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भिक्खट्ठे विहरन्ता घरपरिवाडीए साहवो धीरा । ते सावयस्स भवण संपत्ता अर हदत्तस्स ॥१२॥ चितेइ अरहदत्तो वरिसाकाले कहि इमे समणा । हिण्डन्ति अणायारी नियय ठाणं पमोत्तणं ॥१३॥ ते सावएण साहू नवदिया गारवस्स दोसेणं । सुहाए तस्स णत्रर तत्तो पडिलाभिया सव्वे ||१७|| दाऊण धम्मलाभं ते जिणमवण कमेण सपत्ता । अभिवदिया जुईण ठाणनिवासीण समणेण ॥१८॥ ते तत्य जिणाययणे मुणिसुव्वयसामियस्स वरपडिम । अभिवदियो निविष्ठा जुइणसमय कया हारा ॥२०॥
क्या पउमचरिय दिगम्बर ग्रन्थ है ] |
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अर्थ - एक दिन वे सप्तर्षि चारण मुनि मध्याह्न कालमे आकाशमार्ग से चलते हुये 'साकेत' पुरीमे आये वहाँ भिक्षार्थ घूमते हुये अर्हदत्त श्रावकके घर गये । उन्हे देखकर अर्हदत्त विचारता है कि ये अनाचारी साधु नियतस्थानको छोडकर वर्षाकालमे कैसे विहार करते है । आखिर 'अर्हदत्त' ने उनकी वदना तक न की । तब केवल उसकी स्नुषा कहिये पुत्रवधूने उन मुनियोको पडगाहा । वे मुनि धर्मलाभ देकर पैदल जिनभवनको गये । तत्स्थाननिवासी द्यति नामके श्रमणने उनकी वदना की । वे मुनि वहा जिनालय मे मुनिसुव्रतस्वामीकी प्रतिमाको नमस्कार कर बैठ गये और वही 'द्य ति' श्रमणके समीप उन्होने आहार किया।
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इस कथन से यह साफ सिद्ध है कि अदत्तके घर मुनियो ने भोजन उदरस्थ किया नही । सिर्फ वहासे तो वे भोज्य सामग्री को अपने साथ ले आये थे । जिसे उन्होंने 'द्य ुति' श्रमण के उपाश्रयमे आके जीमा । दाताके घरसे भिक्षा प्राप्त कर उसे