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है कि भगवान की वाणी मे अक्षरादि नही होते ।
[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
अष्ट सहस्वी पृष्ठ ७३ में पर वादी ने शका की है कि "बिना इच्छा के बालना नहीं हो सकता" इसका उत्तर देते हुये निम्न कारिका वहा लिखा है
" ततश्चैतन्य करण पाटव, योरेव साधक तमत्वम् । "
इस मे बतलाया है कि बोलने मे इच्छा कारण नहीं पडती किन्तु चैतन्य कहिए ज्ञान और करण पाटव कहिये इन्द्रियो की वह योग्यता जिससे ध्वनि पैदा हो सके, ये दो ही बोलने में कारण हो सकते हैं । यहा जो करण पाटव बोलने मे कारण बतलाया है उसे लेकर कुछ महाशय कहते हैं कि अप्टसहस्त्री मे सर्वज्ञ के भी बोलने में सहायक तालु भोष्ठ ही बतलाये हैं इसलिये उनकी वाणी भी साक्षरी ही होती है और वे हमारी तुम्हारी तरह से ही वोलते है । किन्तु उनका कहना ठीक नहीं ह 1) क्योकि यहा ग्रथकार ने करण पाटव शब्द दिया है जो केवल तालु ओष्ट में ही सीमित नही है किन्तु उनसे शरीर के वे सभी अवयव लिये जा सकते है जिनसे ध्वनि पैदा हो सके । और वे अवयव हिले ही ऐसा भी करण पटव शब्द से सिद्ध नहीं हो सकता | किसी सातिशय पुरुष के उच्चारण स्थानो के बिना हिले ही ध्वनि पैदा हो सके तो वहा भी करण पाटव शब्द का प्रयोग किया जा सकता है । क्योकि करण पाटव का यह है कि शब्द पैदा करने योग्य इन्द्रियें । भगवान की चाहे तालु ओष्टादि के परिस्पद से पैदा नहीं होती है वह निकलती शरीर ही से है★ । और शरीर भी
अर्थ ही
ध्वनि
फिर भी इन्द्रीय है
प० मेघावीकृत सग्रह श्रावकाचार प्रथम परिच्छेद श्लोक १७