________________
भगवान को दिव्यध्वनि ]
[ ४८१ इममे दिव्यध्वनि को एक योजन तक फैलने वाली सजल बादलो की गर्जना के समान बताई है।
जैनधर्म के प्राणस्वरूप श्री समंत भद्राचार्य भी ध्वनि को बगैर इच्छा पैदा होने वाली और सब जीवो की भाषा बन जाने रूप स्वाभाव वाली द्योतित करते हैं -
"काय वाक्य मनसां प्रवृत्तयो, नाभवस्तव मुनिश्चिकीर्षया" ॥७४॥ "तब वागमतं श्रीमत्सर्व, भाषा
स्वभावक" ॥६॥
[स्वयभूस्तोत्र] इस प्रकार एक नही सैकडों प्राचीन अर्वाचीन जैन शास्त्रों में दिव्यध्वनि का इसी तरह का वर्णन मिलता है। और तो क्या श्वेताबरों के प्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्र भी अपने अभिधान चिंतामणि कोश मे ऐसा ही कथन करते है
इसी कांड में आगे श्लोक ६५ से ७१ तक भगवान की वाणी के ५ अतिशय बतलाते हुये ३३ वा अतिशय "वर्ण पद वाक्य विविक्तता" नाम का कहा है। उसकी व्याख्या उन्होने "वर्णादीना विच्छिन्नत्व" की है । जिसका साफ अर्थ यह होता
___ +"दुभिरासन योजन घोषी" शांति पाठ के इस वाक्य मे भी ध्वमिका एक योजन तक जाना कहा है।
में प्रसिद्ध मक्तामर स्तोत्र मे भी कहा है--दिष्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्व भाषा स्वभाव परिणाम गुणं प्रयोज्य ।" "वाणी नृतियक्सुर लोक भाषा, सवरंदिनी योजनगामिनी च" ॥५६॥ प्रथम कोड"