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भगवान की दिव्यध्वनि ]
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इसलिये उस मे कुछ करण पाटव शब्द बाधा नही देता। अगर विद्या नन्द को करण पाटव शब्द से सर्वत्र के तालु ओष्ठादिका प्रयोग ही अभीष्ठ होता तो वे श्लोक बातिक मे ऐसा नही लिखते"नहि सवज्ञस्य शब्दोच्चारणे रसन ब्यापारोस्ति ।
[द्वित्तीयोध्याय सूत्र १६ की व्याख्या] इसमे स्पष्ट ही यह लिखा है कि सर्वज्ञ के शब्द उच्चारण करने मे जिह्वा का प्रयोग नहीं होता है। अकलक देव ने राज बार्तिक मे भी इस स्थान मे ऐसा ही ध्वनित किया है।
वहुत से लोगो की ऐसी धारणा है कि भगवान् की निरक्षरी ध्वनि का अनेक भाषा रूप साक्षरी होना देव कृत है। यह धारणा ठीक नहीं है। आदि पुराण मे इसका निराकरण करते हुए आचार्य जिनसेन लिखते है कि "भगवान की ध्वनि को देव कृत कहना मिथ्या है। देव कृत मानने से आप्त का कुछ भी गुण नही रहता। और जबकि अनेक भाषा रूप हो जाने का उसका स्वभाव है तो साक्षरी भी वह हो ही जावेगी तब देव कृत मानने की जरूरत ही क्या है ? और यदि साक्षरी वह नहीं मानी जावेगी तो बिना अक्षरो के ससार मे अर्थ का बोध हो भी कैसे सकता है ? तथा बिना अर्थ बोध के देव भी
मे दिव्यध्वनि का वर्णन करते हुए उसे भगवान्के सब शरीरसे पैदा होने वाली लिखा है, किन्तु ऊपर दिये हुये आदि पुराण के उद्धरण मे उसका मुख से निकलना बताया है इम दोनो कथनो से यह फलितार्थ निकलता है कि ध्वनि सब शरीर से पैदा होकर मुखमार्ग से बाहर निकलती है।