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सिद्धान्ताध्ययन पर विचार |
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तदन्तर अपने साधर्मी पुरुषो के साथ चौदह पूर्वो का अर्थ सुनने वाले श्रावक के पुण्य बढाने वाली पुण्य यज्ञे नाम की छुट्टी क्रिया होती है ।
यह तो हुआ श्रावको के पढने सुनने का अधिकार | अव आकाओ का अधिकार भी देख लीजिये - मूलाचार के मचाचाराधिकार मे बट्टकेरस्वामी ने लिखा है कि----
तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्थवग्गस्स । एत्तो अण्णो गयो कप्पदि पढिदु असझाए ॥८१॥
अर्थ -- वे चार प्रकार के अग, पर्व, वस्तु, प्राभृत, रूफ सूत्र, कालशद्धि आदि के बिना स्यमियों को तथा आर्यकाओ को नहीं पढने चाहिये । इनसे अन्य ग्रथ कालशद्धि आदि के न होने पर भी पढने योग्य माने गये हैं । इसमें आर्यकाओ को कालशुद्धि आदि के होते हुये अग पूर्वादि ग्रन्थो के पढने की आज्ञा दी गई है । हरिवंश पुराण १२ वा सर्ग मे भी लिखा है कि- जयकुमार द्वादशागधारी भगवान का गणधर हुआ और सुलोचना ग्यारह अंग को धारिका आर्यिका हुई ।१५२।।
इन उल्लेखो से उन लोगो का भी समाधान होजाता है जो वर्कों के लिये प्रचलित सिद्धात ग्रन्थो के पढने सुनने का तो अधिकार बताते हैं किंतु गणधर कथित अंग पूर्वदि ग्रन्थो के अध्ययन का निषेध करते है, उन्हें अब अपनी उस मिथ्या धारणा को निकाल देना चाहिये । कहते है कि नेमिचन्द्राचार्य ने चामुण्डराय के सामने सूत्रपाठ करना बन्द कर दिया था और पूछने पर कहा था कि श्रावको को सुनने का अधिकार नही है इत्यादि कथा काल्पनिक मालूम होती हैं । जहाँ X श्लोक और