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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
जयन्ति यस्याऽ बदतोऽपि भारती । विमूतय स्तीर्थकृतोऽप्यनी हितु ॥१६॥
[ममाधिशत के पूज्यपाद] अर्थ-तालु मोण्ठ से हम लोगो के समान न बोलते हुए भी व बिना किसी प्रकार की इच्छा रखते हुए भी जिस तीर्थकर की वाणीप विभूतिय जयवन्त हैं।
"मयोग केवलि दिव्यध्वने क्थ सत्यानुभयवाग्योगत्व मिति चेत तन्न तदुत्पत्तावनक्षरात्मकत्वेन श्रोतृ थोत्रप्रदेशप्राप्ति समय पर्यन्त गनुभय भापात्वमिद्धे । तदनतरच श्रोतृजनाभि प्रेतार्थेषु मशयादि निरा करणेन सम्यग्ज्ञान जनकत्वेन, सत्यवाग्योगत्वमिद्धश्च तस्यापि तदुभयत्व घटनात् ।"
यह गद्य गोम्मटसार सस्कृत टीका योग मार्गणाधिकार मे पाई जातीहं । इसमे 'सयोग केवली की दिव्यध्वनिके सत्य और अनुभय वाक योग कैसे है।" इस प्रश्न का उत्तर देते हुये बताया है कि वह वाणी अनक्षरात्मक उत्पन्न होती है और श्रोताओ के कान तक पहुँचने पर्यन्त अनक्षरात्मक ही रहती है । तव तक वह अनुभय भापा कहलाती है। फिर श्रोताओ के कान मे जाकर आक्षर हो जाती है जिस से श्रोताजनो के मशयादि दूर होकर सम्यग्ज्ञान पैदा हो जाता है, तब वह सत्य भाषा कहलाती है। इस तरह दिव्यध्वनि के सत्य और अनुभय दोनो वाग्योग घटित होते हैं। ध्वनिरपि योजनमेकं मजायते, श्रोत्रहृदयहारि गभीरः। ससलिल जलघर पटल ध्वनित, मिव प्रविततान्तरा शावलयम् ।
[दश भक्ति पाठातर्गत नदीश्वर भक्ति