________________
1३० ]
[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
!! मिथ्या परम्परा चल पडी । आज भी कुछ पंडित कहलाने वाले ऐसे हैं जो कभी-कभी "श्रावको को सिद्धान्ताध्ययन की अधिकार नहीं है " इस मिथ्या धारणा को प्रगट किया करते हैं । प० उदयलालर्जी कासलीवालने तो संशयतिमिरप्रदीप' नामक ' पुस्तक मे इस भ्रमपूर्ण मान्यता को दिलखोल पुष्टि की है और एक मात्र अवनति का मूल कारण ही श्रावको का सिद्धांताध्ययन बताया है। उसमे अध्ययन तो दूर रहा आर्यका और गृहस्थेक सामने सिद्धात थो का वांचना ही अयोग्य ठहराया गया है ।' बलिहारी है ऐसी समझ को आश्चर्य इस बात का है कि जिसका विधान किसी भी आर्ष ग्रथ मे नहीं है उसे कुछ मामूली ग्रंथो मे देखकर ही ये लोग कैसे प्रमाण कर लेते हैं ? सिद्धांता ध्ययन का निषेध हमें तो किसी ऋषिप्रणीत ग्रथ मे लिखा नहीं मिलता बल्कि विधान ही पाया जाता है। नीचे हम ग्रथो के कतिपय उद्धरणो से यही सिद्ध करते है
भगवज्विन सेनाचार्य आदिपुर ण पर्व ३६ में श्रावकों के ये क्रियाको का वर्णन करते हुये कहते हैं कि
-
पूजाराध्याख्यां ख्याता क्रियास्य स्वदतः परा पूजोपवास संपत्या श्रश्वतोऽगार्य संग्रहम् ॥४६ ततोऽन्या पुण्ययज्ञाख्या क्रिया पुण्यानुवधिनों। श्रृण्वत पूर्वविद्यानामर्थं सब्रह्मचारिण ५०॥
अर्थ -- पूजा और उपवासरूप संपत्ति को धारणकर ग्यारह अगो के अर्थ समूह को सुनने वाले श्री के पुजारा नाम पाचवी प्रसिद्ध क्रिया होती है ।