाग किये जावें / जब अगल बगल के दो भागो मे आमने सामने के दो सूर्या से दिन रहता है तब उसी वक्त बिचले भाग मे पूर्व Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग 2 पनिम विदेह मे गत होती है। और विचले भाग में आमने गामने के दोनो मृगे पूर्व व पश्चिम विदेह मे दिन रहता है तब अगा वगन दोनो भागो में (जबूद्वीप के दक्षिण और उन भाग में) गन होती है। जब निपधपर्वत पर पूर्व दिशा में सूर्य उदय होना तब उग वक्त जगदीप के दक्षिण भाग में दिन हो जाता है / इमी दक्न मी मर्य का मामने वाला सूर्य नीन पर्वत पर पश्चिम दिशा मे उदय होकर उससे जवहीप के उत्तर भाग मे दिन हो जाता है। तब उस वक्त पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह में गमि हो जाती है। जब निपधगिरि के पूर्व जिरे पर उदग होने वाला मूर्य चतकर निपध के पश्चिम शिरे पर मा जाता है तब वह जगदीप के दक्षिण भाग के निये अस्त होकर बहा गान हो जाती है। और उमी मयं का उसी वक्त पश्चिम विदेह मे उदय माना जानार व्हा दिन हो जाता है। तथा इसी तरह जो दुमरा मयं नीलगिरि के पश्चिम शिरे पर उदय हुआ था वह चलकर जब नीलगिरि के पूर्वीय शिरे पर आता है तब वह जद्वीप के उत्तरीय भाग के लिये अस्त होकर वहा भी रात्रि हो जाती है। और उसी मर्य का उमी वक्त पूर्व विदेह मे उदय माना जाकर वहा दिन हो जाता है। यह ध्यान मे रखना कि ऐसा सम रामिदिन के वक्त होता है। पूर्व विदेह मे उदय होने वाला दूसरा मर्य जब नीलगिरि से चल कर निषध पर आता है तो वही दूसग सर्य भरतक्षेत्र मे दूसरे दिन उदय होता है। न कि पूर्व दिन मे भरतमे अस्त होने वाला सूर्य / वह तो भरत मे तीसरे दिन उदय होगा। क्योकि जिस दिन जो सूर्य भरत मे अस्त होता है उस दिन की रात्रि मे वह पश्चिम विदेह मे रहता है। उसके दूसरे दिन वह ऐरावत मे रहता है और दूसरे दिन की रात्रि मे वह पूर्व विदेह मे रहता है। वही सूर्य Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान ] [ 407 फिर तीसरे दिन भरत मे प्रकाश करता है। इसी रीति से ऐरावत क्षेत्र का मस्त हुआ सूर्य पून तीसरे दिन ऐरावत मे प्रकाश करता है / एक सूर्य आधे विदेह को ही प्रकाशित करता है / बीच मे पडे मेरु से विदेह के दो भाग माने जाते है। पूर्व दिशा की ओर के एक भाग को पूर्वविदेह और पश्चिम दिशा की ओर के भाग को पश्चिम विदेह कहते हैं। दोनो भागो मे दो सूर्य का प्रकाश रहता है। निषध और नील पर्वत के बीच मे विदेह क्षेत्र स्थित है। निषध से नील तक जाने मे सूर्य का उतना ही समय लगता है जितना निषध या नील के पूर्व शिरे से पश्चिम शिरे तक जाने मे लगता है। क्योकि जबूद्वीप के कुल 160 भागो मे से 64 भागो मे वीच का अकेला एक विदेह क्षेत्र है / और शेष 63-63 भागो मे दोनो तरफ के दक्षिण-उत्तर के सब कुलाचल और क्षेत्र है / तत्वार्थसत्र के श्री अकलकदेवकृत भाष्य मे मेरु को सव क्षेत्रो से उत्तर मे बताते हुये इस विषय मे निम्न प्रकार प्रतिपादन किया है “पूर्व विदेहे हि सविता नीलादुदेति, निषधेऽस्तमुपैति / तत्र प्राड नील , प्रत्यड निषध , अपाक् समुद्र मेरुरुदक् / अपरविदेहे तु निषधे उदय नीलेऽ स्तमय इति। तत्र प्राड निषध , प्रत्यड नील अपाक् समुद्र , उदड मेरु / उदक्कुरुषु गधमादनादुदयो माल्यवत्यस्तमय / तत्र गधमादन प्राक, माल्यवान् प्रत्यक्, नील अपाक्, मेरु उदक् / देवकुरुषु सोमनसादुदय , विद्युत्प्रभेऽस्तमय / तत्र सौमनस. प्राक्, विद्युत्प्रभः प्रत्यक्, निषधोऽपाक्, मेरुरुदगिति / " [अध्याय 3 सूत्र 10 की व्या ] Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग 2 अर्य-पूर्व विदेह मे सर्य नीलकुलाचल पर उदय होता है निपध पर अस्त होता है वहा पूर्व में नीलाचल है, पश्चिम में निपध है / दक्षिण मे समुद्र और उत्तर में मेरुह पश्चिम विदेहमे सूर्य निपध पर उदय होता है नील पर अस्त होता है। वहा पूर्व मे निपध है, पश्चिम मे नील है, दक्षिण मे समुद्र, और उत्तर में मेरु है। उत्तरकुरु मे गधमादन पर सूर्य उदय होता है. माल्यवान् पर अम्न होता है। वहा पर्व मे गधमादन है, पश्चिम मे माल्यवान है, दक्षिण में नील और उत्तर मे मेरु है। देवकुरु मे सूर्य मोमनम पर्वत पर उदय होता है, विद्युत्प्रभ पर अस्त होता है। वहा सोमनस पूर्व मे है, पश्चिम में विद्युत्प्रभ है, दक्षिण मे निराध और उत्तर में मेरु है। इस प्रकार सव स्थानों से मेरु उत्तर की तरफ रहता है / माल्यवान्, सोमनस, विद्य त्प्रभ, और गधमादन ये 4 गजदत पर्वतो के नाम है और इनका स्थान क्रमण मेरु की ईशानादि विदिशाओ मे है। गधमादन और माल्यवान् के बीच उत्तरकुरुक्षेत्र व सोमनस और विद्युत्प्रभ के वीच देवकुरु क्षेत्र है। लोकप्रकाश (श्वेतावर) ग्रन्थ के 18 वें सर्ग मे लिखा है कि - पूर्वापरविदेहेषु निशीथेऽहज्जनिर्यदा। भरतरावतक्षेत्र मध्याह्नः स्यात्तदा यतः॥२४४॥ अर्थ-पूर्वपश्चिम विदेहो मे अर्द्धरात्रि मे जव तीर्थंकर का जन्म होता है तब भरत ऐरावत क्षेत्र मे मध्याह्न होता है। ___सूर्य की गमन करने की कुल 184 वीथिये है। प्रत्येक वीथी मे दो योजन का अन्तराल है। कुल अन्तराल 183 हैं। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान ] [ 406 प्रत्येक वीथी मे दो सूर्य आमने सामने चलते हैं। किसी एक वीथी मे चलकर दूसरी वीथी मे आने मे दोनो सूर्यों को एक अहोरात्र (30 मुहूर्त) सम्मिलित काल लगता है / इस तरह एक अयनके 183 दिन होते हैं। दो अयनोके 366 दिनो का एक सूर्यवर्ष कहलाता है / अभ्यतर की प्रथम वीथी से लेकर ६३वी वीथी मे तिष्ठता सूर्य भरतक्षेत्र मे निषधपर्वत पर उदय होता दीखता है / ६४वी ६५वी वीथीयो मे तिष्ठता सूर्य हरिक्षेत्र पर उदय दिखता है और शेष 116 वीथियो मे तिष्ठता सूर्य भारतवासियो को लवणसमुद्र पर उदय होता दीखता है। प्रथम वीथी स्थित सूर्य निपधपर्वत के उत्तरतट से 14621 80 योजन ओलो तरफ (दक्षिण की ओर) आने पर भरतक्षेत्र के अयोध्यावासियो को उदय होता नजर आता है। और निषधपर्वत के दक्षिणतट से करीब 5575 योजन परे जाने पर अस्त होता नजर आता है। ये वोथिय ज्यो ज्यो दक्षिण से उत्तर को गई हैं त्यो त्यो ही वे गोलाई मे उत्तरोत्तर कम होती गई हैं। तथापि उन सब मे प्रत्येक को अपनी गति से पूर्ण करने मे एक सूर्य को 60 मुहूर्त से न अधिक समय लगता है न कम / ऐसा नियम है / अत. कहा जा सकता है कि सूर्य जब दक्षिण से उत्तर को आने लगता है तब उसकी चाल प्रत्येक वीथी मे क्रमश. धीमी होती जाती है और उत्तर से दक्षिण की ओर जाते वक्त उसकी चाल उत्तरोत्तर तेज होती जाती है। वीथियो मे सब से कम गोलाई वाली अभ्यतर की वीथी है / इसकी गोलाई 315086 योजनो की है। इसमे 60 का भाग देने से सूर्य की एक मुहूर्त की गति 525136 योजन प्रमाण निकलती है। इसको सवा से गुणा करने पर उतने प्रमाण सूर्य की एक घण्टे की गति होगी। यह गति सूर्य की अभ्यतर की प्रथम वीथी मे जाननी चाहिए। आगे की वीथियो Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 ] [* जैन निवन्ध रत्नावलो भाग 2 मे उत्तरोत्तर गति बढती जाती है। अतिम १८४वी वीथी की गोलाई 318314 योजनो की है और उसमे सूर्य की एक मुहूर्त की गति 530564 योजनो की होती है। चन्द्रमा की कुल 15 ही वोथियें है और प्रत्येक वीथी मे 35434 योजनो का अतराल है। ये वीथिये भी दक्षिण से उत्तर की तरफ ज्यो ज्यो आती गईहैं त्यो त्यो ही वे उत्तरोत्तर गोलाई मे कम होती आई हैं। चन्द्रमा की प्रथम वीथी और अतिम वीथी सूर्य की प्रथम वीथी और अन्तिम वीथी के ठीक 80 योजन ऊपर सीध मे हैं। इसलिये सूर्य की इन दो वीथियो की गोलाई जितने योजनो की बताई उतनी ही चन्द्रमा की भी इन दो वीथियो की समझनी चाहिये / चन्द्रमा प्रत्येक वीथी को चाहे वह कितनी भी छोटी बडी हो एक से दूसरी पर जाने मे उसे 6233 मुहूर्त लगते हैं कम अधिक नही। अत वह भी सूर्य की तरह दक्षिण से उत्तर मे आते वक्त उत्तरोत्तर मंदगति से और उत्तर से दक्षिण मे जाते हये उत्तरोत्तर तीव्रगति से गमन करता है। / यो तो जबूद्वीप मे सभी ज्योतिष्क गमनशील हैं किन्तु इसमे भी एक अपवाद है / इस द्वीप में कुछ (36) तारे ऐसे भी है जो गमन नहीं करते है। उन्हे ध्रुवतारे कहते है। (त्रिलोकसार गाथा 347) / / श्वे. तत्वार्थाधिगम भाष्य में लिखा है कि-ध्रुवतारा की गति मेरु की प्रदिक्षणा रूप से नहीं है। वह अपने ही स्थान पर घूमता रहता है / यथा-- "तस्यैव स्थाने स ध्र व परिभ्राम्यति न तु मेरो प्रादक्षिण्येन गति प्रतिपद्यते / तथाहि तदद्यापि ध्रुवताराचक्रमाक्रातोत्तरदिवक Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान ] [ ४११ परिवर्तमानमुपलभ्यते प्रत्यक्षप्रमाणेनैव ।" (४ थे अध्याय के १४ वे सूत्र का भाष्य) नक्षत्रो का गमन जिस प्रकार सूर्य चन्द्रमा एक दूसरी और दूसरी से तीसरी आदि वीथियो मे भ्रमण करते है उसी प्रकार नक्षत्र भ्रमण नही करते हैं। जिन नक्षत्रो की जो खास एक वीथी नियत है वे उसी मे सदा भ्रमण किया करते हैं ऐसी वीथिये सब नक्षत्रो की कुल ८ है । उनमे २ वीथी जवूद्वीप मे है और ६ लवण समुद्र मे ह । प्रथम वीथी से अतिम वीथी उत्तर दक्षिण मे ५१० योजन दूर है । नक्षत्रो की प्रथम वीथी चन्द्रमा की प्रथम वीथी के ऊपर हैं और ८वी वीथी चन्द्रमा की अतिम १५वी वीथी के ऊपर है। नक्षत्रो की शेष २ री से ७वी वीथी क्रम से चन्द्रमा की ३ री, सातवी, छठवी आठवी, दशवी, ११ वी वीथी के ऊपर है । नक्षत्रों की प्रथम वीथी मे १२ नक्षत्र घूमते हैं, उनके नाम अभिजित्, श्रवण, घनिष्ठा शतभिषा, पूर्वाभिषा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, स्वाति, पूर्वाफाल्गुणी, भरणी। तीसरी वोथी मे-मघा, पुनर्वसु ये २ नक्षत्र घूमते हैं। सातवी वोथी मे रोहिणी, चित्रा, ये २ नक्षत्र घूमते है, छठवी में कृत्तिका, आठवी मे विशाखा, दशवी मे अनुराधा, और ११वी में ज्येष्ठा सदा भ्रमण किया करता है । १५ वी वीथी से ८ नक्षत्र भ्रमण करते है उनके नाम हस्त, मूल,पूर्वाषाढ, उत्तराषाढ, मृगशीर्षा, आर्द्रा, पुष्य, और अश्लेषा । जो नक्षत्र जिस वीथी मे घूमता है वह अपनी Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] [ ★ जेन निवन्ध रत्नावली भाग २ चाल से उस वीथी को ५६६३६ मुहूर्तो मे पूर्ण कर लेता है अर्थात् पूरा एक चक्कर लगा लेता है । प्रकाश और अंधकार कोई कहते है - "सूर्य जब, मेरु की आड मे आ जाता है तब वह हमे अस्त होता नजर आता है और आड से निकलते वक्त उदय होता नजर आता है । परन्तु ऐसी जैन-मान्यता नहीं है । क्योकि मेरु उत्तर दिशा में है और सूर्य का उदयास्त पूर्व-पश्चिम दिशा मे होता है । दूसरी बात यह हैं कि मेरु की चोचाई जैनागम मे दस हजार योजनो से अधिक नही लिखी है । इसको तो सूर्य अपनी गति से करीब दो मुहूर्त से कम मे ही लाघ सकता है । ऐसी अवस्था मे मेरु की आड़ की बात बनती नही है । कोई कहते है - " पृथ्वी नारगी की तरह गोल है और सूर्य उसके नीचे ऊपर चक्कर लगाता है अत उसकी आड मे आने से सूर्य अस्त और आड से निकलने पर उदय होता है । जिससे उदयास्त के वक्त सूर्य पृथ्वी मे निकलता व उसमे प्रवेश होता नजर आता है । और इसी से उदयास्त के वक्त सूर्य का पाव आधा आदि हिस्सा भी दृष्टिगोगर होता है । एक दम पूरा मडल दिखाई नही देता है ।" किन्तु इस प्रकार की भी जैन मान्यता नही है, इसका कारण यह है कि - यद्यपि सूर्य पृथ्वी से आठ सौ योजन ऊचा है तथापि वह उदयास्त के वक्त हमसे बहुत दूर रहने के कारण पृथ्वी से लगा हुआ प्रतीत होता है भर दूर होने से पहले उसका आगे का भाग नजर आता है, बाद में फिर पिछला भाग भी दिखने लगता है उसी से हमको उस के पाव आध आदि हिस्सा दीखने का भ्रम हो जाता है । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान -] [ ४१३ • तथा हम यह भी सर्वथा नहीं कहते कि पृथ्वी विल्कुल दर्पण के समान सपाट ही है, उसमे भी कालादिवश से ऊचाई नीचाई हुई है। यह बात आचार्य श्री विद्यानन्द स्वामीने श्लोकवार्तिक के निम्न वाक्यो मे प्रगट की है "न च वय दर्पणसमतलामेव भूमि भापामहे प्रतीतिविरोधात् तस्या कालादिवशादुपचयापचयसिद्ध निम्नोन्नताकारसद्भावात्...... तत एव नोदयास्तमययो सूर्यादेविवार्द्ध दर्शन विरुध्यते । भूमिसलग्नतया वा सूर्यादिप्रतीतर्न सभाव्या, दूरादिभूमेश्तथाविधदर्शनजननशक्तिसद्भावात् ।" [अध्याय ४ सूत्र १३] अर्थ-हम जैन यह भी नही कहते कि दृश्वी दर्पण के समान समतल ही है । समतल कहना प्रतीति के विरुद्ध है। कालादि के वश से घटावढी होकर पृथ्वी मे ऊचानीचापन देखा जाता है। इसलिये उदयास्त के वक्त सूर्यादि का आधा विव दिखाई देने मे कोई आपत्ति नहीं है। और विपक्षी का यह कहना कि पृथ्वी नारंगीवत् गोल न होती तो उदयास्त के वक्त सूर्यादि का भूमि से लगा हुआ दृष्टि मे आना सभव नही था" उचित नही है । वैसा तो भूमि मे दूरी होने और दूर की चीज पृथ्वी से लगी हुई नजर आवे ऐसी नेत्रशक्ति होने से भी हो सकता है। इस प्रकार खासतौर से किसी पदार्थ की आड के कारण सूर्य का उदयास्त नही है। किन्तु समतल भूमि मे जहाँतक सूर्य का प्रकाश फैलता है। उसकी दूरी से सूर्य का उदयास्त समझना चाहिये । जब सूर्य अभ्यतर की प्रथम वीथी मे होता है तब उस का कुल प्रकाश पूर्व से पश्चिम मे ६४५२६ योजनो तक फैलता Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग ३ है उसमे से आधा आगे को और आधा पीछे को रहता है। यानी माधिक ४७२६३ योजनो की दूरी पर भरत क्षेत्र के अयोध्यावामियो को वह पूर्वदिशा से उदय होता नजर आता है, और इतनी ही दूरी पर वह पश्चिम मे अस्त होता नजर आता है। निपधाचलके जिस स्थान पर मूर्यका उद्यास्त होताहै वह स्थान भी अयोध्या से इतना ही दूर है। इसी अपेक्षा से भरतक्षेत्र के वास्ते सूर्य का उद्यास्त निपध पर्वत पर बताया है। इतना ही प्रकाश मामने के दूसरे सयं का रहता है। दोनों तरफ अतराल मे अधयार रहता है। ज्यो ज्यो सूर्य आगे चलता जायेगा उमका प्रकाण भी उसके साथ आगे २ बढता जावेगा और पीछे २ अधकार होता आवेगा। इस वीथी की परिधि ३१५०८६ योजनों की है। उनमे से आमने सामने के दोनो सयों का ताप १८६०५३४ योजनो का है। तथा एक तरफ के अतराल मे ६३०१७ योजनो का अधकार रहता है। दोनो तरफ के अधकार का प्रमाण १२६०२५३ योजनो का होता है। कुल ताप (प्रकाश) और तम (अधकार) की जोड ३१५०८६ योजनो की होती है सो ही अभ्य तर प्रथम वीथी की परिधि (घेरा) होती है। इस वीथी मे सूर्य के गमन करते समय जवूद्वीप मे प्रायः सर्वत्र १८ मुहूर्तों का दिन और १२ मुहूतों की रात्रि होती है। इस वीथी मे स्थित सूर्य का उत्तर दक्षिण ताप मेरु के मध्य से लेकर लवण समुद्र के ६वे भाग तक फंता रहता है। ऊपर को आताप एक सौ योजन और नीचे को १८०० योजन तक रहता है । यह वीथी मेरु के मध्य से ४६८२० योजनों की दूरी पर है। इस वीथी से ज्यो ज्यो उत्तर की तरफ जाइये त्यो त्यों ही आकाश प्रदेशो की गोलाई उत्तरोत्तर कम होती जायेगी और दक्षिण की तरफ गोलाई बढ़ती जायेगी। अत. जो ताप प्रथम वीथी स्थित सूर्य Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान ] [ ४१५ का प्रथम वीथी मे बताया है वह ताप भी उस वक्त उत्तर की तरफ के आकाश प्रदेशो की गोलाई मे उतना नहीं बताया है किन्तु उत्तरोत्तर घटता बताया है। और दक्षिण तरफ के आकाश प्रदेशोकी गोलाईमे उत्तरोत्तर बढता बताया है । इसका कारण शायद यह हो कि गोलाई का मोड जहाँ जहाँ कम दूरी पर हुआ है वहाँ वहां ताप कम फला है। और जहाँ जहाँ मोड अधिक दूरी पर हुआ है वहाँ वहाँ ताप अधिक फैला है। । और जब सूर्य अन्तिम बाह्यवीथी में विचरता है तब वहाँ दोनो तरफ के सूर्यो का ताप १२७३२५३योजनो का रहता है । और दोनो तरफ का अधकार १६०६८३योजन प्रमाण रहता है । प्रकारातर से यो समझिये कि प्रथम वीथी मे जब सूर्य विचरता हैं तब उस प्रथम वीथी को आदि लेकर सभी वीथियो की अपनी-अपनी परिधियो मे १० भागो मे से ६ भागो मे ताप रहता है और ४ भागो मे अधकार रहता है। तथा जब सूय अन्तिम बाह्य वीथी मे विचरता है तब उसमे और अन्य सभी वीथियो की परिधियो मे १० भागो मे से ४ भागो मे ताप व ६ भागो मे अधकार रहता है। मध्य की शेष वीथियो मे से जिस किसी वीथी मे सूर्य के विचरते वक्त अन्य सब वीथियो मे ताप प्रमाण कितना है ? यह जानने के लिये उन वीथो की परिधियो मे ६० का भाग देने पर जो लब्धि आवे उसको सूर्य के विचरने वाली वीथी के दिनमान के मुहतों से गुणा करने पर जो सख्या हो उतने योजनो का उनमे ताप प्रमाण समझना चाहिये । इससे प्रगट होता है कि आदिपथ से बाह्यपथ की ओर जाते समय सूय का स्वभावत ही ताप उत्तरोत्तर घटता जाता है और बाह्यपथ से अभ्यतर पथ की ओर आते समय ताप उत्तरोत्तर बढता हुआ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ जाता है । अन्तिम बाह्य वीथी मे सूर्य के विचरते वक्त प्राय जवूद्रोप मे दिनमान १२ मुहूर्त का और रात्रिमान १८ मुहूर्त का होता है। यह मबसे छोटा दिन और सबसे बडी रात-माघ मास मे होती है । तथा १८ मूहूर्त का वडा दिन ओर १२ मुहूर्त की छोटी रात श्रावण मास मे होती है । वैशाख और कार्तिक मे १५-१५ मुहूर्तो का समरात्रि दिन होता है । उस समय सूर्य मध्यम वीथी मे विचरता है । और उस समय सभी वीथियो मे ताप और तम का प्रमाण समान भागो मे रहता है । अभ्यतर की प्रथम वीथी से बाह्य की अन्तिम वीथी मे जाने मे सूर्य को १८३ दिन लगते हैं । इसी को दक्षिणायन कहते हैं । इससे उल्टे बाह्य मे अभ्यंतर मे आने मे उसी सूर्य को १८३ दिन लगते है । उसे उत्तरायण कहते है । दक्षिणायन मे क्रमश: दिन घटता है, और उत्तरायण में क्रमश. दिन वढता है । यह घटावढी ६ मुहूर्त तक होती है । १८३ दिनो मे ६ मुहूर्त की हानि - वृद्धि हो तो एक दिन में कितनी हो ऐसे त्रैराशिक करने से २ मुहूर्त का ६१ वा भाग प्रमाण काल की प्रतिदिन हानि-वृद्धि होगी । अर्थात ३०|| दिन मे १ मुहूर्त दिन घटे - वढेगा । यानी श्रावण मे १८ मुहूर्त का, भाद्रपद मे १७ मुहूत का आगे माघ मास तक प्रति मास एक एक मूहूर्त दिन घटना समझ लेना । इस प्रकार दक्षिणायन मे दिनमान घटता जाता है । इससे आगे उत्तरायण चलता है । उसमे श्रावण मास तक प्रतिमास इसी क्रम से दिनमान बढता जाता है । जैसे फाल्गुन मे १३ मुहूर्त का, चैत्र मे १४ का इत्यादि । प्राय. ३० मुहूर्त का अहोरात्र होता है । ऐसा नियम है इसलिये जब जितना दिनमान होगा तब ही शेष मुहूर्तो की रात्रि होगी । यहाँ हम यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि हमारे यहाँ दिन Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान ] [ ४१७ होगा तो विदेह क्षेत्र मे रात्रि होगी और विदेह मे रात्रि होगी तो हमारे यहा दिन होगा, किन्तु इसका अर्थ यह नही है कि - हमारे यहा सूर्यास्त होते ही विदेह मे सूर्योदय होने लग जाय या वहा सूर्योदय होते ही यहा सूर्यास्त होने लग जावे। ऐसा तो समरात्रि दिन के वक्त हो सकता है । विषम रात्रि दिन मे तो ऐसा नही हो सकता है । क्योकि जब १८ मुहूर्त का दिन और १२ मुहूर्त की रात्रि होती है तब भरत क्षेत्र मे सूर्यास्त होने के ३ मुहूर्त पहिले ही पश्चिम विदेह मे सूर्योदय हो जायेगा । और पूर्व विदेह मे सूर्यास्त के ३ मुहूर्त पूर्व ही भरत मे सूर्योदय हो जायेगा । मतलब कि उसवक्त भरत मे जो दिन का अन्तिम ३ मुहूर्तात्मक भाग है वही पश्चिम विदेह मे दिन का ३ मुहूर्तात्मक प्रारम्भिक भाग है। तथा पूर्व विदेह मे जो दिन का अतम ३ मुहूर्तात्मक भाग है वही भरत मे दिन का ३ मुहूर्तात्मक प्रारम्भिक भाग है । और जब १८ मुहूर्त का दिन होता है तब सूर्यास्त के तीन मुहूर्त बाद मे पश्चिम विदेह मे सूर्योदय होता है । और पूर्व विदेह मे सूर्यास्त के ३ मुहूर्त बाद मे भरत मे सूर्योदय होता है । कारण कि दिनमान और रात्रि मान मे जो काल का अन्तर है उसमे दिनमान जितना अधिक होगा उसका आधा समय पूर्वक्षेत्र मे सूर्यास्त का शेष रहते ही उत्तर ( अगले ) क्षेत्र मे सूर्योदय हो जायेगा । तथा जितना अधिक रात्रिमान होगा उसका आधा समय पूर्व क्षेत्र मे सूर्यास्त के बाद उत्तर क्षेत्र मे सूर्योदय होगा । शुक्ल- कृष्णपक्ष बढते जिम पखवाडे मे सूर्यास्त के बाद प्रतिरात्रि उत्तरोत्तर हुए एक एक मुहूर्त तक चन्द्रमा दिखाई देता है, और फिर Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग 2 अस्त हो जाता है वह शुक्लपक्ष कहलाता है। और जिस पखवाडे मे सूर्यास्त के बाद प्रतिरात्रि उत्तरोत्तर बढ़ते हुए एक एक मुहूतं तक चन्द्रमा का उदय नहीं होता बाद मे उदय होकर सारी रात्रि तक चन्द्रमा दिखता रहता है वह कृष्णपक्ष कहलाता है / ऐसा चन्द्रसूर्य की समानगति न होने के कारण से होता है / हमेशा चन्द्रमा सूर्य से धीमी गति चलता है। चलते २हर अमावस को चन्द्रसूर्य साथ हो जाते हैं। इसीलिये अमावम का पर्याय नाम सूर्येन्दुसगम भी है। उस दिन दोनों साथ-२ अम्त होते है। दूसरे दिन शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को चन्द्रमा अपनी चाल से सूर्य से इतना पीछे रह जाता है कि उस दिन जहां उसे अस्त होना है वहां वह सूर्यास्त के 1 मुहर्त वाद मे पहुंचता है इसलिये शुक्ल प्रतिपदा को सूर्यास्त के 1 मुहूर्त बाद तक चन्द्र दिखता रहता है। फिर अस्त हो जाता है। आगे द्वितीया को 2 मुहूर्त, तृतीयाको 3 मुहूर्त बढ़ते-बढते पूर्णिमाको मूर्यास्तके 15 महूर्त बाद तक चन्द्रदर्शन होता रहता है। समरात्रि दिनमे रात्रि 15 मुहूर्त की होती है। अत' तब पर्णिमा को सारी रात्रि मे चन्द्रमा की चांदनी रहती है। उस दिन जिस वक्त पश्चिम मे सूर्यास्त होता है उसी वक्त पूर्व दिशा मे चन्द्रमा अपने उदय स्थान मे आकर उदय हो जाता है। आगे कृष्ण प्रतिपदा को चन्द्रमा चाल मे इतना पीछे रह जाता है कि सूर्यास्त के मुहुर्त बाद मे चन्द्रमा अपने उदय स्थान पर आकर उदय होता है। इसीलिये कृष्ण प्रतिपदा को चन्द्रमा का उदय सूर्यास्त के 1 महत बाद होता है। आगे द्वितीया को 2 मुहूर्त बाद, तृतीया को 3 मुहुर्त बाद, इत्यादि प्रतिदिन एक एक मुहर्त बढते 2 चतुर्दशी को सूर्यास्त के 14 मुहूर्त बाद चन्द्रोदय होता है / आगे अमावस को सूर्यास्त के वक्त ही चन्द्रमा भी अपने अस्त स्थान पर पहुच कर अस्त होकर Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान ] [ 416 सूर्य चन्द्र दोनो साथ साथ हो जाते हैं। चकि चन्द्रमा को सूर्य से मदगति होने के कारण उस रात्रि के अत मे चन्द्रमा के अपने उदयस्थान पर पहुँचने के पहिले ही सूर्य आगे चलकर उदय हो जाता है इससे अमावस की सारी रात्रि मे चन्द्रदर्शन नहीं होता है। इस प्रकार यह सूर्य के निमित्त से कमज्यादा समय तक चन्द्रदर्शन होना जानना चाहिये / लेख के शुरू मे चन्द्रमा के छाटे बडे आकार का होना राहु के निमित्त से बताया है यह इन दोनो कथनो मे खास अतर समझना चाहिये / भूगोल-खगोल के विषय मे कुछ विशिष्ट ज्ञातव्य बाते हमने “जैन-निवध रत्नावली" पुस्तक मे भी ग्रथित की हैं-देखो पृ 284 पर "भरतरावत मे वृद्धि-ह्रास किसका है ?" शीर्षक निवध तथा पृ० 261 पर-"उपलब्ध जैन ग्रन्थो मे ज्योतिषचक्र की व्यवस्था' शीर्षक निबध / भारतीय वर्ष मास तिथि नक्षत्रादि की गणना सूर्य चन्द्र तारो की चाल पर आधारित है जब कि अन्य सभी की कैलेन्डर (Calander) पचाग पद्धति काल्पनिक है अत वह ऋतुओ से भी मेल नही खाती। प्रसगोपात्त भूभ्रमण के विषय मे भी कुछ समीक्षात्मक विचार नीचे प्रस्तुत किये जाते है - भू-भ्रमण मान्यता की सदोषता जैन-जैनेत्तर-पौर्वात्य एव पाश्चात्य सभी के धर्मग्रन्थो (आगम, पिटक, वेद, बाईविल, कुरान आदि) मे पृथ्वी को स्थिर और सूर्य को चर माना है किन्तु जब ज्योतिप और गणित पद्धतियो मे विकास का युग आया तब इस विषय मे तार्किक दृष्टि से ऊहापोह होने लगा। वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, श्रीधर, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ लल्ल, भास्कर तथा महावीर आदि प्रसिद्ध गणिताचार्य इम विपय मे धर्मग्रन्थो की मान्यता के ही समर्थन मे रहे पर इस बीच आर्यभट्ट (वि० स० ५३३ आदि) कुछ गणिताचार्यों ने पृथ्वी को चर बताया। भारतवर्ष मे वह युग भी इस विषय के खडनमडन का रहा। भू-स्थिर वादियो के जोरदार तर्क (प्रश्न) निम्नाकित थे - १-अगर पृथ्वी चल है तो पक्षी सुवह अपने घोसलो को छोडकर शाम वही वापिस कसे आ जाते है ? २-आकाश मे फेंके जाने वाले बाण विलीन क्यो नहीं हो जाते ? आकाश मे फेंकी गई वस्तु विषम-गति-शील और दिशान्त र क्यो नहीं हो जाती ३ पृथ्वी की गति का मद होना इसमे कारण माना जाय तो एक दिन-रात मे इस विस्तृत पृथ्वी का पूरा भ्रमण कैसे हो जायेगा? इसके विपरीत अगर पृथ्वी का तीव्र वेग से घूमना मानते हो तो इससे उस पर इतनी प्रचड वायु चलेगी कि जिससे महल, मकान, वृक्ष पर्वतादि की चोटिया, ध्वजाए आदि सब छिन्नभिन्न हो जायेंगे। अतः पृथ्वी का भ्रमण किसी भी तरह सिद्ध नही होता। ४-पृथ्यी समान रूप से गति करती हुई वर्ष भर मे सूर्य का एक पूरा चक्कर लगाती है तो ऋतुओ का परिवर्तन कैसे सभव है ? ५--अगर पृथ्वी चलती है तो ध्रुवतारा उत्तर की ओर Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान ] ४२१ 님 ही सदा एक स्थान पर ही क्यो दिखाई देता है ? पृथ्वी के साधारण: दैनिक भ्रमण से प्रतिदिन सूर्य पूर्व से पश्चिम मे जाता हुआ दिखता रहे और पृथ्वी के दैनिक वार्षिक भ्रमण मे भी ध्रुवतारा ज्यो का त्यो स्थिर खड़ा रहे यह कैसे मान जाय ? इन प्रश्नो और तर्कों का कोई समुचित उत्तर भू-भ्रमण वादियो के पास नही । इसके सवा भू - भ्रमण प्रत्यक्ष - बाधित भी है क्योकि सर्व देश काल मे सर्व प्राणियो को पृथ्वी की स्थिरता का ही अनुभव होता है । अनुमान से भी भू-भ्रमण का कोई निश्चय नही होता क्योकि उस प्रकार का कोई अविनाभावी हेतु नही देखा जाता । ( विशेष जानने के लिए - "पी० एल० ज्योग्राफी" ग्रन्थ द्रष्टव्य है ) । r इस भू-स्थिरता का सिद्धात सुदीर्घ काल तक मान्य और प्रचलित रहा किन्तु पाश्चात्य देशो में सर्वप्रथम १६ वी शती मे कोपरनिकस ने पृथ्वी को चर और सूर्य को स्थिर बताया । गेलिलिओ ने भी विभिन्न प्रमाणो से इसकी पुष्टि की किन्तु पोप लोगो ने इसे बाइबिल का अपमान बताया । परिणाम स्वरूप लिलिओ आदि को राजकीय दण्ड भोगने पडे । फिर भी यह मान्यता नये नये सिद्धातों की खोजो से उत्तरोत्तर बढती रही और पश्चिम को लाघकर यह पूर्व मे भी प्रचलित हो गई एव राज- मान्यता के साथ विद्यालयो मे पाठ्य विषय भी बन गई। - इस प्रकार भूभ्रमण का सिद्धात काफी लोकप्रिय हो गया और सूर्य भ्रमण का सिद्धात प्राचीन ग्रन्थो का विषय रह गया । फिर भी बहुत से ऐसे पाश्चात्य विचारक विद्वान् भी Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ होते रहे हैं जिन्होने भू-स्थिरता को ही मान्य किया है। हेनरी फास्टर ने सन् १६४८ मे एक लेख में लिखा है कि "विलियम एडगल ने ५० वर्षों के महान् प्रयत्न के वाद यह निर्णय प्रकट किया पृथ्वी थाली के समान चपटी है और इसके चारो ओर सूर्य भ्रमण करता है ।" इसी तरह जे० मेकडोनल्ड ने भी सन् १६४६ मे अपने विस्तृत लेख मे यह लिखा है कि सूर्य गति करता है । और जो यह मानते है कि - पृथ्वी अपनी धुरी पर १ हजार मील प्रति घण्टे की गति से गमन करती है वह हास्यास्पद है । आधुनिक वैज्ञानिको से अभी भू-स्थिरवदियो के पूर्वोक्त प्रश्नो का ही यथोचित समाधान नही हो रहा है कि - सापेक्षवाद सामने आ उपस्थित हुआ जिसके प्रस्तुतकर्ता इस २० वी ईस्वी सदी के विश्व प्रसिद्ध गणित्ज्ञ वैज्ञानिक आईंस्टीन है | उन्होने बताया है कि - " गति व स्थिति केवल सापेक्ष धर्म है । 'प्रकृति' कुछ ऐसी है कि किसी भी ग्रह - पिण्ड की वास्तविक गति किसी भी प्रयोग द्वारा निश्चित रूप से नही बताई जा सकती । पृथ्वी की अपेक्षा मे सूर्य चलता है या सूर्य की अपेक्षा मे पृथ्वी चलती है । दोनों सिद्धात अपनी अपनी जगह ठीक है फिर भी पहला सिद्धात कुछ जटिल है और दूसरा सिद्धात सरल है । इस तरह भू- भ्रमणवाद पर जो बल दिया जा रहा है वह सिर्फ सामान्य जनता की सुविधा की दृष्टि से है । अत यह सुविधावाद भी एक तरह से सापेक्षिक ही हैं । आइन्स्टीन के सापेक्षवाद ने वैज्ञानिक के एकान्ताग्रह को Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान ] [ ४२३ झकझोर दिया है और अब वे यह कहने को बाध्य हो गएहै कि सूर्य चलता है या पृथ्वी, यह विवाद महत्वहीन और निरर्थक है। दोनो मे से कुछ भी माना जा सकता है। कोई बाधा नहीं। प्रकृति अनंत धर्मात्मक होने से अति सूक्ष्म है अतः वास्तविकता का साक्षात्कार करना असभव-सा है। लेखक का समाधान खगोल के विषय मे वर्तमान विज्ञान या जेनेतर शास्त्रो की मान्यता गलत है या सही है इसको लेकर वह लेख नहीं लिखा गया है । जैन शास्त्रो मे इस विषय का वर्णन किस प्रकार से लिखा मिलता है यह दिखाने लो यह लेख लिखा गया है। यह बात मैंने उस लेखके प्रारम्भ मे ही प्रगट करदी है। इसलिए उस लेख मे अगर मैंने कही जैन शास्त्रों से विरुद्ध मनघडत, लिख दिण हो या कही अपनी बुद्धि की मदता से अंन शास्त्रो के वाक्यो का अर्थ यथार्थ न समझकर अन्यथा प्ररूपणा करदी हो, इस प्रकार की कोई बातें हो तो उसका उत्तरदायित्व मेरे ऊपर है और उसी का जबाब देना मेरा काम है। ऐसी सूरत में 'जैन खगोल टिशान की आलोचना" इस शीर्षक का लेख छपाना और उसमे उसके लेखक से जैन मान्यता को सिद्ध करने की मांग पेश करना अनधिकार चर्चा है और जिनवाणी को चुनौती देना है क्योंकि उसका विषेचन लेखक का नही जैन शास्त्रो का है। इसलिये समालोचक जी के लेख का उस्त शीर्षक अनुचित है। जैन मान्यता करे छोडिए इस विषय मे जेनेतर शास्त्र भी तो सबके सब एकमत नहीं है। समालोचक जी ने चन्द्रमा को सूर्य से नीचे माना है पर विष्णुपुराणमे ऊँचा माना है । भास्कराचार्य ने पृथ्वी को चलती मानी है, समालोचक Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ जी उसे स्थिर मानते हैं । विज्ञान की तो खगोल-भूगोल के विषय मे और भी भिन्न मान्यतायें हैं फिर भी सभी अपने-अपने ढग से सामजस्य वैठाते हैं । अस्तु । इम पृथ्वी से ज्योतिष्क कितनी दूरी पर है ? और वे आपस में एक से दूसरे क्तिने-कितने नीचे-कचे हैं ? उनकी अपनी लम्बाई चौडाई कितनी-कितनी है ? उनकी संख्या कितनी-कितनी है ? चन्द्रमा के घटबढ का क्या कारण है ? उनकी गति का हिमाव कैसे हैं ? इत्यादि वातें ऐसी हैं जिनको मही-सही रूप से समझना छद्मस्थ की बुद्धि से परे है। इस प्रकार के अतीदिय विषयो के लिए सिवा मागम प्रमाण के और कोई चारा नहीं है। अगर हम आगमो को धत्ता बताकर अपने तर्क के आधार पर ही सब कुछ मानें तो सुमेरूपर्वत व राम, रावण, कृष्ण नारायणादिका मानना भी छोडना पडेगा। इसलिए हमारे यहाँ यह आदेश दिया है कि-"आज्ञासिद्ध चतग्राह्य, नान्यथा वादिनी जिना.। ___ हा जो चीज प्रत्यक्ष से विरुद्ध पडती हो उसमे अगर कोई तर्क करे तो कर सकता है इसी खयाल से हमारे लेख के अन्तिम भाग में भू भ्रमण पर कुछ विचार पेश किये गये थे। बाकी वह लेख खडन-मडन की दृष्टि से नहीं लिखा गया है सिर्फ उममे स्वमत का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। समालोचक जी ने हमारे लेख की कुछ बातें प्रत्यक्ष विरुद्ध भी बतलाई हैं उनपर विचार नीचे प्रस्तुत है . . . हमारे लेखमे "चन्द्रमाको सूर्यादिसे मदगति वाला बताया और तारो की गति सबसे तेज बताई है। और ग्रहो की आपसी चाल मे वृहस्पति व शनि की चाल तेज बताई है ।" हमारे लेख के इस कथन Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन खगोल विज्ञान ] [ ४२५ "पर समालोचक जी ने यह आपत्ति की कि - आकाश मे उक्त ज्योतिष्को की चाल इससे विपरीत दृष्टिगोचर होती है । समालोचक जो का ऐसा लिखना ठीक नही है । जैन शास्त्रो मे वृहस्पति-शनिका स्थान ऊचाई मे सत्र ज्योतिषको से ऊपर माना है । इसलिए वे हमे दूर होने के कारण धीमे चलते नजर आते हैं । वैसे गति उनकी अन्यग्रहो से तेज ही है और जो हमने चन्द्रमा की गति सूर्यादि से धीमी लिखी वह भी ठीक ही लिखी है । प्रत्यक्ष देखते हैं कि अमावस के दिन सूर्यचन्द्र साथ 1 साथ मुस्त होकर साथ-साथ चलते हुये दूसरे दिन सूर्यास्त के वक्त चन्द्रमा सूर्य से पीछे रह जाता है, तभी वह सूर्यास्त के बाद कुछ समय 'T 1 रहने का यह अतर अगले- अगले 4 1 तक हमको दिखने लगता है । पीछे दिनो मे उत्तरोत्तर बढता जाता है। इससे साफ जाहिर होता है कि - चन्द्रमा की चाल सूर्य की चाल से धीमी होती है । जैन शास्त्री मे " एक राहु की विमान ऐसा माना है जो हमेशा चन्द्रमा के साथ- साथ "मीचे चलता है 1 किन्तु दोनो को गति समान नहीं है और राहु के विमान का वर्ण श्याम है इसलिए राहु की भांड मे जितना चन्द्रमा का अश आता रहता है उतनी ही चन्द्रमा की गोलाई मे कमी हमको दिखाई देती रहती है और ज्योज्यो चन्द्रमा राहु को आड से निकलता रहता है त्यो त्यो हो उसकी कलायें हमे बढती नजर आती रहती है । वस चन्द्रमा को घटाबढी का यही कारण है और बातें सब काल्पनिक हैं। इसका विशेष खुलासा हमारे लेख में किया है उसे देखें । 1 इसके प्रतिवाद मे समालोचक जी लिखते हैं कि चन्द्रमा की राह में नित्य कोई राहु होता तो प्रकाश शुद्ध नही मिल सकता । उसका घुधलापन दिखा करता । " ✓ " 1 चन्द्रमा का आकाश में उत्तर मे निबेदन है कि - राहु चन्द्रमा से नीचे चलता है । वह Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ 1 ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग ३ श्याम वर्ण का होने से उसकी आड मे जितना भाग चन्द्रमा का आत्ता : है उतना भाग हमें दिखाई नहीं देता है । जैसा कि हम ऊपर लिख आये है और जितना भाग चन्द्रमा का राहु की आड में नहीं रहता उतनें भाग का शुद्ध प्रकाश तो मिलता ही है यह प्रत्यक्ष सबके है ही और रात्रि में स्वच्छ आकाश मे जब आप थोडी कला वाले चन्द्रमा को कभी ध्यान से देखेंगे तो चन्द्रमा का जितना भांग राहु को बाड़ मे होता है ' उसका भी कुछ आभास होता ही है । प्रत्येक्ष कि प्रमाणम् 1 4 7 इस पर शंका होती है कि चन्द्रमा में स्वयं मे चमक नहीं वह सूर्य के प्रकाश से चमकता है तो अन्य ग्रह नक्षत्रादि किसके प्रकाश से चमकते हैं और स्वयं सूर्य भी किसके प्रकाश से चमकता है ? यदि सूर्य स्वयं प्रकाशवान है तो वैसा ही चन्द्रमा को क्यों न माना जावे और चन्द्रमा में प्रकाश सूर्य का दिया हुआ है तो चन्द्रमा को चांदनी शीतल क्यों है ? सूर्य का प्रकाश पाते ही कमल खिल उठते हैं ऐसा प्रकृति, का नियम है | मंगर चंद्रमा का प्रकाश सूर्य का दिया हुआ होता तो कमल मुद्रित भी नहीं होते और आपके लेखानुसार चंद्रमा जब सूर्य से नीचे चलता है तो सूर्य का प्रकाश चंद्रमा के ऊपरी हिस्से पर पडेगा न कि नीचे के हिस्से पर । तब हमको चंद्रमा के नीचे का हिस्सा प्रकाशवान् नही दिखना चाहिए था। ऐसी अटपटी बातें लिखने से क्या फायदा सीधी सी बात जो चंद्रमा के घटवढ की जैन शास्त्रो मे लिखी है वही स्वाभाविक मालूम पडती है । और भी राशि आदि की बातें व तीसरें वर्षं अधिक मास होना आदि सब जैन शास्त्रो मे लिखा है । आप त्रिलोकसार नामक जैन शास्त्र देखिएगा उसमे सब मिलेगा। इस तरह जैम खर्गोल (ज्योतिष्क) से भी पंचाग की सब बातें समीचीन ढंग से सिद्ध होती है । ⭑ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UO - छप्पन दिक्कुमारिये । आजकलके प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठा विधि मे जिन माता की सेवा ५६ दिक्कुमारियो द्वारा करवाते हैं। परन्तु कुमारियो की इस ५६ सख्या का उल्लेख दिगम्बर जैन परपरा मे तो न कहीकरणानुयोग, प्रथमानुयोग के ग्रन्थो मे देखने मे आया और न प्रतिष्ठा शास्त्रो में ही आया फिर न मालूम ये प्रतिष्ठाचार्य किस आधार पर ऐसा करते है ? भगवान की माता के गर्भ-शोधन का कार्य श्री ही आदि 'कुलांचलवासिनी देविये आकर करती हैं, ऐसा तो अनेक जैन शास्त्रो मे लिखा मिलता है और ये ही दिक्कुमारिये या दिक्कन्यायें कहलाती हैं । किन्तु उनकी तो सख्या सभी करणानुयोगी शास्त्रो मे छ बताई है, न कि छप्पन ? तथा तत्वार्थ राजवातिक, त्रिलोकसार, हरिवश पुराण आदि ग्रन्थो मे लिखा है कि - १३ वे रूचकद्वीप के मध्यमे बलयाकार रूचक नाम का पर्वत है, उसके कूटो पर निवास करने वाली देवियो का नियोग जिनमाता की सेवा करने का है । इनकी संख्या ४४ लिखी है। इन रूचकवासिनी देवियो द्वारा जिनमाता की सेवा का कथन पं० आशाधरजी ने और प० नेमिचन्द्र जी ने भी अपने २ प्रतिष्ठा शास्त्रो मे किया है। पार्श्वपुराण मे प० भूधरदासजी ने गर्भ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ __ अत भूधर मिश्र ने जो ५६ कुमारियें लिखी हैं वे मानने योग्य नहीं हैं। त्रिलोकमार गाथा ६४१ मे मानुपीत्तर पर्वत के १२ कूटों , परभी निवास करनेवाली दिक्कुमारिये बताईहैं । इनको उक्त ४४ - रूचकवासिनियो की संख्या में मिलाकर ५१ सख्या बना लेना भी उचित नहीं है । क्योकि ऐसा करने से कुलाचल वासिनी छ, प्रसिद्ध दिक्कुमारियां छूट जाती हैं और जई. को शामिल., करने पर ५६ के बजाय ६२ दिक्कुमारिय की संख्या बनती है , इस लिये खाली दिक्कुमारी नाम कर ही उन्हे ५६५ की सख्या मे शामिल करना योग्य नही है । यो तो त्रिलोकमार को गाथा ७५४ मे वक्षार पर्वतो पर भी दिक्कन्याओं का निवास बताया है । इस तरह सभी दिक्कुमारियो का नियोग जमाता की सेवा करने का मानने पर तो उनकी संख्या ५६से भी बहुत अधिक हो जायेगी इसलिये गणना मे उन्ही दैवियको लेना चाहिए जिनका नियोग जिनमाता की सेवा करने का शास्त्रो मे लिखा हो। प्रतिष्ठाशास्त्रोमे सर्वत्र श्री ह्री आदि ८ दिक्कुमारियों के नाम मिलते है। इनमे आदि के छ नाम तो शास्त्रोक्त है और अन्त के दो नाम कल्पित है। इन ८ नामो को यदि रूचकवासिनी देवियो की संख्या में मिला दिये जायें तब भी कुल संख्या ५२ ही वनती है, ५६ नहीं । हां, अगर दिक्कुमारियो के कल्पित नाम २ की बजाय ६ लिखे होते तो ५६ सख्या हो सकती थी, पगर ६ कल्पित नाम किसी प्रतिष्ठा शास्त्र मे देखने मे अभी तक आये नही। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छप्पन दिक्कुमारिये ] [ ४३१ इमलिए वर्तमान के प्रतिष्ठाचार्य जो दिक्कुमारियो की ५६ सख्या मानते हैं और आमन्त्रण पत्रिकाओ मे लिखते है, उनका कर्तव्य है कि वे किसी मान्य आगम प्रमाण से छप्पन सख्या को सिद्ध करे, ऐसी हमारी प्रार्थना है । वरना उन्हे भागामी अब ५६ सख्या का उल्लेख नही करना चाहिये । - - - Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ द्रव्यसंग्रह का कर्त्ता कौन ? 41 " श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैनग्रन्थमाला वाराणसी से इन दिनो द्रव्यसग्रह नामक ग्रन्थ पुराणे पण्डित जयचन्दजी कृत भाषावचनिका और भाषा पद्यो सहित प्रगट हुआ है। सपादक जी ने इसके सम्पादन मे बहुत परिश्रम करके इसको सब तरह से उपयोगी बनाया है । उक्त वचनिका और भाषा पद्यो का यह प्रकाशन पहिली बार ही हुआ है । इसके पूर्व नहीं हुआ । साथ मे लघुद्रव्यसंग्रह भी छपा है । सम्पादकजी ने इस पर ४० पृष्ठों की प्रस्तावना लिखकर ग्रन्थ ग्रन्थकार और ग्रन्थ के संस्कृत टीकाकार ब्रह्मदेव व भाषा वचनिकाकार के विषय में अच्छी विचार सामग्री प्रस्तुत की है । उसमे अन्य २ बार्तो के अलावा आपने यह भी व्यक्त किया है कि इस द्रव्यसंग्रह के कर्त्ता वे प्रसिद्ध नेमिचन्द्र नही हैं जिन्होंने गोम्मटसार- त्रिलोक सारादि ग्रन्थो की रचना की है। किन्तु ये कोई दूसरे ही नेमिचन्द्र हैं जो उनसे उत्तरकाल मे हुए हैं। इस बात को सिद्ध करने के लिए आपने बहुत लिखा है । फिरभी हम उसे अतिम निर्णय माननेकौ तैयार नही है । अब भी उसके विरुद्ध काफी लिखे जाने की गुञ्जाइश है । इस सम्बन्ध मे आपने जो दलीले दी हैं उन्हे हम हमारी समीक्षा के साथ नीचे लिखते हैं ( दलील न० १) द्रव्य संग्रहकार मे द्रव्यसंग्रह की प्रशस्ति Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यसंग्रह का कर्त्ता कौन ? ] [ ४३३ मे अपने को तनुसूत्रधर लिखा है और उसके टीकाकार ब्रह्मदेव ने उनका उल्लेख सिद्धान्तदेव के नाम से किया है । त्रिलोकसारआदिके कर्त्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्री थे । न वे तनुसूत्रधर थे और न सिद्धातदेव इस तरह से दोनो नेमिचन्द्र एक नही, भिन्न- २ थे । (समीक्षा) द्रव्यसग्रह की तरह त्रिलोकसार की प्रशस्ति में भी ग्रन्थकार ने अपने को अल्पसूत्र का धारी बताया है । इतना ही नही और भी कथन त्रिलोकसार के कर्त्ता ने यहाँ प्राय द्रव्य' सग्रह की भांति ही किया है। दोनो के वाक्यो को देखिये 14 T ――― इदि मिचन्दमुणिणा अप्पसुदेण महणदिक्च्छंण । रइयो तिलोयसारो खमंतु त बहुसुदा इरिया ||१०१८ || [त्रिलोकसार] दध्वसंग हेमिण मुणिणाहा दोससचयचुदा सुदपुण्णा । सोधयतु तणुसुत्तधरेण णमिचन्दमुणिणा भणिय जं ॥ ५८ ॥ [ द्रव्यसंग्रह] नेमिचन्दमुणि, सुदपुण्ण बहुसुदा, तणुसुत्तधर- अप्पसुद । ये शब्द दोनो मे समानार्थक है । द्रव्य संग्रह मे नेमिचन्द्र मुनि ने अपने को अल्पशास्त्र का धारी बताकर पूर्ण श्रुतज्ञा नियोसे अपनी कृति को शोधने की प्रार्थना की है। यही आशय त्रिलोकसार मे भी व्यक्त करते हुए लिखा है कि अत्पश्रुति होते हुए भी नेमिचन्द्र मुनि ने त्रिलोकसार ग्रन्थ रचा इस ढीठता के लिये बहुश्रुति आचार्य उसे क्षमा करें। इस समान कथन से यही प्रतिभासित होता है कि दोनो के कर्ता एक ही व्यक्ति हैं । ( रही सिद्धातचक्री और सिद्धातदेव की बात सो त्रिलोकसार के Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] [ ★ । जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ गोम्मटेश्वर की प्रतिष्ठा का समय कल्कि स. ६०० लिखा है। प्रोफेसर प० हीरालालजी ने जैन शिलालेखसग्रह प्रथम भाग की प्रस्तावना मे कल्कि सं० ६०० को विक्रम स० १०८६ सिद्ध किया है । बाहुबलि मूर्ति की स्थापना चामुण्डराय ने की थी उस वक्त उनके गुरु नेमिचन्द्र जो मौजूद थे हो। इसके अलावा मुद्रित चारित्रसार खुले पत्र पृ० २२ मे चामुण्डराय ने अमित गति श्रावकाचार का "उपेत्याक्षाणि सर्वाणि · ..." श्लोक उद्धत. किया है वह श्लोक उसके १२वें परिच्छेद का ११६वा है। अमितिगति का अस्तित्व विक्रम की ११वीं शताब्दि के उत्तराद्ध तक है। उनके श्लोक उद्ध त करने से चामुण्डराय नेमिचन्द्र का समय राजा भोज के वक्त तक पहुंच जाता है। इतिहास में राजाभोज का राज्यकाल वि० स० १०७५ से १११० तक का माना है। ब्रह्मदेव ने राजा भोज के समय मे ही द्रव्यसग्रह का रचा जाना बताया है। इससे गोम्मटसार के कर्ता और द्रव्यसग्रह के कर्ता एक ही नेमिचन्द्र प्रतीत होते हैं। भिन्न २ नहीं। आप द्रव्यसग्रह के कर्ता नेमिचन्द्र का समय वि० स० ११२५ बताते है । परन्तु जब ब्रह्मदेव के कथनानुसार द्रव्यसग्रह राजाभोज के समय मे बना है और भोज का समय वि० स० १११० के बाद नहीं है तो आपका स० ११२५ का समय बताना सगत हो सकता है? साथ ही आपका द्रव्यसग्रहकार नेमिचन्द्र को वसुनन्दि श्रावकाचार के कर्ता का गुरु बताना भी ठीक नही है। क्योकि वि० सं० ११०० में होने वाले जिन नयनन्दी को आप वसुनन्दी के दादागुरु मानकर उनके आधार पर नेभिचन्द्र का समय वि० स० ११२५ कल्पना करते है वह आधार ही गलत है। गलत इसलिये है कि उक्त नयनन्दी अपने बनाये अपभ्र श Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यसग्रह का कर्ता कौन ? ] [ ४३७ के सुदर्शनचरित मे अपने गुरु का नाम माणिक्यनन्दी लिखते है। जब कि वसुनन्दि ने अपने श्रावकाचार की प्रशस्ति मे नयनन्दी के गुरु का नाम श्रीनन्दि लिखा है। इस सम्बन्ध मे अपने विचार हमने जैन निवन्ध रत्नावली के पृष्ठ ४१३ मे लिखे है उस स्थल को आप देखे । । आपका यह लिखना कि-"ब्रह्मदेव ने द्रव्यसग्रह अधिकार २ के प्रारम्भ मे वसुनन्दि श्रावकाचार की न० २:-२४ की २ गाथाये उद्धत करके उनकी वे उसी प्रकार से व्याख्या करते है जिम प्रकार से कि उन्होने द्रव्यसग्रह की गाथाओ की है। अत' वसुनन्दी के गुरु नेमिचन्द्रजी द्रव्यसग्रह के कर्ता होने चाहिये।" यह सव वेतुकी कल्पना है। उन दो गाथाओ मे से “परिणामिजीवमुत्त" यह एक गाथा तो मूलाचार षडावश्यक अधिकार की गाथा न० ४८वी है, और दूसरी गाथा अलबत्ता वसुनन्दि कृत हो सकती है । जा गाथा मूलाचार की है उसकी व्याख्या पचास्तिकाय पृ० ५६ मे जयसेन ने भी उसी तरह कर रक्खी है जैसी कि ब्रह्मदेव ने की है। दोनो टीकाकारो का गद्य वरावर एक समान मिल रहा है। जिसे देखकर आशका होती है कि दोनो मे से किसने किस का अनुसरण किया है। यहाँ * यह कोई नियम नही है कि किसी उक्त च गाथा की भी साथ मे व्याख्या करने से उस गाथाकार के गुरु ही विवक्षित (व्याख्यकृत) ग्रन्थ के कर्ता हो अगर ऐसा माना जायगा तो जयसेन ने अनेक ग्रथो की टीकामो मे कुछ उक्तञ्च गाथाओ की भी साथ व्याख्या कर दी है तो क्या टीकाकृत अथ उक्त च गाथाकार के गुरु की कृतियाँ हो । जायेंगे ? अगर नही तो ऐसा नियम बनाना ठीक नही, देखिये Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ ब्रह्मदेव ने वसुनन्दो की जिन दो गाथाओ को लेकर उनकी जितनी और जैसी व्याख्या द्रव्यसग्रह मे की है। वैसी ही और उतनी ही व्याख्या जयसेन ने पचास्तिकाय मे मूलाचारवाली एक ही गाथा उद्ध, त करके की है। इससे स्पष्टत• यही प्रतिभासित होता है कि इस स्थल मे अगर जयसेन ने ब्रह्मदेव का अनुसरण किया होता तो वे भी दोनो गाथाओ को देकर उनकी व्याख्या करते पर जयसेन ने ऐसा नहीं किया। उन्होने तो सिर्फ एक मूलाचारवाली गाथा ही की व्याख्या की है। और ब्रह्मदेव ने दोनो गाथाओ को उद्ध त करके उनकी व्याख्या की है। इससे यह भी प्रगट होता है कि-जयसेन ने जिस एक गाथा की व्याख्या की है उसे उन्होने मूलाचार से ली है न कि वसुनन्दी श्रावकाचार से और ब्रह्मदेव ने जिन दो गाथाओ की व्याख्या की है उन गाथाओ को उन्होने वसुनन्दिप्रावकाचार से ली है। , जयसेन और ब्रह्मदेव इन दोनो की टीकाओ मे अन्य भी कई एक स्थल समानता को लिये हये है उनमे से पचास्तिकाय गाथा २७ की टीका (पृ० ६१) मे "इदानी मतार्थ कथ्यते" ऐसा लिखकर “वच्छक्खर" गाथा उद्ध त करते हुये १० पक्तिये गद्य मेलिखी हैं जिनमे चार्वाक, भट्टचार्वाक, साख्य, बौद्ध, मीमासक 卐 उदाहरणार्थ देखिये : जयसेन कृत टीका'- ब्रह्मदेवकृत टीका - पचास्तिकाय गाथा २३ परमात्मप्रकाश दोहा १४७ पचास्तिकाय गाथा १५२ परमात्मप्रकाश दोहा १५६ पचास्तिकाय गाथा १४६ । द्रव्यसग्रह गाथा ५७ पचाम्तिकाय गाथा २७ द्रव्यसग्रह गाथा ३ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यसंग्रह का कर्त्ता कौन ? ] [ ४३६ मताश्रित शिष्यो को समझाया है और फिर ११वी पक्ति मे "इतिमतार्थो ज्ञातव्य " लिखकर इस प्रकरण को समाप्त किया है । इसी विषय का ब्रह्मदेव ने द्रव्यसंग्रह की गाथा ३ की टीका मे वर्णन करते हुए सिर्फ वही "वच्छक्खर" गाथा उद्धृत करके और केवल चार्वाक मतानुसारी शिष्य को ही समझाने का दो एक लाइन मे कथन करके बाकी कथन जयसेन की टीका वाला छोड़ दिया है इससे यही ध्वनित होता है कि ब्रह्मदेव ने जयसेन का अनुसरण किया है । जब जयसेन ने यहा १० लाइने अपनी बुद्धि से गद्य मे बनाकर लिखी हैं तो उसमे की एक दो लाइने ही वे ब्रह्मदेव की क्यो लेगे ? उन्हे क्या वे नही बना सकते थे ? इस ऊहापोह से ब्रह्मदेव जयमेन से उत्तरकालवर्ती सिद्ध होते हैं । ऐसी हालत मे जयसेन ने पचास्तिकाय की टीका पृ० ६ में द्रव्य संग्रह की रचना मे सोमश्रेष्ठी का जो निमित्त लिखा है, वह जानकारी जयसेन को ब्रह्मदेव कृत द्रव्य संग्रह की टीका से मिली हो ऐसा नही समझना चाहिये । किन्तु जयसेन को यह जानकारी ब्रह्मदेव से पहिले ही किसी अन्य स्रोत से मिली हुई थी । प्रवचनसार अधिकार २ की गाथा ४६ की जयसेन कृत टीका के वाक्य पद्मप्रभ मलधरी ने नियमसार गाथा ३२ की टीका मे उद्धृत किये है । अत जयसेन पद्मप्रभ से पहिले हुये है । पद्मप्रभ वि० स० १३वी सदी के पूर्वार्द्ध मे हुए है । और जयसेन ने पचास्तिकाय गाथा २ की टीका मे वीरनन्दी कृत आचारसार का चौथे अध्याय का एक पद्य " येनाज्ञानतम उद्धृत किया है । अत ये जयसेन वीरनन्दि के बाद हये है । वीरनन्दि ने आचारसार की स्वोपज्ञ कनड़ी टीका वि० स० 71 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ १२१० मे बनाई है। इन सब उल्लेखो के आधार पर जयसेन का समय वि० स० १२०० करीब का सिद्ध होता है और ब्रह्मदेव का इनसे वाद का | wha इतिहास का वही खोजी तथ्य तक पहुँच सकता है जो तटस्थ होकर पक्षपात और आग्रह को न रखता हुआ समय २ पर मिलने वाले साधक-बाधक प्रमाणीके अनुसार अपने विचारो को बदलता रहता हो । अन्त मे माननीय सम्पादक जी सा० से हमारा सविनय " अनुरोध है कि इस विषय मे आपने जो अपने विचार द्रव्यसंग्रह की प्रस्तावना मे व्यक्त किये है उन पर शान्ति से पुनः मनन करने का कष्ट करे । प्रस्तावना पृ० ४८ मे "आन इष्ट को ध्यान अयोगि, अपने चलन शुभ जोगि " पद्य का अर्थ - " इसे उन्होंने अपना इष्ट और शुभोदय समझा " ऐसा दिया है किन्तु सही अर्थ इस प्रकार होना चाहिए - अन्य इष्ट का ध्यान विचार अयोग्य है अपने इप्ट के यहाँ चलना ही शुभ और योग्य है । 'लघुद्रव्य संग्रह' मे मुद्रण की गलतियो के अलावा भी कुछ पाठ अशुद्ध है जिनके शुद्ध रूप इस प्रकार है : अशुद्ध पृष्ठ ६० सखादासखादा शुद्ध - सखासखाणता अशुद्ध - पृष्ठ ६२ ठाण साहूण शुद्ध- ताण साहूण अशुद्ध- पृष्ठ ६२ गणिणा शुद्ध - मुणिणा Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रष्यसंग्रह का कर्ता कौन ? ] [ ४४१ अशुद्ध-पृष्ठ 'अवत्त' का अर्थ "अव्यक्त" शुद्ध-"अव्यक्त" निम्नाकित गलत छपे है शुद्ध इस प्रकार हैअशुद्ध-पृष्ठ ५८ पुठवी शुद्ध-पुढवी अशुद्ध--पृष्ठ ६२ पज्जयणायेण शुद्ध-पज्जयणयेण Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ हवनकुण्ड और अग्नित्रय दि. जैन धर्म के ज्ञात साहित्य में इस विषय का संक्षिप्त कथन सबसे पहिले आचार्य जिनसेनकृत आदिपुराण में पाया जाता है यही नहीं और भी क्रिया-कांडो के विषय पर सबसे पहिले लेखनी चलाने वाले दिगम्बर ऋषियों में उक्त जिनसेल का ही आभास होता है। दूसरे इनके बाद क्रियाकाड पर और भी विस्तृत लिखने वाले पं० आशाघर जी नजर आते हैं । किन्तु इस विपय मे दोनो का दृष्टिकोण भिन्न २ प्रतीत होता है। आचार्य जिनसेन ने इस विपय मे जो कुछ विधान प्रस्तुत किये है उनमे उन्होने जैनधर्म को मूल सस्कृति की सुरक्षा का पूरा २ ध्यान रक्खा है कि जब कि आशाधर जी द्वारा निरूपित विधिविधानो मे कहीं २ यह चीज नही पाई जाती है। आशाधर जी के विधि-विधानो मे लौकिक मान्यताओ और श्वेतांवरी मान्यताओ का बहुत कुछ उपयोग किये जाने की वजह से यह विसंगति खडी हुई है। उदाहरण के तौर पर इसके लिये जैनसन्देश-शोधाक १० मे तथा जैन निवन्ध रत्नावली प्रथमभाग पू० ६० मे प्रकाशित हमारा नवग्रह वाला लेख देखियेगा। आशाधर जी के बाद इन्द्रनन्दि, हस्तिमल्ल, एकसन्धि आदि ने तो इस विषय को और भी वृद्धिगत किया है जिसमे इन्होने आशाधर जी का अनुसरण करने के साथ ही ब्राह्मणमत की कई मई क्रियाओ का भी समावेश किया है। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवनकुण्ड और अग्नित्रय । [ ४४३ ____ आशाधर जी द्वारा रचित इस प्रकार के साहित्य में हवन के विषय का कोई प्रकरण हमारे देखने मे नही आया है। यह तो नहीं कह सकते कि उन्हें हवन क्रिया अभीष्ट ही नही थी क्योकि वे अपने प्रतिष्ठासारोद्धार के प्रथम अध्याय मे ऐसा लिखते है दातृसंघ नपादीनां, शांत्य स्नात्वा समाहिताः । शातिमंत्रजपं होम, कुर्य रिद्रा दिने दिने ॥१४०॥ अर्थ -दाता, सघ और राजा आदि की सुख शाति के लिये वे इन्द्र (याजक) स्नान करके निराकुल चित्त से शान्ति मत्रों के द्वारा प्रतिदिन जप होम किया करें। इस विषय का वर्णन आदि पुराण मे हमारे देखने मे निम्न प्रकार आया है। पर्व ३८ के श्लोक ७१ से ७३ तक मे लिखा है कि "जिन प्रतिमा के सामने तीन पूण्याग्नियो के साथ छत्रत्रय सहित चनत्रय स्थापन करने चाहिये। अहंत, गणधर और शेष केवलियो के निर्वाण समय जो तीन अग्नियाँ जलाई गई थी वे यहा सिद्ध प्रतिमा की वेदी के समीप सस्कारित करनी चाहिये अर्थात् मत्र पूर्वक जलानी चाहिये। उन अग्नियो मे महत्पूजा मे बचे पवित्र द्रव्यो से मन्त्र पूर्वक आहुतिये देनी चाहिये।". • आदिपुराण पर्व ४७ श्लोक ३४७-३४८ मे तीर्थंकर कुण्ड के दाहिनी ओर गणधर कुण्ड व बाई गोर सामान्य केवलिकुण्ड की स्थापना लिखी है सामान्य केवलियो की अग्नि का नाम दक्षिणाग्नि है Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ तथा पर्व ४० के श्लोक ८२ से ८४ मे लिखा है कि"क्रियाओ के प्रारम्भ मे उत्तम हिजो को रत्नत्रय के सकरूप से अग्निकुमार देवों के इन्द्र के मुकुट से उत्पन्न हुई तीन प्रकार की अग्नियाँ जलानी चाहिये। ये अग्नियाँ तीर्थंकर, गणधर और शेप के वतियो के निर्वाण महोत्सव मे पूजा का अग होकर पवित्र मानी गई है। गार्हपत्य आहवनीय, और दक्षिणाग्नि नाम से प्रसिद्ध ये तीनो महाग्नियाँ तीनो कुण्डो मे जलाने योग्य हैं ।" इस विषय मे उत्तर पुराण मे भी कुछ ज्ञातव्य अश हैं इसके लिए देखो ज्ञानपीठ प्रकाशन पृ० २५८ । बस इतना ही कथन महापुराण मे हमारे नजर मे आया है इस सक्षिप्त वर्णन से यह नही जाना जाता कि अग्नि कुण्डो का आकार, उनका प्रमाण क्या रहे इत्यादि बातो का खुलासा नही होता है । इस विषय को प्रतिष्ठा ग्रन्थो मे टटोला गया तो आशाधर कृत प्रतिष्ठापाठ मे तो केवल हवन का उल्लेख मात्र है विशेष कुछ लिखा नही है जैसा कि इस लेख मे ऊपर हम बता आये है | आशाधर के बाद कई प्रतिष्ठा ग्रन्थ बने उनमें से आखिरी 1 उसका स्थान आदिपुराण मे वाई और लिखा है तब इसका नाम दक्षिणाग्नि क्यो है ? शायद यह नाम हवन करने वाले के दक्षिण की ओर वह अग्नि होने के कारण से हो। और आदिपुराण मे उसका स्थान बाई ओर वहाँ स्थित प्रतिमा की अपेक्षा कहा हो आदिपुराण मे ऋषभदेव के निर्वाण महोत्सव के प्रकरण मे भी इस विषय का कथन आया है Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवनकुण्ड और अग्नित्रय ] [ ४४५ प्रतिष्ठा ग्रन्थ नेमिचन्द्र कृत प्रतिष्ठानिलक है ऐसा हमारा ख्याल है। यह प्रतिष्ठा तिलक विस्तृत भी लिखा गया है। प्रारम्भ मे ही इसके कर्ता ने साफ लिख दिया है कि इसका निर्माण इन्द्रनन्दि आदि को साहितामो के आधार पर किया गया है और यह वात इस प्रतिष्ठा नन्थ के अध्ययन से भी जाहिर होती है कि इसमे यत्र-तत्र आशाधर, इन्द्रनन्दि, एकसन्धि के कम्नो का काफी उपयोग किया है। उसके कर्ता नेमिचन्द्र ने जो प्रशस्ति दी है उससे इनके समय पर काफी प्रकाश पडता है। प्रशस्ति के अनुसार ये हस्तिमल्ल की कोई ११वी पीढी मे हये है। हस्तिमल्ल का समय १४वी सदी है मत इनका समय १६वी ही नहीं १७वी शताब्दि भी हो सकता है। समय की दृष्टि से यह प्रतिष्ठा ग्रन्य बहुत वाद का लिखा हुआ है इमलिये इसमे वे सभी विधिविधान पाये जा सकते हैं जिन्हे आशाधर के बाद इस विषय मे जुदे-जुदे ग्रन्थकारो ने बढाये है। - इस प्रतिष्ठातिलक के ३ रे परिच्छेद मे हवन कुण्ट और उनमे को अग्नियो का विवरण निम्न प्रकार पाया जाता है . "जैसे प्रतिमा के आश्रय से जिन मन्दिर पूजा जाता है वैसे ही तीर्थंकरो के सम्बन्ध से पूजनीय ऐसी गार्हपत्य अग्नि के आश्रय से जो पूजा के योग्य हुआ है ऐसे चोकोर कुण्ड को हम पूजते हैं ॥२८॥ सर्व गणधरो के सम्बन्ध से पूजनीय ऐमी आहवनीय अग्नि के आश्रय से जो पूजा के योग्य हआ है ऐसे त्रिकोण कुण्ड को हम पूजते है ॥२६॥ केवलियो के निर्वाणोत्सव मे देवेन्द्रो ने जिमकी पूजा रची है ऐसी दक्षिण दिशा की दक्षिणाग्नि का स्थान होने से जो द्विजो के पूजने योग्य हुआ है ऐसे उस गोलकुण्ड को मै जलादि से पूजता हू ॥३०॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ इस विवेचन का फलितार्थ यह हआ कि तीर्थंकरो के निर्वाण समय मे उनकी दग्धक्रिया मे जो अग्नि प्रज्वलित हुई उसका नान गार्हपत्य है और वह चोकोर कुण्ड मे जलाई जानी चाहिये। तथा इसी प्रकार गणधरो की अग्नि का नाम आहवनाय है और वह त्रिकोण कुण्ड मे जलानी चाहिये । एवं सामान्य के वलियो की अग्नि का नाम दक्षिणाग्नि है और वह गोलकुण्ड मे जलानी चाहिये व इसका स्थान तीन अग्नियो मे दक्षिण की ओर रहना चाहिये। किन्तु ब्र० शीतलप्रसाद जी ने अपने बनाये प्रतिष्ठा ग्रथ मे गोल कुण्ड की जगह अर्द्धचन्द्राकार कुण्ड का कथन किया है। ऐसा ही कथन इन्होने गृहस्थधर्म और जैन शब्दार्णव पुस्तक मे भी किया है । पता नही ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसाद जी ने ऐसा कथन किस आधार पर किया है इन्होने प्रतिष्ठा ग्रन्थ का निर्माण तो अधिकाश रूप से जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के अनुसार किया है । परन्तु जयसेन प्रतिष्ठा पाठ मे भी गोल कुण्ड लिखा है न कि अर्द्धचन्द्राकार। इसी प्रकार मुद्रित सभी जैन विवाह पद्धतियो मे प्राय गणधरकुण्ड को गोल और केवलिकुण्ड को त्रिकोण लिखा है। जबकि प्रतिष्ठा ग्रन्थो मे गणधर कुण्ड को त्रिकोण और केवलिकुण्ड को गोल लिखा है। जैन विवाह पद्धतियो का आधार ५० फतहचन्द जी जयपुर निवासी कृत विवाह पद्धति रहा है। प० फतहचन्द जी ने इसे विक्रम स० १६३३ मे लिखी थी। इसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास है उसमे भी गणधर कुण्ड को गोल और केवलिकुण्ड को त्रिकोण लिखा है। सम्भव है यह गलती प्रारम्भ मे किसी लिपिकार के द्वारा भूल से उलट पलट नकल Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवनकुण्ड और अग्नित्रय ] [ ४४७ करने के कारण हो गई हो और फिर उसी गलत नकल की परंपरा चल पडी हो। खेद इस बात का है कि यह गलती अवतक भी की जारही है जो क्रिया काडी विद्वानो की घोर अज्ञता की सूचक है । सच तो यह है कि पिछले कई वर्षों से प्रतिष्ठा का कार्य कुछ ऐसे नामधारी प्रतिष्ठाचार्यों के हाथो आ पडा है जिन्होंने न तो प्रतिष्ठा विधिका ज्ञान किसी प्रामाणिक गुरु परिपाटी से प्राप्त किया है और न उन्होने स्वय इस विषय के अनेक संस्कृत ग्रन्यो का गम्भीर अध्ययन कर ही कुछ तथ्य प्राप्त किये है । इन नाम के प्रतिष्ठाचार्यों में से कुछ तो ऐसे भी थे जिन्हे संस्कृत भाषा का बोध ही नहीं था । ऐसो ही की कृपा से इदानी प्राय. सदोप प्रतिष्ठा विधि प्रचार मे आ रही है। हमारा एक प्रतिष्ठा मे जाने का काम पडा वहा हमने प्रतिष्ठाचार्य जी को हवन विधि कराते यह देखा कि "कोई वोसो दपति गठ जोडो मे बधे हुये कितने ही अग्नि कुण्डो मे आहुतिये दे रहे हैं" हवन करने वालोके साथ-साथ उनकी स्त्रियाँ भी हवन करे ऐसा किसी प्रतिष्ठा शास्त्र के अनुसार कहा तक सुसगत है यह विचारणीय है ऊपर उद्धत आशाधर के श्लोक मै तो हवन के लिये इन्द्रो का ही उल्लेख किया है इन्द्राणियो का नही । हवन करने वालो की वढी हुई सख्या के लिये तीन अग्निकुण्ड पर्याप्त न होने से बहुत से अग्निकुण्ड बनाना यह भी विचारणीय ही है । हा यह तो पढने मे आया है कि कही तीन अग्निकुण्ड की जगह एक चौकोर तीर्थकर कुण्ड से ही काम किया जा सकता है। विचार करने से वात दरअसल यह पाई गई कि इस तरह की अनर्गल प्रवृति प्रतिष्ठाचार्यो की लोभवासना से है। ये Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ लोग इन दपतियो के गठजोडो मे कुछ नकदी रुपये रखा कर उन सबको ले लेते है। फिर इन्ही की देखा देखी निर्लोभी प्रतिष्ठाचार्य भी हवन मे स्त्रियों को बैठाने लग गये। हालाकि उन्हे गठजोडो मे रुपैये रखाने या लेने से कोई सरोकार नही है। इस तरह यह अशास्त्रीय प्रवृत्ति चल पड़ी है । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार का संस्कृत पद्यानुवाद हमारे यहां मुनियो के आचार विषय का प्राकृत गाथाचद्ध एक मूलाचार नामक प्राचीन ग्रन्थ चला आत्ता है । जो चट्टकेराचार्य का बनाया हुआ है । जिसको आजकल के ऐतिहासिक विद्वान कुन्दकुन्दाचार्यकृत भी वत्तलाते हैं । इस ग्रन्थ पर सस्कृत मे वसनन्टिकृत एक बडो अच्छी टीका है। टीका सहित यह ग्रन्थ माणिकचन्द ग्रन्थमाला मे छप चुका है। दिगम्बर सम्प्रदाय मे यतियो के आचार विषय का प्रतिपादक यह एक ऐसा ग्रंथ है जो प्राचीन और उच्चकोटि का माना जाता है । इस विषय के उपलब्ध ग्रन्थो मे समय की दृष्टि से दूसरा नम्बर सस्कृत' आचारसार का है। इसका समय विक्रम की १३ वी शताब्दी का प्रथम चरण अनुमान किया जाता है। किन्तु १३वी शताब्दी के अन्तिम चरण में होने वाले प० आशाधरजी ने अनगारधर्मामृत की स्वोपज्ञ टीका मे इस आचारसार का एक भी पद्य उद्धृत नही किया है। तीसरा ग्रन्थ १० आशाधर जी का रचा अनगारधर्मामृत है। प० आशाधरजी ने इस ग्रन्थ की स्त्रोपज्ञ टीका मे मूलाचार की गाथाओ का खूब उपयोग किया है । कही २ मूलाचार की उक्त सस्कृत टीका के भी उद्धरण दिये हैं। साथ ही टीका मे सस्कृत के बहुत से ऐसे पद्य भी उद्धत किये हैं जो ऐसे मालूम पडते हैं जैसे वे मूलाचार की प्राकृत Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___४५० ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ गाथाओका ही सस्कृत मे भावानुवाद हो । इस लेख में नीचे हम इसी की चर्चा करेंगे। मूलाचार की गाथाओ के छाया रूप मे जो सस्कृत पद्य अनगारधर्मामृत की टीका मे उद्धत हुये हैं। उनमे से कुछ पद्य नमूने के तौर पर हम यहाँ पेश करते है पुढवी य बालुगा सक्करा य उवले सिला य लोणे य । अय तब तय सीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य ||६|| हरिदाले हिंगुलये मणेसिला सस्सगजण पवाले य । अब्भपडलब्भवालय बादरकाया मणिविधीया ॥१०॥ मूलाचार ५ वो अधिकार] मृत्तिका बालुका चैव शर्करा चोपल: शिला। लवणायस्तथा ताम्र त्रयु सीसकमेव च ॥ रूप्यं सुवर्ण वज्र च हरिताल च हिंगुलम् । मन. शिला तथा तुत्थ भजन च प्रवालकम् ।। झीरोलकाभ्रक चैव मणिभेदाश्च वादरा । [अनगारधर्मामृत पृष्ठ १६६] इंगाल जाल अच्ची मुम्मुर सुद्धागणी य अगणीय । ते जाणः तेउजीवा जाणित्तापरिहरेदव्वा ।।१४।। मूलाचार ५ वां अधि०] ज्वालागारस्तथाचिश्च मुर्मुर. शुद्ध एव च । ' अनलश्चापि ते तेजो जीवा. रक्ष्यास्तथैव च ।। [अनगारधर्म०, पृ० २०० रादो दु पमज्जित्ता पण्णसमण पेक्विंदम्मि ओगासे । आसक विसुद्धीए अपहत्थग फासण कुज्जा ॥१२६।। मुलाचार ५ वा अघि Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाचार का संस्कृत पद्यानुवाद ] [ ४५१ रात्रौ च तत्यजेत्स्थाने प्रज्ञाश्रमणवीक्षिते । कुर्वन् शकानिरासायापहस्त स्पर्शन मुनि ।। [अनगारधर्मा० पृ० ३१८] उग्गम उप्पादण रासण च सजोजण पमाण च । इंगाल धूम कारण अट्ठविहा पिंडसुद्धी दु ॥२॥ [मूलाचार अधिकार ६] उद्गमोत्पादनाहार सयोग' सप्रमाणक । अगारघूमौ हेतुश्च पिंडशुद्धिमताष्टधा ।। [अनगारधर्मा० पृ० ३३५] अप्पासुयेणमिस्स पायदव्व तु पूदिकम्म त । चुल्ली उक्खलि दव्वी भायणगत्ति पचविह ॥६॥ [मूलाचार अधि०६] मिश्रमप्रासुनाप्रासुद्रव्य पूतिकमिष्यते । चुल्लिको दुखलं दर्वी पात्र गधौ च पचधा ॥ अनगारधर्मा० पृ० ३३६] इत्यादि बहुत से समानार्थक पद्य हैं उन सबका ही यदि यहा उल्लेख किया जावे तो लेख बहुत विस्तृत हो जावेगा अत. नीचे हम उनकी केवल तालिका ही देते हैं मूलाचार अनगारधर्मामृत अधिकार गाथा पृष्ठ ११-१२ ""१६६ १६-१७ ૧૨૭ ته له - Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ""३२२ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ २-६-७ ""३२१ ६-१० "३२३ १७-१८ .."३४१ १३-१४ १५-१७ "३४२ ""३४३ १८ १६ से २१ २८ से ३० ""३४८ ३१ ३३-३२ "३५० ""३५६ "३४४, ३४५ ४८-५४ ४ से प्र ५७-७२ ""३५५ ""३५६ "३५७ ३७० ""३७१ ""४७५, ६७-६८ १४७ १५४ ."४८२. "५२१ ""५७४ ""५७६ १६२ से १६५ ८३ से १६ १०१ ११६ १२८ १२६ से १३३ १३७-१२८ ....५७८ ."५८२ ""५८१ ..."५६० Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ५६१ " ५६५. • १६६ मूलाचार का नरबत पद्यानुवाद ] [ ४५.३ १५०-१४१ १४३ से १४६ .'५६२ १५३ ५६३ १५६ "५६४ १६०-१६१ १६२ से १५ १६७ ."५७ १५८ १६६ "५६८ १८७ .. ६२५ १६०-१६१ ""६.६ यहाँ जो पृष्ठ पम्या दी गई है वह माणिकचन्द्र ग्रन्चमाला में छपे अनगारधर्मामृत की है। इस प्रकार मूलाचार को उक्त ८६ गाथायें ऐमी है जिनके अनुवाद रूप से मस्कृत पद्य अनगारधर्मामृत को टोका मे उद्धत हुये है। ऐमा म लम पडता है कि-किमी ग्रन्थकार के द्वारा सस्कृत पद्यो मे सारे ही मूलाचार का भावानुवाद किया गया है। उमी के ये उद्धरण आशाधरजी ने दिये हैं। किन्तु सेद इस बात का है कि आशाधरजी ने इतने उद्धरणो मे काही मी न तो ग्रन्थकार का उल्लेख पिया और न ग्रन्थ के नाम फा हो । आशाधरजी से पूर्व रचित इस अन्य का शास्त्र भण्डारो में पता लगाना चाहिये। यह ग्रन्थ 'मी एक तरह से मूलाचार को सस्कृत पद्यमय टीका हो है। ग्रन्थ पठनीय और बड़ा उपयोगी जान पड़ता है। जहा तक मभावना है यह अन्य आचार्य अमितगति का होना चाहिये । अमितगति ने प्राकृत पचसग्रह और भगवती आराधना इन दो ग्रथो की गाथामो (आर्या छदो) का सस्कृत अनुष्टुप् श्लोको मे अनुवाद Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ . किया है (जो मुद्रित हो गये हैं) और यह अनुवाद भी मूलाचार की गाथाओ का मस्कृत अनुष्टपश्लोको मे एकमी शैली मे ही है अत अमितगति कत ही जात होता है। इसे एक तरह से "सस्कृत मूलाचार" कहना चाहिये। वहत सी हस्तलिलित प्रतियो मे मूलाचार को यत्याचार नाम से भी लिखा है, अतः इस नाम से भी शास्त्र भण्डारो मे इस सस्कृत रुपान्तर ग्रथ की खोज होनी चाहिये। आशाधरजी ने जो इसके उद्धरणो मे अमितगति का नाम नही दिया मा उन्होंने धर्मामृत ग्रथ की टीका मे अमितगति के अनेक ग्रथो के उद्धरण दिये है पर कही भी अमितगति का नाम नहीं दिया है अत' इन उद्धरणो मे भी ऐसा ही किया गया है। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० + परकाया प्रवेश, एक सत्य घटना उक्त शीर्षक का लेख, मथुरा से प्रकाशित होने वाली " अखण्ड ज्योति " पत्रिका के मई सन् १९७० के अक मे प्रकट हुआ है 1 वह यहाँ साभार उद्धत किया जाता है 'मन् १६३६ की घटना है । एक दिन पश्चिमी कमान के सैनिक कमाण्डेन्ट श्री एल० पी० फैरेल अपने सहायक अधिकारियो के साथ एक युद्ध सम्बन्धी योजना तैयार कर रहे थे । वहाँ उनका कैप लगा हुआ था । यह स्थान आसाम वर्मा की # सीमा पर था। वही पास मे एक नदी बहती थी । एकाएक वहाँ स्थित फैरेल आदि कुछ लोगो का ध्यान नदी की ओर चला गया। वे क्या देखते हैं कि- एक महा जीर्णशीर्ण शरीर का वृद्ध सन्यासी पानी मे घुसा एक शव को वाहर खीच रहा है । कमजोर शरीर होने से शव ढोने मे उसे अडचन हो रही थी । हांफता जाता था और खीचता भी । बडी कठनाई से शव किनारे आ पाया । C prash श्री फैरेल यद्यपि अँग्रेज थे पर अपनी बाल्यावस्था से ही आध्यात्मिक विषयो मे रुचि रखते थे । भारतवर्ष मे एक उच्च सैनिक अफसर नियुक्त होने के बाद तो उनके जीवन मे एक नया मोड आया । भारतीय तत्व दर्शन का उन्होने गहरा Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ अध्ययन ही नही किया बल्कि जिनकी भी जानकारी मिली उन , सिद्ध महात्माओके पासजा जाकर अपनी जिज्ञासाओका समाधान , भी करते रहे। धीरे २ उनका परलोक, पुनर्जन्म, कर्मफल और आत्मा की अमरता पर विश्वास हो चला था। यह घटना तो उनके जीवन मे अप्रत्याशित ही थी। और उसने उनके उक्त विश्वास को निष्ठा मे बदल दिया। एक वृद्ध सन्यासी शव को क्यों खीच रहा है ? इस रहस्य को जानने की अभिलाषा रखते हुये सब लोग एक टक देखने लगे कि-वृद्ध सन्यासी इस शव का क्या करता है ? __वह सन्यासी उस शव को खीच कर एक वृक्ष की आड मे ले गया। फिर थोडी देर तक सन्नाटा छाया रहा। कुछ पता नहीं चला कि वह क्या कर रहा है ? कोई १५-२० मिनट पीछे ही दिखाई दिया कि वह युवक जो अभी शव के रूप मे नदी मे बहता चला आ रहा था उन्ही गीले कपडो को पहिने वृक्ष की आड मे से बाहर निकल आया और कपड़े उतारने लगा। सम्भवत वह उन्हे सुखाना चाहता होगा। मृत व्यक्ति का एकाएक जीवित हो जाना एक महान आश्चर्य जनक घटना थी और एक बड़ा भारी रहस्य भी। जो श्री फरेलके मन मे कौतुहल भी उत्पन्न कर रहा था और आशका भी । फरेल के आदेश से उसी दम कुछ सशस्त्र सैनिको ने जाकर युवक को पकड लाकर श्री फरेल के सुपुर्द कर दिया। युवक के वहाँ आते ही श्री परेल ने प्रश्न किया-"वह वृद्ध कहाँ है ?" इस पर युवक हँसा जैसे इस गिरफ्तारी आदि का उसके मन पर कोई प्रभाव ही न पडा हो। और फिर बोला "वह वृद्ध - मे ही हू।" Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकाया प्रवेश, एक सत्य घटना ] [ ४५७ लेकिन अभी कुछ देर पहिले तो तुम शव थे, पानी मे बह रहे थे, एक बुड्ढा तुम्हे पानी मे से खीचकर किनारे पर ले गया या फिर तुम प्रकट हो गये यह रहस्य क्या है ? यदि तुम्ही वह वृद्ध हो तो उस वृद्ध का शरीर कहाँ है ? युवक ने सन्तोष के साथ बताया कि हम योगी हैं । हमारा स्थूल शरीर वृद्ध हो गया था, काम नही देता था । अभी इस पृथ्वी पर रहने की हमारी आकाक्षा तृप्त नही हुई थी । किसी को मारकर बलात् शरीर मे प्रवेश करना तो पाप होता इसलिये बहुत दिन से इस प्रतीक्षा मे था कि कोई अच्छा शव मिले तो उसमे अपना यह पुराना चोला बदल ले । सौभाग्य से यह इच्छा आज पूरी हुई । मैं ही वह वृद्ध हू । यह शरीर पहिले उस युवक का था अव मेरा है । इस पर फैरेल ने प्रश्न किया तब फिर तुम्हारा पहला शरीर कहाँ है ? सकेत से उस युवक शरीर मे प्रवेश धारी सन्यासी ने बताया - वह वहां पेड के पीछे अब मृत अवस्था मे पडा है । अब उसकी कोई उपयोगिता नही रही। थोडी देर बाद उसका अग्निस्कार कर देने का विचार था पर अभी तो इस शरीर के कपडे भी मैं नही मुखा पाया था कि आपके इन सैनिको ने मुझे चन्दी बना लिया | श्री फैरेल ने इसके बाद उस संन्यासी से बहुत सारी बातें हिंदू-दर्शन के बारे मे पूछी और बहुत प्रभावित हुए। वे यह भी जानना चाहते थे कि -स्थूल शरीर के अणु २ मे व्याप्त प्रकाश शरीर (चैतन्य) के अणुओ को किस प्रकार समेटा जा सकता है ? किस प्रकार शरीर से बाहर निकाला और दूसरे शरीर मे Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अयं-जिन्होने इस पचमकाल मे गिरनार पर्वत के शिखर पर स्थित पापाण की बनी सरस्वती देवी को उसके मुह से बुलवाई, वे कुन्दकुन्दचार्य हमारी रक्षा करें। इससे ध्वनित होता है कि ऋषि कुन्दकुन्द को भी परकाया प्रवेश की सिद्धि थी। ऐसी सम्भावना की जा सकती है। आदिपुगण पर्व २१ श्लोक ६५ मे आचार्य जिनसेन ने कहा है कि "जिनकी इन्द्रिया वश मे नही हैं ऐसे असमर्थ साधुओ का मन यदि अति तीव्र प्राणायाम से व्याकुल होता है तो उनके लिये ध्यान मे मन्दमन्द उच्छवास लेने का निषेध नही है।" इससे यही फलितार्थ निकलता है कि जैन साधुओ के लिये अगर प्राणायाम का निषेध है तो वह असमर्थो के लिये है। साधुमात्र के लिये सर्वथा निषेध नही है। इस लेख के प्रारम्भ मे जो घटना उद्धत की है उसमें चोला बदलने की- वृद्ध से युवा हो जाने की बात आई है। उस पर से कोई यह न समझले कि ऐसा करते २ तो वह कभी मरेगा ही नही ? यह तो जैन सिद्धान्त के विरुद्ध है। समाधान उसका यह है कि-यौगिक क्रिया से चोला बदलने वाला भी जितनी आयु पूर्व भव से लेकर आया है उससे अधिक जीवित नहीं रह सकता है। चोला बदलते वक्त जितनी आयु शेष रही है उतने काल तक ही उस बदले हुये शरीरो मे वह रह सकता है अधिक नहीं। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ नंदीश्वर द्वीप में ५२ जिनालय प्रत्येक वर्ष मे तीन बार आष्टाह्निक पर्व आता है। इसको जैन शास्त्रो मे "महापर्व" माना है। और इस अनाद्यनिधन महापर्व का बडा माहात्म्य वर्णन किया है, (आदिपुराण पर्व ३८ एलोक ३२–आप्टाह्निको मह सार्वजनिको रूढ एव स. 1 धवला पुस्तक १ पृष्ठ २६ जिन महिम सबद्ध कालोऽपि मगलं यथा-नदीश्वर दिवसादि। तिलोयपण्णत्ती अधिकार १ गाथा २६ जिण महिमा सम्बन्ध णदीसर दीव पहुदीओ।) जैनधर्म की बहुत सी प्राचीन कथाओ मे इस पर्व का उल्लेख मिलता है । कथा ग्रन्थो के अलावा करणानुयोगी ग्रन्थो मे भी कथन आता है कि इस धार्मिक पर्व मे देवगण भी नदीश्वर द्वीप मे जाकर वहा के अकृत्रिम ५२ जिनालयो मे बडी भक्तिभाव से भगवान् अहंत की आठ दिन तक पूजास्तुति करते हैं। इन ५२ जिनालयो का स्थान कहा पर फिस तरह है ? और उनकी ५२ सख्या किस प्रकार होती है । इस विषय मे साधारण जन तो क्या ‘पण्डित' कहलाने वाले भी भूल करते दिखाई देते हैं। इसलिये इच्छा हुई कि इस सम्बन्ध मे यथार्थ परिज्ञान कराया जाये। जवूद्वीप से ८ वे नदीश्वर द्वीप के ठीक बीच मे पूर्व दिशा Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ मे इंद्रनील मणिका एक 'अजन' नामक पर्वत है। यह पर्वत ८४ हजार योजनका ऊचा और इतनाही चौडा गोल है। यानी समवृत्त कहिये नीचे से ऊपर तक बरावर गोल है। जिसकी नीव एक हजार योजन की है। इस पर्वत के ऊपर और तलहटी मे विचित्र वनखड है। इस पर्वत की तलहटी मे पर्वत की चारो दिशाओ मे पर्वत से एक लाख योजन की दूरी पर चार जलपूर्ण वापिकाये है। ये वापिकाये एक लाख योजन की लम्बी चौडी समचौकोर है और एक हजार योजन की ऊची हैं। इनके जल मे जलचर जीव नहीं हैं। फूले हये कमलादिको से वहा का जल संगधित रहता है । प्रत्येक वापिका की पूर्वादिक चारो दिशाओ मे क्रम से अशोकवन, सप्तच्छदवन, चपकवन और आम्रवन ये चार वन है। ये वन एक-एक लाख योजन के लम्बे आध-आध लाख योजन के चौडे हैं । जिस वन का जो नाम है उसी नाम का उसमे एक-एक चैत्यवृक्ष होता है। उत्त चारो वापिकाओ मे वीचोबीच दही के समान सफेद रग का एक-एक दधिमुख पर्वत है । ये चारो पर्वत दश २ हजार योजन के ऊचे, इतने ही चौड़े समवृत्त खडे ढोल की तरह के गोल है। इनकी नीव एक-एक हजार योजन की है। इनके ऊपर विविध वन है। इन्ही वापिकाओ मे प्रत्येक वापी के जो चार कोणे हैं उनमे दो कोणे तो भीतर अजनगिरी की तरफ है । और दो कोणे बाहर की तरफ हैं। बाहर की तरफ के प्रत्येक कोणे के निकट एक-एक रतिकर पर्वत हैं। चारो वापिका सम्बन्धी बाहर के ८ कोणों के निकट ८ रतिकर पर्वत समझते। ये रतिकर सोने के रंग के है। प्रत्येक की ऊचाई एक हजार योजन की है, इतनी Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६३ ही इनकी चौडाई है । अढाई सौ योजन की नीव है । ये भी सब समवृत्त हैं और इन पर भी वन खड हैं । 1, नंदीश्वर द्वीप मे ५२ जिनालय ] इस प्रकार एक अजनगिरि, चार दधिमुख और आठ रतिकर इन पर्वत पर मध्य मे उत्तम एक-एक रत्नमय जिन मन्दिर स्थित है। ये नदीश्वर द्वीप के पूर्वादिशावर्ती १३ जिनालय हुये। इसी तरह तेरह २ जिन मन्दिर नदीश्वरद्वीप मे शेष तीन दिशाओ मे भी है। इस प्रकार कुल ५२ अकृत्रिम जिनालय होते हैं । ये जिनालय एक सौ योजन के लम्बे, पचास योजन के चोडे, पचहत्तर योजन के ऊचे है । इनको नीव आध योजन की है। प्रत्येक जिनमन्दिर मे १०८ गर्भगृहो मे १०८ रत्नमयी प्रतिमायें विराजमान हैं । वे प्रतिमाये पाच सौ धनुष, ऊची, (यह ऊचाई बैठी प्रतिमा की है । देखो त्रिलोक प्रज्ञप्ति अधिकार ४ गाथा १८७१ और १८७७ । तथा लोक विभाग अध्याय १ श्लोक २६ । ) सिंहासन छत्रादि सयुक्त हैं । उनके नीले केश, सफेद दात, मूगे की तरह के लाल होठ व रक्तवर्ण के हस्तपादतल होते है । सब प्रतिमाये दशताल के लक्षणो से युक्त है । रतिकर पर्वतों की संख्या त्रिलोक प्रज्ञप्ति के ५ वें अधिकार मे इस विषय का वर्णन करते हुये जिस गाथा मे रतिकर पर्वतो की संख्या का निर्देश किया है वह गाथा यह है वावीण बाहिरेसु दोसु कोणेसु दोणि पत्तक्कं । रतिकरणामा गिरिणो कणयमया दहिमुह सरिच्छा ॥६७॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ इसका अनुवाद श्री प० बालचन्दजी शास्त्री ने इस प्रकार ४६४ ] किया है "वापियो के दोनो बाह्य कोनो मे से प्रत्येक मे दधिमुखों के सदृश सुवर्णमय रतिकर नामक दो पर्वत हैं ।" श्री प० सुमेरुचन्द्रजी दिवाकर ने " नदीश्वर दर्शन" ट्रेक्ट लिखा है, उसके पृष्ठ १७ पर इसी अनुवाद का अक्षरशः अनुसरण किया है । किन्तु यह अनुवाद ठीक नही है । इस अनुवाद के अनुसार एक कौणे मे दो रतिकर होने से दो कौणे मे चार रतिकर एक वापिका सम्बन्धी हुये तो चारो वापियो के १६ रतिकर होंगे । इनमे अजन और दधिमुखो की ५ सख्या मिलाने पर २१ सख्या एक दिशावर्ती नदीश्वर द्वीप के चैत्यालयों की हो जायेगी जो कथमपि योग्य नही है । क्योंकि नदीश्वर की एक दिशा मे १३ जिनालय होना आगम प्रसिद्ध है । स्वय ग्रन्थकार ने ही आगे गाथा ७० मे रतिकरो की संख्या आठ ही लिखी है । अनुवाद को ठीक मानने पर ग्रन्थ मे पूर्वापर विरोध उपस्थित होता है । साथ ही अनुवाद मे "रतिकरो को दधिमुखों की तरह सुवर्णमय ( पीले रंग के ) लिखे हैं ।" यह अर्थ भी ठीक नही है क्योंकि गाथा ६५ मे दधिमुखो को दही के रंग के (सफेद) लिखे हैं । अत' उक्त ६७ वी गाथा का सही अर्थ इस प्रकार होना चाहिये - "वापियो के दोनो बाह्य कोणो मे प्रति कोण मे एक एक के हिसाब से दो रतिकर पर्वत है । वे कनकमय हैं और दधिमुखो के समान वे भी गॉल है, उन पर भी विविध वन हैं ।" 1 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६५ नंदीश्वर द्वीप मे ५२ जिनालय ] त्रिलोक प्रज्ञप्ति मे इसी प्रकरण में गाथा ६६ मे लोकविनिश्चयकर्त्ता का मत दिया है। जिसमें प्रत्येक वापी के चार कोणो मे चार रतिकर पर्वत लिखे है । ऐसा कथन तत्वार्थराजवार्तिक (अध्याय ३ सूत्र ३५ की टीका ) और हरिवंश पुराण ( सर्ग ५ श्लोक - ६७५ ) मे भी किया है । किन्तु इन दोनो ही ग्रन्थो मे यह स्पष्ट कर दिया है कि इन ६४ रतिकरो मे से बाह्यकोणी बाले ३२ रतिकरो पर ही ३२ जिनालय है । अभ्यतर कोणो के ३२ रतिकर तो देवो के क्रीडा स्थान है । इस बात को न समझकर हरिवंशपुराण के पृष्ठ ११६ ( ज्ञानपीठ से प्रकाशित ) पर अनुवादक ने वहा टिप्पणी देकर इस कथन को भ्राति पूर्ण बता दिया है । जो ठीक नही है । - श्वेताम्बर ग्रन्थ लोक प्रकाश के २४ वे सर्ग मे इस सम्बन्ध मे कुछ विशेष कथन निम्न प्रकार किया है 1 देवरमण, नित्योद्योत, स्वयं प्रभ, और रमणीयक ये चार अजनगिरियो के नाम है । आकार इनका गोपुच्छ सदृश है । नीचे से ऊपर चौडाई मे कम होते चले गये हैं। ऊंचाई इनकी ८४ हजार योजन की है। पृथ्वी पर चौडाई १० हजार योजन की और मस्तक पर 9 हजार की है । वापिका के चारो ओर के वनों की लम्बाई एक लाख योजन की और चौडाई पांचसी योजनों की है । दधिमुख पर्वत की ऊंचाई ६४ हजार योजनो की है । वापियो के अन्तराल मे दो-दो रतिकर पर्वत है । नदीश्वर द्वीप की प्रत्येक दिशा मे तेरह २ के हिसाब से कुल ५२ जिनालय चारो दिशाओ मे है । जिनालयो की ऊचाई ७२ योजन की है । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ प्रत्येक मन्दिर के देवच्छदक मे प्रत्येक दिशा मे २७-२७ जिन प्रतिमायें रत्नमय सिंहासनो पर पयंकासन से विराजमान हैं। एक मन्दिर मे १०८ प्रतिमायें है। ऋषभ, वर्द्ध मान, चन्द्रानन और वारिषेण ये उनके नाम है। अर्थात् एक दिशावर्ती २७ प्रतिमाये ऋषभ नाम की हैं इसी तरह शेप ३ दिशाओ मे स्थि २७-२७ प्रतिमाओ के वर्द्धमान आदि ३ नाम समझ लेना। PRAKRA Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ን ४२ तिलोयपण्णत्तो - अनुवाद पर गलत स्पष्टीकरण हमने 'जंनगजट' २१-८-६७ मे एक लेख - " नदीश्वर द्वीप मे ५२ जिनालय" शीर्षक से प्रकाशित कराया था, उसमें हमने तिलोयपण्णत्ती अधिकार ५ गाथा ६७ के अनुवाद को गलत बताया था। उस पर श्री अनुवादक जी सा० ने सितम्बर ६७ के 'जैनगजट' मे एक 'स्पष्टीकरण' प्रकाशित कराते हुए यहाँ तक लिखा है कि- 'उस अनुवाद मे कुछ भूल नही दिखी ।" इसका मतलब यह हुआ कि हमने जो अनुवाद की भूलें प्रदर्शित की थी वे गलत थी किन्तु ऐसा नही है । अनुवादकजी का स्पष्टी - करण भी उस अनुवाद की भूलो को नही मिटा सका है, हम उसी पर प्रकाश डालते हैं । - उक्त गाथानुवाद इस प्रकार है : "वापियो के दोनो बाह्य कोनो मे से प्रत्येक मे दधिमुखों के सदृश सुवर्णमय रतिकर नामक दो पर्वत है ।" हमने इस पर यह आपत्ति की थी कि - दोनो बाह्य कोनो मे से प्रत्येक मे दो रतिकर के हिसाब से चार रतिकर हो जायेंगे जब कि होने चाहिए दो ही, अत अनुवाद सदोष है । 1 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ इस पर अनुवादकजी ने स्पष्टीकरण किया है कि"अनुवाद मे 'दो-दो' ऐसी द्विरुक्ति नही है, अत उसका अभिप्राय यही है कि-वापियो के वाह्य दो कोनो मे से प्रत्येक मे रतिकर पर्वत है जो सख्या में दो होते हैं।" समीक्षा- यह स्पष्टीकरण भी निरर्थक है क्योकिदो-दो ऐसी द्विरुक्ति से तो सिर्फ स्पष्टता होती है विना द्विरुक्ति के भी अर्थ वही होता है जो द्विरुक्ति के होने पर होता है । अगर ऐसा नहीं मानेगे तो तिलोयपण्णत्ती की निम्नाकित गाथाओ केआपके द्वारा किए अनुवाद भी उलटे गलत हो जायेंगे। देखो अधिकार ६ गाथा ७१ का अनुवाद - "इस प्रकार ये प्रत्येक इन्द्रो के सात सेनाये होती हैं"। यहाँ अगर 'सात' सख्या मे द्विरुक्ति नहीं होने से आपके स्पष्टीकरणानुसार सब इन्द्रो की कुल मिलाकर-सात ही सेनाये माने तो बिल्कुल गलत होगा अत 'प्रत्येक' शब्द के साथ मे होने से ७ की सख्या सव इन्द्रो के साथ अलग-अलग लागू होगी। प्रत्येक शब्द ही स्वत द्विरुक्ति को द्योतित कर देता है अत. ऐसे स्थलो मे द्विरुक्ति के होने न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। "प्रत्येक" शब्द के साथ जहाँ संख्यावाची शब्दो मे दिरुक्ति नहीं की गई है ऐसे आप ही के द्वारा किये गाथानुवाद निम्न प्रकार है अधिकार ६ गाथा ७४-७५ । अ०८ गाथा २३२-२३३, २६३ से २६५, ३१०-३११-३१८, ३२१-३२२ । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती - अनुवाद ''" ] [ ४६६ इनमे बिना द्विरुक्त संख्या के भी अर्थ वही होता है जो द्विरुक्ति के होने पर होता है । अगर आपके स्पष्टीकरण को ठीक माना जायेगा तो आपके ये सब गाथानुवाद गलत हो जायेंगे। क्योकि उसके अनुसार दो बाह्य कोनो मे से प्रत्येक मे दो (और आपके स्पष्टीकरण के मुताविक दो-दो ) रति कर के हिसाब से चार रतिकर होते है । इसके सिवाय अन्य अर्थ उस अनुवाद के शब्दो से फलित नही होता इस वास्ते वह अनुवाद गलत ही मानना चाहिए | उसकी शब्द योजना ऐसी होनी चाहिए थी कि जिससे दो ही रतिकर का अर्थ निकलता किन्तु ऐसा है नही । आपका स्पष्टीकरण विकल, भ्रात होने से गलत है अत. शुद्ध शब्द योजना इस प्रकार होनी चाहिए थी कि - 'वापियो के वाह्य दो कोनो मे से प्रत्येक मे (प्रति कोने मे ) एक-एक के हिसाब से दो रतिकर पर्वत हैं ।' आगे आप लिखते है " दूसरी आपत्ति उनके रंग के विषय मे प्रकट की गई है। सो यदि "दधिमुखो के सदृश सुवर्ण मय" इन शब्दो मे सुवर्णमय विशेषण को पृथक स्वतंत्र ही रखकर जैसा कि रहा भी है - दधिमुखो के सदृश इतना ही पृथक् विशेषण ले तो उसका अभिप्राय ठीक ग्रहण हो सकता है ।" समीक्षा - आपका यह लिखना भी ठीक नही क्योकि - " दधिमुखो के सदृश " इस वाक्य के आगे कॉमा' अथवा "और" शब्द लगा होता तो यह पृथक् विशेषण हो सकता था किन्तु इनका वहाँ अभाव है अत उक्त अनुवाद का यह कथन भी सदोष है । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ आपके स्पष्टीकरण के " जैसा कि रहा भी है" ये वाक्य तो और भी ज्यादा मिथ्या व आपत्तिजनक हैं। आप अपने मन मे चाहे जो अर्थ धारे रहे किन्तु अगर शब्द सयोजन गलत है तो उससे गलत ही अर्थ निकलेगा । शब्द-गठन ऐसा होना चाहिए कि - जिससे कोई दूसरा, विपरीत, भिन्न, व्यर्थ, आपत्तिजनक एव भ्रात अर्थ नही निकल सके तभी वह कथन या लेखन निर्दोष हो सकता है अन्यथा नही । तिलोयपण्णत्ती के अनुवाद मे किस प्रकार से गलतियाँ की गई है इसका एक नमूना और प्रस्तुत करते है सिरिदेवी सुददेवी सव्वाण सणक्कुमारजक्खाणं । रुवाणि मणहराणि रेहति जिणिव पासेसु ॥४८॥ [ अधि० ७ ] अनुवाद -- जिनेन्द्र प्रासादो मे श्रीदेवी श्रुतदेवी और सब सनत्कुमार यक्षो की मनोहर मूर्तिया शोभायमान होती है । समीक्षा - इस अनुवाद मे - " जिनेन्द्र प्रासादो मे" के स्थान मे 'जिनेन्द्र के दोनो पार्श्वभागो मे तथा " ओर सव" की जगह " सर्वाण्ह और " ये वाक्य होने चाहिये प्रमाण के लिये देखो (१) सिरिदेवी सुददेवी सव्वाण्ह सणवकुमार जक्खाणं । रुवाणि य जिण पासे मगल मटठ विह मवि होदि ॥ तिलोसार [नेमिचद्राचार्य ] Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती-अनुवाद.] [ ४७१ (प० टोडरमलजी कृत अनुवाद -तिन जिन-प्रतिमानि के पार्श्व विष श्री देवी सरस्वती देवी अर सर्वाह यक्ष अर सनत्कुमार यक्ष इनके प्रतिबिंब हो है ) (२) सनत्कुमार सर्वाण्हयक्षयो प्रतिबिंबके। श्री देवी श्रुतदेव्योश्च प्रतिबिबे जिनपार्श्वयो. ॥॥ [विभाग १ लोक विभाग (सिंहस्रषि)] (अर्थ -~प्रत्येक जिनबिंव के दोनो पार्श्वभागो मे सनत्कुमार और सर्वाण्ह यक्षो के तथा श्री देवी और श्रुतदेवी के प्रतिबिंब होते हैं)। (३) तिलोयपण्णत्ती अधिकार ४ गाथा १६३६ इसमे भी इसी प्रकार का कथन है इसमे आपने 'सन्वाण' का 'सण्यिक्ष' ऐसा ठीक अर्थ किया है। किन्तु उसके बाद के अधिकार ७ गाथा ४८ मे गलत अर्थ कर गये हैं जैसा कि ऊपर प्रदर्शित किया है। तिलोयपण्णत्ती के माननीय अनुवादकजी सा० एक बहुश्रुत विद्वान हैं। उन्होने अनेक उच्चकोटि के जैन ग्रन्थो का हिन्दी अनुवाद सपादनादि अत्यत परिश्रम से करके पाठको का महान् उपकार किया है। ___ यह लेख लिखने का हमारा शुद्धाशय यही है कि-महान् अन्थो के अनुवादादि में कही-कही गलतियाँ हो जाना बहुत कुछ सभव है । अतः किसी के द्वारा उन गलतियो के बताये जाने पर अगर पै वास्तविक है तो विद्वान् को कभी नाराज नही होना चाहिए और सावधानी के साथ श्रुत सेवा मे सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। शास्त्रो मे उत्तरोत्तर लिपिकार-प्रतिलिपिकार-सपादक Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अनुवादक और मुद्रक आदि के प्रमाद व दृष्टिदोपादि से अनेक भूले हो जाती है, अत ग्रन्थो को शुद्ध रूप से पठन-पाठन करना चाहिए तभी लाभ होगा। - - - * मुद्रण में कमी-२ गलतियां होती है इसका १ नमूना प्रस्तुत करते हैं - भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी में प्रकाशित उत्तर पुराण पर्व ६८ श्लोक ३७८ मे- मप्नपच" शब्द छपा है और अनुवाद मे इसका अर्थ "विस्तार के साथ" किया गया है किन्तु दोनो का सामजस्य नहीं बैठता . अनुवाद तो सगन मालूम होता है पर छपा हुआ मूल शब्द असगत मालूम होता है। जब इस पर विचार किया गया तो यह निश्चय हमा कि-यहा 'मप्रपच' शुद्ध शब्द होना चाहिए। क्योकि प्रपंच का अयं विस्तार होता है अत मनपच का अर्थ विस्तार के साथ' ठीक है। । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् को दिव्यध्वनि । अपनी वाक्य रूप अविरल जलधारा से समस्त भूमण्डल के कलंक को धो डालने वाली और जीवो के अज्ञान मुद्रित नेत्रो को ज्ञान की अंजन शलाका से खोल डालने वाली भगवती सरस्वती देवी का आविर्भाव पूज्य अर्हन्तदेव से होता है, जो निर्दोष, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते है. और आप्त कहलाते हैं। ऐसी आप्तता महावीर तीर्थंकर ने तीस वर्ष गृहस्थी के बाद दीक्षा लेकर बारह वर्ष की घोर तपस्या से प्राप्त की थी । भगवान् महावीर को वैशाख शुक्ला १० को मायकाल मे केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। जिसके फल स्वरूप आप्त का महानपद आप को मिल चुका था । आप्त का जो हितोपदेशी गुण है उसके प्रस्फुटित होने मे अभी देरी थी। जिनसेन कृत हरिवश पुराण मे लिखा है किषदष्टि दिवसान भूयो, मौनेन विहरन् विभुः । आजगाम जगत्ख्यातं जिनो राजगृहं पुरम् ॥६१॥ [दूसरा सर्ग] अर्थ केवल ज्ञान के बाद वीर प्रभु ६६ दिन तक मौन से विहार करते हुये जगत् विख्यात राजगृह नगर को आये। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] इन्द्रनदि [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ कृत श्रुतावतार कथा में भी ऐसा ही लिखा है सुर नर मुनि वृंदारक वृ देष्वपि समुदितेषु तीर्थंकृतः । टषष्टिरहानि न निर्जगाम दिव्यध्वनिस्तस्य ॥ ४२ ॥ अर्थ - देव - मनुष्य मुनिगणों के इकट्ठे होते हुये भी उन वीर तीर्थंकर की दिव्यध्वनि ६६ दिन तक नहीं निकली। गुण भद्रकृत उत्तर पुराण मे इस सम्बन्ध मे यद्यपि दिनों की कोई सख्या नही लिखी है तथापि उसके निम्न पद्य से वाणी केन खिरने की बात जरूर मिलती है अथ दिव्यध्वनेर्हेतु, कोऽसावित्युपयोगवान् । तृतीयज्ञाननेत्रेण ज्ञात्वा, मां परितुष्टवान् ॥ ३५६ ॥ [ सर्ग ४ ] अर्थ - गौतमगणधर कह रहे हैं कि - केवल ज्ञान के बाद जब वीर जिनकी दिव्यध्वनि नही खिरने लगी। तब इन्द्र ने "दिव्यध्वनि का कारण क्या है ?" इस पर उपयोग लगाया तो rafuज्ञान से मुझे (गौतम को ) जान कर सतुष्ट हुआ । लेकिन मंडलाचार्य श्री धर्मचन्द्र रचित " गौतम चरित्र" मै सिर्फ एक प्रहर तक वाणी के न खिरने की बात कही है । यथा याममात्रे व्यतिक्रांते, सिहासन प्रसस्थिते । aar श्रीवीरनाथस्य, नाभवद् ध्वनिनिर्गम ॥ ७२ ॥ . अर्थ - वीरनाथ को प्रहर भर तक सिंहासन पर विराजे atra (चतुर्थ अधिकार ) तथापि ध्वनि नही निकली। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान की दिव्यध्वनि ] [ ४७५ फिर गौतम के आने से भगवान् का उपदेश होना शुरू हुआ था । उपदेश सुनने के लिये भगवान् के सब तरफ गोलाई मे श्रोतागणो के बैठने के अलग-अलग वारह स्थान बने हुये रहते है । जिनमे देव मनुष्य और सज्ञी तिर्यञ्चो की अगणित सख्या रहती है । यह सभास्थान शास्त्रो मे " श्री मडप" के नाम से कहा गया है जो एक योजन लम्बा और एक योजन चौडा गोल होता है । वहा भगवान् बीचोबीच एक ऊचे सिंहासन पर उपदेश देने को विराजते है । भगवान् के विराजने का स्थान गंधकुटी कहलाता है भगवान् का उपदेश पूर्वाह्न, मध्याह्न अपराह्न कल और अर्द्ध रात्रि इन चार वक्त छह छह घडी तक नियम से होता रहा है । इन्द्र आदि के प्रश्न से इन से अतिरिक्त काल मे भी उपदेश हो जाता है। जैसा कि शुभचन्द्र रचित 'अग प्रज्ञप्ति' की इन गाथा से प्रकट है , तित्थयरस्स तिसंञ् सुमज्झिमाय नाहस्स, रक्तीए । छग्घडिया, बारह सहासु मज्झे दिब्ब झुणि कालो 118911 होदि गणि चक्किमहवथ ण्हादो, अण्णदाबि दिब्ब झुणि । [ प्रथम अधिकार ] अर्थ तीर्थंकर नाथ का बारह सभाओ मे दिव्यध्वनि काल तीनो सध्या और अर्द्ध रात्रि मे छह २ घडी का है । तथा गणधर, चक्रवति, इन्द्र, के प्रश्न से अन्य समय मे भी दिव्यध्वनि हो जाती है / Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ विष्णुसेन रचित समवशरण स्तोत्र के अन्तर्गत उक्त च गाथा और अनागार धर्मामृत पृष्ठ ८ मे भी ऐसा उल्लेख है। भगवान् की वाणी मे ऐसा अतिशय पैदा हो जाता है कि उस के उच्चारण में भगवान के तालु ओष्ठ आदि नहीं हिलते है। मुख पर कोई विकार (हरकत) नजर नहीं आता है। श्वास का निरोध भी नही होता है । भगवान की बिना इच्छा के मेघ गर्जना की तरह निरक्षरी ध्वनि निकलती है जो एक योजन तक सबको एकसमान साफ सुनाई देतीहै । सुनाई देते वक्त वह साक्षरी हो कर श्रोताओं की अपनी २ भाषा में परिणत हो जाती है। इत्यादि गुणो के कारण ही वह "दिव्यध्वनि" इस नाम से कही जाती है। इस प्रकार का वर्णन अनेक जैन ग्रथो मे पाया जाता है उन मे से कुछ मुख्य २ प्रमाण हम यहा दे देना उचित समझते हैं : - आचार्य जिनसेन आदि पुराण में कहते हैअपरिस्पन्द ताल्वा, देरस्पष्ट दशन धुते । स्वयंभुवो मुख भोजा, जाता, चित्रं सरस्वतो ॥१४॥ विवज्ञया विनवास्य दिव्यो, वाक्प्रसरो ऽभवत् ॥१८५३ एक रूपापितभाषा श्रोतन, प्राप्य पृथग विधान् । भेजे नानात्मतां कुल्या जल, स्त्र.तिरिवाध्रियपान् ।।१८७॥ पर्व १] दिव्य महाध्वनिरस्य मुखाका, मेघरवानुकृति निरगच्छत् ॥६८-१२॥ पर्व २३ अर्थ-ताल्वादि न हिले और दातो की काति प्रकट न Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान की दिव्यध्वनि ] [ ४७७ हुई तथापि आश्चर्य है कि स्वयभू के मुख कमल से सरस्वती पैदा हुई । कहने की इच्छा विना ही उनके दिव्यवाणी प्रकट हुई । वह वाणी एक रूप थी तो भी श्रोताओ को पाकर अलग अलग रूप हो जाती थी। जैसे कि नहर का बहता हुआ जल वृक्षो मे जाकर अनेक रूप हो जाता है। उनके मुख कमल से दिव्यध्वनि मेघ शब्द की तरह निकलती थी। भाषा भेद स्फुरत्या स्फुरण विरहित, स्वाधरोद्भाषयाच ॥११७॥ [सर्ग ५६] सदिव्यध्वनिना विश्व संशयच्छेदिना जिन । दुंदुभिध्वनिधीरेण योजनांतर यायिना ॥६॥ [सगं २ 'हरिवश पुराणे जिन सेन" ] इसमे दिव्य ध्वनि को अनेक भाषा रूप होने वाली, बगैर होठ हिले पैदा हुई। दुदुभि की ध्वनि के समान गम्भीर और एक योजन तक सुनी जाने वाली बताई है। गोष्ट तालु आदिके हिले बिना अक्षर पैदा नही हो सकते ऊपर के प्रमाणोमे ओष्टताल्वादिका न हिलना भगवान के बताया ही है इसी से उनकी वाणी का निरक्षरीपणा अनायास सिद्ध हो जाता है । तथा उपयुक्त प्रमाणो मे उनकी ध्वनि को मेघ और दु दभिकी ध्वनि वत् बतलाना भी वैसा सिद्ध करता है। तथापि हम यहाँ ऐसे प्रमाण भी दे देते है जिनमे स्पष्ट ही निरक्षरी वाणी लिखी है गंभीर मधुर मनोहरतरं, दोषेरपेनं हितं । कंठोष्टादिवचो निमित्त, रहित नो बात रोधोद्गतम् । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ] ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ स्पष्टं तत्तदभीष्ट वस्तु, कथकं नि. शेषभाषात्मक । दूरासन्न समं सम निरूपम जन बच पातु न. ॥ २६ ॥ यत् सर्वात्महत न वर्ण, सहितं न स्पंदितौष्ठद्वयं । नो बाछा कलितं न दोष, मलिनं न श्वासरुद्ध क्रमम् । "विष्णुसेन कृत समवशरण स्तोत्र " # यहा वाणी को निरक्षरी बतलाते हुये उक्त पुराण द्वय से इतना और विशेष लिखा है कि वह वाणी दूर और नजदीक एकसी सुनाई देती है और उसके निकलते वक्त भगवान के हवा का रुकना और निकलना नही होता है और न श्वास का रुकना होता है । प. आशाधरजीने भी अपने अनगारधर्मामृत प्रथम अध्याय श्लोक २ की व्याख्या मे ध्वनि को निरक्षरी बतलाते हुये प्रमाण मे इसी "समवशरणस्तोत्र" का उक्त श्लोक दिया है । 'नष्टो वर्णात्मको ध्वनि.' ॥६॥ 'आप्तस्वरूप' नामक ग्रंथ # 'ध्वनिर्ध्वनत्यक्रम वर्ण रूपों ॥१८॥ बादिराज कृत 'ज्ञान लोचन स्तोत्र' # इन दोनो ग्रथो मे भी निरक्षरी ध्वनि लिखी है । कुछ लोग समझते हैं कि पुराण और स्तोत्र ग्रन्थों में इस प्रकार की बाते बढा कर लिखी गई हैं। ऐसे लोगो की मनस्तुष्ठि के लिये हम यहा अन्य ग्रन्थों के प्रमाण रख देते है #ये तीनो ग्रंथ 'सिद्धांतसारादि संग्रह' में छप चुके हैं । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान की दिव्यध्वनि ] [ ४७६ 'अनक्षरात्मकस्तु द्विन्द्रियादि तियम् जीवेषु सर्वज्ञदिव्यध्वनी च' [वृहद्रव्य संग्रह पृष्ठ ४५] अर्थ-द्वीन्द्रीयादि तिर्यंच जीवो और सर्वज्ञ की दिव्यध्वनि मे अनक्षरात्मक भाषा होती है। अट्ठरस महाभासा खुल्लय, भासाहि सत्तसय संखा। अक्खर अणक्खरप्पय सण्णी, जीवाण सयल भासाउ॥१॥ रादासि भाषाणं तालु, वदन्तो कंठ वावारं । परिहरिय एक्क काल, भव्व जणाणं दकर भासो ॥२॥ [त्रिलोक प्रज्ञप्ति प्रथमोधिकार अर्थ-अठारह महा भाषाये और सात सौ क्षल्लक भाषायें ये सब अक्षर अनक्षरात्मक भाषायें सज्ञा जीवो की होती हैं । ये सब भाषाये तालुदन्त ओष्ठ कण्ठ के व्यापार बिना एक ही काल मे दिव्यध्वनि मे प्रकट होती है। कुछ लोगो का ऐसा खयाल है कि शास्त्रो मे भगवान् की वाणी को अनेक भाषात्मक लिखा है उसका मतलब यह है कि भगवान् जुदे-२ समय मे जुदी २ भाषाओ मे उपदेश देकर सभी भाषा विज्ञो को अपना वक्तव्य समझा देते है। ऐसे खयाल का त्रिलोक प्रज्ञप्ति मे "एक्क काल" शब्द देकर खडन कर दिया है। और यह जाहिर किया है कि भगवान की एक ही काल मे प्रकट हुई वाणी अनेक भाषा रूप हो जाती है। आदि पुराण पर्व २५ मे भी 'चित्र वाचा विचित्राणाम क्रम प्रभव प्रभो" ॥३२॥ पद मे प्रभु के विचित्र भाषाओ की उत्पत्ति एक ही साथ होना बताई है। . Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ जयन्ति यस्याऽ बदतोऽपि भारती । विमूतय स्तीर्थकृतोऽप्यनी हितु ॥१६॥ [ममाधिशत के पूज्यपाद] अर्थ-तालु मोण्ठ से हम लोगो के समान न बोलते हुए भी व बिना किसी प्रकार की इच्छा रखते हुए भी जिस तीर्थकर की वाणीप विभूतिय जयवन्त हैं। "मयोग केवलि दिव्यध्वने क्थ सत्यानुभयवाग्योगत्व मिति चेत तन्न तदुत्पत्तावनक्षरात्मकत्वेन श्रोतृ थोत्रप्रदेशप्राप्ति समय पर्यन्त गनुभय भापात्वमिद्धे । तदनतरच श्रोतृजनाभि प्रेतार्थेषु मशयादि निरा करणेन सम्यग्ज्ञान जनकत्वेन, सत्यवाग्योगत्वमिद्धश्च तस्यापि तदुभयत्व घटनात् ।" यह गद्य गोम्मटसार सस्कृत टीका योग मार्गणाधिकार मे पाई जातीहं । इसमे 'सयोग केवली की दिव्यध्वनिके सत्य और अनुभय वाक योग कैसे है।" इस प्रश्न का उत्तर देते हुये बताया है कि वह वाणी अनक्षरात्मक उत्पन्न होती है और श्रोताओ के कान तक पहुँचने पर्यन्त अनक्षरात्मक ही रहती है । तव तक वह अनुभय भापा कहलाती है। फिर श्रोताओ के कान मे जाकर आक्षर हो जाती है जिस से श्रोताजनो के मशयादि दूर होकर सम्यग्ज्ञान पैदा हो जाता है, तब वह सत्य भाषा कहलाती है। इस तरह दिव्यध्वनि के सत्य और अनुभय दोनो वाग्योग घटित होते हैं। ध्वनिरपि योजनमेकं मजायते, श्रोत्रहृदयहारि गभीरः। ससलिल जलघर पटल ध्वनित, मिव प्रविततान्तरा शावलयम् । [दश भक्ति पाठातर्गत नदीश्वर भक्ति Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान को दिव्यध्वनि ] [ ४८१ इममे दिव्यध्वनि को एक योजन तक फैलने वाली सजल बादलो की गर्जना के समान बताई है। जैनधर्म के प्राणस्वरूप श्री समंत भद्राचार्य भी ध्वनि को बगैर इच्छा पैदा होने वाली और सब जीवो की भाषा बन जाने रूप स्वाभाव वाली द्योतित करते हैं - "काय वाक्य मनसां प्रवृत्तयो, नाभवस्तव मुनिश्चिकीर्षया" ॥७४॥ "तब वागमतं श्रीमत्सर्व, भाषा स्वभावक" ॥६॥ [स्वयभूस्तोत्र] इस प्रकार एक नही सैकडों प्राचीन अर्वाचीन जैन शास्त्रों में दिव्यध्वनि का इसी तरह का वर्णन मिलता है। और तो क्या श्वेताबरों के प्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्र भी अपने अभिधान चिंतामणि कोश मे ऐसा ही कथन करते है इसी कांड में आगे श्लोक ६५ से ७१ तक भगवान की वाणी के ५ अतिशय बतलाते हुये ३३ वा अतिशय "वर्ण पद वाक्य विविक्तता" नाम का कहा है। उसकी व्याख्या उन्होने "वर्णादीना विच्छिन्नत्व" की है । जिसका साफ अर्थ यह होता ___ +"दुभिरासन योजन घोषी" शांति पाठ के इस वाक्य मे भी ध्वमिका एक योजन तक जाना कहा है। में प्रसिद्ध मक्तामर स्तोत्र मे भी कहा है--दिष्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्व भाषा स्वभाव परिणाम गुणं प्रयोज्य ।" "वाणी नृतियक्सुर लोक भाषा, सवरंदिनी योजनगामिनी च" ॥५६॥ प्रथम कोड" Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ ] है कि भगवान की वाणी मे अक्षरादि नही होते । [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ अष्ट सहस्वी पृष्ठ ७३ में पर वादी ने शका की है कि "बिना इच्छा के बालना नहीं हो सकता" इसका उत्तर देते हुये निम्न कारिका वहा लिखा है " ततश्चैतन्य करण पाटव, योरेव साधक तमत्वम् । " इस मे बतलाया है कि बोलने मे इच्छा कारण नहीं पडती किन्तु चैतन्य कहिए ज्ञान और करण पाटव कहिये इन्द्रियो की वह योग्यता जिससे ध्वनि पैदा हो सके, ये दो ही बोलने में कारण हो सकते हैं । यहा जो करण पाटव बोलने मे कारण बतलाया है उसे लेकर कुछ महाशय कहते हैं कि अप्टसहस्त्री मे सर्वज्ञ के भी बोलने में सहायक तालु भोष्ठ ही बतलाये हैं इसलिये उनकी वाणी भी साक्षरी ही होती है और वे हमारी तुम्हारी तरह से ही वोलते है । किन्तु उनका कहना ठीक नहीं ह 1) क्योकि यहा ग्रथकार ने करण पाटव शब्द दिया है जो केवल तालु ओष्ट में ही सीमित नही है किन्तु उनसे शरीर के वे सभी अवयव लिये जा सकते है जिनसे ध्वनि पैदा हो सके । और वे अवयव हिले ही ऐसा भी करण पटव शब्द से सिद्ध नहीं हो सकता | किसी सातिशय पुरुष के उच्चारण स्थानो के बिना हिले ही ध्वनि पैदा हो सके तो वहा भी करण पाटव शब्द का प्रयोग किया जा सकता है । क्योकि करण पाटव का यह है कि शब्द पैदा करने योग्य इन्द्रियें । भगवान की चाहे तालु ओष्टादि के परिस्पद से पैदा नहीं होती है वह निकलती शरीर ही से है★ । और शरीर भी अर्थ ही ध्वनि फिर भी इन्द्रीय है प० मेघावीकृत सग्रह श्रावकाचार प्रथम परिच्छेद श्लोक १७ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान की दिव्यध्वनि ] [ ४८३ इसलिये उस मे कुछ करण पाटव शब्द बाधा नही देता। अगर विद्या नन्द को करण पाटव शब्द से सर्वत्र के तालु ओष्ठादिका प्रयोग ही अभीष्ठ होता तो वे श्लोक बातिक मे ऐसा नही लिखते"नहि सवज्ञस्य शब्दोच्चारणे रसन ब्यापारोस्ति । [द्वित्तीयोध्याय सूत्र १६ की व्याख्या] इसमे स्पष्ट ही यह लिखा है कि सर्वज्ञ के शब्द उच्चारण करने मे जिह्वा का प्रयोग नहीं होता है। अकलक देव ने राज बार्तिक मे भी इस स्थान मे ऐसा ही ध्वनित किया है। वहुत से लोगो की ऐसी धारणा है कि भगवान् की निरक्षरी ध्वनि का अनेक भाषा रूप साक्षरी होना देव कृत है। यह धारणा ठीक नहीं है। आदि पुराण मे इसका निराकरण करते हुए आचार्य जिनसेन लिखते है कि "भगवान की ध्वनि को देव कृत कहना मिथ्या है। देव कृत मानने से आप्त का कुछ भी गुण नही रहता। और जबकि अनेक भाषा रूप हो जाने का उसका स्वभाव है तो साक्षरी भी वह हो ही जावेगी तब देव कृत मानने की जरूरत ही क्या है ? और यदि साक्षरी वह नहीं मानी जावेगी तो बिना अक्षरो के ससार मे अर्थ का बोध हो भी कैसे सकता है ? तथा बिना अर्थ बोध के देव भी मे दिव्यध्वनि का वर्णन करते हुए उसे भगवान्के सब शरीरसे पैदा होने वाली लिखा है, किन्तु ऊपर दिये हुये आदि पुराण के उद्धरण मे उसका मुख से निकलना बताया है इम दोनो कथनो से यह फलितार्थ निकलता है कि ध्वनि सब शरीर से पैदा होकर मुखमार्ग से बाहर निकलती है। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ ] ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ उसे कैसे साक्षरी बना सकेगे ?” आदि पुराण का यह वक्तव्य उसके इस श्लोक मे है देव कृतोध्वनिरित्यस देत देव, गुणस्य तथा विहतिः स्यात् । साक्षर एवच वर्ण समूहान्नैव, विनाथं मतिर्जगति त्यात् ॥७२॥ [पर्व २३ ] अब रही यह बात कि देवकृत अतिशयोमे जो 'अर्द्ध मागधी भापा' का होना अतिशय है वह फिर क्या ? नीचे हम इसी पर विचार करते है । चौतीस अतिशय और अष्टप्रातिहार्य में वाणी का प्रसंग तीन दफे आया है । एक जन्म कृत अतिशयो मे, दूसरा देवकृत अतिशयो मे और तीसरा अष्ट प्रातिहार्यो मे । ग्रहस्थावस्था मे प्रिय हित वचन का बोलना यह जन्म कृत अतिशयों में है । ऊपर अनेक ग्रन्थ प्रमाणो से जो दिव्य ध्वनि का विवेचन किया गया वह प्रातिहार्य में समझना चाहिये । देवकृत अतिशयो मे जो 'भाषा के 'है' उसका मतलब कुछ और है । और वह यह है कि देव प्रताप से समवशरणवर्ती जीवो की योग्यता मागधी भाषा को बोलने और समझने की हो जाती है । बस यही देवकृत अतिशय है। यह बात जिनसेन कृत आदिपुराण मे निम्न पद्य मे कही है अर्द्ध ब्रिजगज्जनता खिलं । मैत्री संपादन गुणाद्भुतं ॥ २५० ॥ [ पर्व २५ ] मागधिकाकारभाषा परिणता Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान की दिव्यध्वनि ] [ ४८५ अर्थ-सब की भाषा अर्द्ध मागधी रूप होना और तीन जगत् की जनता मे मित्रता का होना। (इस प्रकार इस श्लोक मे ये दो देवकृत अतिशय बतलाये है) दश भक्ति पाठ मे नदीश्वर भक्ति के श्लोक “सार्वार्द्ध मागधीया." की सस्कृत टीका मे प्रभाचन्द्र भी कुछ ऐसा ही लिखते है ।यथा "सर्वेभ्यो हिता सार्वा सा चासो अर्ध मागधीया च । अद्धभगवद्भा पाया मगध देश भाषात्मक अर्द्ध च सर्व भाषात्मक । कथमेव देवोपनीतत्व नतिशयस्येति चेत् मागध देव सन्निधाने तथा परिणतया भाषया सकल जनाना भाषण सामर्थ्य सभवात् । अथवा समवसरण भूमौ योजन मात्र मेत्र भगवद्भाषयो व्याप्त, परतो मगध देवै स्तभाषाया अद्धमागध भाषया सस्कृत भाषया च प्रवर्त्य ते । न केवल भाषा मैत्री च प्रीतिश्च, कथभूता मर्व जनता विपया सर्वजनाना समूह सर्व जनता सा विषयो यस्या सा तादृशी भाषा मंत्र च भवति । सर्वेहि जनाना समूहा मागध प्रोति कर देवातिशयव शान्मागध भाषया भाषतेऽन्योन्य मित्रतया च वर्तते इति द्वावतिशयो।" अर्थ-सब जीवो की हितकारी, भगवान् की दिव्य ध्वनि का आधा भाग मगध देश की भाषा रूप होना और आधा भाग सब भाषा रूप होना यह "सर्वार्द्ध मागधी भाषा" का अक्षरार्थ हुआ । इस पर प्रश्न कि यह अतिशय देवोपनीत कैसे ? उत्तरमागध देव की निकटता से उम प्रकार परिणत हुई मागध भाषा मे सब जनो के बोलने की सामर्थ्य हो जाती है जिससे वह देवोपनीत कहलाती है । अथवा समवसरण भूमि मे भगवान की भाषा एक योजन मात्र ही रहती है । आगे मगध देव उस भाषा हुआ। इस पहाना यह "सर्वाप होना और म Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ के अर्द्ध भाग को मगध भाषा और सस्कृत भाषा (2) मे प्रवर्ता देते हैं। न केवल भाषा ही बल्कि प्रीति भी वे सर्वजन समूह मे पैदा कर देते है। अर्थात सब जनता मागध देव के प्रताप से मागध भाषा मे बोलते है और प्रीतिकर देव के प्रताप से आपस मे मित्रता से रहते है। ये तो देव कृत अतिशय हये। - - - - - - इन उद्धरणो से यह प्रक्ट है कि भगवान की ध्वनि का सर्व भाषा रूप होना देवकृत नहीं है किन्तु दिव्यध्वनिका वह खास स्वभाव है। जिसे समतभद्र जैसे प्रभावशाली आचार्य भी स्वीकार करते है। जिसका उल्लेख इस लेख मे ऊपर किया जा चुका है। जैसे हम लोगो की अपेक्षा अहंत की ज्ञान आदि आतरिक शक्तिया अलौकिक होती हैं। तैसे ही उनकी वाह्य अवस्था में भी हम से विशेषता होजाती है। भीतरी शक्तिया परिपूर्ण प्रकट होजाने के कारण अहंत का प्रभाव इतना लोकोत्तर बन जाता है कि उसे देखकर साधारण लोग आश्चर्य करने लग जाते हैं। गहन बात को समझने के लिये बुद्धि भी गहन चाहिये। यही कारण है जो समतभद्रादि जैसे विशाल प्रतिमाधारी आचार्य अतिशयो को अक्षरश: मानते हैं किन्तु आज कल के ज्ञान लवविदग्ध पुरुष उनके मानने में हिचकिचाहट करते हैं। उन्हे समझना चाहिये कि योग की अचित्य महिमा है। फिर अर्हत तो परम योगी हैं उनकी लोकोत्तर विभूति मे तो सदेह दो कोई स्थान ही नही रहता। आदि पुराण मे भी कहा है कि-- महीयसाचित्या हि योगजाः शक्ति संपद. ॥४॥ [पर्व २४] - - Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान की दिव्यध्वनि 1 [ ४८७ अर्थ महा पुरुषो की योग से उत्पन्न शक्ति सपदाये अचित्य होती है । स० नोट- कटारियाजी के लेख विद्वत्ता पूर्ण एव नई खोज को लिए हुये होते हैं । यह लेख भी बहुत ही परिश्रम के साथ लिखा गया है । पाठको को इसमे कुछ नवीनता मालूम होगी । फिर भी अभी यह विषय विशेष स्पष्ट होना चाहिये, जिससे श्रद्धा के सिवाय सर्व साधारण विद्वानो की बुद्धि मे भी यह बात आसके । विद्वान लेखक ने आदि पुराण पर्व २३ का ७३ खां श्लोक देकर जो शका समाधान किया है वह बहुत अस्पष्ट प्रतीत होता है । आशा है कि कटारियाजी इस विषय को और भी अधिक विस्तार से लिखकर स्पष्ट करेंगे । 1 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैन कर्म सिद्धांत एक मुमुक्षु प्राणी के सामने ४ प्रश्न उपस्थित होते हैं१ ससार क्या है? २. ससार के कारण क्या हैं? ३. मोक्ष क्या है? ४. मोक्ष के क्या कारण है? इन्ही चारो प्रश्नो के समाधान में ७ तत्व छिपे हुए हैं और उन्ही के साथ कर्म सिद्धति भी । चेतनअचेतन पदार्थों से भरा हुआ जो स्थान है वह ससार है। इस प्रथम प्रश्न के उत्तर मे २ तत्व आते हैं- जीव और अजीव । चतुर्गतिरूप दुखमय ससार मे यह जीव कर्मों के फल से परिभ्रमण किया करता है और जब तक कर्म आ-आकार जीव के बधते रहते हैं तब तक जीवका ससार से छूटना नही हो सकता है | इस दूसरे प्रश्न के उत्तर मे आस्रव और बध ये दो तत्व आ जाते है | सव कर्मों के बन्धन से छूट जाना इसका नाम मोक्ष है । इस तीसरे प्रश्न के उत्तर में मोक्षतत्व आ जाता है। नवीन कर्मो का वन्ध नही होने देना और पुराने बधे कर्मों को खिपा देना ये दो बाते मोक्ष की कारण है, इस चौथे प्रश्न के उत्तर में सवर और निर्जरा ये दो तत्व आ जाते हैं । इस प्रकार चारों प्रश्नों के समाधान मे जीव, अजीव, आस्रव, वध, सवर, निर्जरा और मोक्ष इन ७ तत्वो की उपलब्धि होती है । इन्ही सत्यार्थ ७ तत्वो के श्रद्धान करने को जैनधर्म मे सम्यग्दर्शन ( यथार्थ दृष्टि ) कहा है । यही मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धात ] । ४८६ __ अनन्त जीवो से व्याप्त यह संसार अनादि काल से चला आ रहा है और आगे अनन्तकाल तक चलता रहेगा। इस ससार मे रहने वाले जीवो मे कोई सुखी है, कोई दुखी है, कोई नर है, कोई मादा है, कोई सवल है, कोई निर्बल है, कोई बुद्धिमान है, कोई मुर्ख है, कोई कुरूप है, कोई सुरूप है इत्यादि जीवो की नाना प्रकार की अवस्थाये जो देखी जाती हैं उनका कारण जीव के किए हुए शुभाशुभ कर्मोके सिवाय और कुछ नहीं है । जब यहप्राणी अपने मन वचन काय से अच्छे-बुरे काम करता है तव आत्मा मे कुछ हरकत पैदा होती है उस हरकत से सूक्ष्म पुद्गल के अश आत्मा से सम्बन्ध कर लेते हैं इनको ही जैनधर्म मे कर्म बताया है। इन्ही शुभाशुभ कर्मों के फल से जीव की अच्छी-बुरी अनेक दशायें होती हैं । कुछ लोग इनका कारण ईश्वर को ठहराते हैं । पर यह ठीक नहीं है । अव्वल तो ईश्वर को सृष्टि रचने की जरूरत ही क्यो हुई ? न रचने पर उसकी कौन सी हानि हुई थी? और रची भी तो किसी को सुखी, किसी को दुखी आदि क्यो बनाया ? यदि कहो कि जीव जो अच्छे बुरे काम करता है उनका वैमा ही अच्छा-बुरा फल ईश्वर देता है। उसी से जीवो को ये विविध प्रकार की अवस्थाये देखने में आती हैं- तो ऐसा कहना भी ठीक नही है । क्योकि जब ईश्वर स्वय बुद्ध, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान है तो जीवो को पहिले पापकर्म करने ही क्यो देता है। जिससे आगे चलकर उसे उन पापियो को फल देने की नौबत आवे । हाकिम के सामने अपराध करे तब तो उसे हाकिम मना करे नही और अपराध हो चुकने के बाद उसे दण्ड देवे, हाकिम का ऐपा करना योग्य नहीं है। इसके अलावा हम पूछते हैं कि- ईश्वर समस्त सृष्टि मे व्यापक है तो व्यापक मे क्रिया नही हो सकती है। देश से देशान्तर होने को क्रिया कहते Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० } [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ है । व्यापक मे यह क्रिया असम्भव है । क्योकि व्यापक सर्वक्षेत्र मे व्याप्त है इसमे कोई भी क्षेत्र अवशेष नही रहता है जिसमे क्रिया हो सके । क्रिया के बिना सृष्टि की रचना नहीं हो सकती है । अव्यापक माने तो सर्वक्षेत्र की क्रियायें नहीं हो सकेगी। जो ईश्वर को अशरीरी माने तो अमूर्तिक से मूर्तिमान कार्य नही हो सकते हैं वर्ना अमूर्त आकाश से मूर्त पदार्थ उत्पन्न होने लगेंगे । तब असत् से सत् पदार्थ की उत्पत्ति हो जायेगी। जो ईश्वर को । शरीर सहित मान लिया जाये तो ईश्वर सब को दिखना चाहिए और उसे निरन्जन नही कहना चाहिए । जो ईश्वर को सर्वशक्तिमान माने तो सबको सुखी व सुन्दर बनाना चाहिए । यदि कहोकि बुरे काम करने वालोको बुरा बनाये तो कर्म बलवान हुए, ईश्वर को सर्व शक्तिमान मानना नहीं हो सकेगा । सर्वशक्तिमान नही मानने से समस्त सृष्टि की रचना उससे नही हो सकती है और सब काम उसी के लिये होते है तो वेश्या चोर उसने क्यों बनाये जिससे पापाचरण करना पडे ? सृष्टि बनाने के प्रथम समार में कुछ पदार्थ थे या नही ? जो पदार्थ येतो. ईश्वर ने क्या बनाया? जो पदार्थ नही थे तो बिना पदार्थी के सृष्टि कैसे बनाई ? बिना बनाये कुछ नही होता तो ईश्वर को स्वय बना हुआ मानें तो सृष्टि को भी स्वयं बनी हुई क्यो न मानें ? सभी काम ईश्वरकृत माने तो प्रत्यक्ष का लोप होगा क्योकि प्रत्यक्ष मे घटपट गृहादिक मनुष्यकृत देखे जाते हैं। सभी काम ईश्वरकृत मानने से जीवो के पुण्यपाप सब निरर्थक हो जायेंगे । न तो किसी को हिंसा आदि पाप कार्यों का फल मिलेगा और न किसी को जप, तप, दया आदि पुण्य कार्यों का फल मिलेगा । क्योंकि ये तो जीवों ने किये ही नहीं, यदि ईश्वर ने किये हैं तो इनका फल जीवो को मिलना क्यो चाहिए ? तक Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धात ] [ ४६१ निशक हो प्राणी पाप करेंगे और पुण्य कार्यों से विमुख रहेंगे। इस प्रकार ईश्वर को क्त मानने में इस तरह के अन्य भी अनेक विवाद खडे होते है। किसी कर्म का फल हमे तुरन्त मिल जाता है किसी का कुछ माह बाद मिलता है किसी का कुछ वर्ष बाद मिलता है और किसी का जन्मातर मे मिलता है। इसका क्या कारण है ? कर्मों के फल के भोगने में समय की यह विषमता क्यो देखी जाती है ? ईश्वरवादियो की ओर से इसका ईश्वरेच्छा के सिवाय कोई सन्तोषकारक समाधान नही मिलता। किन्तु कर्मों मे ही फलदान की शक्ति मानने वाला कर्मवादी जनसिद्धात उक्त प्रश्नो का बुद्धिगम्य समाधान करता है । जैन शास्त्रो का कहना है कि बाईस भेद स्कन्ध के और एक भेद अणु का इस प्रकार पुद्गल के कुल २३ भेद होते है। इन्ही को २३ वर्गणाये कहते हैं । इनमे से १८ वर्गणाओ का जीव से कुछ सम्बन्ध नही है और ५ वर्गणाओ को जीव ग्रहण करता है। उनके नामआहार वर्गणा, तैजस वर्गणा, भापा मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा है। आहारवर्गणा से औदारिक, वैक्रियिक और आहारक ये तीन गरीर और श्वासोच्छवास बनते है । तैजस वर्गणा से तैजस शरीर बनता है। भाषावर्गणा से शब्द बनते है मनोवर्गणा से द्रव्य मन बनता है जिसके द्वारा यह जीव हित-अहित का विचार करता है और कार्मणवर्गणा से ज्ञानावरणादिक अप्ट कर्म बनते हैं। जिन क्मों के निमित्त से यह जीव चतुर्गतिरूप समार मे भ्रमण करता हुआ नाना प्रकार के दुख उठाता है और जिनके क्षय होने से यह जीव ससार से छूटकर मोक्षपद को पाता है। इन ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों के पिंड को ही कार्मण शरीर कहते है। इस प्रकार Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ इस जीव के औदारिक (मनुष्य तियंचो का शरीर) वैक्रियिक (देव नारकियो का शरीर) आहारक तेजस (मृतक और जीवित शरीर मे जो काति का भेद है वह तैजस शरीरकृत है। मृत्यु होने पर तेजस शरीर जीव के साथ चला जाता है।) और कार्मण ये ५ शरीर हैं। इनमे से कार्मण शरीर को कम और शेष शरीरों को नो कर्म कहते है। जीव और कर्मा के बन्ध को कर्मवन्ध कहते हैं तथा जीव और अन्य - शरीरो के बन्ध को नोकर्मवन्ध कहते है। भवातर मे जाने वाला जीव पूर्व शरीर को छोडे वाद जब तक नया शरीर ग्रहण नही. करता है तब तक के अन्तराल मे उसके तेजस और कार्मण ये दो सूक्ष्म शरीर साथ मे रहते हैं। इस अन्तराल का काल जैनागम में बहुत ही थोडा तीन समय मात्र अधिक से अधिक बताया है। अन्तराल मे यह कार्मण शरीरही उसे किसी नियत स्थान पर ले जाकर नया शरीर ग्रहण कराता है। उक्त तेजस और कार्मण शरीर ससार दशा मे सदा इस जीव के साथ रहते हैं। जब यह जीव भवातर मे जाकर नया शरीर ग्रहण करता है। तव सदा साथ रहने वाले दो शरीर और एक नया प्राप्त शरीर इस प्रकार जीव के कुल तीन शरीर हो जाते है। जिस प्रकार दूध मे जल, मिश्री आदि बुल मिल जाते है। उसी प्रकार इन तीनो शरीरो का आत्मा के साथ मिश्रण हो जाता है। सदा साथ रहढे वाले तेजस और कार्मण ये दो शरीर इतने मूक्ष्म है कि वे हमारे कभी इन्द्रियगोचर नही हो सकते है। प्रश्नः "अनन्तगुणे परें" इस सूत्र के द्वारा सूत्रकार उमास्वामी ने औदारिकादि शरीरो से कार्मण शरीर के परमाणु अनन्तगुणे अधिक लिखे हैं। इससे तो कार्मण शरीर अन्य सब शरीरो से बडा होना चाहिये। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + [ કર્ उत्तर उन्ही आचार्य उमास्वामी ने "पर पर सूक्ष्म" इस सूत्र द्वारा कार्मण शरीर को अन्य सब शरीरो से सूक्ष्म भी लिखा है । इस प्रकार आचार्य श्री ने दोनो कथन करके यह अभिप्राय प्रकट किया है कि कार्मण शरीर का गठन ऐसा ठोस है कि उसकी प्रदेश संख्या अन्य शरीरो से अनन्तगुणी होते भी वह अन्य शरीरो जैसा स्थूल नही है । जैस रुई का ढेर और लोहे का गोला । लेकिन इसका अर्थ यह भी नही है कि कार्मण शरीर जब इतना ठोम है तो उसकी गति अन्य पौद्गलिक पदार्थों से रुक जाती होगी ? उसकी बनावट ही कुछ ऐसी जाति के परमाणुओ से होती है जिससे वह वज्रपटलादि मे भी प्रवेश कर जाता है । जैसे अग्नि लोहे मे प्रवेश कर जाती है । जैन कर्म सिद्धात ] • इन सभी शरीरो मे से एक कार्मण शरीर ही ऐसा है " जिसके सहयोग से यह जीव अनेक योनियो मे जन्म ले-लेकर 'नाना प्रकार की चेष्टाये करता रहता है । यही वह कर्म पिण्ड है जो इस जीव के लिए ससार का बीज भूत है और विविध अनर्थ परम्पराओ का कारण बना हुआ है । जैसे रेशम का कीट अपने ही मुँह से रेशम के तार निकाल निकाल कर आप ही उनसे लिपटता रहता है । इसी तरह यह जीव स्वय ही रागद्वेषादि कलुषित भाव कर-करके आप ही इन दुखदायी कर्मों से बन्धता रहता है | कर्मों का वध इस जीव के किस तरह हो जाता है । इसके लिये शास्त्र वाक्य ऐसा है जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्र प्रवद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमतेऽत्र पुद्गला कर्मभावेन ॥ अर्थ जीव के किये हुए परिणामो को निमित्त बना कर Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ पुद्गल को वर्गगाये स्वय ही कर्मरूप से परिणम जाती हैं । मतलव यह है कि कार्मण वर्गणा यह एक पुद्गल स्कन्ध की जाति विशेष है जो सारे लोक मे व्याप्त है जहा भी जीव के राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ मोहादिभाव पैदा हुए कि वह कर्मरूप बनकर आत्मा के प्रदेशो के साथ मिल जाती है। इसे ही जैनधर्म मे कर्मबन्ध होना बताया है । वे ही बधे हुए कर्म अपने उदयकाल मे इस जीव को अच्छा-बुरा फल देते हैं और इसे ससार मे रुलाते है । जैसे अग्नि से तप्त लोहे का गोला पानी मे डालने से पानी को अपनी तरफ खीचता है । उसी तरह कपाय भावो से ग्रसित आत्मा कर्म वर्गणाओ को अपनी ओर खीचकर उनसे आप चिपट जाता है । जैसे पी हुई मदिरा कुछदेर बाद अपना असर पैदा करके पीने वाले को बावला बना देती है । उसी तरह बाधे हुए कर्म कालातर मे जब अपना फल देते हैं तो उससे जीव सुखी, दुखी, रोगी, निरोगी, सवल, निर्बल, धनी, निर्धन आदि अनेक अवस्थाओ को प्राप्त हो जाते हैं । इस प्रकार जैनधर्म मे जीवो की विचित्रता के कारण उनके अपने बाँधे हुए कर्म माने गये हैं । जैसे बीज के विना धान्य नही होते, वैसे ही कर्मों के विना जीवो की नाना प्रकार की अवस्थाये नही हो सकती है | कर्मों के अस्तित्व की सिद्धि के लिये यह एक हेतु है । अन्यथा कर्म इतने सूक्ष्म हैं कि हम छद्मस्थ उनका कदापि प्रत्यक्ष नही कर सकते है । जिस प्रकार पुद्गल के परमाणु हमारे इन्द्रियगोचर नही हैं परन्तु उनसे बने देखकर हमे परमाणु का अस्तित्व मानना पडता है । कर्मों के शुभाशुभ फल को प्रत्यक्ष देखकर परोक्षभूत अस्तित्व भी मानना होगा । स्कन्ध को प्रश्न पुष्पमाला, चन्दन, स्त्री आदि प्रत्यक्ष सुख के उसी तरह कर्मों का Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धात ] [ ४६५ कारण है और सर्प, कटक, विषादि प्रत्यक्ष दुख के कारण है । इन प्रत्यक्ष हेतुओ को छोड़कर सुख-दुख के परोक्ष कारण कर्मों को क्यों माना जावे | उत्तर पुष्पमाला आदि एकातत सभी जीवो को सुख के कारण नही होते है । शोकाकुलित जीवो को ये ही चीजे दुख की कारण भी देखी जाती हैं। इसी तरह विपादि भी सभी को दुख का कारण नही होते हैं । किन्ही - किन्ही रोगियो को विष का सेवन आरोग्यप्रद होकर सुख का कारण भी हो जाता है । खादी का बना मोटा चादर गरीब के वास्ते हर्ष का कारण होता है वही शालदुशाला ओढने वाले राजपुत्र के लिये विषाद का कारण बन जाता है । इस प्रकार समान सामग्री हो तो भी सबको समान सुख-दुख नही होते है । इस तरतमता को देखने से यही निश्चय होता है कि सुख-दुख के होने मे पुष्पकटकादि से भिन्न कोई अन्य ही अदृष्ट कारण है और वे अदृप्ट कारण कर्म ही हो सकते है | प्रश्न कोई आदमी बुरा काम राजा देता है । इस प्रत्यक्ष फलदान को परोक्ष कर्मो के द्वारा दिया जाना क्यो माना जावे ? t करता है उसका फल छोड कर उसका फ्ल उत्तर राजा अगर दण्ड देगा तो प्रगट पापो का देगा | गुप्त पापो का जिन्हे राजा जानता ही नहीं उनका फल कौन देगा ? और मानसिक पाप तो सदा ही अप्रगट है उनका फल भी जीव को कैसे मिलेगा ? तथा दया, दान, ध्यान आदि उत्तम कार्यों का फल भी जीव को कौन देगा ? एक मनुष्य अनेक हत्या करे तो राजा उसे प्राणदण्ड देता है, किन्तु इससे तो हत्या २ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ करने वाले को एा ही हत्या का दण्ट मिलता है बाकी हत्यायो का दण्ट कैसे मिलेगा? अत मानना पडेगा कि बाकी का दण्ड नरकगनि म मे कमों ने ही मिलता है। कामों को मिद्धि के लिये दमग हेतु यह है कि जैसे चेतन की की हुई कगि आदि कियात्रो का पाल धान्यादि की प्राप्ति है। जो भी नेतन की की हः क्रिया होगी उमका कोई-न-कोई फल जमा होगा। उमी तरह चेतन द्वारा की हुई हिंमा आदि पाप क्रियाओ या दया, दान आदि क्रियामो का फल भी जरूर होना चाहिये वह पान शुभाशुभ कर्मों का जीव के बन्ध मानने रहोबन मकेगा। प्रश्न जमे पि निया का प्रत्यक्ष फल धान्य प्राप्ति है। उमी तरह हिंसा अगत्य आदि का प्रत्यक्ष फल शत्रुता अविश्वास आदि है और दया, दान बादि का प्रत्यक्ष फल मन प्रसन्नता यण प्राप्ति आदि है। इस प्रकार क्रियाओ का फल हम भी मानते हैं । इन दृष्टफनो को छोडकर अदृप्टफल कर्म बन्ध क्यो माना जावे? उत्तर जीवकृत सभी क्रियाओं के दृष्टफल और अदृष्टफल दोनो फल होते है। कृपि आदि मावद्य क्रियाओ का धान्यादि यह दृष्ट फल है और पापकर्म का वन्ध होना यह अदृष्टफल है। इसी तरह दानादि का यश प्राप्ति आदि दृष्टफल है और पुण्यकर्म का बन्ध होना अदृष्टफल है। यदि कृषि आदि सावध क्रियाओ का धान्य प्राप्ति आदि दृष्ट फल ही माना जावे, अदृष्टफल पाप वन्ध नहीं माना जावे तो सावध आरम्भ करने वाले सभी जीवो को मोक्ष हो जायेगा और यह ससार जीवो से शून्य हो जायेगा। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धात ] [ ४६७ प्रश्न · कृषि आदि क्रियाये धान्यादि प्राप्ति की इच्छा से की जाती हैं । करने वाला पाप कमाने के अभिप्राय से उन्हे नहीं करता है । तब कर्ता को पाप का बन्ध भी क्यो माना जावे ? उत्तर . जैसे किसान गेहू का बीज बोता है । उनके साथ भूल से कोदू का कोई बीज बोने में आ जाये तो उस कोदू के वीज से कोदू ही पैदा होगी। नही चाहने से उससे गेहू पैदा नहीं हो सकते हैं। उसी तरह कृषि आदि क्रियाओ का अदृप्टफल पाप कर्मों का बध नही चाहते भी पाप बध होगा ही। जगत मे दुखी जीव बहुत है और सुखी जीव थोडे है । इसका भी कारण यही है कि-जगत मे पाप कार्यो के करने वाले बहुत जीव हैं और पुण्य कार्यों के करने वाले थोडे जीव हैं अगर कृषि आदि 'सावद्यारभ का अदृष्ट-फल पाप वध नही होता तो जगत मे 'प्रचुर मात्रा मे दुखी जीव दिखाई नहीं देते। दूसरी बात यह है कि-समान साधनो के होते हुए भी कृषि व्यापार आदि + करने वालो मे समान फल की प्राप्ति नही देखी जाती है। इसका कारण भी जीवो का अदृष्टफल पुण्य-पाप ही माना जावेगा। कारण के विना कार्य नहीं होता है, यह नियम है । जैसे परमाणुओ से घट बनता है। यहाँ घट कार्य है, परमाणु कारण है। उसी तरह दृष्टफल मे तरतमता देखी जाती है वह भी कार्य है उस का कारण भी पुण्य-पाप ही मानना पडेगा। ___ कर्मों की सिद्धि के लिये तीसरा हेतु यह है कि ससारी जीवो की गमनादि क्रियाये बिना शरीर के नही हो सकती है। जव कोई ससारी जीव पूर्व पर्याय को छोडकर अगली पर्याय मे जावेगा तव पहिले का स्थूल शरीर तो छूट जायेगा और अगला Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ स्थूल शरीर अभी प्राप्त नही हआ। अन्तराल मे (विग्रह गति मे) उस जीव के अगर सूक्ष्म कार्मण शरीर भी नही माना जावेगा तो उसके गमन का अन्य क्या कारण होगा? विग्रहगति मे यदि आत्मा को बिल्कुल अशरीरी मान लिया जावे और अशरीरी होकर भी किसी नये शरीर मे जन्म लेना मान लिया जावे तब तो मुक्त जीवो का भी पुन शरीर ग्रहण करने का प्रसग आ उपस्थित होगा। कनों की सिद्धि के लिए चौथा हेतु यह है कि-जीवो के जो राग द्वेषादि भाव पैदा होते है वे भाव आत्मा के निज भाव तो हैं नही क्योकि उन्हे निज भाव मानने पर सिद्धो के भी उन्हे मानने पडेगे । परन्तु सिद्धो के वे है नही और यदि इन भावो को जीव के न मानकर कर्मो के माने तो कर्म पुद्गल है। अचेतन के द्वारा द्वषादि भावो का होना सम्भव नही है। जैसे उत्पन्न हई सतान न अकेली माता की है और न अकेले पिता की किन्तु दोनो ही के सयोग से उत्पन्न हुई मानी जानी चाहिए। जीव की इस वैभाविक परिणति से भी जीव के साथ होने वाला कर्म बध होता है । जैसे हल्दी और चूने के मेल से एक तीसरा ही विलक्षण लाल रग पैदा होता है । इस लाल रग मे न हल्दी का पता लगता है और न चूने का । किसी ने कहा है हरवी ने जरदी तजी चूना तज्यो सफेद । दोऊ मिल एकहि भये रह्यो न काहू भेद ॥ उसी तरह अरूपी जीव के साथ रूपी कर्म पुद्गलो का मेल होकर एक ऐसी तीसरी विलक्षण दशा पैदा हो जाती है जिसे हम जीव की वभाविक अवस्था के नाम से पुकारते है । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धात ] [ ४६६ इस अवस्था मे न तो जीव के असली रूप का पता पडता है और न पुद्गल के असली रूप का। कर्म और आत्मा का मेल कुछ ऐसे ढग का समझना चाहिए कि-दोनो एक दूसरे मे मिलकर एकस्थानीय बन जाते हैं। फिर भी दोनो का अपना-अपना स्वरूप अलग-अलग रहता है । न तो चेतन आत्मा पोद्गलिक कर्मो के मेल से अचेतन बनता है और न अचेतन कर्म चेतन बनता है। जैसे सुवर्ण और चांदी को मिला देने से दोनो एकमेक हो जाते है । तथापि दोनो धातुओ का अपना-अपना गुण अपने ही साथ रहता है- गुण एक दूसरे मे नही मिलते है। इसीलिए जब न्यारगर से उनका शोधन कराया जाता है तो वे दोनो धातुयें अलग-अलग हो जाती है । उसी तरह आत्मा का भी जब तपस्या के द्वारा शोधन होता हे तब आत्मा और कर्म दोनो अलग-अलग हो जाते हैं। फर्क इतना ही है कि शोधे हुए सोने मे कोई चाहे तो फिर भी चांदी का मेल किया जा सकता है। किन्तु शुद्ध आत्मा मे पुन कर्मों का मेल नही हो सकता है । इस फर्क का भी कारण यह है किआत्मा के साथ कर्मों का मेल किसी वक्त मे किया हुआ नही है वह अनादि से चला आ रहा है इसलिए वह मेल एक बार पूर्णतया पृथक् हो जाने पर पुन. उनका मेल बनता नही है। यदि सुवर्ण और चांदी का मेल भी इसी तरह अनादि का होता तो उस मेल के भी पूरे तौर पर फट जाने पर पुन. उनका मेल भी नही हो सकता था। दो विजातीय द्रव्य जब अनादि से मिले हुए चले आते है तो उनके पृथक हो जाने पर पुन. वे नही मिलते है । जैसे खान मे से निकला हुआ सोना विजातीय द्रव्य से मिला हुआ रहता है। एक बार सोने मे से उस विजातीय द्रव्य के पूर्णतया अलग हो जाने पर फिर सोना उस विजातीय Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ द्रव्य से नहीं मिल सकता है जैसे "तिल्ली मे तेल" इत्यादि और भी उदाहरण दिए जा सकते है। इसी दृष्टान्त के जरिए यह भी समझ लेना चाहिए कि अगर दस तोले सोने मे एक तोला चांदी मिलाई जावे तो इस मेल से सोना आसानी से पहिचानने मे आ जाता है। किन्तु वीस ताले चाँदी मे एक तोला सोना मिलाया जावे तो इस मेल मे सोने की पहिचान बड़ी मुश्किल से होती है । तथापि उस मेल मे भी सोना अपने गुण धर्म को नही छोड़कर अपने आपकी अलग सत्ता रखता है। उसी प्रकार जब आत्मा हल्के कर्मोदय से मनुष्य योनि में जाता है तो वहीं आत्मा की पहिचान आसानी से हो जाती है। किन्तु जब घोर कर्मोदय से वह निगोद मे पहुँच जाता है तो वहाँ उसको अक्षर के अनन्तवें भाग मात्र - ज्ञान रहता है। वहाँ उसकी ऐसी दशा हो जाती है कि यह जीव है कि नहीं यह पहिचानना भी कठिन हो जाता है। इतने पर भी आत्मा अपने गुण धर्म को नहीं छोड़कर वहाँ की अपनी अलग सत्ता बनाये रखता है। जीव के होने वाले कर्म संयोग की चर्चा से जैन शास्त्रों का बहुतसा भाग भरा पड़ा है। जैनधर्म मे जीव, अजीव, आस्रव, बध, सवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व माने हैं। तत्वो के ये भेद भी इसी विषय को लेकर हुए हैं। तमाम जैन शास्त्र प्रथमानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगो मे बटे हुए है। इन अनुयोगो का भी मुख्य आधार यहीं विषय है। प्रथमानुयोग मे जो कथायें लिखी मिलती हैं उनका उद्देश्य ही यह बतलाता है कि उनमे से किन-किन ने क्या-क्या अच्छे-बुरे काम किये जिनसे कर्मबन्ध होकर उनको भवातर मे Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धात ] [ - ५०१ क्या-क्या अच्छा या बुरा फल मिला । चरणानुयोग मे जीवो के लिए वे आचार-विचार बताये गये है जिससे जीव कर्मों से छुटकारा पा सके । करणानुयोग से कर्मों के अनेक भेद-प्रभेद और उनके स्वरूप का विस्तार से वर्णन है । द्रव्यानुयोग मे जीवादि द्रव्यो का वर्णन है । इस प्रकार यह कर्मसिद्धात का विषय जैन साहित्य मे सर्वत्र गर्भित है । यह नही तो जैनधर्म ही नही है और तो क्या मोक्ष मार्ग ही इसी विषय पर आधारित है । प्रश्न : आत्मा के साथ बधे हुए कर्मों को भी जैन शास्त्रो मे कार्मण शरीर माना है और यह भी कहा है कि वह सदा संसारी जीवो के साथ रहता है । तो फिर अन्य औदारिकादि शरीरो के धारण करने की जीव को क्या आवश्यकता है ? एव कार्मण शरीर ही काफी है 1 उत्तर सूत्रकार उमास्वामी आचार्य ने "निरुपभोगमत्य" इस सूत्र के द्वारा बताया है कि फार्मेण शरीर उपभोग रहित है और बाधे हुए कर्मों का फल इस जीव को शरीर ग्रहण किये बिना नही मिल सकता है। क्योकि इन्द्रियो के इष्ट-अनिष्ट विषयो की प्राप्ति से ससारी जीवो को सुख-दुख का अनुभव होता है और इन्द्रियों का आधार शरीर है, इससे यह प्रवट होता है कि शरीर होने पर ही जीव को कर्मों का फल मिल सकता है । माना कि कार्मेण भी शरीर है परन्तु उसके अन्य शरीरो की तरह द्रव्येन्द्रिय नही हैं । इसलिये यह जीव उसके द्वारा इन्द्रिय विषय को ग्रहण नहीं कर सकता है । ऐसी हालत मे आत्मा उस कार्मण शरीर के द्वारा तो कर्मों का फल योग नही सकता है इसलिये आत्मा को चार गति के योग्य • Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ अलग-अलग शरीर ग्रहण करके कर्मों का फल भोगना पडता है । जैसे सीढियो के बिना मकान के ऊपर की छत का उपभोग नही किया जा सकता उसी प्रकार कार्मण शरीर के द्रव्येन्द्रियाँ न होने से अकेले उसके द्वारा भी जीव उपभोग नही कर सकता । प्रश्न अगर ऐसी बात हैं तो कार्मण को जीव का शरीर ही क्यो माना जावे ? उत्तर उपभोग होना यह हेतु शरीर की सिद्धि के लिये नही है । अन्यथा तैजस भी शरीर नही रहेगा क्योकि वह भी निरुपभोग है । बल्कि तेजस तो कार्मण की तरह आत्म परिस्पदनरूप योग का निमित्त भी नही है तब भी वह शरीर, माना गया है। इससे यही फलितार्थ निकलता है कि- जो विजातीय द्रव्य आत्मा मे मिलकर एकमेक ( एक क्षेत्रावगाही ) हो जाता है उसी की गणना यहाँ काय मे की गई है। इस अपेक्षा कार्मण को भी जीव का काय कहा जा सकता है । · प्रश्न जैन शास्त्री मे कर्म वर्गणाओं को पौद्गलिक माना है । उसी से कार्मण शरीर बनता है । इस मूर्त शरीर के साथ आत्मा का बन्ध नही हो सकता है । उत्तर : स्थूल ओदारिक शरीर के साथ आत्मा का सम्बन्ध प्रयत्क्ष दिख रहा है तो सूक्ष्म कार्मण शरीर के साथ होना क्यों नहीं माना जावे ? और आत्मा का ज्ञानगुण अमूर्त हैं वह भी मदिरापान से विकृत हो जाता है । तथा ब्राह्मी आदि के सेवन से ज्ञानगुण का विकास होता है । इस तरह अमूर्त ज्ञान Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५०३ जैन कर्म सिद्धात ] पर मूर्त पदार्थों का असर होना भी प्रत्यक्ष है। जब अमूर्त का मूर्त के साथ सम्बन्ध प्रत्यक्ष हमारे सामने है तब परोक्ष सूक्ष्म कार्मण शरीर के साथ आत्मा का सम्बन्ध भी क्यो नही माना जा सकता है ? माना कि जीव और कर्म दोनो विजातीय हैं एक अमूर्त और चेतन है तो दूमरा मूर्त और अचेतन है। इस विजातीय सम्बन्ध से ही तो जीव की अशुद्ध दशा हुई है। ऐसी दशा जीव की कभी किसी की हुई नहीं है, वह अनादिकाल से चली आ रही है । जो दशा अनादि से चली आ रही है। उसमे तर्क नहीं किया जा सकता कि ऐसा विजातीय सम्बन्ध कैसे हुआ। जैसे पाषाण के साथ सुवर्ण ना सयोग जिसे कनकोपल कहते है । सयोग भी तो विजातीय ही है । कहाँ सुवर्ण और कहाँ पाषाण ? पर क्या किया जावे खान मे से निकलते वक्त अनादि से दोनो का ऐसा ही सयोग है। अगर जैन धर्म ऐसा कहता होता कि पहले आत्मा कर्म सयोग से रहित था बाद मे उसके कर्मों का बध हुआ है तब तो ऐसा तर्क करना भी वाजिव हो सकता है कि-अमूर्त का मूर्त के साथ बन्ध कैसे हुआ ? परन्तु जैनधर्म तो जीव और कर्म के सम्बन्ध को अनादि कहता है । वस्तु की जो व्यवस्था विना किसी के की हुई अनादि से चली आ रही है। उसमे तर्क की कोई गु जाइश ही नहीं है। जैसे अनादि से चले आ रहे सुवर्ण और पाषाण के मेल मे कोई तर्क करे कि यह विजातीय सम्बन्ध क्यो हुआ? कैसे हुआ ? ऐसा तर्क नि सार है । उसी तरह जीव और कर्म के सम्बन्ध मे तर्क करना निसार है। मूर्तिक औदारिकादि शरीरो का सम्बन्ध भी आत्मा के इसी कारण से होता है कि-मूर्त कार्मण शरीर का सम्बन्ध आत्मा के पहिले ही से हो रहा है। अगर कार्मण से सम्बन्धित Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ आत्मा पहले से न होता तो औदारिकादि शरीरो का सम्बन्ध भी आत्मा के नहीं हो सकता था। मतलव कि मूर्त कार्मण शरीर का सूक्ष्म मिश्रण आत्मा के साथ पहले ही से हो रहा था इसी से मूतं औदारिकादि शरीरो का स्थूल मिश्रण भी उस मिश्रण मे मिल जाता है। अगर पहले से सूक्ष्म मिश्रण न हुआ होता तो बाद मे स्थूल मिश्रण भी नही हो सकता था। यह स्थूल मिश्रण मी सूक्ष्म कार्मण शरीर की सिद्धि में एक हेतु हो मकता है। पूर्व मे बिना कार्मण शरीर के सम्बन्ध के अन्य औदारिक शरीरो का सम्बन्ध होना मानने पर मुक्त जीवो के भी पुन शरीर ग्रहण करने का प्रसग आवेगा । इत्यादि कथन भाचार्य विद्यानदि ने तत्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय के "सर्वस्य" मूत्र की व्याख्या करते हुए श्लोकवातिक मे निम्न शब्दो में प्रकट किया है सर्वस्यानादिसंबंधे चोक्ते तैजसकामणे । शरीरांतरसंबंधस्यान्यथानुपपत्तितः तैजसकार्मणभ्यामन्यच्छरीरमौदारिकादि, तत्सबधोऽस्मदादीना तावत् सुप्रसिद्ध एव स च तैजसकार्मणाभ्यां सवधोऽनादि सवधमतरेण नोपपद्यते मुक्तस्यापि तत्सवधप्रयोगात् ।' अर्थ-सभी जीवो के तैजसकार्मण शरीर अनादिकाल से सम्बन्ध रखनेवाले कहे गये है। यदि ऐसा न माना जायेगा तो अमूर्त जीव के अन्य मूर्त और औदारिकादि शरीरो के सम्बन्ध की सगति ही नही बन सकेगी। तैजस और कार्मण शरीर से जदे औदारिकादि शरीर है। उनका सम्बन्ध हम ससारी जीवो __ के हो रहा है, यह प्रसिद्ध ही है। वह सम्बन्ध तैजसकार्मण के Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धांत ] [ ५०५ साथ अनादि सबध माने बिना नही बन सकता है | अन्यथा मुक्त जीव के भी उन शरीरो का सम्बन्ध प्रयोग होने लग जावेगा । भावार्थ - अमूर्त आत्मा का मूर्त तेजमकार्मण शरीरो के साथ अनादि से सम्बन्ध चला आ रहा है । इसी से तो हमारी आत्मा के साथ ओदारिक शरीर का सम्बन्ध प्रत्यक्ष दिख रहा है । अन्यथा अमूर्त का मूर्त के साथ सम्बन्ध नही हो सकता था । यह ससारी जीव औदारिकादि स्थूल शरीरो के साथ बहुत काल तक रहता है | अकेले सूक्ष्म कार्मण शरीर के साथ तो बहुत ही कम रहता है । वह भी हर विग्रहगति में अधिक-से-अधिक तीन समय मात्र ही । 1 1 जीव और कर्मोका सम्बन्ध जो अनादिकाल का कहा जाता है वह प्रवाह की अपेक्षा समझना चाहिये । जैसे मनुष्य लोक में मनुष्य जन्मते और मरते हैं परन्तु लोक कभी मनुष्यो से शून्य नही रहा है । यह प्रवाह सदा से चलता आ रहा है । उसी तरह आत्मा मे पुराने कर्म झडते और नये कर्म बघते रहते हैं । आत्मा कभी कर्म शून्य नही रहा है । यह प्रवाह अनादि से चला आ रहा है । जैसे बीजो से वृक्ष पैदा होते है और वृक्षो से बीज पैदा होते हैं यह परम्परा अनादि मे चली आ रही है । न पहले बीज हुआ और न पहिले वृक्ष हुआ । बीज को पहले माने तो वह बिना वृक्ष के कहा से आया और वृक्ष को पहले माने तो वह भी वीज के बिना कैसे पैदा हुआ ? इसलिये दोनो को अनादि मानने से ही वस्तु व्यवस्था वन सकती है । उसी तरह कर्मों के निमित्त से जीव के रागद्वेष भाव पैदा होते है और रागद्वेष से पुन कर्मों का बन्ध होता है यह सिलसिला भी अनादि से चला आ रहा है । जीव के न पहले रागद्वेषादि भाव हुए और न Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ पहले कर्म हए । गगटेप को पहले मानें तो विना कर्मोदय के कैसे हुए ? और कर्मों को पहले माने तो वे भी रागद्वेप के विना जीव के कसे बन्ध गये ? इसलिए यहा भी दोनो ही को अनादि मानने से वस्तु व्यवरथा बन सकेगी। पचास्तिकाय ग्रन्य में कहा है किजो पुण संवारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥१२॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इन्दियाणी जायते । तेहि दु विसयगहण तत्तो रागो य दोसो वा ॥१२६।। जायदि जीवस्सेयं भावो ससारचक्कवालम्मि। इति-जिणवरेहि भणिदो अणादि णिधणो सणिधणो वा ॥१३०॥ अर्थ-जो जीव ससार मे स्थित है उसके रागद्वेष रूप परिणाम होते है । उन परिणामो से नये कर्म वधते हैं। कर्मो से गतियो मे जन्म लेना पडता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है। गरीर मे इन्द्रियाँ होती है। इन्द्रियो से यह जीव विषयो को ग्रहण करता है । विपयो के ग्रहण करने से इष्ट विषयो मे रागभाव व अनिष्ट विषयो मे द्वेषभाव पैदा होता है। इस प्रकार ससार चक्र मे पड़े हुए जीव के भावो से कर्मवन्ध और कर्मवन्धर Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धात ] [ ५०७ से रागद्वेष रूप भाव होते रहते है । यह चक्र अभव्य जीवो की अपेक्षा से अनादि अनन्त है और भव्य जीवो की अपेक्षा से अनादिशात है । यह जीव स्थूल शरीरो को अनन्तवार ग्रहण कर-कर के छोडता आया है । परन्तु तव भी यह संसार से नही छूट सका है । जब तक इसके सूक्ष्म कार्मण शरीर लगा हुआ है तब तक यह संसार से नही छूट सकता है । जैसे जब तक चावल पर से छिलका दूर नही हो जाता तब तक उसमे अकुरोत्पत्ति वनी ही रहेगी । उसी प्रकार जब तक कर्मरूप छिलका आत्मा पर बना हुआ है तब तक ससाररूप अकुर भी बना ही रहेगा । भावकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से भावकर्म होता रहता है । पूर्वक के उदयकाल मे होने वाले रागट्टप भावो को भावकर्म कहते है और रागद्वेप से होने वाला कर्मबन्ध द्रव्यकर्म कहलाता है । प्रश्न पूर्व सचित कर्मों के उदय से रागद्वेष भाव होते हैं और रागद्वेष से नये कर्म वधते है यह क्रम बीज वृक्ष की तरह अगर अनादि से चला आ रहा है तो इसका उच्छेद तो कभी होने का नही है । उत्तर : आगम वाक्य ऐसा है नांकुरः । दग्धे चीजे यथात्यय प्रादुर्भवति कर्म वीजे तथा दग्धे न रोहति भवाकुरः ॥ अर्थ जैसे चले हुए बीज मे बिल्कुल भी अकुर पैदा नहीं होता है । उसी प्रकार कर्मरूपी बीज के जला देने पर उससे भी वाकुर उत्पन्न नही होता है । तात्पर्य इसका यह हुआ कि - Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 . . ÷ - , ,. 3 ፥ 5 ' ,' • . : : : : : : • * : 3 : : : : : : : : : : 3 : : | fን ;' ገ 7፡f? ፲: ~ . : :f7 ኛ ፡ ነ | f: inff፡ ኸ፡፡ * የጫካ ፧ it . ነ :: ኖረ፥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धात [ ५०६ का स्वभाव पडेगा । इसे ही प्रदेशवंध और प्रकृतिवध कहते है | योग से सिर्फ इतना ही काम होता है । कर्मों का आत्मा के साथ अमुक काल तक टिके रहना और अपना फल आत्मा को पहुँचाना जिसे कि स्थिति बन्ध और अनुभाग वन्ध कहते है यह काम अकेले योग का नही है, योग के साथ होने वाली कषायो का है । कषायो के बिना कर्म परमाणु आत्मा मे टिकते नही हैं । जैसे आते हैं वैसे ही चले जाते है । जैसे एक स्तम्भ पर यदि सच्चिकण वस्तु तैलादि लिपटे हुए हो तो वायु से उड़कर आई धूलि स्तम्भ पर चिपट जाती है । वरना चिपटती नही हैस्तम्भ का स्पर्शमात्र होकर वह गिर पडती है । स्तम्भ पर जितना हलका- गहरा चेप लगा होगा उसी माफक धूलि हलकीगहरी चिपक सकेगी। उसी तरह यदि कपाय तीव्र होगी तो कर्म जीव के साथ बहुत समय तक बन्धे रहेंगे और फल भी तीव्र देंगे । यदि कषाय हल्की होगी तो कर्म कम समय तक बन्धे रहेगे और फल भी कम देगे । कर्मो के स्वभाव आठ प्रकार के हैं, इस कारण उन-उन स्वभाव के रखने वाले कर्मों के नाम भी वैसे ही रख दिये गये हैं । वे नाम इस प्रकार हैं ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अतराय । (१) ज्ञानावरण कर्म - जीव के ज्ञानगुण को पूर्णत प्रगट नही होने देता है । इसी की वजह से अलग-अलग जीवो से ज्ञान की होनाधिकता पाई जाती है । (२) दर्शनावरण कर्म -- जीव के दर्शनगुण को ढाकता है । (३) वेदनीय कर्म - जीव को सुख-दुख का अनुभवन कराता है । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ (४) मोहनीय कर्म - मोहित कर देता है- मूढ बनाता है । इसके दो भेद है एक वह जो जीव को सच्चे मार्ग का भान नहीं होने देता, इसका नाम दर्शन - मोहनीय है । दूसरा वह जो सच्चे मार्ग का भान हो जाने पर भी उस पर चलने नही देता । इसे चारित्र मोहनीय कहते हैं । (५) आयु कर्म - यह किसी अमुक समय तक जीव को किसी एक शरीर मे रोके रखता है । इसके छिद जाने पर जीव की मृत्यु कही जाती है । (६) नाम कर्म - इसकी वजह से शरीर और उसके अगोपाग आदि की रचना होती है । चौरासी लाख योनियो मे जो जीव की अनन्त आकृतियाँ है उनका निर्माता यही कर्म है । (७) गोत्र कर्म - इसके कारण जीव ऊँच-नीच कुल का कहा जाता है । ( 5 ) अन्तराय कर्म - इसकी वजह से इच्छित वस्तु की प्राप्ति मे रुकावट पैदा होती है । जैन सिद्धांत मे कर्मों की १० मुख्य अवस्थायें या कर्मों में होने वाली दस मुख्य क्रियायें बतलाई है जिन्हें करण कहते हैं । उनके नाम-बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, सत्ता, उदय, उदीरणा, सक्रमण, उपशम, निर्धात्ति ओर निकाचना है । बंध - कर्म पुद्गलों का जीव के साथ सम्बन्ध होने को बन्ध कहते है | यह सबसे पहली दशा है । इसके बिना अन्य कोई अवस्था नहीं हो सकती । इसके चार भेद है - प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेश बन्ध । जब जीव के साथ कर्म पुदुगलो का वध होता है तो उनमे जीव के योग और Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धात ] [ ५११ काय के निमित्त से चार बाते होती है । प्रथम तुरन्त ही उनमे ज्ञानादिक के आवरण करने वगैरह का स्वभाव पड जाता है । दूसरे उनमे स्थिति पड जाती है कि ये अमुक समय तक जीव के साथ वन्धे रहेगे | तीसरे उनमे तीव्र या मन्द फल देने की शक्ति पड़ जाती है । चौथे वे नियत तादाद से ही जीव से सम्बद्ध होते हैं । उत्कर्षण- स्थिति और अनुभाग के वढने को उत्कर्षण कहते हैं । अपकर्षण- स्थिति और अनुभाग के घटने को अपकर्षण कहते है | बन्ध के बाद बन्धे हुए कर्मों मे ये दोनो उत्कर्षणअपकर्षण होते है । बुरे कर्मों का बन्ध करने के बाद यदि जीव अच्छे कर्म करता है तो उसके पहिले बाधे हुए बुरे कर्मों की स्थिति और फलदान शक्ति अच्छे भावो के प्रभाव से घट जाती है । इसे ही अपकर्षण कहते हैं और अगर बुरे कर्मों का बन्ध करके उसके भाव और भी अधिक कलुषित हो जाते है जिससे वह और भी अधिक बुरे काम करने पर उतारू हो जाता है तो बुरे भावो का असर पाकर पूर्व मे बाधे हुए कर्मों की स्थिति और फलदान शक्ति और भी अधिक बढ जाती है, इसे ही उत्कर्षण कहते है । इन दोनो के कारण ही कोई कर्म जल्दी फल देता है और कोई देर मे । तथा किसी कर्म का फल तीव्र होता है और किसी का मन्द - सत्ता - बधने के बाद तुरन्त ही कर्म अपना फल नही देता है। कुछ समय बाद उसका फल मिलना शुरू होता है । तब तक वह सत्ता में रहता है । जैसे शराब पीते ही तुरन्त Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ] [ ★ जन निवन्ध रत्नावली माग २ अपना अगर नहीं देती किन्तु कुछ समय बाद बपना यसर दिगनाती है। वैसे ही गमगी वधने के बाद तुरन्त अपना फल न देकर कुछ समय तक मत्ता में रहते है। इस काल को जैन परिभाषा में अबाधा पाल करते हैं। उदय-कमों के फल देने को उदय कहते हैं। यह उदय दो तरह का होता है। फलोदय और प्रदेशोदय । जव कम अपना फल देर आत्मा ने अलग हो जाता है तो वह फलोदय कहा जाता है और जब ममं बिना फल दिये ही अलग हो जाता है तो उसे प्रदेशोग्य करते हैं। उदीरणा-मे मामी को पाल में देने से वे डाल की अपेक्षा जत्दी पक जाते है। उमी तरह कभी-कभी कर्मों का अपना स्थितिकाल पूरा किये बिना ही फल भृगता देना उदीरणा कहलाती है। उदीरणा के लिये पहिले अपकर्षणकरण के द्वारा नम की स्थिति को कम करना पड़ता है। जब कोई असमय में भी मर जाता है तो उसकी अकाल मृत्यु कही जाती है। इसका कारण बायु कर्ग की उदीरणा ही है। स्थिति का घात हुए विना उमीरणा नहीं होती। सक्रमण-एक कर्म का दूसरे सजातीय कर्मस्प हो जाने को सक्रमणकरण कहते हैं । यह सक्रमण कमों के मूल भेदो मे नही होता है न जानावरण दर्शनावरण रूप होता और न दर्शनाचरण ज्ञानावरण रुप ही। किन्तु अपने ही अवातर भेदो में होता है जैसे वेदनीय कर्म के दो भेदो से साता वेदनीय असाता वेदनीय रूप हो सकता है और असाता वेदनीय साता वेदनीय रूप हो सकता है। किन्तु कर्म के लिये अपवाद है। आयु कर्म के चार भेदो मे परस्पर सक्रमण नही होता है। जिस मति की Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धांत ] [ ५१३ आयु बाधी है नियमतः उसी गति मे जाना पड़ता है । उसमें रद्दोबदल नही हो सकता उपशम-कर्म को उदय मे आ सकने के अयोग्य कर देना उपशमकरण कहलाता है । निघत्ति - जिस कर्म की उदीरणा हो सकती हो किन्तु उदय और संक्रमण न हो सके उसको निधत्ति कहते हैं । निकाचना - जिस कर्म की उदीरणा, सक्रमण, उत्कर्षेण और अपकर्षण ये चारो ही अवस्थायें न हो सकें उसे निकाचनाकरण कहते है । और भी कर्म सिद्धांत की बहुत सी बाते हैं जो जैन कर्म साहित्य से जानी जा सकती हैं । यहाँ विस्तारभय से नहीं लिखा जाता । शंका-कर्म जड (ज्ञान शून्य ) होते है । उन्हे ऐसा बोध ही नही होता कि - अमुक जीवो को अमुक समय पर उनकी अमुक-अमुक करणी का अमुक-अमुक फल देना है, ऐसी सूरत मे जैनो का कर्म सिद्धात निरर्थक सा प्रतीत होता है । समाधान - जड पदार्थ भी अपनी शक्ति और स्वभाव के अनुसार ठीक समय पर व्यवस्थित काम करते देखे जाते है । समुचित मात्रा मे सर्दी गर्मी के मिलने पर बर्फ गिरना, बरसात होना, ठंडक - गर्मी का पडना, बादलो के आपस मे टकराने पर बिजली उत्पन्न होना, भूचाल -तूफान आना, ऋतुओ का पलटना आदि प्राय सभी काम जड़ पदार्थों के अपने-अपने स्वभावानुसार ठीक समय पर अपने आप हो जाया करते है । कोई भी ज्ञान - धारी वहा कुछ करने धरने नहीं पहुचता है । हम भोजन करते Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ ॥ [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ है। हमागकाम गिर्फ बाहार को पेट में रहेंचा देना होता है। जागे वह उदरस्थ आहार बगर हमारी प्रयत्न के अपने आप अनेक क्रियाये परता है । यथायोग जटगाग्नि के द्वारा यथायोग्य न, रक्त, माग, अग्यि. मज्जा, वीयर्यादि बन जाते है। यह मव काम जाहीरता है कि यह प्रत्यक्ष है । यह बात निम्न गाथा में नहीं - जह पुरिसेणाहारो गहियो । परिणमइ सो अणेयविहं। मसवसा गहिरादी भाये। उपरगिसंजुत्तो ॥१७॥ [समयमामुन] अर्थ-जिन प्रकार प्रभा के द्वारा गाया गया भोजन जठराग्नि के निमित्त से मास, चरवी, मधिरादि रूप परिणत हो जाता है उसी प्रकार यह जीव अपने भावी के द्वारा जिम कर्म पुजको ग्रहण करता है। उनका तीत्र, मंद मध्यन कपाय के अनुमार विविध न्य परिणमन होकर वह अनेक प्रकार से फल देता है। आये दिन अखवारी में पूर्व जन्म की घटनाय उपती रहती हैं जिनमे कर्मों की फल प्राप्ति का भी जिकर आ जाया करता है। ऐसी ही एक घटना का हाल हम यहाँ लिख देते हैं .. आयरलैंड मे एक बार वर्ष के बालक ने अपनी पूर्व जन्म की कथा लोगों के सामने अपने माता-पिता को बार-बार सुनाई। प्रथम तो माता-पिता का उस कथा को सुनकर विश्वास ही नहीं हुआ और यह समझा कि बालक के मस्तक मे बिगाड़ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म सिद्धात ] [ ५१५ हो गया है या माइड मे गर्मी बढ गई दिखती है, इसलिये इसका अच्छा इलाज कराना चाहिये । अनेक अच्छे-अच्छे डाक्टरो ने उस बालक के मस्तिष्क की जाच करके कहा कि इसका मस्तिष्क पूर्णत शुद्ध और निर्विकार है । जैसा उत्तम मस्तिष्क इसका है वैसा अन्य बालको मे मिलना कठिन है । तब लाचार होकर माता-पिता ने उस बालक के कथनानुसार उसके जन्मातर के माता-पिता की खोज कराई । वालक ने जन्मातर के अपने माता पिता का निवास काठियावाड मे राजकोट के पास एक ग्राम में बताया था । भारत सरकार द्वारा शोध की गई तो उसके माता-पिता आदि के नाम उस बालक की पूर्व जन्म में मरने की तारीख, उसके बताये घर के काम सब ज्यों के त्यो मिल गये । मरण के ।। मास बाद उस बालक ने आयरलैंड मे जन्म लिया था । पूर्व जन्म मे उस बालक के जीव ने एक पडोसी बुढिया की रुग्णावस्था मे सेवा की थी और गरीब लोगो को वस्त्र दान से बाटे थे । जिन वस्त्रो को वह दान मे देता था, एक दिन उनमे सर्प छिपकर बैठ गया और चालक के पूर्वभव के जीव को काट खाया उससे मरकर वह आयरलैंड में एक करोडपति के यहाँ पैदा हुआ " t इस प्रकार कर्म सिद्धांत के विपयो में जितनी युक्तियुक्त और सूक्ष्म विवेचना जैनधर्म मे की गई है वैसी अन्य धर्म मे नही है । अनेकातवाद, अहिंसावाद की तरह कर्मवाद भी जैनधर्म का एक खास सिद्धांत है । कर्म क्या है ? क्यो बन्धते हैं ? बन्धने के क्याक्या कारण है ? जीव के साथ वे कब तक रहते हैं ခု क्या-क्या फल देते हैं ? उनसे छुटकारा कैसे हो सकता है ? इत्यादि वातों का खुलासा केवल जैन-धर्म मे ही मिलता है और बिल्कुल वैज्ञानिक ढंग से मिलता है । J Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ क्या कभी जैनी भाई भी विद्वानों का आदर करना सीखेंगे ? "वीरवाणी" के हाल ही के अक में बम्बई मे इन वीस वर्षों में किसी जैन विहान का स्थायी निवास न होने पर विता व्यक्त की गई है। अभी हुआ हो क्या है ? नागे २ देखना होता है क्या ? जैन विद्वानों के प्रति जैसा रवैय्या दि० जैन समाज अपना रही है, यदि यही हाल रहा तो थोड़ेही वर्षों मे बम्बई ही नही जय शहने के लिये भी यह चिता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जायेगी। हम देखते है कि जिस दि० जैन समाज मे विद्वत्ता की प्राप्ति से न तो जीविका की समस्या हल होती है और न ही उसका विद्वता के लिहाज से सन्मान ही होता है । उस समाज मेला विहान बनने की किसको इच्छा होगी ? यहाँ तो सब धान २२ पसेरी है, यह तो वणिक समाज है । इस समाज मे विद्वानों की कदर नही है । धनाढ्‌यों की कदर हैं । यहाँ विद्या से अधिक धन को महत्व दिया जाता है। एक विद्वान् शास्त्रोक्त बात कहे तो पंचायत में उसकी कोई नही सुनेगा । वहाँ श्रीमतो का ही बोलवाला देखा जाता है उन्होंने जो कुछ कह दिया तो उनकी हाँ में हाँ सब मिला देंगे। हाल है । " धनवान् बलवान् लोके धनादुद्भवति पडितः " की ऐसा इस समाज का Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१७ उक्ति यहाँ चरितार्थ हो रही है । " विद्वान् सर्वत्र पूज्यते” का जमाना अब नही रहा । वह पुराना जमाना था जब राजा भोज जैसे विद्याप्रेमी नरपु गव इस धरातल पर बसते थे । उनके लिये कहा जाता है कि एक महाविद्वान् ने जिस दम यह सुना कि राजाभोज का स्वर्गवास होगया तो उसके मुँह से एकदम निकल पड़ा कि - क्या सभी जैनी भाई 7 08 1 अद्य धारा निराधारा निरालबा सरस्वती । पंडिता खडिताः सर्वे भोजराजे दिवगते ॥ अर्थ - राजा भोज के स्वर्ग सिधारने पर आज धारा नगरी निराधार होगई । सरस्वती को अब आश्रय देने वाला कोई नही रहा । पडित सब खडित होगये उनका मान सन्मान करने वाला उठ गया । -- राजा भोज की यह घोषणा थी कि मेरी नगरी मे संस्कृत का पाठी यदि कुम्हार भी है तो वह खुशी से रहो । पर यदि ब्राह्मण भी है और वह संस्कृत विद्या से हीन है तो वह मेरी नगरी मे नही रह सकता है । कहते है कि उसकी इस नीति के फलस्वरूप उसकी पालकी को ढोने वाले कहार तक संस्कृत के ज्ञाता थे । प० आशाधरजी ने अनगारधर्मामृत की टीका मे प्राचीन पद्य इस प्रकार उद्धृत किया है - जैन ततदाधारौ तीर्थं द्वावेव तत्वत 1 संसारस्तीर्यते ताम्यां तत्सेवी तीर्थसेवकः ॥ [ संस्कृत संस्करण पु० १४० ] Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___५१८ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ अर्थ-जिनवाणी और जिनवाणी के नाता पडित ये दो ही वास्तव में तीर्थ है । क्योकि ये दोनो ही इस जीवको ससार से तिरानेवाले है। जो उनको सेवा करते है वे ही सच्चे तीर्थ सेवक कहलाते हैं। मानाकि हमारे प्रतिभाशाली आचार्यों ने हमारे कल्याण के वास्ते उच्चकोटि के नास्त्र रच कर भगवान की वाणी को हमारे तक पहुँचाई। किन्तु उन शास्त्रो को जानने पढने वाले ये पदित लोग ही जब नही रहेंगे तो उनका व्याख्यान कौन करेगा ? शान्त्र हो सब बेकार हो जायेगे। इमलिये उक्त प्राचीन पद्य मे शास्न ही नहीं शास्त्री के ज्ञाताओ को भी तीर्थतुल्य बताया है वह यथार्थ है। उनमे कुछ भी अत्युक्ति नहीं है । मुमुक्षओ के लिये तो एक तरह से वे जैन पंडित ही चलते फिरते जगमतीर्थ हैं। इसमें कोई शक नहीं है। किन्तु ये बातें तो उन युग की थी, जब प्राणियो की वाछा ससार सागर से तिरने की रहा करती थी। उनके लिये तो सचमुच ही जैन पडित तीर्थतुल्य ही थे। किन्तु वर्तमान का युग तो अर्थ युग है। इस युग के मनुष्य समार से तिरना ही नही चाहते हैं उन्होंने तो अपना सबसे बडा कल्याण धन के संग्रह करने मे समझ रक्खा है। जिम परिग्रह को जैनाचार्योने पाप बता कर उसे त्यागने का उपदेश दिया उसी परिग्रह के सचय मे इन्होंने अपना उद्धार मान लिया है और कुछ तो धनमद से ऐसे उद्ध त होगये है किये जैन पडितो को तीर्थतुल्य तो क्या मानेंगे उन्हे तृणतुल्य भी नहीं मानते । ऐसी स्थिति मे इनसे यह आशा कभी नहीं की जा सकती कि ये जैन पडितों को तीर्थतुल्य मानेंगे। आचार्य श्री वीरनन्दि ने चद्रप्रभ काव्य मे लिखा है कि Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘क्या सभी जैनी भाई ... ] [ ५१६ "न हारयष्टि. परमेव दुर्लभा समतभद्रादिभवा च भारती ।" बहुमूल्य हार की लडी इतनी दुर्लभ नहीं है जितनी कि समतभद्रादि ऋषियो की वाणी दुर्लभ है। यह प्रतिष्ठा की बात है कि आज के कुछ जैनधन कुबेर साहित्य की ओर आकर्षित हुये है । वे किसी विशिष्ट साहित्यिक रचना पर प्रति वर्ष लाख २ रुपयो का पुरस्कार देने मे भी सकोच नही करते हैं । ये पुरस्कार अभी तक जैनेतरो को ही मिल पाये है। क्योकि उसका कार्यक्षेत्र सार्वजनिक है। उसका उद्देश्य प्रधानत जिनवाणी के ज्ञाता विद्वानो के प्रोत्साहन के लिये नहीं है । जिस जिनवाणी को कि हमारे आचार्यों ने अपार । मूल्य की बताई है। पं० आशाधरजो ने कहा है--- .! "वरमेकोऽप्युपक तो जनो नान्ये सहस्रश ।" - "एक भी जैन का उपकार करना जितना श्रेष्ठ है उतना अन्य हजारो का उपकार करना नही है ।" इस मर्म को समझने की जरूरत है। जैन साहित्य और उसके ज्ञाताओं के विना त्रिकाल में भी जैनधर्म का प्रकाश नहीं हो सकता है यह अटल सत्य है । एक कवि ने भी कहा है कि अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नही है । है वह मुर्दा देश, जहाँ साहित्य नहीं है । आज के श्रीमानो को जैन पडितो की जरूरत भी क्या है । इनके विना उनका कौनसा काम विगड रहा है ? कभी २ उनको पूजा प्रतिष्ठा या जैन विवाहादि के अवसर मे जैन Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ पडितो की जरूरत पड़ जाती है तो थोडी बहुत उनकी खुशामदी करके अपना काम निकाल ही लेते है । काम निकले वाद कभी उनको फूटी आँख से भी वे नही देखते है। अहसान मानना तो दूर रहा । यही नहीं जैन लेखक जब समय लगा कर बडे परिश्रम से लेख लिखकर अपना ही गाठ का डाक खर्च लगाकर उन्हें दि० जैन पत्रो मे प्रकाशनार्थ भेजते हैं तो पत्रकार उन्हे किसी तरह छाप तो देते हैं । परन्तु जिस अक मे वह छापा जाता है वह अक भी उन लेखको को फ्री नही भेजा जाता है। इस अनुदारता का भी कोई ठिकाना है। ऐसी नीति जैनमित्र आदि कुछेक पत्रो को छोड़कर बाकी सब ही की है। श्वेताम्बर जैन पत्रकार तो अंक ही नहीं दि० जैन लेखको को पुरस्कार तक भी देते हैं । गीताप्रेस गोरखपुर का विख्यात पत्र 'कल्याण" में भी किसी का लेख छपता है तो लेखक को साधारण अक ही नहीं उसका बहुमूल्य विशेषाक भी भेट मे मिलता है। परन्तु दि० जनपत्रो का अजब हाल है। उन्हे लेखको की परवाह नहीं है। जिस समाज में पंडितो के प्रति ऐसा रूखा व्यवहार है उस समाज मे पडित नजर आरहे है यहो आश्चर्य है। समाज की जैसी मनोवृत्ति है वैसी ही दशा उसकी होकर रहेगी । वह समय दूर नही जब संक्डो कोसो पर कोई विरला ही जैन पडित सुनने को मिलेगा और तब पडितों के लिये समाज तरसेगी। आये साल जैन पडितो की कमी होती जा रही है। इस वर्ष ही तीन प्रसिद्ध पडित-अजितकुमार जी, जुगलकिशोरजी और चैनसुखदासजी चल बसे । इसी तरह दस बीस वर्षों में पुराने पडित सब दिवगत हो जायेंगे । और समाज को पडितो के प्रति वर्तमान मे जो उपेक्षावृत्ति है उसे देखते हुये नये पडित भी कोई क्यों बनेगे ? Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२१ 1 हमने भूमिका ही कुछ ऐसी वनादी है जिससे पण्डित होता एक अभिशापही समझा जावेगा ( जैन पण्डितो की दो स्थानो के लिये माग होती है- एक जैन विद्यालयो में अध्यापक के लिये और दूसरी शास्त्र सभा के लिये । सो शास्त्र सभा के लिये तो ऐसी कोई जरूरी नही है, पण्डित आसानी से मिल जाये तो ठीक है, नही तो न सही । क्योकि धार्मिक रुचि लोगो मे घटती जा रही है । रही अध्यापकी की बात सो जैन विद्यालय तो तेजी से उठते जा रहे हैं । क्योकि आज के जैनी भाई प्राय अपने लडको को सरकारी स्कूलो मे ही पढाना ही अच्छा समझते है । कारण कि वहाँ की पढाई से अच्छी तनखा पर सरकारी नौकरी मिल जाती है ऐसी उनकी धारणा है। जैन विद्यालय की पढाई से तो न समाज मे पूछ है और न कोई नौकरी है । ओर जैन विद्यालयो मे नौकरी भी कही मिल जाये तो बहुत कम वेतन पर, जिससे उसका गुजारा भी मुश्किल से चले । अत उनका कहना है कि इस पढाई को पढाना एक तरह से लडको का जीवन बिगाडना है इस प्रकार जिन कामो के लिये जैन पण्डितो की जरूरत पडती थी वे काम ही अब नही रह रहे हैं तो नये जैन पण्डित होने की आशा ही अब क्या की जावे ? ) इतना सबकुछ होते हुए भी समाज जैन पण्डितो का बहु सन्मान करती होती, उनको अपनी पलको पर बैठाती होती तभी कुछ गनीमत थी, इससे यह क्रम किसी तरह चलता रहता, किन्तु आज तो स्थिति बडी भयकर है । समाज हितैषी नेताओ का प्रमुख कर्त्तव्य है कि वे इस समस्या पर दूरदर्शिता से अविलम्ब विचार करे । 1 क्या कभी जैनी भाई ... ] विद्वानो के प्रति ही नही, अधिकांश श्रीमतो की अभिरुचि तो जैन साहित्य के प्रति भी नही है । प्राय सभी जैन Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ मन्दिरी के प्रबंधक ये ही लोग होते है और जैन मन्दिरो मे रुपये की कभी प्राय होती नहीं उस रुपये को ये लोग मन्दिर के अन्य कामो मे तो अनाप-सनाप खर्च कर देते है, पर जब यह कहा जाता है कि जो जैन शास्त्र नये प्रकाशित होते हैं उनकी एक २ प्रति जैन मन्दिर मे अवश्य मगानी चाहिए-तो उत्तर मिलता है “यह तो फिजूल खर्च है, कौन पढने वाला है।" इन श्रीमतो के लिये जिनवाणी आकर्षण की चीज नहीं है। क्योकि ये लक्ष्मी के दास उसके स्वाद को नहीं जानते है। किसी कवि के कहा है"यथा किराती करिकुम्भ जाती, मुक्तां परित्यज्य वितिगुजऑ।" जैसे भीलणी के सामने गजमोती और चिरमिये रक्खी जाये तो वह चिरमियो को ग्रहण करेगी, गजमोतियो को नही । क्योंकि वह गजमोतियों के महत्व को नहीं जानती है। यही हालत समाज की प्रायः शास्त्र और शास्त्रज्ञो के साथ है, व्ह इनका कुछ भी महत्व नहीं समझती यह स्थिति बडी भयंकर है धर्म का मूल ही संकट में है। (कुछ भी हो यदि धर्म की गाडी चलानी है तो वह सुचारु रूप से सरस्वती और लक्ष्मी इन दो पहियो से ही चल सकेगी, अकेली एक एक लक्ष्मी से नही।) अन्तमे समाज से मेरा निवेदन है कि मैंने जो यह कटुसत्य लिखा है उसके लिए मुझे क्षमा करेंगे और इस गम्भीर समस्या पर दूरदर्शिता से विचार कर समुचित समाधान सामने लायेंगे। . Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ वास्तुदेव श्री प० आशाधरजी ने अपने बनाये प्रतिष्ठा पाठ पत्र ४३ मे और अभिषेक पाठ के श्लोक ४४ मे वास्तुदेव का उल्लेख निम्न शब्दो मे किया है वास्तूनामधिष्ठातृतयानिशम् । श्री वास्तुदेव कुर्वन्ननुग्रहं कस्य मान्यो नासीति मान्यसे ॥४४॥ ओ ह्रीं वास्तुदेवाय इदमर्घ पाद्य ......................... गृहो के अधिष्ठामान्य नही हो ! अर्थ - हे श्री वास्तुदेव (गृह देव ) तुम ताप ने से निरन्तर उपकार करते हुये फिसके सभी के मान्य हो इसी से मैं भी आपको मानता हू । ऐसा कह कर वास्तुदेव के लिये अर्घ देवे 1 श्रुतसागर ने वास्तुदेव की व्याख्या ऐसी की है"वास्तुरेव देवो वास्तुदेव ।" घर ही को देव मानना वास्तुदेव है । जैसे लौकिक मे अन्नदेव, जलदेव, अग्निदेव आदि माने जाते हैं । इससे मालूम होता है कि श्रुतसागर की दृष्टि मे वह कोई देवगति का देव नही है । करणानुयोगी - लोकानुयोगी ग्रन्थों मे भी वास्तु नाम के किसी देव का उल्लेख पढने से नही आयां है | आशाधर ने इस देव का नाम क्या है यह भी नही लिखा है । यहाँ तक कि इसका स्वरूप भी नही लिखा है । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.२४ ] ★ जैन निवन्ध लावती भाग २ प्रतिष्ठानिक केके नामने भी आगाधर या उक्त श्लोक था। जिसके शावकी निकर उन्होंने जो लोक ना है वह प्रतिष्ठानिक के पृ ३४० पर इस प्रकार है सर्वेषु वास्तु सदा निवनत मेनं श्री वास्तुदेवमखिलस्य कृतोपकार । प्रागेव वास्तुविधि कल्पितशभागमो शानकोणदिशि पूजनया धिनामि ॥ अर्थ-नवरी से सदा निवास करने वाले और नवका जिगने उपकार दिया है से ही जिसका ईशान कोण की दिशा में वास्तुविधि से यज्ञ भाग कल्पित है ऐसे इस वास्तु ट्रेन को पूजता हूँ । अभियेक पाठ संग्रहके अन्य पाठों में वास्तुदेव का उल्लेख नही है । हां अगर जिनगृहदेव को वास्तुदेव मान लिया जाये तो कदाचित् जैनधर्म से उसको नगति बैठाई जा सकती है । क्योकि जैनागम में जिन मन्दिर को नवदेव से गणना की है। पता नही आशावर और नेमिचन्द्र का वास्तुदेव के विषय में यही अभिप्राय रहा है या और कोई ? फिरभी वह तो स्पष्ट ही है कि जैन कहे जाने वाले अन्य किनने ही क्रियाकाडी ग्रन्थो मे वास्तुदेव को जिनगृहदेव के अर्थ में नहीं लिया है । जैसे कि नेमिचन्द्र प्रतिष्ठापाठ के परिशिष्ट मे वास्तु बलि विधान नामक एक प्रकरण छपा है वह न मालूम नेमिचन्द्र कृत है या अन्य कृत ? उसमे वास्तुदेवो के नाम इस प्रकार लिखे हैं Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुदेव ] [ ५२५ "आयें, विवस्वत्, मित्र, भूधर, सविंद्र, साविंद्र, इन्द्रराज, रुद्र, रुद्रराज, आप, आपवत्स, पर्जन्य, जयंत, भास्कर, सत्यक, भृशुदेव, अतरिक्ष, पूषा, वितथ, राक्षस, गंधर्व, भृंगराज, मृषदेव, दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदत, असुर, शोष, रोग, नाग, मुख्य, भल्लाट, मृग, आदिति, उदिति, विचारि, पूतना, पापराक्षसी और चरकी ये ४० नाम हैं ।" वास्तुदेवो के इसी तरह के नाम जैनेतर ग्रन्थो मे लिखे मिलते है (देखो सर्वदेव प्रतिष्ठा प्रकाश व वास्तु विद्या के अजैन ग्रन्थ ) वही से हमारे यहाँ आये है । वे भी आशाधर के बाद के क्रिया- कांडी ग्रन्थो मे - पुन्याहवाचन पाठो मे । यह बलि -विधान इसी रूप में आशाधर पूजा-पाठ नाम की पुस्तक में भी छपा है । वहाँ दस दिग्पालो को भी वास्तुदेवोमे गिना है । जैनेतर ग्रन्थो मे ऐसा नही है । एक सधि जिन सहिता मे भी वास्तुदेव बलि विधान नामक २४ वा परिच्छेद है जिसमे भी उक्त ४० नामो के साथ दशदिग्पालो के नाम है, ऐसा मालूम होता है कि - वास्तुदेवो को बलि देने के पहिले दिग्पालो का बलिविधान लिखा हो और लगते ही वास्तुदेवो को बलि देने का कथन किया है इस तरह से भी वास्तुदेवो मे दिग्पाल देव सामिल हो सकते है । अन्य मत मे वास्तुदेवो को बलि देने की सामग्री मे मधुमास आदि है । जैन मत मे मांस को सामग्री मे नही लिया है तथापि मधु को तो लिया ही है । एक संधि सहिता के उक्त परिच्छेद के १७ वे श्लोक मे मजेदार बात यह लिखी है-बलि देते वक्त बलि द्रव्यो को लिये Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ] [ * जन निबन्ध रत्नावनी भाग २ हा आभुषणो में भुमित कोई पन्या या वेण्या अपया कोई मदमानीन्त्री होनी चाहिये । यथा बतिप्रदानकारी तु योग्या स्मार बलिधारणे। भूपिता कन्यका वा त्या वेश्या वा मत्तकामिनी ॥१७॥ [परिच्छेद २४] ऐगा गायन नमिवद्र निष्ठा पाठ मे पे इस प्रकरण के पृष्ठ ४ नोक ११ ने भी प्रतिभामित होता है। जिन शास्त्रों मे माफ तौर पर अन्यमतके माने हुए देवीकी आगधना गा काथन लिया है और उनकी आराधना विधि मे एनी चाहिात वाले वेश्या आदि की लिखी है। उन शास्त्री को हम केवन पर देवर जिनवाणी मानते रहे कि वे सस्कृत प्राकृत में लिग है और किन्ही जैन नामधारी बडे विद्वान के रचे हुये है जब ना हमारे में यह आगममुटता बनी रहेगी तब तक हम जैन धम का उज्ज्वला नहीं पा सकेंगे। उन मिथ्या देवो का ऐना कुछ जाल छाया हुआ हगि पटित लोग भी इनके दुर्मोह ; से ग्रमित है । शुद्धाम्नायो १० शिवजोरामजी राची वालो का लिखा एक प्रतिष्ठा ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है जिसमे इन सभी वास्तुदेवो की उपासना का वर्णन किया है। बलिहारी है उनके शुद्धाम्नाय की। वास्तुदेवों के जो नाम जन गन्थों मे लिखे मिलते हैं उनकी अन्यमत के नामो से कही २ भिन्नता भी है। जैसे अन्यमत के नामअर्यमा, मवित सावित्र, शेष, दिति विदारि । इनके स्थान मे जैनमत के नाम क्रम से ये है-आर्य, सविंद्र, साविद्रा शोप, उदिति और विचारि । इन नामो मे थोड़ासा ही अक्षर Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुदेव ] [ ५२७ भेद है। यह भेद लिखने-पढने की गलती से भी हो सकता है। कुछ नामभेद शायद इस कारण से भी किये हो कि उनमे स्पष्टत अजैनत्व झलकता है । जैसे अर्यमा का आर्य, शेप का शोष दिति का उदिति बनाया गया है। क्योकि अन्यमत मे आर्यमा का अर्थ पितरो का राजा, शेप का अर्थ शेष-नाग, दिति का अर्थ दैत्यो की माता होता है। सविंद्र और साविंद्र शब्दो का कुछ अर्थ समझ नहीं पड़ता है, जरूर ये शुद्ध शब्द सवितृ और सावित्र का बिगडा रूप है। इसी तरह शुद्ध शब्द विदारि का गल्ती से विचारि लिखा पढा गया है। ..! वास्तुदेवो के नामो मे रुद्र, जयत (यह नाम इन्द्र के पुत्र का है) और अदिति (यह देवो की माता का नाम है) ये नाम दोनो ही मतो के नामो मे है। परन्तु मूल मे ये नाम साफ तौर पर ब्राह्मणमत के मालम देते है। जैन मान्यता के अनुसार इन्द्र का पुत्र और देवो की माता का कथन बनता नहीं है। जैनम्त मे देवो के माता पिता होते ही नहीं हैं, न रुद्र ही कोई उपास्य देव माना गया है। भगवान् महावीर ने ब्राह्मणमत की फैली हुई जिन मिथ्या रूढियो का जवरदस्त भडाफोड किया था खेद है उनके शासन मे ही मागे चलकर वे रूढिये प्रवेश कर गई है। DEHAT Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ श्री सीमंधर स्वामी का समय जिन शेष के बीन में मेरु पर्वत होता है उसको विदेह क्षेत्र बनते है। इस क्षेत्र मे देवकुल उत्तरकुरु को छोड़ कर शेष कान रहता है। जहां कभी मोक्षमार्ग वद नहीं होता है | और नया ही जहां के मनुष्य की काय प्रायः पानसो धनुष को ऊँनी व आयु अधिक से अधिक एक करोड पूर्व वर्ष को होती है। पूर्व दिशा की तरफ का भाग पूर्व विदेह और पश्चिम का भाग पश्चिम विदेह कहलाता है । अढाई द्वीप से पान ने पर्वत होने के कारण पाँच विदेह क्षेत्र होते हैं । मभी विदेश मे उक्तप्रकार ने पूर्व-पश्चिम भाग होते हैं | पूर्व-पश्चिम भागो मे गोलह २ महादेश होते हैं। पांच विदेहो के दश भागो मे कुछ महादेशों की सख्या १६० होती है । कभी २ एक ही समय मे न १६० देशो मे १६० तीर्थकरों का नद्भाव रहता है। कहते हैं श्री अजीन नाथ स्वामी के समय मे पांचो विदेहो में १९० तोकर विद्यमान थे । निश्चयत प्रत्येक विदेह के पूर्व - पश्चिम भाग में कम से कम दो-दो तीर्थकर तो हमेशा विद्यमान रहते ही है । तदनुसार पांचो विदेहो मे कम से कम २० तीर्थकर नित्य पाये जाते हैं । इस वक्त भी पांचो विदेहो मे सीमधरादि २० तीर्थकर मौजूद हैं। जिस जवूद्वीप मे हम रहते हैं उसके विदेह क्षेत्र मे भी पूर्व भागमे दो और पश्चिम भाग मे दो कुल ४ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सीमंधर स्वामी का समय ] [ ५२६ तीर्थकर इस वक्त मौजूद है । सीमधर, युग्मधर बाहु और सुबाहु ये उनके नाम है। उनमे से सीमधर स्वामी की नगरी पूर्व विदेहस्थ पुष्कलावती देश की पु डरी किणी है । युग्मधर की नगरी पश्चिम विदेहस्थ व प्रदेश की 'विजया' है । बाहु भगवान् की नगरी पूर्वविदेहस्थ वत्म की 'सुसीमा' है और सुबाहु की नगरी पश्चमविदेहस्थ सरित् देश की 'वीतशोका' है। सीमधरादि बीस तीर्थंकरो का चरित्र ग्रन्थ तो हमारे देखने मे नही आया है । अलबत्ता बीस बिहरमान पूजापाटो मे उनके माता-पिता चिह्न आदिको के नाम जरूर पढे है । अब हमे यह देखना है कि ये बीस तीर्थकर जो इस समय विदेहो मे विद्यमान हैं। इनका प्रादुर्भाव कब हुआ है ? भरतक्षेत्र के किस २ तीर्थंकर के तीर्थकाल मे ये हुए हैं। शास्त्रो मे इस विषय मे सिर्फ एक सीमधर स्वामी के बारे मे कुछ जानकारी मिलती है । अन्य तीर्थंकरो के बाबत कथन हमारे देखने मे नही -- आया है। रविषेण कृत पद्मपुराण पर्व २३ श्लो०-७ आदि मे लिखा है कि-एकबार नारदजी राजा दशरथ से मिलने गये। दशरथ ने उनसे देशातरो का हाल पूछा। उस प्रसग मे उत्तर देते हुए नारदजी ने कहा कि "मैं पूर्व विदेह मे गया था, वहाँ पुडरीकिणी नगरी मे सीमधरस्वामी का दीक्षाकल्याणक का महोत्सव मैंने अपनी आँखो से देखा है । उनके उस उत्सव मे इन्द्रादि देव भी विमानो पर चढकर आये थे। मैंने वहाँ यह भी सुना कि इनके जन्म समय मे भी इन्द्रादिको ने आकर इनका जन्माभिषेक मेरु पर्वत Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.३० ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ पर किया पा। जमानायो नागव यहाँ भरत क्षेत्र मे मुनिनुतन भगवान मा हुआ है, वैगा ही विदेह में मीमधर स्वामी का हुआ है।" गत्ताने जाना जाता है कि मोमधर स्वामी का मन्नित्य मुनिमुधन और नगि तीर्थकर को अगल समय मे था। जिनमेन ग श्लो०६० मे लिखा है. कि-प्रराम पाने के बा- उसका पता लगाने को गानी में लायनो देश को पुनरीकिणी नगरी में गरे । यो नगमागम में पहुंचकर भगवान सीमधर से प्रद्युम्न जातान मागया। पदमा बनानुगार ती भीमघर ने मुनिसुव्रत मोर नाम जनगल नमरा में दीक्षा ली यो और हरिवशपुराण र अनुनार मिनाशके समय में वे वे बल जानी हो गये थे यह ती दिगणकारने पमचग्यि नामक प्राशन ना गम ताकात करके अनुमरण दिया है। एनीमध न्यानो का 36 दीक्षाक्तान जैसा परमचरिय में लिया गरेका पक्षमतगण में लिया गया है। ऐसा हो रन दमचन्द्र गत जनरामायण श्वेतावर गन्ध में भी है। हरियापुराणार जिनसेन मे समक्ष रविपेग का पद्म पुराण मोजूद था ही अत जिनरोन ने भी रविपेश के कथन की मर्गात ठाते हरे नेमिनाय के समय मे सीमधर स्वामी को मेवल ज्ञानी प्रगट किया और नारद जी ने उनसे प्रद्युम्न का নার জালা ইন্না লিজা। उन दोनो ग्रन्थों की इन कथाओं के आधार पर बहुत से Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सीमधर स्वामी का समय ] [ ५३१ जैनी भाई यह समझे बैठे है कि - मुनिसुव्रत स्वामी के तीर्थकाल से ही सीमधर भगवान् का अस्तित्व चला आ रहा है । महसेनकृत - प्रद्युम्नचरित ( ११ वी शती ) पृष्ठ ५२-५३ मे भी प्रद्युम्न का हाल सीमधर स्वामी से ही जानना लिखा है । किन्तु आचार्य श्री गुणभद्र प्रणीत उत्तर पुराण मे इससे भिन्न कुछ और ही कथन मिलता है । विदेहक्षेत्र मे जाकर नारद जी ने जिन तीर्थंकर केवली से प्रद्य ुम्न का पता लगाया था । वह कथन उत्तर पुराण में इस प्रकार है नारदस्तत्समाकर्ण्य अणु पूर्व विदेहजे । नगरे पुडरीकियां मया तीर्थकृतो गिरा ॥६८॥ स्वयं प्रभस्य ज्ञातानि वार्तां बालस्य पृच्छता । भवातराणि तवृद्धिस्थानं लाभो महानपि ॥ ६६ ॥ [ पर्व ७२ ] 1 अर्थ - श्रीकृष्णकी बात सुनकर नारद कहने लगा-सुनो पूर्व विदेह की पुडरीकिणी नगरी में मैंने स्वयप्रभ तीर्थंकर को बालक प्रद्य ुम्न की बात पूछी थी। उनकी वाणी से मैंने प्रद्युम्न के भवातर जान लिये है । और वह इस वक्त किस स्थान मे वढ रहा है तथा उसको क्या-२ महान् लाभ होने वाला है यह भी मैंने उन्ही भगवान् की वाणी से जान लिया है । उत्तर पुराण के इस उल्लेख से प्रगट होता है कि- नारद ने प्रद्युम्न का हाल विदेह क्षेत्र मे स्वयंप्रभ तीर्थंकर से जाना था । न कि सीमधर स्वामी से । वहाँ उस वक्त सीमधर थे ही नही, बल्कि वे तो उस समय पैदा भी नही हुए थे। क्योकि एक नगरी में ही नही विदेह के किसी एक महादेश मे भी एक काल Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२' ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ मे दो तीर्थंकरो का सद्भाव नही हो सकता है। यहाँ यह भी ध्यान मे रखने की बात है कि-ये स्वयंप्रभ तीर्थकर वे नहीं है जिनका नाम बीस सीमधरादि मे ६ वे नम्बर पर आता है। वे तो धातकी खण्ड के विदेहक्षेत्र मे हुए हैं। इसलिये उत्तर पुराण मे लिखे उक्त तीर्थंकर पुडरीकिणी नगरी मे उस वक्त कोई जुदे ही स्वयप्रभ नाम के तीर्थंकर थे, जिनके पास मे जाकर नारदजी ने प्रद्युम्न का हाल पूछा था । अगर उस वक्त वहाँ सीमधर होते तो आचार्य गुणभद्र स्वयप्रभ का नाम नही लिखते। पुष्पदत कवि का बनाया हुआ अपभ्र श भाषा मे एक महापुराण है जिसमे गुणभद्र कृत उत्तरपुराण की कथाओ का अनुसरण किया गया है। उसके तीसरे खण्ड के पृ० १६० पर भी यह कथन उत्तरपुराण के अनुसार ही लिखा है । अर्थात् वहाँ भी प्रद्युम्न का हाल स्वयत्रभ तीर्थंकर ने बताया लिखा है। इस प्रकार उत्तरपुराण जो कि मूलसघ की परम्परा का ग्रन्थ माना जाता है उसके अनुसार तो नारद जी विदेह में प्रद्य म्न का हाल पूछने गये तब तक तो सीमधर स्वामी वहाँ विद्यमान ही नही थे इसलिये यही मानना पडता है कि वे बाद मे ही कभी हुए हैं। जबकि उत्तर पुराण से डेढ सौ वर्ष करीव पहिले पद्मपुराण बन चुका था और हरिवश पुराण भी उत्तर पुराण से पहिले का है फिर भी गुणभद्र ने उनके कथन को अपनाया नही, इससे यही फलितार्थ निकलता है कि रविषेण और जिनसेन (हरिवश पुराणकार) की आम्नाय अलग थी एव गुणभद्र की Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सीमंधर स्वामी का समय ] [ ५३३ अलग थी । भिन्न आम्नाय होने से ही यही नही अन्य भी कितना ही कथन आपस मे मिलता नही है । यह समस्या श्रुतसागर सूरि के सामने भी आई दिखती है। इसी से उन्होने इसका समाधान करते हुए षट् प्राभृत की संस्कृत टीका के अन्त ( पृष्ठ ३७६ ) में इस प्रकार लिखा है " पूर्व विदेह पुण्डरी किणी नगर वदित सीमंधरा पर नाम स्वयं-प्रभ जिनेन 01.10. .. 37 ་ अर्थ : पूर्व विदेह की पुण्डरी किणी नगरी के जो सीमंधर हैं उन्ही का दूसरा नाम स्वयप्रभ है 1 ) ""यह समाधान कहाँ तक समुचित है इस पर विशेषज्ञ विद्वान् विचार करें। बृहज्जैन शब्दार्णव प्रथम भाग मे, मोक्षमार्ग प्रकाशक के प्रारम्भ मे, पुण्याह वाचन मे, द्यानतराय जी जौहरीलाल, जी थानसिंह जी कृत बीस विहरमान पूजाओ मे, संस्कृत विद्यमान विशति जिन पूजा आदि मे बीस तीर्थंकरो के नाम इस प्रकार है -- " १ सीमधर ५ सजातक २ युग्मधर ३ बाहु ४ सुबाहु ६ स्वयंप्रभ ७ ऋषभानन ८. अनतवीर्य 1 विदेह मे सीमधर नाम के तीर्थकर तो हमेशा ही रहते है कमी उनका अभाव नही होता। एक के बाद दूसरे इसी नाम से निरन्तर होते रहते हैं ऐसी ही मान्यता है (जैमे हिन्दुओ मे शकराचार्य और जैन भट्टारको मे चारु कीर्ति स्वामी आजतक होते भारहे हैं कभी भी इस नाम से पट्ट खाली नही रहता ) - इसी से श्रुतसागर सूरि ने ऐसा समाधान किया है इसके सिवा और कोई तरीका ही नही था । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ विशाल कीर्ति ११ वज्रधर १२ चन्द्रानन १४ भुजगम १५ ईश्वर (भद्र- वाहु ) १७ वीरसेन १८ महासेन १६ देवयश ५३४ ] ६. सूर्यप्रभ १० १३ चन्द्रवाहु १६ नेमप्रभु ( यशोधर ) २० अजितवीर्य । उपरोक्त कुछ ग्रन्थो मे क्रमश चार तीर्थंकरों को जबूद्वीप विदेह मे आठ को धात की खड मे और आठ को पुष्करार्ध द्वीप मे बताया है तदनुसार यह बात इस लेख के शुरू मे भी व्यक्त की गई है किन्तु प्राचीन महापुराण (भारतीय ज्ञान पीठ, दिल्ली से प्रकाशित ) पुण्याश्रव कथा कोश ( जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर से प्रकाशित ) मे इससे विपरीत कथन पाया जाता है जिनका विवरण मयपृष्ठ के इस प्रकार है : सीमधर = धातकी खण्ड द्वीप पूर्व विदेह - आदिपुराण ( जिनसेन कृत ) प्रथम भाग पृष्ठ १४५ तथा पुण्याश्रव कथा कोश पृष्ठ २४८ । युगधर = पुष्करार्ध दीप पूर्व विदेह - आदिपुराण प्रथम भाग पृष्ठ १४६ तथा उत्तरपुराण ( गुणभद्र कृत) पृष्ठ ८७ एव पुण्याश्रव कथा कोश पृष्ठ २४५ व २४८ । स्वयप्रभ = जम्बूद्वीप पूर्व विदेह - आदिपुराण प्रथम भाग पृष्ठ १६६ उत्तर पुराण पृष्ठ १४, १६६, १७३, ३४१, ४११ । स्वयप्रभ - धातकी खण्ड द्वीप - उत्तर पुराण पृष्ठ ५०-५१ । इस विषय मे एक विशेष बात और ज्ञातव्य है समाधि भक्ति के अन्तर्गत एक गाथा पाई जाती है - Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३५ पंच अरिजयणामे पंच य मदिसायरे जिणे बंदे । पंच जसोयरणामे पच य सीमंदरे बदे |दी। श्री सीमंधर स्वामी का समय ] इसमे बताया है कि - प्रत्येक विदेह क्षेत्र मे अरिंजय, मतिसागर, जसोधर, और सीमधर ये चार-चार तीर्थकर विशेष जुदा ही होते हैं । इस सब से यह फलित होता है कि कही एक रूपता एक नियम नही है एक सीमधर स्वामी भी पांचो मेरु सम्बन्धी पाँचो विदेहो मे एक ही समय मे पाये जाते है यह नाम सर्वत्र शाश्वत रूप है । इस विषय मे ओर भी कोई मथितार्थ हो या कोई सशोधन की स्थिति हो तो विद्वानो से निवेदन है कि - वे उसे अवश्य प्रकट करे । शास्त्र समुद्र अथाह है । ―― विशेष जातव्य विदेह मे २ - ३-५ क्याणको के धारी तीर्थंकर होते हैं । भरत हैमवत हरि विदेह रम्यक हैरण्य वर्तवत वर्षा क्षेत्राणि १।१०।। (तत्वार्थसूत्र, मध्याप ३) जम्बूद्वीप के दक्षिणात मे भरतक्षेत्र और उत्तरान्त में ऐरावतक्षेत्र है ( दक्षिण से उत्तर ) भरतक्षेत्र के बाद हिमवत, हरि वर्ष है फिर मेरु पर्वत है उसके आसपास विदेह क्षेत्र है वह दो विभाग में है मेरु से पूर्व मे पूर्व विदेह और पश्चिम ने पश्चिम विदेह है | विदेह के पोछे मेरु के उत्तर से रम्यक वर्ष फिर हिरण्यवत और अन्त मे ऐरावत क्षेत्र है । मेरु के दक्षिण और उत्तर मे महाविदेह है जो देवकुरु और उत्तरकुरु के नाम से प्रसिद्ध है जहाँ सदा भोग भूमि रहती है । अत. यहाँ सदा पहला (६ठा) द्वारा वता है । किन्तु अन्यत्र सर्वत्र विदेह मे सदा कर्म भूमि रहने से अवसर्पिणी का चौथा आरा और उत्सर्पिणी का तीसरा आरा क्रमश होता रहता है । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.३६ ] [ ★ जैन निबन्ध इलावली भाग २ गय दि० जानाये मानकर वर्णन दिया है मारा भग्तक्षेत्र दक्ष में होने से गया प्राय दक्षिण में हुए बाद में उतर दिशा जिया है "उत्तरादन्या" ('तन्यायंत्र' अ० ३, २६ ) और मीने उत्तम तिमा प्रतिपत्रको श्रेष्ठ बताया है। (देवीमाया) निक्षेत्र) प्रदेश इस देश में है। है। दिना या जन शास्त्रीय भूगीन और आधुनिकीकरण होने की आवश्यकता है। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " तत्वार्थ श्लोकवार्तिक की हिन्दी टीका का अवलोकन 1 श्रीमदुमास्वामी विरचित तत्वार्थ सूत्र पर संस्कृत मे 'रचे अनेक भाष्य और टीकायें है। उनमें से आचार्य श्री विद्यानदिस्वामी विरचित श्लोकवार्तिक का भी एक विशिष्ट स्थान है । इसी तत्वार्थ सूत्र पर सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक भाष्य भी बडे महत्व के हैं । और वे श्लोकवार्तिक से भी पहिले के रचे हुये है । उनकी हिंदी टीकायें तो न केवल आधुनिक विद्वानो द्वारा किन्तु पुराने विद्वानो द्वारा पहिले ही बन चुकी थी। लेकिन जहाँ तक मेरा ख्याल है श्लोकवार्तिक की हिंदी टीका का निर्माण अभी तक किसी भी विद्वान् ने नहीं किया था । इस कमी का हम घरावर अनुभव करते आ रहे थे। हर्ष की बात है कि वह कमी भी अब पूरी होगई है । इस ग्रन्थ की हिंदी टीका विद्ववर्य, न्यायाचार्य श्री पडित माणिकचन्द्रजी कोदेय ने की है। जैसा यह महत्वशाली ग्रन्थ है सौभाग्य से इसके हिन्दी टीकाकार भी तदनुरूप ही मिले है । इन न्यायाचार्यजी का विद्वदुमडली मे उच्चकोटि का स्थान है । दि० जैन समाज मे आप एक आदरणीय, प्रतिमा सम्पन्न, प्रतिष्ठित विद्वान् माने जाते है । ऐसे ग्रन्थ की हिंदी टीका आप जैसे अधिकारी विद्वान् ही बना Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जैन निवन्ध रलावली भाग २ गरते हैं । इम टोला में मल गन्ध का अयं तो गप्ट निया ही है किन्तु माव जाप आपने अपनी तरफ में भी विषय को समझाने लिये यनान गाको विवेचन किया है जिनो नापका प्रपुर गाम्म ज्ञान नलकता चोर उगे पटकार, पाटका मामानी से विषयका हदयगमगर लेते है। बम विशालगायटीपा के बनाने मे काफी धमगरले मापने वास्लय में ही जन नमाज का बड़ा पगार किया जो पिनी तरह गुलाया नहीं जा माना। उक्त हिंदी टीका माहित यर ग्लोगवातिक ग्रय आचार्य धुगागर गयमाना मोलापुर में प्रगट हमा। उससे अब तक गाच मा प्रकाशित की गाये है। न यो में नत्वार्थ मूत्र के साये अध्याय तमगा वर्णन आया है। र अध्याय अगले खण्टो में प्रकाशित होगे। इस गय की हिंदी टीका के स्वाध्याय करने से इसमें दो चल हमारी नजर में ऐसे आये हैं जो चितनीय है। पहिला न्थन है दूसरे अध्याय का ४४ वा मूत्र-"निरुपभोगमत्य" । उसको व्याख्या हिंदी टीका में न्यायाचार्यजी ने जैमी की है वह उन्ही के गन्दी में देखिये -"पूर्ववर्ती चारो शरीरो की अपेक्षा करके अत में कहा गया पानवा कार्मण शरीर अत्य है। वह इन्द्रियो द्वारा उपभोग करने योग्य नहीं है। अवधिज्ञानी, मन पर्ययज्ञानी, अथवा केवलजानी महाराज यद्यपि कार्मण शरीर के रूप रस शब्द आदिको का विराद प्रत्यक्ष कर लेते है, किन्तु वे भी बहिरग इन्द्रियो द्वारा कार्मण शरीर के रूप रस आदि का साव्यवहारिक प्रत्यक्ष या मतिज्ञान नही कर पाते हैं। श्रृ गाररस में डूब रहा पुरुप स्त्रो के औदारिक या वैक्रियिक शरीर में पाये जा रहे गध स्पर्श रूप आदि का उपभोग कर सकता है, Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - 40 तत्वार्थ श्लोकवार्तिक की"" ] [ ५३६ दिनरात भोगो मे लीन हो रहा देवेन्द्र भी देवियो के कार्मण शरीर का इन्द्रियो द्वारा परिभोग नही कर सकता है। अतः अत का शरीर इन्द्रियो द्वारा उपभोग्य नहीं है ।") आपके इस लिखने का मतलब होता है कि-कार्मणशरीर चक्ष आदि सभी इन्द्रियो के विषयभूत नहीं होने के कारण वह निरुपभोग है। किन्तु मूलग्रथकार विद्यानंदी का ऐसा अभिप्राय उनके वाक्यो से निकलता नही है । इस सम्बन्ध मे उनके वाक्य निम्न प्रकार हैं "कर्मादानसुखानुभवहेतुत्वात्सोपभोग कार्मणमिति चेन्न, विवक्षितापरिज्ञानात् । इद्रयनिमित्ता हि शब्दाधु पलन्धिरुपभोगस्तस्मा निष्क्रातनिरुपभोगमिति विवक्षित ।" इसमे बताया है कि-शकाकार ने शका की है कि -"जब कार्मण शरीरसे जीवो के कर्मों का ग्रहण और सुखो का अनुभव होता है तो वह जीवो के उपभोगमे यानी काममे आता ही हैं । फिर सूत्रकारने उसको निरुपभोग क्यो कहा है ?" इसका उत्तर आचार्य ने यह दिया है कि-उपभोग शब्द का जो अर्थ यहाँ विवक्षित है उसका परिज्ञान शंकाकार को नहीं है। उपभोग शब्द का यहाँ ऐसा अर्थ माना है कि कर्ण आदि इद्रियो के निमित्त से जो शब्दादि की उपलब्धि होती है उसे यहाँ उपभोग माना है। उस उपभोग से जो रहित है वह निरुपभोग है ऐसा अर्थ यहाँ विवक्षित है। शब्द का कर्णमे टकराना इसे कहते है शब्द की उपलब्धि । इसी तरह अन्य इन्द्रियो मे उनके अपर्ने र विषयो की उपलब्धि समझ लेना । इस उपलब्धि को ही उपभोग कहते है। ऐसा उपभोग कामणशरीर के नहीं है, क्योकि कार्मण शरीर के इन्द्रिये नहीं होती हैं। मतलब यह है कि- जैसे औदारिकादि शरीरो से 3 CPM Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E The - -- U.. - - Ta r 4 ५४० ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ द्रव्येन्द्रियो के होने से इन्द्रियो के विषय भूतपदार्थों का उन इन्द्रियो के साथ सपर्क (उपलब्धि) होता है। वैसी बात कार्मण शरीर के सम्बध मे नही है । क्योकि कार्मण शरीर के द्रव्येन्द्रिये नही होती है । इन्द्रियो के विषयभूत पदार्थों का सम्पर्क भी वहाँ नही होता है । इसे सम्पर्क कहो या शब्दादि की उपलब्धि कहो इसी का नाम उपभोग है । ऐसे उपभोग का कार्मण शरीर के अभाव होने से उसे शास्त्रो मे निरुपभोग बताया है। ऐसी ही पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि मे और अकलक ने राजवातिक मे प्रतिपादन किया है । यथा "इन्द्रियप्रणालिकथा शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग , तदभावान्निरुपभोगम् । विग्रहगती सत्यामपि इन्द्रियलब्धी द्रव्येन्द्रियनिर्वृ त्यभावा छाव्दाधुपभोगाभाव इति ।" अर्थ-इन्द्रियद्वार में शब्दादि की उपलब्धि होना उपभोग कहलाता है। उसके अभाव को निरुपभोग कहते हैं। विग्रहगति में जीव के लब्धिरूप भावेन्द्रियके होने पर भी कार्मणशरीर के द्रव्येन्द्रियो की रचना का अभाव होने से उसके शब्दादिको की उपलब्धि का अभाव है। भावार्थ-औदारिकादि शरीरो मे द्रव्येन्द्रियो की रचना होने के कारण शब्दादि की उपलब्धि होती है उससे वै शरीर सोपभोग माने जाते है। किन्तु विग्रहगतिमे कार्मण शरीर के साथ रहने वाले जीव के लब्धिरूप भावेन्द्रिय के होते भी कार्मण शरीर निरुपभोग ही है। क्योंकि उसके द्रव्येन्द्रियो की रचना न होने से वहीं शब्दादि की उपलब्धिका अभाव है। सीधी सी बात है कि-कार्मणशरीर के जब कर्ण आदि इन्द्रियो का सद्भाव ही नहीं है तो शब्दादि विषय किसमे प्राप्त हो ? विषयो का प्राप्त न होना ही कार्मण शरीर के लिये निरुपभोग कहा जाता है। - Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 तत्वधि श्लोकवार्तिक की ... ] :t [ ५४१ इसी सूत्र की व्याख्या भास्कर नंदी ने निम्न शब्दों मे की है ܐ ܀ * "इन्द्रियद्वारेण शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग । उपभोगान्निष्क्रात निरुपभोग कार्मण शरीरमुच्यते । तत् विग्रहगता - विन्द्रिय लब्धौ सत्यामपि द्रव्येन्द्रितय निष्पत्यभावा च्चब्दाद्यपलभनिमित्त न भवति ।" अर्थ - इन्द्रियवार से शब्दादिको की प्राप्ति उपभोग कहलाता है। उपभोग से रहित कार्मणशरीर निरुपभोग कहा जाता है । वह कार्मण शरीर विग्रहगति मे जीव के लब्धिरूप भावेन्द्रिय के होते हुए भी द्रव्येन्द्रियो की रचन का अभाव होने से शब्दादिकी प्राप्ति मे निमित्तभूत नही है । E इस प्रकार भाष्यकारो के इन उद्धरणो मे जो कहा गया है उससे आपके कथन की संगति नही बैठती है । " कार्मणशरीर किसी की भी इन्द्रियो का विषयभूत न होने से वह निरुपभोग है ।" ऐसा जो अर्थ आपने प्रगट किया है वैसा अर्थ यदि भव्य - कारो को इष्ट होता तो वे यह नही लिखते कि द्रव्येन्द्रियो की रचना का अभाव होने से शब्दादि का उपभोग नही है | आपके द्वारा किया हुआ अर्थ तो तब ठीक होता जब सूत्र मे 'निरुपभोग्य शब्द होता किन्तु सूत्रकार ने 'निरुपभोग, शब्द रखा है जिसका अर्थ होता है "न उपभोगो विद्यते यस्य तत्त्" अर्थात् जिसके उपभोग क्रिया नही होती यानी जो स्वय उपभोग नहीं करता, यही विवेचन सभी भाष्यकारो और टीकाकारो ने किया है । आशा है आप इस विषय पर पुन विचार करेंगे । दूसरा स्थल है इष्वाकार पर्वतो का स्थान बताते हुये 1 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ श्लोकवार्तिक के ५ वे खड के पृष्ठ ३६४ पर अतिम पक्तियों में आपने ऐसा लिखा है "धातकीखड मे पूर्व मेरु सम्बन्धी भरत और पश्चिम मेरु सम्बन्धी ऐरावत अथवा पूर्वमेरु सम्बन्धी ऐरावत और पश्चिम मेरु सम्बन्धी भरत का विभाग करने वाले इष्वाकार पर्वत पडे हुये हैं ।" आपका ऐसा लिखना भी हमारी तुच्छ बुद्धि मे ठीक प्रतीत नही होता । धातकीखड में भरत और एरावत क्षेत्र की स्थिति धनुषाकार रूप मे है । जैसे धनुष के बीच मे वाण होता है वैसे ही दोनो ओर दो इष्वाकार पर्वतों के बीच मे पड जाने से दोनो ओर के भरत और ऐरावत के दो-दो विभाग हो गये है । दक्षिण की ओर जो भरतक्षेत्र धनुषाकार था उसके बीच इत्रकार पर्वत के पडने से उसी के दो भाग होकर पूर्वभाग पूर्व मेरु सम्बन्धी धातकी खड का कहलाता है और पश्चिम भाग पश्चिममेह सम्बन्धी धातकीखड का कहलाता है । उसी तरह धातकीखंड मे उत्तर की तरफ के ऐरावत क्षेत्र के बाबत समझ लेना चाहिये । अत धातकीखड मे पूर्वमेरु सम्बन्धी भरत और पश्चिम मेरु सम्बन्धी ऐरावत के बीच में जो आप इष्वाकारपर्वत बताते हैं वह ठीक नही है । किन्तु पूर्वमेरु सम्बन्धी भरत और पश्चिममेरु सम्बन्धी भरत इन दोनो के बीच इष्वाकारपर्वत स्थित है । इसी तरह पूर्व पश्चिम मेरु सम्बन्धी ऐरावत क्षेत्र के बीच मे इष्वाकार पर्वत स्थित है । आपकी मान्यतानुसार पश्चिम घातकी खड में दक्षिणकी तरफ ऐरावत क्षेत्र और उत्तर की तरफ भरतक्षेत्र का होना व्यक्त होता है, वह उचित नही है । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ श्लोकवातिक की"" ] [ ५४३ इस प्रकार आपकी श्लोकवातिक की हिंदी टीका के दो स्थनों पर हमने जिज्ञासाभाव से अपने विचार आपके सामने रक्खे हैं । आशा है उन पर आप ध्यान देंगे और इसमे अगर हमारी ही भूल हो तो हमे समझाने की कृपा करेगे, ऐसी हमारी आपसे सविनय विनती है। आप प्रतिभाशाली बहुश्रुती विद्वान् है आपसे चूक होना कम सम्भव है। स० नोट-तत्वार्थ राजवातिक मे 'भरत रावत विभाजिनाविष्वाकारगिरी वार्तिक है। इसका अर्थ स्वय अकलंकदेव ने 'उत्तरदक्षिण भगत ऐरावत का विभाग करने वाले इष्वाकार पर्वत हैं, ऐसा किया है तत्वार्थ श्लोकवातिक में आचार्य विद्यानन्द ने भी भरतरावत विभाजिनौ' लिखकर इष्वाकारगिरि को भरत और ऐरावत का विभाजक कहा है । इससे पाठक को ऐसा वोध होता है कि भरत और ऐरावत क बीच मे इष्वाकार पर्वत है। किन्तु यथार्थ ऐसा नहीं है। बल्कि भरत और ऐरावत क्षेत्रो का विभाग करने वाले अर्थात् भरत क्षेत्र के और ऐरावत क्षेत्र के बीच मे इष्वाकार पर्वत हैं जिससे एक ओर इष्वाकार पर्वत के दोनो ओर भरत क्षेत्र है और दूसरी ओर इण्वाकार पर्वत के दोनो ओर ऐरावत क्षेत्र है। त्रिलोक प्रज्ञप्ति की गाथा २५५२ से यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है दोपासेसु दक्खिणइसुगार गिरित्स दो भारखेत्ता । उत्तर इसुगारस्स य भवंति ऐरावदा दोणि ॥ दक्षिण इष्वाकार पर्वत के दोनो पार्श्व भागो मे दो भरत क्षेत्र हैं और उत्तर इष्वाकार पर्वत के दोनो पार्श्वभागो मे दो ऐरावत क्षेत्र हैं। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ४८ श्रावक की ११वीं प्रतिमा जैनसन्देश के अभी हाल ही के ( १३, २० मार्च ६६ के) अको मे उसके आदरणीय संपादक प० कैलाशचन्द जी शास्त्री ने स्वर्गीय प० जुगलकिशोरजी मुख्तार के लेखानुसार ( मुख्तारमा० का यह लेख सन् २१ की जैन हितैषी भाग १५ मे ही प्रकाशित नही हुआ है, किन्तु परिवर्द्धित - सशोधित रूप से अनेकान्त वर्ष १० की अन्तिम किरण ( जून ५० ) मे भी प्रकाशित हुआ है ) ग्यारहवी प्रतिमाधारी क्षुल्लक का स्वरूप लिखा है । उस सम्बन्धमे विद्वज्जनो के विचारणार्थ में भी यहाँ कुछ लिखने का उपक्रम करता हू । कुन्दकुन्द के सूत्र प्राभृत की २१वी गाथा मे इसका स्वरूप सक्षेप से इस प्रकार लिखा है दुइयं च वुतलगं उक्किट्ठ अवरसावयागं च । भिक्खं समइ सपत्तो समिदोभासेण मोणेण ॥२१॥ इसमे लिखा है कि मुनि के बाद दूसरा लिंग गृहत्यागी उत्कृष्ट श्रावको का है यानी ११वीं प्रतिमाधारी का है । वह पात्र को हाथ मे लेकर भाषा समिति ( धर्मलाभ शब्द ) से या मौन से भिक्षा के लिये भ्रमण करता है । स्वामी समन्त भद्र ने भी रत्नकरण्ड श्रावकाचार मे Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक की ११वीं प्रतिमा ] . [ ५४५ "गृहतो मुनिवनमित्वा" पद्य मे इसका सक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार लिखा है "घरको छोड मुनियो के आश्रम मे जाकर गुरु के निकट व्रतो को ग्रहण करके जो तपस्या करता हुमा भिक्षा भोजन करता है और खण्डवस्त्र रखता है वह उत्कृष्ट श्रावक है।" दिन में एक बार भोजन करना यह यहां के “तपस्यन्" शब्द से ध्वनित हाता है । इसकी सस्कृत टीका मे प्रभाचन्द्र ने इस उत्कृष्ट श्रावक को आर्य लिंग का धारी लिखा है और श्लोक में प्रयुक्त "भक्ष्याशन" वाक्य की व्याख्या भिक्षा समूह को खाने वाला किया है। जिसका मतलब होता है अनेक घरो से पात्र मे भिक्षा लाकर किसी एक जगह वैठकर खाने वाला। चारित्रसार मे चामुण्डराय ने इसका स्वरूप ऐसा लिखा है "उहिष्टविनिवृत्त स्वोद्दिष्टपिडोपधिशयनवरासनादे विरत मन् एकशाटकघरो भिक्षाशन पाणिपात्रपुटेनोपविश्यभोजी रात्रि प्रतिमादितप समुद्यत आतापनादियोगरहितो भवति ।" इसमे बताया है कि जो अपने निमित्त तैयार किये हये भोजन, उपधि शच्या और उत्तम आसनादिक से विरक्त रहता है। एक धोती रखता है-नीचे से ऊपर तक उसी को ओढ-पहिन लेता है, भिक्षा से भोजन लाकर करपात्रमे बैठकर जीमता है और *मुद्रित चारित्रसार मे 'वसनादे' पाठ है। किन्तु कार्तिकेयानुप्रेक्षा को टीका में यहां का उद्धरण दिया है उसमे 'वरासना दे' पाठ है। शायद यही पाठ आशाधर के सामने भी था। उन्होने भी शयनासनादि लिखा है । वसन नही लिखा है। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ आतापनादि योगो को छोड़कर रात्रि प्रतिमादि तपश्चरण में उद्यमी रहताहे वह उद्दिष्टविनिवृत्त नामका श्रावक कहलाता है । 17 भगवज्जिनसेन ने आदिपुराण मे क्षुल्लक को एक शाटक का घारी लिखा है । तदनुसारही यहाँ कहा । तथा यहा उसके लिये उद्दिष्ट आहारादि का त्याग बताया है। उससे वह किसी के घर आमन्त्रित होकर जीमने नहीं जा सकता है क्योकि उनसे उद्दिष्ट भोजन का गहण होता है । अत वह भिक्षा से भोजन करता है । यह बात उद्दिष्टत्याग के लिखने से ही प्रगट हो जाती है । फिर भी चामुण्डराय ने उसके लिये एक और विशेषण 'भिक्षाशन' का प्रयोग किया है। उसका अभिपाय उनका कुन्दकुन्द और समन्तभद्र के मतानुसार अनेक घरो से भिक्षा मगाते का मातृम पडता है । अथवा सही पाठ "भक्षाशन हो । इस प्रतिमा का उद्दिष्टविरत यह नाम चारित्रपाहुड की गाथा १ मे भी लिखा है और जो यहा इस प्रतिमाधारी के लिये बैठ कर पात्र में आहार लेने को कहा है सो बैठकर भोजन कराने की मान्यता तो समतभद्र की भी हो सकती है क्योकि ११वी प्रतिमा मे जो विशेष आचरण थे वे उन्होने रत्नकरड श्रावकाचार लिख दिये । बाकी आचरण बैठकर जीमना आदि नीचे को प्रतिमाओ जैसे हो इस प्रतिमामे समझ लिये जावें । हाँ चामुण्डराय ने यहा इस प्रतिमा वाले के लिये हाथ में आहार करने की बात जरूर कुछ विशेष लिखी है । सम्भव है उस वक्त उनके सामने ऐसी ही प्रवृत्ति चल रही हो । या उसका प्रतिपादक आगम उन्हें उपलब्ध हो । किन्तु यहाँ पाणिपात्र मे आहार करने का अर्थ मुनि की तरह अजुली जोडकर करने का नही है । इसका निषेध सूत्र पाहुड मे ३ जगह किया है Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक की ११वीं प्रतिमा ] ५४७ खेडे वि ण कायव पाणिप्पत्त सचेलस्स । निच्चेलपाणिपत्त उवइष्ठं परमजिणवारदेहि ॥१०॥ बालरंगकोडिमत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूण । भुजेइ पाणिपत्त दिण्णण्ण इफ्क ठाणम्मि ॥१७॥ यहाँ यह कहा है कि-वस्त्रधारी को खेल मे भी पाणिपान मे आहार नहीं करना चाहिये । परम जिनेद्रो ने निर्वस्त्रो-नग्नसाघुओ के लिये ही हाय मे भोजन करने का उपदेश दिया है। साधुओ के बाल की अणीमात्र भी परिग्रह नही होना चाहिये । तदर्थ वे भोजन भी पात्रमे नही करते-हाथ मे ही करते हैं। वह भी एक स्थान मे और दूसरो का दिया ROM:13.EDANCC हुआ। - इसलिये ११वी प्रतिमाधारी के वास्ते जो यहा पाणिपात्र मे आहार करना लिखा है। उसका मतलब यही हो सकता है कि-वह पात्र मे से भोजन को अपने एक हाथ में लेकर उसे थोडा २ दूसरे हाथ से जीये। जैसा कि भूधरदासजी ने पार्वपुराण में लिखा है एक हाथ पै ग्रास धरि एक हाथ सो लेय । श्रावक के घर आयके ऐलक असन करेय ॥ [२०० अधि०६] किन्तु दुग्ध, तक, खीर, रसादि तरल खाद्य के साथ चूरकर रोटी आदि खाने के विशेष अवसर पर वह पात्रका भी उपयोग कर सकता है ऐसा अभिप्राय चामुण्डरायका ज्ञात होता है। क्योकि उन्होंने 'पाणिपात्रपूटेन भोजी' लिखा है। जिससे उसका अर्थ हाथ और पान दोनो मे भोजन करना हो सकता है। - Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ । । * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ इन चामुण्डराय के ही वक्त में होने वाले अमितिगति ने इस प्रतिमाधारी के लिये सुभापित रत्नसदोह के ग्लो. ८४३ में और उपासकाचार के परि०७ के लोक ७७ से नवकोटिसे विशुद्ध आहार लेने का विधान करते हुये इस प्रतिमा का विशेष म्वरूप उपासकाचार के पवे परिच्छेद में इस प्रकार किया है वराग्यस्य परां भूमि संयमस्य निकेतनम् । उत्कृष्ट. कारयत्येष नुउन तुडमुडयो ॥३७॥ केवल वा सवस्त्र वा कोपोन स्वीकरोत्यसों। एकस्थान्नपानीयो निदागह परायण ॥७॥ स धर्मलाभशट्वेन प्रतिवेश्म सुधोपमाम् । सपानी याचते भिक्षा जरामरण सूदनीम् ॥७॥ अर्थ-यह उत्कृष्ट श्रावक वैराग्य की परम भूमि और जयमका स्थान ऐमा दाढी मूछ-शिरके वालोको मुण्डन(हजामत) कराता है। वह केवल लगोट या वस्त्र (चादर) महित लगोट रखता है। अपनी निंदागहोंमे तत्पर रहता हुआ एक स्थान पर अन्न पानी जीमता है। यानी भिन्न २ घरों से पात्र ने भोजन लाकर एक स्थान पर जीमता है। वह पात्र लेकर घर २ प्रति धर्मलाभ शब्द वोलता हुआ अमृततुल्य जरामरण नशिनी भिक्षा को मागता है। कुन्दकुन्द ने भिक्षा के लिये भापा समिति सहित सपात्र घूमने की कही है। व समन्तभद्र ने चेलखड धारण करने की कही है । उसी का अतिगति ने यहीं खलासा किया है। ऊपर जिनसेन और चामुण्डराय ने एक वस्त्र धोतीमात्र रखने का आदेश दिया है। यहा अमित गति ने केवल कौपीन या कभी ADA - - - - - - - AAP Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक की ११वी प्रतिमा ] [ ५४६ कोपीन के साथ चादर ओढ़ने का भी उल्लेख करके दो वस्त्र रखने का विधान किया है। इससे कुछ मतभिन्नता जाहिर होती है। परन्तु अल्पवस्त्र रखने के उद्देश्य मे कोई फर्क नही आया है। ओढ़ने पहनने को धोती लम्बी रखनी पड़ती है। लगोट और चादर दो सख्या होकर भी वस्त्र का विस्तार (माप) यहाँ धोती से अधिक न हो कर कुछ कम ही हुआ है। कुन्दकुन्द समन्तभद्र और चामुण्डराय ने ऊपर यह कही नही बताया कि इस प्रतिमावाला बालो का लौच करे या क्षौर करावे । किन्तु उनका कुछ नहीं लिखना ही यह बताता है कि उनको इसके लिये क्षौर कराना ही इष्ट था। क्योकि जो नीचे की प्रतिमाओ मे होता आ रहा है वही यहा भी है। इसी अभिप्राय से उन्होने इस सम्बन्ध मे कुछ नही लिखा है। इस तरह अमितगति ने केशो के मुडन की बात भी अपनी ओर से नही लिखी है। जो पूर्वाचार्यों का अभिप्राय था उसे ही स्पष्ट किया है। यहाँ अमितगति ने भिक्षा को अमृतवत् जरामरणनाशिनी लिखा है । वह खास ध्यान देने योग्य है । ऐसा इसलिये लिखा है कि-कोई यह न समझ ले कि एक उत्कृष्ट श्रावक भिक्षा के लिये पात्र हाथ मे लेकर घर २ फिरता फिरे यह तो उसके पद के गौरव को घटाने वाला काम है। उसके समाधान के लिये उन्होंने उक्त कथन करके यह बताया है कि वह भिक्षा नही वह तो अमृत है । जैसे अमृत के पीने से जरामरण का नाश होता है। उसी तरह उस भिक्षा को खाकर वह श्रावक भी देशव्रतो को पूर्णतया पालन करता हुआ आगे मुनि हो उस मोक्षस्थान को प्राप्त होगा जहाँ जानेवाला अजर अमर हो जाता है।) Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.५० ] [ ★ जैन निवन्व रत्नावली भाग २ इन अमितगति के कुछ थोडे समय पूर्व ही अपनश कवि पदन्त हुए है। उन्होंने यशोधर चरित के पृ० ८५ मे क्षुल्लक का स्वरूप इस प्रकार लिखा है ता अम्हहि लइयउ खुल्लयतु, चत परिहण आहरण वित्तु । पंगुत्तउ पंडुरचीरखंड, मणमु' डिवि पुणे मुंडियउ मुंड । कोवोण कमण्डलु भिक्खपत्तु, लइयजवर भवजलजाणवत्तु । इसमे अल्लक के श्वेत रंग का वस्त्रखड, मुण्डन, कोपीन, कमण्डलु और शिक्षापात्र लिखा है । उपर्युक्त ग्रन्थकारी ने इस ११वी प्रतिमाधारी का नाम उद्दिष्ट विरत, उत्कृष्ट श्रावक और क्षुल्लक लिखा है मेधावी ने धर्मग्रह श्रावकाचार मे - अपवाद लिंगी और वानप्रस्थ भी लिखा है - उत्कृष्ट श्रावको यः प्राक्क्षुल्लकोऽत्रैव सूचितः । स चापवादलिंगी च वानप्रस्थोऽपिनामत. ॥ [२-० अधि० ] प्रभाचन्द्र ने रत्नकरण्ड की टीका में इसका नाम आर्य भी लिखा है । तदनुसार आशाधर आदि ने भी आर्य नाम लिखा है | स्त्री जाति उत्कृष्ट सयम की धारिका आर्यका होती है, उसी की तुलना में पुरुष जाति में श्रावक दशा मे सयम के धारक के लिये आर्य सज्ञा दी गई प्रतीत होती है । यहाँ के Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक को ११वी प्रतिमा ] ५५१ क्षुल्लक नाम में क्षुल्लक का अर्थ है निम्न श्रेणी मे रहने वाला । अर्थात् यहाँ से ऊपर एक ही श्रेणी है, वह है मुनिपद उससे नीचे की श्रेणी मे होने के कारण वह क्षुल्लक कहलाता है । ११वी प्रतिमा के भेद करके पहिले भेद वाले को क्षुल्लक कहना यहाँ अभीष्ट नही है । उपर्युक्त ग्रन्थो मे दो भेद किये ही नही है । वहाँ तो सारी ही ११वी प्रतिमाघारी को क्षुल्लक कहा है । उपर्युक्त ग्रथकारो के मत से इस प्रतिमा का धारी न लौच कर सकता है न अजुली जोड कर आहार कर सकता है । मयूरपिच्छी का भी उसके लिये विधान नही है । किन्तु सोमदेव ने यशस्तिलक के प्रथम आश्वास मे ( हिंदी अनुवाद पृ० ७१ ) क्षुल्लक के मयरपिच्छी लिखी है । वीरनन्दि ने भी चन्द्रप्रभ काव्य के सर्ग ६ श्लो० ७१ मे क्षुल्लक के यति चिह्न लिखा है । वहाँ यति चिह्न का मतलब मयूरपिच्छी ही जान पड़ता है । ऊपर लिखित ग्रन्थकारो के बाद विक्रम की १२वी शताब्दी मे वसुनन्दि हुये जिन्होने स्वरचित श्रावकाचारकी गाथा ३०१ से ३११ तक मे जो ग्यारहवी प्रतिमा का स्वरूप लिखा है उसका हिन्दी अनुवाद निम्न प्रकार है ११वी प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक के २ भेद है प्रथमभेद एक वस्त्र ( शाटक) रखने वाला । दूसरा केवल कोपीन का धारी। प्रथम भेदवाला केची या उस्तरे से बाल कटवाता है । मृदुउपकरण कोमल - वस्त्रादि से स्थानादिको के प्रतिलेखन करने मे प्रयत्नशील रहता है । वैटकर स्वयं हाथ से या पात्र मे भोजन करता है । ( स्वय कहने से वह खुद ही पात्र मे यश अपने हाथ में आहार करता है। मुनि की तरह बार २ दाता इसके हाथ में आहार रखता जाये और यह उसे खाता रहे ऐसी विधि इसकी नही है | ) i am Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ [चारो पर्वो मे चतुविध आहार का त्यागरूप उपवास नियम से करता है । भिक्षा प्राप्त करने की विधि इस प्रकार है - प्रथम हो पात्रको धोकर चर्या के लिये श्रावककें घर मे प्रवेश करता है और उसके आगन में ठहर कर धर्मलाभ कह कर स्वय ही ( दूसरो को भेज कर भिक्षा नही मगवाता ) भिक्षा मागता हे । भिक्षा नही मिलने पर बिना दीनमुख हुए वहा से शीघ्र निकल दूसरे घर मे जाता है । वहाँ भी ( धर्म लाभ कह कर ) अथवा मौन से काय को दिखाकर भिक्षा मागता है | कही बीच मे ही यदि कोई श्रावक कह दे कि यहाँ हो भोजन करिये तो पूर्व घरो से प्राप्त अपनी भिक्षा को पहिले खाकर शेप अन्न उसके यहाँ का खाता है । यदि ऐसा कोई न कहे तो तूम फिर कर अपने उदर भरने तक की भिक्षा अनेक घरों से प्राप्त कर पीछे किसी एक घर मे प्रासुकजल मागकर जो कुछभी रस नीरस भिक्षा मिली है उसे यत्न से शोध कर खाता है । फिर पात्र को धोकर गुरु के समीप जाता है । यदि कोई अनेक घरो से भिक्षा लेने के इस कार्य को नहीं कर सकता हो तो वह चर्या के लिये मुनिचर्या के बाद श्रावक के किसी एक घर मे ही आहार कर लेता है । एक घर आहार न मिलने पर उस दिन वह नियम से उपवास रखता है । फिर गुरु के समीप जा कर विधि के साथ चार प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान ग्रहण करके गोचरी का सब वृत्तात यत्न के साथ गुरु के आगे निवेदन कर देता है । यह चर्या प्रथमोत्कृष्ट श्रावक की बताई है । वही चर्या द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक की होती है । दोनो मे फर्क इतना ही है कि- द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक नियम से लौच करता है और हाथ मे भोजन जीता है । यह कौपीन मात्र वस्त्र का धारी होता है । ( गाथा ३०१ ) Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक की ११वीं प्रतिमा ' ५५३ वसुनन्दि के इस कथन मे देखेंगे कि - पूर्वग्रन्थो मे इस प्रतिमाधारी के लिए जिस भिक्षा भोजन का कथन किया गया या उसका इन्होने अच्छा स्पष्टीकरण किया है और इस प्रतिमा के २ भेद करके पूर्व प्रथो मे जो चर्या समस्त ११६ी प्रतिमा की प्रतिपादन की थी उस सब का कौपीन के अतिरिक्त इन्होंने प्रथम भेद मे समावेश कर दिया है । और दूसरे भेद की एक नई कल्पना करके उसके लिये लच करने और मुनि की तरह हाथ मे भोजन जीमने जैसे विधान कर दिये हैं, जिनका उल्लेख पूर्वग्रन्थो मे कही नही है। बल्कि कुन्दकुन्द ने तो वस्त्र धारी को हाथ से भोजन करने का सख्त निषेध किया है जैसा कि हम ऊपर लिख आये हैं । करपात्र में आहार होने के दो तरीके होते है । पहिला तरीका तो यह कि भोजन को अपने एक हाथ मे रखकर उसमे से थोडा-थोडा लेकर दूसरे हाथ से खाते रहना और असुविधा होने पर कभी- कभी पात्र का भी उपयोग कर लेना । ऐसा विधान तो वसुनन्दि ने प्रथमोत्कृष्ट के लिए किया है । और दूसरा तरीका मुनि की तरह आहार लेना अर्थात् दोनो हाथो की जुडी हुई अजुली मे दाता आहार रखता जाये और साघु उसे अगुलियो से उठा उठा कर खाता रहे । यह विधान वसुनन्दि ने द्वितीयोत्कृष्ट के लिए विशेष चर्या वत्ताकर किया है । वही आशय आशाधर ने सागार धर्मामृत अध्याय ७ के श्लोक ४६ मे 'अन्येन योजित' वाक्य लिखकर प्रगट किया है । और वसुनन्दि ने प्रथमोत्कृष्ट का दूसरा विकल्प एक घर भिक्षावाला लिखकर यह बताया है कि उसको चर्याके लिए भिक्षापात्रको लेकर निकलने की भी जरूरत नही है उसे एक घरमे तो आहार लेना है अत वह दाता के घर के पात्रमे ही जीम लेवे । वसुनदि का यह विधान नया है । पूर्व ग्रन्थो से उसका समर्थन नही होता । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ ] * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ वसुनन्टि ने इस प्रतिमा वालो के लिये पर्व मे चार प्रकार के आहार का त्याग रूप उपवास रखने का भी नियम लिखा है जो पूर्व ग्रन्थो मे नही है। ऐसा पूर्व ग्रन्थो मे क्यो नही ? और इन्होने क्यो लिखा ? इसका भी एक कारण है और वह यह है कि पूर्व ग्रन्थकारो ने तो वैमा उपवास का विधान चौथी प्रोपधप्रतिमा मे ही कर दिया था। अत उनको इस ११वी प्रतिमामे युन' कहने की जरूरत ही नहीं थी। किन्तु वसुनन्दि ने वीथी प्रतिमा मे प्रोपध का उत्तम मध्यमादि भेद करके पर्व मे एकाशन तप करने को प्रोपध बता दिया है । ग्रन्थातरो मे ऐसा विधान प्रोपध शिक्षाव्रत मे लिखा है। इसलिये वसुनन्दि को इस ११वी प्रतिमा मे पर्व के दिन नियम से उपवास करने को लिखना पडा है। वसुनन्दि ने चौथी प्रतिमा मे प्रोषध का जो स्वरूप वतलाया है वह भी समतभद्रादि पूर्व ग्रन्थकारो के मत से भिन्न ही लिखा है। इस प्रकार वमुनन्दि ने लौच करना (यह मुनियों का मूल गुण है ) आदि जो मुनि की नियायें थी उन्ही का श्रावक दशा मे विधान करके उसका नाम द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक रख दिया है। इस प्रकार का विधान वसुनन्दि से पूर्व के किसी प्रथकार के द्वारा किया हुआ जब तक उपलब्ध न हो जाये तब तक यही कहा जायेगा कि ऐसी प्ररूपणा सबसे प्रथम वसुनन्दि ने ही की है। इस विधान मे सवस्र भट्टारको का रूप छिपा हुआ है। आगे चल कर तो यह मार्ग इतना विगड गया है कि-आजकल तो ११वी प्रतिमा मे पछेवडी रखने वाले तक आमतौर पर | लौच करते दिखाई देते है। उनके अन्धभक्त श्रावक उनके केशलु चन का उच्छव करतेहैं । वे रेल मे सफर करते है। गुरु के Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक की ११वीं प्रतिमा । [ ५५५ साथ नहीं रहते, न गुरु के आदेश का ही पालन करते है। अकेले स्वच्छन्द विचरते है। शास्त्राज्ञा को ताक में रखकर अपने भक्तो के बल पर मन आवे सो करते है। कहने को दे क्षुल्लक है पर लौंचादि करके एक तरह से वे वस्त्रधारी मुनि बन गये है। और उनके भक्तजन उनको मुनि की तरह ही मानते पूजते हैं । भिक्षा के लिये पात्र रखना तो आजकल कतई उठ ही गया है । इस प्रकार आज के ११वी प्रतिमाधारी क्षुल्लक पूर्वाचायो के आदेश तो दूर रहे वसुनन्दी के मत की भी अवहेलना करते दिखाई दे रहे हैं। __ इन सब अनर्थो की जड आज के अविवेकी श्रावक हैं। और वे काफी संख्या मे है । तथा इस काम मे स्वार्थी, खूशामदी, मानबडाई के भूखे कुछ पण्डित भी साथ हो जाते है जिनकी वजह से प्राय त्यागियो की चर्या दिनोदिन विगडती जा रही है और ताम पर भी समाज मे उनका काफी बोलबाला है। और इसी से वे अपने सुधार का कोई प्रयत्न नही करते हैं। जैसे किसी को भून लग जाता है तो वह बावला होकर अपनी सब सुधबुध खो बैठता है। वही हालत प्राय आज के श्रावकोकी नजर आती है उनके सामने भी कोई कैसा भी मुनि या क्ष ल्लक,ऐल्लक का वेष नजर आताहै तो उसके शिर पर ऐसा भत सवार हो जाता है कि- उस सयम न ये शास्त्र की सुनते है और न किसी विद्वान् की। एक तरह से स्वच्छन्द निरकुश होकर मनमानी करने लगते हैं और झगडने लगते हैं। ऐसी ही स्थिति को परिलक्षित कर यशस्तिलक से सोमदेव ने कहा है Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ प्रायः सम्प्रति कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् । निलून नासिकस्येब विशुद्धादर्शदर्शनम् ॥ अर्थात-इस कलिकाल मे मन्मार्ग का उपदेश देना भी प्राय खतरे से खाली नहीं है लोग उल्टै कुपित हो जाते हैं। किन्तु जब ये अपना स्वभाव नहीं छोड़ते तो धर्म-सेवक भी अपने कर्तव्य (हितैपिता) से क्यो च्युत हो। % - TO वसुनन्दि ने ११वीं प्रतिमा के जो दोभेद कियेहैं उन दोनो ही भेदो की सज्ञा गुरुदास कृत प्रायश्चित ग्रन्थ मे क्षुल्लक बताते हुए वहाँ उसके लिये लौच करनेका भी उल्लेख कियाहै । पर यह ग्रथ वसुनदि से पूर्व काल का है या उत्तर काल का है ऐसा कोई पूर्ण निश्चय नही है । इस ग्रन्थ का चूलिका भाग नन्दीगुरु की टीका सहित माणिक चन्द ग्रन्थमाला से प्रायश्चित्त संग्रह में प्रकाशित हुआ है। किन्तु इसकी चूलिका सहित शेष अश मय हिन्दी टीका के अन्यत्र से भी छपा है। उसको पढने पर यह ग्रन्थ प्रामाणिक मातम नहीं पड़ता है। जैसे इसके पृष्ठ ५५ मे लिखा है कि-व्याधि आदि कारणो के बिना मुनि वस्त्र ओढ ले तो वह प्रायश्चित का भागी है।" इसका अर्थ हुआ रोगी मुनि वस्त्रं ओढ़ सकता है। पृ० ५६ मे लिखा है-''व्याधि के वश से मुनि जूता पहिन ले तो दोष नहीं है।" इत्यादि । महावीर अतिशय क्षेत्र कमेटी से प्रकाशित आमेर शास्त्र भण्डार की सूची के पृ० १६४ मे इसे श्वेताबर ग्रन्थ बताया है। इसकी नन्दी गुरु कृत टीका है। इसके श्लो० १६१ की टीका में उक्तञ्च गाथा है वह इन्द्रनन्दि कृत छेदपिंड की है। इन्द्रनन्दी का समय विक्रम की १४वी शताब्दि है। अत नन्दीगुरु वि० १४वी शताब्दि के बाद के सिद्ध होते हैं। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक की ११वी प्रतिमा ] [ ५५७ स्वामिकुमार कृत कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थ मे भी जो कि प्राचीन माना जाता है सिर्फ एक गाथा मे इस विपय का मामूली सा वर्णन है । परन्तु उसका रचनाकाल आशाधर से पहिले का होने मे भी सन्देह है। क्योकि उसकी एक भी गाथा आशाधर की रचनाओ मे कही उदृत नही है । जबकि आशाधर ने अन्य अनेक प्राचीन अथो के उद्धरण दिये हैं तब यह हो नही सकता कि कातिकेयानुप्रेक्षा का वे एक भी उद्धरण नहीं देते। कम से कम सागारधर्मामृत मे तो इसका उद्धरण देते ही, जबकि कातिकेयानुप्रेक्षा मे श्रावक धर्म का ८८ गाथाओ मे विवेचन पाया जाता है। अन्य प्राचीन ग्रन्थकारो के ग्रथो मे भी कही इसका उद्धरण नही देखा जाता है । न इसके कर्ता स्वामिकुमार का ही किसी प्राचीन आचार्य ने कही स्मरण किया है। इसकी टीका भी बहुत बाद की १६वी शताब्दी मे बनी है। कुन्दकुन्द समन्तभद्रादि सभी शास्त्र कारो ने जहाँ श्रावक की प्रतिमाओ के, ११ भेद लिखे हैं. वहाँ इस नन्थकी गाथा ३०४-३०५ मे १२ भेद लिखे हैं। अगर यह ग्रन्थ अधिक प्राचीन होता तो अन्य ग्रथकार इसका अनुसरण करके प्रतिमाओ के १२ भेद लिखते परन्तु १२ भेद किसी ने भी नही लिखे हैं। यह बात खास सोचने की है। वसुनन्दि के बाद तो प्राय सभी ग्रन्थकारो ने ११ वी प्रतिमा का स्वरूप वसुनन्दि के अनुसार ही लिखा है । आशाधर ने भी इनका काफी अनुसरण किया है कुछ कथन आशाधर ने ऐसा भी लिखा है जो वसुनन्दी के द्वारा लिखने मे रह गया है। जैसे इस प्रतिमाधारी के वस्त्र सफेद रंग के होना चाहिए। ऐसा ही पुष्पदन्त ने यशोधर चरित मे लिखा है। वह है भी Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ ठीक, क्योकि जब महिला वर्ग जो कि अधिकतर रगीन-वस्त्र पहनती है उस वर्ग की आर्यिका के लिए ही जब सफेद साडी का विधान है तो पुरुषवर्ग के उत्कृष्ट श्रावक के वस्त्र का रग सफेद होना योग्य ही दे। यह कहना कि मेधावी ने रक्तकौपीन सग्राही' लिखकर उत्कृष्ट श्रावक की लगोट लाल रंग की बताई है। किन्तु यह पाठ अशुद्ध है। शुद्ध पाठ 'रिक्त कौपीन सग्राही' होना चाहिए। जिसका अर्थ होता है बिना चादर के खाली (केवल मात्र) लगोट का धारी। वास्तव मे यही पाठ मेधावी ने लिखा है। क्योकि इन्होने इस प्रतिमा का सारा वर्णन आशाधर के अनुसार किया है तब वे लंगोट के रग के विषय में ही भिन्न कथन कैसे कर सकते है। इन मेधावी ने प्रथमोत्कृष्ट की चादर लगोट भी तो सफेद रंग की लिखी है तब वे द्वितीयोत्कृष्ट के लिए लालरग की लगोट कैसे लिख सकते है ? आशाधर ने प्रथमोत्कृष्ट श्रावक (आज के क्षुल्लक) के लिए कोपीन और उत्तरीय वस्त्र ऐसे दो वस्त्रो का विधान किया है जबकि वसुनन्दि ने प्रथमोत्कृष्ट के लिए सिर्फ एक वस्त्र (शाटक) का ही विधान किया है। जब उत्कृष्ट श्रावक अनेक घरो से भिक्षा प्राप्त करता है तो उसकी नवधा भक्ति की जाने का तो सवाल ही नहीं रहता है। फिर आशाधर जी ने तो ११ वी प्रतिमा के स्वरूप के वणन मे ही इस बात का खुलासा कर दिया कि सभी श्रावक परस्पर मे इच्छाकार करे। देखो सागारधर्मामृत के अ०७ का श्लोक ४६ वा । यही नहीं आ० श्री कुन्दकुन्द ने भी सूत्र Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक की ११वी प्रतिमा ] [ ५५६ पाहुड की गाथा १३ मे लिखा है कि जो वस्त्रधारी क्षुल्लकादि श्रावक है वे सब इच्छाकार के योग्य हैं । यहाँ आचार्य का यह आशय है कि जो वस्त्र रखते है वे नवधा भक्ति के योग्य नही है । प० भावदेव नही, वामदेव का बनाया हुआ सस्कृत में एक भाव संग्रह नामक ग्रन्थ है जो छप चुका है । उसमे भी ११ वी प्रतिमा का वर्णन है। वह वर्णन प्राय वमुनन्दी की तरह का ही है । उसमे जो 'पञ्चभिक्षाशन भुक्त' पाठ लिखा है वह हमे अशुद्ध मालूम पडता है । उसके स्थान में शुद्ध पाठ 'पात्रे भिक्षाशन भुक्त' होना चाहिए। जिसका अर्थ होता है प्रथम भेदका धारी भिक्षा भोजनको पात्रमे जीमता है । इन प० वामदेव का बनाया एक त्रैलोक्य दीपक ग्रन्थ भी है, जिसकी वि० ० स० १४३६ की लिपि की हुई प्रति मिलती है । इससे इनका समय वि० स० १४३६ से पूर्व का सिद्ध होता है । लाटी सहिता मे क्षुल्लक के लिए पांच घरो से भिक्षा लाने की लिखी है वह काष्ठासघी ग्रन्थ है । अन्य ग्रन्थो मे गृहसंख्या का उल्लेख नही है । प० मेधावी ने धर्मसंग्रह श्रावकाचार की प्रशस्ति में एक 'दीपद' नाम के श्रावक को आशीर्वाद देते हुए जो उसका स्वरूप लिखा है वह ११ वी प्रतिमा वाले द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक के स्वरूप से मिलता हुआ है उसको मेधावी ने क्षुल्लक नही लिखा है किन्तु 'सत्क्ष ुल्लक' (उत्कृष्ट क्ष ल्लक) और 'आर्य' लिखा है । तथा उनके लघु पिच्छी बताई है धत्ते च पिच्छ लघु' । ( मुनि की तरह वडी पिच्छी नही ) | Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ] [* जैन निवन्ध रत्नावंलो भाग २ चारित्रसार मे ५ प्रकार के ब्रह्मचारी वताये हैं उनमे दूसरा भेद अवलम्ब ब्रह्मचारी है उसका स्वरूप इस प्रकार लिखा है अवलव ब्रह्म चारिण क्षुल्लकरूपेणागममभ्यस्य परिगृहीत गृहावासाभवति अर्थात् अवलव ब्रह्मचारी वे है जो क्ष ल्लक का वेप धरकर आगम का अभ्यास करते हैं फिर गृहस्थ हो जाते है। यही कथन सागारधर्मामृत अ०७ श्लोक १६ की टीका मे तथा कातिकेयानुप्रेक्षा की शुभचन्द्र कृत टीका पृ २८६ मे उद्धृत है। धर्म सग्रह श्रावकाचार अ. ६ श्लोक २१ मे तथा लाटी सहिता सर्ग ७ श्लोक ७३ मे भी यही वर्णन है। ऐसे क्ष ल्लको की कथा हरिषेण कथाकोष न० ६४ मे है। द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक की 'ऐलक' सज्ञा लाटी सहिताकार पं० रायमल जी द्वारा बताना सही नहीं है, क्योंकि लाटी सहिता सर्ग ७ श्लोक ६५ मे 'तत्र लकः' पद है वह गलत प्रतीत होता है कारण कि वही श्लोक ५५ 'क्ष ल्लकश्चलकस्तथा' और श्लोक ५८ 'विद्यते चलकस्यास्य' मे स्पष्टतया 'चलक' पाठ दिया है अत श्लोक ५६ से भी 'तलक' की जगह 'तच्चलक' शुद्ध पाठ होना चाहिए। इस तरह लाटी सहिताकार ने 'चैलक' नाम द्वितीयोत्कृष्ट के लिए दिया है। सस्कृत भाषा की दृष्टि से भी 'चलक' पाठ शुद्ध सार्थक है, 'ऐलक' नही । चैलक सज्ञा लाटी संहिताकार की निजी कल्पना नही है किन्तु इसके रूप पूर्व साहित्य मे सन्निहित पाये जाते हैं। रत्नकरण्ड मे 'चैल खडधर' पद इसी अर्थ में प्रयुक्त है। पउम चरिय (विमलसूरि कृत) प्राकृत ग्रन्थ के सर्ग ६७ वे मे 'चेल्लम' और 'चेल्लसामी' (चेल-स्वामी शब्द इसी अर्थ मे प्रयुक्त है। दशव कालिक की हरिभद्र सूरि कृत टीका मे भी 'चेल्लय रूव काऊण' वाक्य मे Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - श्रावक की ११वी प्रतिमा ] [ ५६१ चेन्लय (चेलक) शब्द का प्रयोग इसी अर्थ मे दिया है चेल और चल द्विरूप है इसीसे चेलक और चैलक बने हैं। देशी भापा मे चेला (शिष्य) शब्द भी इससे निष्पन्न हुआ है क्योकि क्षल्लकादि, साधुओ के शिष्य होते हैं । साधु अचेलक कहलाते है क्योकि वे निग्रंथ नग्न होते है अत उनसे नीचे दर्जे के क्ष ल्लक (११ वी प्रतिमाधारी) चेलक कहलाने ही चाहिये क्योकि ये वस्त्रधारी होते है। इसी चैलक (चेला) शब्द के आदि अक्षर 'च' का लोप होकर देशी भाषा मे ऐलक (एलक) शब्द का प्रचार हुआ है। जैसे बच्चे के अर्थ मे संस्कृत 'वाल' शब्द है और उसीके 'क' प्रत्यय लगाकर उसी अर्थ मे 'बालक' शब्द बना है उसी तरह चेल और चेलक समझना चाहिए। अर्श आदि गण ( आकृतिगण ) के अनुसार मत्वर्थीय (मत्वाला) 'अ' प्रत्यय लगने पर चेल (चल) का अर्थ चेल वाला वस्त्रधारी भी हो जाता है जैसे शुक्ल का अर्थ शुक्लवर्ण वाला भी होता है ('गुणे शुक्लादय पुसि गुणि लिंगास्तु तद्वति'-इत्यमर ) । अत चैल और चैलक का 'वस्त्रधारी के अर्थ मे प्रयोग समुचित है इसी चैलक से देशी भाषा मे ऐलक शब्द प्रचलित हुआ है। प० चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ को 'लाटी सहिता' का यह प्रकरण हस्तलिखित प्रति मे देखकर लिखने को एक वार हमने निवेदन किया था उत्तर मे उन्होने लिखा था कि-'चलक' की जगह 'लिक' पाठ भी पाया जाता है सस्कृत कोशो मे 'चेलिक' का अर्थ खडवस्त्र दिया हुआ है इससे इस 卐 आहार क्षेत्र के प्राचीन शिलालेखो मे "चेल्लिका रत्नश्री" का उल्लेख है । स्थानीय मुनिसुव्रतनाथ भगवान् की १२२५ स० की १ मूर्ति पर चेल्लिका गणधरश्री का उल्लेख है । परमात्मप्रकाश.... Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ पाठ की भी सगति वैठती है। दौलतरामजी ने अपने क्रिया कोप मे ऐसे ही किसी आधार से द्वितीयोत्कुष्ट श्रावक के लिए जगहजगह 'ऐलि' शब्द का प्रयोग किया है जो चैलि (चलिक) का ही अपभ्रष्ट ज्ञात होता है। यह ऐलक शब्द का सुसगत इतिहाम है। किन्तु मुख्तार सा० और प० हीरालाल जी सिद्धात शास्त्री ने (वसुनन्दि श्रावकाचार की प्रस्तावना के अन्त मे) 'अचेलक' शब्द से ऐलक शब्द की निष्पत्ति बताई है जो सगन मालूम नही पडती क्योकि किसी भी ग्रन्थकार ने द्वितीयाकृष्ट श्रावक के लिए 'अकेलक' शब्द का प्रयोग नहीं किया है अचेलक शब्द का प्रयोग श्रमणनिर्गन्थ साधुओ के लिए ही एक मात्र प्रयुक्त पाया जाता है उत्कृष्ट श्रावकों के लिए नहीं । दोनो के लिये इसे प्रयुक्त बताना एक तरह से गुड गोबर एक करना है। गवेपक विद्वानो से प्रार्थना है कि वे इस विषय पर विचार कर अपनी सम्मति प्रकट करने की कृपा करे। अन्त मे १३ मार्च के जैनसन्देश मे जो माननीय ब्रह्मचारी हीरालाल खशालचन्द जी दोशी ने क्षुल्लक चया र ८ प्रश्न विद्वानों से पूछे है क्रमश उनका सक्षिप्त उत्तर नीचे प्रस्तुत करते हैं - (१) वसुनन्दि श्रावकाचार में प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (क्ष ल्लक) के लिए जो एक वस्त्र का विधान है तथा सागार धर्मामृत मे जो प्रथमोत्कृष्ट के लिए उत्तरीय और कौपीन ऐसे दो वस्त्रो का विधान है इन दोनों मे वसुनन्दिका कथन पूर्वाचार्यानु समत ओर उपादेय है। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक की ११वी प्रतिमा ] [ ५६३ आपने लिखा - " एक वस्त्र धारण करने का मतलब यह दिखता है कि एक बार उपयोग मे लाने के लिए एक ही वस्त्र लेना दूसरा नही परन्तु दूसरे दिन बदलने के लिए दूसरा वस्त्र पास मे रखने का निषेध नही है दो वस्त्र एक साथ धारण करने मे निषेध (दोष) है ।" समीक्षा - प्राचीन साहित्यकारो ने जो क्षुल्लक के लिए एक ही वस्त्र धारण करना बताया है उसका तात्पर्य ही यह है कि दूसरा वस्त्र न तो अपने पास रखे और न धारण ही करे परिग्रह की दृष्टि से पास रखने और धारण करने मे कोई अन्तर नही है क्योंकि लखपति करोडपतिकी जेब मे लाख करोड रुपये पडे नही रहते फिर भी वे उन रुपयो के मालिक अधिकारी होने से लखपति करोडपति कहलाते हैं । अत दूसरे वस्त्र का पास मे रखना एक तरह से उस दूसरे वस्त्र का धारी- परिग्रही होता ही है । अगर ऐसा नही माना जायेगा तो कोई भी एक वस्त्रधारी अपने पास अनेक वस्त्र भी रख सकेगा ऐसी हालत मे गृहस्थी में और इसमे कोई विशेष और नही बन सकेगा । परिग्रह का सम्बन्ध किसी वस्तु के धारण करने या पास मे रखने से ही नही किन्तु उसके ममत्वभाव से है इसीलिए सूत्रकार ने परिग्रह का लक्षण "मूर्च्छा परिग्रह" बताया है । विहार के वक्त इस दूसरे वस्त्र को हाथ आदि मे रखना लेना ही पडेगा । तब दूसरे वस्त्र का धारण करना हो जायेगा तथा इस दूसरे वस्त्र की सार सभाल की चिन्ता रखने से स्वतन्त्रता निराकुलता मे भी काफी बाधा उत्पन्न होगी अत दूसरा वस्त्र पास मे रखना किसी तरह विधेय नही है । यह तो Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ स्पष्ट परिग्रह पक मे फंसना है जिस परिग्रह पक कावी प्रतिमा मे ही सर्वथा त्याग कर चुके पुन उसका ग्रहण करना पीछे लौटना या नीचे गिरना है। (२) सर्वप्रथम वसुनन्दि ने दो भेद ११वी प्रतिमा के किये है किन्तु उन्होने दो और एक वस्त्र की दृष्टि से ये भेद नहीं किये है। उन्होने प्रथमोत्कृष्ट के लिए भी एक वस्त्र (शाटक-धोती रूप) ही बताया है और द्वितीयोत्कृष्ट के लिए भी एक कोपीन मात्र ही। पूर्व शास्त्रों में जो ११वी प्रतिमा मे एक शाटक व कोपीन दोनो प्रकार के विकल्प चलते थे उसी के वसुनन्दि ने पृथक्-पृथक् रूप मे दो स्वतन्त्र भेद कर किये हैं। पर बाद मे तो अनेक ग्रन्थकारो ने एक प्रथमोत्कृष्ट के ही दो वस्त्र का विधान कर इस मार्ग को जघन्य कर दिया है। (३) पद्मपुराण पर्व १०० श्लोक ३६-'अशुकेनोपवीतेन सितेन प्रचलान्मना" मे क्ष ल्लक के सफेद वस्त्र ही बताया है ऐसा हो पुष्पदन्त कृत यशोधर चरित और आशाधर कृत सागार धर्मामृत मे है। किसी भी दि० ग्रन्थ मे क्ष ल्लक के लिए रंगीन वस्त्र नही बताया है। श्वे. जैनो के साघु साध्वी के भी सफेद वस्त्र ही है। इस तरह समन जैनसाधू समाज मे श्वेत वस्त्र ही प्रचलित है । श्वेत रग वैराग्य का द्योतक है जबकि अन्य सब रग राग भाव के द्योतक और हिंसा जन्य हैं । अत. दि० क्ष ल्लको को श्वेत परिधान ही ग्रहण करने चाहिए। बिहुत से क्षुल्लकादि अपने कमण्डलु के गोपाल वारनिस या रगीन पेट लगे हुए रखते है किन्तु ये वारनिस-पेन्ट नितात Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक की ११वी प्रतिमा ] [ ५६५ अशुद्ध वस्तुओ से निर्मित होते हैं अत ऐसे कमण्डलु ग्रहण नही करने चाहिये । लकडी के स्वाभाविक वा उन पर तेल लगे हुए ही ग्रहण करना योग्य है। (मुनियो के भी वारनिशपेन्ट के कमण्डलु ठीक नहीं) (४) प्राचीनसमय मे तो क्ष ल्लक (समग्र ११वी प्रतिमा) के लिए पात्र मे ही आहार करना विहित था किन्तु बाद मे किसी-किसी ग्रन्थकार ने कर मे भी आहार करने की लिख दी फिरभी मुनि की तरह अजुलि जोडकर नहीं इस सबका विस्तृत विवेचन पूर्व मे कर चुके हैं। कर पात्र अर्थ-कर रूपी पात्र (कर ही) तथा कर मे रखा हुआ पात्र दोनो बन सकते है। व्याकरण शास्त्र के अनुसार प्रथम अर्थ वहुव्रीहि समास से तथा दूसरा अर्थ सप्तमी तत्पुरुप समास से निष्पन्न होता है। जैसे–'लोकनाथ' शब्द के लोक ही है नाथ जिसका अर्थात् दीन अनाथ मनुष्य तथा लोक का नाथ अर्थात् राजा दोनो बनते है। फिर भी आशाधर ने प्रथम अर्थ के लिए पाणिपात्र शब्द का प्रयोग किया है और दूसरे अर्थ के लिए पात्र-पाणि शब्द का देखो सागार धर्मामृत अ७ श्लोक ४० “पात्र पाणिस्तदगणे।" (५) पूर्वाचार्यों ने तो ११वी प्रतिमा में पिच्छी रखना बताया ही नही है बाद मे किसी-किसी ने बताया है तो द्वितीयोत्कृष्ट जिसे आज ऐलक कहते हैं उसी के लिये बताया है। प्रथमोत्कृष्ट क्षुल्लक के लिए तो वस्त्र का मृदपकरण रखना बताया है। - - - - - - Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ दो वस्त्र रखने वाले आजकल के क्षुल्लक के लिए तो प्राचीन अर्वाचीन किसी भी आचार्य ने पिच्छी रखना नही | बताया है । ५६६ ] Shrf ( ६ ) इसी तरह आजकल के ( दो वस्त्रधारी) क्षुल्लक के लिए किसी भी शास्त्र में लोंव करने का विधान नही है फिर गुप्तस्थान या जाहिर मे करने का तो प्रश्न ही नही उठता । आजकल के जो कोई क्षुल्लक दाढी-मूंछ के बालो को तो रेजर या वाल-सफा लोगनो से साफ कर डालते हैं और शिर के बालो के लिए केशलोच महोत्सव कराते हैं या परचे छपवाते हैं वह सव ढोंग और महान् विडम्बना है धर्म का अपवाद है- कदाचार है । क्रियाकलाप के अन्त मे ( १० ३३८ पर) क्षुल्लक दीक्षा विधि सग्रहीत है जो न जाने किसकी बनाई हुई है उसमे गोबर आदि को क्षुल्लक के मस्तक पर रखने का भी कथन है और दीक्षा के वक्त क्षुल्लक का लोच करना बताया है इससे कोई कोई आज के क्षुल्लक के लिए लोच करना विधेयक बताते है किन्तु वह ठीक नही क्योकि पूर्वकाल मे क्षुल्लक एक वस्त्रधारी की ही सज्ञा थी (जो आज ऐलक कहलाते है) अत दो वस्त्रधारी आजकल के क्षुल्लकों के लिए इस दीक्षा विधि से भी केशलोच का विधान सिद्ध नही होता । क्षल्लक शब्द से भ्रम मे नही पड़ना चाहिये । इस दीक्षा विधि मे क्षल्लक शब्द के आगे ब्रकेट मे 'आर्य-ऐलक" ऐसा स्पष्ट लिखा है इससे यह ऐलको की ही दीक्षा विधि सिद्ध है आज के दो वस्त्र धारी क्षुल्लको से उसका कोई सम्बन्ध नही । Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक की ११वी प्रतिमा ] बहुन से क्ष ल्लक महाराज कहते हैं कि अगर हम केश लौंच की उच्च क्रिया करते हैं तो इसमे क्या हानि है ? यह तो अच्छी ही बात है इसका उत्तर यह है कि- फिर तो मुनियो की तरह खडे-खडे आहार भी कर लिया जाय इसमे भी क्या हानि है ? यह भी उच्चक्रिया ही है। किन्तु क्ष ल्लको के लिए यह सब शास्त्र विरुद्ध है शास्त्र मे जिस पद के लिए जो मर्यादा कायम की है तदनुसार ही आचरण करना चाह्येि अगर ऐसा नहीं किया जायेगा तो फिर ब्रह्मचारी भी कहने लगेंगे कि हम भी यह केशलोच की उच्च क्रिया करेंगे (परचे छपवाकर महोत्सव करेंगे) तब उन्हे कैसे रोका जायगा ? इस तरह सारा ही मार्ग बिगड जायगा। अगर क्षुल्लको को उच्च क्रिया का ही शौक है तो पछे बडी आदि वस्त्रो का मोह छोडिये और फिर खूब केशलौच करिये कोई रोकने टोकने वाला नही। किन्तु उच्च किया का तो क्ष ल्लको के बहाना मात्र है अन्तरग मे तो महोत्सव, भोज परचे छपवाना, जय-जयकार आदि के रूप में अपनी नामवरी की भूख है जो वैगगी के लिए कोई शोभा की चीन नहीं । प्रस्तुत उसे हीन मार्ग की ओर ले जाने वाली है। (७)(८) जो क्ष ल्लक कपडे की पगरखी, छतरी, दोनटूथब्रश, साबुन, घड़ी, फाउन्टेन पेन, पखा, चश्मा, बिजली, तेल, खसखस की टाटी हीटर, रेल मोटर, आदि सवारी वगैरह का उपयोग करते है वे पदविरुद्ध क्रिया करते है क्योकि इन सब वस्तुओ का तो ६वी परिग्रहत्याग प्रतिमा में ही सर्व प्रकारेण त्याग हो जाता है पुन उसका ग्रहण करना उच्छिष्ट-सेवी बनना है यह तो आगे की कक्षा में आकर पीछे का पाठ भूलने के समान है गृहत्यागी वैरागीके लिये ये सब आरम्भ परिग्रह किसी तरह शोभास्पद नही ये तो उसकी स्वतन्त्रता निराकुलता का - - Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - com - - - - - - ५६८ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ हनन करने वाले और धर्म की निंदा स्वरूप हैं ये महान दोष| अनाचार हैं क्षुल्लको को इनसे बचना चाहिये। रेल मोटरादि की सवारी मे ईर्या समिति का पालन भी पालन भी नही है टिकिट के लिए भी याचना करनी पड़ती है अत क्षुल्लक को तीर्थयात्रा के निमित्त भी सवारी का उपयोग मन मे नही लाना चाहिये । जो कोई क्ष ल्लक-क्ष ल्लिका शीतकाल मे ओढ़ने के लिए विशेष चद्दर या रजाई आदि का उपयोग करते हैं वह भी शास्त्र विरुद्ध और अनाचार है। उन्हे अपने पद का ध्यान रखकर शीत परिषह को सहना चाहिये-किसी भी प्रकार के शिथिलाचार को प्रश्रय नही देना चाहिये। आजकल के क्षुल्लको के लिये एक बात की तरफ हम और सकेत करना चाहते हैं - बहुत से क्ष ल्लक आहारचर्या पर जाते वक्त अपनी पछबड़ी (चद्दर) अपने आवास परही रख जाते है यह दोषास्पद है क्योकि इस तरह आहारदाता गृहस्थको यह पहचानने मे नही आता कि ये क्ष ल्लक हैं या ऐलक वे भ्रममे पड़ जाते हैं इसके सिवा आवास पर चद्दर रखकर आने से उस चद्दर के चोरी चले जाने या किसी प्रकार से उसकी बरबादी-हानि भी सभव है अत क्ष ल्लको को आहारचर्या के वक्त अपनी पछे बड़ी अपने साथ ही रखना चाहिये। श्रावक, त्यागी सभी का कर्तव्य है कि वे सदा जिनेन्द्र के पवित्र मार्ग को अक्षुण्ण बनाने रखने मे प्रयत्नशील रहेकिसी भी तरह मार्ग को भ्रप्ट-पतित नहीं होने दे। यही सच्ची जिनभक्ति है। .. - ~ T - - - Homen - Lamrawan - - Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० साधुओं की आहारचर्या का समय जो भिक्षा प्रासुक हो, यथाकाल प्राप्त की हो और जिसके सम्पादन मे साधु का कृत कारित अनुमोदना का कुछ भी संपर्क न हो, ऐसी भिक्षा आगम मे साधु के लिए ग्रहण योग्य मानी है । इस प्रकार की भिक्षाचर्या को साधु के मूल गुणो और उत्तरगुणो मे प्रधान व्रत कहा है । ऐसी भिक्षाशुद्धि को त्यागकर जो साधुजन अन्य योगउपवास व आतापनादि त्रिकालयोगो को करते है, तो उनके किये वे अन्य योग सब चारित्रहीनो के किए जैसे है। उन्होने परमार्थ को नही जाना है । भिक्षाशुद्धि के साथ यदि थोडा भी तप किया जाय तो वह शोभनीय व सराहने योग्य है । ऊपर का सर्व कथन मूलाधार के समयसाराधिकार में बताया है । यथा जोगेसु मूलजोग भिक्खाचरियं चः वाणियं सुत्त । अण्णे व पुणो जोगा विष्णाणविहीणएहि कया |४६ | टीका - सर्वेषु मूलगुणेषूत्तरगुणेषु मध्ये प्रधानव्रतं भिक्षाचर्या । कृतकारितानुमतिरहित प्रासुक काले प्राप्तं वर्णिता प्रवचने । तस्मात्तां भिक्षाशुद्धिं परित्यज्य अन्यान् योगान् उपवासत्रिकाल योगादिकान् ये कुर्वंति, तैस्तेऽन्ये योगा विज्ञानविरहि Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.० ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ तैश्चारित्रहीनै पुन कृता । न परमार्थ जानभिरिति । चर्याशुद्धया स्तोकमपि क्रियते यत्तपस्तच्छोभनमिति । फिर इसके आगे की गाथा मे लिखा है किकरल कल्ल पि वरं आहारो परिमिदो पसत्थो य । ण य खमण पारणाओ बहवो बहुसो बहुविहोय ॥४॥ अर्थ-भिक्षाशुद्धि के बिना जो बहुत से बहुत प्रकार के बहुत बार उपवास पारणे करता है वह अच्छा नहीं है । इससे तो वह अच्छा है जो रोज-रोज आहार करता है किन्तु परिमित और अध कर्मादिदोष रहित आहार लेता है। ऊपर भिक्षाशुद्धि का कथन करते हुए भिक्षा काल मे भोजन लेना भी भिक्षा-शुद्धि में शुमार किया है। आगम मे साधुओ के भिक्षा लेने का समय कौनसा बताया है ? इस लेख मे नीचे हम इसी की चर्चा करते हैं। मुनियो का आचारविषयक प्रधान ग्रथ मूलाचार है। उमके पचाचाराधिकार की गाथा १२१ की वसुनन्दिकृत सस्कृत टीका मे यह कथन इस प्रकार लिखा है __सवितुरुदये देववदना कृत्वा घटिकाहयेऽतिकाते श्रुभक्तिगुरुभक्तिपूर्वक स्वाध्याय गृहीत्वा " घटिकाद्वयम प्राप्तमध्याह्नादरात् स्वाध्याय श्रुतभक्तिपूर्वक मुपसहृत्यावसथादरतो मूत्रपुरीषादीन् कृत्वा पूर्वापरकाय विभागमवलोक्य हस्तपादादि प्रक्षालन विधाय कुण्डिका पिच्छिका गृहीत्वा मध्याह्नदेववन्दना कृत्वा पूर्णोदरबालकान् भिक्षाहारान् काकादिबलीनन्यानपि लिगिनो भिक्षाबेलाया ज्ञात्वा प्रशाते धूममुशलादिशब्दे गोचर प्रविशेन मुनि ।" Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं की आहारचर्या का समय ] [ ५७१ अर्थ-सूर्योदय मे देववन्दना करके, २ घडी दिन चढने पर श्रुतभक्ति व गुरुभक्ति का पाठ पढकर स्वाध्याय का प्रारम्भ करे और मध्याह्न के होने मे जब दो घडी का समय बाकी रहे तव ही यानी मध्याह्न के समीप काल मे श्रुतिभक्ति के पाठ पूर्वक स्वाध्याय का विसर्जन करदे । फिर वसतिका से दूर जाकर मलमूत्र करके (यहां ऐसा कुछ आभास होता है कि आम तौर पर मुनियो के मलोत्सर्ग का भी यही समय है, न कि प्रभात काल)। अपने शरीर के अगले पिछले भाग की प्रतिलेखना कर, हाथ पैर धोकर कमण्डलु पीछो लेकर मध्याह्न की देववन्दना किये वाद यह देखे कि बालको ने पेटभर भोजन कर लिया है, भिखारी भीख मागते फिर रहे है, काकादिको को खाना डाला जा रहा है, (इस आर्यावर्त देश की यह प्राचीन प्रथा थी कि मध्याह्न के वक्त काक, श्वान आदि को खाना डाला जाता था) और अन्य मत के साधु भी भिक्षाथ विचर रहे हैं। इत्यादि लक्षणो से भिक्षा लेने का समय जानकर जिस वक्त कि रसोई का धुआं और मुशलादि का शब्द भी न हो रहा हो, जैनमुनि गोचरी के लिए निकले ।* भिक्षावेला का यह विवरण जिस क्रम के साथ यहाँ दिया गया है उससे बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि-जैनमुनि के भोजन का काल दिन के मध्याह्न मे है। मध्याह्न से दो घडी * श्वे. विशेषावश्यक ग्रथ मे भी ऐसा ही लिखा है देखियेनिद्धमग च गाम महिला थूम च सुण्णय देख । नीय च कागा बोलें ति जाया मिक्खस्स हरहा।।२०६४॥ ७२७-१८६ (अर्थात्-धूम्ररहित गाव और स्त्रियो रहिन पनघट को लक्षिनकर और कीवो को नीचे माते देख कर भिक्षाकाल का निश्चय करना चाहिये ) Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ पहिले स्वाध्याय को समाप्त करना और मल मूत्रादि क्रिया से निवृत्त हो मध्याह्न की देववन्दना किये बाद गोचरी पर उतरना इत्यादि उल्लेखो से मध्याह्न के समय मे फेरफार होने की तनिक भी गुंजाइश नही है । अन्यमत के सन्यासियो के भोजन के वाबत जो टीकाकर ने लिखा है सो मनुस्मृति मे इस विषय मे निम्न कथन मिलता है एककालं चरेक्ष्य न प्रसज्जेत विस्तरे । मैक्षे प्रसक्तो हि यतिविषयेष्वपि सज्जति ॥५५॥ सन्नमुशले सन्नमुशले व्यंगारे बिधूमे भुक्तवज्जने । वृत्त शरावसंपाते मिक्षां नित्यं यतिश्चरेत् ॥५६॥ अलाभे न विषादी स्याल्लाभे चैव न हर्षयेत् ॥ २०६ ॥ अर्थ -- सन्यासी दिन मे एकबार भिक्षा करे । अधिक बार न खावे | क्योंकि अधिक बार खाने से कामादि विषयो मे मन जाता है। रसोई का धुवा निकल गया हो, मुशल के कूटने का शब्द बन्द हो चुका हो। आग बुझ गई हो, सब भोजन कर चुके हो, झूठी पत्तले मिट्टी के सकोरे आदि फेंक दिये हों ऐसे समय मे सदा यतिको भिक्षा के लिये जाना चाहिये । भिक्षा न मिलने पर खेद और मिलने पर हर्ष न करे । * मनुस्मृति के इस कथन से ऐसा ध्वनित होता है किगृहस्थी के सब लोग भोजन कर चुकने के बाद अगर भोजन बच जाये तो वह सन्यासियों के लेने योग्य होता है । * यही बात कण्व (वैदिक ऋषि) ने लिखी है विधूमे मन्नमुशले व्यगारे भुक्तवज्जने । कालेऽपराण्हे भूविष्ठे भिक्षाटन मया चरेत् ॥ ( इसमें स्पष्ट तथा अपरान्ह काल लगने पर भिक्षाटन बताया है ।) - Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं की आहारचर्या का समय ] [ ५७३ अब हमे यह देखना है कि - मूलाचार की टीका मे जो मुनियो का भिक्षा का काल मध्याह्न मे बताया है उसका सर्मथन अन्य जैन ग्रन्यो से भी होता है या नही । सबसे प्रथम हम सोमदेव कृत यशस्तिलक चपू का प्रमाण पेश करते हैं। उसके प्रथम आश्वास के पृष्ठ १३४ ( तुकारामजावजी द्वारा प्रकाशित ) पर लिखा है कि तमुपसद्य निषद्य च निर्वार्तित मार्ग मध्याह्नक्रिय समाकलय्य च परिणतकाल महर्दनमखिल श्रमणसघ लोचनगोचरारामेषु ग्रामेषु विश्वाणार्थमादिदेश ।” < उस पर्वत पर सुदत्ताचार्य सघ सहित जाकर स्थित हुये । उन्होने ईर्यापथशुद्धि और माध्याह्निकक्रिया - देववन्दनादि से निवृत्त हो, अहर्दल कहिये दिन के अर्द्ध भाग को मुनियो का भोजन काल ज्ञात करके सब मुनिसंघ को आहार के लिये आसपास के ग्रामो मे जहां के कि बगीचे दिखाई दे रहे थे, जाने का आदेश दिया । यहाँ भी दिन का अर्द्ध भाग और मध्याह्न की देववदना के बाद का समय लिखकर सोमदेव ने इस विषय को अच्छा स्पष्ट कर दिया है । पद्मपुराण पर्व ४ मे लिखा है कि अन्यदा हास्तिनपुरं विहरन् स समागत । अविशच्च दिनस्यार्द्ध गते मेरुरिव श्रिया ॥६॥ अर्थ- जो शोभा से मेरुपर्वत के समान जान पड़ते थे ऐसे भगवान् श्री ऋषभदेव विचरते हुए किसी दिन आहार के अर्थ मध्याह्न के समय हस्तिनापुर मे आये। यहा भी दिनार्द्ध का Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ समय लिखा है। हरिवश पुराण सर्ग ६ मे लिखा है कि-श्री ऋषभदेव भगवान के दर्शन प्रजा को उस वक्त होते थे जब वे मध्याह्न के समय आहार के अर्थ पुरो व ग्रामो मे आते थे। यथा मध्यान्हेषु पुरग्रामगृहपंक्तिषु दर्शनम् । प्रशस्ताषु प्रजाभ्योऽदाच्चाद्रीचर्या चरन क्षितो ॥१४॥ यहा भी मध्याह्न का समय लिखा है ।' सकलकीर्तिकृत प्रश्नोत्तर श्रावकाचार के २४वे सर्ग मे ११वी प्रतिमा का स्वरूप वर्णन करते हुए लिखा है कि योग्यकाले तदाटाय मुहर्ते सप्त सगते । दिने परिग्रहे योग्ये भिक्षार्थं समेत् व्रती ॥४५॥ अर्थ - उस पात्र को लेकर सात मुहर्न दिन के चढ जाने पर जो कि भिक्षा का योग्य काल है, उसमे योग्य दिन मे क्ष ल्लक व्रती को भिक्षा के लिए घूमना चाहिए। 0 पर्व ६२ श्लोक १५-१६ मे लिखा है - नभोमध्य गते भानावत्पदा ते महाशमा (वै मुनीश्वर आकाश के मध्य मे सूर्य के आने पर अर्थात् ठीक मध्यान्ह मे भिक्षार्थ नगर मे आये) हरिवशपुगण के सर्ग ६ श्लोक १६६ से भी मध्यान्ह - ही भिक्षाकाल प्रकट होता है-तावदध्मान माध्यान्ह शखनाद समुच्छ्नि । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओ की आहारचर्या का समय ] [ ५७५ यहा सूर्योदय से ७ मुहूर्त बाद भिक्षा लेने को जाना लिखा है । ७ मुहूर्त के ५ || घण्टे होते हैं । अन यह समय भी लगभग मध्याह्न का ही पडता है । इत्यादि आगम प्रमाणो से जैनमुनियो का भिक्षा काल मध्याह्न समय का सिद्ध होता है । [शास्त्रकारो ने जो भिक्षा का समय मध्याह्न काल बताया है उससे मुनि को आहार उद्दिष्टादि दोपो से रहित प्राप्त होता है यह ज्ञातव्य है । ] इस पर जैन गजट के सम्पादक प अजित कुमार जी शास्त्री और ब्र० चाँदमल जी चूडीवाल के विचार जैनगजट के ता० ६-२३-३० मई सन् ६८ के अक मे प्रकाशित हुए है | उन्हे में समीचीन नही समझता । उनकी समीक्षा के साथ नीचे इस विषय पर और भी काफी प्रकाश डाला जाता है ताकि पाठक इस विषय को और भी स्पष्टतया हृदयगम कर सके - मूलाचार के बाद मुनियो के आचार को लेकर प आशाधर जी ने भी अनगारधर्मामृत नाम का एक बडा ग्रंथ स्वोपज्ञ संस्कृत टीका सहित रचा है। जिसमे मुनिधर्म का विस्तार से खुलासा किया है । इस ग्रन्थ मे भो मुनि के भिक्षाकाल के विषय मे लिखा है । उसे भी देखियेप्रवृत्येन दिनादो द्वे नाड्यौ यावद्यथाबलम् । नाडीद्वयोनमध्यान्ह यावत्स्वाध्यायमावहेत् ||३५|| [ अध्याय ६ ] (नोट श्रावक धर्म संग्रह पृ २२५-२२६ मे सोधियाजी ने इस ७ मुहूर्त को ७ घडी बना दिया है जो गलत है इससे आधा ही होगया है क्योकि १ मुहत मे २ घडी होती है) - Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ ] [ ★ जेन निबन्ध रत्नावली भाग २ अर्थ - इस प्रकार दिन की आदि ( प्रभान) मे दो घडी तक देववन्दनादि किये बाद साधुओ को स्वाध्याय करना चाहिए | स्वाध्याय का समय सूर्योदय से २ घडी बाद से लेकर मध्यान्ह से २ घडी पहिले तक का है । इस समय के भीतर साधुओ को स्वाध्याय करनी चाहिये । मध्याह्न से पूर्वोत्तर की दो दो घडी स्वाध्याय के लिये वर्जित है । इन चार घडियो के अस्वाध्यायकाल मे मुनि क्या करे ? इसके लिये आगे लिखा है कि जिसने स्वाध्याय समाप्त किया है ऐसा वह सुनि यदि उपवास रखना चाहता हो तो उसे क्या करना चाहिए यह बताते हैं -- ततो देवगुरू स्तुत्वा ध्यान वाराधनादि वा । शास्त्रं जपं वाऽस्वाध्यायकालेऽभ्यसेदु पोषित ||३५|| [मध्याय ६ ] अर्थ उपवाम युक्त साधु को पूर्वान्हकाल का स्वाध्याय समाप्त होने पर मध्यान्ह की आगे पीछे की दो-दो घड़ियों मे जो कि अस्वाध्याय काला है उनमे अरहन्त और गुरु धर्माचाय की स्तुति वन्दना करके ध्यान करना चाहिए अथवा आराधनादि शास्त्रो का अभ्यास करना चाहिए, यद्वा पञ्चनमस्कारादि का जप करना चाहिए । " अप्रतिपन्नोपवासस्य भिक्षोर्मध्याह्नकृत्य माह ।" अर्थ - आगे उपवास न रखने वाले साधु को मध्यान्ह से क्या करना चाहिए सो बताते है प्राणयात्रा चिकीर्षायां प्रत्याख्यानमुपोषितम् । न वा निष्ठाप्य विधिवद् भुक्त्वा भूयः प्रतिष्ठयेत् ॥ ३६॥ [अ०] [2] Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओ की आहारचर्या का समय ] [ ५७७ अर्थ - यदि मुनि को उस दिन भोजन करना हो तो पूर्व दिन जो प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण किया था, उसका विधिपूर्वक निष्ठापन कर देना चाहिए और निष्ठापन के अनन्तर मध्यान्ह मे शास्त्रोक्त विधि के अनुसार भोजन करके अपनी शक्ति के अनुसार प्रत्याख्यान अथवा उपवास की प्रतिष्ठापना करनी चाहिए। उसके बाद क्या करना चाहिए सो बताते है - प्रतिक्रम्याथ गोचारदोषं नाडीद्वयाधिके । मध्याह्न प्राहृवत् वृत्त स्वाध्यायं विधिवद्भजेत् ॥ ३६ ॥ [अ०६] अर्थ - प्रत्याख्यानादि को अपने में स्थापित करने के बाद साधुओ को गोचरी सम्बन्धी दोषो का प्रतिक्रमण करना चाहिए । तदनन्तर पूर्वान्ह की तरह अपरान्हकाल मे भी मध्याह्न से २ घडी अधिक समय व्यतीत होने पर विधिपूर्वक स्वाध्याय का प्रारम्भ करना चाहिए । इस प्रकार मूलाचार और अनगार धर्मामृत इन दोनो ही ग्रन्थो मे स्पष्टतौर पर मध्याह्न से दो घडी पूर्व स्वाध्याय की समाप्ति किये बाद गोचरी का समय लिखा है । जो लोग दस बजे करीब गोचरी का जनरल टाइम मानते हैं उन्हे जानना चाहिये कि आशाधर जी ने साफ लिखा है कि मध्यान्ह से दो घडी पहिले जिस मुनि को उपवास रखना है वह अमुक काम करे और जिसे भोजन करना है वह गोचरी पर जावे। इससे साफ प्रगट होता है कि दो घडी कम मध्यान्ह से पहिले मुनि की गोचरी का कोई टाइम नही है । मध्यान्ह से २ घडी पहिले का अर्थ होता है दिन के १२ बजे से ४८ मि० पहिले अर्थात् ११ बजे । इसका तात्पर्य यही हुआ कि मुनिका कोई भी भिक्षाकाल दिनके मवाग्यारह बजे से पहिले नही है, बाद मे है । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ मूलाचार के ऊपर लिखे उद्धरण मे लिखा है कि रसोई मे से धुआं निकलना बद होने आदि कारणो से मध्याह्नका समय जानकर मुनि गोचरी पर उतरे। इसका मतलब यह है कि १०-१०॥ बजे तक तो वहुत से गृहस्थो के रमोई बनती रहती है, अत वह समय गोचरी का नही हो सकता है। मध्याह्न मे रसोई से सब निमट जाते है, अत धुआं निकलने का भी तब अवसर नहीं रहता है। आशाधर जी ने अन्य प्रसङ्गो पर भी मुनि का भिक्षाकाल - मध्याह्न मे लिखा है । जैसे सागार धर्मामृत अ० ५ श्लोक १५ मे लिखा है कि-"श्रावक माध्याह्निक देवपूजा किये बाद अतिथि को आहारदान देने के लिए प्रतिक्षा करे।" इसी तरह सागार धर्मामृत के ६ वें अ० मे श्रावक की दिनचर्या बताते हुए आशाधर जी लिखते है कि प्रथम ही ब्राह्ममुहूर्त मे उठकर णमोकार मत्र पढे । फिर शौचादि से निवृत्त हो घरके चैत्यालय मे पूजा करे व कृतिकर्म करे फिर कुछ नियम विशेष धारण कर पूजा की सामग्री लेकर गांव के मन्दिर मे जावे। वहां भगवान की पूजा किये बाद आचार्य के पास जाकर जो पहिले घरके चैत्यालय मे नियम विशेष ग्रहण किये थे, उन्हे उनको सुनादे। फिर स्वाध्याय करे । इस प्रकार प्रात:काल सम्बन्धी धार्मिक कृत्यो को करके वह श्रावक अर्थोपार्जन के लिए दूकान आदि स्थानो पर जाकर व्यवसाय करे। फिर भोजन के अर्थ घर पर आवे। उस वक्त मध्याह्न मे मुनि की गोचरी का समय समीप जानकर (श्लोक २१) स्नान कर अपने घरके चैत्यालय मे ही माध्याह्निक देवपूजा करे । तदनन्तर अतिथि को आहार देकर भोजन करे।" Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओ की आहारचर्या का समय ] [ ५७६ , यह वर्णन सागारधर्मामृत के ६ वें अ० मे श्लोक १ से २४ तक किया है। ( लाटी सहिता अ० ६ श्लोक १८०-१८१ आदि मे भी लगभग ऐसा ही कथन है।) अनगार धर्मामृत अ०८ श्लोक ६६ मे प्रत्याख्यान के अनागत आदि १० भेदो मे से कोटियुत नामक प्रत्याख्यान का स्वरूप इस प्रकार लिखा है "कलको दिन की स्वाध्याय का समय बीत जाने पर यदि शक्ति होगी तो उपवास करू गा, वर्ना नही करू गा, ऐसा सङ्कल्प करके प्रत्याख्यान करने को कोटियुत प्रत्याख्यान कहते है।" ____ मध्याह्न से २ घडी पहिले तक का स्वाध्यायकाल माना जाता है जैसा कि ऊपर बताया गया है । इसके आगे मुनियो का भिक्षाकाल आ जाता है। इस बात को लेकर यहाँ कहा है कि उस वक्त शक्ति होगी तो उपवास करू गा नही तो नहीं करूंगा, ऐसे सङ्कल्प से पूर्व दिन मे नियम लेना । ऐसा ही कथन मूलाचार अ० ७ गाथा १४० मे किया है तथा मूलाचार अ० ४ गाथा १८० की टीका मे मिक्षा की व्याख्या ऐसी की है 'मध्याह्नकाले भिक्षार्थं पर्यटन भिक्षा।" अर्थ-मध्याह्न मे मुनि का भिक्षा के लिए घूमना भिक्षा कही जाती है। तथा इसी मूलाचार के अ०७ श्लोक ८४ मे लिखा है कि - "मध्याह्नकाल मे आये साधु का वहुमान करना लोकानुवृत्ति विनय है।" Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० ] , [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ 1 आमतौर पर मुनियो का भिक्षाकाल मध्याह्न नियत होने से ही इस प्रकार के उल्लेख किये गये है । आशाधर और मूलाचार के इन सब उल्लेखो से मुनियो का भिक्षाकाल का दिनार्द्ध का आसपास का समय सिद्ध होता है । जिसे शास्त्रो मे मध्याह्न नाम से लिखा हैं । ★ 1 इस विषय में और भी ग्रन्थोके प्रमाण देखियेप० मेधावीकृत श्रावकाचार में लिखा है कि - गृही देवार्चनं कृत्वा मध्याह्न साबुभाजन | पावावलोकनं द्वास्यः कुर्यादुक्त्या सुधौतत्रत्॥८५॥ अर्थ - स्नानादि से पवित्र हो गृहस्थ, देवपूजा किये वाद मध्याह्न मे जलपात्र हाथ मे लेकर अपने घर के द्वार पर स्थित होकर भक्तिपूर्वक पात्र की प्रतीक्षा करे । इसी ७ वें अधिकार के श्लोक ६१ मे भी प्रोषधोपवास का वर्णन करते हुए लिखा है कि - "सप्तमी और त्रयोदशी को दिन के मध्याह्न मे अतिथियो को आहार देना चाहिये ।" कातिकेयानुप्रेक्षा मे लिखा है कि -- सत्तामि तेरस दिवसे अबरण्हे जाइऊण जिणभवणे । किच्चा किरिया कम्म उववासं चउविह गहियं ॥ ३७३ ॥ ★ आशाधर ने सागार धर्मामृत अ० ४ श्लोक २८ मे लिखा है - उत्तमपुरुष ( मुनि आदि) एक बार भोजन करते हैं और वह भोजन दिन के मध्य मे करते हैं । इससे भी साधु के आहार का समय मध्या ही सिद्ध होता है । Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं की आहारचर्या का समय ] [ ५८१ टीका-"स प्रोषधोपवासी भवति य सप्तम्यास्रयोदश्याश्च दिवसे अतिथि जनाय भोजन दत्वा पश्चात् स्वय भुक्त्वा ततः अपराह्न जिनभवने गत्वा तत्र कृतिकर्म-देववन्दना कृत्वा उपवास गृह्णाति ।" अर्थ-सप्तमी और त्रयोदशीके दिन अतिथि को भोजन जिमाकर और पीछे स्वय भोजन जीमकर फिर अपरान्हकाल मे जिन मन्दिर मे जाकर वहाँ सामायिक आदि क्रियाकर्म करके उपवास ग्रहण करे। मध्याह्न मे मुनि को जिमाने और बाद मे खुद के जीमकर निमटने से अपराह्न काल आ जाता है। इसीसे यहाँ अपराह्न मे सामायिक करने व उपवास ग्रहण करने को कहा है। अपराह्न का उल्लेख खास गाथा मे भी किया है । सोमसेन त्रिवर्णाचार मे लिखा हैयथालाधं तु मध्याह्न प्रासुकं निर्मलं परम् । भोक्तव्य भोजन देहधारणाय न भुक्तये ॥६७१ मध्याह्नसमये योगे कृत्वा सामायिकमुद्रा। पूर्वस्यां तु जिनं नत्वा ह्याहारार्थ व्रजेच्छन. ॥६६॥ पिच्छं कमडलु वाम हस्ते स्कन्धे तु दक्षिणम् । हस्तं निधाय सदृष्टया स व्रजेच्छावकालयम् ॥७०॥ [अध्याय १२ अर्थ-मुनि को मध्याह्न के समय यथाप्राप्त प्रासुक और निर्दोप भोजन देहस्थिति के लिये जीमना चाहिये, स्वाद के लिये नही । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ मध्याह्न समय की सामायिक करके आहार के लिये मन्द गतिसे गमन करना चाहिए, उस वक्त वाम हाथ मे पीछी कमडलु और दक्षिण हाथ कन्धे पर रहना चाहिये। इस तरह से ईर्यापथशुद्धिपूर्वक श्रावक के घर पर जावे। आजकल जिस मुद्रा मे मुनिलोग गोचरी पर फिरते है वह मुद्रा यहाँ लिखी है। शायद इसीके आधार पर यह मुद्रा चली हो । मूलाचार, अनगार धर्मामृत, आचारसार, भगवती आराधना मे ऐसी मुद्रा का उल्लेख देखने मे ही नहीं आया। लाटी सहिता मे अतिथि सविभाग व्रत के व्याख्यान मे ऐसा कहा है ईषन्यूने च मध्याह्न कुर्याद् द्वारावलोकनम् । दातुकाम सुपात्राय दानोयाय महात्मने ॥२२१॥ [अ० ६] अर्थ-सुपात्र को दान देने की इच्छा रखने वाला श्रावक किञ्चित् न्यून मध्याह्न मे द्वाराप्रेक्षण करे। यहाँ किञ्चित् न्यून मध्याह्न का अर्थ है १२ बजे से कुछ पहिले का समय ११॥ बजे करीब। ___ इन्द्रनन्दि कृत नीतिसार के श्लोक ४१ मे भी मध्याह्न लिखा है। प भूधर मिश्र कृत चर्चा समाधान मे चर्चा ५३ वी मे मुनि की आहारचर्या सम्बन्धी चर्चा का समाधान इस प्रकार किया है "प्रथम सूर्योदयविष साधु प्रात काल की सामायिक Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओ की आहारचर्या का समय ] [ ५८३ समाप्त कर तिस पीछे दोय घडी दिन चढे श्रुतभक्ति-गुरुभक्ति पूर्वक स्वाध्याय ग्रह सिद्धात सम्बन्धी वाचना पृच्छनादि करै । मध्याह्नविषै दोय घडी बाकी रहै तब श्रुतभक्ति पूर्वक स्वाध्याय समाप्त करै । यथावसर मलमूत्र का त्याग करि आवै । शुद्ध होय मध्याह्न की देव वन्दना करै। आहार के निमित्त नगरादिविर्षे च्यारि हाथ धरती शोधता गमन करै।" इस प्रकार शास्त्र मे जहाँ भी गोचरी का वर्णन आया है वहां मध्याह्नका ही समय लिखा है, किसी भी शास्त्र मे पूर्वाह्न नही लिखा है। इसके विरुद्ध श्री चूडीवालजी ने आदिपुराण का श्लोक देकर गोचार बेला का अर्थ प्रात काल बताया वह मिथ्या है, उसका प्रात काल अर्थ होता ही नही है । यथा सती गोचार बेलेयं दानयोग्या मुनीशिनाम् । तेन भर्ने ददे दानमिति निश्चित्य पुण्यधी ॥७॥ [पर्व २०] इसका सही अर्थ ऐसा होता है " यह दान देने योग्य मुनियो की गोचरी का उत्तम समय है । ऐसा निश्चय कर पवित्र बुद्धि वाले श्रेयास कुमार ने भगवान को दान दिया।" ___ इस श्लोक मे आये गोचारबेला का अर्थ हिन्दी अनुवादक १० पन्नालालजी साहित्याचार्य ने प्रात काल किया है। आपके अनुकूल होने से ही शायद आपने भी उस अर्थ को मान लिया है । परन्तु गोचार का प्रात काल अर्थ करना गलत है। टिप्पणीकार ने अशनवेला अर्थ किया है वह ठीक है । आपको Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ मालूम होना चाहिये कि साधुओ की भिक्षावृत्ति के भ्रामरी, गर्नपूरण आदि नामो मे एक नाम गोचरवृति ( गाय के समान आहारचर्या) भी आता है । इसे ही गोचरी नाम से भी बोलते है । गोचरी का अर्थ है साधु की भिक्षा । यह अर्थ आम जनता मे भी प्रसिद्ध है । आदिपुराणकार ने भी यहाँ इसी अर्थ में गोचर शब्द का प्रयोग किया है। अनगार धर्मामृत संस्कृत के पृष्ठ ५३६,४०६, ६५०, ५७६ मे भी गोचार शब्द भिक्षा अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । गोचार शब्द का प्रयोग प्रभात अर्थ मे कही भी किसीने नही किया है । शायद अनुवादक पं० पन्नालाल जी ने प्रभात मे जङ्गल मे चरने को गाये उछेरी जाती है इस अभिप्राय से गोचार का प्रभात अर्थ किया हो तो इसके लिए गोसर्ग शब्द आता है, न कि गोचार | और गाये उछेरने के समय तो गृहस्थ के यहाँ रसोई भी तैयार नही होती है । वह समय तो श्रावको के पूजापाठ दर्शनादि का होता है एव मुनियो के भी वन्दनादि कृतिकर्म का होता है । उस वक्त मुनि की आहारचर्या कैसी ? इसलिए आदिपुराण के उक्त श्लोक मे प्रयुक्त गोचार शब्द का प्रभात अर्थ करना बिल्कुल गलत है । प० लालारामजी ने भी गोचार का भिक्षा अर्थ किया है। वचनिकाकार प० दौलतराम जी ने भी इसका प्रभात अर्थ नही किया है । मूलाचार पिण्डशुद्धि अधिकार मे एक गाथा निम्न प्रकार से लिखी मिलती है सूरुदयत्थमणादौ णालीतियवज्जिदे असणकाले । तिगदुग एगमुहुत्ते जहण्णमज्झिम्म मुक्कस्से ॥७३॥ अर्थ - सूर्योदय वाद से ३ घडी तक का और सूर्यास्त से Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओ की आहारचर्या का समय ] [ ५८५ ३ घडी पहिले का काल छोडकर मध्य काल भोजनकाल माना जाता है। उसमे तीन, दो और एक मुहूर्त का काल क्रमश अघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट है) इन सब मे समुच्चय सामान्य कथन किया है । मुनि श्रावका का भेद न करके जो भी रात्रि भोजन के त्यागी है उन सवके लिए कहा है कि उनका भोजनकाल सूर्य के उदयास्त की तीन-तीन घडी छोडकर मध्य मे है । इस सामान्य कथन से यह पता नहीं पड़ता कि मुनि का खास भिक्षा समय कौनसा है ? तदर्थ ग्रन्थकार ने खास मुनियो के लिये अलग से कथन किया कि उनकी भिक्षा-बेला मध्याह्न मे है, जैसा कि पहिले मूलाचार का प्रमाण देकर बताया गया है अगर उदयास्त की तीन-तीन घडी के अलावा शेप सारा ही दिन मुनियो के भिक्षाकाल का शास्त्रकारो को अभीष्ट होता तो उनको विशेष या अलग कथन 卐यही कथन और भी स्पष्टता के साथ मूलाचार म० १ गाथा ६५ में बताया है, देखो "उदयत्थमणे काले णालीतिय वज्जिय म्हि मज्झम्हि" ॥ इसी के अनुसार अनगार धर्मामृत अ० ६ श्लोक ६२ मे लिखा है। 0 अथवा एक समाधान यह भी है कि- यहाँ "मज्झम्हि" (मध्ये) पद का अर्थ दिन का मध्य =दोपहर (मध्याह्न) लेना चाहिये । संस्कृत टीकाकार ने भी सर्वत्र 'मध्य' पद देकर दिन के मध्य (मध्याह्न) को ही सूचित किया है । दिन के आदि अन्त की तीन-तीन घडी छोडना यह सामान्य कथन है तथा शेषकाल का मध्य यानि दोपहर यह विशेप कथन है । सामान्य से विशेष कथन बलवान होता है (मदा सामान्यतो नून विशेषो बलवान् भवेत्) अतः Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ करके भिक्षाकाल का मध्याह्न समय बताने की जरूरत ही नहीं थी। और यह भी मोचने की बात है कि सूर्योदय मे ३ घडो बाद यानी मवा घण्टे बाद तो श्रावक लोग जिनदर्शन पूजा स्टाध्यायादि से निगटते ही नही तो उस वक्न मुनि का आहार के लिए उतरना कैसे माना जा सकता है। कुछ श्रावक तो प्रभात मे सामायिक भो कन्ते है तदनन्तर पूजा म्वाध्यायादि करते हैं उनके लिये तो और भी मुश्किल पड़ती है। इसलिए सूर्योदय के तीन घडी बाद में मुनि का आहार समय मानना योग्य नही है। यदि कहो कि "मुनियो का भिक्षाकाल जो मध्याह्न बताया गया है वह तो दूसरी दफे का काल है। इसके पहले प्रथम दफे का काल एक और है। क्योकि भोजन वेला एक दिन मे दो बार मानी है।" ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। हम पूछते है कि मुनियों की उस प्रथम वेला का समय कोनसा है ? यदि कहो कि दिनके १० बजे करीब, तो वह दूसरी बेला दो घण्टे बाद ही कैसे आ गई ? कम से कम दोनो वेलाओ मे ६ घण्टो का तो अन्तर होना चाहिए । भिक्षाकाल वजाय मध्याह्न के अपराह्न लिखा होता तो दूसरी वेला की भी सभावना की जा सकती थी, सो तो लिखा नही है । तथा मूलाचार और अनगार धर्मामृत मे सूर्योदय से दो घडी बाद से लेकर मध्याह्न से दो घडी पहिले तक के समय मे किये जाने वाले कार्यक्रम की जो तफसील दी है उसमे भी प्रथम आहारवेला का कही जिकर नहीं है । एव आशाधर ने भी सागारधर्मामृत मे श्रावक की दिनचर्या का वर्णन करते हुए सूर्योदय से लेकर मध्याह्न के समय तक व आगे भी सूर्यास्त Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओ की आहारचर्या का समय ] [ ५८७ तक अतिथि दान को एक दिन में दो बार देने का कही उल्लेख नहीं किया है। इससे सिद्ध होता है कि मुनि की गोचरी का टाइम एक दिन में दो बार मानना शास्त्र सम्मत नही है। लोगो ने मनघढन्त मार्ग निकाल लिया है। एक दिन में दो भाजन वेला कहना यह लौकिक जन साधारण की दृष्टि से है न कि मुनियो की अपेक्षा । क्योकि मूलाचार प्रथम अधिकार गाथा ३५ मे जहाँ यह वर्णन किया है वहाँ टीकाकार ने लिखा है कि "अहोरात्रमध्ये द्व भक्तबेले तत्र एकस्या भक्त बेलाया आहारग्रहणमेकभक्तमिति ।" यहाँ टीकाकार ने दिन-रात मे दो भोजन बेला बताई हैं। मुनि दो बार आहार लेते नही । अतः टोकाकार ने यहां आम जनता को लक्ष्य कर (न कि मुनियो को लक्ष्य कर) दो भोजन बेला वताई हैं। तात्पर्य यह है कि आमतौर पर लोग दिन रात में दो बार भोजन करते हैं। उनमे से मध्याह्न मे एक बार भोजन करना एक भक्त कहलाता है। ऐसा करने से एक अहोरात्र मे दो बार की जगह एक बार ही भोजन होता है और एक बार का त्याग हो जाता है । इसेही एक वेला का यानी एक टाइम का त्याग कहते है। इसी दृष्टि से मुनियो का एक उपवास चतुर्थ नाम से कहा जाता है। उसमे चार बार के भोजनो का त्याग हो जाता है। वह ऐसे किधारणे पारणे के दिन का एक-एक बार और उपवास के दिन का दो बार इस प्रकार कुल चार बार का भोजन छूट जाता है। और बेला मे ६ वार का, तेला मे ८ बार का भोजन छूट जाता है जिससे वे षष्टोपवास, अष्टोपवास कहलाते हैं । प अजित कुमार जी और व० चूडीवालजी का यह लिखना कि-"मध्याह्न से पहिले भिक्षाकाल न मानने पर मुनियो के बेला-तेला की पष्ठोपवास अष्टोपवास सज्ञा ही नहीं बन सकतीहै।" इन लोगो Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ ] [ ★ जेन निवन्ध रत्नावली भाग २ का ऐसा भाव मालूम होता है कि- साधु की भी २ भोजन वेला मानने से ही एक दिन की २ भोजन बेला के त्याग के हिसाव से चतुर्थ ६३ षष्ठअनु बनेगा अन्यथा नही । विन्तु यह ठीक नही | क्योकि गृहस्थको तो दोनो बेलाका उपवास के रोज त्याग तथा आदि क्षेत्र में १-१ वेला का त्याग नया ही करना पडता है किन्तु साधु के तो प्रतिदिन १ बेला का तो त्याग आजन्म ही है फिर भी उसे गिनना पडता है और इस तरह चतुर्थ पष्ठ अष्टम भी सज्ञी उनके भी सुसगत हो जाती है । ऐसा लिखना गलत और व्यर्थ है । हमने वहाँ विधि बताई है, उससे बराबर सज्ञाए बनती है । न मालूम आप लोगों ने इसको कैसे समझ रक्खा है ? शायद आप लोगो की ऐसी समझ हो कि 'एक बार भोजन किये बाद आगे चार टाइम तक भोजन न करना 'चतुर्थभुक्ति त्याग' कहलाता है ।" तो यह समझ भी ठीक नहीं है । ऐसा तो दस बजे भोजन करने से भी नही बनता है । जैसे बजे आपकी दृष्टि से किसीने धारणा के दिन प्रथम टाइम १० भोजन किया तो उसके दिन की एक दूसरी भोजन बेला छूटी, आगे उपवास के दिन की दो बेला छूटी और पारणा के दिन प्रथम बेला मे ही आहार कर लिया तो तीन बेलाओ का ही त्याग हुआ, चार बेलाओ का त्याग कहाँ हुआ ? अत जो रीति हम ऊपर बता आये हैं वही समीचीन और शास्त्रोक्त है । शास्त्रो मे एकाशन (व्रत) और प्रोषधोपवासादि के धारणे- पारणे का एकाशन सब मध्याह्न (दो पहर ) मे ही करना बताया है और प्राय प्रचार में भी ऐसा ही है सभी श्रावक एकाशन दोपहर में ही करते हैं तब मुनि जिन्होने इस एकाशन को सदा के लिए अपना मूलगुण बना लिया है उन्हे तो आहार मध्याह्न मे करना ही लाजिमी है और इसी लिए सभी शास्त्रो ' Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं की आहारचर्या का समय ] [ ५= ६ में मुनि का भोजनकाल एक स्वर से मध्याह्न ही लिखा है । श्रावक को १० वी अनुमति त्याग प्रतिमा और ११ वी उद्दष्टि त्याग प्रतिमा दोनो मे भी आहार का समय मध्याह्न ही शास्त्री मे बताया है । देखो सागार धर्मामृत और धर्मसग्रह श्रावकाचार लाटी सहिता आदि । ऐसी हालत मे मुनि का आहार समय मध्याह्न बाजिब ही है इसमे विवाद और शका की कोई जरूरत ही नही 1 इस विषय मे मध्याह्न का समय कहाँ से कहाँ तक का माना जाये, यह एक समझने की चीज है । ऊपर हमने अनगार धर्मामृत के उदाहरण दिये हैं उनमे मध्य दिन से दो घडी पूर्व 5 प्रायश्चितसग्रह मे छेदपिण्ड ( इन्द्रनन्दि सहिता का चौथा अध्याय ) गाथा ७४ मे बताया है कि दिन के आदि अत की तीन-तीन घडी के बीच और पूर्वाह्न व अपराह्न मे अगर निर्ग्रन्थ साधु आहार करे तो उसका प्रायश्चित पचक ( ५ उपवास ) है देखो - नाली तिगस्स मज्भे जदि भुजदि सजदो अणाचिण्ण । पुव्वण्हे अवरण्हे व तरस पणत्र हवे छेदो ॥ इससे स्पष्ट सिद्ध है कि पूर्वान्ह और अपरान्ह का समय साधु के आहार का नही है । इसीसे सभी ग्रन्थो मे साधु का आहार समय एकमात्र मध्यान्ह ही बताया है । नीतिसार समुच्चय में भी इन्द्रनन्दि ने मध्यान्ह ही भिक्षाकाल बताया है देखो श्लोक ४१ | इसके साथ ही आगे श्लोक ५२ व ५३ मे इन्द्रनन्दि ने लिखा है कि भोजनादि क्रियाओ मे पूर्वाचार्यो का मत ही प्रमाण होता है जो कोई सेउ उल्लघन करता है वह मिथ्यादृष्टि है और अवन्दनीय है । यथा - " भोजन गमनेऽन्यत्र कार्ये वा यत्रकुत्रचित् । पूर्वाचार्यमत नून प्रमाण जिनशासने ॥५२॥ पूर्वाचार्यमतिक्रम्य य. कुर्यात् किचिदप्यसौ । मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञेयो, न वदयश्च महात्मभि ॥५३॥ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ स्वाध्याय समाप्त किये वाद मुनिको भोजन करने की लिखी है और मध्य दिन से २ घडी बाद गोचरी सम्बन्ध दोषो का प्रतिक्रमण कर आपराह्निक स्वाध्याय प्रारम्भ करने की लिखी है । आणाधर जी के इस कथन से ऐसा ही प्रतिभासित होता है कि उन्होने इन चार घडियो को ही प्राय मुनियो का भिक्षाकाल माना है । और इन चार घडियो के काल को ही उन्होने प्राय. मध्याह्न काल गिना है मूलाचार मे देववन्दना करके गोचरी पर जाने को लिखा है । अत यह देव वन्दना भी उक्त ४ घडियो के अन्दर ही की जाती है । इन चार घडियो का भिक्षाकाल ही उत्सर्ग मार्ग समझना चाहिये । किसी कारणवश यदि अधिक समय लग जाये तो वह कादाचित्क है उसे अपवादमार्ग कहना चाहिए। इस प्रकार यह मध्याह्नकाल दिन के ११ बजे से पौण बजे तक का समझना चाहिए। 1 यहाँ एक सवाल पैदा होता है कि सामायिक का काल 'छह घडी का है और वह मध्याह्न मे भी की जाती है तब मध्याह्न की ४ घडियो मे भिक्षाकाल कैसे माना जा सकता है ? एक काल मे दो काम कैसे बनेगे ? जो समय भिक्षा का है वही सामायिक का है तो दोनो मे से एकही कार्य हो सकेगा । इसका उत्तर नीचे दिया जाता है, वह गम्भीरता से समझने का है मूलाचार के प्रथम अधिकार मे मूलगुणों का वर्णन करते हुए छह आवश्यको का विवेचन किया है, परन्तु वहाँ सामायिक के काल का परिमाण नही बताया है । फिर उसी मूलाचार मे आवश्यक निर्युक्ति नाम के अधिकार मे नाम स्थापना आदि छह निक्षेपो के द्वारा आवश्यको का विस्तार से वर्णन किया है Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं की आहारचर्या का समय ] [ ५६१ वहाँ भी सामायिक के काल का परिमाण नही बताया है। मूलाचार मे अन्यत्र भी कहीं सामायिक के काल परिमाण का कथन नही है । इस तरह मूलाचार तो इस विषय मे मौन है। हां उसके प्रकारातर के कथन से हम सामायिक का काल लाना चाहे तो इस तरह ला सकते हैं कि मूलाचार की पञ्चाचाराधिकार की गाथा ७३ मे तीनो सध्याओ की आगे-पीछे की २-२ घडियो को अस्वाध्याय काल माना है। इन अस्वाध्याय कालों मे ही सामायिक की जा सकती है, सामायिक के अलावा वह मुनियो के आहार-नीहार का भी ये ही तीनो काल है। इनमे से प्रातः साय इन दो कालो मे तो आहार का निषेध किया है । अत. मध्याह्नकी आगे-पीछे की २-२ घडियोका कालही भिक्षाकाल रह जाता है उसीमे देववन्दना का भी कुछ काल शामिल है। शास्त्रो मे देववन्दना, कृतिकर्म और सामायिक शब्द प्रायः एक ही अर्थ मे भी प्रयुक्त किये हैं। क्योकि सामायिक शब्द च्यापक होने से उसमे साम्य भाव के साथ व्यवहार दृष्टि से देव चन्दना, पूजा, कृतिकर्म भी शामिल कर लिये है। देखोसागार धर्मामृत अ० ५ श्लोक २८, ३१ (स्वोपज्ञ टी० सयुक्त) अमितगति श्रावकाचार परि०६ श्लोक ८७ । धर्मसग्रह श्रावकाचार अ०६ श्लोक २६ । अ०७ श्लोक ४३, ५७ । स्वामीकातिकेयानुप्रेक्षा ३७३-७५ । वसुनन्दि श्रावकाचारे जिणवयणधम्म चेइय परमेष्ठि जिणालयाण णिच्चपि। जं वंदणं तियालं कीरइ सामाइयं तं खु॥२७५।। इन चार घड़ियो के कथन से सामायिक का छह घडी का काल तो वैसे ही मूलाचार के मत से बनता नही है । इस प्रकार मूलाचार मे देववन्दना का कोई निश्चित काल परिमाण नहीं Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ लिखनेसे यही फलिताथं निकलता है कि विकाल मे उक्त चार घडियो के अन्दर २ जहाँ जैसा भी सुभीता दीखे उतना ही टाइम देव वन्दना मे लगाया जावे । इसलिये मध्याह्न मे आहार लेने वाले मुनि को भी माध्याह्निक देव वन्दना मे उतना ही टाइम लगाना चाहिए, जिस से ऊपर बताये भिक्षाकाल का उल्लङ्घन न होने पावे। __ मूलाचार की तरह आशाधर ने भी अनगार धर्मामृत के ८वें अ० मे छह निक्षेपोके द्वारा छह आवश्यकोका वर्णन विस्तार से किया है । फिर वाद मे श्लोक ७६ मे वन्दना का उत्कुष्ट काल ६ घडी का लिखा है। किन्तु उन्होने जघन्य काल का कोई परिमाण नही लिखा है। इससे यही तात्पर्य निकलता है कि मुनि को जैमा भी अवसर दीखे उसी माफक वह छह घडी के नीचे वन्दना मे कितना भी काल लगा सकता है। जिस मुनि को आहार करना है और शास्त्रोक्त भिक्षाकाल का उल्लङ्घन भी नही करना है ऐसे अवसर मे वह बहुत थोडा समय ही देव वन्दना मे लगाकर इस काम से फारिग हो सकता है। मतलब यह है कि देववन्दना में कम से कम इतना समय तो निश्चित लगावेही ऐसा न तो मूलाचार में लिखा है और न अनगार. धर्मामृत मे । आशाधर ने इतना ही लिखा है कि छह घडी से अधिक न लगावे । कम से कम कितना काल लगावे यह नहीं लिखा । बल्कि पूर्व लिखे उद्धरण मे तो आशाधरजी ने आहार करने वाले साधु के लिए माध्याह्निक क्रियाकर्म का उल्लेख ही नही किया है। पुरुषार्य सिद्धयुपाय श्लोक १४६ मे अमृतचन्द्राचार्य ने तो स्पष्ट से प्रातः साय दो वक्त ही सामायिक आवश्यक बताई है। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओ की आहारचर्या का समय ] [ ५६३ मध्याह्न मे आवश्यक नही बताई । सागार धर्मामृत अ० ५ श्लोक २६ मे भी यही कथन है। और देखिये, अमितगति श्रावकाचार के ८वे अध्याय मे लिखा है कि घटिकानां मतं षटकं संध्यानां त्रितये जिनः । कार्यस्यापेक्षया काल. पुनरन्यो निगद्यते ॥५१॥ अर्थ -जिन देव ने आवश्यको का काल तीनो सन्ध्याओं मे छह घडी का माना है। किन्तु कार्य की अपेक्षा से अन्य काल भी होता है। अमित गति के इस कथन से बहुत छूट मिलती है। आचार्य समतभद्र ने भी रत्नकरण्डश्रावकाचार मे सामायिक का काल किन्ही निश्चित घडियो मे नही बताकर "मूर्धरुहमुष्टिबासोबध" कहकर चोटी या वस्त्र मे गाठ रहेगी तब तक का सामायिक का काल बताया है। और इससे यह आशय प्रगट किया है कि वह अपने सुभीते के अनुसार जितना ॐ इन्द्रनन्दि कृत नीतिसार समुच्चय मे मध्याह्न सामायिक [वन्दना] का काल मात्र दो घडी बताया है देखो -घटी चतुष्टय रात्र कुर्यात्पूर्वाह्न वदना मध्याह्न वदना कालो नाडीद्वयमुदाहृत ॥१०॥ अपराह्न तु नाडीना चतुष्टय समर्गहत नक्षत्रदर्शनान्मु चेत्सामायिक परिग्रह ।।१०७।। यही वात प्रायाश्चितसग्रह मे छेदशास्त्र गाथा ४७ की टोका में इस प्रकार दी है-पूर्वाह्न देववदनात्रीणि घटिकायावान् युक्त । अपराह्न घटिका चत्वारियावान् वदना । मध्याह्न घटिकाद्वय वदना । [चर्चाममाधान चर्या ने ११४ मे भी प० भूधरदासजी ने यही लिखा है।] Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ चाहे उतने समय तक मामायिक करे। प्राचीन ग्रन्थो मे सामायिक का कोई एक निश्चितकाल का परिमाण लिखा ही नहीं है। वैसे मुनियो के तो हमेशा ही साम्यभाव के होने से सामायिक है। इसी से उनके सामायिक चारित्र माना है। शास्त्रो मे कायोत्सर्ग का उत्कृष्ट काल १ वर्ष और जघन्य कात अन्तर्मुहर्न लिखा है उसी के आधार से सामायिक का जघन्य काल भी अन्तम हुर्त हो सकता है। कोई कुतर्क और दुराग्रह करे कि हम तो उत्कृष्ट काल को ही ग्रहण करेंगे तो उन्हे चाहिये कि-पहिले कायोत्सर्ग के उत्कृष्ट काल १ वर्प को अपनावे अगर यह सम्भव नहीं है तो फिर बदना-सामायिक के उत्कृष्ट काल पर ही जोर क्यो दिया जाता है। जिस प्रकार दूसरी कियाओ मे कोई बाधा नही पहुचे उस तरह सामजस्य करना चाहिए यही शास्त्र-विवेक है। इन कथनो से मध्याह्न की भिक्षा मे जो आपत्ति सामायिक के न बनने की उठाई जाती है वह दूर हो जाती है। चूडीवालजी कहते हैं कि-"मुनियो का गोचरी पर उतरने का काल दिन मे २ वार है। एक तो मध्याह्न को सामायिक करने के पहिले दस वजे करोव का और दूसरा मध्याह्न की सामायिक के वाद चार वजे करीब का।" मगर ऐसा कहना शास्त्रानुकूल नही है। मूलाचार मे जिसका कि उद्धरण ऊपर दिया जा चुका है। उसमे सूर्योदय से लेकर मध्याह्न से दो घडी पहिले तक यानी ११। बजे तक का मुनियो का कार्यक्रम लिखा है उस कार्यक्रम मे तो कही भी मुनियो के गोचरी पर उतरने का जिक्र नही है । अत १० बजे के करीब गोचरी पर उतरने का प्रथम समय मूलाचार से कतई सिद्ध नही Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओ की आहारचर्या का समय ] [ ५६५ होता है । और अनगार धर्मामृत मे मुनियो की पूरे एक दिन की दिनचर्या बताते हुये (अध्या०६ श्लोक ३४ से ३६ तक उनमे के ३ श्लोक ऊपर उद्ध त है) सूर्योदय से सूर्यास्त तक का जो कार्यक्रम दिया गया है उसमे भी सिर्फ मध्याह्न की (१२ बजे की) आगे पीछे की दो-दो घडी कुल ४ घडियो मे ही भिक्षा लेने का कथन किया है। दिन के शेष समयो मे भिक्षा लेने का कही जिक्र ही नहीं है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि मुनियो को न तो दिन मे २ बार गोचरी के लिये उतरने की शास्त्राज्ञा है । और न लगभग मध्याह्न काल के अतिरिक्त अन्य काल मे भिक्षा लेने की णास्त्राज्ञा है । यह कथन इतना स्पष्ट लिखा हुआ है कि उसमे तर्क वितर्क करने की कोई गु जाइश हो नहीं है। नही मानने वालो का तो कोई इलाज नहीं । जैसे अनगार धर्मामृत मे मध्याह्न की पूर्वोत्तर की दो-दो घडियो मे भिक्षा लेने का कथन है, वैसा ही मूलाचार मे भी है । जैसा कि आर उद्धरण दिया गया है । वहा लिखाहै कि-मध्याह्न की देव-वदना करके मुनि गोचरी पर उतरे। इसका मतलब चूडीवालजी यह निकालते है कि "मध्याह्न की देव-वन्दना किये बाद ४ बजे गोचरी पर उतरे । यह गोचरी का दूसरा टाइम है।" इस सम्बन्ध मे हम आपसे पूछते है कि-मूलाचार के टीकाकार का अगर यही अभिप्राय होता तो वे मध्याह्न से आगे ४ वजे तक का कार्यक्रम बतलाते सो उन्होने बतलाया नहीं। इससे तो यही प्रगट होता है कि टीकाकार का आशय यहा देव चन्दना करने के अनन्तर लगते ही गोचरी पर गमन कराने का है । और आपने इसे गोचरी का दूसरा टाइम बताया सो इस Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ बावन भी हम आपसे पूछते हैं कि यहां जो सूर्योदय से लेकर मध्याह्न से दो घडी पूर्व तक का कार्यक्रम टीकाकार ने लिखा है उसमे कही भी गोचरी का प्रथम टाइम का उल्लेख नही है तो यह कैसे माना जाये कि यह गोचरी का दूसरा टाइम है। यहा यह भी समझना कि - टीकाकार ने यहा मध्याह्न तक का ही कार्यक्रम क्यो लिखा ? आगे वा क्यो नही लिखा ? इस का कारण यह है कि यह प्रकरण एपणासमिति के वर्णन का है । मुनि का भिक्षा काल मध्याह्न होने से यहां तक का कार्यक्रम बताना ही उन्होने आवश्यक समझा इसलिये आगे का कार्यक्रम उन्होंने नहीं लिखा। अगर चार बजे भोजन का टाइम होता तो चे वहा तक का कार्यक्रम लिखते । मुनिधर्म प्रदीप ( कुन्युतागर कृत) की संस्कृत भावार्थ मे पृ० १२० पर वर्धमान - शास्त्री ने लिखा है " मुनियो के आहार का समय प्रात काल नौ बजे से ११ वजे तक है तथा दोपहर के अनन्तर डेढ बजे से साढे तीन बजे या चार बजे तक है इनमे से किसी एक समय में मुनि को आहार लेना चाहिए ।" जैनधर्म मीमासा भाग ३ पृ० २३४ पर सत्यमजु ने लिखा है - ११-१२ वजे साधु के सामायिक का समय होने से भिक्षाकाल पोरसी बताया है यह १० बजे के पूर्व ही और गर्मी मे ६ वजे करीब होता है | ( श्वे० मतानुसार ही पोरुपी = एक प्रहर दिन = यानि ३ घण्टा दिन चढ़े जबकि शरीर की छाया अपने शरीर के बराबर हो ) चूडीवाल जी की कुछ ऐसी विलक्षण प्रतिभा है जिसके बल से वे शास्त्रो के आशय को उलट-पलट कर देने में बड़े ही Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओ की आहारचर्या का समय ] [ ५६७ सिद्धहस्त मालूम पड़ते है। जिसका एक उदाहरण तो यह मूलाचार का प्रमाण हम बता चुके है। दूसरा और बताते है । हमने जन-गजट मे प्रकाशित पूर्वलेख मे प्रश्नोत्तर श्रावकाचार का प्रमाण देकर यह बताया था कि इसमे भी सूर्योदय से ७ मुहूर्त बाद क्ष ल्लक का भिक्षाकाल लिखा है जो करीव मध्याह्न का समय पडता है । इस प्रमाण का आशय आपने यह निकाला है कि -क्षल्लक के पहिले मुनि आहार लेते हैं, अत इससे मुनि का भिक्षाकाल मध्याह्न से पूर्व सिद्ध होता है ।" उत्तर मे निवेदन है कि सामान्यतया जो भिक्षाकाल मुनियो का होता है वही क्षुल्लको का होता है। शिष्टाचार के नाते साथ मे मुनि हो तो क्षुल्लक गोचरी के लिए मुनि से कुछ बाद मे उतरते है। दोनो के उतरने मे समय का कोई विशेष अन्तर नही होता है। __इस सम्बन्ध मे वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा ३०६ मे "गोहणम्मि" शब्द आया है । ( यह शब्द टिप्पणी मे लिखा है ) जिसका अर्थ होता है समीप मे-निकट मे । यानी मुनि के गोचरी पर उतरने के निकट ही तदनन्तर क्ष ल्लक का गोचरी का काल है । यह इसका मतलब हआ। अगर दोनो के गोचरी काल के बीच समय का ज्यादा अन्तर माना जायेगा तो “गोहणम्मि" शब्द का प्रयोग निरर्थक होगा। आप जो मुनिका भिक्षाकाल मानते है उसमे और मध्याह्न मता २ घण्टे का अन्तर पडता है। इतना अन्तर आपके इस लिखने से दूर नही हो सकता है। दूसरी बात यह है कि-यह जो क्ष ल्लक को गोचरी पर उतरने का कथन है वह भी वसूनन्दि श्रावकाचार आदि ग्रन्थो Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ मे एक भिक्षा नियम वाले क्षुल्लक के लिए है, सभी क्षुल्लको के लिए नहीं है । अत कहना होगा कि यहां भी आपने अपनी विलक्षण प्रतिभा का ही चमत्कार दिखाया है। मूलाचार के ऊपर लिखे प्रमाण मे बताया है कि"मध्याह्न मे खाना खाकर पेट भरे बालको के दिखाई देने आदि से भिक्षा वेला जानकर मुनि गोचरी पर उतरे ।" इस कथन को लेकर आप लिखते है कि-"वालक ८-६ बजे पहिले ही भोजन कर लेते है, अत मूलाचार के इस कथन से मध्याह्न अर्थ निकालना असङ्गत है।" इसका उत्तर यह है कि जब स्वय टीकाकार उस समय को मध्याह्न का बता रहे हैं तो उसमे तर्क का अवसर ही कहाँ है ? और उसे असङ्गत भी नहीं कह सकते। क्योकि बालक दोपहरी को भी भोजन करते है । उसीको लेकर टीकाकार ने पेटभरे बालक की बात लिखी है। इससे तो वह मध्याह्नका ही समय है यह अच्छी तरह पुष्ट होता है । आपने अपने मन्तव्य की पुष्टि मे सागार धर्मामृत अ०५ के श्लोक ३६, ३७, ३८ पेश किये हैं। किन्तु वे श्लोक तो उल्टे हमारे पक्ष का समर्थन करते है, जिसका आपको ध्यान नही है। उनमे लिखा है कि "प्रोपधोपवास करने वाला श्रावक पर्व दिन के पूर्व दिन मे यानी सप्तमी, त्रयोदशी को दिन के अद्ध भाग मे या उसके थोडे आगे-पीछे के समय मे अतिथिको भोजन जिमाये बाद आप भोजन करे। तदनन्तर दिनका शेष भाग और रात्रिकाल कुल ६ पहर बिताये बाद पर्व दिनका अहोरात्र और पारणे का आधा दिन कुल १० पहर बीतने पर अतिथि को आहार देकर आप भोजन करे।" Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओ की आहारचर्या का समय ] [ ५६ यहाँ आशाधर जी ने धारणे-पारणे के दिन दिनार्द्ध यानी दिन के ठीक मध्य भाग मे या उसके थोडे आगे-पीछे के समय मे अतिथि को दान देवे और उसके बाद प्रोषधोपवासी को आहार करने का आदेश दिया है । 'पर्व दिन के प्रभात से लेकर आगे १० पहर बाद प्रोपधोपवासी अतिथि को दान देवे और तदनन्तर आप भोजन करे ।" ऐसा लिखकर तो आशाधरजी ने इस मामले को बहुत ही खुलासा कर दिया है कि अतिथि का भोजनकाल मध्याह्न है और उसके बाद आहार दाता का भोजन काल है | यहाँ कोई प्रश्न करे कि - " आशाधरजी ने धारणे की रात्रि के अन्त तक प्रोषधोपवास का काल ६ पहर का लिखा है | जब वह धारणे के दिन मे दिनार्द्ध के बाद भोजन करेगा तो उक्त ६ पहर की सख्या कैसे बनेगी ?" इसका समाधान आशाधरजी ने दिनार्द्ध शब्द की व्याख्या देकर किया है । व्याख्या इस प्रकार है - 'दिनार्द्ध दिवसस्य अर्धे प्रहरद्वये वा किञ्चिन्यूनेऽधिकेऽपि वा ।' अर्थ - दिन का अध भाग यानी २ पहर का काल दिनार्ध कहलाता है । दिनार्थ से कुछ कम या कुछ अधिक काल भी दिनार्ध कहलाता है । इस व्याख्या से यही सिद्ध होता है कि धारणा के दिन की रात्रि के अन्त तक जो व्ह पहर लिखे है वे पूरे पूरे न होकर हीन भी हो सकते है और उसके आगे के १० पहर पारणा दिनार्द्ध से उत्तरकाल मे भी पहुँच सकते हैं । हाँ, इतना खयाल आवश्यक है कि आगे-पीछे होकर भी निराहार रहने का समय १६ पहर से कम नही होना चाहिए । यहाँ अगर चूडीवाल जी यह कहे कि - " यहाँ आशाघर Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ जी ने जो मध्याह्न या उसके कुछ आगे-पीछे का समय लिखा है वह प्रोपधोपवासी के आहार का लिखा है, अतिथि के आहार का नही लिखा है ।" तो इसका उत्तर जरा तटस्थ होकर यह समझिये कि आप मुनि का भोजनकाल दस बजे करीब का मानते है, उसमे और मध्याह्न काल मे दो घण्टे का अन्तर पडता है और प्रोषधोपवासी का धारणे- पारणे के दिन भोजन काल मध्याह्न का है, इसमे तो किसीको विवाद नही है । अब जरा सोचने की बात है कि मुनि का १० बजे का भोजनकाल शास्त्रकारो को मान्य होता तो वे प्रोषधोपवासी के भोजन के अवसर मे अतिथि दानका कथन ही नही करते । क्योकि दो घण्टा पहिले के कार्य को यहाँ बताने की आवश्यकता ही क्या है ? इससे भली-भाँति यही सिद्ध होता है कि प्रोषधोपवासी और मुनि दोनो का भोजन काल मध्याह्न होने से ही यह लिखा जाता है कि - प्रोपधोपवासी अतिथि को दान देकर फिर आप भोजन करे । आपका प्रश्न - मध्याह्न में आहार देने का मतलब है मुनि को बचाखुचा आहार देना । इससे यही समझा जावेगा कि दाता की पात्र में भक्ति नही है । उत्तर - जैन मुनि भोजन के लिए चाहे जब बुलाये आते होते और दाता उन्हे मध्याह्न मे बुलाकर जिमाता तव तो वैसा समझा जा सकता था । परन्तु जब शास्त्राज्ञा के अनुसार उनका भोजनकाल ही मध्याह्न है तो इसमे दाता का क्या वश है ? कभी आप तो ऐसे भी कहने लग जावो कि दाता आप तो बैठकर आराम से भोजन करे और मुनिको खड़ा रखकर आहार देवे, इससे दाता की पात्र मे भक्ति नही है । यह सब आपकी Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं की आहारचर्या का समय ] [ ६०१ विलक्षण प्रतिभा के नमूने है । जब दात्ता इतने वक्त तक आप खुद भूखा रहकर मुनि को जिमाता है और फिर आप जीमता है तो क्या यह आपके दिमाग मे भक्ति नही है । उत्तम भक्ति वह कहलाती है जो कष्ट सहकर भी की जावे । आराम की भक्ति तो कोई भी कर सकता है । और दाता जब अपने खुद के अर्थ बने आहार मे से अच्छा से अच्छा प्रासुक आहार पात्र को दिये बाद आप भोजन करता है तो ऐसी हालात मे यह सवाल ही पैदा नही होता कि वचाखुचा आहार मुनिको दिया जाता है । वचेखुचे को तो खुद दाता जीमता है । आपने लिखा कि- " मध्याह्न तो आराम करने का समय है । उस समय की प्रचंड गर्मी मे तो सभी छाया ढूंढते है, वह वक्त भिक्षा का कैसा ? उत्तर मे निवेदन है कि जैनमुनि होकर भी आराम और छाया ढूढने का प्रयत्न करते हैं, तो होचुकी मुनिवृत्ति ? छाया ढना तो दर किनारे रहा जैनमुनि तो दोपहरी की प्रचण्ड गर्मी मे आतापन योग धारणा करते हैं । उनकी सिंहवृत्ति होती है, अधिक से अधिक कष्ट सहने मे सिंह की तरह शूरवीर रहते है कभी कायरता नही लाते । ( देखो आदिपुराण पर्व ३८ श्लोक १६० वी ) पूर्व लेख में मैंने मनुस्मृति का प्रमाण दिया था । उसपर चूडीवाल जी पूछते हैं कि - "यहां मनुस्मृति के प्रमाण देने की क्यो आवश्यकता हुई ?" इसका कारण वही पर बता दिया था। फिर भी यहाँ बताता हू कि मूलाचार टीका मे लिखा ( यह उद्धरण ऊपर दिया हुआ है ) है कि - Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ "अन्यमा के गाए शिक्षा विरह और जानकी निक्षा वा बाल उन गगन पर जाये।" लिए मैंने मनुस्मृति का मायगर या पनाया कि- ( अ० श्लोक ५५ आदि ) दाभा कि- "जब गोई का बन्द होगया हो, चुके हो, झूठी पत्त बाग, भोजन दो ऐसे में गदा यति को भिक्षा के लिए नानानादिक" मृगाधुभिक्षा का यह समय बताया लोग नीके से निमट जाय। अनुमानत. हो मता है । है कि जब व गमप मध्याह्न के हमने मनुस्मृतिका प्रमाण "अन्य मत के माधु" इस टोक्त बात पर दिया था और दृष्टि से दिया था किअन्य मन क गाधुओ को भी ऐसी चर्या है तो हमारे साधुओं की तो उनमे ऊंनी ही होनी चाहिए, उनसे नीची कैसे हो मकती है । आगाधर जी ने भी अपनी टीकाओं में अनेक जगह मनुमृति के प्रमाण दिये है । अत मनुस्मृति के प्रमाण पर आपत्ति करना गलत है । प्रश्न -- वोशन्थों में दिनमान के भागो मे दीच का १ भाग अथवा ५ भागो मे बीच का १ भाग मध्याह्नकाल माना है । कुतप शब्द से दिनमान के १५ भागो मे बीच का १ भाग भी मध्याह्न माना है। इनमे से जैनमुनिको भिक्षा का मध्याह्न काल कौनसा लिया जाय ? उत्तर -दिन के ३ भाग करो चाहे ५ या · Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६०३ साधुओ की आहारचर्या का समय ] १५ सब का मध्यभाग मध्याह्न हो जायेगा यह स्पष्ट है अतः इसके लिए कोशग्रथ के आधार की जरूरत नही है । क्योकि मूलाचार और अनगार धर्मामृत मे मुनि की दिनचर्या का विवरण देते हुए साफतौर पर दिन के मध्यभाग से आगे-पीछे की दो-दो घडिये भिक्षाकलाल की बताई हैं । ( इस काल मे माध्याह्निक देववन्दना का काल भी शामिल है ) मुलाचार, यशस्तिलकचम्पू और सोमसेन त्रिवर्णाचार मे लिखा है कि मध्याह्नकी देववन्दना करके गोचरी पर उतरे * इससे यह विषय और भी स्पष्ट हो जाता है | प्रश्नोत्तर श्रावकाचार मे ७ मुहूर्त यानी १४ घडी दिन चढने पर गौचरीकाल लिखा है । अर्थात् १५ घडी का आधा दिन होता है, उससे १ घडी पूर्व मे गोचरीकाल है । यहाँ प्रश्नोत्तर श्रावकाचार के कर्ता सकलकीर्ति ने मध्याह्न से पूर्व की २ घडी मे शायद १ घडी देववन्दना की काटकर १ घडी पूर्व का गोचरी काल लिखा है । यहाँ यह ध्यान मे रहे कि समरात्रि दिनका अहोरात्र मानकर यहाँ ७ मुहूर्त दिन चढना समझना । इस विषय में हमको और भी शास्त्र प्रमाण मिले है जो * साघु नगर मे आहारार्थं जावे न जाने किस सकट मे - उपसर्ग मे पड जावे और मध्याह्न की सामायिक से वंचित रह जाचे अतः मध्याह्न की सामायिक किये बाद बाहार पर उतरना बताया है - ऐसा ज्ञात होता है । प० पन्नालालजी सोनी ने भी ! क्रियाकलाप" की प्रस्तावना पृष्ठ पर लिखा है- वर्तमान के साधु आगम विपरीत देव धन्दना करते हुए देखे जाते है । जैसे - मध्याह्न वन्दना भी आहारोपरात करते हैं । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ } [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ नीचे दिये जाते है। इनमे मुनिका भोजनकाल मध्याह्न लिख हुआ है-- (१) अशगकवि कृत महावीर-चरित्र सर्ग १७ श्लोक ११६ वाँ । (२) हरिपेण कथाकोश संस्कृत के पृष्ठ २१७ श्लोक ११४ वाँ, पृष्ठ २७३ श्लोक १८७ वां, पृष्ठ ३०७ श्लोक ५५ वाँ, पृष्ठ ३५४ श्लोक १३४ वा (अथ मध्याह्न वेलाया भिक्षार्थ त महामुनि) (३) मूलाचार अधिकार ४ गाया १८० की टीका । अधिकार ६ गाथा ३२ की टीका। (४) प० मेधावी कृत श्रावकाचार अधिकार ५ श्लोक ६३ वा । अधिकार ८ श्लोक ५१/अ०६ श्लोक ३१ ( मध्याह्न ऋषि पुगवे.) (५) ब्र० नेमिदत्त कृत कथाकोश मे उद्दायन राजा की कथा (६) सूत्र प्राभृत की गाथा २२ की श्रुतसागरी टीका । दिवसमध्ये एक वार । (७) लाटी सहिता अ० ६, अ० ६ श्लोक २३१ । (८) प० आशाधर विरचित अभिषेक पाठ के श्लोक १६ की श्रुतसागरी टीका। (६) जम्वू स्वामी चरित ( ५० रायमल्ल कृत) परिच्छेद ४ श्लोक १०१ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओ की आहारचर्या का समय ] [ ६०५ (१०) जम्बू सामिचरिउ ( वीर कवि कृत) पृ० ४६ मज्झण्ण हो चरियाए पई सइ । (११) पउमचरिय ( गाथा ११ पर्व ८६ ) अह अन्नया कमाई साह मज्झण्ह देसयालम्मि । पउमचरिय (गाथा ३ पर्व ४) मज्झण्ह देसयाले गोचर चारेयणअभिगओनयर । घर पतिभमता दिट्ठो लोगेण तित्थयरो। (१२) "पुण्याश्रवकथाकोप" (पृ० २६६) मध्याह्न चर्यार्थं पुण्याश्रवकथाकोप (पृ० १२) यामद्वय तथा प्रवृत्य । पउमचरिय (गाथा १ पर्व २२) मज्झण्ह देसयाले नयर पविसरइ भिक्खट्ठ । (१३) पद्म चरित पर्व ६२ नभोमध्यगते भातावन्यदाते महाशया १५ शुद्धभिक्षं पणाला प्रसयितमहायुज्ञा १६ । (१४) वसुविन्दु प्रतिष्ठापाठ श्लोक ८१८-१६-विदध्युरुर्व विधिनाहि मध्य-दिने जिनाने चरु पूजनानि । (१५) रामचरित (भट्टारक सोमसेन पृ० ७६ मुनिसुव्रत भगवान् पारणे के लिए मध्याह्न मे राजग्रह नगर मे पहुंचे। (१६) धन्यकुमार चरित्र (भ० सकलकीतिकृत) अधिकार ४-मध्याह्न होते-होते अकृतपुण्य घर आया इतने मे ही वहाँ सुव्रत मुनिराज आहारार्थ आये । इस प्रकार ऊहापोह और प्राचीन-अर्वाचीन शास्त्रीय प्रमाणो के द्वारा एक स्वर से यही सिद्ध होता है कि जैन मुनियो का भिक्षाटन दिन में एक ही बार होता है और वह मध्याह्न मे ही इससे अलावा किसी भी ग्रन्थ मे पूर्वाह्न या अपराह्न मुनि का भिक्षाकाल नही बताया है। इसके विरुद्ध जब तक कोई सवल Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ प्रमाण सामने न आजाये तब तक यही कहा जायगा कि वर्तमान मे जो दिन १० बजे करीब मुनि लोग गोचरी पर उतरते है वह शास्त्रीय मार्ग नहीं है, स्वेच्छाचार है । इसी तरह जो कभी परिस्थितिवश कोई साधु ( पूर्वाह्न के बजाय ) चार बजे करीब, अपराह्न मे गोचरी पर उतरते है वह भी शास्त्र सम्मत नही है । सामान्यत किसीभी गृहस्थके यहाँ दूसरीवेला का भोजन ४ बजे तक तैयार भी नही होता है, किसी के निमित्त स्पेशल बनाने पर ही ऐसा सम्भव हो सकता है, ऐसी हालत मे ४ बजे मुनिका गोचरी पर उतरना शास्त्र विरुद्ध तो है ही, किन्तु स्पष्टतः उद्दिष्ट दोष को लिये हुए भी है । इसतरह केवल किन्ही के सुभीते और अपने आराम के लिए शास्त्र विरुद्ध प्रवृत्ति करना कम से कम महाव्रतियों के लिये योग्य नही है । ( १७ ) सकलकीर्ति आ० कृत- सुकुमार चरित्र सर्ग ७मध्याह्नभ्यर्च्य तीर्थेश मूर्ती सौंधे जिनालये । पात्रदानाय पश्यंति गृह द्वार मुहुर्बुधा. ॥३०॥ (१८) आ० सकलकीर्ति कृत- सुदर्शन चरित्र सर्ग १ -- मध्याह्न जिन मूत्तश्च प्रपूज्य जिन भाक्तिकाः । पश्यति स्वगृह द्वारं पावदानाय दानिनः ॥३६॥ ( १ ) सोमदेवकृत यशस्तिलक चम्पू (कल्प ३६ अ०६) विधिस्तव पदाम्बुज पूजनेन, मध्याह्न सान्निधिरमं मुनि मातनेन ॥५६२॥ प्रात ( मध्याह्न काल मुनियो के आतिथ्य सत्कार मे बीते ) Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओ की आहारचर्या का समय ] [ ६०७ ( २० ) इन्द्र वामदेव रचित पचसग्रह दीपक ( अनेकात वर्ष २३ पृ० १४८) प्रात श्रीजिनपूजनेन विधिना मध्याह्न कालेऽप्यय । दानेनाद्भुतकीर्तिनो मुनिजनाशीर्वाद" ॥२२३॥ (२१) प्राचीन काल मे सभी लोग प्राय मध्याह्न मे भोजन करते थे यही समय मुनियों के आहार का है क्योकि श्रावक द्वारापेक्षण करके ही भोजन करते थे । श्रावको के मध्याह्न भोजन के प्रमाण निम्नाकित है ( अ ) आदिपुराण पर्व ४१ 8000 ततो मध्यदिनेऽत्र्यर्णे कृत मज्जन सं विधि | तनुस्थिति स निर्वर्त्य निर विक्षत् प्रसाधन ॥१२८॥ अर्थ - तत्पश्चात् दोपहर का समय निकट आनेपर स्नान आदि करके भोजन करते उससे निवृत्त होकर अलकार धारण करते थे । ( ब ) जम्बू सामि चरिउ ( वीर कविकृत ) ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित पृ० १६० से १६२ मे वताया है कि - जम्बू विवाह के वक्त मध्याह्न में भोजन किया । ( स ) सागार धर्मामृत अ० ६ श्लोक २१ तथा इससे पूर्व एव पश्चात् । (२२) सकलकीर्तिकृत - श्रीपाल चरित परिच्छेद १मध्याह्न स्वगृहे चैत्यालयेषु च जिनार्चन । कृत्वा दानाय वै गेह द्वार पश्यति दानिन ॥३२॥ (इसमे आवक को भी देववन्दना (मामायिक) करके ही आहारदान और भोजन बताया है ) Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ (२३) मूलाचार अ० १ गाथा ३५उदयत्थमगे काले णानोतिय व जिजय म्हि मन्सम्हि । एकम्हि दुअ तिएवा मुहुत कालेय मतं तु ॥ __ मूलाचार प्रदीपक मेविज्ञोऽशन कालोऽन्त्र सत्यज्य घटिकानयं । मध्ये च योगिना भानुदयालमन कालयोः ॥ तस्येवा शनकालस्य मध्ये प्रोत्कृष्टतो जिनः । भिक्षाकाले मतो गेग्यो मुडौंक प्रमाणक ॥३७॥ योगिनां द्वि महत प्रमाणो मध्यमो वचः । जघन्यस्त्रि मुहूर्त नमो मिक्षाकाल उदाहृतः ॥ अर्थ सूर्योदय और सूर्यास्त की तीन-तीन घडी छोडकर मध्य = दोपहर मे जो एक या दो या तीन मुहूर्त तक एक यजु है वह भिक्षाकाल है। इसका तात्पर्य यह है कि तीन-तीन घडी छोडने का काल सामान्य रूप से गृहस्थादि सभी के लिए है यह अशनकाल है इसी मे भोजनादि निर्माण का सभी आरम्भ होता है इस अशनकाल के ठीक मध्य मे= दोपहर मे योगियो का भिक्षा काल है यही एक भक्त काल है इस भिक्षाकाल मे एक मुहर्त लगाली उत्कृष्ट भिक्षाकाल, दोमुहर्त मध्यम, तीन मुहूर्त जघन्य भिक्षाकाल है इसमे गमनागमन भोजन सभी आगया है। इनका चर्चा सागर पृ० ५८-५६ मे गलत अर्थ किया है नालिका-घडी का अर्थ मूहूर्त किया है और भी गलतियां है । (२४) प्रवचनसार की हिन्दी टीका मे मा० ज्ञानसागर जी ने पृ० १४१ पर लिखा है- दिगम्बर शास्त्रो के अतिरिक्त श्वे. मान्य उत्तराध्ययन के २६ वे अध्याय मे लिखा हुआ है, Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं की आहारचर्या का समय ] [ ६०६ पठमं पोर सिसमझायं वीयं झाणं झिपायई । तइयाये भिक्खायरि यं पुणो चउत्थी ये सज्झायं। अर्थात्- ज्ञानीमुनी दिन के चार भाग करके पहिले भाग को स्वाध्याय करने मे दूसरे को ध्यान करने मे तीसरे को भिक्षा वृति मे और चौथे भाग को फिर स्वाध्याय करने मे व्यतीत करे। दिन-रात के आठ पहरो मे मुनिके लिए केवल दिन का तीसरा पहर भिक्षा के लिए बताया है उसी मे वह शहर मे भ्रमण करके एक पहर काल के समाप्त होने से पहिले भोजन कर चुके और पुनः आकर अपने स्वाध्याय करने लग जावे। अर्थात् मध्याह्न (दोपहर) बीतने पर फिर आहार बताया है। (२५) ब्र० गुणदासकृत-श्रेणिक चरित्र (मराठो) पृ० १७ अ० १ (वि० स० १५०८ की रचना) (सकलकीति के शिष्य ब्रह्म जिनदास उनके शिष्य व० गुणदास थे) आइ कोति निधने जाले द्वार पेरवणी ऊझे ढाले। मगवाट पाहति भले । सत्यस्त्राचि ॥१३॥ चौदा घड़ियां अनंतरी ।मुनीश्वर येति भांवरी । भव्य श्रावकाच्या धरो। अतिथे देखा ॥१३॥ इसमे भी सूर्योदय से १४ घडी के बाद ( यानि १२ बजे मध्याह्न) मुनीश्वर आहारचर्या-भ्रामरी करने का कथन किया है। (२६) तिलोयपण्णत्ती अ० ४ गाथा १५२४-२५ सचिवा चवन्ति सामिय सयल अहिंसा वदाण आधारो संतो विमुक्क संगो तणुद्वाण कारणेण मुणी । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ पर घर दुवाररासु मज्झण्हे कामदरिसणं किच्चा। पासुपमसण भुजदि पाणिपुडे विग्य परिहोणं । __ मत्री बोले- स्वामी सकल अहिंसा व्रतो के आधार होते हुए परिग्रह रहित मुनि आहार के कारण दूसरो के घर द्वार पर अपना शरीर दिखाकर मध्याह्न मे प्रामुक भोजन आरामरहित हाथ मे खाते है। (२७) मेधावीकृत धर्म सग्रह श्रावकाचार अ०७गृही देवार्चन कृत्वा मध्याह्न सावुभाजन. । पात्रावलोकनं द्वास्थः कुर्याद भक्त्या सुधौतभ्र तशा इसी का श्लोक ६१-६२ भी देखिये ।। (२८) लाटी सहिता-सर्ग ६ श्लोक २२१ और २३१ में भी "मध्याह्न" ही आहार चर्या वताई है। (२६) सोमसेन कृत त्रिवर्णाचार पृ० ३५४ (३०) कातिकेयानुप्रेक्षा (शुभचन्द्रकृतटीका) पृ०२७५-२७६ (३१) वाक्यजाल (व० मूलशकरजी देशाई) पृ० १६८, २६६ पर गलत निरूपण । (३२) भोजने गमनेऽन्यत्र कार्य वा यत्न कुन चित् । पूर्वाचार्य मत नून प्रमाण जिन शासने ॥५२॥ पूर्वाचार्य मति क्रम्य, य कुर्याद किचिदप्यसौ। मिथ्यादृष्टि रीति ज्ञेयो, न वंदयश्च महात्मभि.५३३ (आहार विहारादि कोई भी कार्य हो सर्वत्र पूर्वाचायी का मत ही प्रमाण है। उसका कुछ भी उल्लङ्घन करने वाला मिथ्यानी दै। ज्ञानियो द्वारा वह मान्य नहीं है ।) Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ दयामय जैन धर्म और उसकी देव पूजा 1 "अहिंसा परमो धर्म " ऐसा सब कहते हैं मगर इस तत्व की जितनी गहनता, जितनी महत्वता और जितनी विशालता जैन धर्म मे है उतनी अन्य जगह नही मिलेगी । लोक मे जैनियो की दया वडी मशहूर है । और तो क्या भारत के अजैन विद्वान् भी मुक्त कठ से कहते है कि अन्य धर्मो मे अहिंसा का जो भी रूप नजर आता है यह श्रेय जैन धर्म को ही है जैन धर्म की अहिंसा की सृष्टि बिल्कुल लोकहित की दृष्टि से है, उसमे स्वार्थपरता का दोष ढूढने से भी नही मिलता । जबकि अन्य धर्मों मे कही मनुष्यो तक कही पशुओ तक और अधिक गये तो वही कही दृष्टि गोचर जीवो तक अहिंसा पहुचाई है, किन्तु जैन धर्म की अहिंसा का क्षेत्र तो इतना लम्बा चौडा विराट है कि उसमे नजर मे भी न आने वाले सर्वज्ञगम्य सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवो से लेकर महाकायधारी बडे से बडे सम्पूर्ण जीव चले आते है । देवता, मंत्र, धर्म औषधादि किसी निमित्त से भी हिंसा क्यो न हो, जैन धर्म की दृष्टि मे उसे धर्म कोटि मे कोई स्थान नही दिया जा सकता, जैसा कि निम्न लिखित श्लोक से प्रगट है देवतातिथि मनीषध पिनादि निमित्ततोऽपि सपन्ना । हिंसा धत्त नरके कि पुनरिह नान्यथा विहिता ॥ २६ ॥ [" अमितगति"] Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ देखिये अहिंसा के विषय मे जैनाचार्यों की क्या आज्ञा हैजीवनाणेन विना व्रतानि कर्माणि नो निरस्यंति । चंद्र ेण विना नक्षंर्हन्यन्ते तिमिर जालानि । ["अमितगति" ] धर्ममहिसा रूपं सशृण्वतोऽपि ये परित्यक्तम् । स्थावर हिंसामसहास्वस हिसा तेऽपि मुचतु ॥ सूक्ष्मं भगवद्धर्मो धर्मार्थं हिसने न दोषोऽस्ति । इतिधर्ममुग्ध हृदयेनं जातु मृत्वा शरीरिणो हिस्याः ॥ [ अमृतचन्द्राचार्यं ] अर्थ - जीवरक्षा के विना व्रतधारण कर्मो को नष्ट नही कर सकते जैसे चन्द्रमा के विना नक्षत्र अधकार को दूर नही कर सकते | अहिंसा रूप धर्म को सुनकर भी जो स्थावर हिंसा को त्यागने के लिए असमर्थ हैं वे भी त्रस हिंसा को तो छोडें । भगवान् का धर्म बडा सूक्ष्म है, धर्म के अर्थ हिंसा होने मे कोई दोष नही है इस प्रकार धर्म मे सुग्ध चित्त वालो को आचार्य कहते है कि धर्म के अर्थ भी प्राणी नही मारने चाहिये । इन सब विवेचनो से आप ही सिद्ध हो जाता है कि हमारी तमाम क्रियायें क्या जप, क्या तप, क्या व्रत सब यदि अहिंसा की उन्नति करने में सहायक हो तो उपादेय हैं नहीं तो व्यर्थ है । आज हम यदि जैनियो की कृति देखते है तो बिल्कुल इससे उल्टी पाते हैं । यद्यपि जैनियो को अपने व्यापारादि कार्य या भोगोपभोगो के जुटाने मे भी अहिंसा का कुछ न कुछ ख्याल जरूर रखना चाहिये मगर इससे भी ज्यादा धार्मिक कार्यो में Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दयामय जैन धर्म और उसकी देव पूजा ] [ ६१३ तो उसे कोई ऐसा काम कदापि न करना चाहिये जो (विशेष)हिंसाजनक हो । हमारे कई दिगम्बरी भाई जिनपूजा मे हरित पुष्प काम मे लाते हैं । क्या उन्हे मालूम नहीं है कि भगवान् ने एक पुष्प मे भी अनत निगोद जीव बतलाये हैं इसके अलावा पुष्पो मे त्रस जीव चलते-फिरते नजर आते हैं वे तो सर्वसाधारण के प्रगट ही है ये सब देखते हुए भी वे इस प्रथा को छोडते क्यो नही हैं । उनके इस महाहिंसा मे इतना मोह क्यो है ? जैनाचार्य तो साफ कहते हैं । देखिये वसुनन्दि आचार्य क्या फरमाते हैं'सम्मत्तस्सपहाणो अणुकवा वण्णिऊ जह्या' सम्यक्तव का प्रधान कारण अनुकम्पा है । फिर देखिये उबरवडपीपलपि य पायर संधाग तरु पसूणाइ । णिच्चं तस ससिद्धाइ ताइ परिवज्जिय व्वाइम् ॥५८॥ [वसुनन्दि श्रावकाचार] अथ - गूलर, वड, पीपल, पीलखन और अन्जीर ये पाच फल तथा सधाणा और वृक्षो के फूल' इन सबमे त्रस जीवो की निरन्तर उत्पत्ति होती है इस वास्ते ये सब त्यागने योग्य है । देखा पाठक फूलो मे स्थावर ही नही किन्तु त्रस जीवो की निरन्तर उत्पत्ति आचार्य बतलाते है। समवशरण मे भगवान् की अहिंसा रूप दिव्य शक्ति से और वनो मे अहिंसा मूर्ति सुनीश्वरो के माहात्म्य से जाति विरोधी जीव भी अपनी हिंसक प्रकृति को छोडकर शाति से परस्पर प्रेम से विचरने लगते हैं उन्ही परमपूज्य महात्माओ की प्रतिमा के सामने आज हम पूजा के रूप मे अनत निगोद जीवो अनेक त्रस जीवो की विराधना करते नहीं हिचकिचाते । इस जगह शायद कोई कहे कि-तो फिर पुष्प चढ़ाने की आज्ञा आचार्यों ने दी ही क्यो ? उत्तर में Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ हमारा कहना अब्बल तो यह है कि उन्होने अचित प्राशुक द्रव्यो से पूजा करनी भी तो लिखीहै । उन्होंने ऐसा तो कही नहीं कहा की प्राशुक द्रव्यो से पूजा नहीं करना चाहिये । देखिये-मूलाचार की टीका मे चतुर्विशति समवन स्वरूप की गाथा मे 'अच्चिदणय' पद की व्याख्या में सम्कृत टीकाकार क्या कहते है-"अचित्वा च गधपुप्पधूप दीवादिभि प्रासुकैगनीत व्यरूप भावरूपैश्च" यहाँ साफ लिखा है कि प्रागुक लागे गक्ष पुष्पादि द्रव्यो से और भात्रो से पूजकर" यदि वहा जाय कि मूलाचार मे तो मुनीश्वरो के लिए विधान है मो ठीक है मगर इस स्थान मे चतुर्विगति म्नवन का स्वरूप कहने का प्रकरण है इसलिए मुनि और श्रावक दानो के लिए यह कथन लागू हो जाता है, फिर यहाँ तो गध पुष्प धूपादि मे द्रव्यपूजा करना लिखा है मो क्या मुनीश्वर भी द्रव्यपूजा कते है अत यह विधान श्रावक के लिए ही उपयुक्त जान पडता है। दूसरी वात यह भी है कि यदि सचित्त पूजा का विधान कलई उठा दिया होता तो बहुत से प्राणी जिनपूजा से वचित रहकर श्रावक कोटि मे ही गिने नही जाते क्योकि जिनपूजा का करना सब कालो और सब स्थिति के जीवधारियो के लिए अपनी-अपनी शक्ति अनुसार मुख्य बताया गया है जैसाकि स्वामी कुन्दकुन्द.चार्य के 'दाण पूजा मुक्ख मावय धम्मो ण सावगो तेण विणा" अर्थात् दान देना और पूजन करना यह श्रावक का मुख्य धर्म है इसके विना कोई श्रावक नही कहला सकता" इस कथन से स्पष्ट है। इससे यही सिद्ध होता है कि क्या देव, क्या पशु, और क्या मनुष्य, सब ही को पूजा करना चाहिये अव आप ही सोचें कि अगर अचित्त द्रव्यो से ही पूजा करने की आज्ञा देते तो जिन प्राणियो की अचित्त द्रव्य प्राप्त करने की परिस्थिति न होती तो वे पूजा Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दयामय जैन धर्म और उसकी देव पूजा ] [ ६१५ कैसे करते, क्योकि ग्रथो मे जिनेन्द्र भक्ति से प्रेरित होकर पशुओ तक ने भी तो पूजा की है जिसमे मेढक सूवा और हाथी की पूजा की कथा तो प्राय बहुतो ने सुनी होगी, सूवे ने तुम्हे आनि के फल आम चढाया, मेढक ले चला फूल कमल भवित का भाया ।।२२।। इन सबका जव शाति के साथ गहरा विचार किया जाता है तो यही ध्यान में आता है। कई भाई ऐसा भी कहते हैं कि अचित्त पूजा सचित त्याग प्रतिमा वाले को करनी चाहिये यह भी बात विचार करने पर ठीक नहीं बैठती, क्योकि ऊपर मूलाचार की कारिका मे ऐसा कोई विधान नहीं पाया जाता कि जो कोई खास व्यवित के ही लिए नियत हो। दूसरे ग्रन्थो मे भी नहीं पाया जाता कि पाचवी प्रतिमा से नीचे वालो को अचित्त पूजा करने का विरोध किया हो। इस तरह जब सचित्त-अचित्त दोनो पूजाओ की स्पष्ट आज्ञा है। तो फिर इससे यही फलितार्थ निकलेगा कि जिसको जैसा सुभीता हो, देश काल के अनुसार जैसा ठीक वैठता हो, साथ ही हिंमा का भी बचाव बिना किसी कठिनता के हो जाता हो उसी विधि से हठ छोडकर जिन पूजा मे प्रवर्तना चाहिये । दोनो पूजाओ की उपयोगिता मे जब हम विचार करते हैं तो हमारी बुद्धि मे बनिस्पत सचित्त पूजा के अचित्त पूजा ही इस समय सर्वश्रेष्ठ जचती है पूजा से सम्बन्ध रखने वाले पूज्य,पूजक पूजा और पूजाफल पर यदि विचार किया जाये तो सर्व प्रकारेण इस समय अचित्त पूजा ही उत्तम है । (सचित्त पूजा तो पशु-पक्षी मूर्यो के लिए है-मनुष्यो के लिए नहीं)। (१) पूज्य का विचार करे तो वे तो रागद्वेष रहित है उन्हे हमारे सचित्त अचित द्रव्यो से कोई सरोकार ही नहीं, Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ } [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ जंसा नि श्री गमन्तभद्र स्वामी ने कहा है 'न पूजयायरत्वयि वीतरागे, न दिया नाय दिवात वैरे' जब हमारे वीतराग भगवान जीवो के पुज रूप पुप्पो से खुश नहीं और प्राशुका के गर रजित चावल रूप सकल्पित पुष्पो से नाराज नही तो क्यो महान् पातर किया जाये" रस से काम चले तो विप क्यो दे" । पवित्र प्रभु को प्रामुक वस्तु हो चढाई जा सकती है अप्रामुक नही । धम स्थान में तो इसका खास खयाल नयना चाहिये। (२) पूजना पर विचार करते है तो हमारे जैनी भाइयो मे ऐमा कोई नहीं होगा जो अहिमा से हिंसा को श्रेष्ठ समझता हो।हिमा के बचाव के लिए कोई गत्रि में भोजन नहीं करते, कोई रात्रि मे जल नहीं पीते, दिमावरी मंदा जो लटो का पुज है नहीं पाते, अशुद्ध विदेशी खाद नही खाते, कईयो के हरियो का त्याग है या प्रमाण है इत्यादि रूप नियम अपने अहिंसा धर्म के पालन के लिए क ते है तो कैसे कहा जाये कि उनके हिंसा का पक्ष है । सागार धर्मामृत की टीका में लिखा है कियतिधर्मानुराग रहितानामगारिणा देश विरतेरप्य सम्यवत्वरूपत्वात् । 'सर्व विरतिलालस खलु देशविरति परिणाम' अर्थात् यति धर्म मे अनुराग रहित गृहस्थियो का देशवत भी मिथ्या है। 'मकल विरति मे जिसकी लालसा है वही देशविरतिके परिणाम का धारकहो मकताहै' इससे क्या यह नहीं सिद्ध होता है कि हमारा उद्देश्य कितना ऊचा रहता है । हम उस उच्च कार्य को धारण करने के लिए असमर्थ हो तो भी उमकी भावना हृदय से चली नहीं जाती, हर क्रियायो से हम उस तक पहुँचने का अभ्यास करेगे अन्यथा हमारे नियम ब्रतादि सब ही मिथ्या हो ज ते हैं। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दयामय जैन धर्म और उसकी देवा पूजा ] [ ६१७ क्या यह उचित है कि-हम जब अपने खानपान, देनलेन, व्यापार आदि घर के कामो मे हिंसा अहिंसा का इतना खयाल रक्खे और धार्मिक पूजादि कार्यों मे उसे बिल्कुल स्थान न दे ? ऐसा कभी उचित नहीं। (३) पूजा पर विचार करते है तो अष्टद्रव्यो की आवश्यकता ही हमारे परिणामो को स्थिर करने के लिये होती है जैसा कि नित्य पूजन मे श्लोक है द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं भावस्य शुद्धिमधिकामधिगतु काम । आलंबनानि विविधान्यवलव्य वल्गन् भूतार्थ यज्ञपुरुषस्य करोमि यज्ञम् ॥ अर्थात् यथानुकूल द्रव्य की शुद्धि प्राप्तकर भावो की अधिक शुद्धि को प्राप्त करने की इच्छावाला मैं नाना प्रकार आलबन को आश्रय करके सत्यार्थ पूज्य पुरुष का पूजन करता हूँ। ___ मतलब इसका यही है कि हमारे परिणाम सराग रूप हैं, अनेक भोगोपभोग वस्तुओ में फसे रहते हैं, चिरतन का अभ्यास छूट नही सकता इसलिये यदि द्रव्यो का अवलबन न ले तो परिणाम भगवत्पूजा मे स्थिर नही रहते, लीन नहीं होते। इस प्रकार जब द्रव्यालबन ही मात्र परिणामो के स्थिर करने के उद्देश्य से ग्रहण किया जाता है तो उसके लिए “सचित्त ही द्रव्य चढाये जाये" ऐसा आग्रह क्यो किया जा रहा है। सचित्त अचित्त दोनो मे से जो ज्यादा सुगम, पवित्र, सुलभ और अहिंसक हो वे ही बेखटके लेने योग्य है । यही विवेक है। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ सूक्ष्म वुद्धया मदा शेयो धर्मो धर्मार्थमिनंरे । अन्यथा धमनुद्भव तद्विषात प्रसज्यते । (कल्याणार्थी को सदा सूक्ष्मबुद्धि से ही धर्म का अनुशीलन करना चाहिये । अन्यथा धर्म बुद्धि से ही धर्म और धर्मी दोनों का बिगाड़ हो मक्ता है। was (४) अब चौथा भेद पूजाफल रहा, इस पर भी ऊहापोह करने से चित्त पूजा जरूरी नहीं समझी जा मकती सो ऐसेआज प्राय हम लोग जिनेंद्र की पूजा करते हैं मो केवल एक रम पूरी करते हैं । परिणामो की स्वच्छता, भावो को वीतरागता व भक्ति को वास्तविकता के अश कितने होते हैं सो सब जानते हैं । ऐसी हालत में जितना पुण्य जिनपूजा से उपार्जन किया जायेगा उससे ज्यादा पाप सचित्त पुप्पो की हिंसा से रहेगा तो लाभ के स्थान मे हमारी हानि ही विशेष रहेगी, सौ रुपयो के लाभ के वास्ते पानसी रुपैयो का नुकसान उठाना तो किसी तरह योग्य नही है । इस प्रकार इस विषय मे हम जब किसी भी पहलू से शाति के साथ गहरा अनुशीलन करते हैं तो किसी रीति से भी सचित्त पुष्पो से जिनपूजा करना कम से कम इस समय मनुष्यो के लिये तो उचित नही बैठता। हम कहते हैं कि अगर अचित्त द्रव्यों से पूजा किया करे तो इसमे कौनसा अनर्थ हो जाता है और जैन धर्म के किस सिद्धात का विधात होता है ? शास्त्राज्ञा भी तो नहीं रोकती और जब जैनधर्म का उद्देश्य ही ऊचा उठाने का - अहिंसा की ओर ले जाने का है तो फिर ऐसा करने मे उलझन है ही क्या । धर्म का स्वरूप वाह्य मे जीय दया व अतरग मे रागद्व ेष का अभाव ही है या और है, इसमे अचित्त जा करने से कोई हानि नही दीखती तो फिर क्यो नही यह Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दयामय जैन धर्म और उसकी देव पूजा ] [ ६१६ प्रवृत्ति स्वीकार की जाती और जहा सौभाग्य से ऐसी पवित्र अहिंसक प्रवृत्ति चली आ रही हो वहा कोई दुराग्रही इसे छोडना चाहे या कोई छुडाना चाहे तो इससे बढकर अफसोस और विवेक शून्यता क्या होगी ? इस लेख मे सचित्त द्रव्य से मतलब लेखक का विशेषकर हरितपुष्पादि से ही है क्योकि अन्य सचित्त द्रव्य न इतने महाहिंसाजनक हैं और न उनका विशेष आग्रह ही किया जाता है । विस्तार भय से बहुत सी बातो का हम उल्लेख नही कर पाये अगर पाठको को मेरा यह प्रयास समयानुकूल हितावह रुचिकर जचा तो फिर सेवा मे उपस्थित हो सकू गा । अन्त मे एक बात और ध्यान देने योग्य है कि सचित्त पुष्पादि का चढाना ही आपत्तिजनक नही है बल्कि उन्हे प्रतिमा के अक मे रखना और भी ज्यादा गलत है । यह सव श्वेतावरीयता है दिगवरीयता नही । कोई अपने कपड़े कुल्हाडी से ही कट कर धोये इसके लिए वह स्वतन्त्र है चाहे फिर वे करें फटें किन्तु रुचिके नाम पर जैसे यह मूर्खता है वैसे ही प्रत्यक्ष हिंसा लक्षित कर भी जो सचित्त पूजा का पक्ष करते है वे जैन धर्म को नही समझते है | अहिंसादि की दृष्टि से ही आचार्यों ने यहाँ स्थापना निक्षेप रखा है फिर भी हम उसे न समझें यह अविवेक है | आशाधरादि सभी ने केशर चदन रगे अक्षतो की पुष्प सज्ञा दी है। इसी दृष्टि से हिंसाजन्य असली चमर की जगह हम गोटे आदि के नकली चमर ही ठोरते है जो सही है । यस्य नास्ति विवेकस्तु केवल यो बहुश्रुत । न स जानाति शास्त्रार्थान् दवपाकर सानिव || ( जिसके विवेक नही केवल बहुश्रुती है वह शास्त्रो के अर्थ को नही जानता जैसे चम्मच भोजन के जानता ।) फ्र स्वाद को नही * t Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ 5 जिन-पूजा मे पूजक (इन्द्र) पूज्य ( जिनेन्द्र ) और पूजाद्रव्य ( ८ ) सब मे स्थापना निक्षेप का प्रयोग किया जाता है ताकि सरलता विशेषता प्राशुकता अहिंसकता पवित्रता अपरिग्रहता निरारमता रहे। " घेवर गिदोडा बरफी जु पेडा" बोलकर भी एक चिटक मात्र चढाना इसी का रूप है । जैन संस्कृति की यही शालीनता सूक्ष्मता है । 3 वोलते हम - ' द्रौपदी का चीर बढाया, सीता प्रति कमल रचाया" जैसी ईश्वर कर्तृत्व रूपी वाणी किन्तु मानते कभी ऐसा नही अर्थात् जिनेन्द्र को अन्य धर्मियो के ईश्वर की तरह कर्त्ता नही मानते । यह विसंगति या झूठ नही है यह खूबी है भक्ति पूजा मे यही जैनो की विशेषता है । 1 अजयष्टव्य ( अज से यज्ञ = पूजा करना चाहिये) मे 'अज' का अर्थं न तो बकरा है और न तीन वर्ष पुराना धान्य किन्तु जैन सस्कृति मे जो नहीं उगता ऐसा तुष = गरडी रहित चावल लिया गया है जो इसकी प्रांजलता सूक्ष्मता मौलिकता का द्योतक है । इसी तरह पूजा मे असली द्रव्य बोलते भी - नकली चढाते हैं । असली सुबोधता की दृष्टि से बोलते हैं और नकली अहिंसकतादि को दृष्टि से चढाते हैं । जैसेरामलीला मे रावण वध के दृश्य मे रावण - राक्षसादि पात्रों को साक्ष द ( असल) नही माते हैं क्योंकि ऐसा करना महान हिंसा जनक है । इमी तरह राक्षसो का मद्य मास सेवन, लकादहन भादि भी साक्षात् (असली) नही बनाये जाते क्योंकि ऐसा करना भी महान् आपत्तिजनक है । यहाँ नकली काम तो श्रेयस्कर होता है और असली अनुचित | भक्ति की परिभाषायें ही जुदी होती हैं अत बोलना क्या मानना क्या और करना क्या इसमे असामजस्य या असत्य ढूंढना ही स्वय में असत्य है । जिनपूजा भी एक तरह की तीर्थकर लीला है इसमे पवकल्याणक के रूप मे सारा तीर्थंकर-जीवन प्रतिदिन स्मरण कराया जाता है । अष्ट Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दयामय जैन धर्म और उसकी देव पूजा ] [ ६२१ द्रव्यों के माध्यम से बिना पढा लिखा भी यह सब हृदयगम कर सकता है । इसी से पूजा के प्रारम्भ मे पचकल्याणको का सर्वप्रथम अघं चढाया जाता है । २४ तीर्थकर पूजा मे भी प्रत्येक तीर्थंकर की पात्रो कल्याणक की तिथियो का अलग-अलग अर्ध चढाया जाता है । प्रत्येक जिनपूजा में भी अष्ट द्रव्यो द्वारा पचकल्याणक को ही प्रदर्शित किया जाता है । देखो-गर्भं कल्याणक - अत्र अवतर अवतर सवोषट् आह्वाननेम् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापनम् जन्मकल्याणक – अत्र मम सन्निहितो भव, सन्निधि करण जल, चदन, अक्षत, पुष्प दीक्षा कल्याणक - नवेद्य ( आहार दान का प्रतीक ) ज्ञान कल्याणक - दीप (केवल ज्ञान का प्रतीक ) मोक्ष कल्याणक - धूप, फल, अष्ट कर्म नष्टकर मोक्षफल प्राप्ति ) 2 इस तरह इन्द्रिय विषय कपायो से रहित वीतराग भगवान् के साथ अष्ट द्रव्यो की संगति सार्थकता बैठ जाती है और व्यास माली के पारिश्रमिक रूप मे अष्टद्रव्यों की उपयोगिता भी वन जाती है । इन ८ द्रव्यो को चढाते वक्त पूजक को सदा ऊपर लिखे अनुसार पंचकल्याणक रूप में तीर्थकर लीला [ जिन-जीवन चरित ] को अच्छी तरह हृदय में बिठा लेना चाहिये । यही अष्टद्रव्य - पूजन रहस्य है । अष्टद्रव्यों को जिनेन्द्र के आगे ही चढाना किसी मी द्रश्य को जिनेन्द्र के ऊपर नही क्योकि वे वीतराग हैं [ देखो - मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० ] यही शालीनता और विवेक है । ००० Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ क्षपणासार के कर्ता माधवचन्द्र अद्यावधि माधवचन्द्र विद्यदेव की दो कृतियाँ उपलब्ध हैं। उनमे से एक त्रिलोकसार ग्रन्थ की सस्कृत टीका है जो छप चुकी है । और दूसरा सस्कृत मे बना क्षपणासार ग्रन्थ है जो अभी तक छपा नहीं है । उक्त त्रिलोकसार ग्रन्थ प्राकृत मे गाथाबद्ध आचार्य नेमिचन्द्र का बनाया हुआ है। उसी की सस्कृत टीका माधवचन्द्र ने लिखी है। इस टीका की प्रशस्ति मे माधवचन्द्र ने इतना ही लिखा है कि-"मेरे गुरु नेमिचन्द्र सिद्धातचक्री के अभिप्रायानुसार इसमे कुछ गाथाएं कही-कही मेरी रची हुई हैं वे भो आचार्यों द्वारा अनुसरणीय है।" इसके सिवा माधवचन्द्र ने यहां अपने विषय मे और कुछ अपना विशेष परिचय नही दिया है किन्तु क्षपणासार की प्रशस्ति मे उन्होने अपना परिचय कुछ विशेष तौर पर दिया है। वह प्रशस्ति वीर सेवामन्दिर देहली से प्रकाशित "जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह" के प्रथम भाग के पृ० १६६ पर छपी है। इस प्रशस्ति मे प्रथम से लेकर पाचवें पद्य तक क्रमश यति वृपभ, वीरसेन, जिनसेन, मुनि चन्द्रसूरि, नेमिचन्द्र और सकलचन्द्र भट्टारक को नमस्कार करने के बाद दो पद्य निम्न प्रकार हैं तपोनिधि महायशस्सकलचन्द्र भट्टारकप्रसारित तपोबलाद विपुलवोधसच्चक्रतः । Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२३ क्षपणासार के कर्ता माधवचन्द्र ] + " 3 श्रुतांबुनिधि नेमिचन्द्र मुनिपप्रसादा गतात्, प्रसाधितमविघ्नतः सपदि येन षट्खंडकम् ॥ अमुना माधवचन्द्र दिव्यगणिना वेविद्यचक शिना, क्षपणासारमकारि बाहुबलिसन्मन्त्रीश संज्ञप्तये । शककाले शरसूर्यचन्द्रगणिते जाते पुरे क्षुल्लके, शुभ दुन्दुभिवत्सरे विजयतामाचन्द्रतारं भुवि ॥ इन पद्यो मे कहा है कि - जिसने तपोनिधि, महायशस्वी सकलचन्द्र भट्टारक से दीक्षा लेकर तपस्या की उसके बल से तथा श्रुतसमुद्र पारगामी नेमिचन्द्र मुनि के प्रसाद से जिसे विशाल ज्ञानरूपी उत्तम चक्र मिला, उस चक्र से जिसने षट्खण्डमय सिद्धांत को जल्दी ही निर्विघ्नता से साध लिया ऐसे विद्य, दिव्यगणि और सिद्धातचक्री इस माधवचन्द्र ने क्षुल्लकपुर मे शक स० ११२५ मे दुन्दुभि नाम के शुभ सवत्सर मे बाहुबलि मन्त्री की ज्ञप्ति के लिए यह क्षपणासार ग्रन्थ बनाया है वह पृथ्वी मे चन्द्र तारे रहें तब तक जयवन्त रहे । इस प्रशस्ति के साथ यही पर क्षपणासार का आद्य भाग मंगलाचरण का मय टीका के एक श्लोक भी छपा है । उसमे भी नेमिचन्द्र और चन्द्र (सकलचन्द्र ) का उल्लेख करते हुए उन्हें माधवचन्द्र और भोजराज के मन्त्री बाहुबलि द्वारा स्तुत बताए गये हैं । इन उल्लेखो से पता लगता है कि ये माधवचन्द्र त्रिलोकसार की टीका की तरह क्षपणासार मे भी अपने को विद्य और नेमिचन्द्र का शिष्य लिखते है अत दोनो अभिन्न हैं । हो, क्षपणासार मे उन्होने सकलचन्द्र को भी अपना गुरु लिखते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि सकलचन्द्र उनके दीक्षा Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ गुरु थे और नेमिचन्द्र उनके विद्या-गुरु थे। किन्तु इसमे बडी बाधा यह आती है कि उक्त प्रशस्ति मे क्षपणासार का रचना काल शक स० ११२५ दिया है जिसमे १३५ जोडने से विक्रम म० १२६० होता है । समय की यह सगति त्रिलोकसार के कर्ता नेमिचन्द्र के समय के साथ नहीं बैटती है। नेमिचन्द्र का समय विक्रम सवत् १०५० के लगभग माना जा रहा है। इसीलिए प्रेमीजी आदि इतिहासज्ञ विद्वानो ने उक्त क्षपणासार के कर्ता माधवचन्द्र को त्रिलोकसार की टीका कर्ता माधवचन्द्र से भिन्न प्रतिपादन किया है। किन्तु हमारी समझ इस विषय मे कुछ और है। हम दोनो माधवचन्द्र को अभिन्न समझते हैं और दोनो के समय की सगति इस तरह बैठाते है कि क्षपणासार का जो समय शक स० ११२५ दिया है उसे शालिवाहन सवत् न मानकर विक्रम स० ११२५ मानना चाहिए। चूकि माधवचन्द्र ने त्रिलोकसार गाथा ८५० की टीका मे शकराज का अर्थ विक्रम किया है। इसलिए उनके मत के अनुसार क्षपणासार मे दिये गए शक संवत् को भी विक्रम संवत् ही मानना चाहिए । सही भी यही है कि किसी भी ग्रथकार के कथन को उसी के मत के अनुसार माना जावे। इस तरह मानने से दोनो समय मे जो भारी अन्तर पड़ता है वह हलका-सा रह जाता है। इस हलके अन्तर को तो हम किसी तरह बैठा सकते है। इसके लिए हमे नेमिचन्द्र और चामुण्डराय के समय को कुछ आगे की ओर लाना पडेगा अर्थात् ये दोनो विक्रम की ११वी शताब्दी के चौथे चरण मे भी मौजूद थे ऐसा समझना होगा । वह इस तरह कि बाहुबलि चरित्र मे ___ गोम्मटेश्वर की प्रतिष्ठा का समय कल्कि स० ६०० लिखा है। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार के कर्ता माधवचन्द्र ] [ ६२५ प्रोफेसर प० हीरालाल जी ने जैन-शिलालेख संग्रह भाग १ की प्रस्तावना मे इस कल्कि सवत् को विक्रम स० १०८६ सिद्ध किया है। यह तो निश्चित ही है कि वाहुबलि मूर्ति की स्थापना चामुण्डराय ने की थी। इसके अलावा चामुण्डराय कृत चारित्रसार खुले पत्र पृ० २२ मे "उपेत्याक्षाणि सर्वाणि..." यह श्लोक उक्त च रूप से उद्धृत हुआ है । यह श्लोक अमितगति श्रावकाचार परिछेच्द १२ का ११६वां है। इसमे उपवास का लक्षण बताया गया है । अमित गति का समय विक्रम की ११वी शताब्दी का उत्तरार्द्ध तक है। इत्यादि हेतुओ से चामुण्डराय का समय सभवत विक्रम की ११वी शताब्दी के चौथे चरण तक पहुँच जाता है। और नेमिचन्द्र भी श्री बाहुबलि स्वामी की प्रतिष्ठा के वक्त मौजूद होगे ही। इसके अतिरिक्त नेमिचन्द्र कृत द्रव्य संग्रह की ब्रह्मदेव कृत टीका के प्रारम्भ मे लिखा है कि "यह ग्रन्थ पहिले नेमिचन्द्र ने राजा भोज से सम्बन्धित श्रीपाल मण्डलेश्वर के राजसेठ सोम के निमित्त २६ गाथा प्रमाण लघु द्रव्यसग्रह बनाया था। फिर विशेष तत्वज्ञान के लिए बड़ा द्रव्यसग्रह बनाया।" इस कथन से भी सिद्ध होता है कि राजा भोज के समय श्री नेमिचन्द्र हुए हैं। राजा भोज का समय विक्रम की ११वी सदी का चौथा चरण इतिहास से सिद्ध है । जो प्रमाण द्रव्य-सग्रह और गोम्मटसार के कर्ता को भिन्न सिद्ध करने के लिए दिए जाते हैं वे भी कुछ विशेष दृढ नही हैं जैसे कि “गोम्मटमार के कर्ता नेमिचन्द्र तो सिद्धात चक्रवति थे और द्रव्यसग्रह के खासतौर से कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धातदेव थे।" यह हेतु ऐसा कोई भिन्नता का द्योतक नही है । क्योकि त्रिलोकसार की टीका मे स्वय माधवचन्द्र ने ग्रथ के प्रारम्म और अन्त मे अपने गुरु नेमिचन्द्र का 'सैद्धातदेव' नाम से उल्लेख किया है। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ 1 और दूसरा हेतु भिन्नता के लिए यह दिया जाता है कि " द्रव्य संग्रह मे आश्रव के भेदो मे प्रमाद को गिना है । जब कि गोम्मटसार मे प्रमाद को नही लिया है ।" यह हेतु भी जोरदार नही है । क्योकि इस विषय मे शास्त्रकारो की दो विवक्षा रही है । तत्वार्थ सूत्र और उनके भाष्यकार आदिको ने आश्रव के भेदो मे प्रमाद को लिया है, मूलाचार आदि मे प्रमाद को नही लिया है । ये दोनो ही विवक्षाएं नेमिचन्द्र के सामने थी और दोनो ही उन्हे मान्य भी थी इसीलिए उन्होने जहाँ वृह० द्रव्य संग्रह मे आश्रव भेदो मे प्रमाद को लिया है वहाँ लघु द्रव्यसंग्रह की १६वी गाथा मे प्रमाद को नहीं भी लिया है । (देखो अनेकांत वर्ष १२ किरण ५ ) अलावा इसके उन्होने द्रव्यसग्रह को समाप्त करते हुए जिस ढंग से अपनी लघुता प्रदर्शित की है । वही ढग उन्होने त्रिलोकसार की समाप्ति के समय मे भी अपनाया है । दोनो के वाक्यो को देखिए इदि णेमिचन्द मुणिा अप्पसुदेणामयणदिवच्छेण । रइयो तिलोयसारो खमतु तं बहुसुदाइरिया ॥ [त्रिलोकसारे ] दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा, दोससंचयचुदा सुदपुण्णा । सोधयंतु तणुसुत्तधरेण फेमिचंद मुगिणा भणियं जं ॥ [ द्रव्यसंग्रह ] इनमे अप्पसुद-तणुसुत्तधर, सुदपुण्णा बहुसुदा ये वाक्य अर्थ - साम्य को लिए हुए हैं। इससे दोनो को अभिन्न मानने की ओर हमारा मन जाता है। इस प्रकार जबकि नेमिचन्द्र का समय विक्रम की Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार के कर्ता माधवचन्द्र ] [ ६२७ ११वी शताब्दी के तीसरे चरण तक पहुँच जाता है तो उनके शिष्य माधवचन्द्र का भी विक्रम स० ११२५ मे जीवित रहना सभव हो सकता है। माधवचन्द्र ने त्रिलोकसार की टोका गोम्मटसार की रचना के बाद बनाई है। क्योकि त्रिलोक्सार गाथा २५० की टीका मे एक गाथा "तिण्णसय जोयणाण "" उद्धृत हुई है वह गोम्मटसार जीवकाड की है। त्रिलोकसार टीका और क्षपणासार की शैली एव तन्व विवेचन का तुलनात्मक अध्ययन करने पर भी दोनो के एक फर्तृत्व का निश्चय किया जा सकता है इस ओर साहित्यिक विद्वानो को ध्यान देना चाहिए। क्षपणासार की प्रशस्ति मे माधवचन्द्र ने अपना दीक्षागुरु सकलचन्द्र को बताया है । इस पर विचार उठता है कि उनके विद्यागुरु नेमिचन्द्र के होते हुए उन्होने सकलचन्द्र से दीक्षा क्यो ली? ऐमा लगता है कि दीक्षा के वक्त शायद नेमिचन्द्र दिवगत हो गए हो। इसी से उनको सकलचन्द्र के पास से दीक्षा लेनी पडी हो। साथ ही ऐमा भी मालूम पडता है कि त्रिलोकसार की टीका की समाप्ति के समय तक वे दीक्षित ही नहीं हुए थे। क्योकि टीका की प्रशस्ति या टीका मे यत्र-तत्र ऐसा कोई उल्लेख नहीं पाया जाता है जिससे उनका मुनि होना प्रगट होता हो। क्षपणासार मे तो शुरू मे ही वे अपने को मुनि लिखते हैं। इन सब बातो से यही निष्कर्ष निकलता है कि नेमिचन्द्र स्वामी की जब वृद्धावस्था थी तब उनके शिष्य माधवचन्द्र युवा थे और इससे माधवचन्द्र का अस्तित्व वि० स० ११२५ मे माना जा सकता है। इस समय के साथ एक बाधा अगर यह उपस्थित की जावे कि क्षपणासार की प्रशस्ति मे Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ ] [ * जग निबन्ध स्नावली भाग २ जगमोसना गाभा मार्ग बालिम निमित्त बताई ::किग मोगाममा नि० ग. ११२५ में पनि काममाधान या माना है कि धपणागार मोगादिया ना मोदी भी हो नब भी या लिननी अपेक्षा मलीनी उनी नामनामाना है। रामनगविना प्रगट लिए है ये तर ब EATM के गोजी विधानों पर छोरते 777137ने म सम्बन्ध में अब तक मोनिका नाम विनार पनी कृपाकरें। मग मी कुछ लोगों ने पनामा के गर्ता और मारपीटमा माधवनात अभिन्न होने मी भावना -धक पानी। और उन एतिहामिक विद्वानी में भिकीन कि दोनोकोकिन-भिन्न मान तो है म सम्बन्ध में पुन चिनार करने की प्रेरणा की थी। क्षपणामार को प्रशस्ति में उनकी समाप्ति का मामल माम० ११२५ दिया है। इसे हमने गन्यार के मतानुसार विनाम न० मानकर इमी आधार पर हमने वह लेख लिया था। मपर भाई परमानन्दजी ने अनेकांत के उसी अक में दोनो माधवचन्द्र को भिन्न-भिन्न वतनाने का प्रयान दिया है। उनके मनव्य की पुष्टि के लिये उनके लेख से ४ दलीले सामने आई है । नीचे हम उन्ही पर विचार करते हैं (१) प्रथम दलील उनकी यह है कि-"नेमिचन्द्र सिद्धात चकी का समय विक्रम की ११वी सदी के पूर्वाद के बाद का नही हो सकता है। क्योकि नेमिचन्द्र और चामुण्डराय समकाल Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार के कर्ता माधवचन्द्र ] [ દર के हैं और चामुण्डराय राचमल्ल के मत्री रहे है । राचमल्ल का समय वि० स० १०४१ तक का है। अत: इन नेमिचन्द्र के शिष्य माधवचन्द्र का समय वि० स० ११२५ मानना असगत है।" इम सबधमे हमारा कहना यह है कि-बाहुबलि चरित्रमे गोम्मटेश की स्थापना का समय कल्कि स० ६०० लिखा है। जिसे प्रो० १० हीरालाल जी ने जैनशिलालेख संग्रह प्र० भाग की प्रस्तावना मे विक्रम स० १०८६ माना है। और गौम्मटेश्वर की स्थापना के समय चामुण्डराय और नेभिचन्द्राचार्य दोनो मौजूद थे ही। तथा द्रव्यसग्रह की टीका मे ब्रह्मदेव ने नेमिचन्द्र को धाराधीश राजा भोज के समय का लिखा है। यह राजाभोज विक्रम की ११वी सदी के चौथे चरण में मौजूद थे ऐसा इतिहास से सिद्ध है। एव चामुण्डराय ने स्वरचित चारित्रसार मे अमितगति का पद्य उद्ध त किया है। इत्यादि हेतुओ से चामुण्डराय और नेमिचन्द्र का अस्तित्व विक्रम की ११वी सदी का चौथा चरण तक पाया जा सकता है। रही राचमल्ल की बात सो इस विपय मे प्रो० हीरालालजी ने उक्त शिलालेखसंग्रह को प्रस्तावना मे जो लिखा है वह उन्ही के शब्दो मे पढियेगा __ "गोम्मटेश की प्रतिष्ठा राजा राचमल्ल के समय मे ही हुई ऐसा कोई शिलालेखीय प्रमाण नहीं है। केवल भुजवलिशतक मे ही ऐसा कथन है किन्तु उसका रचना समय ईसा की सोलहवी शताब्दी अनुमान किया जाता है। जिन अन्यग्रन्थो मे गोम्मटेश की प्रतिष्ठा का कथन है उनमे यह कही नही कहा गया कि यह कार्य राचमल्ल के जीते ही हुआ था। सन् १०२८ से पहिले के किसी भी शिलालेख मे इस प्रतिष्ठा का समाचार नही पाया जाता है।" Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ (२) दूसरी दलील आप की यह है कि - "शिलाहारवश के राजाभोज और सकलचन्द्र मुनिचन्द्र शक स० ११२५ (विक्रम स० १२६० ) के लगभग हुये है अतः यही समय माधवचन्द्र कृत क्षपणासार की समाप्ति का हो सकता है ।" 1 इसका उत्तर यह है कि एक सकलचन्द्र विक्रमस ० ११२५ के करीब भी हुए है देखो शिलालेख न० ५० ( जैन शिलालेख सग्रह प्र० भाग पृ० ७४ ) इसी तरह एक मुनिचन्द्र भी विक्रम स० ११२५ मे हुये हैं | देखो शिलालेख न० २०४ ( जैन शिलालेख सग्रह द्वि० भाग पृ० २४६ ) सम्भव है क्षपणासार के वर्ता माधवचन्द्र के द्वारा स्मृत सकलचन्द्र - मुनिचन्द्र भी ये हो हो । यह सभावना इसलिये भी ज्यादह ठीक प्रतीत होती है कि - माधवचन्द्र ने क्षपणासार की प्रशस्ति में सकलचन्द्र के साथ नेमिचन्द्र सिद्धात चक्रवर्ती का भी स्मरण किया है । और नेमिचन्द्र के समय की सगति भी इन्ही सकलचन्द्र - मुनिचन्द्र के साथ बैठती है । आपके कथनानुसार विक्रम स० १२६० मे होने वाले सकलचन्द्र - मुनिचन्द्र के वक्त तो कोई नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती हुये ही नही । जैन इतिहास मे गोम्मटसार के कर्ता के अलावा उनके बाद अन्य भी कोई नेमिचन्द्र सिद्धातचक्री हुये हो ऐसा कोई उल्लेख देखने मे आया नही है । यह भी सोचने की चीज है कि - विक्रम म० १२६० के लगभग प० आशाधरजी हुये है तो क्या उनके वक्त नेमिचन्द्र- माधवचन्द्र आदि सिद्धात चक्रियो का अस्तित्व था ? एव शब्दार्णव चन्द्रिका वृत्ति की प्रशस्ति मे सोमदेव ने भोजदेव का उल्लेख करते हुये शिलाहारवशी लिखकर यह व्यक्त किया है कि वह परमारवशी प्रसिद्ध राजा भोज से भिन्न है । उस तरह माधवचन्द्र ने क्षपणासार मे भोजराजा को शिलाहार Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३१ क्षपणा सार के कर्ता माधवचन्द्र ] वशी नही लिखा है इससे यही अनुमान करना पडता है किइन माधवचन्द्र के वक्त तक शिलाहारवशी कोई राजा भोज हुआ ही न था । हुआ होता तो ये भी उसे शिलाहारवशी लिखे बिना नही रहते । — (३) तीसरी दलील आपकी यह है कि - "शक स० को विक्रम स० मानने से इतिहास मे बडी गडवडी पैदा होती है ।" इसका उत्तर यह है कि गडवडी तो उस हालत मे पैदा हो सकती है जबकि किसी उल्लेख मे शकस० का प्रयोग विक्रम सवत् मे हुआ हो उसे हम शालिवाहन संवत् मानकर चलें । माधवचन्द्र ने त्रिलोकसार गाथा ८५० की टीकामे शकराज का अर्थ विक्रम किया है । इस लिये उनके मत के अनुसार क्षपणासार मे दिये शक स को हमे विक्रम स० मानना चाहिये। ऐसा न मानने से ही इनके इतिहास मे गडबडी पडती है और इतिहास की कडी बैठाने को ऊटपटाग कल्पना करनी पडती है । अगर हस्तलिखित प्रतियो मे उक्त गाथा ८५० की टीका का प्रचलित पाठ सही रूप मे है और निश्चियत. वह माधवचन्द्र की कलम से लिखे अनुसार ही है तो उस समय मे होने वाले अभयनन्दिवीरनन्दि-इद्रनन्दि- कनक्नन्दि नेमिचन्द्र आदि उद्भट आचार्यों का भी यही मत रहा होगा क्योकि अकेले माधवचन्द्र इन मान्य आचार्यो के मत से भिन्न कथन नही कर सकते हैं । और श्री माधव चन्द्रने कई गाथायें रचकर अपने गुरु नेमिचद्रकी सम्मति से त्रिलोकसार मे सामिल की है तो त्रिलोकसार की गाथा ८५० की टीका मे शक का अर्थ विक्रम भी माधवचद्र ने अपने गुरु वी सम्मति या उनकी आम्नाय के अनुसार ही किया होगा । साथ ही माधवचद्र भी तो स्वयं सिद्धातचक्रवर्ती थे। ऐसी अवस्था मे } · Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ सवत् की समस्या बहुत गम्भीर बन जाती है । इस सम्बन्ध मे और भी बाते विचारने की हैं। जैसे कि विक्रम संवत् का प्रारंभ चैत्रशुक्ला एकम् को हुआ वही मिती शक संवत् के प्रारम्भ की कैसे हुई ? तथा धवलादि प्राचीन ग्रंथो मे वीरनिर्वाण की काल गणना शक संवत् तक क्यो बताई ? उससे भी १३५ वर्ष पूर्व से चल रहे विक्रम संवत् तक क्यो नही बताई ? इत्यादि बातो को देखते हुये यही आभास होता है कि कही प्राचीन आचार्यो की दृष्टि मे शक संवत् ही विक्रम संवत् तो नही था ? क्या बाहुबली ही चामुण्डराय मंत्री नही थे ? (४) चौथी दलील आपकी यह है कि - "परमारवशी राजा भोज उत्तरप्रात मे हुआ है और गोम्मटसार के नेमिचद्राचार्य दक्षिणप्रात मे । इसलिये इन नेमिचद्र के शिष्य माधवचद्र की संगति परमारवशी राजा भोज के साथ नही बैठाई जा सकती।" इसका उत्तर यह है कि - दक्षिणप्रात के मुनि उत्तरप्रातमे और उत्तरप्रातके मुनि दक्षिणप्रात मे पहिले भी आते जाते रहे है और अब भी आते जाते हैं । दक्षिणप्रात के मुनि श्री शातिसागर जी महाराज तो अभी २ बहुत अरसे तक उत्तरप्रात मे रहे है यह सर्वविदित है । और ऐसा कोई आचारशास्त्र का नियम भी नही है जिससे किसी एक प्रात के मुनि दूसरे प्रात मे न जा सके । मैं आशा करता हू कि मेरे भाई प० परमानन्दजी साहब तटस्थ होकर इसपर पुनः गम्भीरता से विचार करने की कृपा करेंगे । Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रे ५३. उद्दिष्ट दोष मीमांसा 1 आज से करीब ६ मास पहिले मेरा एक लेख " साधुओ की आहारचर्या का समय" शीर्षक से जैनगजट के गत पर्योषणाक मे निकला था। उसे मैंने "आगमानुसार मुनियो का भोजन काल क्या होना चाहिये ?" इस ध्येय को लेकर लिखा था । और विद्वानों के विचारार्थ उसे जैन गजट में प्रकाशित कराया या । मैं प्रतीक्षा मे था कि कोई विद्वान् उस विषय मे लिखे । जैनगजटके ता० ६ और १६ मई के अकमे ब्र० चांदमलजी चूडीवाल से " कटारियाजी का एक लेख " इस शीर्षक से लेख छपाया है । उसमे उन्होने इस विषय की चर्चा करने के पूर्व उद्दिष्ट दोष की विवेचना की है। इसका कारण यह है कि हमने अपने लेख की आदि मे उत्थानिका के तौर पर मूलाचार का प्रमाण देकर यह दर्शाने का उद्यम किया था कि मुनियों की भिक्षा शुद्धि अन्य २ विधियो के साथ एक विधि यह भी है कि - भिक्षा यथाकाल प्राप्त की जावे । मूलाचार का जो प्रमाण हमने दिया था उसमे भिक्षा यथाकाल लेने के साथ २ अन्य बातें भी लिखी थी जैसे "भिक्षा प्रासुक हो। जिसके सम्पादन मे साधु का मन, वचन, काय और इन सम्बन्धी कृत-कारित अनुमोदना का कुछ भी सम्पर्क न हो आदि । हमारे इस लिखने का चूडीवालजी ने यह फलितार्थ निकाला कि मैंने ( मिलापचन्दने) ऐसा लिखकर - -- Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ यह अभिप्राय प्रगट किया है कि "वर्तमान के साधु सव उद्दिष्टादि दोषो से युक्त आहार ग्रहण करते है अत. उन्हे चेतावनी दी है अथवा जैनसमाज को यह चेतावनी दी है कि जो साधु उद्दिष्टादि दोप युक्त आहार ग्रहण करते है उन्हे साधु नही मानना चाहिये ।" यद्यपि उस वक्त उद्दिष्ट के विषय मे लिखने का मेरा रच मात्र भी विचार नही था । क्योकि वर्तमान के कतिपय जैनसाधुओ की आहारचर्या और उनको दिये जानेवाले आहारके तैयार करने मे होने वाले गृहस्थो के कारनामे प्राय सभी विचारवानो को खटकने जैसे है । अब आपने जो उद्दिष्ट के विषय मे अपने विचार प्रगट किये है वे भी मुझे आगमानुकूल नजर नही आते है । आपने जितना भी लिखा उसे देखने पर कुछ हमको यही आभास हुआ कि वर्तमान मे मुनियो की जैमो प्रवृत्ति चल रही है उसे ही श्रेष्ठ और शास्त्रोक्त सिद्ध करना । यही आप का ध्येय है । किन्तु आप इसमे पद-पद पर स्खलित होते चले गये है । यो तो आपने अनर्गल ढंग से बहुत सारा लिखा है । नीचे हम उसका सारांश देते हुये समीक्षा लिखते हैं (१) आपने लिखा उद्दिष्टादि दोष सूक्ष्म दोष है । प्रायश्चित्त के योग्य नही हैं । समीक्षा आपने आदि शब्द देकर उद्दिष्ट ही नहीं अन्य उद्गमादि सभी दोषों को सूक्ष्म दोष बता दिया है । और ये प्रायश्चित्त के योग्य नही ऐसा लिखकर तो बडा ही गजब किया है। इसके लिये आपने मूलाचार का प्रमाण दिया परन्तु ग्रंथकार का Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दिष्ट दोष मीमासा ] [ ६३५ आशय सूक्ष्म दोष बताने का क्या है ? इसके समझने मे आपने भूल की है। मूलाचार मे अध कर्म नामक महादोष जिससे मुनित्व ही नही रहता उसका वर्णन करने के बाद उद्दिष्ट दोष का वर्णन करते हुये टीकाकार ने उसे सूक्ष्म दोष बताया है सूक्ष्म दोष बतानेका कारण स्वय टीकाकारने यह लिखाहै कि-"अध - कर्म. पाश्र्वात् औद्दोशिक सूक्ष्म दोषपरिहत्तुं कामः प्राह" अर्थात् अध कर्म नामक महादोप के पास मे मोहे शिक दोष सूक्ष्म है ? यानी अध कर्म जैसे महादोष के सामने यह दोष हलका है ऐमा इसका तात्पर्य है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह मुनियो के लिये उपेक्षणीय समझकर प्रायश्चित्त के अयोग्य ही मान लिया जाय । आशीविष सर्प से अन्य सर्प कम विषैले होते है ऐसा कहने का यह मतलब नही है कि-उन अन्य साँ से न बचा जाये । जब ११वी प्रतिमाधारी श्रावक के लिये ही उद्दिष्ट दोष का टालना जरूरी बताया है तो इसी से समझ लीजिये कि वह मुनियो के लिये कितना बडा दोष हो सकता है और इसीलिए टीकाकार ने 'परिहत्तु काम' पद देकर इसे टालने के लिये स्पष्ट निर्देश किया है । उद्दिष्टदोष १६ उद्गमादि दोषो मे आद्य और प्रमुख है क्योकि बाकी के १५ दोष भी मुनि के उद्देश्य से ही बनते है अत वे सब भी एक तरह से उद्दिष्ट दोष के ही अङ्ग हैं ऐसी हालत मे उद्दिष्ट दोष को मामूली-उपेक्षणीय दोष बताना अयुक्त है मुनियो के २८ 卐मूलाचार भ० ६ गाथा ४२ की टीका मे लिखा है किउद्गमोत्पादनादि अध कर्म के अश = हिस्से होने से परित्याज्य हैं। इन रोनो को अध कर्म (मुनित्व नाशक) के ही भाग बताये हैं मत ये सब Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ मूलगुणो के अन्तर्गत ५ समितियों के नाम आते हैं । उद्दिष्टादि दोष महत आहार लेने वाले साधु के एषणा समिति का पालन नही होन से मूलगुण का घात होता है । मूलाचार के प्रथम अधिकार मे एपणा समिति का स्वरूप इसप्रकार बताया है- छादाल दोससुद्ध कारणजुत्त बिसुद्धणवकोडी । सोदादीसममुत्ती परिसुद्धा एसणा समिदी ॥१३॥ अर्थ - जो आहार ४६ दोषो से रहित हो, ओर मन, वचन, काय, कृत कारित आदि नवकोटि से शुद्ध हो ऐसे आहार को कारणवश से लेना । तथा वह ठण्डा, गरम, रस, नीरस, रुक्ष कैसा भी हो उसके लेने मे समभाव रखना रागद्वेष नही करना इसे निर्मल एषणा समिति कहते है - इसलिये भोजन मे उद्दिष्टादि दोषोका टालना मुनियो के लिये अत्यन्त आवश्यक है । आपके कथनानुसार ये नगण्य होते तो एषणासमिति नामक मूलगुण मे इनको टालने का आदेश भी अध वर्म के हो उत्पादक हैं अत प्रखर दोष हैं इन दोपों से बचकर नही चलने वाला सीधा अध कर्म रूपी महागत मे गिरता है । उद्दिष्ट दोप से त्रम स्थावरो के पाप की अनुमोदना होती है अत यह त्याज्य ही है । महापुराण पर्व ३४ श्लोक १६६ मे बताया है कि उद्दिष्टा दि दोप दूषित आहार को चाहे प्राण चले जायें वे मुनि करते थे । ग्रहण नही शकितामिहत दिद्ष्ट क्रयक्रीतादि लक्षण सूत्र निविद्ध माहार नेच्छन्प्राणात्ययेऽपि ते ॥ १६६ ॥ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दिष्ट दोप मीमासा ] [ ६३७ नही दिया जाता । इन दोपो की अवहेलना करने का अर्थ है एपणा समिति का पालन नही करना । अर्थात् मूलगुण का घात करना । " नष्टे मूले कुत शाखा" जब मूलगुण ही नही तो साधु का अन्य आचार सब निरर्थक है । जैसा कि मूलाचार के समयसाराधिकार मे कहा है - मूलं छित्ता समणे जो गिण्हादी य बाहिर जोगं । बाहिर जोगा सव्वे मूल विहूणम्स कि करिस्सति ॥२७॥ अथ - जो साधु मूलगुणो का विघात करके वृक्षमूलादि अन्य बाह्य योगो को साधता है । उस मूलघाती के वे बाह्ययोग किसी काम के नही है । पुन कहा है वदसीलगुणा जम्हा भिक्खा चरिया विशुद्धिएठति । तम्हा भिक्खाचरियं सोहिय साहू सदा बिहारिज्जा ॥ ११२ ॥ भिक्ख ari हृदयं सोधिय जो चरदि णिच्चसो साहू । एसो सुटिठसाद्ध भणिओ जिणसासणे भयवं ॥ ११३ ॥ अर्थ - भिक्षा शुद्धि के होने पर ही व्रत शीलादि गुण तिष्ठते हैं । इसलिये साधु को सदा भिक्षाचर्या को शोधकर चलना चाहिये । टीकामे लिखा है कि- भिक्षाचर्या शुद्धिश्च प्रधान चारित्र सर्वशास्त्रसारभूतमिति । ” भिक्षा की शुद्धि यह एक प्रधान चारित्र है और सकल शास्त्रो की सारभूत है ॥ ११२ ॥ | जो साधु नित्य भिक्षा, वचन, और हृदय को शोधकर विचरता है । उसी को भगवान् ने जिन शासन मे श्रेष्ठ साधु माना है ॥११३॥ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३= ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ इन उद्धरणोसे सहज ही जाना जा सकता है कि जैन धर्मके आचार शास्त्रो मे भिक्षा शुद्धि के लिये उद्दिष्टादि दोषो के टालने को कितना महत्व दिया गया है । जिसे कि आप मामूली समझते है । भिक्षा शुद्धि को अचौर्य व्रत की भावनाओ मे भी गिनाया है । अत उसकी अवहेलना से महाव्रत के घात का भी प्रसंग आता है । इसके सिवा मूलाचार अधिकार १० गाथा १८ मे अचेलकादि दस प्रकार का श्रमणकल्प बताया है उसमे दूसरे नम्बर पर अनौद्द शिक भेद भी बताया है ये श्रमणो के लिंग = चिह्न बताये हैं इससे सिद्ध है कि - बिना उद्दिष्टादि त्यागके मुनित्व ही नही और इसीलिये उद्दिष्ट दोष को ४६ दोषो मे प्रथम स्थान दिया है | आचार्य ने जगह-जगह इन दोषो से बचते रहने का निर्देश किया है देखो मूलाचार अ० ६ गाथा ४६ | अध्याय १० गाथा १६, २५, २६, ४०, ५२, ६३, ११२, १२२ । अध्याय ५ गाया २१०-२१८ | अध्याय ६ गाथा ७-८ आदि । इस तरह जब ये दोष ही नही, किन्तु महाव्रतादि मूल गुणो के घातक प्रखर दोष सिद्ध होते है तत्र ये अवश्य प्रायश्चित के योग्य हैं क्योकि प्रायश्चित्त शब्द का अर्थ ही यह है कि - प्राय यानी दोषो का चित्त यानी शुद्धीकरण । एक तरफ तो इन्हे दोष भी मानना और दूसरी तरफ प्रायश्चित्त के अयोग्य भी कहना यह परस्पर विरुद्धता है । किसी भी आचार्य ने इन्हे प्रायश्चित्त के अयोग्य नही बताया है क्या कोई दोष भी अङ्गीकार के लिए होते है ? जब अङ्गीकार के लिए नही होते तो स्वत ही ये दोष प्रायश्चित्त के योग्य सिद्ध होते हैं । जितने असख्य विकृत परिणाम है, उतने ही प्रायश्चित्त भी होते हैं । आपने जो उद्दिष्टादि दोषो को जान लेने पर भी उसकी शुद्धि प्रतिक्रमण से ही होजाना लिखा है वह भी मन कल्पित है, Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दिष्ट दोष मीमांसा ] [ ६३६ प्रतिक्रमण कोई जादू का डण्डा नहीं है जो जानबूझकर निर्भय हो रोज दोष करते जाये, फिर भी उसके (मिच्छामि दुक्कड) पाठ मात्र से दोष दूर हो जाये । प्रतिक्रमण तो दोष लगो चाहे न लगो करना ही पड़ता है वह तो नित्यनैमित्तिक क्रिया है ( देखो मूलाचार अ०६ गाथा ६१)। दोषो का प्रायश्चित्त आलोचन करके भी पुनः उन्हे करने वाले साधु के अध कर्म बताया है और इहलोक परलोक की हानि बताई गई है ( देखो मूलाचार अ० १० गाथा ३६ ) । (२) आपने लिखा-वसतिका, पीछी, कमण्डलु आदि मुनियो के उद्देश्य से ही बनते हैं अत मुनियो के उद्देश्य से आहारादि के बनने मे कोई उद्दिष्ट दोष नही है। उद्दिष्ट का त्यागी मुनि होता है, श्रावक नहीं । समीक्षा आहारादि के बनाने मे मुनि का कोई योगदान हो इसे शायद आप उद्दिष्ट समझते हैं और इसी अभिप्राय से माप लिखते हैं कि -"उद्दिष्ट का त्यागी मुनि होता है श्रावक नही ।" परन्तु उद्दिष्ट का यह लक्षण नहीं है। आहारादि के बनने मे मुनिका अनुमति आदि कोई भी सम्पर्क हो तो वह अध कर्म दोष कहलाता है । यह दोष उद्दिष्टादि ४६ दोषो से अलग है । और वह मुनित्व का घातक महान् दोप है। आहारादि के वनाने मे पचसूना के द्वारा छह काय के जीवो की विराधना होना अध. कर्म कहलाता है | ऐसा कार्य गृहस्थ ही करता है। * जिस रसोई के बनाने मे त्रस जीवों का घात हो उसे मापने अध कर्म कहा है । यह परिभाषा आपकी मनबढ़न्त है । Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २‍ अगर ऐसा कार्य मन, वचन, काय, कारित, कृत, अनुमोदना से मुनि करे तो उसके अध कर्म दोष लगता है । इसको ही नवकोटि दोप कहते है । (देखो आचारसार अ०८, श्लोक १६ ) उद्दिष्ट दोष इससे जुदा है । उसकी गणना - ६ उद्गम दोषी मे की है । उद्गमादि मिला कर कुल ४६ दोप होते हैं । नवकोटि की अशुद्धि यह ४६ दोपो से अलग है । मूलाचार मे एषणा समिति का स्वरूप वनाते हुए गाथा मे ४६ दोष और नवकोटि की अशुद्धि दोनो टालने का उपदेश दिया है । (यह गाथा प्रस्तुत लेख मे ऊपर उद्धृत की जा चुकी है ) इमसे सिद्ध होता है कि ४६ दोपो मे वर्णित उद्दिष्ट दोष और नवकोटि दोनो भिन्न २ हैं । इससे यही फलितार्थं निकलता है कि आहारादि के बनाने मे मुनि का अनुमति आदि कुछ भी सम्पर्क होना उद्दिष्ट दोष नही है । वैसा करना तो अध कर्म दोष होता है । तो फिर उद्दिष्ट दोप कोनसा है ? उसका स्वरूप निम्न प्रकार से बताया गया है - मूलाचार पिण्ड शुद्धि अधिकार गाथा ६-७ मे जैन निग्रंथ मुनियो को उद्देश्यकर यानी उनके निमित्त से बनाये गये आहार को उद्दिष्ट आहार माना है । उसको ग्रहण करने वाले मुनि के उद्दिष्ट दोष लगता है | कार्तिकेयानुप्रेक्षा सस्कृत टीका के पृष्ठ २८५ मे उद्दिष्ट की व्याख्या ऐसी की है - "पात्र मुद्दिश्य निर्मापित उद्दिष्ट ।" पात्र के उद्देश्य से बनाया उद्दिष्ट है । इसका मतलब यह हुआ कि जिस आहार के बनाने में मुनि का मन, वचन, काय, कृत, कारित अनुमोदना सम्बन्धी चाहे कुछ भी लगाव न हो, उसको श्रावक ने अपनी ही इच्छा Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दिष्ट दोप मीमांसा ] [ ६४१ से मुनियो के निमित्त बनाया है तो ऐसा आहार भी उद्दिष्ट दोप से दूषित माना जाता है और वह मुनियो के लिए त्याज्य होता है । कोई कहे - सभी मुनि मन पर्यय ज्ञानी तो होते नही, उनको क्या मालूम कि दाना ने हमारे निमित्त से आहार बनाया है या नही बनाया है ? इसका उत्तर यह है कि एक यही नही दोप तो सभी प्राय मालूम होने पर ही लगते है। मालूम होने पर भी आहार को न त्यागे तभी दोप लगता है । यह नही कि आम लोगो के सामने यह स्पष्ट होते हुए भी कि - अमुक चौके मुनियों के निमित्त से ही बनते और खुद मुनि भी अपने मन मे ऐसा ही जान रहे है फिर भी वे मुनि उसमे जीमते रहे और ऊपर से यह कहते रहे कि हमको क्या पता कि ये हमारे लिए बनाते हैं तो यह तो अपने को निर्दोषी बताने का ढोग है । फल तो भावो का लगेगा । तथा अन्य निर्वाध हेतुओ से भोजन की उद्दिष्टता आदि स्पष्ट होते हुए भी नवधाभक्ति मे दाता के यह कह देने मात्र से कि - " भोजन शुद्ध है ।" उसे शुद्ध मान लेना यह भी दोपो के परिहार का मार्ग नही है । मूलाचार पिण्ड शुद्धि अधिकार की गाथा ८ मे लिखा है कि - " कोई श्रावक मुनि को देख कर उन्हे आहार देने के लिए अपने बनते हुए आहार मे और भी जल तन्दुल आदि डालकर आहार को बढालें तो वह अध्यधि नामक दोप होता है । इस कथन से और भी स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक मुनियों के उद्देश्य से आहारादि बनावे तो वह सदोप आहार है । जिसका परित्याग मुनियो को करना पडता है कोई कहेदोप तो यहाँ श्रावक ने किया, मुनि ने तो किया नही । इसका उत्तर यह है कि कोई भी करो आहार तो सदोष हो -- Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ [* जैन निवन्ध रत्नावला भाग २ गया । सदोष आहार को लेना मुनि के लिये निपिद्ध है। यदि ये दोप गृहस्थो तक ही सीमित होते तो एपणा समिति मे इन को टालने का उपदेश मुनियो को क्यो दिया जाता ? एक उद्दिष्ट ही नही वाकी के १५ उद्गम दोष भी तो श्रावक द्वारा लगते है तो क्या वे भी मुनियों के त्यागने योग्य नहीं है? अन्तराय भी तो परकृत होते है फिर उन्हे भी नहीं टालना चाहिए? किन्तु ऐसी बात नहीं, परकृत होने पर भी दोप तो उन्हे ही लगता है जो इनका उपभोग करते है। जिस तरह विप का उपभोग करने वाले को ही मरण-दुख उठाना पड़ता है उसके बनाने वाले को नही । दोपो का करना गृहस्थ के ऊपर है तो उन्हे टालकर चलना तो साधु के हाथ मे है अगर अपने अधिकार की बात मे भी साधु प्रमाद करता है तो उसका दण्ड साधु को ही भुगतना पडेगा । * पद्मपुराण पर्व ४ श्लोक ६१ आदि मे लिखा है कि भरतजी मुनि के अर्थ बताया भोजन लेकर समवशरण मे गये और वहां मुनियो को जीमने के लिये प्रार्थना करने लगे। ★ मुनिधर्म प्रदीप ( कुन्थुसागर कृत सस्कृत ग्रथ ) पृ० ४४-४५ मे एपणा समिति के वर्णन मे प० वर्धमानजी शास्त्री ने भावार्थ मे अर्ध कर्म और औद्देषिक दोष के लिए इस प्रकार लिखा है जो गृहस्थ अनेक जीवो की विराधना करने वाली जीविका करते हैं उनके यहाँ आहार लेना अध कर्म दोष है । यह दोष पिण्ड शुद्धि को सबसे अधिक नाश करने वाला है ।। किसी देवता वा किसी दीन-दरिद्री के लिए बनाया हुआ माहार ग्रहण करना वा देना भीदेशिक दोप है। (मूलाचार से विल्कुन विरुद्ध कथन हैं और आपत्तिजनक हैं ) Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दिष्ट दोष मीमांसा ] [ ६४३ तब भ० ऋषभदेव ने कहा " भरत । मुनि उनके लिये बनाया उद्दिष्ट भोजन कभी ग्रहण नही करते और न यह आहार-दान की रीति है कि तुम भोजन यहाँ लेकर आगये” इससे भी स्पष्ट है कि - मुनि के निमित्त बनाया भोजन उद्दिष्ट है । मूलाचार के उसी अधिकार मे लिखा और भी देखिये - जह मच्छयाण पयदे मदणुदये मच्छ्या हि मज्जति । हि मडगा एवं परट्ठकदे जदि विसुद्धो ॥६७॥ अर्थ - जिस प्रकार कोई मच्छियो को पकड़ने के लिये जल मे ऐसी चीज डाल देता है जिससे मच्छियाँ गाफिल हो जावे तो उस मद-जल से मच्छियाँ ही गाफिल होगी वहा रहने वाले मेढक नही । उसी तरह जो भोजन जिन गृहस्थ कुटुम्बियो के निमित्त से बना है उससे उन्ही को दोप लगता है। मुनि के निमित्त नही बनने से उसको लेने मे मुनि को कोई दोष नही लगता है । इस उदाहरण से भी ग्रन्थकार का आशय यही प्रगट होता है कि -मुनियों के निमित्त से आहार नही बनना चाहिये । अगर उनके निमित्त से बनेगा तो उसका दोप भी वह आहार ग्रहण करने पर इन मुनियो को ही लगेगा । जो आपतियाँ मुनियों के उद्देश्य को लेकर बनने वाले आहार मे उठती है वे ही सब आपत्तियाँ मुनियो के उद्देश्य से बनने वाले वसतिका - उपकरणादि मे भी उठती हैं इसलिये मनियो के लिये वसतिकादि भी उद्गमादि ४६ दोषो से रहित I } 1 I T I 1 Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ ६४४ ] ही ग्रहण योग्य मानी है । प्रमाण के लिये देखियेमूलाचार समयसाराधिकार मे लिखा है किविडं सेज्जं उवधि उग्गम उप्पायने सणादीहि । चारित्तरक्खणट्ठ सोधणयं होदि सुचरितं ॥१६॥ अर्थ - जो मुनि चारित्र रक्षा के लिये भिक्षा, वसतिका, उपकरणादि को उद्गम उत्पादन- एषणादि दोषो से शोधता हुआ उपभोग करता है वह उत्तम चरित्रवान् होता है । पिंडो वधि सेज्जाओ, अविसाधिय जो य भुजदे समणो । मूलट्ठाण पत्तो, भुवणेसु हवे समण पोल्लो ||२५|| तस्स न सुज्झइ चरिय, तव संजम णिच्चकाल परिहीण । आवासय ण सुज्झइ चिरपव्वइयो वि जइ होइ ||२६|| ( अर्थ - जो श्रमण, भिक्षा उपकरण वसतिकादि को बिना परिशुद्ध किये उपभोग करता है वह गार्हस्थ्य को प्राप्त होता है, और तुच्छ निदित श्रमण कहलाता है । उसके सब तप सयम आवश्यक कर्मादि सदा अशुद्ध ही रहते हैं चाहे चिर दीक्षित साधु ही क्यो न हो ) ऐसा ही भगवती आराधना की गाथा ११६७ मे लिखा है । १६ उद्गम, १६ उत्पादन, और १४ एपणा ये ४६ दोष है जो आहार सम्बन्धी माने जाते है । ये हो ४६ दोप वसतिका सम्वन्धी भी होते हैं । वे वसतिका में किस तरह घटित होते है ऐसा विवेचन भगवती आराधना की गाथा २३० की विजयादया टीका और आशाधरजी कृत मूलाराधना टीका इनदोनो टीकाओ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दिष्ट दोष मीमासा ] [ ६४५ मे किया है । भट्टारक शुभचन्द्र ने भी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा ४४६ की टीका मे वह प्रकरण विजयोदया टीका से उद्ध त किया है । उसका कुछ नमूना हम यहा हिन्दी मे लिख देते हैं - ___ "जो मुनि छह काय के जीवो की विराधना करके कारीगर से खुद वसतिका बनाता है या दूसरो के मारफत कारीगर से बनवाता है। वह अध.कर्म से दूपित वसतिका समझनी चाहिये। जितने दीन अनाथ व अन्य तापसी आयेगे अथवा निग्रंथ मुनि आयेंगे उन सब के लिये यह वसतिका होगी इस उद्देश्य से श्रावक द्वारा बनाई गई वसतिका उद्दिष्ट दोष युक्त होती है। अपने लिये घर बनाते समय "यह कोठरी साधुओ के लिये होगी ऐसे खयाल से श्रावक द्वारा बनवाई गई वसतिका अध्यधि दोषयुक्त होती है।" इत्यादि प० आशाधरजी ने भी सागारधर्मामृत अध्याय ५ श्लोक ४६ मे अतिथि के लिये आहार, औषध, आवास-पुस्तक-पीछी आदि को ४६ दोपो से रहित देने को कहा है। ___ आपने लिखा 'पीछी, कमडलु गरम पानी आदि वस्तुयें गृहस्थो के उपयोग मे नही आती वे तो मुनियो के निमित्त ही तैयार करनी पड़ती हैं।" इसका उत्तर यह है किपोछी कमडलु का उपयोग व्रती श्रावक प्रोषधोपवास मे करत है। और सचित्त त्यागी श्रावक गरम पानी को काम मे लेत है। गरम पानी तो गृहस्थ के यहा अन्य भी कई काम के वास्ते बनता रहता है । अत ये लोग इन वस्तुओ को अपने लिये य अन्य साधर्मी व्रर्ती श्रावको के काम मे आने के लिए तैयार रखते है उन्ही मे से मुनियो को दे देते है । सर्दी, गरमी, बरसार Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ मे प्रोपधोपवास और सामायिक करने वाले श्रावक आराम से व्रत पाल सके इस खयाल से गृहस्थ निर्जन एकात स्थान मे वसतिकाये भी बनवाते थे। उनमे मुनियो को ठहराते थे। वैसे मुनि तो शून्यागार, विमोचितावास स्मशान गिरिकदरादि मे भी निवास करते है। इस तरह इन सव के ग्रहण करने में भी मुनियो के उद्दिष्ट दोप आने की सम्भावना नही रहती है ।। ___ आपने लिखा-"कोनूर मे एक समय ७०० मुनि माये उन्हें बाधा होने पर राजा ने उसी समय ७०० गुफायें वनवाकर मुनियो की बाधा दूर की" । इस पर हम पूछना चाहते हैं किराजा भोज के पास क्या कोई जादू था जो उसने तत्काल एक दो नहीं किन्तु सात सौ गुफाये बनवा दी और अगर जादू नहीं था तो जब तक गुफायें बनने मे वर्ष महीने लगे तब तक क्या मुनि खडे ही रहे ? । इस तरह आपने अपने इस कथन से दिल मुनिचर्या (सिंह वृत्ति) का एक तरह से उपहास ही किया है । आगे आप फिर इसी तरह लिखते हैं कि- तेरदालग्राम मे हजारो मुनियो के निमित्त तत्काल हजारो वसतिकाये बनवाई गई थी आदि" उत्तर मे निवेदन है कि हमे यह नहीं देखना है कि अमुक ने यह किया, वह किया। हमको तो मुख्यत यह देखना है कि "शास्त्राज्ञा क्या है " क्योकि अविवेक-अज्ञान और शिथिलाचार कोई आज ही नया पैदा नहीं हुआ है यह तो अनादि से चल रहा है अत किसी हीन उदाहरण (नजीर) को विधेय नही माना जा सकता विधेय तो शास्त्र-समत क्रिया को ही माना जायगा। (३) आपने लिखा- श्रावक अपने लिये आहार बनाकर उसमे से मुनि को देवे यह भी उद्दिष्ट ही है। उद्दिष्ट का Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदिप्ट दोप मीमासा ] [ ६४७ अर्थ ही यह है कि जो किसी के भी उद्देश्य से बनाया जावे। समीक्षा धन्य है महाराज आपकी अद्भुत सूझ को । खेद है कि शास्त्रो मे आपकी सूझ से प्रतिकूल लिखा मिलता है । देखियेअमितगति श्रावकाचार का यह पद्य परिकल्प्य सविभागं स्व निमित्त कृताशनौषधा दीनाम् । भोक्तव्य सागाररतिथिवत पालिभि नित्यम् ॥४॥ [अध्या० ६] अर्थ-अतिथि सविभाग व्रत के पालन करने वाले गृहस्थ श्रावकोको अपने खुद के निमित्त बनाये हये भोजन औषधादि मे से सम्यक् विभाग को अतिथि के लिये देकर नित्य भोजन करना चाहिये । स्पष्टत' ऐसी ही पुरुषार्थ सिद्धपाय श्लो० १७४ मे है । एव इसी तरह का कथन प० आशाधरजी ने भी सागारधर्मामृत अध्याय ५ श्लोक ४१-५१ मे किया है। श्लोक-४१ की टीका मे "अतिथि सविभाग" वाश्य की व्याख्या करते हुये वे लिखते हैं कि"अतिथे सम्यक् निर्दोपो विभाग स्वार्थ कृत भक्ताद्य ण दानरूप ।" इसमे भी "दाता अपने खुद के लिये बनाये आहारादि मे से शुद्ध अश अतिथि को देवे।" ऐसा लिखा है। ___ अब चूडीवालजी बता कि हम आपकी बात माने या शास्त्रकारो की ? आपने अपने कथन की पुष्टि मे वीरनन्दि कृत आचारमार का यह प्रमाण दिया है - Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ ] ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ यत्स्वमुद्दिश्य निष्पन्नमन्नमुद्दिष्ट मुच्यते । अथवा यमि पाखडि दुबलानखिलानपि ॥२१॥ [ अध्या०८] अर्थ - यह खास मेरे ही लिये बनाया है ऐसा मुनि को मालम हो जाये तो वह अन्न उद्दिष्ट कहलाता है । अथवा सभी जैन साधु अन्य साधु व गरीबो के लिये बनाया अन्न भी उद्दिष्ट कहलाता है | इस श्लोक मे आये " यत्स्वमुद्दिश्य" का अर्थ आपने गृहस्थ के खुद के अर्थ बना आहार उद्दिष्ट है ऐसा किया है। ऐसा उत्सूत्र अर्थ करने वालो को हम क्या कहे ? हम तो इसे कलिकाल का ही प्रभाव समझते है । आपका किया अर्थ अन्य किसी भी शास्त्र से मिलता नही है और न किसी प्राचीन या अर्वाचीन ग्रन्थकार ने ही ऐसा अर्थ किया है क्योकि आचारसार ग्रन्थ मुनियो का है अत वहाँ 'स्व' का अर्थ मुनि से ही है । वही आगे के श्लोक न० २२ मे तो इसे बिल्कुल स्पष्ट ही कर दिया है देखिये " शुद्धमप्यन्न मात्मार्थं कृत सेव्य न सयते " ( शुद्ध भोजन भी अगर वह अपने लिए बनाया गया है तो मुनि उसका सेवन नही करे ) हमारे इसी अर्थ का समर्थन ऊपर लिखे अमितगति और आशाधर के उद्धरणो से भी होता है आप तो कहते है गृहस्य अपने निमित्त बना आहार मुनि को दे तो वह उद्दिष्ट दोष है। उधर शुभचन्द्र कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका ( पृ० २८५ ) मे लिखते हैं कि - ' पात्रमुद्देश्य निर्मार्पित. उद्दिष्ट ।" पात्र के निमित्त से बना आहार Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दिष्ट दोष मीमांसा ] [ ६४६ उद्दिष्ट है । इसका मतलब हुआ गृहस्थ अपने निमित्त बना आहार मुनि को दे तो उसमे उद्दिष्ट दोष नहीं है। कहिये चूडीवालजी आपका कथन प्रमाण माना जाये या शुभचन्द्र आदिका । राजा श्रेयास ने भगवान् को आहार दिया था उस वक्त मनिदान की प्रवृति न हुई थी। वह आहार श्रेयाम के कुटुम्ब के लिए ही बना बनाया तैयार रखा था उसे भगवान् ने लिया तो आपके सिद्धातानुसार क्या भगवान् ने उद्दिष्ट आहार लिया? आपने लिखा-"कुन्दकुन्द स्वामी की गिरनारजी की यात्रा मे सहस्रो श्रावक गाडी घोडे डेरा तम्बू सहित साथ मे गये थे रास्ते मे साधुओ को दान देने के लिए चौके भी बनते थे। उन चीको मे साधु आहार भी लेते थे।" ऐसा लिखकर आपने यह अभिप्राय प्रगट किया है कि यह सव आडम्बर मुनियो के निमित्त से ही हुआ था। उत्तर मे हमारा लिखना है कि-इस प्रकार का वर्णन कहा किसने कमा लिखा है ? सो तो आपने वताया नही बताते तो हम उसकी प्रामाणिकता पर विचार करते । ऐसा सुनते हैं कि-कुन्दकुन्दाचार्य सघ सहित गिरनारजी गए थे वहा श्वेताबरो से विवाद हुआ ( देखो वृन्दावनजी कृत-गुरुदेवस्तुति सघ सहित श्रीकुन्दकुन्दगुरु, वदन हैन गए गिरनार ।) उस विवाद मे उन्होने पाषाण की बनी सरस्वती की मूर्ति मे से ये शब्द बुलवाए कि-"सत्यमार्ग दिगम्बरो का है।" इस घटना का उल्लेख शुभचन्द्र ने भी पाडव पुराण में इस प्रकार किया है कुन्दुकुन्दो गणी येनोर्जयंत गिरिमस्तके । सोऽवताद् वादिता ब्राह्मी पाषाण घटिता कलौ ॥१४॥ [प्रथमपर्व] Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ अर्थ - जिन्होने इस पंचमकाल मे गिरनारपर्वत के शिखर पर पापाण निर्मित सरस्वती देवी को बुलवाया वे कुन्दकुन्दाचार्य मेरी रक्षा करें। शास्त्रो मे " चतुर्विधाना श्रमणाना गण सघ." ऋषिमुनि यति अनगार ऐसे चार प्रकार के मुनियो का समुदाय सघ कहलाता है - ऐसी सघ शब्द की व्याख्या मिलती है। आचार्य कुन्दकुन्द भी इन चार प्रकार के मुनि सघ के साथ गिरनारजी गए होगे । विष्णु कुमार मुनि की कथा से भी अकपनाचार्य सात सौ मुनियों के सघ सहित उज्जयिनी मे आए थे ऐसा तो लिखा है पर यह नही लिखा कि- हजारो श्रावक गाडी घोडे डेरा तम्बू उनके साथ थे । अन्य भी मुनिसघ की कथाओ मे ऐसा वर्णन नही आता है । - हा अलबत्ता ऐसा हो सकता है कि नन्दिसंघ की गुर्वावली मे कुन्दकुन्द की उपर्युक्त घटना का सम्बन्ध भट्टारक पद्मनन्दि के साथ लिखा है । कुन्दकुन्द का अपर नाम पद्मनन्दि भी है । अत भ्रम से पद्मनन्दि की घटना को कुन्दकुन्द के साथ लगादी है । पाषाण की बनी सरस्वती को बलात् बुलाने से ही वे भट्टारक पद्मनन्दी शायद सरस्वती गच्छ के कहलाते हैं । इस नामका गच्छ कुन्दकुन्द के वक्त नही था । इन पद्मनन्दी का समय उक्त गुर्वावली मे विक्रम स० १३८५ से १४५० लिखा है । चूकि ये भट्टारक थे इसलिए गाडी घोडे डेरा तम्बू आदि की सम्भावना भी इनके साथ तो हो सकती है । परन्तु कुन्दकुन्द के साथ नही | # * कुन्दकुन्दाचार्य के तो चारणऋद्धि थी जिससे वे विदेह क्षेत्र मे सीमधरस्वामी के समवशरण मे गये थे । अत. ऋद्धि के बल से ही वे Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५१ उद्दिष्ट दोष मीमांसा ] और यह कुन्दकुन्द का उदाहरण जो आपने दिया वह तो आपके मतव्य के विरुद्ध पडता है। वह इस तरह कि वे श्रावक अपने किसी काम के निमित्त साथ मे गए थे या सुनियो के काम के निमित्त ? दोनो ही हालतो मे उदिष्ट होता है। क्योकि आपने उद्दिष्टका लक्षण ही यह माना है कि-जो किसी के भी उद्देश्य से हो । अर्थात् आप एक तरफ तो यह कहते है कि-श्रावक अपने खुद के निमित्त बनावे तो वह भी उद्दिष्ट और मुनियो के निमित्त बनावे तो वह भी उद्दिष्ट । दूसरी तरफ कहते हैं-गरम पानी, वसतिका, पीछी, कमण्डलु आदि नो मनियो के उद्देश्य से ही बनते हैं। आपके इन परस्पर विरोधी वचनो से आप डावाडोल से नजर आते हैं। (शास्त्र-विरुद्ध और मन कल्पित अर्थ करने वालो की यही स्थिति होती है) जब श्रावक अपने निमित्त भी नहीं बनायेगा और मुनियो के निमित्त भी नही बनायेगा तो उसके यहा आहारादि सब विना उद्देश्य के ही बनते रहेगे क्या । "प्रयोजनमनुदिश्य मदो पि न प्रवर्तते ।" बिना प्रयोजन के तो मुर्ख भी काम नहीं करता है। श्रावक के घर में कोई सचित्त त्यागी होगा तो उसके उद्देश्य से उसके लायक आहार नही बनेगा क्या है और वह उसमे से मुनि को दान नहीं दे सकता है क्या? आपने लिखा - "आर्यिका के लिए साडी, क्षल्लको के लिये लगी आदि वस्त्रो की व्यवस्था श्रावक खास पात्रो के लिए क्षणभर मे गिरनारजी गये होगे । उन जैसे महर्षि के लिए यह कहनाकिगिरनार यात्रा में गाडी घोडे तम्बू डेरे आदि लेकर उनके साथ श्रावक गए थे, यह उन महर्षि का अवर्णवाद है। Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ ] ही करता है ।" उत्तर तो हम क्या करे ? यह सब दूषित मार्ग है । शास्त्रो मे तो इसे भी उद्दिष्ट टोप ही माना है । प्रमाण के लिये चारित्र - सार का यह उल्लेख देखिये ★ जैन निवन्ध रत्नावलो भाग २ "उद्दिष्ट विनिवृत्तः स्वोद्दिष्ट पिडोपधिशयन- वसनादविरत. " अर्थ - अपने निमित्त (पात्र के निमित्त) बनाए हुए भोजन, उपधि, शय्या वस्त्रादि का त्याग उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा है । इसका अर्थ यह नही कि इस काम में तो उद्दिष्ट दोप निश्चयत, आवेगा ही । यह काम भी उद्दिष्ट दोष से बचकर किया जा सकता है । गृहस्थ के यहा अपने खुद के उपभोग के लिए कपडो के थान पड़े रहते हैं उनमे से फाडकर साडी लगोट चादर दिये जाने मे कोई उद्दिष्ट दोष नही आता है | ये तो सिले हुए भी नही होते है जिससे कि उदिदष्टकी सम्भावना की जा सके । मतलब कि जो कोई उद्दिष्ट को दोष माने और उम दोप को बचाकर पात्र दान करना चाहे तो उसके लिए कई रास्ते निकल सकते हैं । इसमे असम्भव कुछ भी नही है । पात्रदान के अभिलाषी श्रावको को निर्दोष दान करने के साधन जुटाने मे कोई मुश्किल नही है। बशर्ते कि वे दोषो को टालना अनिवार्य समझ ले तो । प्रश्न--आज के वक्त मे कोई मुनि तीर्थयात्रा करने को निकले और रास्ते मे श्रावक लोग उनके साथ चलकर उनकी आहार की व्यवस्था न करे तो मुनियो की तीर्थयात्रा ही नही Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दिष्ट दोष मीमासा ] [ ६५३ हो सकती है। क्योकि रास्ते मे ऐसे भी स्थान भाते हैं जहाँ दूर-दूर तक जैनियो की बस्ती ही नही है ऐसे स्थानो मे माथ मे श्रावको के चौके न हो तो कैसे काम चल सकता है ? उत्तर-श्रावक लोग साथ मे जावे और मुनियो को आहार दान भी देवे तब भी उहिष्ट दोप से बचा जा सकता है। सिर्फ परिणामो के बदलने की जरूरत है। वध मोक्ष की आधारशिला परिणाम ही तो है। श्रावाक लोग इस खयाल को लेकर साथ मे क्यो जावे कि "मुनियो को तीर्थ तक सकुशल पहुँचाने के लिए रास्ते में उनके वास्ते आहार बनाकर उनको देते जायेगे।" किन्तु इस खयाल को लेकर साथ मे जाना चाहिए कि-हमको भी तीर्थ यात्रा करना है। यह अच्छा हुआ जो मुनियो का साथ मिला । मुनियो का धर्मोपदेश सुनने का यह एक उत्तम अवसर प्राप्त हुआ है। इन मुनियो के प्रसग से तीर्थयात्रा का सव समय धर्म ध्यान मे व्यतीत होगा। इस प्रकार के खयाल रखकर साथ जाने वाले श्रावको की अगर उत्कट इच्छा पात्रदान देने की भी हो तो उन्हे भी नित्य श्द्ध भोजन करने का नियम ले लेना चाहियेइमसे उन श्रावको को अपने खुद के लिए शुद्ध भोजन बनाना जरूरी हो जायेगा। वीरनन्दिआचायकृत "आचारसार" अन्य के अ० ५ श्लोक १०५ मे-अवती के यहाँ आहार के लिए मुनि न जावे (प्रती के यहाँ ही जावे) ऐसा बताया है ऐमा ही अन्य अनेक शास्त्रो मे (मूला चार प्रदीपादि मे) वताया है । व्रती के यहाँ आहारादि लेने पर अनेक उद्दिष्टादि दोषो से बचा जा सकता है। किन्तु आज प्राय अवती के यहां ही आहार होने से अनेक दोप उत्पन्न हो रहे हैं । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ ] * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ और वही भोजन मुनियों को भी दिया जा सकेगा । इस रीति से मुनियो के साथ जाने और उन्हे आहारदान देने मे कोई उद्दिष्ट दोष नही आ सकता है । जैन मुनियो को भक्ति पूर्वक निर्दोप दान देने से उत्तम भोग भूमि मिलती है । यह भोग भूमि इतनी सस्ती नहीं है जो किसी मनचले ने मुनि को कैसे भी आहार दे दिया और चट से भोग भूमि का टिकट मिल गया । इसके लिये भी दाता को त्याग और विवेक की बडी जरूरत है। आज तो इस दिशा मे गृहस्थो ने बडी उच्छङ्खलता धारण कर रखी है। आज तो बिना तीर्थयात्रा के ही मुनियो के साथ रसोई का सामान लिए मोटरे घूमती हैं। और धनी लोग ऐसो मे पैसा लगाने को ही बडा पुण्य समझ रहे हैं। बलिहारी है कलिकाल की। अब तो मुनि के निमित्त आरभ सारम्भ करना एक आम रिवाज सा हो गया है। मुनि भी उसका प्रतिवाद करते नहीं दिखाई देते हैं। (४) आपने लिखा-किन्ही खास मुनियो के उद्देश्य से न बनाकर मुनि सामान्य के उद्देश्य से बनाने मे उद्दिष्ट दोष नही आता । समीक्षा ऐसा कहना भी उचित नही है। क्योकि ऐसा कथन किसी आचार शास्त्र मे कही देखने मे नही आया है। बल्कि इसके विपरीत मूलाचार-पिण्ड शुद्धि अधिकार की गाथा ७ और उसको टीका मे स्पष्ट ऐसा लिखा है "ये केवल निग्रंथा. साधवः आगच्छति तेभ्यो सर्वेभ्यो दास्यामीत्युद्देश्य कृतमन्न औद्देशिक भवेत् ।" Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f ६५५ उद्दिष्ट दोष मीमासा ] इसमे लिखा है कि " जो केवल निग्रंथ जैनसाधु आयेंगे उन सबो के लिए देऊगा ऐसा उद्देश्य करके बनाया भोजन औद्देशिक कहलाता है ।" यहा किसी व्यक्ति मुनि के लिए नहीं लिखा है । किन्तु सभी मुनि मात्र के लिए बनाए भोजन को उद्दिष्ट बताया है । ऐसा ही उद्दिष्ट का लक्षण भगवती आराधना मे भी लिखा है । वह उद्धरण ऊपर हम वसतिका की चर्चा मे लिख आए है । इसी तरह हमने ऊपर आचारसार का पद्य उद्धृत किया है उसमे किसी एक खास मुनि के लिए और सभी मुनि मात्र के लिये दोनो ही के अर्थ बनाने को उद्दिष्ट बताया है । यदि मुनि सामान्य के निमित्त बनाये भोजनादि को अतिथि के लिए देना विधि मार्ग होता तो अमितगति और आशाधर यह नही लिखते कि - "दाता अपने लिए बनाए गए भोजनादि मे से अतिथि को दे ।" ये उद्धरण भी ऊपर लिखे जा चुके हैं । इससे यही फलितार्थं निकलता है कि- दाता चाहे किसी खास मुनि के निमित्त से बनावे या मुनि समुदाय के निमित्त से वनावे दोनो ही हालतो मे वह उद्दिष्ट है । एक बात यही भी समझने की है कि - जैन मुनियो की सिहवृत्ति होती है । (देखो मुलाचार अ० ६ गा० २६ सिंहा इव नरसिंहा ) उनको आहार की उतनी परवाह नही रहती है । जितनी कि अपने आचार नियमो की रक्षा की रहती है । इसलिए कोई श्रावक यह समझकर मुनियो को आहार देता हो कि- आहार सदोष हो तो हो हमारे दिये आहार से मुनि भू तो नही रहेगे । और उससे हम को भी पुण्यबन्ध होगा ही । Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ ऐसी समझ से जो सदोप आहार देते है वे परमार्थत मुनियो का अहित तो करते ही है साथ ही दानविधि की परिपाटी भी बिगाडते है । इस से पुण्य बन्ध भी उनको कैसे हो सकता है ? अगर आचार नियमो का उल्लङ्घन करके भी मुनियों की बाधा मेट देने मे ही पुण्योत्पादन होता हो तब तो शीतकाल मे शीत की बाधा मेटने के लिये उन्हे कम्बल भी ओढा देना चाहिए। यह ठीक है कि-मुनियों को आहारदि देना उनकी वैय्यावृत्य करना उनकी बाधा मेटना यह सब गृहम्यो का कर्तव्य है, गृहस्थो को करना चाहिए किन्तु करना चाहिए आचार शास्त्री मे लिखे दोपो को बचाकर । अन्त मे हमारा कहना है कि-उद्दिष्ट के विपय मे शास्त्रकारोका जो अभिमत है वह हमने इस लेख मे दिखाया है। उस अभिमत पर आप आपत्ति करते है कि उद्दिष्ट का ऐसा म्वरूप मानने से तो आहार-औषध-वसतिका आदि दानो की व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी । दान देना श्रावक का कर्तव्य है यह कहना ही निरर्थक हो जायेगा, मोक्षमार्ग ही वन्द हो जायगा।" आपकी इन आपत्तियो से यही समझा जायेगा कि आप मास्त्रकारो का खण्डन कर रहे है । खण्डन करते हुए आपने यही भी लिखा है कि-"उद्दिष्ट की ऐसी व्याख्या करना भारी अन्याय है, यह व्याख्या अनर्थकारी है। ऐसी व्याख्या करने वाले मोक्षमार्ग मे रोडा अटकाते है वे मोक्षमार्ग के घातक मिथ्या दृष्टि है।" आपके ये प्रहार भी सीधे शास्त्रकारो के ऊपर ही पडते है । जिनका आपको खयाल होना चाहिये । (१) शास्त्रो मे पाच प्रकार के भ्रष्ट मुनि बताये है Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दिष्ट दोष मीमांसा ] [ ६५७ १ अवसन्न, २ पाश्वस्थ, ३ कुशील, ४ सयुक्त और स्वच्छद (यथाछद)। देखो भगवती आराधना गाथा १६४६-५० इसकी विजयोदया टीका मे स्वच्छद मुनि के वर्णन मे लिखा है :उद्देशिकादि भोजनेऽदोष इत्यादि निरूपणापरा स्वच्छन्दा इत्युच्यते । अर्थात्-जो मुनि ऐसा कहते हैं कि- उद्दिष्टादि भोजन मे कोई दोष नही है वे भ्रष्ट स्वच्छन्द मुनि हैं। इस प्रमाण से उन सज्जनो को शिक्षा लेनी चाहिये जो उद्दिष्ट को कोई दोष ही नही बताने की स्वच्छन्दता करते हैं। (२) पुरुषार्थ सियुपाय मे अमृतचन्द्र सूरि ने भी अतिथि सविभाग के वर्णन मे स्पष्ट लिखा है-कृतमात्मार्थ मुनये ददाति भक्त मिति भावितस्त्याग. ॥१०४॥ अर्थात्श्रावक मुनि के लिये भोजन नही बनावे किन्त अपने लिए बनाये गये भोजन मे से ही मुनि को आहार दान दें। (३) श्री चूडीवालजी ने जो यह लिखा कि-"गिरनार यात्रा मे कुन्दकुन्दाचार्य के साथ गाडी घोडे डेरे तम्बू आदि लेकर श्रावकगण गये थे, जो मुनियो के निमित्त आहारादि बनाते थे। सो कुन्दकुन्दाचार्य के तो चारण ऋद्धि थी जिसके बल से वे विदेह क्षेत्र मे सीमधर स्वामी के समवशरण मे गये थे ऐसा शिलालेखादि मे लिखा है अत ऋद्धि के बल से ही वे क्षणभर मे गिरनारजी गये होगे। उनके निमित्त गाडी घोडे लेकर श्रावक संघ के उनके साथ जाने की बात लिखना उन महर्षि का अवर्णवाद है। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ (४) दोष के होने मे उतनी हानि नही है जितनी दोप को दोष ही नहीं मानने मे है। इससे भी ज्यादा हानि दोष को निर्दोष बताने के लिये शास्त्र विपर्यास करने में है किन्तु परिताप की बात है कि - यही सव कुप्रयास आज कुछ पडित आदि कर रहे हैं । लवण रहित - मनूणा आहार हो आजकल साधु लेते हैं यह मी स्पष्ट उद्दिष्ट दोष को लिए हुए है क्योंकि ऐसा आहार श्रावक मुनि के लिए ही बताते हैं श्रावक कोई लवणरहित माहार खाते नही । शास्त्रों में तो अनेक जगह लवणयुक्त आहार करना ही साधुओ के लिए बताया है लिखा है कि- लवणादि छहो रसो से युक्त आहार कर सकते हैं, तृष्णा परिषह मे बताया है कि-अधिक लवण आहार मे हो जाने से अगर प्यास भी बढे तो साधु को उसे सहन करना चाहिए यह तृष्णा परिषह तय है । अठपस्या घी भी उद्दिष्ट दोष का उत्पादक होगया है । उसीतरह शहरी सर्वत्र नल का पानी है, कुए असुविधा कठिनता लव्ध हैं अतः यह भी समस्याजनक होगया है । मर्यादित शुद्ध दूध दही भी इसी स्थिति को लिए हैं । (अठपहस्या घी, कुए का जल, शुद्ध दूध दही आदि का अगर श्रावक भी उपयोग करे तो फिर भी कुछ उद्दिष्ट दोष से बचना हो सकता है सिर्फ मुनि जितना ही प्रवन्ध करना तो मुनि निमित्त ही होने से उद्दिष्ट दूषित है । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पूज्यापज्य-विवेक और प्रतिष्ठापाठ जैन सदेश अंक (१ फरवरी ६८) में हमारा लेख न०३ "सम्पादक जैन-दर्शन और प्रतिष्ठापाठ" शीर्षक से प्रकाशित हुआ था उसका सम्पादक- जैन दर्शन ने फिर कोई जवाब नहीं दिया किन्तु अभी १३-५-६८ के जैन दर्शन मे एक लेख "क्या नमस्कार पूजा समान है" प्रकाशित हुआ है, जिस पर किसी का नाम नहीं दिया हुआ है फिर भी प्रकारान्तर से वह चांदमल जी चूडीवाल का सिद्ध है, लेख चाहे किसी का हो नीचे उस पर समीक्षा पूर्वक विचार किया जाता है - (१) लेख के प्रारम्भ मे ध्यर्थ की भूमिका बांधते हुए लिखा है , “नमस्कार पूजा मे बडा अन्तर है, नमस्कार पूज्य पुरुपो को ही किया जाता है किन्तु पूजा यथा योग्य हर एक की जड पदार्थ तक की भी की जा सकती है इसी से शास्त्रो मे यथायोग्य देवादिको की पूजा (सत्कार) करने का उल्लेख है। यथायोग्य सवका आदर सत्कार किये बिना लोक व्यवहार ही नष्ट हो जाता है । पूजा शब्द का अर्थ सत्कार करना है, सो सत्कार, नमस्कार पूर्वक तो पूज्य-पुरुषो का ही किया जाता है, अन्य का नमस्कार पूर्वक सत्कार नही किया जाता किन्तु बिना नमस्कार Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० ] [ * जैन निवन्ध रत्नावलो भाग २ के यथायोग्य सम्मान सवका किया जाता है यदि आज कोई वैद्य, डाक्टर, साधु सन्यासी, मुसलमान आदि है तो उनके पास हम जायेगे या उनको घर पर बुलायेंगे तो उनका यथा योग्य सन्मान भेट पूजा करनी पडेगी। यह लौकिक व्यवहारशिष्टाचार है। ऐसा नहीं करने से व्रतो मे और सम्यक्त्व मे अवश्य हानि हो जाती है इसका कारण यह है कि- लोविक व्यवहार का भी सम्बन्ध धर्म के साथ है।" समीक्षा नमस्कार भी पूजा-सत्कार की तरह सभी के लिये किया जाता है इसी से लोक मे नमस्ते, ढोक (पावाढोक प्रणाम बोलते और लिखते है अतः आपने जो नमस्कार केवल पूज्य (धार्मिक) पुरुपो के लिये ही बतायाहै वह गलत है । इसी तरह सत्कार (पूजा) पूर्वक नमस्कार भी लौकिक और धार्मिक (पूज्य) दोनों का होता है जैसे-डाक्टर साहिब को बैठने को कुर्सी देते है फीस भी देते हैं और साथ मे हाथ भी जोडते हैं फिर आप लौकिक मे नमस्कार पूर्वक सत्कार का निषेध कैसे करते हैं ? जिस तरह पूजा को लौकिक और धार्मिक दोनो में ग्रहण किया है उसी तरह नमस्कार तथा सत्कार पूर्वक नमस्कार भी लौकिक और पूज्य (धार्मिक) दोनो मे होता है। इससे सिद्ध होता है कि - आपकी परिभाषायें सब अधूरी और व्यर्थ है। रागी द्वषी देवों की पूजा करना आप लौकिक सत्कार बताते है तो फिर जैसा वैद्यादिक सत्कार मे आपने लिखा है उसी तरह इन रागी द्वषी देवों के यहां जाकर अथवा उन्हे अपने घरपर बुलाकर पूजा-सत्कार करिये किसी को कोई विशेष Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्या पूज्य - विवेक और प्रतिष्ठापाठ ] [ ६६१ आपत्ति नही किन्तु आप तो जिन मन्दिर मे और जिन बिम्ब प्रतिष्ठादि धर्मकार्यो मे इनकी पूजा करते हैं और वह भी अष्ट द्रव्यो से यह सब गलत पद्धति है और इसी से हमे विरोध है । देखिये स्वामी समन्तभद्र तो सम्यग्दृष्टि के लिये लौकिक धार्मिक सभी दृष्टि से कुदेव कुशास्त्र कुगुरु को नमस्कार और सत्कार तक का निषेध करते है । भयाशास्नेहलोमाच्च कुदेवागम लिगिनां । प्रणामं विनय चैव न कुर्यु. शुद्ध हृष्टयः ॥ ( अर्थ - भय, आशा, प्रेम, लोभ से भी कुदेव कुशास्त्रकुगुरु को नमस्कार-सत्कार सम्यग्दृष्टि न करें । ) लौकिक सत्कार-व्यवहार नही करने से लौकिक कार्यों मे हानि सम्भव है किन्तु आप व्रत और सम्यवत्व मे भी अवश्य हानि होना लिखते हैं यह अत्यन्त गलत है धार्मिक मर्यादा और लौकिक मर्यादा अलग-अलग है और इसी को लेकर आपने पूज्य और अपूज्य की भेदरेखा खीची है, किन्तु आपने फिर वापिस दोनो को एक कर गुड-गोबर कर दिया है । इतना ही नही, आपने लौकिक मर्यादा को धार्मिक मर्यादा से भी श्रेष्ठ बता दिया है इस तरह आपने धर्म पुरुषार्थ से काम पुरुषार्थ को श्रेष्ठ बताकर सारे जैन सिद्धात को ही उलट कर रख दिया है । ससार को बढाना ही आपकी दृष्टि मे सब कुछ है जबकि जैनाचार्य संसार से छुडाने का उपदेश करते हैं । लौकिक सत्कार-व्यवहार के बिना आप व्रत और सम्यक्त्व में अवश्य हानि बताते है तो फिर लौकिक व्यवहार को ही पूर्णतया पालन करते रहना चाहिए इसी से निश्रेयस की Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ ] [ ★ जेन निबन्ध रत्नावली भाग २ · प्राप्ति हो जायगी, धर्माचरण की क्या जरूरत ? फिर तो क्षल्लकादिक और महाव्रती मुनियो को भी आपके इस लोकव्यवहार-सत्कार का पालन करना चाहिए अन्यथा उनके व्रत और सम्यक्त्व मे अवश्य हानि हो जायगी । इस तरह गृहत्यागियो को भी आपने पुन ससार मे घसीटने का प्रयत्न किया है । आपके इस अपसिद्धात ने तीर्थंकरों तक को अपने लपेटे मे ले लिया है, क्योकि तीर्थंकर गृहस्थावस्था मे भी किसी को नमस्कार पूजा रूप लौकिक शिष्टाचार नही करते है । ऐसी हालत मे क्या उनके सम्यक्त्व और व्रत में हानि हो जायगी ? कदापि नही । इस तरह आपका कथन अत्यन्त अविचारित रम्य सिद्ध होता है । आपके महामान्य प० आशाधरजी ने व्रतो की बात तो जुदा दार्शनिक श्रावक तक के लिये रागद्वेषी शासनदेवादि की पूजा का सर्वथा निषेध किया है और आप इस शासन देव पूजालौकिक सत्कार के बिना श्रावक के व्रत व सम्यवत्व मे ही अवश्य हानि होना बताते हैं । किस का कथन ठीक है आप ही बताये ? शासन देव पूजा की धुन मे आपने कितना शास्त्र विरुद्ध लिख दिया है, इसका आपको कुछ ध्यान ही नही रहा है। 1 2 आपने किसी भी साधु-सन्यासी का सत्कार करना लौकिक व्यवहार मे लिखा है यह भी गलत और आपत्तिजनक है, क्योकि वे साधु सन्यासी किसी (अंजन धर्म-सम्प्रदाय के प्रति निधि होते है ) उनका पूजा सत्कार गुरुमूढ़ता में गर्भित होगा । आपने इस तरह लौकिक व्यवहार की धुन मे गुरुमूढता का भी पाषण कर दिया है । A Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्या पूज्य - विवेक और प्रतिष्ठापाठ ] [ ६६३ और इस गुरुमूढता को जो नही करता उसके व्रत और सम्यक्त्व में अवश्य हानि भी आपने बता दी हैं इससे " एक तो करेला कडवा और फिर नीम चढा" कहावत चरितार्थ हो गई है । इस तरह आपने' देवमूढता ( कुदेव पूजा ) के साथ-साथ गुरुमूढता ( कुगुरु पूजा ) रूप मिथ्यात्व को भी विधेय बता दिया है इसमें क्या हित है ? यह आपकी अद्भुत बुद्धि ही समझ सकती है हम तो इसे कलिकाल का प्रभाव ही समझते हैं । इस तरह सिद्ध होता है कि - पूजा का अर्थ सत्कार कर देने मात्र से रागी द्वेषी देवी और गुरुओ की पूजा विधेय नही हो सकती, क्योकि एक तो अथ बदला नही है सिर्फ उसमे लघुता हुई है दूसरा क्षेत्र और पूजा-पद्धति वही धार्मिक है उसमे किंचित भी अन्तर नही है पूज्यत्व बुद्धि उसी तरह है । अतः जब तक धार्मिक मर्यादा रहेगी तब तक आपत्ति भी बनी रहेगी । (२) आगे आप लिखते हैं "प० आशाधरजी आदि का प्रतिष्ठापाठ प्रमाणी भूत नही है तो उन पाठो से प्रतिष्ठा कराई हुई प्रतिमा प्रमाणिक (पूज्य ) है या नही ?" समीक्षा किसी भी प्रतिमा पर यह नही लिखा रहता कि - यह प्रतिमा अमुक प्रतिष्ठा -पाठ से प्रतिष्ठित है । अत दि० वीतराग मूर्ति प्रमाणिक और पूज्य है। कुछ मूर्तियो पर तो साल सम्वत् कुछ भी नहीं लिखी रहता, फिर भी वे दि० वीतराग होने से पूज्य हैं । जो कुछ गलत अशुद्ध क्रियाये और कुविधियाँ होती हैं उसका दोष प्रतिमा पर नहीं है । यह तो उन प्रतिष्ठाचार्थी और यजमान पर है और उसका कुफल भी उन्हे ही भोगना पड़ता है । ··· + 1 Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ चतु संष-संहितया, जैनं विम्व प्रतिष्ठितम् । न पूज्यः परसवस्थ, यतो न्यास- विपर्यय ॥ १४ ॥ आपने परम मान्य इद्रनन्दि के नीतिसार समुच्चय का जो यह श्लोक आपने अपने लेख मे दिया है, उस पर से हम पूछना चाहते हैं कि जिन मूर्तियो पर काष्ठासघ, माथुर सघ स्पष्ट लिखा है [देखो भट्टारक सम्प्रदाय ग्रन्थ ] वे मूर्तियाँ आपके लिये पूज्य और प्रमाणिक हैं या नही ? और माथुर सघादि के शास्त्र भी मान्य है या नही ? इद्रनन्दि के अनुसार तो ये अपूज्य और अमान्य ठहरते हैं, किन्तु काष्ठा सघादि की मूर्तियाँ ओर माथुर सघी (नि पिच्छक) अमितगति आचार्य के ग्रथ सभी जैन जनता पूजती और मानती आ रही है । अत अब आप ही बताये कौन ठीक है ? और क्यो ? (३) आगे आप फिर लिखते हैं- "रागी द्वेषियो की पूजा मुख की होती है अर्थात् तिलक कर देना, गले मे पुष्पमाला पहना देना, पान-सुपारी नारियल आदि से सत्कार कर देना । यह तो सरागियो की पूजा हैं, किन्तु वीतरागियो की पूजा मुख की नही होती, उनकी पूजा चरणो की ही होती है । उनके मुख का तो केवल दर्शन होता है । अत पूजा पूजा मे बडा अन्तर है । जिनके चरणो की पूजा नही होती केवल मुख की पूजा होती है, उनमे पूज्यत्व बुद्धि नही रहती, क्योकि वे सरागी है। इसलिए प्रतिष्ठा पाठो मे जहां रागोद्वेषी देवो की पूजा का विधान है वहाँ पर उनको सन्तुष्ट रखने का ही अभिप्राय है । इसलिए कि वे प्रतिष्ठा महोत्सव मे स्वयम् उत्पात न करे और दूसरे करते हो तो उन्हे रोक दें। ऐसा न करने पर विघ्न उपस्थित हो सकते है । अत. आशाधरजी ने भी नवग्रहादि की 1 Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यापूज्य-विवेक और प्रतिष्ठापाठ ] [ ६६५ पूजा का विधान मन्मान की दृष्टि से ही किया है, नमस्कारपूज्यत्व बुद्धि से नही। यदि उनका ऐसा उद्देश्य नहीं होता, वे उन देवो और सत्यासियो का सन्मान करने को क्यो लिखते? क्या वे उनको पूज्य समझते थे? कदापि नहीं । सागार धर्मामृत मे उन्होने साफ लिखा है कि दार्शनिक श्रावक आपत्काल मे भी शासन देवो की आराधना नही करता।" समीक्षा व्रत कथा कोश में मुकूट सप्तमी व्रत की विधि मे श्रुतसागर ने और व्रत तिथि निर्णय ग्रन्थ [पृ० १६०-२३१] मे सिंहनन्दि ने जिनप्रतिमा के गले मे फूलो की माला पहिनाना और प्रतिमा के सिर पर फूलो का मुकुट बाधना लिखा है। आप बताये यह सरागियो की पूजा है या वीतरागियो की ? ओर इनमे आपकी पूज्यत्व बुद्धि है या नही ? आपके कथन से श्रुतसागर-सिंहनन्दि का कथन विरुद्ध है अत बतायें किनका कथन ठीक है ? और क्यो ? दिग्पाल, नवग्रह, यक्षयक्षिणियाँ आदि जब आपके मत से भी स रागो है तो फिर इनकी मूर्तियां क्यो बनाई (प्रतिष्ठित कराई) जाती हैं और क्यो उनकी अष्ट द्रव्यो से पूजा की जाती है । क्या यह सरागी पूजा नही है ? और जब यह सरागी है तो अष्ट द्रव्यो से उनकी चरण पूजा भी क्यो की जाती है ? आप तो सरागियो की चरण-पूजा नही बताते मुख-पूजा बताते हैं तो फिर अष्ट द्रव्यो से इनकी मुख-पूजा क्यो नही करते ? क्यो चरण पूजा करते हैं ? इस तरह आपके कथन और क्रिया में परस्पर विरोध है आपने जो यह लिखा कि-"वीतरागियो Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ की मुखकी पूजा नही होती सिर्फ चरणो की ही होती है" यह भी गलत है, क्योकि भगवान् का सर्वांग ही पज्य होता है। इसी से उनके सर्वांग का अभिषेक होता है [सिर्फ चरणो का ही नहीं] तथा उनके मस्तक पर तीनछत्र और मस्तक के पीछे भामण्डल लगाये जाते है और उन पर चमर ढोले जाते हैं और उनके मुख से निकली वाणी जिन वाणी के रूप से पूजी जाती है अत वीतरागियो की सिर्फ चरण पूजा ही बताना अयुक्त है। इससे आपकी परिभाषाये सब बडी बेतुकी हैं यह सिद्ध होता है। आप विघ्न निवारणार्थ प्रतिष्ठा मे रागी द्वषी देवो की स्थापना करना बताते है, तो फिर पुलिस चौकीदारो आदि का इन्तजाम क्यो किया जाता है ? शायद इसलिए कि पुलिस आदि से होने वाली सुरक्षा जहां प्रत्यक्ष है, वहाँ शासन देवों की तो कोरी कल्पना है। कल्पना के पीछे कौन अपना घर लुटाये, इससे जाना जा सकताहै कि-शासनदेवो मे उनके भक्तो तक को कितना विश्वास है । किसी ने पूछ पकड़ा दी सिर्फ इसीलिए अब उसे छोड़ना नही चाहते अथवा अविवेक के प्रकट होने का डर हो, बाकी निस्सारता तो सबके हृदय मे स्पष्ट अकित है । शासनदेव आते हुए दिखते नही, आह्वानन पूजन करने पर भी उन्होने किसी प्रतिष्ठा मे आकर विघ्न निवारण किया हो, ऐसा कही देखा नहीं गया। कुछ वर्षों पहिले धुआ [ राजस्थान ) ग्राम मे पचकल्याणक प्रतिष्ठा मे ऐसा अग्निकाड हा कि देखते-देखते हजारो रुपयो के चन्दवे, डेरे तम्बू आदि जलकर राख हो गये किसी शासनदेव ने आकर कोई सहायता नहीं की जबकि वहां इन देवो की पूजा आराधना की गई थी। अत. सब प्रपचो को छोड़कर एकमात्र पच परमेष्ठी का ही आराधन करना चाहिये Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यापूज्य-विवेक और प्रतिष्ठापाठ ] [ ६६७ जिनके स्मरण मात्र से सभी विघ्न और सकट नष्ट हो जाते हैं। कहा भी है विघ्नौघा. प्रलयं यांति शाकिनी भूत पन्नगा । विष निविषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥ आशाधरजी ने भी अनगार धर्मामृत मे ऐसा ही कहा है, देखो अ०६ श्लोक २६ । अब रही शासनदेवो के स्वय विघ्न करने की बात, मो वे तो जिनधर्मी होते है, चे स्वय कैसे विघ्न कर सकते हैं ? अतः आपका ऐसा लिखना भी गलत ही है। आपने जो यह लिखा कि-"आशाधरजी ने रागी-द्वषी देवो और सन्यासियो (कुदेव कुगुरुओ) की पूजा सन्मानकी दृष्टि से बताईहै नमस्कार पूज्य दृष्टि से नही तो फिर आप प्रतिष्ठादि मे नवग्रहादि अरिष्ट निवारणार्थ सभी अजैन सम्प्रदायो के साधुओ को बुलाकर उनकी पूजा क्यो नहीं करते ? बतायें । आशाधर जी ने रागी-द्वषी देवो की पूजा के साथ उनके लिए नमस्कार भी लिखा है । देखो-प्रतिष्ठा सारोद्धार अध्याय ३ श्लोक ५६ और १६२ मे क्रमशः अच्युता देवी और वायु (दिग्पाल) को 'प्रणौमि' शब्द से नमस्कार करना लिखा है। अध्याय ४ श्लोक २१६ मे यक्षिणी को 'दुरित निवारिणी' लिखा है । अ० ६ श्लोक २५ के मन्त्र मे नन्दा रोहिणी देवियो के लिए 'नम ' (नमस्कार करना) लिखा है । इसी तरह अधो और उर्व दिशा के दिग्पाल नाग एव ब्रह्म के लिए भी 'नम.' लिखा है। __ अत. इससे इन रागी-द्वषी देवो के लिए स्पष्टत पूज्यत्व बुद्धि सिद्ध होती है और आपने जो वकालत की है, वह व्यर्थ है। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___६६८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ सचाई छिप नही सकती, बनावट के उसूलो से । कि खुशबू आ नही सक्ती , कभी कागज के फूलो से ॥ आशाधर जी ने अपने प्रतिष्ठा पाठ मे-नवग्रहो की पूजा का फल जैनेतर विविध साधुओ की पूजा के माध्यम से बताया है, सो नवग्रह और जैनेतर साघुओ मे परस्पर क्या तुक है ? नवग्रह सज्ञा भी जैनधर्म की नहीं। इस तरह आशाधर जी का यह सब कथन अजैन सम्प्रदाय का पोपक ओर कुगुरु पूजा रूप मिथ्यात्व को लिए हुए हैं। शायद आशाधरजी के ऐसे ही अयुक्त कथनो से ऊवकर नरेन्द्रसेन देव ने उन्हे अपने गच्छ से निकला था, जिसका उल्लेख 'भट्टारक सम्प्रदाय' मे दिया हुआ है उसका पृष्ठ २५२ तथा प्रस्तावना पृष्ठ २१ देखो। ऐसी हालत मे हमने जो एक प्रामाणिक प्रतिष्ठापाठ की आवश्यकता प्रकट की थी, वह समुचित है। आप लिखते है-शाधरजी ने दार्शनिक श्रावक के लिए शासन देव पजा का सर्वथा निषेध किया है, तो फिर जो प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठा कराते है उन्हें व्रत तो क्या अपने सम्यक्त्व तक को तिलाजलि देकर फिर प्रतिष्ठा करानी चाहिए क्या इसके लिए कोई तैयार है ? अगर किसी तरह कोई तैयार भी हो जाये तो ऐसे व्रत और सम्यक्त्व से हीन की प्रतिष्ठा कैसे मान्य होगी? स्वयं आशाधरजी ने प्रतिष्ठाचार्य के लिए शुद्ध सम्यक्त्वी होना आवश्यक बताया है और वे ही प्रतिष्ठा में रागी-द्वेषी देवो की पूजा भी लिखते जाते हैं और ऐसी पूजा अव्युत्पन्न दृष्टि करता है, ऐसा भी लिखते जाते है(देखो प्रतिष्ठा Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य पूज्य - विवेक और प्रतिष्ठापाठ ] [ ६६६ सारोद्धार अ० ३ श्लोक १२७, अ० ६ श्लोक ४३ ) इस प्रकार उनके कथन परस्पर विरुद्ध होगये हैं। शासन देव पूजा के उनके कथन की अयुक्तता निम्न प्रकार से भी सिद्ध होती है। F (१) उनसे पूर्व वसुनन्दि श्रावकाचार के प्रतिष्ठा प्रकरण में पञ्चपरमेष्ठी के सिवा किसी भी रागी द्वेषी देवो और कुगुरुओ का पूजा विधान नही है, अत आशाधर का कथन पूर्वाचार्यों से विरुद्ध है । (२) वसुनन्दि श्रावकाचार की गाथा ४०४ मे पूजक को अपने मे इन्द्र का सङ्कल्प करना बताया है, तदनुसार आशाधर ने भी मुख्य पूजक मे सोधर्मेन्द्र की स्थापना करना लिखा है । अब मुख्य पजक को सौधर्मेन्द्र मान लिया गया, तो वह यागमण्डल मे अपने से निम्न श्रेणी के देवो की स्थापना कर और ३२ इन्द्रो मे स्वयं अपनी भी स्थापना करके उनकी पूजा कैसे कर सकता है ? अत आशाधर का पञ्चपरमेष्ठी के सिवा अन्य कई देव देवियो की स्थापना कर उनकी पूजा सौधर्मेन्द्र से कराना असङ्गत है इस तरह इन्द्र प्रतिष्ठा का विधान स्वयं उनकी कलम से निरर्थक होकर मखौल सा हो गया है, जबकि वसुनन्दि का कथन सुसङ्गत है क्योकि उन्होने प्रतिष्ठा विधि मे रागी -द्वेषी देवो को स्थान नही दिया है। भगवान के पूजक मे इन्द्र की स्थापना से सिद्ध है कि पूज्य का स्थान इन्द्र से भी ऊँचा होना चाहिए और वे अहंतादि ही हो सकते हैं न कि व्यन्तरादि शासन देव जो इन्द्र से भी निम्न श्रेणी के है । इस पर भी सरागी देवो की पूजा के लिए जब कुछ सज्जनो का दुराग्रह देखा जाता है तो भद्रबाहु चरित ( रत्ननदि कृत ) के निम्नाकित श्लोक पर हमारी दृष्टि जाती है, उसमे Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ सम्राट् चन्द्रगुप्त के स्वप्नो पर भविष्यवाणी के रूप मे एक स्वप्न का कुफल इस प्रकार बताया है • भूतानां नर्तनं राजन्नद्राक्षी रद्भुतः ततः । नीच देव रतां मूढाः भविष्यन्तीह मानवा. ||३८|| [अ० २] ― अर्थ - हे राजन् जो तुमने भूतो का अद्भुत नृत्य उससे भविष्य मे लोग सरागी देवो की पूजा कर मूढ (४) पुनरपि आप लिखते है • ऐसा ही कथन आदि पुराण पर्व ४१ श्लोक ७१ मे भरत चक्रवर्ती के दु स्वप्नो का कुफल बताते हुए किया है । W देखा है बनेगे । 'आशाधर जी ने पूर्वाचार्यों के अनुसार ही कथन किया है देखो, आदिपुराण (पर्व २६ श्लोक १ तथा पर्व ३१ श्लोक ५३ ) मे लिखा है - चक्रवर्ती ने चक्ररत्न की अष्ट द्रव्यो से पूजा की । पर्व ३६ मे - बालक का जहाँ पर नाल गाढते हैं उस भूमि की पूजा करके अर्ध चढाना लिखा है ।' समीक्षा इन सब कथनो मे लौकिक दृष्टि से लौकिक कार्य सिद्धि के लिए लौकिक अङ्गो का पालन मात्र है, इनमे धार्मिक पूज्यता दृष्टि नही है । जबकि आशाधर जी की सरागी देवो की पूजा धार्मिक पूज्यता की दृष्टि से है, जैसाकि पूर्व मे हम बता चुके है । अत आपका यह सब लिखना भी गलत है । पर्व ३६ का जो आपने उल्लेख किया है, वह गलत है वह कथन पर्व ४० श्लोक १२१ से १२४ मे है । उसमे कही भी ' पूजा अर्ध शब्द नही Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्यापूज्य-विवेक और प्रतिष्ठापाठ ] [ ६७१ है आपने जो पजा करके अर्घ चढाना लिखा है यह गलत है। यह सब कथन अन्य जन्म सस्कार क्रिया का है, जो लौकिक क्रिया है, अत उसका प्रमाण व्यर्थ है। आगे आप लिखते है-(पर्व ४० मे) आदिपुराण मेइन्द्राय स्वाहा, ब्राह्मणाय स्वाहा देव ब्राह्मणाय स्वाहा इत्यादि मन्त्रो से आहुति देना लिखा है। समीक्षा सो यह भी लौकिक विवाह जात्त कर्मादि क्रियाओ के लिए है जो घर पर ही की जाती है। इसके सिवा इनमे कही भी नम. (नमस्कार) नही लिखाहै सिर्फ स्वाहा सन्मानस्मरणार्थ है । " ""इन्द्राय स्वाहा, ब्राह्मणाय स्वाहा' ठीक ऐसे के ऐसे वाक्य महापुराण मे किन्ही भी मन्त्रो मे नही दिये गये है, खैर | आशाधर जी ने प्रतिष्ठा ग्रन्थ मे जो २४ यक्षयक्षियो, नवग्रह, दश दिग्पाल क्षेत्रपाल, रोहिणी जयादि देवियो की स्थापना कर पूजा करना लिखा है, इसमे से एक मी नाम जिनसेन के महापुराण मे इन पीठिकादि मन्त्रो मे नही पाया जाता है, अत: आपका आदिपुराण का प्रमाण देना गलत है। (५) आगे आप फिर लिखते है .-कर्मकाड गाथा ६७१ मे बताया है कि चामुण्डराय ने चैत्यालय के सामने ऊचे स्तम्भ पर यक्ष की मूर्ति स्थापित की थी. " । मङ्गलाष्टक श्लोक ४ मे सरागी देव देवियो से मङ्गल कामना की गई है। समीक्षा गोम्मटसार की उक्त गाथा मे यह भी लिखा है कि-वह यक्ष की मूर्ति सिद्धो के चरणो मे शिर झुकाये हुए थी। इसी प्रकार जिन प्रतिमा के पार्श्वभाग मे चमर, लिये यक्ष-मूर्तियां होती हैं । ये सब सेवक रूप मे है, स्वयम् पूज्य नही है, पूज्य Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ तो जिन मूर्ति है इसी प्रकार कुछ मूर्तियो पर गजारूढ इन्द्र कलश करते हुए पुष्पवृष्टि करते देव गण, दुन्दुभि बजाते किन्नर आदि उत्कीर्ण रहते है, ये सब जिनेन्द्र की महत्ता के द्योतक हैं और सव भगवान् के किंकर है। अत. यक्षमूर्ति का आपका प्रमाण अकार्यकारी है। मगलाष्टक का कर्ता कौन है ? किस वक्त की यह रचना है बतावे ? जब तक यह प्रमाणित नहीं होता, तब तक इस पर कैसे विचार किया जा सकता है ? आशाघरादि की मान्यता वाले किसी व्यक्ति की यह आधुनिक रचना मालूम होती है। इस तरह आपका यह उल्लेख भी अकार्यकारी है। (३) अन्त मे आप लिखते है जब तक किसी प्राचीन भण्डार मे जयसेन प्रतिष्ठा पाठ की प्रति न मिल जाय तब तक इसकी प्रमाणिकता मे सन्देह ही है, क्योकि यह प्रतिष्ठा पाठ प्राचीन होता तो हर एक भण्डार मे मिलता। इसके विपय मे यह भी सुना जाता है कि किसी प्रतिष्ठा पाठ को हेरफेर कर के प० जवाहरलाल जी शास्त्री और झूथालालजी ने मिल कर इसे बनाया है और इसका नाम जयसेन प्रतिष्ठापाठ रख दिया है। समीक्षा किसी ग्रन्थ को एक ही प्रति मिलने से वह अप्रामाणिक और अप्राचीन है, यह अद्भुत न्याय है। बहुत से ऐसे ग्रथ है, जिनकी एकही प्रति उपलब्ध है, क्या इसीसे वे अप्रामाणिक और अप्राचीन (आधुनिक) हो जायेंगे ? कदापि नहीं। जिसे जरूरत हो उसे दूसरी प्रतियो की खोज करना चाहिये । खोज करने का Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७३ पज्या पूज्य - विवेक और प्रतिष्ठापाठ ] परिश्रम तो किया जावे नही और अपने प्रमाद एव अज्ञानता का दोष ग्रन्थ और ग्रन्थकार पर डाला जाषे यह ठीक नही । सम्पादक --- जैनदर्शन तो जयसेन प्रतिष्ठापाठ को १२वी शताब्दी का प्राचीन बताते है और आप आधुनिक । दोनो मे कौन ठीक है ? पहिले दोनो निर्णय करले । आपने जो यह लिखा है कि पं० जवाहरलालजी और झू घालालजी ने किसी प्रतिष्ठापाठ को हेर फेर कर इसे बनाया है तो इसके लिये आपके पास क्या प्रमाण है ? किस प्रतिष्ठापाठ को हेर फेर कर बनाया है ? उसका नाम बताये ? आप लोग कभी बाबा दुलीचन्दजी द्वारा काटछांट किया हुआ लिखते हैं कभी क्या लिखते हैं इस तरह आप इस सद्ग्रन्थ का लोप करना चाहते हैं यह सब आपका कुप्रयास है। इस पर तुलसीदासजी का एक दोहा याद आ जाता है हरित भूमि तृण सकुलित, समुझि पडे नहीं पथ | जिमि पाखडि विवाद ते. लुप्त होहि सद्ग्रन्थ || Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ५५ ļ 1 1 7. पं० जौहरीलालजी रचित विद्यमानविशति तीर्थकर पूजा पर विचार | छपी हुई यह पूजा दो तरह की हमारे समक्ष मौजूद हैं । एक के कर्ता टक निवासी कवि थानसिंहजी अजमेरा है । यह पूजा वि० स० १६३४ मे बनी है और दूसरी के कर्ता कवि जौहरीलालजी जयपुर वाले है । जिसको उन्होने विक्रम स० १६४६ मे बनाई है । दोनो ही पूजाये हिन्दी छन्दो मे लिखी गईं हैं और भादवा पषण मे अक्सर पढी जाती हैं । इनमे से थानसिंहजी कृत पूजा में तो विदेहक्षेत्रो के विद्यमान २० सीर्थंकरो के माता-पिता, चिह्न और जन्म नगरियो के नाम मात्र बताये हैं । किन्तु जौहरीलालजी ने स्वरचित पूजा मे ये सब बताते हुये जन्म नगरियों के नामों के साथ उनके स्थान भी लिखें हैं कि-अमुक नगरी, अमुक विदेह मे सीता या सीतोदा नदी के अमुक तट पर स्थित है । इन तीर्थंकरों का कोई विशेष चरित्र ग्रन्थ तो देखने मे नहीं आया है । फिर न जाने इन पूजा पाठोमे उनके माता-पिता चिह्न आदिको का कथन किस आधार पर किया गया है। खैर, बाधक प्रमाण मे वे भी सब माने जा सकते हैं । परन्तु जौहरी - Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प जोहरीलालजी रचित"""" ] [ ૬૭૬ लालजी ने जो अपनी पूजा में इनके जन्म नगरियो का स्थान निर्देश किया है वह तो त्रिलोकसार आदि मान्य ग्रन्थो मे वैसा लिखा नही मिलता है। जैसे कि उन्होने दूसरे युग्मन्धर तीर्थंकर की जन्मनगरी विजया को सुदर्शन मेरु के पूर्व विदेह मे सीता नदी के दक्षिण तट पर बताई है। किन्तु त्रिलोकसार मे उक्त विदेह की सीता नदी के दक्षिण तट पर वी ८ राजधानी नगरियो के जो नाम लिखे है उनमे विजया नाम की कोई नगरी ही नही है । जैसा कि उसकी निम्न गाथा से प्रगट है- '' ' 'सुसीमा । कुण्डला चेवापराजिद पहंकरा । का पद्मावदी चेव सुभा रयणसंचया ॥७१३॥ ' ' ' अर्थ - सुमीमा कुण्डला, अपराकिता, प्रभकरा, मका, पद्मावती, शुभा और रत्नसम्बया । ये ८ नगरियें पूर्व विदेह की सीता नदी के दक्षिण तटपर हैं। in इनमे विजया नाम की कोई नगरी नहीं है। यह नगरी तो त्रिलोकसार मे पश्चिम, विदेह की सीतादा नदी के उत्तर तटकी नगरियो मे बताई है। । । इसी तरह जोहरीलालजी ने पूजा में तीसरे बाहु तीर्थकर को जन्म नगरी का नाम सुसीमा लिखा है और उसे पश्चिम विदेह मे सीतोदा के दक्षिण तट पर बतायी है। यह नाम भी त्रिलोकसार मे उक्त स्थान की नगरियो मे नही है । जैसे अस्सपुरी सोहपुरी महापुरी तह य होदि बिजयपुरी । if अस्या बिरया चेवय असोगया वीदसोगा य ॥७१४॥ F- अर्थ अश्वपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका और वोत्तशोका । ये ८ नगरिये पश्चिम विदेह मे सीतोहानदी के दक्षिण तट पर जाननी । Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ ] ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ इनमे भी सुसीमाका नाम नहीहै । यह नाम तो पूर्व विदेह मे मीता के दक्षिण तट की नगरियो मे है देखो गाथा ७१३वीं । इसके अलावा जौहरीलालजी ने ५ वें सजातक तीर्थंकर की जन्म नगरी का नाम अलकापुरी लिखा है । सो भी ठीक नही है । यह नाम तो त्रिलोकसार मे किसी नगरी का हो नहीं है । तथा जम्बूद्वीप स्थित मेरु के अलावा शेप ४ मेरु सम्बन्धी विदेह के तीर्थंकरो की जन्म- नगरियो के नाम भी जम्बूद्वीप के विदेह के क्रमकी तरह ही होने चाहिये थे । परन्तु जौंहरीलाल जी की पूजा में वह क्रम नही है । इस प्रकार जौंहरीलालजी की पूजा का कथन त्रिलोकसार से भिन्न पडता है । इस विषय मे जैसा कथन त्रिलोकसार मे है वैसा ही त्रिलोकप्रज्ञप्ति, राजवार्तिक, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, हरिवंशपुराण, लोकविभाग और सिद्धांतसार ( नरेन्द्र सेन कृत) मे है । और वैसा ही लोकप्रकाश श्वेतांबर ग्रथ मे हैं । इस तरह जोहरीलालजी की पूजा का कथन आचार्यप्रणीत उक्त सभी ग्रंथो के अनुकूल नही है । यह पूजा विक्रम स० १६४६ मे बनी है और बहुत ही आधुनिक है । इस पूजा मे ऐसा विरुद्ध कथन क्यो किया गया ? इसका कारण ऐसा मालूम पडता है कि पूर्व पश्चिम विदेह मे सीता सीतोदा के उत्तर दक्षिण तटो पर जिस क्रम से शास्त्रो में नगरयो का स्थान निर्देश किया है उसी क्रम के साथ सीमन्धरादि तीर्थंकरों की जन्म नगरियों को पूजा मे बैठाया गया हैं, उसी से यह गड़बड़ी हुई है । Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० जोहरीलालजी रचित ......... [ ६७७ मेरु पूर्व मे सीता नदीका उत्तर दक्षिणतट और पश्चिम मेसीतोदा का दक्षिण-उत्तर तट ये कुछ ४ स्थान विदेह मे माने जाते हैं । इनका क्रम ऐसा है कि-सीता के उत्तर तट का पहिला स्थान, सीता के दक्षिण तट का दूसरा स्थान, सीतोदा के दक्षिण तट का तीसरा स्थान और सितोदा के उत्तर तट का चौथा स्थान ऐसे मेरु के प्रदिक्षणा रूप से चार स्थान शास्त्रो मे विदेह के माने हैं । प्रत्येक स्थान में इस वक्त एक-एक तीर्थंकर मौजूद हैं। प्रत्येक स्थान मे आठ-आठ देश होते हैं और प्रत्येक देश से एक-एक राजधानी नगरी होती है । प्रत्येक स्थान के ८ देशो की नगरियो मे से किसी एक नगरी मे विद्यमान वीस तीर्थंकरो मे से किसी एक तीर्थंकरो का जन्म हुआ है । १० जोहरीलालजी ने या उनसे पूर्व और किसी कवि ने यह समझ लिया है कि जिस क्रम से विदेह मे ४ स्थानो की स्थिति है उसी क्रम से उनमे सीमधरादि तीर्थंकरो की नाम क्रम से जन्म- नगरियें हुई हैं । पहिला तीर्थंकर प्रथम स्थान की नगरियो मे से किसी एक ( पुण्डरीकिणी मे) हुआ तो दूसरा तीर्थंकर दूसरे स्थान की नगरियो मे ओर तीसरा तीसरे स्थान की नगरियो मे व चौथा चौथे स्थान की नगरियो मे होना चाहिऐ। इसी समझ के अनुसार उन्होने पूजा मे दूसरे तीर्थंकर युग्मधर की जन्म नगरी विजया की दूसरे स्थान सीता के दक्षिण तट पर लिख दी है और तीसरे तीर्थंकर बाहू की जन्म-नगरी सुसीमा को तीसरे स्थान सीतोदा के दक्षिण तट पर लिखी है । इस प्रकार उन्होने ऐसा लिखकर तीर्थंकरो और उनकी जन्मनगरियो का स्थान क्रम तो बैठा दिया किन्तु ऐसा पूर्वाचार्यों के प्रतिकूल पड़ेगा यह ख्याल उनको नही आया । अयोध्या को Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ i उन्होने पूजा मे चौथे स्थान मे चौथे तीर्थंकर सुबाहु की जन्मनगरी बताई है । यहा नगरी मे ही गलती की गई है क्योकि यह नगरी सीतोदा के उत्तर तट पर है, इसी तट पर विजया नगरी है जो पूजा मे युग्मधर तीर्थंकर की पहिले जन्म नगरी 'बताई जा चुकी है। एक ही तटपर दो तीर्थंकरो की दो जन्म नगरिये नही हो सकती हैं। क्योकि विद्यमान २० तीथंकरो मे से किसी एक तीर्थंकर का जन्म एक ही तट पर हुआ करता है ऐसा शास्त्र नियम है । ६७८ ] 〃 1 पूजा मे जो नगरियो के नाम ( अयोध्या को छोडकर ) और उनके साथ तीर्थंकरो के नाम लिखे हैं, उनको हम यदि सही मानकर चले तो शास्त्रानुसार प्रथम सीमन्धर स्वामी की जन्म नगरी पुण्डरी किणी नगरी सीता के उत्तर तट पर है जिस 'पर तो कोई विवाद ही नही है । ' 1 If 1" 7 दूसरे युग्मंधर की जन्म नगरी विजया को सोतोदा के उत्तर तट पर माननी होगी। तीसरे बाहु की जन्म नगरी सुतीमा को सीता के दक्षिण तट पर माननी होगी और शेष बचा सीतोदा का दक्षिण तट उस पर चौथे - तीर्थंकर सुवाहु की जन्म नगरी (1 वीतशोका) मानती होगी । सरित् देश मे वीतशोका का उल्लेख उत्तरपुराण- पर्व ६२ श्लोक ३६ मे आचार्य गुणभद्र ने भी किया है। बाकी १६ तीर्थंकरों को जन्म नगरिय और उनके स्थान भी इसी तरह इसी क्रमसे व बाकी -४ मेरु 'सम्बन्धी विदेहो मे समझ लेना चाहिये। । + ? - 1. 1 | , J विनयविजय कृत सस्कृत के लोकप्रकाश नामक श्वेताबर ग्रन्थ के सर्ग १७ श्लोक ३५३६, ५२, ५५ मे सीमधरादि ४ - 1 L Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० जौहरीलालजी रचित ..... ] [ ६७६ तीर्थंकरो का स्थान क्रमश पुष्कलावती, बम, वत्स और नलिनावती (दिगम्बर ग्रन्थो मे इसकी जगह सरित् नाम लिखा मिलता है) इन ४ देशो में बताया है। इन्ही ४ देशो की ४ राजधानियो के नाम क्रमश पुण्डरीकिणी, विजया, सुसीमा और वीतशोका है जो इस लेख मे ऊपर लिखी गई है। ये चारो नगरियें और चारो देश पूर्व-पश्चिम विदेह मे सीता के उत्तरदक्षिण तट और सीतोदा के दक्षिण-उत्तर तट पर देवारण्य व मूतारण्य की वेदी के पास के स्थानो पर है। 1 इस प्रकार प० जौहरीलालजी कृत विद्यमानविंशति तीर्थकर पूजा मे तीर्थंकरो की जन्मनगरियो के जो स्थान बताये गये हैं वे स्थान चाहे जौहरीलालजी ने खुदने कल्पना करके लिखे हो या उनसे पूर्व के किसी अन्य ग्रन्थकार ने लिखे हो, यह तो निश्चित है कि उनका ऐसा लिखना पूर्वाचार्यों के ग्रन्थो से मेल नही खाता है। . अत वह उपेक्षा के योग्य है। हा अगर स्थान क्रमकी अपेक्षा से तीर्थंकरो के नामो का क्रम माना 'जावे यानी पहिले स्थान मे पहिला तीर्थंकर दूसरे स्थान में दूसरी तयंकर इस तरह सीमन्धरादिको का क्रमबार होना माना जावे तो पूजा मे लिखी उनकी जन्मनगरियों के नाम गलत मानने पडेंगे। चाहे पूजा मे लिखे नगरियो के स्थान गलत हो या नगरियो के नाम गलत हो, दोनो में एक गलत जरूर है। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. कसाय पाहुडं भाग १ २ २ ३ r 2০ ww si भारतवर्षीय दि० जैन संघ के वर्तमान में उपलब्ध प्रकाशन ५. ६ ७. " 17 "1 13 " 11 " " ६. १०. जैनधर्म ११ तत्वार्थ सूत्र १२. ईश्वर मीमांसा " "1 31 " 11 . " "1 १० ११ १२ १३ १४ १५. १६ प्रेस में • कार्यालय भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी मथुरा (उ० प्र०) २८१००४ फोन : ६७११ २४) २४) २४) ४०) ५५) ३० १६) १५) १३ सत्यार्थं दर्पण १४ विराग काव्य १५ रत्नावली भाग २ १६ चारूदत्त चारित्र १७ रिलीजन एण्ड पीस (अंग्रेजी) ७) नोट - ३०० ) के आर्डर पर २५ प्रतिशत छूट। पोस्टेज, पैकिंग व रेलभावा अतिरिक्त । १०) ३०) १) Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ ग्रन्थ-सशोधन पृष्ठ पक्ति अशुद्ध प्रारम्भ १७ मुक्ति का वेही भक्ति का से ही ५६ प्रारम्भ तक ६२६ ७१ २४ ७२ १७ ८४१ ८५ ५ ६१ २१ ६७ प्रारम्भ ६७ ६ १३ तको इस स श्वभ्रया जनमुनियो के केई विमेषय ६ अधक वा० सा० इस सब श्वभ्राया जैन मुनियो केई विषय मे अधिक चा० सा० १०० १०१ प्रारम्भ आपु आयु पचवर्ष ११६ १६ ११६ प्रारम्भ १२४ टिप्पणी १२५ १४ १२६ प्रारम्भ १२६ २ १२७७ पचवर्ष मूलाधार मूलाचार १० मेटने भेटने आपवासर माश्वास २ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ ] पृष्ठ पक्ति १३० १३० १३० १३१ १३२ ६ १३६ २३ ૧૪૩ प्रारम्भ १६० ११ १६६ १५ १६७ १६७ १६८ १७२ १७३ १७३ २१२ २१७ २५६ २७३ २७७ ३२० १६ १७ १८ al १५ १४ ३ mr ४ टिप्पण १ ७ १६ ६ टिप्पणी टिप्पणी [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अशुद्ध शुद्ध गृहस्थे के गृहस्थ के क्रियामो क्रियाकों स्यदत श्रवकी क दोघ जैनधर्म नहति भुजयेत् यदि देवी को जिनच द्रादि किन अकुरा इन्द्रनदी के भावसेन ने लेखों से भवन मे बनने का हितषिणा अन्न मे पउम चरिय तीनों पक्तिया 5 स्यादतः 1 श्रावकों क्व दोघं जैनधर्म मे नहनि भुजेच्चेत् आदि देवी जिनचन्द्रादि कि अंकुरा इन्द्रनंदी इनके जवसेन के लेखन से भव वन में बनाने का हितैषिणा अन्त मे पउम चरिय में X 5 अमर कोष कांड ३ वर्ग १ एलो० ३६ "नग्नो 11 मे नग्न वासा दिगबर आदमी के ३ नाम दिये हैं ये नाम बहरे गुगे तिरस्कृत Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-सशोधन ] [ ६८३ पृष्ठ पक्ति अशुद्ध शुद्ध आदमियो के नामो के बीच में दिये हैं। अगर अमरकोश के कर्ता दि० जैन होते तो वे नग्नता (दि० त्व) की ऐसी अवमानना कभी नहीं करते। भारतीय पात जल अमृत चन्द्र उससे वैज्ञामिको के ३२८ ३६४ ३६४ २३ २० २२ २३ अन्तिम भारतीत पातजाप अमतचन्द्र उसने वैज्ञानिक के देखिये ४०१ २४ कल १२२ ४३७ ४७५ ४७७ ४७७ ४७८ १० २३ २३ २ मधुर दोषेरपेन सम सम जन तियग ४७६१ ४७६ १२ काल मधुर दोषरपेत सम बन तिर्यग ससी तदनतर च साक्षर धर्मसग्रह सर्वम सर्वज्ञस्य स्यात गृहस्थावस्या ४८० सज्ञा तदनतर च आक्षर सग्रह सर्वत्र के सवज्ञस्य त्यात ग्रहस्थावस्था ४८० १८ ४८२ टिप्पणी ४८३ २ ४८३ ५ ४८४६ ४८४ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ } पृष्ठ पक्ति १८६ ૬૩ ५०३ ५०६ ५०७ 2019 १८ ५०७ २१ ५१७ प्रारम्भ ५१६ ५१७ ५१६ ५२० ५२२ ५२२ ५३६ ५४४ ५४६ ५६२ ५६२ ५६३ १७ २० १५. ४ "" ב १५ 3 २० ४ १४ ut क्ष् १४ २६ [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ शुद्ध प्रतिभाधारी अशुद्ध प्रतिमाधागे बघ तक पचास्तिकाय शात यथात्यय चले हुए सभी afsar समत जनपत्रो कवि के एक एक प्रति पत्रि समिदा चराम्यस्थ अकेलक गवेपक विशेष और वध तर्क पचास्तिकाय सान्त यथात्यन्त जले हुए कभी " खडिता' समत जैनपत्रो कवि ने एक प्रतिपत्ति समिदी वैराग्यस्य अचेलक गवेषक विशेष अन्तर Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ- सशोधन ] पृष्ठ पक्ति ११ १७ ४ ५६४ ५६७ ५६८ ५६८ ५८८ ५८६ २१ ५६६ १२ ५६६ १७ ६१६ २२ ६१६ २३ ६२१ अतिम ६५८ टिप्पण ३ " JD 17 ६६२ ६६४ ६६४ ६६८ ६६६ ६७७ २३ ३ "" ८ ६ ११ Ar 11 अन्तिम १२ १०-११ ૧૧ अशुद्ध किये हैं शुद्ध दिये हैं पजक तो करो का प्रस्तुत पालनमी चनाने चतुर्थ ६३ षष्ठ अनु सेउ तागर सत्यमजु ठोरते हैं रसाfre मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ मोक्षमार्ग प्रकाशकपृ १६४ बताते हैं बनाते हैं प्रत्युत X बनाये चतुर्थ भक्त षष्ठ भक्त उसे सागर सत्यभक्त जो ढोरते हैं रसा निव [ ६८५ तय है || अठपहस्या जय है | अठपह शहरो शहरो मे अठ पहस्या मठ पहर्या पाषण पोषण सष आपने निकला था सघ • अपने निकाला था पूजक तीर्थंकर का Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ ] पृष्ठ ६७६ ६८० ६८० पक्ति १७ १७ १८ [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ अशुद्ध शुद्ध दूसरा तर्थंकर दूसरा तीर्थंकर १५ रत्नावली १५ जैन निवन्ध रत्नावली चारित्र चरित्र नोट ये थोडी सी गलतिया जो सरसरी तौर पर नजर आई हैं सशोधन मे वे हो दी गई हैं । प्राकृत सस्कृतादि श्लोको की तथा अनुस्वार विसर्ग, मात्रा, रेफा, कॉमा फुलस्टॉप, आदि को अन्य वहुतसी गलतियां हैं सुज्ञ पाठक ध्यान से अध्ययन करें । - रतनलाल कटारिया - भारतीय श्रुति-दर्शन केन्द्र નચતુર हरिश चन्द्र ठोलिया 15, नवजीवन उपवन, मोती डूंगरी रोड, जयपुर - 4 Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलम् जयति त्रिजगद्व्याप्तमिध्यात्वध्वान्तनाशिन / श्रीवद्ध मानतीर्थेशा केवलज्ञानभास्करा // 1 // प्रमाणनय निर्णीत - वस्तुतत्त्वमबाधितम् / हितावह समीचीनं युक्तिमज्जिनशासने // 2 // कालदोषादभूत्तत्राऽपसिद्धांतविवेचना / युक्त्यागमविरुद्धा च विपरीतक्रियापरा ||3|| पक्षव्यामोह-सनस्ता केचित् पण्डितमानिन / यथामत्याहती वाणीमाहु श्रद्दधतेऽपि च // 4 // अनाकलव्य सत्यार्थ सन्मार्गस्थ विडबनाम् / कृत्वके जनजनता-मति विभ्रमयन्ति च // 5 // सत्यासत्य-विवेकायोद्धृत्य सूक्तिसुधारसम् / मिलापचन्द्र शास्त्राब्धेभ्यंतरच्चेत्किमद्भुतम् / / 6 / / सत्पथ-प्रचलमाय किंचना-लेखि विज्ञजनसम्मतं मतम् / तज्जिनेन्द्रनयनिणिनीषवो विज्ञगोष्ठिषु विमृश्य तन्वताम् / / 7 / / शास्त्रार्थ नवनीतेनाऽनेन नूताऽस्तु भारती / सतां दृग्ज्ञानचारित्रदायिनी वरदायिनी // 8 // मगल भगवान् वीरो, मंगल जिनभारती / मगल साधयो नित्य, मगल धामिका जना // 6 //